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________________ नायाधम्मकहाओ ३४७ सद्धिं जुज्झामि (त्ति?) रहं दुरुहइ, दुरुहित्ता जेणेव पउमनाभे राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सेयं गोखीरहार-धवलं तणसोल्लिय-सिंदुवार-कुदसण्णिगासं निययस्स बलस्स हरिस-जणणं रिउसेण्ण-विणासणकरं पंचजण्णं संखं परामुसइ, परामुसित्ता मुहवायपूरियं करेइ। सोलहवां अध्ययन : सूत्र २५६-२६१ देवानुप्रियो! तुम देखो। मैं रहूंगा, पद्मनाभ राजा नहीं रहेगा। यह कह कर मैं राजा पद्मनाभ के साथ युद्ध करता हूं--यह कहकर वे रथ पर आरूढ़ हुए। आरूढ़ होकर जहां राजा पद्मनाभ था, वहां आए। वहां आकर श्वेत गोक्षीर धारा के समान धवल, मल्लिका, सिन्दुवार, कुन्द-पुष्प और चन्द्र जैसी प्रभा वाला तथा अपनी सेना में हर्ष उत्पन्न करने वाला और शत्रुसेना का विनाश करने वाला पाञ्चजन्य शंख हाथ में लिया। हाथ में लेकर उसे मुखवात से पूरित किया। २५७. तए णं तस्स पउमनाभस्स तेणं संखसद्देणं बल-तिभाए २५७. उस शंख के शब्द से पद्मनाभ की सेना का एक तिहाई भाग हय-महिय-पवरवीर-घाइय-विवडियचिंध-घय-पडागे किच्छोव- हत-मथित हो गया। उसके प्रवर वीर यमधाम पहुंच गये। सेना के गयपाणे दिसोदिसिं पडिसेहिए। चिह्न-ध्वजाएं पताकाएं गिर गयी। उसके प्राण संकट में पड़ गये। सब दिशाओं से उसके प्रहार विफल हो गये। २५८. तए णं से कण्हे वासुदेवे अइरुग्णयबालचंद-इंदधणु- सण्णिगासं, वरमहिस-दरिय-दप्पिय-दढघणसिंगग्गरइयसारं, उरगवर-पवरगवल-पवरपरहुय-भमरकुल-नीलि-निद्ध-धंतधोय-पट्ट, निउणोविय-मिसिमिसिंत-मणिरयण-घांटियाजालपरिक्खित्तं, तडितरुणकिरण-तवणिज्जबद्धचिंध, ददरमलयगिरिसिहर-केसरचामरवाल-अद्धचंदचिंध, काल-हरिय-रत्त-पीय-सुक्किल-बहुण्हारुणि-संपिण्णद्धजीवं, जीवियंतकरं ध[परामुसइ, परामुसित्ता धणुंपूरेइ, पूरेत्ता धणुसई करेइ। २५८. कृष्ण वासुदेव ने अचिरोदित बाल चन्द्रमा और इन्द्र धनुष जैसा, प्रवर महिष के दृप्त, दर्पित, दृढ़ और सघन शृंग के अग्रभाग से रचित सार वाला, प्रवर उरग, प्रवर महिष, प्रवर कोकिल और भ्रमर कुल के समान नील, स्निग्ध और निर्मल पट्टे वाला, निपुण शिल्पियों द्वारा परिकर्मित, देदीप्यमान मणि-रत्नों की घंटिकाओं से परिवेष्टित, बिजली जैसी चमकती तरुण किरणों वाले तपनीय से चिह्नित, दर्दर और मलय पर्वत के शिखरों पर होने वाले सिंह स्कन्ध और चमरी गौ के बालों तथा अर्ध चन्द्रों से चिह्नित, कृष्ण, हरित, रक्त, पीत, शुक्ल आदि नाना प्रकार के स्नायुओं से सन्निबद्ध प्रत्यञ्चा वाला और प्राणान्तकर धनुष उठाया। उठाकर धनुष पर बाण चढाया। चढाकर धनु:शब्द (धनुषटंकार) किया। २५९. तए णं तस्स पउमनाभस्स दोच्चे बल-तिभाए तेणं घणुसद्देणं हय-महिय पवरवीर-घाइय-विवडियचिंधधय-पडागे किच्छोवगयपाणे दिसोदिसिं पडिसेहिए। २५९. उस धनुष के शब्द से पद्मनाभ की सेना का दूसरा एक तिहाई भाग हत-मथित हो गया। उसके प्रवर वीर यमधाम पहुंच गये। सेना के चिह्न-ध्वजाएं और पताकाएं गिर गयी। उसके प्राण संकट में पड़ गये। सब दिशाओं से उसके प्रहार विफल हो गये। पउमनाभस्स पलायण-पदं २६०. तए णं से पउमनाभे राया तिभागबलावसेसे अत्यामे अबले अवीरिए अपुरिसक्कारपरक्कमे अधारणिज्जमिति कटु सिग्धं तुरियं चवलं चंडं जइणं वेइयं जेणेव अवरकंका तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अवरकंकरायहाणिं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता बाराई पिहेइ, पिहेत्ता रोहासज्जे चिट्ठइ॥ पद्मनाभ का पलायन-पद २६०. जब राजा पद्मनाभ की सेना का एक-तिहाई भाग ही अवशेष रह गया। तब वह शक्तिहीन, बलहीन, वीर्यहीन, पुरुषार्थ और पराक्रम से हीन हो गया। अब रण-भूमि में डटे रहना अशक्य है--यह सोचकर वह शीघ्र , त्वरित, चपल, चण्ड, जयी और वेगपूर्ण गति से जहां अवरकका थी वहां आया। आकर अवरकंका राजधानी में प्रविष्ट हुआ। प्रविष्ट होकर द्वार बन्द कर लिए। द्वार बन्द कर घेरा डालकर बैठ गया। कण्हस्स नरसिंहरूव-पदं २६१. तए णं से कण्हे वासुदेवे जेणेव अवरकंका तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता रहं ठवेइ, ठवेत्ता रहाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता कृष्ण का नरसिंह रूप-पद २६१. कृष्ण वासुदेव जहां अवरकंका थी वहां आए। वहां आकर रथ को ठहराया। ठहराकर रथ से उतरे। उतरकर वैक्रिय समुद्घात से Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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