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________________ नायाधम्मकहाओ ३१९ गुलिया वा ओसहे वा भेसज्जे वा उवलद्धपव्वे, जेणं अहं सागरस्स दारगस्स इट्ठा कंता पिया मणुण्णा मणामा भवेज्जामि? सोलहवां अध्ययन : सूत्र ९७-१०४ छल्ली, वल्ली, शिलिका, गुटिका, औषध अथवा भेषज्य उपलब्ध हुआ है, जिससे मैं कुमार सागर को इष्ट, कमनीय, प्रिय, मनोज्ञ और मनोगत बन सकू? अज्जा-संघाडगस्स उत्तर-पदं आर्या संघाटक का उत्तर-पद ९८. तए णं ताओ अज्जाओ सूमालियाए एवं वुत्ताओ समाणीओ ९८. सुकुमालिका से यह अर्थ सुन उन आर्याओं ने दोनों कान बंद कर दोवि कण्णे ठएंति, ठएत्ता सूमालियं एवं वयासी--अम्हे णं लिए। दोनों कान बंद कर वे सुकुमालिका से इस प्रकार बोली-- देवाणुप्पिए! समणीओ निग्गंथीओ जाव गुत्तबंभचारिणीओ नो देवानुप्रिय! हम श्रमणियां, निर्ग्रन्थिकाएं यावत् गुप्तब्रह्मचारिणियां हैं। खलु कप्पइ अम्हं एयप्पगारं कण्णेहिं वि निसामित्तए, किमंग पुण हमें इस प्रकार का शब्द सुनना भी नहीं कल्पता, फिर उपदेश और उवदंसित्तए वा आयरित्तए वा अम्हे णं तव देवाणुप्पिए! विचित्तं आचरण का तो प्रश्न ही कहां है? केवलिपण्णत्तं धम्म परिकहिज्जामो।। देवानुप्रिये! हम तो तुझे विचित्र केवलीप्रज्ञप्त धर्म सुनाती हैं। सूमालियाए साविया-पदं ९९. तए णं सा सूमालिया ताओ अज्जाओ एवं वयासी--इच्छामि णं अज्जाओ! तुब्भं अंतिए केवलिपण्णत्तं धम्म निसामित्तए।। सुकुमालिका का श्राविका-पद ९९. सुकुमालिका ने उन आर्याओं से इस प्रकार कहा--आर्याओ! मैं तुमसे केवलीप्रज्ञप्त धर्म सुनना चाहती हूं। १००, तए णं ताओ अज्जाओ सूमालियाए विचित्तं केवलिपण्णत्तं १००. उन आर्याओं ने सुकुमालिका को विचित्र केवलीप्रज्ञप्त धर्म का उपदेश धम्म परिकहेंति ॥ दिया। १०१. तए णं सा सूमालिया धम्म सोच्चा निसम्म हट्ठा एवं वयासी--सद्दहामि णं अज्जाओ! निग्गंथं पावयणं जाव से जहेयं तुन्भे वयह। इच्छामि णं अहं तुभं अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं--दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवज्जित्तए। अहासुहं देवाणुप्पिए! १०१ धर्म को सुनकर, अवधारण कर हर्षित हुई सुकुमालिका ने इस प्रकार कहा--आर्याओ! मै--निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करती हूं, यावत् वह वैसा ही है जैसा तुम कह रही हो। मैं तुम्हारे पास पांच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकार का गृहीधर्म स्वीकार करना चाहती हूं। जैसा सुख हो देवानुप्रिये! १०२. तए णं सा सूमालिया तासिं अज्जाणं अंतिए पंचाणुव्वइयं जाव गिहिधम्म पडिवज्जइ, ताओ अज्जाओ वंदइ नमसइ, वदित्ता नमंसित्ता पडिविसज्जेइ॥ १०२. सुकुमालिका ने उन आर्याओं के पास पांच अणुव्रत यावत् गृही धर्म को स्वीकार किया। उन आर्याओं को वन्दना की। नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार कर उन्हें प्रतिविसर्जित किया। १०३. तए णं सा सूमालिया समणोवासिया जाया जाव समणे निग्गंथे फासुएणं एसणिज्जेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं वत्थ-पडिग्गह-कंबल-पायपुंछणेणं ओसहभेसज्जेणं पाडिहारिएण य पीढ-फलग-सेज्जा-संथारएणं पडिलाभेमाणी विहरइ।। १०३. सुकुमालिका श्रमणोपासिका बन गई। यावत् वह श्रमण निर्ग्रन्थों को प्रासुक, एषणीय, अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पाद-प्रोज्छन, औषध, भेषज्य तथा प्रातिहारिक पीठ, फलक, शय्या और संस्तारक से प्रतिलाभित करती हुई विहार करने लगी। सूमालियाए पव्वज्जा-पदं १०४. तए णं तीसे सूमालियाए अण्णया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तका लसमयंसि कुटुंबजागरियं जागरमाणीए अयमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--एवं खलु अहं सागरस्स पुव्विं इट्ठा कंता पिया मणुण्णा मणामा आसि, इयाणिं अणिट्ठा अकंता अप्पिया अमणुण्णा अमणामा। नेच्छइ णं सागरए मम नामगोयमवि सवणयाए, किं पुण दंसणं वा परिभोगं वा? सुकुमालिका का प्रव्रज्या-पद १०४. किसी समय कुटुम्ब जागरिका करते हुए सुकुमालिका के मन में मध्यरात्रि के समय इस प्रकार का आन्तरिक, चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ--मैं सागर को पहले इष्ट, कमनीय, प्रिय, मनोज्ञ और मनोगत थी। अब अनिष्ट, अकमनीय, अप्रिय अमनोज्ञ और अमनोगत हो गई हूं। सागर मेरा नाम गोत्र भी सुनना नहीं चाहता, दर्शन और परिभोग की तो बात ही कहां? जिस-जिस Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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