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________________ पन्द्रहवां अध्ययन : सूत्र १९-२२ २९८ नायाधम्मकहाओ १९. तए णं से कणगकेऊ राया हद्वतुढे धणस्स सत्थवाहस्स तं महत्थं १९. राजा कनककेतु ने हृष्ट-तुष्ट हो धन सार्थवाह के महान अर्थवान, महग्धं महरिहं रायारिहं पाहुई पडिच्छइ, पडिच्छित्ता धणं सत्यवाहं महान मूल्यवान, महान अर्हतावाला और राजाओं के योग्य उपहार सक्कारेइ सम्माणेइ, सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता उस्सुक्कं वियरइ, को स्वीकार किया। स्वीकार कर धन सार्थवाह को सत्कृत किया। वियरित्ता पडिविसज्जेइ, भंडविणिमयं करेइ, करेत्ता पडिभंडं गेण्हई, सम्मानित किया। सत्कृत-सम्मानित कर उसे करमुक्त किया। गेण्हित्ता सुहंसुहेणं जेणेव चंपा नयरी तेणेव उवागच्छइ, करमुक्त कर प्रतिविसर्जित कर दिया। धन सार्थवाह ने क्रयाणक का उवागच्छित्ता मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणेणं सद्धिं विनिमय किया। विनिमय कर दूसरा क्रयाणक लिया। लेकर सुखपूर्वक अभिसमण्णागए विपुलाइमाणुस्सगाई भोगभोगाइं पच्चणुभवमाणे जहां चम्पा नगरी थी, वहां आया। वहां आकर मित्र, ज्ञाति, निजक, विहरइ॥ स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों से अभिसमन्वागत होकरं मनुष्य सम्बन्धी विपुल भोगार्ह भोगों का अनुभव करता हुआ विहार करने लगा। धणस्स पव्वज्जा-पदं २०. तेणं कालेणं तेणं समएणं थेरागमणं। धन का प्रव्रज्या-पद २०. उस काल और उस समय स्थविरों का आगमन हुआ। २१ घणे सत्थवाहे धम्म सोच्चा जेट्टपुत्तं कुटुंबे ठावेत्ता पव्वइए सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जित्ता, बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणित्ता, मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेत्ता, अण्णयरेसु देवलोएस देवत्ताए उववण्णे। महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ बुज्झिहिइ मुच्चिहिइ परिनिव्वाहिइ सव्वदुक्खाणमंतं करेहिइ॥ २१. धन सार्थवाह धर्म को सुनकर, ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब में स्थापित कर प्रवजित हुआ। सामायिक आदि ग्यारह अंग पढ़कर बहुत वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का पालन किया और मासिक संलेखना की आराधना में स्वयं को समर्पित कर किसी एक देवलोक में देव रूप में उत्पन्न हुआ। वह महाविदेह वर्ष में सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परिनिर्वृत होगा तथा सब दुःखों का अन्त करेगा। निक्खेव-पदं २२. एवं खलु जंबू समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं पण्णरसमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते। -त्ति बेमि ॥ निक्षेप-पद २२. जम्बू! इस प्रकार धर्म के आदिकर्ता यावत् सिद्धिगति संप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के पन्द्रहवें अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है। -ऐसा मैं कहता हूँ। वृत्तिकृता समुद्धृता निगमनगाथा चंपा इव मणुयगई, धणोव्व भयवं जिणो दएक्करसो। अहिच्छत्ता नयरिसमं, इह निव्वाणं मुणेयव्वं ।।।। घोसणया इव तित्थंकरस्स सिवमग्गदेसणमहग्धं । चरगाइणो व्व एत्थं, सिवसुहकामा जिया बहवे।R| नंदिफलाइ व्व इहं, सिवपहपडिपण्णगाण विसया उ। तब्भक्खणाओ मरणं, जह तह विसएहि संसारो।।।। तव्वज्जणेण जह इट्टपुरगमो विसयवज्जणेण तहा। परमानंदनिबंधण-सिवपुरगमणं मुणयन्वं ।।४।। वृत्तिकार द्वारा समृद्धृत निगमन-गाथा १. चम्पा के समान मनुष्य गति है। धन सार्थवाह के समान एक मात्र दया रस से परिपूरित जिनेश्वर भगवान हैं। अहिच्छत्रा नगरी के समान निर्वाण है, ऐसा इस (उपनय) में समझना चाहिए। २. धन की घोषणा के समान, शिव-मार्ग-दर्शक महामूल्य तीर्थंकर की देशना है। चरक आदि के समान मोक्ष-सुख के अभिलाषी बहुत से जीव हैं। ३. शिव-पथ-प्रतिपन्न व्यक्तियों के लिए विषय नंदी-फलों के समान हैं। जैसे--नन्दीफलों के भक्षण से मृत्यु होती है, वैसे ही विषयों से संसार बढ़ता है। ४. जैसे नन्दीफलों के वर्जन से इष्ट नगरी में गमन हो सका, वैसे ही विषयों के वर्जन से मोक्ष-गमन हो सकता है, वह मोक्ष परमानन्द की प्राप्ति का हेतु है। Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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