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नायाधम्मकहाओ सुबुद्धिस्स उत्तर-पदं २७. तए णं सुबुद्धी जियसत्तुं एवं वयासी--एस णं सामी! से
फरिहोदए।
बारहवां अध्ययन : सूत्र २७-३२ सुबुद्धि का उत्तर-पद २७. सुबुद्धि ने जितशत्रु से इस प्रकार कहा--स्वामिन्। यह वही परिखा
का जल है।
२८. तए णं से जियसत्तू सुबुद्धिं एवं वयासी--केणं कारणेणं सुबुद्धी!
एस से फरिहोदए?
२८. जितशत्रु ने सुबुद्धि से इस प्रकार कहा--सुबुद्धि! यह वही परिखा का
जल है, इसका हेतु क्या है?
२९. तए णं सुबुद्धी जियसत्तुं एवं वयासी--एवं खलु सामी! तुब्भे
तया मम एवमाइक्खमाणस्स भासमाणस्स पण्णवेमाणस्स परूवेमाणस्स एयमटुं नो सद्दहह । तए णं मम इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुपज्जित्था--अहोणं जियसत्तू राया संते तच्चे तहिए अवितहे सन्भूए जिणपण्णत्ते भावे नो सद्दहइ नो पत्तियइ नो रोएइ। तं सेयं खलु मम जियसत्तुस्स रणो संताणं तच्चाणं तहियाणं अवितहाणं सब्भूयाणं जिणपण्णत्ताणं भावाणं अभिगमणट्ठयाए एयमटुं उवाइणाक्तए-- एवं सपेहेमि, सपेहेत्ता तं चेव जाव पाणिय-घरियं सद्दावेमि, सद्दावेत्ता एवं वदामि--तुमणं देवाणुप्पिया! उदगरयणं जियसत्तुस्स रण्णो भोयणवेलाए उवणेहि । तं एएणं कारणेणं सामी! एस से फरिहोदए।
२९. सुबुद्धि ने जितशत्रु से इस प्रकार कहा--स्वामिन्! उस समय ऐसा
आख्यान, भाषण, प्रज्ञापना और प्ररूपणा करते हुए मेरे इस अर्थ पर तुम्हें श्रद्धा नहीं हुई। तब मेरे मन में इस प्रकार का आन्तरिक, चिन्तित, अभिलाषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ--अहो! राजा जितशत्रु सत्, तत्त्व, तथ्य, अवितथ, सद्भूत, जिनप्रज्ञप्त भावों में श्रद्धा नहीं करता, प्रतीति नहीं करता और उसे यह रुचिकर नहीं लगता। अत: मेरे लिए उचित है, मैं राजा जितशत्रु को सत्, तत्त्व, तथ्य, अवितथ, सद्भुत, जिनप्रज्ञप्त भावों की अवगति के लिए उसे वस्तुओं के इस परिणमन धर्म को समझाऊं। मैंने यह संप्रेक्षा की यावत् जल गृह अधिकारी को बुलाया। उसे बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! तुम यह उदक-रत्न भोजन की बेला में राजा जितशत्रु के समक्ष प्रस्तुत करो। स्वामिन्! इस हेतु के आधार पर मैं कहता हूँ यह वही परिखा का जल है।
जियसत्तुणा जलसोधण-पदं ३०. तए णं जियसत्तू राया सुबुद्धिस्स एवमाइक्खमाणस्स भासमाणस्स
पण्णवेमाणस्स परूवेमाणस्स एयमद्वं नो सद्दहइ नो पत्तियइ नो रोएइ, असद्दहमाणे अपत्तियमाणे अरोएमाणे अभिंतरठाणिज्जे पुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं क्यासी--गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया! अंतरावणाओ नवए घडए पडए य गेण्हह जाव उदगसंभारणिज्जेहिं दव्वेहिं संभारेह । तेवि तहेव संभारेंत, संभारेत्ता जियसत्तुस्स उवणेति॥
जितशत्रु द्वारा जल-शोधन-पद ३०. राजा जितशत्रु ने सुबुद्धि के उस आख्यान, भाषण, प्रज्ञापना और प्ररूपण पर श्रद्धा नहीं की, प्रतीति नहीं की, उसे वह रुचिकर नहीं लगा। उसे सुबुद्धि के आख्यान पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि नहीं हुई इसलिए उसने अपने अंतरंग सेवकों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! तुम जाओ, नगर के मध्यवर्ती बाजार से नये घड़े और नये कपड़े लाओ यावत् जल को सुगन्धित करने वाले बहुत से द्रव्यों से उसे सुगन्धित करो। उन्होंने वैसे ही सुगन्धित किया। सुगन्धित कर जितशत्रु के समक्ष प्रस्तुत किया।
जियसत्तुस्स जिण्णासा-पदं ३१. तए णं से जियसत्तू राया तं उदगरयणं करयलंसि आसाएइ,
आसाएत्ता आसायणिज्जं जाव सब्विंदियगाय-पल्हायणिज्जं जाणित्ता सुबुद्धिं अमच्चं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--सुबुद्धी! एए णं तुमे संता तच्चा तहिया अवितहा सब्भूया भावा कओ उवलद्धा?
जितशत्रु का जिज्ञासा-पद ३१. राजा जितशत्रु ने उस उदक-रत्न को हथेली में लेकर चखा।
चखकर उसे स्वाद लेने योग्य यावत् सब इन्द्रियों और अवयवों को प्रल्हादित करने वाला जानकर अमात्य सुबुद्धि को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा--सुबुद्धि! ये सत्, तत्त्व, तथ्य, अवितथ, सद्भूत भाव तुम्हें कहां से उपलब्ध हुए?
सुबुद्धिस्स उत्तर-पदं ३२. तए णं सुबुद्धी जियसत्तुं एवं वयासी--एए णं सामी! मए संता
तच्चा तहिया अवितहा सब्भूया भावा जिणवयणाओ उवलद्धा॥
सुबुद्धि का उत्तर पद ३२. सुबुद्धि ने जितशत्रु से इस प्रकार कहा--स्वामिन्! ये सत्, तत्त्व, तथ्य,
अवितथ और सद्भूत भाव मुझे जिन-प्रवचन से उपलब्ध हुए हैं।
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