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________________ नायाधम्मकहाओ ३०५ १७. तए णं से धम्मरुई अणगारे धम्मघोसेणं थेरेणं एवं वृत्ते समाणे धम्मघोसस्स थेरस्स अतियाज पहिनिक्लमद्द, पडिनिक्लमित्ता सुभूमिभागाओ उज्जाणाओ अदूरसामते थंडिलं पडिलेहेइ, पडिलेहेत्ता तओ सालइयाओ तित्तालाउयाओ बहुसंभारसंभियाओ नेहावगाढाओ एवं बिंदुगं गहाय थंडिलंसि निसिरइ ।। १८. लए णं तस्स सालइयस्स तित्तालाउयस्स बहुसंभारसभियस्त वगा गंधे बहूण पिपीलिगासहस्साणि पाउन्भूयाणि । जा जहा य णं पिपीलिगा आहारेइ, सा तहा अकाले चैव जीवियाओ ववरोविज्जइ ॥ अहिंसट्टं तित्तालाउय-भक्खण-पदं १९. लए गं तस्स धम्मरुदस्स अणगारस्त इमेवारूवे अज्झथिए चितिए पत्थिए मणोगए संकष्ये समुप्पज्जित्याज ताव इमस्ल सालइयस्स तित्तालाउयस्स बहुसंभारसंभियस्स एगंमि बिंदुगंमि पक्खित्तंमि अगाइं पिपीलिगासहस्साइं ववरोविज्जंति, तं जइ णं अहं एवं सालइयं तित्तालाउयं बहुसंभारसंभियं नेहावगाढं थंडिलंसि सव्वं निसिरामि तो णं बहूणं पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं वहकरणं भविस्सइ । तं सेयं खलु ममेयं सालइयं तित्तालाउयं बहुसंभारसभियं नेहावगाढं सयमेव आहारितए, ममं चेव एए सरीरएणं निज्जाउ त्ति कट्टु एवं सपेहेइ सपेहेत्ता मुहपोत्तियं पडिलेहेइ, ससीसोवरियं कायं पमज्जेइ, तं सालइयं तित्तालाउयं बहुसंभारसभियं नेहावगाढं बिलमिव पन्नगभूएणं अप्पाणेणं सव्वं सरीरकोट्ठगंसि पक्खिवइ ।। धम्मरुइस्स समाहिमरण-पदं २०. तए णं तस्स धम्मरुदस्स तं सालइयं तित्तालाउयं बहुसंभारसँभियं नेहावगाढं आहारियल्स समाणस्स मुहुत्तंतरेण परिणममाणसि सरीरगंसि वेयणा पाउन्भूया उज्जला विउला कक्खडा पाढा चंडा दुक्खा दुरहियासा ।। Jain Education International सोलहवां अध्ययन सूत्र १६-२० इस शाक का एकान्त, जनसञ्चारशून्य, अचित्त स्थण्डिल में परिष्ठापन करो और अन्य प्रासुक, एषणीय अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य को ग्रहण कर आहार करो। १७. स्थविर धर्मघोष के ऐसा कहने पर धर्मरुचि अनगार धर्मघोष स्थविर के पास से उठकर बाहर निकले। बाहर निकलकर सुभूमिभाग उद्यान के आसपास स्थण्डिल की प्रतिलेखना की। प्रतिलेखन कर वृक्ष की शाखा पर निष्पन्न तिक्त तुम्बे के उस प्रचुर मसाले भरकर और भरपूर स्नेह डालकर बनाए गए शाक से एक बून्द लेकर स्थण्डिल में डाली। मसाले भरकर १८. वृक्ष की शाखा का पर निष्पन्न तिक्त तुम्बे के प्रचुर और भरपूर : स्नेह डालकर बनाये गए शाक की गंध से वहां हजारों चीटियां आ गई। जिस चींटी ने जैसे ही उसे खाया, वैसे ही वह अकाल में ही विनष्ट हो गई। अहिंसा के लिए तिक्त अलाबू का भक्षण-पद १९. धर्मरुचि अनगार के मन में इस प्रकार का आन्तरिक चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ । वृक्ष की शाखा पर निष्पन्न तिक्त तुम्बे के प्रचुर मसाले और भरपूर स्नेह डालकर बनाये गए इस शाक की एक बून्द डालते ही यदि हजारों चींटियां मरती हैं तो यदि मैं वृक्ष की शाखा पर निष्पन्न तिक्त तुम्बे के इस प्रचुर मसाले और भरपूर स्नेह डालकर बनाये गए समूचे शाक को स्थण्डिल में डालता हूं तो मैं बहुत से प्राग, भूत, जीव और सत्चों के वध का हेतु बन जाऊंगा। अतः मेरे लिए उचित है - मैं वृक्ष की शाखा पर निष्पन्न तिक्त तुम्बे के प्रचुर मशाले भरकर और भरपूर स्नेह डालकर बनाए गए इस शाक को स्वयं ही खा लूं। इससे मेरे ही शरीर का निर्माण हो जाए ऐसी संप्रेक्षा की संपेक्षा कर मुखवस्त्र का प्रतिलेखन किया। सिर सहित पूरे शरीर का प्रमार्जन किया और वृक्ष की शाखा पर निष्पन्न तिक्त तुम्बे के प्रचुर मसाले भरकर और भरपूर स्नेह डालकर बनाए गए इस समूचे शाक को बिल में प्रवेश करते हुए सांप की भांति आत्मभाव से अपने शरीर-कोष्ठक में डाल लिया । • I धर्मरुचि का समाधि मरण-पद २०. वृक्ष की शाखा पर निष्पन्न एक बड़े तिक्त तुम्बे के प्रचुर मसाले भरकर और भरपूर स्नेह डालकर बनाए गए उस शाक को खाने के मुहूर्त भर पश्चात् उसका परिणमन होने पर धर्मरुचि अनगार के शरीर में उज्ज्वल, विपुल, कर्कश, प्रगाढ़, चण्ड, दुःखद और दुःसहय वेदना प्रादुर्भूत हुई। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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