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सूत्र-१०६
नायाधम्मकहाओ
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पांचवां अध्ययन : टिप्पण ९-१८ सामाइयमाइयाई चोद्दसपुव्वाइं--इस वाक्यांश में सामायिक का प्रयोग चौदह १३. चातुर्याम रूप गृहस्थधर्म (चाउज्जामिए गिहिधम्मे) पूर्वो के साथ किया गया है।
अर्हत अरिष्टनेमि के समय साधु और गृहस्थ के लिए चातुर्याम धर्म जहां अंगों के साथ सामायिक का प्रयोग है वहां 'सामाइयमाइयाई' का ही विधान था। भगवान महावीर ने गृहस्थ धर्म की व्यवस्था की। वह का अर्थ आचारांग किया जा सकता है किन्तु जहां पूर्वो के साथ सामायिक मध्यवर्ती तीर्थंकरों के समय में नहीं थी इसीलिए यहां गृहस्थ के लिए भी का प्रयोग है वहां सामायिक का अर्थ आचारांग नहीं किया जा सकता। चाउज्जामिए गिहिधम्मे का प्रयोग किया गया है। इससे अनुमान किया जा सकता है कि सामायिक एक स्वतंत्र अध्ययन रहा है। आवश्यक के संकलन के समय उसे आवश्यक का एक अंग/अध्ययन
सूत्र-८३ बना दिया गया।
१४. पुण्डरीक पर्वत (पुंडरीयं पव्वयं)
प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ के गणधर पुण्डरीक ने सर्वप्रथम उस सूत्र-४७
पर्वत पर निर्वाण प्राप्त किया था अत: उपलक्षण से शत्रुजय पर्वत का १०. प्रेमानुराग से अनुरक्त अस्थि, मज्जा वाला .... पोषध व्रत का पुण्डरीक नाम प्रचलित हुआ। सम्यक् अनुपालन करने वाला (अट्ठिमिंजपेमाणुरागरत्ते.. पोसहं सम्म अणुपालेमाणे)
श्रमणोपासक के विषय में आए हुए उपर्युक्त विशेषणों के लिए १५. प्रस्तुत सूत्र में अंत, प्रांत, निस्सार, रूक्ष और अरस, विरस भोजन द्रष्टव्य-भगवई, खण्ड१, पृष्ठ २१७, २१८.
की सम्यक् जानकारी मिलती है
अंत--बेर, चने आदि सामान्य अन्न से निष्पन्न भोजन । सूत्र-५२
प्रांत--बचा खुचा भोजन अथवा बासी भोजन। ११. प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त त्रिदण्ड, कमण्डलु, छत्र, त्रिकाष्ठिका, अंकुश, तुच्छ--निस्सार । तांबे की अंगुठी आदि शब्दों के लिए द्रष्टव्य--भगवई,, खण्ड १, पृष्ठ रूक्ष--रूखा भोजन। २१७, २१८
अरस--हींग आदि के बधार से रहित--असंस्कृत भोजन ।
विरस--पुराना हो जाने के कारण विस्वाद ।" सूत्र-५५ १२. शुक (सुए)
सूत्र-१०७ शुक व्यास के पुत्र थे। प्रस्तुत सूत्र में सांख्य दर्शन, उसके १६. रूखा (भुक्खे) सिद्धान्त और सांख्य श्रमणों की विहार-चर्या एवं वेशभूषा पर पर्याप्त
यह देशी शब्द है। यहां यह रूक्ष के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। प्रकाश डाला गया है। यहां निर्दिष्ट कतिपय शब्द मननीय हैंशौच प्रधान दस प्रकार का परिव्राजक धर्म--
सूत्र-११३ पांच यम और पांच नियम--इस प्रकार उसके दस भेद होते हैं-- १७. अपने भाण्ड, पात्र आदि उपकरण (सभंडमत्तोवगरण-मायाए) यम--अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अकिञ्चनता।
यहां भाण्ड और अमत्र शब्द पात्र और वस्त्र के अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं। नियम--शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान।
'उपकरण' वर्षाकल्प आदि विशेष वस्त्र के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। शुक ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का ज्ञाता था। अध्ययन आठ में चोक्खा परिव्राजिका के लिए भी ऐसा ही उल्लेख है
सूत्र-११७ (८/१३९)। किन्तु इतिहास की दृष्टि से यह आलोच्य है। हो सकता है
१८. प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त कुछ शब्द मुनि की संयम के प्रति उदासीनता यह ग्रन्थरचना की एक शैली ही हो कि चारों वेदों का उल्लेख एक साथ
और प्रमत्तता के द्योतक हैं। जो मुनि संयम में श्लथ होकर मुनि की चर्या होने लगा।
और क्रिया में उपेक्षा भाव बरतने लगता है उसे इन विशेषणों से १. नंदी, सूत्र ७५ का टिप्पण
५. वही, पत्र-११९--अतै--वल्लचणकादिभिः, प्रान्ते:--तैरेव भुक्तावशेषैः २. ज्ञातावृत्ति, पत्र-११६--शुको व्यासपुत्रः ।
पर्युषितैर्वा, रूक्षैः--नि:स्नेहै:, तुच्छे:--अल्पैः, अरसे:--हिावादिभिरसंस्कृतै-- ३. वही, पत्र-११६, ११७-तत्र पञ्च यमा:--प्राणातिपातविरमणादय:, नियमास्तु विरसै:--पुराणत्वाद् विगतरसैः।
शौच--सन्तोष-तप:-स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि शौचमूलकं यमनियममीलनाद् ६. ज्ञातावृत्ति, पत्र-११९--सभंडमत्तोवगरणमायाए त्तिभांड मात्रापतदग्रहपरिच्छदश्च दशप्रकारम्।
उकरणं च--वर्षाकल्पादि भाण्डमत्रोपकरणं स्वं च-तदात्मीयंभंड मत्रोपकरणं ४. वही, पत्र-११७--पुण्डरीकेण आदिदेवगणधरेण निर्वाणत उपलक्षित: पर्वतः तदादाय--गृहीत्वा।
तस्य तत्र प्रथमं निर्वृतत्वात् पुण्डरीकपर्वतः शत्रुजयः ।
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