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________________ नायाधम्मकाओ साह एवं वयासी -- णप्पिणामि णं अहं देवाणुप्पिया! कण्हस्स वासुदेवस्स दोवई। एस णं अहं सममेव जुज्झसज्जे निगच्छामि त्ति कट्टु दारुयं सारहिं एवं वयासी- केवलं भो! रायसत्थेसु दूए अवझेति कट्टु असक्कारिय असम्मानिय अवदारेणं निच्छुभावे ।। ट्र्यस्स पुणो आगमण पदं २४६. तए णं से दारुए सारही पउमनाभेणं रण्णा असक्कारिय असम्माणिय अवदारेणं निच्छूढे समाणे जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उबागच्छ, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावतं मत्थए अंजलिं कट्टु जएणं विजएणं, वद्धावेइ, वद्धावेत्ता कण्ह वासुदेवं एवं क्यासी एवं सतु अहं सामी! तुन्भं क्यणेणं अवरकंक यहाणिं गए जाव अवदारेणं निच्छुभावेइ ।। -- पउमनाभस्स पंडवेहिं जुद्ध-पदं २४७. तए गं से पउमनाभे बलवाउयं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं क्यासी लिप्यामेव भो देवाणुपिया! अभिसेक्कं तत्पिरमण पडिकप्पेह । तयाणंतरं च णं छेयायरिय-उवदेस - मइ कप्पणा विकप्पेहिं सुणिउणेहिं उज्जलणेवत्थि हव्य-परिवत्षियं सुसज्जं जाव आभिसेवक हरिचरणं पडिकप्पेड, पडिकप्पेत्ता उवणेति ।। २४८. तए गं से पउमनाभे ? सन्नद्ध-बद्ध-वम्मिय-कवर उष्पीतियसरासण पट्टिए पिणद्ध गेविजे आविद्ध-विमल-वरचिंध- पट्टे गहियाउह-पहरणे आभिसेक्कं हत्थिरयणं दुरुहइ, दुरुहित्ता हयगय-रह-पवरजोहकलियाए चाउरंगिणीए सेनाए सद्धिं संपरिवुडे महयाभड-चडगर-रह-पहकर विंदपरिक्खिते जेणेव कन्हे वासुदेव तेणेव पहारेत्थ गमणाए । - - २४९. तए गं से कन्हे वासुदेवे पठमनाभं रावं एज्जमानं पास, पासित्ता ते पंच पंडवे एवं वयासी-- हंभो दारगा! किण्णं तुब्भे पउमनाभेणं सद्धिं जुज्झिहिह उदाहु पेच्छिहिह ? २५०. तए णं ते पंच पंडया कण्हं वासुदेवं एवं वयासी अम्हे णं सामी! जुज्झामो, तुब्भे पेच्छह ।। Jain Education International ३४५ -- सोलहवां अध्ययन सूत्र २४५-२५० को ललाट पर चढ़ाकर इस प्रकार बोला देवानुप्रिय! मैं कृष्ण वासुदेव को द्रौपदी नहीं दूंगा। यह लो मैं स्वयं ही युद्ध के लिए तैयार होकर बाहर निकलता हूं--यह कहकर वह दारुक सारथी से इस प्रकार बोला हे दूत! राजनीति शास्त्र में केवल दूत अवध्य है - ऐसा कहकर उसे असत्कृत- असम्मानित कर पार्श्वद्वार से बाहर निकलवा दिया। दूत का पुनः आगमन-पद २४६. पद्मनाभ के द्वारा असत्कृत-असम्मानित कर पार्श्वद्वार से निकाल दिये जाने पर वह दारुक सारथी जहां कृष्ण वासुदेव थे, वहां आया। वहां आकर सटे हुए दस नखों वाली दोनों हथेलियों से निष्पन्न संपुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर जय-विजय की ध्वनि से वर्धापन किया। वर्धापन कर कृष्ण - वासुदेव से इस प्रकार बोला- स्वामिन्! मैं तुम्हारे वचन से अवरकंका राजधानी गया। यावत् मुझे पार्श्वद्वार से निकलवा दिया गया। पद्मनाभ का पाण्डवों के साथ युद्ध-पद २४७. पद्मनाभ ने सेनानायक को बुलाया। उसे बुलाकर इस प्रकार कहा -- देवानुप्रिय ! आभिषेक्य हस्तिरत्न को शीघ्र सुसज्जित करो । तदनन्तर उसने कलाचार्यों के उपदेश से उत्पन्न मति की नाना कल्पनाओं से युक्त हस्ति-सज्जा में निपुण व्यक्तियों द्वारा निर्मल नेपथ्य समूह से परिवस्त्रित और सुसज्जित यावत् अभिषेक्य हस्तिरत्न को तैयार किया। तैयार कर पद्मनाभ के पास लाया । २४८. पद्मनाभ ने सन्नद्ध-बद्ध हो कवच पहना। धनुषपट्टी को बांधा। गले में ग्रीवा रक्षक उपकरण पहने। विमल और प्रवर चिह्न पट्ट बांधा तथा हाथों में आयुध और प्रहरण लिया। उसके पश्चात् वह आभिषेक्य हस्तिरत्न पर आरूढ़ हुआ। आरूढ़ होकर अश्व, गज, रथ और प्रवर पदाति योद्धाओं से कलित चातुरंगिणी सेना के साथ उससे परिवृत हो, महान सुभटों की विभिन्न टुकडियों रथों एवं पथदर्शक पुरुषों के समूह से परिवृत हो, जहां कृष्ण वासुदेव थे, वहां जाने का संकल्प किया। | २४९. कृष्ण वासुदेव ने राजा पद्मनाभ को आते हुए देखा देखकर उन पांचों पाण्डवों से इस प्रकार कहा है भी! पुत्रो! तुम पद्मनाभ के साथ लड़ोगे या देखोगे । २५०. वे पांचों पाण्डव कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार बोले -- स्वामिन्! हम लड़ते हैं, तुम देखो। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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