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________________ नायाधम्मकहाओ महयाभह चहगर-रह-पहकर विंदपरिक्खित्ते बारवईए नपरीए मज्जमज्मेणं निगच्छ, निगच्छत्ता जेणेव पुरत्थिमवेयाली तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पंचहिं पंडवेहिं सद्धिं एगयओ मिलइ मिलित्ता खंधावारनिवेस करेइ, करेत्ता पोसहसालं अणुप्पविसइ, अणुविसित्ता सुट्ठियं देवं मणसीकरेमाणे मणसीकरेमाणे चिट्ठइ ।। ३४३ २३८. तए णं कण्हस्स वासुदेवस्स अट्ठमभत्तंसि परिणममाणसि सुट्ठओ जाव आगओ । भणंतु णं देवाणुप्पिया! जं मए कायव्वं ।। कण्हस्स मग्गजायणा-पदं २३९. तए गं से कण्हे वासुदेवे सुट्टियं देवं एवं बवासी एवं खलु देवाप्पिया! दोवई देवी धायईसंडदीवे पुरत्थिमद्धे दाहिणभरहवासे अवरकंकाए रायहाणीए पउमनाभभवणंसि साहिया तण्णं तुमं देवाणुप्पिया! मम पंचहिं पंढवेहिं सद्धिं अप्पलस्स छह रहाणं लवणसमुद्दे मग्गं विपराहि, जेणाहं अवरकंकं रायहाणि दोवई कूवं गच्छामि ।। २४०, तए से खुट्टिए देवे कन्हं वासुदेवं एवं क्यासी किरणं देवाप्पिया! जहा चेव पउमनाभस्स रण्णो पुव्वसंगइएणं देवेणं दोवई देवी जंबुद्दीवाज दीवाओ भारहाओ वासाओ हत्यिणाउराओ नयराज जुहिलस्स रण्णो भवणाओ साहिया, तहा चैव दोबई देव धायदाओ दीवाओ भारहाओ वासाओ अवरवंकरओ रायहागीओ पउमनाभस्स रण्णो भवणाओ हत्थिणाउरं साहरामि ? उदाहु-पउमनाभं रामं सपुरबलवाहणं लवणसमुद्दे पक्खियामि ? २४१. तए णं से कण्हे वासुदेवे सुट्ठियं देवं एवं वयासी मा गं तुमं देवाप्पिया! जहा चैव पउमनाभस्स रण्णो पुव्यसंगइएणं देवेणं दोवई देवी जंबुदवाओं दीवाओ भारहाओ वासाओ हत्यिणाउराओ नयराओ जुहिद्विलस्स रण्णो भवणाओ साहिया, तहा चेव दोवई देवि धायईसंडाओ दीवाओ भारहाओ वासाओ अवरकंकाओ राहाणीओ पउमनाभस्स रण्णो भवणाओ हत्यिणाउरं साहराहि । तुमं णं देवाणुप्पिया! मम लवणसमुद्दे पंचहिं पंडवेहिं सद्धिं अप्पछटुस्स छण्हं रहाणं मग्गं वियराहि । सयमेव णं अहं दोवईए कूवं गच्छामि ।। २४२. तणं से सुट्ठि देवे कण्हं वासुदेवं एवं वयासी एवं होउ । पंचहिं पंडवेहिं सद्धिं अप्पछट्ठस्स छण्हं रहाणं लवणसमुद्दे मग्गं विरह।। Jain Education International सोलहवां अध्ययन : सूत्र २३७-२४२ 1 चातुरंगिणी सेना के साथ, उससे परिवृत हो, महान सुभटों की विभिन्न टुकड़ियों, रथों एवं पथदर्शक पुरुषों के समूह से परिवृत हो द्वारवती नगरी के बीचोंबीच होते हुए निकले निकलकर जहां पूर्वीय तट घा वहां पहुंचे। वहां पहुंचकर एक स्थान पर पांचों पाण्डवों के साथ मिले मिलकर सेना का पड़ाव डाला। पड़ाव डालकर पौषधशाला में प्रविष्ट हुए प्रविष्ट होकर सुस्थित देव के साथ मानसिक तादात्म्य स्थापित कर ठहरे । | २३८. कृष्ण वासुदेव के अष्टम-भक्त तप परिणत हो रहा था, यावत् सुस्थित देव आया। कहो--देवानुप्रिय ! जो मुझे करना है। कृष्ण द्वारा मार्ग याचना-पद २३९. कृष्ण वासुदेव ने सुस्थित देव से इस प्रकार कहा -- देवानुप्रिय ! धातकीखण्ड - द्वीप के पूर्व और दक्षिण दिशावर्ती भारतवर्ष की राजधानी अवरकंका के राजा पद्मनाभ के भवन में द्रौपदी देवी का संहरण हुआ है। अतः पांच पाण्डव और छट्टा मैं--इन छहों के रथों को | लवण समुद्र में मार्ग दो। जिससे मैं द्रौपदी को खोजने के लिए अवरकंका राजधानी जा सकूं। २४०. तब सुस्थित देव ने कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहा -- देवानुप्रिय ! जैसे राजा पद्मनाभ के पूर्व संगतिक देव ने जम्बुद्वीप द्वीप भारतवर्ष, हस्तिनापुर नगर और राजा युधिष्ठिर के भवन से द्रौपदी देवी का संहरण किया, वैसे ही क्या मैं धातकीखण्ड द्वीप, भारतवर्ष, अवरकंका राजधानी और राजा पद्मनाभ के भवन से संहरण कर द्रौपदी देवी को हस्तिनापुर ले आऊँ अथवा पुर, बल, वाहन, आदि के साथ पद्मनाभ को लवणसमुद्र में दूबो हूँ । २४१. कृष्ण वासुदेव ने सुस्थित देव से इस प्रकार कहा -देवानुप्रिय ! जैसे राजा पद्मनाभ के पूर्वसांगतिक देव ने जम्बुद्वीप द्वीप, भारतवर्ष, हस्तिनापुर नगर और राजा युधिष्ठिर के भवन से द्रौपदी देवी का संहरण किया, वैसे ही धातकीखण्डद्वीप, भारतवर्ष, अवरकंका राजधानी और पद्मनाभ के भवन से द्रौपदी का संहरण मत करो । देवानुप्रिय ! तुम पांच पाण्डव और छट्टा में इन छहों के रथों को लवणसमुद्र में मार्ग दो मैं स्वयं ही द्रौपदी की खोज के लिए जा रहा हूं। 1 २४२. सुस्थित देव ने कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहा- ऐसा ही हो। उसने पांच पाण्डवों और छट्ठे कृष्ण वासुदेव इन छहों के रथों को लवण समुद्र में मार्ग दे दिया। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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