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नायाधम्मकहाओ
पांचवां अध्ययन : सूत्र ११४-११८ ११४. तएणं ते मंडुए तेगिच्छिए सद्दावेइ, सद्दाक्त्ता एवं वयासी--तुब्भे
णं देवाणुप्पिया! सेलगस्स फासु-एसणिज्जेणं ओसह-भेसज्ज- भत्तपाणेणं तेगिच्छं आउट्टेह ।।
११४. मण्डुक ने चिकित्सकों को बुलाया, उन्हें बुलाकर इस प्रकार
कहा--देवानुप्रियो! तुम प्रासुक, एषणीय औषध, भेषज्य तथा भक्तपान से शैलक की चिकित्सा करो।
११५. तए णं ते तेगिच्छिया मंडुएणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा हट्टतुट्ठा
सेलगस्स अहापवत्तेहिं ओसह-भेसज्ज-भत्तपाणेहिं तेगिच्छं आउटुंति, मज्जपाणगं च से उवदिसंति ।।
११५. मण्डुक राजा के ऐसा कहने पर हृष्ट, तुष्ट हुए चिकित्सकों ने
यथाप्रवृत्त औषध, भेषज्य तथा भक्तपान से शैलक की चिकित्सा की। उन्होंने उसे मादक-पेय सेवन का भी निर्देश दिया।
११६. तए णं तस्स सेलगस्स अहापवत्तेहिं ओसह-भेसज्ज-भत्तपाणेहिं
मज्जपाणएण य से रोगायके उवसंते यावि होत्था--हढे गल्लसरीरे जाए ववगयरोगायंके।
११६. यथाप्रवृत्त औषध, भेषज्य, भक्तपान और मादक-पेय के सेवन से
शैलक का रोगांतक उपशान्त हो गया। उसका शरीर हृष्ट, स्वस्थ और रोगातंक से मुक्त हो गया।
सेलगस्स पमत्तविहार-पदं ११७. तए णं से सेलए तंसि रोगायकसि उवसंतसि समाणंसि तंसि
विपुले असण-पाण-खाइम-साइमे मज्जपाणए य मुच्छिए गढिए गिद्धे अज्झोववन्ने ओसन्ने ओसन्नविहारी, पासत्थे पासत्थविहारी कुसीले कुसीलविहारी पमत्ते पमत्तविहारी संसत्ते संसत्तविहारी उउबद्ध-पीढ-फलग-सेज्जा-संथारए पमत्ते यावि विहरइ, नो संचाएइ फासु-एसणिज्ज पीढ-फलग-सेज्जा-संथारयं पच्चप्पिणित्ता मंडुयं च रायं आपुच्छित्ता बहिया जणवयविहारं विहरित्तए।।
शैलक का प्रमत्त विहार-पद ११७. उस रोगांतक के उपशान्त हो जाने पर भी शैलक उस विपुल अशन,
पान, खाद्य, स्वाद्य और मादक-पेय में मूछित, ग्रथित, गृद्ध और अध्युपपन्न हो, अवसन्न, अवसन्न-विहारी, पार्श्वस्थ, पार्श्वस्थ- विहारी, कुशील, कुशील-विहारी, प्रमत्त, प्रमत्त-विहारी, संसक्त, संसक्त-विहारी तथा ऋतुबद्ध पीठ, फलक, शय्या और संस्तारक में प्रमत्त होकर विहार करने लगा।
वह प्रासुक एवं एषणीय पीठ, फलक, शय्या और संस्तारक को पुन: गृहस्थों को सौंपकर राजा मंडुक से पूछ बाहर जनपद विहार नहीं कर सका ।१८
साहूहिं सेलगस्स परिच्चाय-पदं ११८. तएणं तेसिं पंथगवज्जाण पंचण्हं अणगारसयाणं अण्णया कयाइ
एगयओ सहियाणं समुवागयाणं सण्णिसण्णाणं सण्णिविट्ठाणं पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियंजागरमाणााणं अयमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--एवं खलु सेलए रायरिसी चइत्ता रज्जं जाव पव्वइए विउले असण-पाण-खाइम-साइमे मज्जपाणए य मुच्छिए नो संचाइए फासु-एसणिज्जं पीढ-फलग-सेज्जा-संथारयं पच्चप्पिणित्ता मंडुयं च रायं आपुच्छित्ता बहिया जणवयविहारं विहरित्तए। नो खलु कप्पइ देवाणुप्पिया! समणाणं निग्गंथाणं ओसन्नाणं पासत्थाणं कुसीलाणं पमत्ताणं संसत्ताणं उउबद्ध-पीढ-फलग-सेज्जा-संथारए पमत्ताणं विहरित्तए। तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं कल्लं सेलगं रायरिसिं आपुच्छित्ता पाडिहारियं पीढ-फलग-सेज्जा-संथारयं पच्चप्पिणित्ता सेलगस्स अणगारस्स पंथयं अणगारं वेयावच्चकर ठावेत्ता बहिया अब्भुज्जएणं जणवयविहारेणं विहरित्तए--एवं सपेहेंति, सपहेत्ता कल्लंजेणेव सेलए रायरिसी तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सेलयं रायरिसिं आपुच्छित्ता पाडिहारियं पीढफलग-सेज्जा-संथारयंपच्चप्पिणति, पच्चप्पिणित्ता पंथयं अणगारं
साधुओं द्वारा शैलक का परित्याग-पद ११८. किसी समय पंथक के सिवाय एकत्र, सम्मिलित, समुपागत, सन्निषण्ण
और सन्निविष्ट उन पांच सौ अनगारों के मन में अर्द्धरात्रि के समय धर्म-जागरिका करते हुए इस प्रकार का आध्यात्मिक, चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ--शैलक राजर्षि राज्य त्याग कर यावत् प्रव्रजित हुए हैं। ये विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य और मादक-पेय में मूर्च्छित हो गए हैं। अत: प्रासुक एवं एषणीय पीठ, फलक, शय्या और संस्तारक को पुन: गृहस्थों को सौंपकर राजा मंडुक को पूछकर ये बाहर जनपद विहार नहीं कर पा रहे हैं।
देवानुप्रियो! श्रमण-निर्ग्रन्थों को अवसन्न, पार्श्वस्थ, कुशील, प्रमत्त, संसक्त तथा ऋतुबद्ध पीठ, फलक, शय्या और संस्तारक में प्रमत्त व्यक्तियों के साथ विहार करना नहीं कल्पता। अत: देवानुप्रियो! हमारे लिए उचित है हम प्रभातकाल में शैलक राजर्षि से पूछ प्रातिहारिक पीठ, फलक, शय्या और संस्तारक गृहस्थों को सौंप शैलक अनगार की सेवा में अनगार पंथक को नियुक्त कर, बहिर्वर्ती जनपदों में अभ्युद्यत विहार करें--उन्होंने ऐसी संप्रेक्षा की। संप्रेक्षा कर प्रभातकाल में जहाँ शैलक राजर्षि थे, वहाँ आए। वहाँ आकर शैलक राजर्षि से पूछ, प्रातिहारिक पीठ, फलक, शय्या, और संस्तारक गृहस्थों
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