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________________ द्वितीय अध्ययन : सूत्र ३९-४७ १०२ देवाणुप्पिया! ममं एयाओ विपुलाओ असण-पाण-खाइम-साइमाओ संविभागं करेहि। नायाधम्मकहाओ मुझे इस विपुल, अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का संविभाग दो। धणस्स तन्निसेध-पदं ४०. तए णं से धणे सत्यवाहे विजयं तक्करं एवं वयासी--अवियाई अहं विजया! एयं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं कायाण वा सुणगाण वा दलएज्जा, उक्कुरुडियाए वा णं छड्डेज्जा, नो चेवणं तव पुत्तघायगस्स पुत्तमारगस्स अरिस्स वेरियस्स पडणीयस्स पच्चामित्तस्स एत्तो विपुलाओ असण-पाण-खाइम-साइमाओ संविभागं करेज्जामि॥ ४१. तए णं से धणे सत्थवाहे तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं आहारेइ, तं पंथयं पडिविसज्जेइ। धन द्वारा उसका निषेध-पद ४०. वह धन सार्थवाह विजय तस्कर से इस प्रकार बोला--विजय ! चाहे मैं यह विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य कौवों और कुत्तों को डाल दूं या कूड़े घर में डाल दूं किन्तु मेरे पुत्र की घात करने वाले, उसे मारने वाले अरि, वैरी, प्रत्यनीक और नितान्त शत्रु व्यक्ति को इस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का संविभाग नहीं दूंगा। ४१. वह धन सार्थवाह ने उस विपुल अशन, पान, खाद्य, और स्वाद्य को खाया और पन्थक को विसर्जित किया। ४२. तए णं से पंथए दासचेडए तं भोयणपिडगं गिण्हइ, गिण्हित्ता जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए। ४२. वह दासपुत्र पन्थक उस भोजन पिटक को लिया। लेकर जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में चला गया। आबाधितस्स घणस्स विजयतक्करावेक्खा-पदं ४३. तए णं तस्स धणस्स सत्थवाहस्स तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं आहारियस्स समाणस्स उच्चार-पासवणेणं उव्वाहित्था॥ देह चिंता से आबाधित धन को विजय तस्कर की अपेक्षा-पद ४३. उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य को खा लेने पर धन सार्थवाह को उच्चार-प्रस्रवण की बाधा उत्पन्न हुई। ४४. तए णं से धणे सत्यवाहे विजयं तक्करं एवं वयासी--एहि ताव विजया! एगंतमवक्कमामो जेणं अहं उच्चार-पासवणं परिवेमि॥ ४४. धन सार्थवाह ने विजय तस्कर से इस प्रकार कहा--विजय ! इधर आओ, हम एकान्त में चलें, जिससे मैं उच्चार-प्रस्रवण कर सकूँ। विजयतक्करेण तन्निसेध-पदं ४५. तए णं से विजए तक्करे धणं सत्थवाहं एवं क्यासी--तुज्झं देवाणुप्पिया! विपुलं असणं पाणंखाइमं साइमं आहारियस्स अस्थि उच्चारे वा पासवणे वा, ममं णं देवाणुप्पिया! इमेहिं बहूहिं कसप्पहारेहि य छिवापहारेहि य लयापहारेहि य तण्हाए य छुहाए य परज्झमाणस्स नत्थि केइ उच्चारे वा पासवणे वा। तं छदेणं तुम देवाणुप्पिया! एगते अवक्कमित्ता उच्चार-पासवणं परिवेहि॥ विजय तस्कर द्वारा उसका निषेध-पद ४५. विजय तस्कर ने धन सार्थवाह से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय ! तुमने विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य खाया है, अत: उच्चार या प्रस्रवण की आवश्यकता तुम्हें है। देवानुप्रिय ! मैं इन बहुत सारे चाबुक के प्रहारों, चिकनी चाबुक के प्रहारों, बेंतों के प्रहारों तथा भूख और प्यास से पराभूत हूं, अत: मुझे उच्चार-प्रस्रवण की कोई आवश्यकता नहीं है। देवानुप्रिय ! तुम अपनी इच्छा से एकान्त में जाओ और उच्चार-प्रस्रवण करो। ४६. विजय तस्कर के ऐसा कहने पर धन सार्थवाह मौन हो गया। ४६. तए णं से धणे सत्थवाहे विजएणं तक्करेणं एवं वुत्ते समाणे तुसिणीए संचिट्ठइ॥ धणेण पुणो कथिते विजएण संविभागमग्गण-पदं ४७. तए णं से धणे सत्थवाहे मुहत्तंतरस्स बलियतरागं उच्चारपासवणेणं उव्वाहिज्जमाणे विजयंतक्करं एवं वयासी--एहि ताव विजया! एगंतमवक्कमामो जेणं अहं उच्चार-पासवणं परिवेमि ।। धन के पुन: कहने पर विजय द्वारा संविभाग मार्गणा-पद ४७. मुहुर्त भर पश्चात् धन सार्थवाह को जब उच्चार-प्रसवण की तीव्र बाधा उत्पन्न हुई तब वह विजय तस्कर से इस प्रकार बोला--"विजय! जरा आओ हम एकान्त में चलें, जिससे मैं उच्चार-प्रस्रवण कर सकू।" Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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