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________________ तेरहवां अध्ययन : सूत्र ३३-३६ २७० नायाधम्मकहाओ ३३. तए णं नदे ददुरे गब्भाओ विणिमुक्के समाणे उम्मुक्कबालभावे ३३. गर्भ से विनिर्मुक्त होने पर वह नन्द-दर्दुर शैशव को लांघकर विज्ञ विण्णय-परिणयमित्ते जोव्वणगमणुप्पत्ते नंदाए पोक्खरिणीए और परिपक्व हो, यौवन को प्राप्त कर उस नन्दा पुष्करिणी में अभिरममाणे-अभिरममाणे विहरइ।। अभिरमण करता हुआ अभिरमण करता हुआ विहार करने लगा। ३४. तए णं नंदाए पोक्खरिणीए बहुजणो ण्हायमाणो य पियमाणो ३४. नन्दा पुष्करिणी में स्नान करता हुआ, पानी पीता हुआ और पानी य पाणियं च संवहमाणो य अण्णमण्णं एवमाइक्खइ एवं भासइ ले जाता हुआ जनसमूह परस्पर यह आख्यान, भाषण, प्रज्ञापन एवं एवं पण्णवेइ एवं परूवेइ--धन्ने णं देवाणुप्पिया! नदे मणियारे, प्ररूपण करता--धन्य है देवानुप्रियो! नन्द मणिकार श्रेष्ठी, जिसकी यह जस्स णं इमेयारूवा नंदा पुक्खरिणी--चाउक्कोणा जाव पडिरूवा॥ नंदा पुष्करिणी चतुष्कोण यावत् असाधारण है। ददुरस्स जाइसरण-पदं ३५. तए णं तस्स ददुरस्स तं अभिक्खणं-अभिक्खणं बहुजणस्स अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म इमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--कहिं मन्ने मए इमेयारूवे सद्दे निसंतपुव्वे त्ति कटु सुभेणं परिणामेणं पसत्येणं अज्झवसाणेणं लेसाहिं विसुज्झमाणीहि तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहापूह-मग्गण-गवेसणं करेमाणस्स सण्णिपुवे जाईसरणे समुप्पण्णे, पुव्वजाई सम्म समागच्छइ ।। दर्दुर का जातिस्मरण-पद ३५. जन-समूह से बार-बार इस अर्थ को सुनकर, अवधारण कर उस दर्दुर के मन में इस प्रकार का आन्तरिक, चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ--लगता है, इस प्रकार के शब्द मैंने कहीं पहले भी सुने हैं। इस प्रकार चिन्तन करते-करते शुभपरिणामों, प्रशस्त अध्यवसायों और विशुद्धयमान लेश्याओं के कारण तदावरणीय कर्मों का क्षयोपशम होने से ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा करते हुए उसे समनस्क जन्मों को जानने वाला जाति-स्मरण ज्ञान समुत्पन्न हुआ। वह पूर्व-जन्म को भली-भांति जानने लगा। ३६. तए णं तस्स ददुरस्स इमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--एवं खलु अहं इहेव रायगिहे नयरे नदे नाम मणियारे-अड्ढे । तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसढे। तए णं मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए पंचाणुव्वइए सत्तसिक्खावइए--दुवालसविहे गिहिधम्मे पडिवण्णे । तए णं अहं अण्णया कयाइ असाहुदंसणेण य जाव मिच्छत्तं विप्पडिवण्णे। तए णं अहं अण्णया कयाइ गिम्हकालसमयंसि जाव पोसहं उवसंपज्जित्ता णं विहरामि । एवं जहेव चिंता। आपुच्छणा। नंदापुक्खरिणी। वणसंडा। सभाओ। तं चेव सव्वं जाव नंदाए दद्यरत्ताए उववण्णे। तं अहो णं अहं अधण्णे अपुण्णे अकयपुण्णे निग्गंथाओ पावयणाओ नटे भट्ठ परिन्भटे। तं सेयं खलु मम सयमेव पुन्वपडिवण्णाइं पंचाणुव्वयाई उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए--एवं सपेहेइ, संपेहेत्ता पुव्वपडिवण्णाई पंचाणुव्वयाई आरुहेइ, आरुहेत्ता इमेयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ--कप्पइ मे जावज्जीवं छटुंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावमाणस्स विहरितए, छट्ठस्स वि य णं पारणगंसि कप्पइ मे नंदाए पोक्खरिणीए परिपेरतेसु फासुएणं ण्हाणोदएणं उम्मदणालोलियाहि य वित्तिं कप्पेमाणस्स विहरित्तए--इमेयारूवं अभिग्गहं अभिगेण्हइ, जावज्जीवाए छटुंछटेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावमाणे विहरइ।। ३६. उस दर्दुर के मन में इस प्रकार का आन्तरिक, चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ--मैं इसी राजगृह नगर में 'नन्द' नाम का मणिकार था--आढ्य । उस काल और उस समय श्रमण भगवान महावीर समवसृत हुए। मैंने श्रमण भगवान महावीर के पास पांच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत--इस बारह प्रकार का गृही-धर्म स्वीकार किया था। किसी समय साधु-दर्शन के अभाव में यावत् मैं गाढ़ मिथ्यात्व को प्रतिपन्न हो गया। ___मैं एक बार ग्रीष्म-ऋतु के समय यावत् पौषध स्वीकार कर विहार कर रहा था। इस प्रकार चिन्तन, आपृच्छना, नन्दा पुष्करिणी, वन-खण्ड, सभाएं इत्यादि वह सम्पूर्ण दृश्य उसकी स्मृति में उभर आये यावत् नन्दा में दर्दुर रूप में उत्पन्न हुआ। अत: अहो! मैं अधन्य हूँ, अपुण्य हूँ, अकृतपुण्य हूँ जो कि निर्ग्रन्थ प्रवचन से नष्ट, भ्रष्ट और परिभ्रष्ट हो गया। अत: मेरे लिए उचित है मैं स्वयमेव पूर्व स्वीकृत पांच अणुव्रतों को स्वीकार कर विहार करूं--उसने ऐसी संप्रेक्षा की। संप्रेक्षा कर पूर्व स्वीकृत पांच अणुव्रतों का आरोपण किया। आरोपण कर यह अभिग्रह स्वीकार किया--मैं जीवनपर्यन्त निरन्तर षष्ठ-षष्ठ तप:कर्म (दो-दो दिन का उपवास) से स्वयं को भावित करते हुए विहार करूंगा। षष्ठ भक्त के पारणक में नन्दा पुष्करिणी के आसपास प्रासुक स्नानोदक तथा इधर-उधर बिखरी हुई पिष्टिका (पीठी) से वृत्ति का निर्वाह करते हुए विहार करूंगा--ऐसा अभिग्रह स्वीकार किया और जीवनपर्यन्त निरन्तर षष्ठ-षष्ठ भक्त तपःकर्म से स्वयं को भावित करता हआ विहार करने लगा। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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