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नायाधम्मकहाओ
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उन्नीसवां अध्ययन : सूत्र ११-१७ ११. तए णं थेरा अण्णया कयाइ पुणरवि पुंडरीगिणीए रायहाणीए ११. किसी समय स्थविर पुन: पुण्डरीकिणी राजधानी के नलिनी वन उद्यान
नलिण (णि?) वणे उज्जाणे समोसढा। पुंडरीए राया निग्गए। में समवसृत हुए। राजा पुण्डरीक ने निर्गमन किया। कण्डरीक ने भी कंडरीए महाजणसई सोच्चा जहा महाबलो जाव पज्जुवासइ। महान जन शब्द सुनकर यावत् महाबल के समान पर्युपासना की। थेरा धम्म परिकहेंति । पुंडरीए समणोवासए जाए जाव पडिगए।। स्थविर ने धर्म का कथन किया। पुण्डरीक श्रमणोपासक बना यावत्
वापस चला गया।
१२. तए णं कंडरीए थेराणं अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म हद्वतुढे १२. स्थविरों के पास धर्म को सुनकर, अवधारण कर, हृष्ट-तुष्ट होकर
उट्ठाए उढेइ, उद्वेत्ता थेरे तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, कण्डरीक स्फूर्ति के साथ उठा। उठकर स्थविरों को तीन बार दायीं करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी--सद्दहामि ओर से प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा कर वन्दना की। नमस्कार किया। णं भंते! निग्गंथं पावयणं जाव से जहेयं तुन्भे वयह। जं वन्दना-नमस्कार कर वह इस प्रकार बोला--भन्ते! मैं निर्ग्रन्थ नवरं--पुंडरीयं रायं आपुच्छामि । तओ पच्छा मुडे भवित्ता णं प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ यावत् वह वैसा ही है, जैसे तुम कह रहे अगाराओ अणगारियं पव्वयामि ।
हो। विशेष--मैं राजा पुण्डरीक से पूछू। उसके पश्चात् मुण्ड हो अहासुहं देवाणुप्पिया!
अगार से अनगारता में प्रव्रजित होऊ।
जैसा सुख हो, देवानुप्रिय!
१३. तए णं से कंडरीए थेरे वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता थेराणं
अंतियाओ पडिनिक्खमइ, तमेव चाउग्घंटं आसरहं दुरुहइ महयाभड-चडगर-पहकरेण पुंडरीगिणीए नयरीए मझमज्झेणं जेणामेव सए भवणे तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चाउग्घंटाओ आसरहाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता जेणेव पुंडरीए राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयलपरिगहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिया! मए थेराणं अंतिए धम्मे निसते, से वि य मे धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए। तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया! तुम्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे घेराणं अंतिए मुडे भवित्ता णं अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए।
१३. कण्डरीक ने स्थविरों को वन्दना की। नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार
कर स्थविरों के पास से उठकर बाहर गया। उसी चार घंटाओं वाले अश्व-रथ पर आरोहण किया। महान सैनिकों की विभिन्न टुकड़ियों
और पथ-दर्शक पुरुषों के साथ पुण्डरीकिणी नगरी के बीचोंबीच होता हुआ, जहां उसका अपना भवन था, वहां आया। वहां आकर चार घंटाओं वाले अश्व-रथ से उतरा। उतरकर जहां राजा पुण्डरीक था, वहां आया। वहां आकर जुड़ी हुई सटे हुए दस नखों वाली अञ्जलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर इस प्रकार बोला--देवानुप्रिय! मैने स्थविरों के पास धर्म सुना है। वही धर्म मुझे इष्ट, ग्राह्य और रुचिकर है। अत: देवानुप्रिय! मैं तुमसे अनुज्ञा प्राप्त कर स्थविरों के पास मुण्ड हो अगार से अनगारता में प्रव्रजित होना चाहता हूँ।
१४. तए णं से पुंडरीए राया कंडरीयं एवं वयासी--मा गं तुमं भाउया! इयाणिं मुडे भवित्ता णं अगाराओ अणगारियं पव्वयाहि। अहं णं तुम महारायाभिसेएणं अभिसिंचामि ॥
१४. राजा पुण्डरीक ने कण्डरीक से इस प्रकार कहा-भ्रात! तुम अभी
मण्ड हो अगार से अनगारता में प्रव्रजित मत बनो। मैं तुम्हें महान राज्याभिषेक से अभिषिक्त करता हूँ।
१५. तए णं से कंडरीए पुंडरीयस्स रण्णो एयमद्वं नो आढाइ नो
परियाणाइ तुसिणीए संचिट्ठइ।
१५. कण्डरीक राजा ने पुण्डरीक के इस अर्थ को न आदर दिया और न
उसकी ओर ध्यान दिया। वह मौन रहा।
१६. तएणं से पुंडरीए राया कंडरीयं दोच्चपि तच्चपि एवं वयासी--मा
णं तुम भाउया! इयाणिं मुडे भवित्ता णं अगाराओ अणगारियं पव्वयाहि । अहं णं तुमं महारायाभिसेएणं अभिसिंचामि ।।
१६. राजा पुण्डरीक ने दूसरी, तीसरी बार भी कण्डरीक से इस प्रकार
कहा-भ्रात! तुम अभी मुण्ड हो अगार से अनगारता में प्रव्रजित मत बनो। मैं तुम्हें महान राज्याभिषेक से अभिषिक्त करता हूँ।
१७. तए णं से कंडरीए पुंडरीयस्स रण्णो एयमद्वं नो आढाइ नो
परियाणाइ तुसिणीए संचिट्ठइ।।
१७. कण्डरीक ने राजा पुण्डरीक के इस अर्थ को न आद
१७. कण्डरीक ने राजा पुण्डरीक के इस अर्थ को न आदर दिया और न
उसकी ओर ध्यान दिया। वह मौन रहा।
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