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नायाधम्मकहाओ
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सोलहवां अध्ययन : सूत्र ४६-५१
४६. तए णं से जिणदत्ते सागरदत्तं एवं वयासी -- एवं खलु अहं देवाणुपिया तव धूयं भद्दाए अत्तयं सूमालियं सागरस्स भारियताए बरेमि । जइ णं जाणह देवाणुपिया जुत्तं वा पत्तं वा सलाहणिज्जं वा सरिसो वा संजोगो, ता दिज्जउ णं सूमालिया सागरदारगस्स । तणं देवाणुप्पिया! भण किं दलयामो सुकं सूमालियाए ?
४६. जिनदत्त ने सागरदत्त से इस प्रकार कहा- देवानुप्रिय ! मैं तुम्हारी पुत्री भद्रा की आत्मजा सुकुमालिका को सागर की भार्या के रूप में प्राप्त करूं । अतः देवानुप्रिय ! यदि इस (संबंध) को युक्त, पात्र, सराहनीय और समान संयोग के रूप में जानो तो बालिका सुकुमालिका को बालक सागर के लिए दे दो देवानुप्रिय कहो, हम सुकुमालिका का क्या शुल्क दें?
४७. तए णं से सागरदत्ते सत्थवाहे जिणदत्तं सत्यवाहं एवं वयासी -- एवं खलु देवाणुप्पिया! सूमालिया दारिया एगा एगजाया इट्ठा कंता पिया मण्णा मणामा जाव उंबरपुप्फं व दुल्लहा सवणयाए, किमंग पुण पासणयाए ? तं नो खतु अहं इच्छामि सूमालियाए दारियाए खणमवि विप्पओगं । तं जइ णं देवाणुप्पिया! सागरए दारए मम घरजामाउए भवइ, तो णं अहं सागरस्स सूमालियं दलयामि ।।
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४८. तए णं से जिणदत्ते सत्यवाहे सागरदत्तेणं सत्यवाहेणं एवं वृत्ते समाणे जेणेव सए गिहे तेगंव उपागच्छद्द, उवागच्छिता सागरगं दारगं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी एवं खलु पुत्ता! सागरदत्ते सत्यवाहे ममं एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! सूमालिया दारिया इड्डा कंता पिया मणुष्णा मणामा जाव उंबरपुष्कं व दुलहा सवणयाए, किमंग पुण पासणयाए ? तं नो 'खतु अहं इच्छामि सूमालियाए दारियाए सणमवि विप्पजोगं । तं जइ णं सागरए दारए मम घरजामाउए भवइ, तो णं दलयामि ।।
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४९. तए गं से सागरए दारए जिणदत्तेणं सत्यवाहेणं एवं वुत्ते समाणे तुसिणीए ।
५०. तए गं जिणदत्ते सत्यवाहे अण्णया कयाइ सोहनसि तिहि करण - नक्खत्त - मुहुत्तसि विपुलं असण- पाण- खाइम - साइमं उवक्खडावेइ, उवक्खडावेत्ता मित्त नाइ-नियग-सयण-संबंधिपरियणं आमते जाव सक्कारेता सम्माणेता सागरं दारगं हायं जाव सव्वालंकारविभूसियं करेइ, करेत्ता पुरिससहस्सवाहिणीयं सीयं दुरूहावेइ, मित्त- नाइ - नियग-सयण- संबंधि- परियणेणं सद्धिं परिवुडे सव्विङ्कीए सयाओ गिहाओ निग्गच्छ, निग्गच्छित्ता चंप नयरिं मज्झमज्झेणं जेणेव सागरदत्तस्स गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता सीयाओ पच्चीरह, पच्चोरहित्ता सागरगं दारगं सागरदत्तस्स सत्यवाहस्स उवणेइ ।।
५१. राए में से सागरदत्ते सत्यवाहे विपुलं असण पाण- लाइमसाइमं उक्क्खडावे, उक्क्त्रष्टावेत्ता जाव सम्माणेता सागरगं
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४७. सागरदत्त सार्थवाह ने जिनदत्त सार्थवाह से इस प्रकार कहा- देवानुप्रिय! यह सुकुमालिका बालिका मेरी एक ही पुत्री है। यह मेरी इकलौती पुत्री इष्ट, कमनीय, प्रिय, मनोज्ञ और मनोगत है यावत् यह उदुम्बर पुष्प के समान श्रवण दुर्लभ है, फिर दर्शन का तो प्रश्न ही क्या ? अतः मैं सुकुमालिका बालिका का एक क्षण भी विरह सहना नहीं चाहता । इसलिए देवानुप्रिय ! यदि सागर बालक मेरा गृह-दामाद बने तो मैं सागर को सुकुमालिका दूं ।
४८. सागरदत्त सार्थवाह के ऐसा कहने पर जिनदत्त सार्थवाह जहां अपना घर था वहां आया। वहां आकर बालक सागर को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा -- पुत्र ! सागरदत्त सार्थवाह ने मुझ से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! बालिका सुकुमालिका मुझे इष्ट, कमनीय, प्रिय, मनोज्ञ और मनोगत है यावत् यह उदुम्बर पुष्प के समान श्रवण दुर्लभ है फिर दर्शन का तो प्रश्न ही क्या? अतः मैं सुकुमालिका बालिका का एक क्षण भी विरह सहना नहीं चाहता। इसलिए यदि सागर बालक मेरा गृह-दामाद हो तो मैं उसे अपनी पुत्री दूं।
४९. जिनदत्त सार्थवाह के ऐसा कहने पर बालक सागर मौन रहा।
५०. किसी समय जिनदत्त सार्थवाह ने शोभन तिथि, करण, नक्षत्र और मुहूर्त में विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करवाया। तैयार कराकर मित्र, जाति, निजक, स्वजन, संबंधी और परिजनों को निमंत्रित किया पावत् उनको सत्कृत, सम्मानित कर बालक सागर को नहला कर, सब अलंकारों से विभूषित किया। विभषित कर उसे हजार पुरुषों द्वारा वहन की जाने वाली शिविका पर चढ़ाया। मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, संबंधी और परिजनों के साथ उनसे परिवृत हो सम्पूर्ण ऋद्धि के साथ अपने घर से निकला। निकलकर चम्पा नगरी के बीचोंबीच होते हुए जहां सागरदत्त का घर था, वहां आया। वहां आकर शिविका से उतरा। उतरकर बालक सागर को सागरदत्त सार्थवाह के पास ले
गया।
५१. सागरदत्त सार्थवाह ने विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करवाया। तैयार करवाकर यावत् सबको सम्मानित कर कुमार सागर
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