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________________ सप्तम अध्ययन : सूत्र ४१-४४ १७४ नायाधम्मकहाओ ४१. तए णं रायगिहे नयरे सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर- चउम्मुह--महापहपहेसु बहुजणो अण्णमण्णं एवमाइक्खइ-धण्णे णं देवाणुप्पिया! धणे सत्थवाहे, जस्स णं रोहिणीया सुण्हा पंच सालिमक्खए सगडि-सागडेणं निज्जाएइ। ४१. राजगृह नगर के दोराहों, तिराहों, चोराहों, चौकों, चतुर्मुखों, राजमार्गों और मार्गों में जन समूह ने परस्पर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! धन्य है धन सार्थवाह, जिसकी पुत्रवधू रोहिणी पांच शालिकणों को छोटे-बड़े वाहनों से लौटा रही है। ४२. तए णं से घणे सत्थवाहे ते पंच सालिअक्खए सगडि-सागडेणं निज्जाइए पासइ, पासित्ता हतुढे पडिच्छइ, पडिच्छित्ता तस्सेव मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणस्स चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स पुरओ रोहिणीयं सुण्हं तस्स कुलघरस्स बहूसु कज्जेसु य कारणेसु य कुडुबेसु य मतसुय गुज्झेसुय रहस्सेसुय आपुच्छणिज्जं पडिपुच्छणिज्जं मेढिं पमाणं आहारं आलबणं चक्खु, मेढीभूयं पमाणभूयं आहारभूयं आलंबणभूयं चक्खुभूयं सव्वकज्जवड्ढावियं पमाणभूयं ठवेइ।। ४२. धन सार्थवाह ने उन पांच शालिकणों को छोटे-बड़े वाहनों से लाया जाता हुआ देखा। देखकर हृष्ट तुष्ट हो उन्हें स्वीकार कर लिया। स्वीकार कर उन्हीं मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी, परिजन और चारों बहुओं के पीहर वालों के सामने पुत्रवधू रोहिणी को उस घर के बहुत से कार्यों, कारणों, कर्तव्यों, मंत्रणाओं, गोपनीय कार्यों और रहस्यों में परामर्शदात्री, पुन: पुन: परामर्शदात्री, मेढ़ी, प्रमाण, आधार, आलम्बन, चक्षु, मेढीभूत, प्रमाणभूत, आधारभूत, आलम्बनभूत, चक्षुभूत, समस्त कार्यों का संवर्द्धन करने वाली और प्रमाणभूत घोषित किया। ४३. एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरिय-उवज्झायाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए, पंच से महव्वया संवड्ढिया भवंति, से णं इहभवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावगाणं बहूणं सावियाण य अच्चणिज्जे जाव चाउरतं संसारकंतारं वीईवइस्सइ--जहा व सा रोहिणीया॥ ४३. आयुष्मन् श्रमणो! इसी प्रकार हमारा जो निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी ____ आचार्य-उपाध्याय के पास मुण्ड होकर, अगार से अनगारता में प्रव्रजित होता है और उसके पांच महाव्रत संवर्धित होते हैं तो वह उस भव में भी बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों और बहुत श्राविकाओं द्वारा अर्चनीय होता है यावत् वह चार अन्त वाले संसार रूपी कान्तार पार पा लेता है, जैसे--वह रोहिणी। निक्खेव-पदं ४४. एवं खलु जंबा समजेणं भगवया महावीरेणं आइगरेणं तित्यगरेणं जाव सिद्धिगइनामधेज्जं ठाणं संपत्तेणं सत्तमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते। -त्ति बेमि।। निक्षेप-पद ४४. जम्बू! इस प्रकार धर्म के आदिकर्ता तीर्थकर यावत् सिद्धिगति नामक स्थान को संप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के सातवें अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है। --ऐसा मैं कहता हूँ। वृत्तिकृता समुद्धता निगमनगाथा जह सेट्ठी तह गुरुणो, जह नाइ-जणो तहा समणसंघो। जह बहुया तह भव्वा, जह सालिकणा तह वयाई ।। वृत्तिकार द्वारा समुद्धृत निगमन-गाथा १. सेठ के समान गुरु है। ज्ञातिजन के समान श्रमण-संघ है। बहुओं के समान भव्यजीव हैं और शालिकणों के समान व्रत हैं। उज्झिया जह सा उज्झियनामा, उज्झियसाली जहत्थमभिहाणा। पेसणगारित्तेणं, असंखदुक्खक्खणी जाया।R|| तह भव्वो जो कोई, संघसमक्खं गुरु-विदिण्णाई। पडिवज्जिउं समुज्झइ, महव्वयाई महामोहा।।३।। सो इह चेव भवम्मि, जणाण धिक्कार-भायणं होइ। परलोए उ दुहत्तो, नाणा-जोणीसु संचरइ।४॥ २-४ उज्झिता जैसे शलिकणों को फेंककर अपने नाम को चरितार्थ करने वाली उज्झिता नाम की बहू प्रेष्यकारिता को प्राप्त कर असंख्य दुःखों की खान बन गई, वैसे ही जो कोई भव्य संघ के समक्ष गुरु द्वारा प्रदत्त व्रतों को स्वीकार कर मोहवश पुन: छोड़ देता है, वह इस जीवन में भी जन-जन के धिक्कार का पात्र होता है और परलोक में भी दु:खों से पीडित हो नाना योनियों में संचरण करता है। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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