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________________ नायाधम्मकहाओ २८५ चौदहवां अध्ययन : सूत्र ५४-५७ ५४. तए णं पोट्टिला सुव्वयाहिं अज्जाहिं एवं वुत्ता समाणी हट्ठा ५४. आर्या सुव्रता के ऐसा कहने पर हर्षित हुई पोट्टिला ईशान-कोण में उत्तरपुरत्थिमं दिसीभागं अवक्कमइ, अवक्कमित्ता सयमेव गई। वहां जाकर स्वयं आभरण, माला और अलंकार उतारे। उतारकर आभरणमल्लालंकारं ओमुयइ, ओमुइत्ता सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं स्वयं ही पंचमौष्टिक लुञ्चन किया। जहां आर्या सुव्रता थी वहां आई। करेइ, जेणेव सुव्वयाओ अज्जाओ तेणेव उवागच्छइ, वंदइ नमसइ, वहां आकर वन्दना की। नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार कर इस वंदित्ता नमसित्ता एवं वयासी--आलित्ते णं अज्जा! लोए एवं जहा प्रकार बोली--आर्य! यह लोक जल रहा है यावत् उसने देवानन्दा की देवाणंदा जाव एक्कारस्स अंगाई अहिज्जइ, बहूणि वासाणि भांति ग्यारह अंगो का अध्ययन किया। बहुत वर्षों तक श्रामण्य-पर्याय सामण्णपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं का पालन किया। पालन कर मासिक संलेखना की आराधना में स्वयं झोसेत्ता, सहिँ भत्ताई अणसणेणं छेएत्ता आलोइय-पडिक्कत्ता को समर्पित किया। अनशन-काल में साठ-भक्तों का परित्याग समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए किया। आलोचना की, प्रतिक्रमण किया और समाधि को प्राप्त हो, उववण्णा ॥ मृत्यु के समय मृत्यु को प्राप्त कर किसी देवलोक में देव रूप में उत्पन्न कणगरहस्स मच्चु-पदं ५५. तए णं से कणगरहे राया अण्णया कयाइ कालधम्मुणा संजुत्ते यावि होत्था । कनकरथ का मृत्यु-पद ५५. किसी समय राजा कनकरथ भी काल-धर्म को प्राप्त हो गया। ५६. तए णं ते ईसर-तलवर-मार्डबिय-कोडुबिय-इब्भ-सेट्ठि-सेणावइ- सत्थवाह-पभिइणो रोयमाणा कंदमाणा विलवमाणा तस्स कणगरहस्स सरीरस्स महया इड्ढी-सक्कार-समुदएणं नीहरणं करेंति, करेत्ता अण्णमण्णं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! कणगरहे राया रज्जे य जाव मुच्छिए पत्ते वियंगित्था। अम्हे णं देवाणुप्पिया! रायाहीणा रायाहिट्ठिया रायाहीणकज्जा । अयं च णं तेयली अमच्चे कणगरहस्स रण्णो सब्वट्ठाणेसु सव्वभूमियासु लद्धपच्चए दिन्नवियारे सव्वकज्जवड्ढावए यावि होत्था। तं सेयं खलु अम्हं तेयलिपुत्तं अमच्चं कुमार जाइत्तए त्ति कटु अण्णमण्णस्स एयमढे पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता जेणेव तेयलिपुत्ते अमच्चे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तेयलिपुत्तं एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिया! कणगरहे राया रज्जेय जाव मुच्छिए पत्ते विगित्था। अम्हे णं देवाणुप्रिया! रायाहीणा रायाहिट्ठिया रायाहीणकज्जा। तुमं च णं देवाणुप्पिया! कणगरहस्स रणो सव्वठाणेसु सव्वभूमियासु लद्धपच्चए दिन्नवियारे रज्जधुराचिंतए होत्था। तं जइ णं देवाणुप्पिया! अत्थि केइ कुमारे रायलक्खणसंपण्णे अभिसेयारिहे तण्णं तुम अम्हं दलाहि, जण्णं अम्हे महया-महया रायाभिसेएणं अभिसिंचामो॥ ५६. ईश्वर, तलवर, माडम्बिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह प्रभृति ने रोते, कलपते और विपलते हुए कनकरथ राजा के शरीर का महान ऋद्धि और सत्कार-समुदय के साथ निर्हरण किया। निर्हरण कर परस्पर इस प्रकार बोले--देवानुप्रियो! राजा कनकरथ ने राज्य में यावत् मूञ्छित हो, पुत्रों को विकलांग कर दिया। देवानुप्रियो! हम राजा के अधीन हैं, राजा के द्वारा अधिष्ठित हैं और हमारा प्रत्येक कार्य राजा के अधीन है और यह अमात्य तेतली कनकरथ राजा के सभी स्थानों और सभी भूमिकाओं में विश्वास-पात्र, परामर्श देने वाला तथा सब कार्यों को बढ़ाने वाला था। अत: हमारे लिए उचित है, हम अमात्य तेतलीपुत्र से कुमार की याचना करें। इस प्रकार उन्होंने परस्पर यह प्रस्ताव स्वीकार किया। स्वीकार कर जहां अमात्य तेतलीपुत्र था, वहां आए। वहां आकर तेतलीपुत्र से इस प्रकार बोले--देवानुप्रिय! राजा कनकरथ ने राज्य में यावत् मूञ्छित हो पुत्रों को विकलांग कर दिया। देवानुप्रिय! हम राजा के अधीन हैं, राजा के द्वारा अधिष्ठित हैं और हमारा प्रत्येक कार्य राजा के अधीन है। देवानुप्रिय! तुम राजा कनकरथ के सभी स्थानों और सभी भूमिकाओं में विश्वास-पात्र, परामर्श देने वाले और राज्य-धुरा के चिन्तक थे। अत: देवानुप्रिय! यदि कोई राजलक्षण सम्पन्न, अभिषेक के योग्य कुमार हो, तो तुम हमें दो, जिससे हम उसे महान राज्याभिषेक से अभिषिक्त करें। कणगज्झयस्स रायाभिसेय-पदं ५७. तए णं तेयलिपुत्ते तेसिं ईसरपभिईणं एयमढे पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता कणगज्झयं कुमारं हायं जाव सस्सिरीयं करेइ, करेत्ता तेसिं कनकध्वज का राज्याभिषेक-पद ५७. तेतलीपुत्र ने उन ईश्वर प्रभृति अधिकारियों के इस प्रस्ताव को स्वीकार किया। स्वीकार कर उसने कुमार कनकध्वज को नहलाकर Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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