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टिप्पण
सूत्र-२४
सूत्र-१८ १. स्त्रीनाम गोत्र (इत्थिनामगोयं)
स्त्रीनाम का एक अर्थ है स्त्रीपरिणाम अथवा जिस कर्म के उदय से स्त्री ऐसा अभिधान प्राप्त होता है वह स्त्रीनाम गोत्र कर्म है।
इसका दूसरा अर्थ है--स्त्रीप्रायोग्य नाम और गोत्र ।
अर्हत मल्ली ने महाबल की अवस्था में मुनि पर्याय में स्त्रीनाम गोत्र कर्म का बन्धन किया था। वृत्तिकार का मन्तव्य है कि उस समय तपस्वी महाबल ने अवश्य ही मिथ्यात्व या सास्वादन गुणस्थान का अनुभव किया था क्योंकि स्त्रीनाम गोत्र का बन्धन अनन्तानुबन्धी मिथ्यात्व की स्थिति में ही संभव है।
३. स्थविर (थेरे) स्थविर के तीन प्रकार होते हैं--
जातिस्थविर--साठ वर्ष की वय वाला। श्रुतस्थविर--समवायधर। पर्यायस्थविर--बीस वर्ष का दीक्षित ।
सूत्र-२० २. सिंहनिकोडित (सीहनिक्कीलियं)
यह एक विशेष प्रकार का तपोनुष्ठान है। जैसे सिंह चलता हुआ, अपने पृष्ठभाग का अवलोकन करता है वैसे ही तपस्वी जिस तप में प्राक्तन तप की आवृत्ति कर, फिर उत्तर उत्तर तप का अनुष्ठान करता है उसको सिंहनिष्क्रीडित तप कहा गया है। वह दो प्रकार का होता है--१. लघुसिंहनिष्क्रीडित २. महासिंहनिष्क्रीडित। इनका प्रस्तार इस प्रकार है--
सत्र-२८ ४. दिशाएं सौम्य, तिमिर रहित (सोमासु वितिमिरासु)
सौम्य-दिग्दाह आदि उत्पात रहित दिशाएं सौम्य कहलाती हैं। दिग्दाह के आधार पर भावी शुभाशुभ का विचार किया जाता है। इस विषय में प्रचलित श्लोक है--
दाहो दिशां राजभयाय पीतो, देशस्य नाशाय हुताशवर्णः । यश्चारुण: स्यादपसव्य वायुः, शस्यस्य नाशं स करोति दुष्ट ।।
वितिमिर--तीर्थकरों के गर्भाधान के प्रभाव से दिशाओं का अन्धकार समाप्त हो जाता है।
५. शकुन विजय सूचक थे (जइएसु सउणेसु)
प्रस्थान करते समय यदि कौवा दो, तीन, अथवा चार शब्द बोलता है तो वह शुभ फलकारक होता है।
६. दक्षिणावर्त और अनुकूल हवाएं (पयाहिणानुकूलंसि)
___ अर्हत मल्ली के गर्भाधान के समय हवाएं प्रदक्षिणावर्त होने के कारण प्रदक्षिण और सुरभित, शीतल एवं मन्द होने के कारण अनुकूल थीं।
१. ज्ञातावृत्ति, पत्र-१२९--इत्थीनामगोयं ति स्त्रीनाम: स्त्रीपरिणाम:, स्त्रीत्वं
यदुदयाद् भवति गोत्र--अभिधानं यस्य तत् स्त्रीनामगोत्रं अथवा यत् स्त्रीप्रायोग्यं नामकर्म गोत्रं च तत् स्त्रीनामगोत्रं कर्म निवर्तितवान् तत्काले च मिथ्यात्वं सास्वादनं वा अनुभूतवान् स्त्रीनामकर्मणो मिथ्यात्वानन्तानुबन्धिप्रत्ययत्वात्। २. वही, पत्र-१३०--स्थविरा:--जातिश्रुत-पर्याय-भेदभिन्नास्तत्र जातिस्थविरः
षष्टिवर्षः, श्रुतस्थविर: समवायधरः, पर्यायस्थविरो विंशतिवर्षपर्यायः ।
३. वही, पत्र-१३२--सौम्यासु--दिग्दाहाद्युत्पातवर्जितासु । ४. वही--वितिमिरासु -तीर्थकरगर्भाधानानुभावेन गतान्धकारासु। ५. वही--जयिकेषु--राजादीनां विजयकारिषु शकुनेषु, यथा काकानां श्रावणे
द्वित्रिचतुः शब्दा: शुभावहा इति। ६. वही--प्रदक्षिण: प्रदक्षिणावर्तत्वात् अनुकूलश्च य: सुरभिशीतमन्दत्वात्।
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