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________________ नायाधम्मकहाओ १०५ द्वितीय अध्ययन : सूत्र ६२-६८ ६२. तए णं सा भद्दा घणं सत्थवाहं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता नो ६२. भद्रा ने धन सार्थवाह को आते हुए देखा। देखकर न उसका आदर आढाइ नो परिजाणइ अणाढायमाणी अपरिजाणमाणी तुसिणीया किया, न उसकी ओर ध्यान दिया। वह उसका अनादर करती हुई, परम्मुही संचिट्ठइ॥ उपेक्षा करती हुई, मौन और पराङ्मुख हो बैठ गई। ६३. तए णं से धणे सत्थवाहे भदं भारियं एवं वयासी--किण्णं तुझं ६३. धन सार्थवाह ने भद्रा भार्या से इस प्रकार कहा-- देवाणुप्पिए! न तुट्ठी वा न हरिसो वा नाणंदो वा, जंमए सएणं देवानुप्रिये ! क्या बात है ? आज तुझे न तोष है, न हर्ष है और अत्थसारेणं रायकज्जाओ अप्पा विमोइए। न आनन्द है ? जब कि मैने अपने अर्थ बल से, स्वयं को राज-दण्ड से मुक्त करा लिया है। ६४. तए णं सा भद्दा धणं सत्थवाह एवं क्यासी--कहं णं देवाणुप्पिया! मम तुट्ठी वा हरिसो वा आणंदो वा भविस्सइ? जेणं तुम मम पुत्तघायगस्स पुत्तमारगस्स अरिस्स वेरियस्स पडणीयस्स पच्चामित्तस्स ताओ विपुलाओ असण-पाण-खाइम-साइमाओ संविभागं करेसि ।। ६४. भद्रा ने धन सार्थवाह से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय ! कैसे होगा मुझे तोष, हर्ष और आनन्द ? जब कि तुम मेरे पुत्र की घात करने वाले, उसे मारने वाले, अरि, वैरी, प्रत्यनीक और नितान्त शत्रु व्यक्ति को उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का संविभाग देते थे। ६५. तए णं से धणे सत्यवाहे भई भारियं एवं वयासी--नो खलु देवाणुप्पिए! धम्मो त्ति वा तवोत्ति वा कय-पडिकया इ वा लोगजत्ता इ वा नायए इ वा घाडियए इ वा सहाए इ वा सुहि त्ति वा (विजयस्स तक्करस्स?) ताओ विपुलाओ असण-पाणखाइम-साइमाओ संविभागे कए, नण्णत्थ सरीरचिंताए।। ६५. धन सार्थवाह ने भद्रा भार्या से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय ! मैंने (विजय तस्कर को?) धर्म, तप, प्रत्युपकार और लोक यात्रा की दृष्टि से अथवा उसे अपना स्वजन, सहचारी, सहायक या सुहृद मानकर, उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का संविभाग नहीं दिया था, मैंने केवल शरीर-चिन्ता के लिए उसे संविभाग दिया था। ६६. तए णं सा भद्दा धणेणं सत्थवाहेणं एवं वुत्ता समाणी हट्ठतुट्ठ- चित्तमाणंदिया जाव हरिसवस-विसप्पमाणहियया आसणाओ अब्भुढेइ, अब्भुतॄत्ता कंठाठ अवयासेइ, खेमकुसलं पुच्छइ, पुच्छिता ण्हाया कयबलिकम्मा कय-कोउय-मंगल-पायच्छित्ता विपुलाई भोगभोगाइं भुंजमाणी विहरइ।। ६६. धन सार्थवाह के ऐसा कहने पर हृष्ट, तुष्ट चित्त, आनन्दित यावत् हर्ष से विकस्वर हृदय वाली भद्रा आसन से उठी। उठकर गले मिली। क्षेम कुशल पूछा। पूछकर स्नान बलिकर्म और कौतुक मंगल रूप प्रायश्चित कर विपुल भोगार्ह भोगों को भोगती हुई विहार करने लगी। विजय-णायस्स निगमण-पदं ६७. तए णं से विजए तक्करे चारगसालाए तेहिं बंधेहि य वहेहि य कसप्पहारेहि य छिवापहारेहि य लयापहारेहि य तण्हाए य छुहाए य परज्झमाणे कालमासे कालं किच्चा नरएसुनेरइयत्ताए उववण्णे। से णं तत्थ नेरइए जाए काले कालोभासे गंभीरलोमहरिसे भीमे उत्तासणए परमकण्हे वण्णेणं। से णं तत्थ निच्चं भीए निच्चं तत्थे निच्चं तसिए निच्चं परमऽसुहसंबद्ध नरगगतिवेयणं पच्चणुब्भवमाणे विहरइ। से णं तओ उव्वट्टित्ता अणादीयं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरतं संसारकतारं अणुपरियट्टिस्सइ। विजय ज्ञात का निगमन-पद ६७. वह विजय तस्कर कारागृह में उन बन्धनों, ताड़नाओं चाबुक के प्रहारों, चिकनी चाबुक के प्रहारों, बेतों के प्रहारों से तथा भूख और प्यास से पराभूत होता हुआ, मृत्यु के समय मृत्यु को प्राप्त कर, नरक में नैरयिक के रूप में उत्पन्न हुआ। वह वहां नैरयिक बना, जो काला, काली आभा-वाला, गंभीर रूप से रोमाञ्चित रहने वाला, भीम, उत्त्रास देने वाला और वर्ण से परम कृष्ण था। वह वहां नित्य भीत, नित्य त्रस्त, नित्य तृषित और नित्य परम दुःख से अनुबन्धित नरक गति की वेदना का अनुभव करता हुआ विहार करने लगा। वह वहां से निकल कर अनादि, अनन्त, प्रलम्ब मार्ग और चार अन्त वाले संसार रूपी कान्तार में अनुपरिवर्तन करेगा। ६८. एवामेव जंबू! जो णं अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरिय- उवज्झायाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए ६८. जम्बू ! इसी प्रकार, हमारा जो निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी आचार्य, उपाध्याय के पास मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रवजित हो, विपुल Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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