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नायाधम्मकहाओ घोरबंभचेरवासी उच्छूढसरीरे सखित्त-विउल-तेयलेस्से अज्जसुहम्मस्स थेरस्स अदूरसामते उड्ढजाणू अहोसिरे झाणकोट्ठोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।।
प्रथम अध्ययन : सूत्र ६-१० पीताभ गौर वर्ण वाले, उग्रतपस्वी, दीप्ततपस्वी, तप्ततपस्वी, महातपस्वी, महान्, घोर, घोर गुणों से युक्त, घोरतपस्वी, घोर ब्रह्मचर्यवासी लघिमा ऋद्धि से सम्पन्न, विपुल तेजोलेश्या को अन्तर्लीन रखने वाले थे। वे आर्य सुधर्मा स्थविर के न अति दूर, न अति निकट, ऊर्ध्व जानु, अध: शिर" (उकडू आसन की मुद्रा में) और ध्यान कोष्ठक में प्रविष्ट होकर, संयम और तप से अपने आप को भावित करते हुए रह रहे थे।
७. तए णं से अज्जजंबूनामे अणगारे जायसड्ढे जायसंसए जायकोउहल्ले
उप्पण्णसड्ढे उप्पण्णसंसए उप्पण्णकोउहल्ले समुप्पण्णसड्ढे समुप्पण्णसंसए समुप्पण्णकोउहल्ले उठाए उढेइ, उठेत्ता जेणामेव अज्जसुहम्मे थेरे, तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अज्जसुहम्मे थेरे तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता अज्जसुहम्मस्स थेरस्स नच्चासण्णे नातिदूरे सुस्सूसमाणे नमसमाणे अभिमुहे पंजलिउडे विणएणं पज्जुवासमाणे एवं वयासी--जइणं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं 'आइगरेणं तित्थगरेणं सहसंबुद्धेणं लोगनाहेणं लोगपईवणं लोगपज्जोयगरेणं अभयदएणं सरणदएणं चक्खुदएणं मग्गदएणं धम्मदएणं धम्मदेसएणं धम्मनायगेणं धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टिणा अप्पडिहयवरनाणदसणधरेणं जिणेणं जाणएणं बुद्धेणं बोहएणं मुत्तेणं मोयगेणं तिण्णेणं तारएणं सिवमयलमरुयमणंतमक्खयमव्वाबाहमपुणरावत्तयं सासयं ठाणमुवगएणं (सिद्धिगइनामधेज्जं ठाणं संपत्तेणं?) पंचमस्स अंगस्स अयमढे पण्णत्ते, छट्ठस्स णं भंते! अंगस्स नायाधम्मकहाणं के अढे पण्णते?
७. उस समय आर्य जम्बू नामक अनगार के मन में एक श्रद्धा (इच्छा),
एक संशय (जिज्ञासा), एक कुतूहल जन्मा। एक श्रद्धा, एक संशय, एक कुतूहल उत्पन्न हुआ। एक श्रद्धा, एक संशय, एक कुतूहल प्रबलतम बना। वे उठने की मुद्रा में उठे। उठकर, जहां आर्य सुधर्मा स्थविर थे, वहां आए। वहां आकर आर्य सुधर्मा स्थविर को तीन बार दायीं ओर से प्रारम्भ कर प्रदक्षिणा की । प्रदक्षिणा कर वंदना-नमस्कार किया। वंदना-नमस्कार कर आर्य-सुधर्मा स्थविर के न अति निकट, न अति दूर, शुश्रूषा और नमस्कार की मुद्रा में, उनके सामने बद्धाञ्जलि हो, विनयपूर्वक पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले-- "भंते! यदि धर्म के आदिकर्ता, तीर्थंकर, स्वयं संबुद्ध, लोक के नाथ, लोक में प्रदीप, लोक में प्रद्योतकर, अभयदाता, शरणदाता, चक्षुदाता, मार्गदाता, धर्मदाता, धर्मदशक, धर्मनायक, धर्म के प्रवर चतुर्दिगजयी चक्रवर्ती,१५ अप्रतिहत प्रवर ज्ञान-दर्शन के धारक, ज्ञाता, ज्ञान देने वाले, बुद्ध, बोध देने वाले, मुक्त, मुक्त करने वाले, तीर्ण, तारने वाले, शिव, अचल, अरुज, अनन्त, अक्षय, अव्याबाध, पुनरावृत्ति रहित, शाश्वत स्थान को प्राप्त (सिद्धिगति नामक स्थान को संप्राप्त?) श्रमण भगवान महावीर ने पांचवें अंग का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है तो भन्ते! छठे अंग ज्ञातधर्मकथा का उन्होंने क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है।
८. जंबु त्ति अज्जसुहम्मे थेरे अज्जजंबूनामं अणगारं एवं वयासी--एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं छट्ठस्स अंगस्स दो सुयक्खंधा पण्णत्ता, तं जहा--नायाणि य धम्मकहाओ य।।
८. स्थविर आर्य सुधर्मा ने 'जम्बू' इस संबोधन के साथ आर्य जम्बू नाम
के अनगार से इस प्रकार कहा--'जम्बू!' (धर्म के आदिकर्ता यावत् सिद्धिगति संप्राप्त) श्रमण भगवान महावीर ने छठे अंग के दो श्रुतस्कन्ध प्रज्ञप्त किए हैं, जैसे--ज्ञात और धर्मकथा।
९. जइणं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं छट्ठस्स अंगस्स दो सुयक्खंधा पण्णत्ता, तंजहा--नायाणि य धम्मकहाओ य। पढ़मस्स णं भंते! सुयक्खंधस्स समणेणं भगवया महावीरेणं जाव 'संपत्तेणं नायाणं कइ अज्झयणा पण्णत्ता?
९. भन्ते! यदि धर्म के आदिकर्ता यावत् सिद्धि गति संप्राप्त श्रमण भगवान
महावीर ने छठे अंग के दो श्रुतस्कन्ध प्रज्ञप्त किए जैसे--ज्ञात और धर्मकथा तो भन्ते! धर्म के आदिकर्ता यावत् सिद्धिगति संप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने प्रथम श्रुत-स्कन्ध ज्ञात के कितने अध्ययन प्रज्ञप्त किए हैं?
संगहणी-गाहा १०. एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं
नायाणं एगूणवीसं अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा-- १. उक्खित्तणाए २. संघाड़े ३. अंडे ४. कुम्मे य ५. सेलगे। ६. तूबे य ७. रोहिणी ८. मल्ली ९. मायंदी १०. चंदिमा इ य ।।१।।
संगहणी गाथा १०. जम्बू! धर्म के आदिकर्ता यावत् सिद्धिगति संप्राप्त श्रमण भगवान
महावीर ने ज्ञात के उन्नीस अध्ययन प्रज्ञप्त किए हैं, जैसे-- १. उत्क्षिप्तज्ञात २. संघाटक ३. अण्ड ४ कूर्म ५. शैलक ६. तुम्ब ७. रोहिणी ८. मल्ली ९. माकन्दी १०. चन्द्रिका ११. दावद्रव
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