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________________ नायाधम्मकहाओ समणा निग्गंथा राओ फुव्वरत्तावरत्तकालसमसि वायणाए पुच्छणाए परियट्टणाए धम्माणुजोगचिंताए य उच्चारस्स वा पासवणस्स वा अइगच्छमाणा य निग्गच्छमाणा य अप्पेगइया हत्थेहिं संघटुंति अप्पेगइया पाएहि संघटेति अप्पेगइया सीसे संघटुंति, अप्पेगइया पोट्टे संघट्टेति अप्पेगइया कायंसि संघटुंति अप्पेगइया ओलडेंति अप्पेगइया पोलडेंति अप्पेगइया पाय-रय-रेणु-गुंडियं करेंति । एमहालियं च णं रत्तिं अहं नो संचाएमि अच्छि निमिल्लावेत्तए (निमीलित्तए?)। तं सेयं खलु मज्झ कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते समणं भगवं महावीरं आपुच्छित्ता पुणरवि अगारमज्झावसित्तए त्ति कटु एवं सपेहेइ, सपेहेत्ता अट्ट-दुहट्ट-वसट्ट-माणसगए निरयपडिरूवियं च णं तं रयणिं खवेइ, खवेत्ता कल्लं पाउप्पभायाए सुविमलाए रयणीए जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ जाव पज्जुवासइ।। प्रथम अध्ययन : सूत्र १५४-१५५ मुझे सत्कृत करते हैं, न सम्मानित करते हैं, न अर्थ, हेतु, प्रश्न, कारण और व्याकरण का आख्यान करते है और न इष्ट एवं कांत वाणी से आलाप-संलाप करते है। ये श्रमण-निर्ग्रन्थ रात्रि में पूर्वरात्रापरात्र में वाचना, प्रच्छना परिवर्तना, धर्मानुयोग का चिन्तन और उच्चार या प्रस्रवण के हेतु आते-जाते हुए कुछेक मेरे हाथों को छू जाते। कुछेक पावों को छू, जाते, कुछेक सिर को छू जाते, कुछेक पेट को छू जाते, कुछेक शरीर को छू जाते, कुछेक मुझे लांघकर जाते, कुछेक बार-बार लांघ कर चले जाते और कुछेक अपने पैरों की रजों से मुझे धूलि-लिप्त कर जाते, इस कारण से इतनी लम्बी रात में भी मैं आंख नहीं मूंद सका। ____ अत: मेरे लिए उचित है, मैं उषाकाल में, पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ जाने पर श्रमण भगवान महावीर से पूछ, पुन: घर में चला जाऊं-- वह ऐसी संप्रेक्षा करने लगा। संप्रेक्षा कर आर्त, दुःख से आर्त और कामना से आर्त मानस वाले मेघ ने नरक के समान वह रात बिताई।१२१ उषाकाल में रात्रि के निर्मल हो जाने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर, तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ जाने पर कुमार मेघ जहां श्रमण भगवान महावीर थे वहां आया। वहां आकर उसने श्रमण भगवान महावीर को दायीं ओर से प्रारम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा कर वंदन नमस्कार किया, यावत् पर्युपासना करने लगा। मेहस्स संबोध-पदं १५५. तएणं मेहाइ समणे भगवं महावीरे मेहं कुमारं एवं वयासी--से नूणं तुम मेहा! राओ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि समणेहिं निग्गंथेहिं वायणाए पुच्छणाए परियट्टणाए धम्माणुजोगचिंताए य उच्चारस्स वा पासवणस्स वा अइगच्छमाणेहि य निग्गच्छमाणेहि य अप्पेगइएहिं हत्थेहिं संघट्टिए अप्पेगइएहिं पाएहिं संघट्टिए अप्पेगइएहिं सीसे संघट्टिए अप्पेगइएहिं पोट्टे संघट्टिए अप्पेगइएहिं कायंसि संघट्टिए अप्पेगइएहिं ओलंडिए अप्पगइएहिं पोलंडिए अप्पेगइएहिं पाय-रय-रेणु-गुंडिए कए । एमहालियं च णं राइं तुमं नो संचाएसि मुहुत्तमवि अच्छिं निमिल्लावेत्तए । तए णं तुज्झ मेहा! इमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--जया णं अहं अगारमज्झावसामि तया णं ममंसमणा निग्गंथा आढायंति परियाणंति सक्कारेंति सम्माणति अट्ठाइं हेऊइं पसिणाइं कारणाई वागरणाई आइक्खंति, इट्ठाहिं कंताहि वग्गूहिं आलवेंति संलवेति । जप्पभिई च णं मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वयामि तप्पभिइंच णं ममं समणा निग्गंथा नो आढायंति जाव संलवेति । अदुत्तरंचणं ममं समणा निग्गंथा राओ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयसि अप्पेगइया जाव पाय-रय-रेणु-गुडियं करेंति । तं सेयं खलु मम मेघ को संबोध-पद १५५. मेघ! श्रमण भगवान महावीर ने कुमार मेघ को इस प्रकार कहा--मेघ! रात्रि में पूर्वरात्रापरात्र में वाचना, प्रच्छना, परिवर्तना, धर्मानुयोग का चिन्तन, उच्चार या प्रस्रवण के हेतु आते-जाते हुए श्रमण-निग्रन्थों में से कुछेक तेरे हाथों को छू गये, कुछेक पेट को छू गये, कुछेक शरीर को छू गये, कुछेक तुझे लांघ कर चले गये और कुछेक बार-बार लांध कर चले गये और कुछेक ने अपने पैरों की रजों से तुझे धूलि-लिप्त कर दिया। इस कारण से इतनी लम्बी रात में तूं मुहूर्त भर भी आंख नहीं मूंद सका। मेघ! तब तेरे मन में इस प्रकार का आध्यात्मिक, चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ--'जब मैं गृहवास में था, तब श्रमण-निर्ग्रन्थ मेरा आदर करते थे। मेरी ओर ध्यान देते थे। मेरा सत्कार करते थे। सम्मान करते थे। अर्थ, हेतु, प्रश्न, कारण और व्याकरण का आख्यान करते थे। इष्ट और कांत वाणी से आलाप-संलाप करते थे। जिस समय से मैं मुण्ड हो अगार से अनगारता में प्रव्रजित हुआ हूं, उस समय से ये श्रमण-निर्ग्रन्थ न मेरा आदर करते हैं यावत् न संलाप करते हैं। ये श्रमण-निर्ग्रन्थ रात्रि में पूर्वरात्रापरात्र में कुछेक मेरे हाथों Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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