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________________ १०० नायाधम्मकहाओ द्वितीय अध्ययन : सूत्र ३२-३३ ३२. तए णं ते नगरगोत्तिया धणेणं सत्थवाहेणं एवं वुत्ता समाणा सण्णद्ध-बद्ध-वम्मिय-कवया उप्पीलिय-सरासण-पट्टिया पिणद्ध-विज्जा आविद्ध-विमल-वरचिंध-पट्टा गहियाउह-पहरणा धणेणं सत्थवाहेणं सद्धिं रायगिहस्स नगरस्स बहुसु अइगमणेसु य जाव पवासु य मग्गण-गवेसणं करेमाणा रायगिहाओ नगराओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमत्ता जेणेव जिण्णुज्जाणे जेणेव भग्गकूवए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता देवदिन्नस्स दारगस्स सरीरगं निप्पाणं निच्चेटुं जीवविप्पजढं पासंति, पासित्ता हा हा अहो! अकज्जमित्ति कटु देवदिन्नं दारगं भग्गकूवाओ उत्तारेंति, धणस्स सत्थवाहस्स हत्थे दलयंति ।। ३२. धन सार्थवाह के ऐसा कहने पर नगर-आरक्षकों ने सन्नद्ध-बद्ध हो, कवच पहने। धनुष-पट्टी को बांधा। गले में ग्रीवा-रक्षक उपकरण पहने। विमल और प्रवर चिह्न पट्ट बांधे। आयुध और प्रहरण लिए और धन सार्थवाह के साथ राजगृह नगर के बहुत सारे प्रवेश मार्गों यावत् प्रपाओं में बालक की मार्गणा, गवेषणा करते हुए वे राजगृह नगर के बाहर निकल गए। बाहर निकल कर जहां वह पुराना उद्यान और भानकूप था वहां आए। वहां आकर बालक देवदत्त के निष्प्राण, निश्चेष्ट और निर्जीव शरीर को देखा। देखते ही हा! हा! अहो! अकार्य हो गया--इस प्रकार चिल्लाते हुए बालक देवदत्त को भग्नकूप से निकाला और धन सार्थवाह के हाथ में सौंप दिया। विजयतक्करस्स निग्गह-पदं ३३. तए णं ते नगरगुत्तिया विजयस्स तक्करस्स पयमग्गमणुगच्छमाणा जेणेव मालुयाकच्छए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता मालुयाकच्छगं अणुप्पविसंति, अणुप्पविसित्ता विजयं तक्कर ससक्खं सहोढं सगेवेज्जं जीवग्गाहं गेहति, गेण्हित्ता अट्ठिमुट्ठि-जाणुकोप्पर-पहार-संभग्ग-महिय-गत्तं करेंति, करेत्ता अवउडा बंधणं करेंति, करेत्ता देवदिन्नस्स दारगस्स आभरणं गेण्हंति, गेण्हित्ता विजयस्स तक्करस्स गीवाए बंधति, बंधित्ता मालयाकच्छगाओ पडिणिक्खमंति, पडिणिक्खमित्ता जेणेव रायगिहे नयरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता रायगिह नयर अणुप्पविसंति, अणुप्पविसित्ता रायगिहे नयरे सिंघाडग-तिगचउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापहपहेसु कसप्पहारे य छिवापहारे य लयापहारे य निवाएमाणा-निवाएमाणा छारं च धूलिं च कयवरं च उवरिं पकिरमाणा-पकिरमाणा महया-महया सद्देणं उग्घोसेमाणा एवं वयंति--एस णं देवाणुप्पिया! विजए नामं तक्करे--पावचंडालरूवे भीमतररुद्दकम्मे आरुसियदित्त-रत्तनयणे खरफरुस-महल्ल-विगय-बीभच्छदाढिए असंपुडियउट्ठे उद्धयपइण्ण-लंबंतमुद्धए भमर-राहुवण्णे निरणुक्कोसे निरणुतावे दारुणे पइभए निसंसइए निरणुकपे अहीव एगंतदिट्ठीए खुरेव एगंतधाराए गिद्धव आमिस-तल्लिच्छे अग्गिमिव सव्वभक्खी बालघायए बालमारए। तं नो खलु देवाणुप्पिया! एयस्स केइ राया वा रायमच्चे वा अवरज्झइ, नन्नत्थ अप्पणो सयाई कम्माइं अवरझंति त्ति कटु जेणामेव चारगसाला तेणामेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता हडिबंधणं करेंति, करेत्ता भत्तपाणनिरोह करेंति, करेत्ता तिसझं कसप्पहारे य छिवापहारे य लयापहारे य निवाएमाणा विहरति ।। विजय तस्कर का निग्रह-पद . ३३. वे नगर आरक्षक विजय तस्कर के पद-चिह्नों का अनुगमन करते हुए, जहां मालुकाकक्ष था वहां आए। वहां आकर मालुकाकक्ष में प्रविष्ट हुए। वहां प्रविष्ट हो विजय तस्कर को रंगे हाथों चोरी के माल सहित, गर्दन पकड़कर, जीते जी पकड़ लिया। पकड़कर उसके शरीर को अस्थि, मुष्टि, घुटनों और कोहनियों के प्रहारों से तोड़ डाला। मथ डाला। मथकर उसके सिर और हाथों को पीछे की ओर बांध दिया। बांध करके बालक देवदत्त के आभरण ले लिये। आभरण लेकर विजय तस्कर के गले में फंदा डाला। डालकर उसे मालुकाकक्ष से बाहर निकाला। निकालकर जहां राजगृह नगर था, वहां आए। वहां आकर राजगृह नगर में प्रविष्ट हुए। प्रविष्ट होकर राजगृह नगर के दोराहों, तिराहों, चौराहों, चौकों, चतुर्मुखों, राजमार्गों और मार्गों में बार-बार उस पर चाबुक, चिकनी चाबुक और बेंतों के प्रहार किए। उस पर राख, धूल और कचरा उछाला और ऊंचे स्वरों में उद्घोषणा करते हुए इस प्रकार बोले-- देवानुप्रियो! यह विजय नाम का चोर है। यह पापी, चाण्डाल जैसा और भीमतर रुद्र कर्म करने वाला है। इसकी आंखे रोषपूर्ण, जलती हुई और लाल रहती हैं। दाढ़ी कठोर, रुखी, लम्बी, विकृत और बीभत्स है। होठ खुले तथा लटकते और बिखरे हुए बाल हवा में उड़ते रहते हैं। इसका रंग भौरे और राहु जैसा काला है। यह क्रूर कर्म करने में सकुचाता नहीं है और करने पर इसे पछतावा भी नहीं होता। दारुण, भय उत्पन्न करने वाला, नि:शंक, अनुकम्पा शून्य, सांप की भांति (लक्ष्य पर) एकान्त दृष्टिवाला, क्षुर की भांति एकान्त धारवाला, गीध की भांति मांस लोलुप और अग्नि की भांति सर्वभक्षी है। वह बच्चों की घात करने वाला और बच्चों को मारने वाला है। इसलिए देवानुप्रियो! इसको दण्डित करने में राजा या राज्यमंत्री का कोई अपराध नहीं है। यह सब केवल इसके अपने कृतकर्मों का ही अपराध है--ऐसा कहकर, वे जहां कारागृह था वहां आए। वहां आकर उसे हडि-बन्धन--काठ की जंती में डाल दिया। डालकर Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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