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________________ पांचवां अध्ययन : सूत्र ८४-९० १५० नायाधम्मकहाओ ८४. तए णं से थावच्चाफुत्ते बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणित्ता, ८४, थावच्चापुत्र बहुत वर्षों तक श्रामण्य-पर्याय का पालन कर मासिक मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता, सर्द्वि भत्ताई अणसणाए संलेखना की आराधना में स्वयं को समर्पित कर, अनशनकाल में साठ छेदित्ता जाव केवलवरनाणदंसणं समुप्पाडेत्ता तओ पच्छा सिद्धे भक्तों का परित्याग कर यावत् प्रवर केवल ज्ञान-दर्शन उत्पन्न कर बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिनिव्वुड़े सव्वदुक्खप्पहीणे।। उसके बाद सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत, परिनिर्वृत और सब दुःखों का अन्त करने वाला हुआ। सेलगस्स अभिनिक्खमणाभिप्पाय-पदं ८५. तए णं से सुए अण्णया कयाइ जेणेव सेलगपुरे नगरे जेणेव सुभूमिभागे उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ. उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ। शैलक का अभिनिष्क्रमण अभिप्राय-पद ८५. किसी समय वह शुक जहाँ शैलकपुर नगर था, जहाँ सुभूमिभाग उद्यान था वहाँ आया। वहां आकर वह यथोचित अवग्रह--आवास योग्य स्थान की अनुमति प्राप्त कर, संयम और तप से स्वयं को भावित करता हुआ विहार करने लगा। ८६. परिसा निग्गया। सेलओ निग्गच्छ।।। ८६. जन समूह ने निर्गमन किया। शैलक भी चला गया। ८७. तए णं से सेलए सुयस्स अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म हट्ठतढे सुयं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी--सदहामि णं भंते! निग्गंथं पावयणं जाव नवरं देवाणुप्पिया! पंथगपामोक्खाइं पंच मंतिसयाइं आपुच्छामि, मंडुयं च कुमारं रज्जे ठावेमि । तओ पच्छा देवाणुप्पियाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वयामि । __ अहासुहं देवाणुप्पिया॥ ८७ शुक के पास धर्म को सुनकर, अवधारण कर हृष्ट-तुष्ट हुए शैलक ने शुक को तीन बार दांयी ओर से प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा कर वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार कर इस प्रकार बोला--भन्ते! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ, यावत् इतना विशष है-देवानुप्रिय! मैं पंथक प्रमुख पांच सौ मंत्रियों से पूछ लूं। मंडुक कुमार को राज्य (सिंहासन) पर स्थापित कर दूं। उसके बाद देवानुप्रिय के पास मुण्ड हो अगार से अनगारता में प्रव्रजित बनूं। जैसा सुख हो, देवानुप्रिय ! ८८. तए णं सेलए राया सेलगपुरं नगरं अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता जेणेव सए गिहे जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहासणे सण्णिसण्णे।। ८८. शैलक राजा ने शैलकपुर नगर में पुन: प्रवेश किया। प्रवेश कर जहाँ उसका अपना घर था, जहाँ बाहरी सभा मण्डप था, वहाँ आया। वहाँ आकर सिंहासन पर बैठ गया। ८९. तए णं से सेलए राया पंथगपामोक्खे पंच मंतिसए सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिया! मए सुयस्स अंतिए धम्मे निसंते, से वि य मे धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए। तए णं अहं देवाणुप्पिया! संसारभउव्विग्गे भीए जम्मण-जरमरणाणं सुयस्स अणगारस्स अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वयामि । तुब्भे णं देवाणुप्पिया! किं करेह? कि ववसह ? किं वा भे हियइच्छिए सामत्थे? ८९. शैलक राजा ने पंथक प्रमुख पांच सौ मंत्रियों को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! मैंने शुक के पास धर्म सुना है, और वही धर्म मुझे इष्ट, ग्राह्य और रुचिकर है। इसलिए देवानुप्रियो! संसार के भय से उद्विग्न तथा जन्म, जरा और मृत्यु से भीत बना मैं शुक अनगार के पास मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रव्रजित होता हूँ। देवानुप्रियो! तुम क्या करते हो? क्या निर्णय लेते हो? तुम्हारे अन्तर्मन की भावना और सामर्थ्य क्या है? ९०. तए णं ते पंथगपामोक्खा पंच मंतिसया सेलगं रायं एवं वयासी--जइ णं तुब्भे देवाणुप्पिया! संसारभउव्विग्गा जाव पव्वयह, अम्हंणं देवाणुप्पिया! के अण्णे आहारे वा आलंबे वा? अम्हे वि य णं देवाणुप्पिया! संसारभउब्विग्गा जाव पव्वयामो। जहा णं देवाणुप्पिया! अम्हं बहूसु कज्जेसु य कारणेसु य कुडुबसु य मतेसु य गुज्झेसु य रहस्सेसु य निच्छएसु य आपुच्छणिज्जे ९०. पन्थक प्रमुख पांच सौ मंत्रियों ने शैलक राजा से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! यदि तुम संसार के भय से उद्विग्न हो यावत् प्रव्रजित हो रहे हो तो देवानुप्रिय! हमारा दूसरा आधार और आलम्बन ही क्या है? देवानुप्रिय ! हम भी संसार के भय से उद्विग्न हैं यावत् प्रव्रजित होते हैं। देवानुप्रिय ! जैसे हमारे बहुत से कार्यों, कारणों, कर्तव्यों, Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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