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________________ पांचवां अध्ययन : टिप्पण १८-१९ १६० विशेषित किया गया है। प्रमाद अनेक विषयों में अनेक प्रकार का होता है है लम्बे समय तक प्रतिसेवना करना । इसीलिए उन विभिन्न अवस्थाओं को अभिव्यक्त करने के लिए भिन्न-भिन्न शब्दों का प्रयोग किया गया है। ओसन्ने, ओसन्नविहारी - विहित अनुष्ठान के सम्पादन में आलस्य करने वाला । आवश्यक, स्वाध्याय, प्रत्युपेक्षणा, ध्यान आदि को सम्यक्तया सम्पादित न करने वाला।' पासत्थे पासत्थविहारी पार्श्वस्थ - ज्ञान आदि की आराधना के पार्श्व से बाहर रहने वाला। पार्श्वस्थ विहारी - बहुत दिनों तक पार्श्वस्थ बनकर वर्तन करने वाला -- रहने वाला। यहां 'विहारी' शब्द के प्रयोग में अतिरिक्त तात्पर्य निहित है, वह यह है कि बीमारी आदि कारण के बिना प्रमादवश यदि कोई मुनि शय्यातर, अभ्याहृत आदि पिण्डग्रहण रूप प्रतिसेवना का कदाचित् सेवन कर ले तो वह पार्श्वस्थ विहारी नहीं कहलाता। यहां 'विहार' से तात्पर्य १. जस्तावृत्ति पत्र १२० अवसन्नो विवक्षितानुष्ठानालसः, आवश्यकस्वाध्याय-प्रत्युप्रेक्षणाध्यानादीनामसम्यकुमारीत्यर्यः । २. वही पार्श्वे ज्ञानादीनां वहिष्ट पार्श्वस्यः । ३. वही पार्श्वस्थानां यो विहारो बहूनि दिनानि यावत् तथा वर्तनं स पार्श्वस्यविहारः योऽस्यास्तीति पार्श्वस्थविहारी। Jain Education International ही है। नायाधम्मकहाओ यहां 'विहारी' शब्द का अर्थ सर्वत्र दीर्घकालीन प्रतिसेवना पत्ते, पमत्तविहारी - मद्य, विषय आदि पांच प्रकार के प्रमाद स्थानों का सेवन करने वाला। कुसीले, कुसील विहारी--काल, विनय आदि भेद-भिन्न ज्ञान, दर्शन और चारित्र के विराधक । संसत्ते, संसत्तविहारी -- कदाचित् संविग्न गुणों और कदाचित् पार्श्वस्थदोषों का सेवन करने के कारण ऋद्धि, रस और साता - इस गौरव त्रयी से संसक्त रहने वाला।' सूत्र - १२१ १९. प्रतिक्रमण के पांच प्रकार हैं---१. दैवसिक २. रात्रिक ३. पाक्षिक ४. चातुर्मासिक ५. सांवत्सरिक । प्रस्तुत सूत्र में एक साथ दो प्रतिक्रमण करने का उल्लेख है। ४. वही - प्रमत्तः पञ्चविध प्रमादयोगात् । ५. वही कुशील: कालाविनयादि भेदभिन्नानां ज्ञान दर्शन- चारित्राचाराणां विराधक इत्यर्थः । ६. वहीत कदाचित् सविन गुणानां कदाचित् पार्श्वस्यादिद सम्बन्धात् गौरवत्रयसंसजनाच्चेति । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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