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________________ प्रथम अध्ययन सूत्र १९४-१९९ ५४ १९५. तए णं से मेहे अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्त 'तहारूवाणं धेराणं अतिए सामाइयमाश्याई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, अहिज्जिता बहूहिं मदसमदुवालसेहिं मासद्धमासखमणेहिं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ।। मेहस्स भिक्खुपडिमा पर्द १९६. लए णं समणे भगवं महावीरे रायगिहाओ नयराज गुणसिलपाओ श्याओ पडिणिक्लम, पडिणिक्खमिता बहिया जणवयविहारं बिहरड़ ।। १९७. तए णं से मेहे अणगारे अण्णया कयाइ समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसह, वंदित्ता नमसित्ता एवं क्यासी- इच्छामि णं भंते! तुमेहिं अम्भणुष्णाए समाणे मासिवं भिक्खुपडिमं उवसंपज्जित्ता विहरितए । अहासु देवाणुप्पिया! मा परिबंध करेहि ।। १९८. तए गं से मेहे अणगारे समणेणं भगक्या महावीरेण अन्धगुष्णाए समाणे मासिवं भिक्खुपडिमं उपसंपज्जित्ता गं विहरह। मासियं भिक्खुपडिमं अहासुतं अहाकप्पं अहामग्गं सम्मं कारणं फासेइ पालेइ सोभेइ तीरेइ किट्टेइ, सम्मं कारणं फासेत्ता पालेत्ता सोभेत्ता तीरेता कित्ता पुणरवि समणं भगवं महावीरं वंद नमसइ, वंदित्ता नर्मसित्ता एवं क्यासी- इच्छामि गं भते तुम्मेहिं अन्मगुण्णाए समाणे दोमासिवं भिक्खुपडिमं उपसंपत्तिा गं विहरित्तए । अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेहि । जहा पढमाए अभिलावो तहा दोच्चाए तच्चाए चउत्थाए पंचमाए छम्माखियाए सत्तमासियाए पढमसत्तराइदियाए दोच्चसत्तइंदिया तच्च सत्तराइंदियाए अहोराइयाए एगराइयाए वि ।। Jain Education International नायाधम्मकहाओ करता, पौद्गलिक समृद्धि का संकल्प नहीं करता, उत्सुकता से मुक्त रहता, भावधारा को आत्मोन्मुखी रखता, सुश्रामण्य में रत इन्द्रिय और मन का निग्रह करता और इस निर्ग्रन्थ प्रवचन (जिनशासन) को ही आगे रखकर चलता । १९५. अनगार मेघ ने श्रमण भगवान महावीर के तथारूप स्थविरों के पास सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। अध्ययन कर वह बहुत सारे षष्ठ भक्त, अष्टम भक्त, दशम भक्त, द्वादश भक्त, पाक्षिक तप और मासिक तप से स्वयं को भावित करता हुआ विहार करने लगा । मेघ की भिक्षु प्रतिमा पद १९६. श्रमण भगवान महावीर ने राजगृह नगर के गुणशिलक चैत्य से निष्क्रमण किया। वहां से निष्क्रमण कर वे बहिर्वर्ती जनपदों में विहार करने लगे। १९७. किसी समय अनगार मेघ ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दनानमस्कार किया । वन्दना - नमस्कार कर वह इस प्रकार बोला - "भंते! मैं आप से अनुज्ञा प्राप्त कर मासिक भिक्षु प्रतिमा की उपसंपदा स्वीकार कर, विहार करना चाहता हूं।" १४० देवानुप्रिय ! "तुम्हें जैसा सुख हो, प्रतिबन्ध मत करो।” १९८. श्रमण भगवान महावीर से अनुज्ञा प्राप्त कर अनगार मेघ मासिक भिक्षु प्रतिमा की उपसंपदा स्वीकार कर विहार करने लगा। वह भिक्षु प्रतिमा का यथासूत्र यथाकल्प, यथामार्ग, सम्यक प्रकार से काया से स्पर्श करता, उसका पालन करता, उसे शोधित करता, पारित करता और कीर्तन करता । सम्यक् प्रकार से काया से उसका स्पर्श कर, उसका पालन, शोधन पारित, कीर्तन कर उसने पुनः श्रमण भगवान महावीर को वन्दना - नमस्कार किया । वन्दना-नमस्कार कर इस प्रकार बोला- भंते! मैं आपसे अनुज्ञा प्राप्त कर द्वैमासिकी भिक्षु प्रतिमा की उपसंपदा को स्वीकार कर विहार करना चाहता हूं। देवानुप्रिया! "तुम्हें जैसा सुख हो। प्रतिबन्ध मत करो।" प्रथम प्रतिमा में जैसा अभिलाप है वैसा ही अभिलाप द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, पंचम, षण्मासिक एवं सप्तमासिक प्रतिमा में तथा प्रथम सात रात-दिन वाली, द्वितीय सात रात-दिन वाली, तृतीय सात रात-दिन वाली, एक रात-दिन वाली और एक रात वाली प्रतिमा में भी करना चाहिए । मेहस्स गुणरयणसंवच्छर-पदं मेघ का गुणरत्न संवत्सर पद १९९. तए णं से मेहे अणगारे बारस भिक्खुपडिमाओ सम्मं काएणं १९९. अनगार मेघ ने बारह भिक्षु प्रतिमाओं को सम्यक् प्रकार से काया For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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