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________________ सत्तरसमं अज्झयणं : सत्रहवां अध्ययन आइण्णे : आकीर्ण उक्खे व-पदं १. जइणं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सोलसमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते, सत्तरसमस्स णं भते! नायज्झयणस्स के अटे पण्णत्ते? उत्क्षेप-पद १. भन्ते! यदि धर्म के आदिकर्ता यावत् सिद्धि गति सम्प्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के सोलहवें अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है तो भन्ते! उन्होंने ज्ञाता के सत्रहवें अध्ययन का क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है? २. एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं हत्थिसीसे नाम नयरे होत्या--वण्णओ। २. जम्बू। उस काल और उस समय हस्तिशीर्ष नाम का नगर था-- वर्णक.........। ३. तत्थ णं कणगकेऊ नाम राया होत्था--वण्णओ।। ३. वहां कनककेतु नाम का राजा था--वर्णक........ । ४. तत्थ णं हत्थिसीसे नयरे बहवे संजत्ता-नावावाणियगा परिवसंति--अड्डा जाव बहुजणस्स अपरिभूया यावि होत्था। ४. उस हस्तिशीर्ष नगर में बहुत से सांयात्रिक पोत-वणिक् रहते थे। वे आढ्य यावत् जन-समूह से अपराजित थे। कालियदीप-जत्ता-पदं कालिकद्वीप-यात्रा पद ५. तए णं तेसिं संजत्ता-नावावाणियगाणं अण्णया कयाइ एगयओ ५. किसी समय एकत्र सम्मिलित उन सांयात्रिक पोत-वणिकों में परस्पर सहियाणं इमेयारूवे मिहोकहा-समुल्लावे समुप्पज्जित्था--सेयं खलु इस प्रकार का वार्तालाप हुआ--हमारे लिए उचित है हम गणनीय, अम्हं गणिमं च धरिमं च मेज्जं च परिच्छेज्जं च भंडगं गहाय धरणीय, मेय और परिच्छेद्य क्रयाणक लेकर पोत-वहन से लवणसमुद्र लवणसमुदं पोयवहणेणं ओगाहेत्तए त्ति कटु जहा अरहन्नए जाव का अवगाहन करें। यह चिन्तन कर यावत् वे अर्हन्नक के समान लवणसमुदं अणेगाई जोयणसयाई ओगाढा यावि होत्था। लवणसमुद्र में अनेक शतयोजन तक पहुंच गए। ६. तए णं तेसिं संजत्ता-नावावाणियगाणं लवणसमुदं अणेगाई जोयणसयाइं ओगाढाणं समाणाणं बहूणि उप्पाइयसयाई पाउन्भूयाई, तं जहा--अकाले गज्जिए अकाले विज्जुए अकाले थणियसद्दे कालियवाए य समुत्थिए। ६. वे सांयात्रिक-पोत वणिक् जब लवणसमुद्र में अनेक शतयोजन तक पहुँच गये तब उनके सामने अनेक शत उत्पात 'प्रादुर्भूत हुए--जैसे अकाल में गर्जन, अकाल में विद्युत, अकाल में मेघ की गंभीर ध्वनि यावत् कालिक-वात (तूफान) उठा। ७. तएणं सा नावा तेणं कालियवाएणं आहुणिज्जमाणी-आहुणिज्जमाणी संचालिज्जमाणी-संचालिज्जमाणी संखोहिज्जमाणी-संखोहिज्जमाणी तत्थेव परिभमइ॥ ७. वह नौका कालिक-वात से बार-बार कम्पित, संचालित और संक्षुब्ध होती हुई वहीं चक्कर लगाने लगी। ८. तए णं से निज्जामए नट्ठमईए नट्ठसुईए नट्ठसण्णे मूढदिसाभाए जाए यावि होत्था--न जाणइ कयरं देसं वा दिसंवा 'विदिसं वा पोयवहणे अवहिए त्ति कटु ओहयमणसंकप्पे करतलपल्हत्थमुहे अट्टज्झाणोवगए झियायइ।। ८. उस निर्यामक की मति, श्रुति और संज्ञा नष्ट हो गई। वह दिग्मूढ हो गया। वह यह नहीं जानता कि पोत-वहन किस देश, किस दिशा अथवा किस विदिशा में अपहृत हो गया है--इसलिए वह भग्न-हृदय हो हथेली पर मुंह टिकाए आर्तध्यान में डूबा हुआ चिन्ता-मग्न हो रहा था। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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