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नायाधम्मकहाओ
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तेरहवां अध्ययन : सूत्र ९-१५ नंदस्स धम्मपडिवत्ति-पदं
नन्द का धर्म प्रतिपत्ति-पद ९. तेणं कालेणं तेणं समएणं अहं गोयमा! समोसढे। परिसा निग्गया। ९. गौतम! उस काल और उस समय मैं वहां समवसृत हुआ। जन-समूह सेणिए वि निग्गए।
ने निर्गमन किया। श्रेणिक भी गया।
१०. तए णं से नदे मणियारसेट्ठी इमीसे कहाए लद्धढे समाणे
पायविहारचारेणं जाव पज्जुवासइ॥
१०. जब नन्द मणिकार श्रेष्ठी को यह संवाद मिला तो उसने भी पांव-पांव
चलकर यावत् पर्युपासना की।
११. नदे मणियारसेट्ठी धम्म सोच्चा समणोवासए जाए।।
११. धर्म को सुनकर नन्द मणिकार श्रेष्ठी श्रमणोपासक बन गया।
१२. मैं राजगृह से निष्क्रमण कर बाहर जनपद विहार करने लगा।
१२. तए णंऽहं रायगिहाओ पडिनिक्खंते बहिया जणवयविहारेणं विहरामि।।
मिच्छत्तपडिवत्ति-पदं १३. तए णं से नदे मणियारसेट्ठी अण्णया कयाइ असाहुदंसणेण य
अपज्जुवासणाए य अणणुसासणाए य असुस्सूसणाए य सम्मत्तपज्जवेहि परिहायमाणेहि-परिहायमाणेहि मिच्छत्तपज्जवेहि परिवड्डमाणेहिं-परिवड्डमाणेहिं मिच्छत्तं विप्पडिवण्णे जाए यावि होत्था।
मिथ्यात्व-प्रतिपत्ति-पद १३. एक समय ऐसा आया उसे साधुओं के दर्शन, पर्युपासना, अनुशासना
का योग नहीं मिला तथा सुनने की इच्छा भी नहीं रही। फलस्वरूप सम्यक्त्व के पर्यव हीन होने लगे। मिथ्यात्व के पर्यव बढ़ने लगे। वह गाढ़ मिथ्यात्वी हो गया।
१४. तए णं नदे मणियारसेट्ठी अण्णया कयाइ गिम्हकालसमयंसि
जेट्ठामूलसि माससि अट्ठमभत्तं परिगेण्हइ, परिगेण्हित्ता पोसहसालाए पोसहिए बंभचारी उमुक्कमणिसुवण्णे ववगयमालावण्णगविलेवणे निक्खित्तसत्थमुसले एगे अबीए दब्भसंथारोवगए विहरइ ।।
१४. किसी समय नन्द मणिकार श्रेष्ठी ने ग्रीष्मकाल के समय, ज्येष्ठ मास
में, अष्टम-भक्त तप स्वीकार किया। स्वीकार कर, पौषध-शाला में ब्रह्मचर्य पूर्वक, मणि-सुवर्ण से विमुक्त, माला, वर्ण, विलेपन आदि से दूर रह, शस्त्र, मूसल का परित्याग कर अकेला, अद्वितीय, डाभ के बिछौने पर बैठ पौषध निरत होकर विहार कर रहा था।
पोक्खरिणी-निम्माण-पदं १५. तए णं नंदस्स अट्ठमभत्तसि परिणममाणंसि तण्हाए छुहाए य
अभिभूयस्स समाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--धण्णा णं ते ईसरपभियओ, संपुण्णा णं ते ईसरपभियओ, कयत्था णं ते ईसरपभियओ, कयपुण्णा णं ते ईसरपभियओ, कयलक्खणाणं ते ईसरपभियओ, कयविभवा णं ते ईसरपभियओ, जेसिं णं रायगिहस्स बहिया बहूओ वावीओ पोक्खरिणीओ दीहियाओ गुंजालियाओ सरपंतियाओ सरसरपंतियाओ, जत्थ णं बहुजणो 'हाइ य पियइ य पाणियं च संवहइ। तं सेयं खलु मम कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलंते सेणियं रायं आपुच्छित्ता रायगिहस्स बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभागे वेब्भारपब्वयस्स अदूरसामंते वत्थुपाढग-रोइयंसि भूमिभागंसि नंदं पोक्खरिणिं खणावेत्तए त्ति कटु एवं सपेहेइ, सपेहेत्ता कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते पोसह पारेइ, पारेत्ता बहाए कयबलिकम्मे मित्त-नाइ- नियग-सयण
पुष्करिणी का निर्माण-पद १५. अष्टम-भक्त परिणमित हो रहा था, प्यास और भूख से अभिभूत
नन्द के मन में इस प्रकार का आन्तरिक, चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ--धन्य हैं वे ईश्वर आदि, पुण्यशाली हैं वे ईश्वर आदि, कृतार्थ हैं--वे ईश्वर आदि, कृतपुण्य हैं वे ईश्वर आदि, कृतलक्षण हैं वे ईश्वर आदि, वैभवशाली हैं वे ईश्वर आदि, जिनकी राजगृह नगर के बाहर बहुत-सारी वापिकाएं, पुष्करिणियां, दीर्घिकाएं, गुजालिकाएं, सर: पंक्तिकाएं और सरोवर से संलग्न सर: पंक्तिकाएं हैं। जहां जन-समूह नहाता है, पानी पीता है और पानी ले जाता है। अत: मेरे लिए उचित है, मैं उषाकाल में, पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ जाने पर राजा श्रेणिक से अनुज्ञा प्राप्त कर राजगृह नगर के बाहर ईशान कोण में वैभार-पर्वत के आसपास वास्तुशास्त्रविद् के मनपसन्द भू-भाग में नन्दा' नाम की पुष्करिणी खुदवाऊं--उसने ऐसी संप्रेक्षा की। संप्रेक्षा कर उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ
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