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पन्द्रहवां अध्ययन : सूत्र ११-१३
नाम रुक्खा किन्हा जाव पत्तिया पुष्फिया फलिया हरिया रेरिजमाणा सिरीए अई अईव उवसोभेमाणा चितिमणुष्णा adi मण्णा गंधेणं मणुण्णा रसेणं मणुण्णा फासेणं मणुण्णा छायाए ।
तं जो णं देवाप्पिया! तेसिं नंदिफलाणं रुक्खाणं मूलाणि वा कंदाणि वा तयाणि वा पत्ताणि वा पुप्फाणि वा फलाणि वा बीयाणि वा हरियाणि वा आहारेइ, छायाए वा वीसमइ, तस्स णं आवाए भद्दए भवइ । तओ पच्छा परिणममाणा - परिणममाणा अकाले चैव जीविधाओ ववरोवेति । तं मा णं देवाणुप्पिया! केद्र T तेर्सि नदिफलाणं मूलाणि वा जाव हरियाणि वा आहरउ, छायाए या वीसमउ, मा णं से वि अकाले चैव जीविधाओं क्वरोविज्जिरसउ । तुब्भेणं देवाणुप्पिया! अण्णेसिं रुक्खाणं मूलाणि य जाव हरियाणि य आहारेह, छायासु दीसमह त्ति घोसणं घोसेह, घोसेत्ता मम एयमाणत्तियं पच्चपिणह। ते वि तहेव घोसणं घोसेत्ता तमागत्तियं पच्चप्पिणंति ।।
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१२. तए णं धणे सत्यवाहे सगडी-सागडं जोएइ, जोएत्ता जेणेव नदिफला रुक्ला तेणेव उवागच्छद्र, उवागच्छित्ता तेसिं नदिफलागं अदूरसामते सत्यनिवेस करेड़, करेता दोच्चापि तप्यपि कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--तुब्भे णं देवाणुप्पिया! मम सत्यनिवेशसि महया महया सद्देणं उग्घोसेमाना उग्घोसेमाना एवं यह एए णं देवाणुपिया! ते नंदिफला स्वखा किन्हा जाव मणुष्णा छायाए ।
तं जो णं देवाप्पिया एएसं नदिफलाणं स्क्खाणं मूलाणि वा कंदाणि वा तयाणि वा पत्ताणि वा पुष्काणि वा फलानि वा बीयाणि वा हरियाणि वा आहारेइ जाव अकाले चेव जीवियाओ ववरोवेइ । तं मा णं तुब्भे तेसिं नंदिफलाणं मूलाणि वा जाव आहारेह, छायाए वा वीसमह, मा णं अकाले चैव जीविधाओ वयरोविज्जिस्सह, अण्णेसिं रुक्खानं मूलाणि य जाव आहारेह, छायाए वा वीसमहत्ति कट्टु घोसणं घोसेह, घोसेत्ता मम एयमाणत्तियं पच्चपिणह । ते वि तहेव घोसणं घोसेता तमाणत्तियं पच्चप्पिणति । ।
निदेसपालणस्स निगमण-पदं
१३. तत्य णं अत्येगइया पुरिसा धणस्स सत्यवाहस्स एयम सदहंति पत्तियंति रोयंति एयमद्वं सद्दहमाणा पत्तियमागा रोयमाणा तेसिं नंदिफलाणं दूरंदूरेणं परिहरमाणा-परिहरमाणा अण्णेसिं रुक्खाणं मूलाणि य जाव आहारति छायासु बीसमति । तेसि णं आवाए नो भए भवइ, तओ पच्छा परिणममाणा - परिणममाणा सुभरूवत्ताए सुभगंधत्ताए सुभरसत्ताए सुभफासत्ताए सुभछायत्ताए भुज्जो - भुज्जो परिणमति ॥
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नायाधम्मकहाओ
आवागमन रहित, प्रलम्ब मार्ग वाली अटवी के ठीक मध्यभाग में यहां नन्दीफल नाम के बहुत से वृक्ष हैं। वे कृष्ण यावत् पल्लवित, पुष्पित, फलित, हरीतिमा से आकर्षक और श्री से अतीव-अतीव उपशोभित हैं। वे वर्ण से मनोज्ञ, गंध से मनोज्ञ, स्पर्श से मनोज्ञ और छाया से मनोज हैं।
अतः देवानुप्रियो! जो उन नन्दीफत वृक्षों के मूल कन्द, छाल पत्ते, फूल, फल, बीज अथवा हरित खाता है अथवा छाया में विश्राम करता है, वह उसके लिए आपातभद्र होता है । तत्पश्चात् परिणत होते-होते वे असमय में ही जीवन का विनाश कर देते हैं।
अतः देवानुप्रियो ! कोई भी उन नन्दीफलों के मूल यावत् हरित न खाए। उनकी छाया में विश्राम न करे। जिससे असमय में ही उसके जीवन का विनाश न हो देवानुप्रियो ! तुम अन्य वृक्षों के मूल यावत् हरित खाओ और उनकी छाया में विश्राम करो- तुम यह घोषणा करो। यह घोषणा कर इस आज्ञा को पुनः मुझे प्रत्यर्पित करो। उन्होंने भी वैसे ही घोषणा कर, उस आज्ञा को पुनः प्रत्यर्पित किया ।
१२. धन सार्थवाह ने छोटे-बड़े वाहन जुतवाए। जुतवाकर' जहां नन्दीफल वृक्ष थे, वहां पहुंचा पहुंचकर उन नन्दीफलों के आस-पास सार्थ को ठहराया। ठहराकर दूसरी-तीसरी बार भी कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस प्रकार कहादेवानुप्रियो! तुम मेरे सार्थ के शिविर में ऊंचे-ऊंचे स्वर से बार-बार उद्घोषणा करते हुए इस प्रकार कहादेवानुप्रियो ! ये ही वे नन्दीफल वृक्ष हैं, जो कृष्ण यावत् छाया से मनोज्ञ हैं ।
देवानुप्रियो जो भी इन नदीपल वृक्षों के मूल, कन्द, छाल, पत्ते, फूल, फल, बीज अथवा हरित खाता है यावत् वह अकाल में ही जीवन का विनाश करता है । अतः तुम लोग उन नन्दीफलों के मूल यावत् हरित मत खाना। उनकी छाया में विश्राम मत करना। जिससे अकाल में ही जीवन का विनाश न हो। तुम लोग अन्य वृक्षों के मूल यावत् हरित खाओ और उनकी छाया में विश्राम करो। ऐसी घोषणा करो। घोषणा कर इस आज्ञा को पुनः मुझे प्रत्यर्पित करो। उन्होंने भी वैसी ही घोषणा कर उस आज्ञा को पुनः प्रत्यर्पित किया।
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निर्देश पालन का निगमन-पद
१३. वहां कुछ पुरुषों ने धन सार्थवाह के इस अर्थ पर श्रद्धा की प्रतीति की और रुचि की। उस अर्थ पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि करते हुए, उन नन्दीफलों का दूर-दूर से ही परिहार करते हुए अन्य वृक्षों के मूल यावत् हरित खाया और उनकी छाया में विश्राम किया। वह उनके लिए आपातभद्र नहीं हुआ। उसके पश्चात् परिणत होते-होते शुभ रूप, शुभ गंध, शुभ रस, शुभ स्पर्श और शुभ छाया के रूप पुनः पुनः परिणत
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