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________________ अष्टम अध्ययन : सूत्र ६८-७२ १९० नायाधम्मकहाओ है। विजय मुहूर्त है। अत: (आपके प्रस्थान के लिए) यह देशकाल सर्वथा उचित है। ६९. ताओ पुस्समाणवेणं वक्कमुदाहिए हट्ठतुट्ठा कण्णधार-कुच्छि- धार-गन्भिज्जसंजत्ता-नावावाणियगा वावारिंसु, तं नावं पुण्णुच्छंगं पुण्णमुहिं बंधणेहितो मुंचंति॥ ६९, मंगल-पाठक द्वारा यह बात कहते ही हृष्ट तुष्ट हुए कर्णधार (नौ चालक) कुक्षिधार (नौका के पार्श्व भाग में नियुक्त पतवार चालक) कर्मचारी और सांयात्रिक पोतवणिक् अपने-अपने कार्यों में व्याप्त हो गए। जिसका मध्य भाग और अग्रिम भाग विक्रेय वस्तुओं और मांगलिक वस्तुओं से भरा हुआ था, उस नौका को चालकों ने बन्धन मुक्त किया। ७०. तए णं सा नावा विमुक्कबंधणा पवणबल-समाहया ऊसियसिया विततपक्खा इव गरुलजुवई गंगासलिल-तिक्ख-सोयवेगेहिं संखुब्भमाणी-संखुन्भमाणी उम्मी-तरंग-मालासहस्साइं समइच्छमाणी- समइच्छमाणी कइवएहिं अहोरत्तेहिं लवणसमुदं अणेगाइं जोयणसयाई ओगाढा ।। ७०. बन्धन-मुक्त वायु बल प्रेरित वह नौका उन्नतपट के कारण ऐसी प्रतीत होती थी, मानो अपने पंख फैलाए कोई गरुड़ युवती खड़ी हो।" वह गंगा-सलिल की तीक्ष्ण धाराओं के वेग से पुन: पुन: संक्षुब्ध होती (टकराती) हुई, हजारों-हजारों उर्मियों और तरंगों को चीरती हुई कतिपय दिनों में लवण-समुद्र में अनेक शत-योजन तक पहुंच गयी। ७१. तए णं तेसिं अरहण्णगपामोक्खाणं संजत्ता-नावावाणियगाणं लवणसमुदं अणेगाइं जोयणसयाई ओगाढाणं समाणाणं बहूई उप्पाइयसयाई पाउन्भूयाई, तं जहा--अकाले गज्जिए अकाले विज्जुए अकाले थणियसद्दे अब्भिक्खणं-अभिक्खणं आगासे देवयाओ नचंति ।। ७१. जब वे अर्हन्नक प्रमुख सांयात्रिक पोतवणिक, लवण-समुद्र में अनेक शत-योजन तक पहुंच गये, तब उनके समक्ष अनेक शत-उत्पात प्रादुर्भूत हुए, जैसे-अकाल में गर्जन, अकाल विद्युत, अकाल में मेघ गंभीर ध्वनि होती और बार-बार आकाश में देव नर्तन करते। ७२. तएणं ते अरहण्णगवज्जा संजत्ता-नावावाणियगा एगचणं महं तालपिसायं पासंति-तालजंघं दिवंगयाहिं बाहाहिं फुट्टसिरं भमर-निगर-वरमासरासि-महिसकालगंभरिय-मेहवण्णं सुप्पणहं फाल-सरिस-जीह लंबोद्वंधवलवट्ट-असिलिट्ठ-तिक्ख-थिर-पीणकुडिल-दाढोवगूढवयणं विकोसिय-धारासिजुयल-समसरिसतणुय-चंचल-गलंतरसलोल-चवल-फुरुफुरेत-निल्लालियग्गजीहं अवयत्थिय-महल्ल-विगय-बीभच्छ-लालपगलंत-रत्ततालुयं हिंगुलय-सगब्भ-कंदरबिलंव अंजणगिरिस्स अग्गिज्जालुग्गिलंतक्यणं आऊसिय-अक्खचम्म-उइट्ठगंडदेसं चीण-चिमिढ-वंक-भग्गनासं रोसागय-धमधमेंत-मास्य-निठुर-खर-फरुसझुसिरं ओभुग्गनासियपुडं घाहुब्भड-रइय-भीसणमुहं उद्धमुहकण्ण-सक्कुलियमहंतविगय-लोम-संखालग-लंबंत-चलियकण्णं पिंगल-दिप्पंतलोयणं भिउडि-तडिनिडालं नरसिरमाल-परिणद्धचिंधं विचित्तगोणससुबद्धपरिकर अवहोलंत-फुप्फुयायंत-सप्प-विच्छुय-गोधुदुरनउल-सरड-विरइय-विचित्तक्यच्छमालियागंभोगकूर-कण्हसप्पधमधमेंत-लंबंतकण्णपूरं मज्जार-सियाल-लइयखधं दित्त-घुघुयंतघूय-कय-भुंभरसिरं, घंटारवेणंभीम-भयंकरं कायर-जणहिययफोडणं दित्तं अट्टहासं विणिम्मुयंत, वसा-रुहिर-पूय-मंस-मलमलिण-पोच्चडत[उत्तासणयं विसालवच्छं पेच्छंता भिन्ननखमुह-नयण-कण्णं वरवग्घ-चित्त-कत्ती-णियंसणं सरस-रुहिर ७२. अर्हन्नक को छोड़ सभी सांयात्रिक पोत-वणिकों ने एक विशालकाय ताल पिशाच को देखा। उसकी जंघाएं ताड़ वृक्ष जैसी लम्बी थी, भुजाएं आकाश को छू रही थी, सिर के बाल बिखरे हुए थे। उसका रंग भौंरों का समूह, प्रवरमाष-राशि और भैंसे के समान काला तथा पानी से भरे बादलों जैसा था। उसके नख छाज जैसे, जीभ लोहे के फाल जैसी और होठ लम्बे थे। उसका मुंह सफेद, गोल, एक दूसरी से अलग-अलग तीखी, स्थिर, मोटी, और टेढ़ी-मेढ़ी दाढ़ाओं से भरा हुआ था। उसकी पतली, चंचल, लालीयुक्त रसलोलुप प्रकम्पित और लपलपाती हुई दो जिह्वाएं कोप से बाहर निकली हुई तीक्ष्ण धार वाली दो तलवारों जैसी लगती थी। उसका तालु मोटा, विकृत, बीभत्स, लारें टपकाता, टेढ़ा-मेढ़ा और लाल था। अग्नि ज्वाला उगलता उसका लाल मुख अञ्जनगिरि के हिंगुल भरे कन्दरा विवर जैसा लगता था। उसके गण्डस्थल सिकुड़ी हुई पखाल जैसे चिपके हुए थे। उसकी नासिका छोटी, चिपटी, टेढ़ी और भान थी तथा रोष से धमधमायमान होने के कारण उसका नासा-विवर निष्ठुर, खर और परुष हवा छोड़ रहा था। नासा-पुट अवभान था। मस्तक के अवयवों की विकराल रचना के कारण उसका मुख डरावना लग रहा था। उसकी कर्णपाली ऊपर उठी हुई थी। कनपटी पर, लम्बे और विकृत रोम उगे हुए थे और उसके कान लटक रहे थे, हिल रहे थे। उसकी आंखें पिंगल और प्रदीप्त थी। ललाट पर भृकुटि रूप बिजली चमक रही थी। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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