________________
प्रथम अध्ययन सूत्र ९५-९९
मेहस्स जिन्नासा पर्य
९५. तए णं रायगिहे नवरे सिंघाडग-तिग- चक्क चच्चर-चउम्मुहमहापहपहेसु महया जणसद्दे इ वा जाव बहवे उग्गा भोगा रायगिहस्स नगरस्स मज्झमज्ज्ञेणं एगदिसिं एमाभिमुहा निमाच्छति । इमं च णं मेहे कुमारे उप्पिं पासायवरगए पुत्रमाणेहिं मुइंगमत्यएहिं जाव माणुस्तए कामभोगे भुजमाणे रायमग्गं च ओलोएमाणे ओलोएमाणे एवं च णं बिहरइ ।
1
९६. तए णं से मेहे कुमारे ते बहवे उग्गे भोगे जाव एदिसाभिमु निगच्छमाणे पास, पासित्ता कंचुइज्जपुरिस सद्दावे सहावेत्ता एवं वयासी -- किण्णं भो देवाणुप्पिया! अज्ज रायगिहे नगरे इंदमहे इ वा खंदमहे इ वा एवं रुद्द सिव- वेसमण- नाग-जक्खभूय- नई - तलाय - रुक्ख -- चेइय-पव्वयमहे इ वा उज्जाणगिरिजत्ता इ वा ? जओ णं बहवे उग्गा भोगा जाव एगदिसिं एयाभिमुहा निग्गच्छति ।।
--
कंचुइज्जपुरिसस्स निवेदण-पदं
९७. तए णं से कंचुइज्जपुरिसे समणस्स भगवओ महावीरस्स महियागमणपवित्तीए मेहं कुमारं एवं वयासीनो खलु देवाप्पिया! अज्ज रायगिहे नवरे इंदमहे इ वा जाव गिरिजत्ता इवा जं गं एए उग्गा भोगा जान एमदितिं एमाभिमुहा निगच्छति । एवं खतु देवाणुप्पिया! समणे भगणं महावीरे आइगरे तित्थगरे इहमागए इह संपत्ते इह समोसढे इह चेव रायगिहे नगरे गुणसिलए चेइए अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिन्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरह ॥
मेहस्स भगवजो समीवे गमण-पदं
२८. तए से मेहे कुमारे कंचुइज्जपुरिसस्स अंतिए एयम सोच्चा निसम्म हट्ठतु कोडुबियपुरिसे सहावे सहावेत्ता एवं वयासी - खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! चाउग्घंटं आसरहं जुत्तामेव वेह | तहत्ति उवणेति ।।
९९. तए णं से मेहे हाए जाव सम्वालंकारविभूसिए चाउन्ट आसरहं दुरूडे समाणे सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेण धरिज्जमाणेण महवा भंड-चडगर-बंद-परियाल-संपरिवुडे रायगिहस्स नवरस्स मजमणं निगच्छ, निग्गच्छित्ता जेणामेव गुणसिलए चेइए तेणामेव उपागच्छद्रनागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स छत्ताइच्छतं
Jain Education International
३०
नायाधम्मकहाओ
मेघ की जिज्ञासा पद
९५. उस समय राजगृह नगर के दोराहों, तिराहों, चौराहों, चौकों, चतुर्मुखों, राजमार्गों और मार्गों में महान जनशब्द हो रहा था । यावत् बहुत से उग्र, भोज राजगृह नगर के बीचों बीच से गुजरते हुए एक ही दिशा की ओर मुंह किये चले जा रहे थे। इधर कुमार मेघ अपने प्रवर प्रासाद के उपरिभाग में तबलों की ध्वनि के साथ यावत् मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों को भोगता और राजमार्ग का अवलोकन करता हुआ विहार कर रहा था ।
,
।
९६. कुमार मेघ ने उन बहुत से उग्र, भोज" (आदि नागरिकों) को यावत् एक ही दिशा की ओर मुंह कर जाते हुए देखा। यह देखकर उस कंचुकी पुरुष को बुलाया। उसे बुलाकर इस प्रकार कहादेवानुप्रिय! आज राजगृह नगर में इन्द्र महोत्सव या स्कन्ध महोत्सव है या इसी प्रकार रुद्र, शिव" वैश्रवण, नाग, यक्ष, भूत, नदी, तालाब, वृक्ष, चैत्य पर्वत आदि से सम्बन्धित कोई उत्सव है या उद्यान - यात्रा तथा गिरियात्रा का कोई आयोजन है जिसके कारण ये बहुत से उग्र, भोज भोज राजगृह में यावत् एक ही दिशा की ओर मुंह किये चले जा रहे हैं।
कंचुकी पुरुष का निवेदन- पद
९७. श्रमण भगवान महावीर के आगमन के वृत्तान्त की जानकारी पाकर कंचुकी पुरुष ने कुमार मेघ से इस प्रकार कहादेवानुप्रिय ! आज राजगृह नगर में न इन्द्र महोत्सव है यावत् न गिरि यात्रा का आयोजन - जिसके कारण ये बहुत से उम्र भोज यावत् एक ही दिशा की ओर मुंह किये जा रहे है । देवानुप्रिय ! धर्म के आदिकर्ता तीर्थकर श्रमण भगवान महावीर यहां आये हुए हैं, यहां सम्प्राप्त हैं, यहां समवसृत हैं और वहीं राजगृह नगर के गुणशीलक चैत्य में प्रवास योग्य स्थान की अनुमति लेकर संयम और तप से स्वयं को भावित करते हुए विहार कर रहे हैं।
मेघ का भगवान के समीप गमन-पद
९८. कंचुकी पुरुष के पास यह अर्थ सुन कर अवधारणा कर हृष्ट तुष्ट हुए कुमार मेघ ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर कहादेवानुप्रियो! शीघ्र ही चार घण्टाओं वाले अश्वरथ को जोत कर उपस्थित करो ।
'तथास्तु' कहकर वे अश्वरथ को लाए ।
९९. कुमार मेघ नहाकर यावत् सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित हुआ । चार घण्टाओं वाले अश्वरथ पर आरूढ़ हुआ । कटसरैया के फूलों से बनी मालाओं से युक्त छत्र को धारण किया। महान सुभटों के सुविस्तृत वृन्द से परिवृत होकर राजगृह नगर के बीचों बीच होकर निर्गमन किया । निर्गमन कर जहां गुणशिलक चैत्य था वहां
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org