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पांचवां अध्ययन : सूत्र ९८-१०५
१५२ भो देवाणुप्पिया! सेलगस्स रणो महत्थं महग्धं महरिहं विउलं निक्खमणाभिसेयं (करेह?) जहेव मेहस्स तहेव नवरं--पउमावती देवी अग्गकेसे पडिच्छइ, सच्चेव पडिग्गहं गहाय सीयं दुरुहइ। अवसेसं तहेव जाव।
नायाधम्मकहाओ शीघ्र ही राजा शैलक का महान अर्थवान, महामूल्य और महान अर्हता वाला निष्क्रमण अभिषेक करो। मेघ की भांति वक्तव्यता। इतना विशेष है--पद्मावती देवी ने अग्र-केशों को ग्रहण किया। उसी पात्र को ग्रहण कर शिविका पर आरूढ़ हुई। अवशेष वर्णन पूर्ववत्।
सेलगस्स पव्वज्जा-पदं ९९. तए णं से सेलगे (पंचहिं मंतिसएहिं सद्धिं?) सयमेव पंचमुट्ठियं
लोयं करेइ, करेत्ता जेणामेव सुए तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छिता सुर्य अणगारं तिक्खुतो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमंसइ जाव पव्वइए।
शैलक की प्रव्रज्या-पद ९९. शैलक ने (पांच सौ मंत्रियों के साथ-साथ?) स्वयमेव पंच-मौष्टिक
लुञ्चन किया। लुञ्चन कर जहाँ शुक था, वहाँ आया। वहाँ आकर शुक अनगार को दांयी ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा कर वन्दना, नमस्कार किया, यावत् वह प्रव्रजित हो गया।
सेलगस्स अणगारचरिया-पदं १००. तए णं से सेलए अणगारे जाए जाव कम्मनिग्घायणट्ठाए
एवं च णं विहरइ।
शैलक की अनगार-चर्या-पद १००. अब शैलक अनगार बन गया यावत् वह इस प्रकार कर्म-निर्घातन के
लिए विहार करने लगा।
१०१. तए णं से सेलए सुयस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाई
एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, अहिज्जित्ता बहूहिं चउत्थ-छट्टट्ठमदसम-दुवालसेहिं मासद्धमासखमणेहिं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।
१०१. शैलक ने शुक के तथारूप स्थविरों के पास सामायिक आदि ग्यारह
अंगों का अध्ययन किया। अध्ययन कर वह बहुत सारे चतुर्थभक्त, षष्ठभक्त, अष्टमभक्त, दशमभक्त, द्वादशभक्त तथा मासिक और पाक्षिक तप से स्वयं को भावित करता हुआ विहार करने लगा।
सुयस्स परिनिव्वाण-पदं १०२. तए णं से सुए सेलगस्स अणगारस्स ताई पंथगपामोक्खाई पंच
अणगारसयाई सीसत्ताए वियरइ।
शुक का परिनिर्वाण पद १०२. शुक ने शैलक अनगार को पंथक प्रमुख पांच सौ अनगार शिष्य रूप
में प्रदान किये।
१०३. तए णं से सुए अण्णया कयाइ सेलगपुराओ नगराओ १०३. किसी समय शुक ने शैलकपुर नगर और सुभूमिभाग उद्यान से
सुभूमिभागाओ उज्जाणाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता बहिया निष्क्रमण किया। वहाँ से निष्क्रमण कर बाहर जनपद विहार करने जणवयविहारं विहरइ॥
लगा।
१०४. तए णं से सुए अणगारे अण्णया कयाइ तेणं अणगारसहस्सेणं
सद्धिं संपरिवुडे पुष्वाणुपुब्बिं चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे सुहंसुहेणं विहरमाणे जेणेव पुंडरीयपव्वए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पुंडरीयं पव्वयं सणियं-सणियं दुरुहइ, दुरुहित्ता मेघघणसन्निगासं देवसन्निवायं पुढविसिलापट्टयं पडिलेहेइ, पडिलेहेत्ता जाव संलेहणा-झूसणा-झूसिए भत्तपाण-पडियाइक्खिए पाओवगमणंणुवन्ने॥
१०४. शुक अनगार किसी समय उन हजार अनगारों के साथ उनसे परिवृत
हो क्रमश: विहरण करता हुआ, ग्रामानुग्राम परिव्रजन करता हुआ, सुखपूर्वक विहार करता हुआ, जहाँ पुण्डरीक पर्वत था, वहाँ आया। वहाँ आकर धीरे-धीरे पुण्डरीक पर्वत पर चढ़ा। पुण्डरीक पर्वत पर चढ़कर सघन मेघ जैसे वर्ण वाले और देवों के समागम स्थल, पृथ्वी शिलापट्ट का प्रतिलेखन किया। प्रतिलेखन कर यावत् संलेखना की आराधना में समर्पित हो, भक्तपान का प्रत्याख्यान कर, उसने प्रायोपगमन अनशन स्वीकार कर लिया।
१०५. तए णं से सुए बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणित्ता,
मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता, सर्द्धि भत्ताइं अणसणाए छेदित्ता जाव केवलवरनाणदंसणं समुप्पाडेता तओ पच्छा सिद्धे बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिनिव्वुडे सव्वदुक्खप्पहीणे।।
१०५. वह शुक बहुत वर्षों तक श्रामण्य-पर्याय का पालन कर, मासिक संलेखना
में स्वयं को समर्पित कर, अनशनकाल में साठ भक्तों का परित्याग कर यावत् प्रवर केवलज्ञान-दर्शन को उत्पन्न कर उसके बाद सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत, परिनिर्वृत और सब दुःखों का अन्त करने वाला हुआ।
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