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________________ प्रथम अध्ययन : सूत्र १८६-१९० ५२ नायाधम्मकहाओ विद्युत से आहत रजत-गिरि के झुके हुए अग्रिम भाग की भांति, सम्पूर्ण शरीर के साथ धरती पर गिर पड़ा। १८७. तए णं तव मेहा! सरीरगंसि वेयणा पाउन्भूया--उज्जला विउला कक्खडा पगाढा चंडा दुक्खा दुरहियासा। पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवक्कंतीए यावि विहरसि ।। १८७. मेघ! तब तेरे शरीर में उज्ज्वल, विपुल, कर्कश, प्रगाढ़, रौद्र, दु:खद और दुःसह वेदना प्रादुर्भूत हुई। शरीर में पित्त ज्वर हो गया। समूचे शरीर में दाह व्याप्त हो गई। तीय संदब्भे वट्टमाण-तितिक्खोवदेस-पदं १८८. तए णं तुम मेहा! तं उज्जलं जाव दुरहियासं तिण्णि राईदियाइं वेयणं वेएमाणे विहरित्ता एगं वाससयं परमाउं पालइत्ता इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे रायगिहे नयरे सेणियस्स रण्णो धारिणीए देवीए कुच्छिसि कुमारत्ताए पच्चायाए। उस सन्दर्भ में होने वाली तितिक्षा का उपदेश-पद १८८. मेघ! तीन रात-दिन तक तूं उस उज्ज्वल यावत् दुःसह वेदना को भोगता रहा। सौ वर्ष की परम आयु को भोगकर तूं इसी जम्बूद्वीप द्वीप, भारतवर्ष और राजगृह नगर में राजा श्रेणिक की धारिणी देवी की कुक्षि में कुमार रूप में उत्पन्न हुआ। १८९. तए णं तुमं मेहा! आणुपुव्वेणं गब्भवासाओ निक्खते समाणे १८९. मेघ! तूं क्रमश: गर्भावास से निकला, शैशव को लांघ, यौवन में प्रविष्ट उम्मुक्कबालभावे जोव्वणगमणुप्पत्ते मम अंतिए मुडे भवित्ता हुआ और मेरे पास मुण्ड हो अगार से अनगारता में प्रव्रजित हो गया। अगाराओ अणगारियं पव्वइए। तं जइ ताव तुमे मेहा! मेघ! जब तूं तिर्यञ्च की अवस्था को उपलब्ध था, तुझे सम्यक्त्व-रत्न तिरिक्खजोणिय-भावमुवगएणं अपडिलद्ध-सम्मत्तरयणलंभेणं से का लाभ भी नहीं हुआ था। उस समय भी तूं ने प्राणानुकम्पा, पाए पाणाणुकंपयाए भूयाणुकंपयाएजीवाणुकंपयाए सत्ताणुकंपयाए भूतानुकम्पा, जीवानुकम्पा और सत्वानुकम्पा से अपने पैर को बीच में अंतरा चेव संधारिए, नो चेव णं निक्खित्ते । किमंग पुण तुमं मेहा! ही थाम लिया। उसे भूमि पर नहीं रखा। मेघ! इस समय तो तूं विशाल इयाणिं विपुलकुलसमुन्भवे णं निरुवहयसरीर-दंतलद्धपंचिंदिए णं कुल में उत्पन्न, निरुपहत-शरीर, शान्त, पांचों इन्द्रियों को उपलब्ध एवं उट्ठाण-बल-वीरिय-पुरिसगार-परक्कमसंजुत्ते णं मम अंतिए और इस प्रकार के उत्थान, बल, वीर्य, पुरुषाकार और पराक्रम से मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियंपव्वइए समाणे समणाणं निग्गंथाणं संयुक्त है। तूं मेरे पास मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रव्रजित हुआ राओ पुव्वरत्तावरत्त-कालसमयसि वायणाए पुच्छणाए परियट्टणाए है। ऐसी स्थिति में पूर्वरात्रापरात्र में वाचना, प्रच्छना, परिवर्तना, धम्माणुओगचिंताए य उच्चारस्स वा पासवणस्स वा अइगच्छमाणाण धर्मानुयोग चिंतन और उच्चार या प्रस्रवण के लिए आते-जाते य निग्गच्छमाणाण य हत्थसंघट्टणाणि य पायसंघट्टणाणि य श्रमण-निर्ग्रन्थ हाथों को छू गए, पांवों को छू गए, सिर को छू गए, पेट सीससघट्टणाणि य पोट्टसंघट्टणाणि य कायसंघट्टणाणि को छू गए, शरीर को छू गए, लांघ गए, बार-बार लांघ गए और पांवों य ओलंडणाणि य पोलंडणाणि य पाय-रय-रेणु-गुंडणाणि यनो की रजों से धूलि लिप्त कर गए। आश्चर्य है, तूं ने क्यों नहीं सम्यक् सम्मं सहसि खमसि तितिक्खसि अहियासेसि? सहन किया? क्यों नहीं तूं उसे सहने में समर्थ हुआ? क्यों नहीं तूं ने तितिक्षा रखी? क्यों नहीं तूं अविचल रहा?१५५ मेघ का जातिस्मरण-पद मेहस्स जाइसरण-पदं १९०. तएणं तस्स मेहस्स अणगारस्स समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म सभेहिं परिणामेहिं पसत्थेहि अज्झवसाणेहिं लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहापूह-मग्गण-गवसणं करेमाणस्स सण्णिपुग्वे जाईसरणे समुप्पण्णे, एयमढें सम्म अभिसमेइ।। १९०. श्रमण भगवान महावीर के पास यह अर्थ सुनकर, अवधारण कर, शुभ परिणाम, प्रशस्त अध्यवसाय और विशुद्धयमान लेश्या के कारण जातिस्मृति के आवारक कर्मों का क्षयोपशम होने पर ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा करते-करते अनगार मेघ को समनस्क जन्मों को जानने वाला जातिस्मृति ६ ज्ञान उत्पन्न हो गया। उसने इस अर्थ को भली-भांति समझ लिया। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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