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________________ नायाधम्मकहाओ फासेत्ता पालेत्ता सोभेत्ता तीरेत्ता किट्टेत्ता पुणरवि वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी--इच्छामि णं भंते! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे गुणरयणसंवच्छरं तवोकम्म उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए। अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंध करेहि।। प्रथम अध्ययन : सूत्र १९९-२००. से स्पर्श करके पालन करके, शोधन करके, पारित करके और कीर्तन करके पुन: वन्दना-नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार कर इस प्रकार बोला--भंते! मैं आपसे अनुज्ञा प्राप्त कर गुणरत्न संवत्सर'' नाम का तप:कर्म स्वीकार कर विहार करना चाहता हूं। देवानुप्रिय ! "जैसा तुम्हें सुख हो। प्रतिबन्ध मत करो।" २००. तए णं से मेहे अणगारे पढमं मासंचउत्थं-चउत्येणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं, दिया ठाणुक्कुडुए सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे, रत्तिं वीरासणेणं अवाउडएणं । दोच्चं मासं छट्ठ-छद्रेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं दिया ठाणुक्कुहुए सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे, रत्तिं वीरासणेणं अवाउडएणं । तच्चं मासं अट्ठम-अट्ठमेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं, दिया ठाणुक्कुडए सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे, रत्तिं वीरासणेणं अवाउडएणं। चउत्थं मासं दसम-दसमेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं, दिया ठाणुक्कुडुए सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे, रत्तिं वीरासणेणं अवाउडएणं। पंचमं मासं दुवालसम-दुवालसमेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं, दिया ठाणुक्कुडुए सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे, रत्तिं वीरासणेणं अवाउडएणं। एवं एएणं अभिलावेणं छटे चोद्दसम-चोद्दसमेणं, सत्तमे, सोलसम-सोलसमेणं, अट्ठमे अट्ठारसम-अट्ठारसमेणं, नवमे वीसइम-वीसइमेणं, दसमे बावीसइमं बावीसइमेणं, एक्कारसमे चउव्वीसइम-चउव्वीसइमेणं, बारसमे छव्वीसइं-छब्बीसइमेणं, तेरसमे अट्ठावीसइम-अट्ठावीसइमेणं चोद्दसमे तीसइमं-तीसइमेणं, पंचदसमे बत्तीसइम-बत्तीसइमेणं, सोलसमे चउत्तीसइमचउत्तीसइमेणं-अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं, दिया ठाणुक्कुडुए सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे, वीरासणेण अवाउडएण २००. अनगार मेघ ने प्रथम मास में बिना विराम (एकान्तर) चतुर्थ-चतुर्थ भक्त (एक एक दिन का उपवास) तप:कर्म किया। दिन में स्थान--कायोत्सर्ग मुद्रा और उकडू आसन में बैठ सूर्य के सामने मुंह कर आतापना भूमि में आतापना लेता और रात्रि में वीरासन में बैठता, निर्वस्त्र रहता। दूसरे मास में बिना विराम षष्ठ-षष्ठभक्त (दो-दो दिन का उपवास) तप:कर्म किया। दिन में स्थान--कायोत्सर्ग मुद्रा और उकडू आसन में बैठ 'सूर्य के सामने मुंह कर आतापनाभूमि में आतापना लेता और रात्रि में वीरासन में बैठता, निर्वस्त्र रहता। तीसरे मास में बिना विराम अष्टम-अष्टम भक्त (तीन-तीन दिन का उपवास) तप: कर्म किया। दिन में स्थान-कायोत्सर्ग मुद्रा और उकडू आसन में बैठ सूर्य के सामने मुंहकर आतापना भूमि में आतापना लेता और रात्रि में वीरासन में बैठता, निर्वस्त्र रहता। चौथे मास में बिना विराम दशम-दशम भक्त (चार-चार दिन का उपवास) तपःकर्म किया। दिन में स्थान--कायोत्सर्ग मुद्रा और उकडू आसन में बैठ सूर्य के सामने मुंहकर आतापना भूमि में आतापना लेता और रात्रि में वीरासन में बैठता, निर्वस्त्र रहता। ___ पांचवे मास में बिना विराम द्वादश-द्वादश भक्त (पांच-पांच दिन का उपवास) तपःकर्म किया। दिन में स्थान--कायोत्सर्ग मुद्रा और उकडू आसन में बैठ सूर्य के सामने मुंह कर आतापना भूमि में आतापना लेता और रात्रि में वीरासन में बैठता, निर्वस्त्र रहता। इसी प्रकार इसी अभिलाप से छठे मास में चतुर्दश-चतुर्दश भक्त (छह-छह दिन का उपवास) सातवें मास में षोडश-षोडश भक्त (सात-सात दिन का उपवास) आठवें मास में अष्टादश-अष्टादश भक्त (आठ-आठ दिन का उपवास) नौवे मास में बीसवां-बीसवां भक्त (नौ-नौ दिन का उपवास), दसवें मास में द्वाविंशति-द्वाविंशति भक्त (दस-दस दिन का उपवास) ग्यारहवें मास में चतुर्विंशति-चतुर्विंशति भक्त, (ग्यारह-ग्यारह दिन का उपवास), बारहवें मास में षट्विंशति-ट्विंशति भक्त (बारह-बारह दिन का उपवास) तेहरवें मास में अष्टाविंशति-अष्टाविंशति भक्त (तरह-तेरह दिन का उपवास) चौदहवें मास में त्रिशंत्-त्रिशंत् भक्त (चौदह-चौदह दिन का उपवास) पन्द्रहवें मास में द्वात्रिशंत्-द्वात्रिशत् भक्त (पन्द्रह-पन्द्रह दिन का उपवास) और सोलहवें मास में बिना विराम चतुस्त्रिशंत्-चतुस्त्रिशंत् भक्त (सोलह-सोलह दिन का उपवास) तप:कर्म किया। दिन में स्थान--कायोत्सर्ग मुद्रा और उकडू आसन में बैठ सूर्य के सामने मुंह कर आतापना भूमि में आतापना लेता और रात्रि में वीरासन में बैठता. निर्वस्त्र रहता। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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