Book Title: Aagam 02 SUTRAKRIT Choorni
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [०२] श्री सूत्रकृताङ्ग-चूर्णिः नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित - सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः "सूत्रकृत" चूर्णि: [बहुश्रुतकिंवदन्त्याः जिनदासगणिवर्य विहिता [आद्य संपादकः - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. ] (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह ) पुनः संकलनकर्ता→ मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D. श्रुतमहर्षि) jain_e_library's Net Publications 01/02/2017, बुधवार, २०७३ महा शुक्ल ५ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता...... आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र- [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : [0] Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत दीप अनुक्रम [] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ ( मूलं+निर्युक्ति:+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [ ], अध्ययन [ ], उद्देशक [ ], निर्युक्तिः [ ], मूलं [ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता... आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: श्रीसूत्रकृताङ्गचूर्णिः। बहुश्रुत किंवदन्त्या श्रीजिनदासगणिवर्यविहिता मुद्रणप्रयोजिका - मालव देशान्तंर्गत रत्नपुरीय ( रतलामगत) श्री ऋषभदेव जी केशरीमलजी वेतांबर संस्था. मुद्रणकर्त्ता - सूर्यपुरीय श्री जैनानंद मुद्रणालय व्यापारविता शा० मोहनलाल मगनलाल बदामी. विक्रमस्य संवत् १९९८ श्रीवरस्य २४६८ पण्यं रूप्यकपंचकं सर्वेका मुद्रणस्य मुद्रणकारकाधीनाः *** सूत्रकृताङ्गसूत्रस्य मूल "टाइटल पेज" [1] क्राइष्टस्य १९४१ प्रतय: ५००. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पठाकर पृष्ठांक: २२० । ०५५ २४३ मूलाका: ८०६ सूत्रकृताङ्ग सूत्रस्य विषयानुक्रम नियुक्ति गाथा: २०५ मूलांक:: विषयः | मूलांक:: विषय: मूलांक:: विषय: श्रुतस्कंध-१ ** | अध्ययनं ३ उपसर्ग: | १०२ | अध्ययनं ९धर्म ** | अध्ययनं १समयं १६५ | उद्देशक:-१- प्रतिकुल उपसर्गः | ४३७ -धर्म स्वरूप, हिंसादिपंचकस्य००१ | उद्देशक:-१- पञ्चमहाभूतः, १८२ | उद्देशक:-२- अनुकूल उपसर्ग: त्यागस्य उपदेश:, अनाचार-आत्माद्वैत. देहात्म, अकारक, २०४ | उद्देशक:-३- परवादी वचनात् त्यागः, प्रव्रज्याविधानं -आत्माषष्ठ एवं अफालवाद: आत्मिकदुखं *- | अध्ययनं १० समाधि: ०२८ उद्देशक:-२- नियति, अज्ञान, २२५ उद्देशक:-४- यथावस्थित अर्थ ४७३ |-प्राणातिपात आदि विरमणम्, -ज्ञान एवं क्रिया-वाद: प्ररूपणं -आधाकाहार-खी संगति: एवं ०६० | उद्देशक:-३- जगत्कर्तृत्व, | अध्ययनं ४ खीपरिज्ञा | १३० निदानादेः निषेधः, -त्रैराशिक एवं अनुष्ठानवाद: २४७ | उद्देशक:-१.२खी परिषह: -एकत्व आदि भावनास्वरूपं ०७६ | उद्देशक:-४- लोकवादः * | अध्ययनं ५ नरकविभक्तिः *-*- | अध्ययनं ११ मार्ग: -असर्वज्ञवाद:, अहिंसा, चर्यादि। ३०० | उद्देशक:-१- नरकवेदना ४९७ | -मोक्षमार्ग:, विरतिउपदेश:, अध्ययनं २ वैतालियं ३२७ | उद्देशक:-२-चतुर्गतिभ्रमणं -भावसमाधिः ०८९ | उद्देशक:-१- मनुष्यभवस्य ** | अध्ययनं ६ वीरस्तुतिः १७९ *-*- | अध्ययनं १२ समवसरणं दुर्लभत्वं, -मोहादि-निवृति:. ३५२ -महावीरप्रभोः गुणवर्णनं १८१ ५३५ । -अज्ञानादि-वाद,भवभ्रमण हेतु: -प्रथमं महाव्रतं आदिः | अध्ययनं ७ कुशील परिभाषा -अनासक्ति उपदेश: १११ । | उद्देशक:-२-परिसह-कषाय-जय । ०७९ ३८१ -हिंसा एवं तत् कर्मफलं, ** | अध्ययनं १३ यथातथ्य -परिग्रह-परिचयादी-निषेध: -बोधि दुर्लभत्वं, ५५७ | -मोक्ष एवं बंधस्वरूपं, -समितिवर्णनम् -स्वसमय-परसमय वर्णनं, -मद त्याग उपदेश: १४३ उद्देशक:-३- मुक्तिहेतुः,महाव्रत- ०९२ -आहार विधि-निषेध: *-*- | अध्ययन १४ ग्रन्थः माहात्म्य, कर्म फल-संवर एवं अध्ययनं ८ वीर्य ५८० ।-अपरिग्रह-ब्रह्मचर्य उपदेश:, निर्जरादिः |-वीर्यस्य भेदवर्णनं, बाल एवं -प्रश्नोत्तरविधिः, भाषाविवेकः, पंडित वीर्यम् -सूत्रोच्चारणं व अर्थप्रतिपादनं मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: । २५६ २७५ २८७ [2] Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | पृष्ठांकः । मूलांक पृष्ठांक: | ४०६ सूत्रकृताङ्ग सूत्रस्य विषयानुक्रम विषय: पृष्ठांक: *-* | अध्ययनं २क्रियास्थानं ३४० ६४८ -त्रयोदश क्रियास्थानानि । *** | अध्ययनं ३ आहारपरिज्ञा । ६७५ । -विविध वनस्पतिकायस्य उत्पति, तस्य आहारविधिः -जीवोत्पत्तिः तस्य आहार एवं शरीर वर्णन ३७९ मूलाङ्का: ८०६ मूलांक: विषय: ** | अध्ययनं १५ आदानं ६०७ -मोक्षस्य उपाया:, -भवभ्रमणनिषेध हेतु: ** अध्ययनं १६ गाथा ६३२ |-अनगार स्वरूप श्रुतस्कंध-२ *-* | अध्ययनं १ पुण्डरिक ६३३ -पुण्डरिक-उद्धरणं दृष्टांत एवं तद् भावस्य कथनं, देहात्मपञ्चमहाभूत-कारणिक ३०७ नियुक्ति गाथा: २०५ मूलांक: विषयः ** | अध्ययनं ५ आचारश्रुतं ७०५ |-अनेकान्त वचनप्रयोगकरणं । -जीव अजीव आदि तत्त्वस्य अस्तित्व-स्वीकारः *** | अध्ययनं ६ आर्द्रकीयं ७३८ -गोशालक एवं आर्द्रकुमारस्य परस्पर वार्ता, शाक्य भिक्षु सार्धं आर्द्रकुमारस्य संवादः ** | अध्ययनं ७ नालंदीयं ७९३ | -पेढालपुत्र एवं गौतमस्य परस्पर वार्ता *-*- | अध्ययनं ४ प्रत्याख्यानं ७०० -अप्रत्याख्यान स्वरूपं, -प्रत्याख्यान हेतुः, षड् जीवनिकाय हिंसा विरमणं आदि वाद कथन मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सूत्रकृत-चूर्णि] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले “सूत्रकृताङ्गसूत्र" के नामसे सन १९४१ (विक्रम संवत १९९८) में रुषभदेवजी केशरमलजी श्वेताम्बर संस्था द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब | वृत्ति की तरह चूर्णी के भी दुसरे प्रकाशनों की बात सुनी है, जिसमे ऑफसेट-प्रिंट और स्वतंत्र प्रकाशन दोनों की बात सामने आयी है, मगर मैंने अभी तक कोई प्रत देखी नहीं है। *- हमारा ये प्रयास क्यों? -* आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने उन सभी प्रतो को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसके बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर श्रुतस्कंध-अध्ययन-उद्देशक-मूलसूत्र-नियुक्ति आदि के नंबर लिख दिए, ताकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा अध्ययन, उद्देशक आदि चल रहे है उसका सरलतासे ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके| हमारे अनक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढते हए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस [-] दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-|| ऐसी दो लाइन खींची है। इस आगम चूर्णि के प्रकाशनो में भी हमने उपरोक्त प्रकाशनवाली पद्धत्ति ही स्वीकार करने का विचार किया था, परंतु चूर्णि और वृत्ति की संकलन पद्धत्ति एक-समान नही है, चूर्णिमे मुख्यतया सूत्रों या गाथाओ के अपूर्ण अंश दे कर ही सूत्रो या गाथाओ को सूचित कर के पूरी चूर्णि तैयार हुई है, कहीं-कहीं नियुक्ति एवं सूत्र या गाथा की चूर्णि है ही नहि, इसीलिए हमें यहाँ सम्पादन पद्धत्ति बदलनी पड़ी है | हमने यहाँ उद्देशक आदि के सूत्रो या गाथाओ का क्रम, [१-१४, १५-२४] इस तरह साथमे दिया है और बायीं तरफ़ उपर आगम-क्रम और नीचे इस चूर्णि के सूत्रक्रम और दीप-अनुक्रम दिए है, जिससे आप हमारे आगम प्रकाशनोंमे प्रवेश कर शकते है। अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता औ र आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसिको मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है। ......मुनि दीपरत्नसागर. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम [] “सूत्रकृत” - अंगसूत्र- २ (निर्युक्तिः+चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [१], निर्युक्ति: [१-३५], मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: श्रीसूत्रकृताङ्गचूर्णिः । ॐ नमः सिद्धेभ्यः । णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आयरियाणं णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्व साहूणं, मंगलादीणि सत्थाणि मंगलमज्झाणि मंगलअवसाणाणि, मंगलपरिग्गहिआ सिस्सा अवग्गहेहावायधारणासमत्था सत्थाण पारगा भवंति, ताणि य सत्यागि लोगे विरायंति वित्थारं च गच्छति, तत्थादिमंगलेण, सिस्सा आरंभप्पभिति णिव्विसाया सत्थं पडिवजिऊणं अविग्घेण सत्यस्स पारं गच्छति, मज्झमंगलेण तदेव सत्यं परिजितं भवति, अवसाणमंगलेण सिस्सप सिस्ससंताणे पडिवाएन्ति, आहआचार्या ! मंगलंकरणाच्छाखं नं मङ्गलमापद्यते, अथवेह मङ्गलात्मकस्यापि शास्त्रस्यान्यन्मङ्गलमुच्यते अतस्तस्याप्यन्यत् तस्यान्यन्मङ्गलमादेयमित्यतोऽनवस्था, न चेदनवस्था प्रतिपद्यते ततो यथा मङ्गलमपि शास्त्रं अन्यमङ्गलशून्यत्वात् न मङ्गलं तथा मङ्गलमपि अन्य मङ्गलशून्यत्वादमङ्गलमिति मङ्गलाभावः, उच्यते, यस्य शास्त्रादर्थान्तरभूतं मङ्गलं तं प्रत्येषा कल्पना भवेत्, इह त्वस्माकं ••• उपोद्घात् निर्युक्तिः, आदि-मध्य-अंत्य मंगलस्य निर्देश: [5] मंगलचर्चा Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: मुत्रचूर्णिः मंगल शास्त्रमेव मङ्गलं ? यन्मङ्गलमुपादीयते किमत्रामङ्गलंका वाऽनवस्थेति ?, नायमसत्पक्षः, किन्तु यस्यापि शास्त्रादर्थान्तरभूतं तस्यापि नामंगलप्रसंगो न वाऽनवस्था, कुतः, खपरानुग्रहकारित्वान्मङ्गलस्य प्रदीपवत् लवणादिवद्वा, आह-महालत्रयान्तरालद्वयं न मङ्गलमापद्यतेऽर्थापनितः, यदिवेह सर्वमेव शास्त्र मङ्गलमिति प्रतिपद्यते मङ्गलवयग्रहणमनर्थकं ?, उच्यते, समस्तमेव शास्त्रं त्रिधा । विभज्यते, कुतोऽन्तरालद्वयपरिकल्पनं यदमङ्गलं भवेत् ?, कथं पुनः सर्वमेव शास्त्रं मङ्गलमिति चेत् ?, उच्यते, निर्जरार्थत्वात् तपोवत् , आह-यदि स्वयमेव शास्त्रं मङ्गलमित्यतः किमिह मङ्गलग्रहणं क्रियते ?, उच्यते. ननूक्तं नैवेह शास्त्रादर्थान्तरभूतं मङ्गलमुपादीयते, किन्तु मङ्गलमिदं शास्त्रमिति केवलमुञ्चायते, आह-तदुचारणं किंफलं ?, यदि मालमिति न संबध्यते किं तद् १. मङ्गलं भवति, शिष्यमतिमङ्गलपरिग्रहार्थं तदभिधानं, इह शिष्यः कथं शास्त्रं मालमित्येव मंगलबुद्ध्या परिगृहीयादिति, यस्मादिह मङ्गलमपि मङ्गलबुद्ध्या परिगृह्यमाणं मङ्गलं भवति, साधुवत् , आह-ततः सर्वमेवेदं मङ्गलमित्येतावदस्तु नार्थों मङ्गलत्रयबुद्धिग्रहेण, उच्यते, ननु तत्रापि कारणमुक्तं-यथव हि शाखं मङ्गलमपि सत् न मङ्गलबुद्धिपरिग्रहमन्तरेण मङ्गलं भवति साधुवत् , तथा मङ्गलजयकारणमपि अविनपारगमनादि न मङ्गलत्रयबुद्ध्या विना सिध्यतीत्यतस्तदभिधानमिति, मगेगत्यर्थस्य अलप्रत्ययान्तस्य मङ्गलमिति रूपं भवति, मंग्यतेऽनेन हितमिति मङ्गलं, मंग्यते साध्यत इतियावत् , अथवा मंगो-धर्मः, 'ला आदाने' मङ्गं लातीति मङ्गलं, धर्मोपादाने हेतुरित्यर्थः, अथवा निपातनादिष्टार्थप्रकृतिप्रत्ययोपादान्मङ्गलं, इष्टार्थाश्च प्रकृतयः-मकि मण्डने, मन ज्ञाने, मदी हर्षे, मदि मोदस्वमगतिषु, मह पूजायामित्येवमादीनामलप्रत्ययान्तानां मङ्गलमेतन्निपात्यते, मंक्यते अनेन मन्यते वाऽनेनेति मङ्गलमित्यादि लक्षणशास्त्रीययाऽनुवृत्या योजनीयमिति, अथवा मंगालयति भवादिति मङ्गलं, संमारादपनयतीत्यर्थः, अथवा 'मंगल' संबधि विवेचन Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: श्रीसूत्रक ताङ्गचूर्णिः ॥३॥ शास्त्रस्य मा गलो भूदिति मङ्गलं, गलो-विनं, मा गालो वा भूदिति मङ्गलं, गलनं गालो, नाश इत्यर्थः, सम्यग्दर्शनादिमार्ग- तीर्थसिद्धिः लयनाद्वा मङ्गलमित्यादि नैरुक्ता भाषेत इति । तं च नामादि चतुर्विधमपि जहा आवस्सए तथा परूवेयव्वं जाव जाणगपरीर-|| भविय शरीरबहरितं दवमंगलं दध्यक्षतसुवर्णसिद्धार्थकादि, भावमंगलंपि तहेब, अथवा भावमंगलं णिज्जुत्तिकारेणं चेव चुत्वं 'तित्थगरे य जिणवरे सुत्तकरे गणधरे व णमिऊणं । सुत्तकडस्स भगवतो णिज्जुति कित्तइस्सामि ॥१॥ इह तीर्थकरणातीर्थकरा वक्ष्यन्ते, तत्र तृ प्लवनतरणयोरित्यस्य तीर्थमिति, तं च नामादि चतुर्विध, तत्थ दव्यतित्थं मागहादि, | अद्दया सरिआदीणं जो अवगासो समो णिरपायो य, तिअति जं तेण, तहिं वा तरिअइत्ति तित्थं, एवं दवतित्थे पसिद्धे तरिता तरणं तरियव्वं च पसिद्धाणि चेव, तत्थ तारओ पुरिसो तरण बाहोड्डुवादितरियव्यं णदी समुद्दोवा, तं च देहादितरितब्बतारणतो | दाहोवसमणत्तो तहाछेदणओ बज्झमलपवाहणतो अणेगंतियं फलतो य, स्वयं च द्रव्यात्मकत्वात् द्रव्यतीर्थमुच्यते, अपिच| दाहोवसमं तण्हाएँ छेदणं मलपवाहणं चेव । तिसु अत्थेसु णियत्तं तम्हा तं दवतो तित्थं ॥१॥ भावतित्थं चाउब्वणो संघो, जओ सुते भणियं ?-"तित्थं भंते ! तित्थं तित्थकरे तित्थं?, गोतमा! अरहा ताव णियमा तित्थकरे, तित्थं पुण चाउचण्णाइण्णो संघो, तम्मि य पसिद्धे तरिता तरणं तरियव्यं च पसिद्धाणि चेब, तत्थ तरिता साधू तरणं सम्मदंसणणाणचरित्ताणि, तरितव्वं भवसमुद्दो, जतो णाणादिभावतो मिच्छत्तऽण्णाणविरतिभवभावेहितो तारयति तेण भावतित्थंति, अथवा कोहलोभकम्ममयदाहतण्हाछेदकम्ममलादवणयणमेगन्तिअमचंतियं च तेण कातित्ति अतो भावतित्थं, अपिच-कोईमि उ णिग्गहिते अतु-101 लोबममो भवे मणूसाणं । लोमम्मि उ णिग्गहिते तण्हायोच्छेदणं होति ।।१॥ अट्ठविहों कम्मरओ बहुएहिं भवेहिं संचितो ॥ ३ मंगल' एवं तीर्थ संबंधि विवेचनं, Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: नियुक्तिमंगलं श्रीसूत्रकृताङ्गचूर्णिः ॥४ ॥ जम्हा । तवसंजमेण वोच्छिजति तम्हा तं भावतो तित्थं ॥ २॥ अथवा-दसणणाणचरिते(हिं)णिउत्तं जिणवरेहिं सव्वेहिं । तिहि अत्थेहिं णिउत्तं तम्हा तं भावतो तित्थं ॥३॥ तं भावतित्थं जेहिं कयं ते तित्थकरे, तित्थगरग्रहणेन अतीताणागतवमाणा सच्चतित्थकरा गहिया, 'जिणे'त्ति दव्वजिणा भावजिणा य, दव्यजिणा जेण जं दध्वं जिय, यथा जितमनेनौषधमिति, संग्रामे वा शत्रुजयात् द्रव्यजिना भवन्ति, भावजिणा जेहिं कोहमाणमायालोमा जिता, जिणगहणेण उवसामगखवगसजोगिजिणा तिण्णिावि गहिता, तदणंतरं सुतं-सुत्तकयं ते गणधरा एकारसवि, अविग्रहणेण सेसगणधरवंसोवि, सूयकडस्सत्ति उवरि भणिहिति, अत्थजसधम्मलच्छीपयत्तविभवाण छण्हमेतेसिं 'भग' इति सण्णा, सो जस्स अस्थि सो भण्णति भगवं, अतो सूयकडस्स भगवतो, 'णिज्जुत्तिति निश्चयेन वा आधिक्येन सार्थादितो वा युक्ता नियुक्ताः-सम्यगवस्थिताः श्रुताभिधेयविशेषा जीवादयः, तथाहि| सत्रे त एव निर्युक्ताः यत्पुनरनयोपनिद्धास्तेनेयं नियुक्तानां युक्तिः नियुक्तयुक्तिः, युक्तशब्दलोपानियुक्तिः, आह-यदि सूत्र एव नियुक्ताः सम्यगवस्थानात् सुखबोधा एव ते अर्थाः, किमिह तेर्था निर्युक्ताः, उच्यते, निर्युक्ता अपि सन्तः सूत्रेाः नियुक्त्या पुनरव्याख्यानात् न सर्वेऽववुझ्यन्ते अतो णिज्जुति कित्तइस्सामि । अथवा भावमंगलं गंदी, सावि णामादि चतुर्विधा, | दन्वे संखवारसगतूरसंघातो, भावणंदी पंचविधं णाणं, 'णादंसणिस्स णाण'मितिकाऊणं दंसणमवि तदन्तर्गतं चेव, देसण| पुब्वगं च चरित्तमवि गहितं; गंदि वण्णेऊणं सुतणाणेण अहिगारो, उक्तं च एत्थं पुण अधिकारो सुतणाणेणं जो सुतेणं | तु । सेसाणमप्पणोऽविय अणुओग पदीवदिद्रुतो ॥१॥ जतो य सुतणाणस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुयोगो य पन्चत्तति, तत्थवि उद्देससमुद्देसअणुण्णाओ गताओ, इह तु अणुयोगेण अहियारो, सो चतुर्विधो, तंजहा-चरणकरणाणुयोगो | तीर्थ, जिन, भग, नियुक्ति एवं नन्दी शब्दस्य व्याख्या Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: अनुयोग श्रीसूत्रक ताङ्गन्चूर्णिः द्वाराणि धम्माणु० गणिताणु० दवाणुयोगो, तत्थ कालियसुर्य चरणकरणाणुयोगो, इसिभासिओत्तरज्झयणाणि धम्माणुयोगो, सूरपण्णत्नादि गणितानुयोगो, दिट्ठिबातो दवाणुजोगोचि, अथवा दुविधो अणुयोगो-पुहुत्ताणुयोगो अपुहुत्ताणुयोगोय, जत्थ एते चत्तारि अणुयोगा पिहप्पिहं वक्खाणिजंति पुहुत्ताणुयोगो, अपुहुत्ताणुजोगो पुण जं एकेकं सुतं एतेहिं चउहिंवि अणुयोगेहिं सत्तहि णयसतेहिं वक्खाणिजति, केचिरं पुणकालं अपुहुर्त आसि ?, उच्यते, 'जावंति अञ्जवइरा अपुहुत्तं कालियाणुयोगस्स । तेणारेण पुहुत्तं कालियसुयदिट्ठिवाए य ॥ १॥ केण पुण पुहुत्तं कयं', उच्यते-'देविन्दवन्दितेहिं महाणुभागेहिं रक्खियजेहिं । जुगमासज्ज विभत्तो अणुयोगो तो कओ चतुधा ॥१॥ अजरक्खितउट्ठाणपारियाणियं परिकधेऊण पूसमित्ततियं विझं च विसेसेऊणं जहा य पुहुत्तीकया तहा माणिऊण इह चरणाणुयोगेण अधिकारो, सो पुण इमेहिं दारेहि अणुगंतव्यो, तंजहा-'णिक्खेवे १| गट्ठ.२ णिरुत्त ३ विधी ४ पवत्ती ५ य केण वा ६ कम्स ७ तद्दार ८ भेद ९ लक्खण १० तदरिहपरिसा ११ य सुत्तत्थो १२॥१॥ तत्थ णिक्खेबो-णासो णामादि, एगट्ठियाणि सकपुरंदरवत् , ताणि पुण सुनेगट्ठियाणि अत्थेगट्ठियाणि य, णिच्छियमुत्तं शिरुतं णिज्वयणं या णिरुतं, तं पुण सुत्तणिरुतं अत्थनिरुत्तं च, विधी-काए विपीए सुणेयच्वं , परती-कथं अणुयोगो पबत्तति ?, केवंविधेण आचार्येण अत्थो बत्तव्यो ?, एताणि दाराणि जहा आयारे कप्पे वा परूविताणि तथा परूवेयव्याणि जाव एवंविधण आयरिएण कस्स अत्थो बत्तव्योति?, उच्यते, सव्वस्सेव सुतणाणस्स, वित्थरेण पुण सुत्तकडस्स, जेणेत्थ परसमयदिडिओ परूविजंति, कस्मत्ति वत्तब्बे जति सुयकडस्स अणुयोगो, सुतकडं णं किं अंग अंगाई सुयक्खधो सुतक्खंधा अज्झयणं अज्झयणाई उद्देसो उद्देपा, उच्यते-सूयगडं णं अंग णो अंगाई पो सुरक्खधो सयक्खंधा णो अज्झयणं अज्झयणा उद्देसो उद्देसा, | चतुर अनुयोगस्य विवरणं, 'सूयगढ़' शब्दस्य पर्याया; 197 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [] दीप अनुक्रम [] श्रीमूत्रकृनाचूर्णि : ॥६॥ P “सूत्रकृत” अंगसूत्र -२ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [१], निर्युक्ति: [१-३५], मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: - | तम्हा सुतं णिक्खिविस्सामि कडं णिक्खिविस्यामि सुतं णिक्खिविस्सामि खंधं णिक्खिविस्साभि अज्झयणं णिक्खिविस्सामि उद्दे णिक्खिविस्सामि, 'मुत्तकडे अंगाणं वितियं तस्स य इमाणि णामाणि । सुत्तकडं सूतकडं सूयकर्ड चेव | गोण्णाई ||२|| सुअपुरुसस्य वारसंगाणि मूलत्थाणीयाणि, सेससुतक्खंधा उवंगाणि कलाच्यंगुष्ठादिवत् तेसिं चारसहं अंगाणं एतं वितियं अंगं, णामाणि एगट्टियाणि इंद्रशकपुरन्दरवत्, तंजहा सुतकडंति वा सुतकडंति वा सूयकडंति वा, णामं पुण दुविधंगोणं इयरं च गुणेभ्यो जायं गौणं, जधा तवतीति तत्रणो जलतीति जलणो एवमादि, तत्थेताणि एगड्डियणामाणि गोण्णाति, तत्थ सुतकडे 'पूङ् प्राणिप्रभवे' सो पसवो दुविधो-दब्बे भावे य, द्रव्यप्रमवो स्त्रीगर्भप्रसववत् भावप्रसवो गणधरेभ्य इदं प्रसूतं, अथवा 'अत्थं भासति अरहा' ततः सूत्रं प्रसवति, 'सुत्तकड'ति यथा गृहं वास्तुसूत्रवत् तदनुसारेण कुटुं क्रियते कटुं या सुत्तानुसारेण करवचिजति, भावसूत्रेण तु सूत्राणुसारेण निर्वाणपथं गम्यते । सूनकडं णामादि चतुर्विधं, बइरित्ता दव्यसूयणा जहा लोयसूयगा लगवसूवगा लोहस्यगादि वा दव्वसूयगा, भावे इमं चैव वयोवसमिए भावे ससमयपरसमयसूयणामे, अहवा सुतं णामादि चतुर्विधं दच्चसुते इमाणि 'जइ अद्धा गाथा' ॥ ३॥ दग्धं तु बोंडगादी भावे सुत्तमह सूयगं गाणं ।' दव्वसुतं अंडजं बोंडजं कीडजं चागजं बालजं । से किं तं अंडजं १, हंसगन्भादि, बोंडजं कप्पासादी, कीडजं को सियादि, बाग सणअयसिमाती, बालजं उडियादि, भावे इमं चैव भवति, सूयगं णाम णाणं, गाणं णाणेण चेत्र नड़, अथवा इमेण जाणं णाणाणि य अण्णाणाणि य सहजंति, तं पुण जधा 'बुज्झिञ्जति तिउटिज' तं सूत्रं चतुर्विधं 'सण्णासंग वित्ते जातिनिबंधे यकत्वादि ||४|| ' तत्थ मण्णासुतं तिविधं ससमए परसमए उभवेत्ति, सममए ताव विगती, पढमि (मालि) या, जे छेदे सूत्र-कृत् पदयोः निक्षेपाः, [10] एकार्थानि सूत्रं ॥ ६ ॥ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: श्रीसूत्रक नाङ्गचूर्णिः ॥७॥ सागारियं ण से सेवे, सयामगंध परिणाय णिरामगंधो परिब्बए, एवमादीणि, परसमए यथा पुद्गलो संस्कारो क्षेत्रज्ञः सत्ता, उभये | करणा धिकार जं स ममए परममए य संभवति । सदसूत्रमपि यथा द्रव्यमित्याकारिते सर्वद्रव्याणि सगृहीतानि, तद्यथा जीवाजीवद्रव्याणीति, जीवत्ति संसारत्था असंसारत्था य सब्वे संगहिता, अजीवत्ति सव्वे धम्मस्थिकायादयो, वित्तिजातिणिबद्धं सुतं जाव वृत्तबर्दू सिलोगादिबद्धं वा, तं चउब्विधं, जहा-गई पद्यं कथ्य गेय, गद्यं चूर्णिग्रन्थः ब्रह्मचर्यादि, पद्यं गाथासोलसगादि, कथनीय कथ्य जहा उत्तरज्झयणाणि इसिभासिताणि णायाणि य, गेयं णाम सरसंचारेण जघा काविलिज्जे 'अध्रुवे असासयमि संसारंमि दुक्खपउराए' एवं सुयं गतं भवति । इदाणि वितियं पयं कडेत्ति, तत्थ गाथा 'करणं च कारगो य कर्ट च'गाथा ।। तत्र 'कड' इत्याकारिते कर्ता करणं कार्यमित्येतत्रितयमपि गृह्यते, तत्थ कारगो कडं च अच्छंतु, करणं ताव भणामि, तं करणं णामादि छविहं, णामकरणं जस्स करणमिति णाम, अथवा णामस्त णामतो वा र्ज करणं भषणति, ठवणाकरणं क णणासादि अक्खणि-10 | क्खेवो, जो वा जस्स करणस्म आकारविसेसोति, दब्बस दव्वेण वा दब्बम्मि वा जं करणं तं दव्यकरणंति, तं दुबिई-आगमओ य णोआगमओ य, आगमओ जागए अणुवउत्ते, णोआगमओ जाणगसरीरभवियमरीग्बतिरित्तं दुविधं-सण्णाकरणं नोसण्णाकरणं, | तत्थ सण्णाकरणं अणेगविध, जंमि जंमि दव्वे करणसण्णा भवति तं सण्णाकरणं, तंजहा-कडकरण अद्धाफरणं पेलुकरणादि, | सण्णाणाममेव तब मती होजा तंण भवति, जम्हा णामं जं वत्थुणोऽभिधाणंति, जं वा तदत्थविगले णाम कीरति यथा भृतकस्य | इन्द्र इति णाम, दब्बलक्खणं तु द्रवते द्रूयते वा द्रव्य, द्रवति-स्वपर्यायान् प्रामोति क्षरति चेत्यर्थः, यते-गम्यते तैस्तैः पर्यायविशेषैः, अथवा गच्छति तॉस्तान पर्याय विशेषानिति द्रव्य, पेलुकरणादीति पुण ण तदत्थविहणं, ण सद्दमेतंति भणितं होति, A ॥ ७ अनुक्रम PHPainath 118 'करण' शब्दस्य निक्षेपा:, भेदा: [11] Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: श्रीसूत्रक ताङ्गचूर्णिः ॥८॥ आह-जइ ण तदत्थविहीणं तो किं दब्वकरणं ?, जतो तेण दव्वं कीरति, सणाकरणंति य करणं रूढीतो, आह-जति तदत्थविरहितं करणा धिकार ण भवति तो किं दव्यकरणं भवति ?, भावकरणमेव भवतु?, उच्यते, जतो तेण दवं कीरति, जहा पेल्लीओ णाणियाओ!, ताओ कीरति एवमादि, सण्णकरणतिय रूढीतो। इदाणिं णोसण्णाकरणं, तत्थ णिज्जुत्तिगाथा 'दब्वे पओगवीसस पयोगसा मूलउत्तरे चेव। उत्तरकरणं वंजण अत्थे उ उवक्खरो सघो॥ ५॥णोसण्णादबकरणं दुविध-पयोगकरणं विस्ससाकरणं च, पयोगकरणं दुविह-जीवपओगकरणं अजीवपयोगकरणं च, होति पयोगो जीववावारो, तेण जं विणिम्माणं सजी| वमञ्जीयं या पयोगकरणं तयं च दुहा, तत्थ जीवपयोगकरणं दुविधं-मूलप्पयोगकरणं उत्तरप्पयोगकरणं च, मूले करणं मूलकरणं, || आद्यमित्यर्थः, उत्तरओ करणं उत्तरकरणं, संस्करणादित्यर्थः, अथवा उत्तरकरणस्स अत्थो णिज्जुत्तिगाथाचतुत्थपदेण भण्णति, अत्थो उ उव्वक्खरो सचो, उबकारीत्यर्थः, येन वा कृतेन तन्मूलकरणं अभिव्यज्यते-उवकारसमर्थं भवतीत्यर्थः, यथा हस्त इति, कलाचिअङ्गष्ठतलोपसलसमुदयः, तस्य उक्षेवणादि उत्तरकरणं, अथवा संडासयं करेति महिवा, अथवा शरीर एव । | गर्भता मूलकारणं, उत्तरकारणं तु चंक्रमणादि, अथवा मूलकरणं शरीराणि पंच, गाथा ।।६।। उरालियादीणि पंच शरीराणि । मूलकरणं, उत्तरकरणं जं णिफण्णाओ णिप्फञ्जति, तं च एतेसिं चेव ओरालियवेउब्धियाहारयाणं तिहं उत्तरकरणं, सेसाणं पत्थि, ओरालियादीणं तिण्डं मूलकरणं, अटुंगाणि अंगोवंगाणि उत्तरकरणं, ताणि य तंजहा-सीसं उरो य उदरं पट्टी बाहा य दो य उरूओ। एते अटुंगा खलु सेसाणि भवे उबंगाणि ॥१॥ होति उबंगा अंगुलिकण्णाणासापवणं चेव । णहकेसदंतमंसू अंगोवंगेवमादीणि ॥ २॥ अथवा उरालियरसेवेगस्स इमं उत्तरकरणं-दंतरागो कण्णवद्धणं णहकेसरागो खधं वायामादीहिं पीणितं 01॥८॥ AruarRAITANNELTABAISINGER अनुक्रम [12] Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: पत्रक संघातादि चूिर्णिः करोति, एयं ओरालियस्स, वेउब्धियउत्तरकरणं उत्तरवेउब्धियरूवं विउब्वेति, आधारए णस्थि एताणि, इमं या आहारगस्स गमणादीणि, अथवा पंचेन्द्रियाणि-सोइंदियाईणि मूलकरणं, सोइदियं कलंबुगापुप्फसंठितं, एयं मूलकरणं उत्तरकरणं तु कण्णावेहवालाईकरणादि, अथवा यदुपहतस्योपकरणस्य तदुपकारित्वात् य उपक्रमः क्रियते विसेण ओसधेण वा, एवं सेमाणंपि, यावन्तीन्द्रि| याणि सन्ताणि शोभानिमितं अर्थोपलब्धिनिमित्तं वा उत्तरगुणतो निवर्तयति, शोभा वर्णस्कन्धादि, अर्थोपलब्धिस्तु बाधिर्यतिमिरप्रसुप्यादीनां उपक्रमतः पुनः स्वस्थकरणं, अथवा दधिदियाणि परिणामियाणि विसेण अगदेण वर्णउपयोगवाताय भवंति, अथवा विममेव विधिणा उपजुञ्जमाणं रसायणीभवति, औपधग्रामाश्च ये शरीरोपकारिणः पथ्य भोजनक्रियाविशेषाः सर्व एव वाऽऽहारः, अथवा स्वरभेदवर्णभेदकरणानि । इदानीं एतेसिं चेत्र पंचण्हं सरीराणं तिविधं करणं भवति, तंजहा-संघायणाकरणं परिमाडणाकरणं संघायपरिसाडणाकरणं, तेयाकम्माणं संघातणवजं दुविधं करणं, एताणि तिणिवि करणाणि कालतो मग्गिअंति, तत्थोरालियसंघातकरणं एगसमयियं, जं पढमसमयोपवण्णगस्म, जहा तेल्ले उग्गाहिमओ छुढो तप्पदमताए आदियति, सेससमएसु सिणेहं गिण्हइवि मुंचड़घि, एवं जीवोवि उववजंतो पदमे समए एगंतसो गेहति ओरालियमरीरपाउग्गाणि दवाणि, ण पुण किंचिवि विमुपति, परिसाडणावि समओ चेत्र, सो मरणकालसमए एगंतसो चेव मुंचति, मज्झिमे काले किंचि गेण्हति किंचि मुंचति, सो जहणणं खागं भवग्गणं तिममयणं, उक्कोसेणं तिष्णि पलिओवमाणि समयूणाणि, किह पुण खुट्टागभवग्गणं तिसमयूर्ण भवति ?, उच्यते, 'दो विग्गइंमि ममया समयो संघातणाएँ तेहणं । खुड्डागभवग्गहणं सब जहण्यो ठिती कालो ॥१॥ उक्कोसो समयूणो जो सो संघानणासमयहीणो । किह ण दुमम पविहीणो साडणसमयेऽत्रणीतमि ।। २ ।। भणति भवचरिमंमिवि समए अनुक्रम ॥ ९ ॥ क्षुद्र भवग्रहणस्य समय-गणना [13] Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: संघातादि श्रीसूत्रक ताङ्गचूर्णिः संघायसाडणा चेव । परभवपढमे साडणमतो तणो ण कालोत्ति ॥ ३॥ जइ परपढमे साडो णिविग्गहतो य तंमि संघातो। णणु सब्बसाडसंघातणाओं समए विरुद्धाओ॥४॥?, उच्यते, जम्हा विगच्छमाणं विगतं उप्पजमाणमुप्पणं । तो परभवादिसमए मोक्खादाणाण ण विरोधो ॥५॥ चुतिसमए णेहभवो इहदेहविमोक्खतो जहाऽतीते । जइ ण परभवोऽवि तहिं तो सो को होउ संसारी? ॥६॥ णणु जह विग्गहकाले देहाभावेऽवि परभवग्गहणं । तह देहाभावम्मिवि होजेहभवोऽवि को दोसो? ॥७॥ जं चिय विग्गहकाले देहाभावेऽपि तो परभवो सो। चुइसमए उ ण देहो ण विग्गहो जइ स को भोतु ।।८।। इदाणिं अंतरं| संघान्तरकालो जहण्याओ खुड्डयं तिसमयूर्ण । दो विग्गहम्मि समया ततिओ संघायणासमयो ॥१॥ तेहूणं खुड्डभवं धरित्तु परभवमविग्गहेणेव । गंतूण पढमसमए संघाययओ स विष्णेयो ॥२॥ उकोसो तेत्तीसं समयाहियपुवकोडिअहियाई । सो सागरोचमाई अविग्गहेणेव संघातं ॥३॥ काऊण पुष्वकोडिं धरि सुरजेट्टमायुगं तत्तो । भोत्तूण इह ततीए समए संघातयंतस्स ।। ४ ।। इदाणिं वेउव्यियस्स-वेउन्चियसंघायो समओ सो पुण विउवणादीए । ओरालियाणमथवा देवादीणादिगहणमि ॥१॥ उक्कोसो समयदुर्ग जो समय विउविउं मतो वितिए । समए सुरेसु वच्चति निविग्गहतो यतं तस्स |२।। उभयं जहष्ण समयो सो पुण दुसमयविउब्वियमतस्स । परमतराई संघातसमयहीणाई तेतीसं ॥३॥ वेउच्चियपरिसाडणकालोवि समय एव । इदाणि अंतरं, | वेउब्वियसरीरसंघातंतरं जहण्णेणं एगसमय, सो पढमसमयविउवियमयस्म विग्गहेण ततियए समए वेउबिएसु देवेसु संघातेतस्म भवति, अथवा ततियसमयवेउवियमतस्स अविग्गहेणं देवेसु संघातपरिसाडणंतर जहणणेणं समय एव, सो पुण चिरविउवितस्स | देवेसु अविग्गहेणं संघातेंतस्स भवति, साडम्स अंतरं जहण्णेणं अंतोमुहुर्त, तिण्हवि एतेसिं अंतर उकोसेणं अणंतकाल वणस्सतिकालो। अनुक्रम [14] Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: विससादि श्रीसूत्रक ताङ्गचूर्णिः ॥ ११॥ इदाणिं आहारगस्स-आहारे संघातो परिसाडणा य समयं समं होति । उभयं जहण्णमुकोसय च अंतोमुहुत्तस्स ॥ १॥ बंधणसाडुभयाणं जहण्णमंतोमुहुत्तमंतरण । उकोसेण अवई पोग्गलपरियट्ट देसूर्ण ॥२॥ तेयाकम्माणं पुण संताणाणादितो ण संघातो।। भव्वाण होज साडो सेलेसीचरिमसमयंमि ॥३॥ इदाणिं जीवउत्तरप्पयोगकरणं, तत्थ गाथा 'संघातणा य परिसाडणा य| मीसे तहेव पडिसेहो । पडसंग्वसगडथूणाउडतिरिच्छाणु(इ)करणं तु॥१॥ तत्थ संघायणकरणं जहा पडो तंतुसंघातेण णिवित्तिजति, परिसाडणाकरणं जहा संखगं परिसाडणाए णिवतिजति, संघातपरिसाडणाकरणं जहा सगडं संघातणाए पडिसाडणाए य णिविचिजति, व संघाती व परिसाडो जथा धूणा उड़ा तिरिच्छा वा कीरति, जीवउत्तरकरणं गतं । जीवपयोगकरणं सम्मत् ।। इदाणिमजीवप्पयोगकरणं जंज णिजीवाणं कीरति जीवप्पयोगतो तं तं । यण्णाति रूवकम्मादि वावि तमजीवकरणंति ॥१॥ वष्णकरणादि जहा वत्थाणं कुसुंभरागादि कजति, रूपकम्माति यति कट्ठकम्मादिरूवा कजंति, अजीवप्पयोगकरणं गतं, पयोगकरणं परिसमाप्तं ।। इदाणिं विस्ससाकरणं-विस्रसेति कोऽर्थः?, वित्ति विपर्यये अन्यथाभाव इत्यर्थः, अथवा सृ गती, विविधा गतिर्विश्रसा, एत्थ णिज्जुतिगाथा 'खंधेसु अ दुपदेसादिएसु अब्भेसु विज्जुमाईसु । णिप्फावगाणि दब्वाणि तं जाणसुवीससाकरणं' ॥ ॥ तं विस्मसाकरणं दुविधं-सादीयं अणादीयं च, अणादीयं जधा धम्माधम्मागासाणं अण्णोण्णासमाहाणंति, णणु करणमणादीयं च विरुद्धं, भण्णती ण दोसोऽयं, अण्णोण्णसमाधाणं जमित्थं करणं, ण णिवत्ती, अथवा परपच्चयादुपचारमानं करणं यथा गृहमाकाशीकृत, उत्पन्नमाकाशं विनष्टं गृहं, गृहे उत्पन्ने विनष्टमाकाशं । इदाणिं सादीय विस्ससाकरणं, तं दुविध-चक्षुफासियं अचक्खुफासियं च, जं चक्खुमा दीसति तं चक्खुफासियं, तं अब्भा अन्भरुक्खा एवमादि,चक्खुसा जंण दीसंति [15] Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: क तानचूणि: बन्धनादि परिणामाः ॥१२॥ तं अचक्खुफासियं जहा दुपदेसियाणं परमाणुपोग्गलाणं एवमादीणं जं संघातेणं भेदेन वा करण उप्पजति तं ण दीसति छ उमत्थेणंति | तेण अचक्खुफासियं, वादरपरिणतस्स अणंतपदेसियस्स चक्षुफासियं भवति, तेसिं दसविधो परिणामी, तंजहा-बंधणगतिसंठाणे भेदे गंधरसवण्णफासे य । अगुरुअलहुपरिणामे दममेऽविय सद्दपरीणामे ॥१॥ बंधणपरिणामे दुविधे पत्ते-णिबंधण परिणामे य लुक्खधंधणपरिणाम य, 'निद्धस्स निद्वेण दुआहिएणं, लुक्खस्स लुक्खेण दुआहिएणं । णिद्धस्स लुक्खेण उबेति बंधो, जहण्णवञ्जो विसमो समो वा ॥१॥ समणिद्धताएँ बंधो ण होति समलुक्खिताएवि ण होइ । वेमायणिद्धलुक्खत्तणेण बंधो तु खंधाणं ॥ २॥ गतिपरिणामो तिविदो उकोसजहण्णमज्झिमो चे। लोगंता लोगत गमणं एगेण समयेणं ॥३॥ तहय पदेसि पदेमा जहण्णसमएण होति संकंती । अजहष्णमणुक्कोसो तेण पर खेतकाले य ।। ४॥ एमेव य गंधाणं गतिपरिणामो जहण्णमुक्कोसो । कालो जहण्णतुल्लो उक्कोसेणं असंखेको ।। ५ ।। समयादी संखेजो कालो उक्कोसएण उ असंखो। परमाणूखंधाण य ठितीय एवं परीणामो ॥६॥ परिमंडले य वट्टे तसे चउरंस आयते चेत्र । संठाणे परिणामो सहऽणित्थत्थेण छम्मेया ॥७॥ पयरघणा सोसि सेढी नदी य आयत विसेसो। सव्वे ते दुविहा (जुम्मओज) पदेसुक्कमगजहण्णा ॥८॥ | माणु परिमंडलस्स उ सव्वेसि जहण्णमोयजुम्मगमा । उक्कोस जहणं पुण पदेस उग्गाहणकमेणं ।। ९॥ पंतपदेसुक्कोसं तह यमसंखप्पदेसमोगाढं । चीमा चत्तालीमा परिमंडलि दो जहण्णगपा ॥१०॥ पंचग चारसगं खलु सत्त य बत्तीसगं च | बट्टमि । तिय छक्कग पणतीसा चत्तारि य होइ नसंमि ॥ ११॥ जव चेव तहा चउरो सत्तावीसा य अटु चउरंसे । तिगदुगपण| रस छक्कं पणयाला वा चरिमयस्स ॥१२॥ एसो संठाणगमो पएसओगहणापडिट्ठिो। दुगमादीसंयोगो हयति अणित्थत्थसंठाणं | बंधन-परिणामस्य भेदाः [16] Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: मेदादि| परिणामाः श्रीसूत्र ॥१३॥ मेदस्स तु परिणामो संघातविहूयणेण दवाणं । संघातेणं बंधी होइ वियोगेण भेदोत्ति ॥ १४ ॥ भेदेण सुहुमखंधो नागचूर्णिः | संघातेणं च बादरों खंधो। सुहुमपरिणाममीसक्कमेण भेदेण परमाणू ॥ १५॥ अह वायरो उ खंधो चक्खुद्देसे य गंतगप॥१३॥ देसो। संघातभेदमीसग पडसंखयसगडमाधम्मा ॥१६॥ खंडगपयरगचुणियअणुतडिओक्कारियाए तह चेव । भेदपरिणामो पंचह णायव्यो सबखंधाणं ॥१७।। खंडेहिं खंड भेदं पयरसभेदं जहऽम्भपडलस्स । चुण्णं चुणियभेदं अणुतडितं वंससकलं ते ॥१८॥ बुंदसि समारोहे भेदे उक्केरियाए उकेरं । वीसस्सपयोगमीसग संघातवियोग विविधगमो।।१९।। जति कालगमेगगुणं सुक्किलयपि य हवेज बहुयगुणं । परिणामिजति कालं सुक्केण गुणाहियगुणेणं ॥२०॥ जति सुक्किलमेगगुणं कालगदव्वं तु बहुगुणं जति य। परिणामिजति सुक्कं कालेण गुणाहियगुणेणं ।। २१ ।। जति सुक्कं एगगुणं कालयदव्बंपि एगगुणमेव । कावोय परिणामो तुल्लगुणत्तेण संभवति ॥ २२ ॥ एवं पंचवि वण्णा संजोएणं तु वण्णपरिणामो । एगत्तीसं भंगा सव्वेऽपि य वष्णपरिणामे ॥२३॥ एमेव य परिणामो गंधाण रमाण तह य फासाणं । संठाणांण य भणिशो संजोएण बहुविहविकप्पो ॥२४॥ अगुरूलहुपरिणामो || परमाणूओ आरम्भ जाय असंखेजपदेसिया बंधा सुहमपरिणयावि खंधा अगुरूलहुगा चेव । तत वितते घणशुसिरे भासाए मंदघोरHI| मिस्सा य। मेदस्मवि परिणामा एवमणेगा मुणेयब्वा ॥२५॥ छाया य आतवे या उजोतो तह य अंधगारो य। एसोऽवि पोग्गलाणं परिणामो फंदणा जा य ।। २६ ॥ सीया णादिपगासा छाया पाइञ्चिया बहुविकप्पा । उण्हो पुणप्पगासो णायव्यो आयचो णामं ।। २७।। णवि सीतो णवि उण्हो समो पगासो य होति उज्जोओ। कालमइलं तमंपिय बियाण तं अंधयारंति ॥२८॥ दन्चस्म चलणारफंदणा उ सा पुण गतित्ति णिहिट्ठा। वीमसपयोगमीसग अत्तपरेणं उभयतोऽचि ।। २९ ।। अभ्रेन्द्रधन्यादीनां च I ANDHARMA nt [17] Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: नि क्षेत्रादि करणानि श्रीसूत्रका परिणामकरणं, दव्यकरणं गतं । इदाणिं खेत्तकरणं-'ण विणा आगासेणं' गाथा ।। यत्किचिदिति उत्क्षेपणापक्षेपणादि गचूर्णिः घटादिकरणादि वा न क्षेत्रमंतरेण क्रियते, क्षेत्रं-आकाश, तस्स करणं नस्थि, तहावि वंजणपरियावण्णं उच्छुकरणं, सालिकरणं जहा वा साधहि अच्छमाणेहिं खेतीकतो गामो णगरं वा, मि वा खेत्ते करणं कीरति भणिजति वा, कालकरणंति 'कालोजोजावतियों' गाथा।१०। जावता कालेणं क्रियते, यम्मि वा काले क्रियते, एवं ओहेण, णामओ पुण इमे इकारस करणे (१०-११-१२) विवं च बालवं चेव, कोलवं थीविलोयणं । गराइ वणियं विट्ठी, सुद्धपडिवए णिसादीया। पक्खतिधयो दुगुणिआ जोण्डादौ सोधये ण पुण काले । सत्चहिए देवसियं तं चिथ रूवाहियं रति ॥१॥ सुचराष्टदिवैकरपूर्णदिवाकृतिरामदिवादरभूतदिवा' एसु विट्ठी, सुद्धी पडिवयरति दिवसस्स य पंचमट्ठमी रत्ति। दिवसस्स बारिसी पोणिमाए रविवं होति ।।१।। बहुलचउत्थी' दिवा बहुलस्स य सत्तमी हवति रतिं । एकारसिं च बहुले दिवा व होति करणं तु ।। २ ।। सउणि चतुप्पय मागं कित्थुगं च चतुरो धुवा करणा । किण्हचउद्दसिर िसउणी सेसं तियं कमसो ॥३॥ कालकरणं गतं । इदाणि भावकरण-भावस्स भावेण भावे या करणं, तत्थ निज्जुत्तिगाथा-भावे पयोगवीसस पयोगसा मूल उत्तरं चेव । उत्तरकमसुतजोवणवण्णादी भोयणादीसु ॥१२॥ भावकरणं दुविध-पयोगसा वीससा य, पयोगकरणं दुविध-मूलपयोगकरणं उत्तरपयोगकरणं च, मूलपयोगकरणं पंच शरीराणि, ताणि पुण उदइयभावणिफण्णाणि, का तहिं भावणा?, उदइयो हि भावो दुविधो-जीवोदइओ अजीवोदइओ य, तत्थ जीवोदइओ पंचण्डं सरीराणं अण्णातरेणोदितो जीवः स तथाभूत इति जीवोदयभावो, अथ पुण जीवोदयोदितानि शरीरारंभकाणि द्रव्याणि तथा समुदिताणि तत्थ शरीरे भवन्तीत्यर्थः, अजीबोदयिको भावः, यथा च तत्र द्रव्यकरणोपदिष्टं दव्दियाई विसओसधादीहिं तथेहापि तेषु MIRRHETHERes "ound innousican aniICTI ॥१४॥ [18] Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: मावकरणं श्रीसूत्रताइचूर्णिः ॥१५ | परिणमत्सु भावोऽभिसंबध्यते, तानि हि द्रव्येद्रियाणि विसऔपधादिद्रव्यविशेषः परिणम्यमानानि औदयिकमेव भावं परिणमंति, तेसु सरीरेसु इंदिएसु वा किं मूलकरणं , उच्यते, सरीरपजती मूलकरणं, सेसं तु मूलकरणस्सेव उत्तरकरणं भवति, जहा उत्तरकमसुतजोवणवण्णादी भोयणादीसु, गब्भवक्कतिएस ओरालिएसु ताव जोणीजम्मणणिक्खंतस्स कल्पकौमारयौवनमध्यमस्थावरादिवयाणि क्रमशः प्रजायंते, निषेकादिक्रमो वा यथा भवति, तथा वृक्षेष्वपि अंकुरपत्रकंदनालग तुपशूककणपाकक्रमाः क्रमशो निष्पद्यते, सुत्तेति कलाधिगमो व्याकरणादिभाषापाटवं वा सौखयं वा यतो भवति, तिर्यग्योनिजातीनामपि शुकादीनां मवति, उक्तं च-"तेण परं सिक्खापुव्वर्ग वा उत्तरगुणलद्धि वा पडुच्च भासाविसेसो भवति", 'जोवणे'त्ति पुनर्नवं यौवनं भवति औषधादिमिः, कस्यचित् वर्णकरणं च भोजनादिभिः क्रियते, यथा स्नेहं पिरतो वर्णप्रसादो भवति, आदिग्रहणात् अभ्यङ्गोद्वर्तनादिभिर्वा वर्णविशेषो भवति १, वेउब्धियं रूबं विउव्वतिति, बुत्तं पयोगभावकरणं । इदाणिं विस्ससाभावकरणं तत्थ गाथा| 'वषणादिगा य वपणादिगेसु' गाथा ॥१५॥ वर्णादिगो णाम वण्णगंधरसफासा, द्वितीयवपणादिग्रहणं वर्णादिगेसु दव्वेसु यथा परमाणुद्रव्यस्य कृष्णादिभिर्वर्णविशेषैः परिणामतः यः परिणामविश्रसाभावः, गंधरसफरिसेसुवि, विश्रसामेलो णाम पंचण्डं वा वण्णाणं संयोगविसेसेणं उप्पजति जहा अन्माणं अब्भरुक्खाणं संज्झाणं गंधधणगराईणं एक समयं उक्कोसेणं जचिरं कालं, अथिरा उत्पश्यनंतरविनाशिनः, कालान्तरावस्थायिनव संध्यारागादयः, ये तु परमाण्वादिषु स्थिराः ते असंख्येयमपि कालं भवंति, तथा च छायां प्राप्य छायात्वेन परिणमंति पुद्गलाः, ते विश्रसापरिणामादेव, एवमुष्णमपि, तथैव विश्रसापरिणामादेवाप्रायोगिकमपि स्थिरं भूत्वा दधिमस्तुकिलायनिष्टनवनीततत्वेन परिणमंति, भणिनं भावकरणं, एत्थ भावकरणेण अहियारो, तत्थ अनुक्रम ॥१५॥ [19] Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: श्रीसूत्रक चूिर्णिः ॥१६॥ चरकरणादि णिज्जुत्तिगाथा-'मूलकरणं पुण सुते तिविधे जोगे सुभासुभे झाणे। ससमयसुत्तेण पगयं अज्झवसाणेण या सुभेणं ।। १६ ॥ सुत्ते मूलकरणं दुविधं-लोइयसुतकरणं लोउचरियसुतकरणं च, तत्थ लोए ताव जो जस्स सत्थस्स कत्ता यथा सुलसा याज्ञवक्तश्च तंतुग्रीवश्च, अस्माकमपि गणधरैर्डब्ध, तत्कतरेण योगेन कृतं ?, उच्यते-त्रिविधेनापि, मनसा तावदुपयुक्तः, वाचा भापते, कायेन प्रगृहीताञ्जलिः तीर्थकराभिमुख उत्कुटुका, भंगिकथुतोषयुक्तस्य वा त्रिविध उपयोगो भवति, एवमीर्यासमितस्यापि त्रियोगतेककाले भवति, मनसा तावत्पथ्युपयुक्तों वाचा किंचित् पृष्टो व्याकरोति कायेन गच्छत्येव, एवं त्रिविध मपि तस्य भवति । 'सुभासुभेजशाणेति, जं सम्मदिट्ठी करेति, एत्थरि सुतकरणे ससमयसुतेण पगतं. णो परसमयेण, सुभेणं 0 अज्झवसायेणं, सुभेण गणघरेहिं कतं, एवं ताव गणधराणं मूलकरणं, तस्सिसाणं तु उत्तरकरणं, अथवा तेसिमवि मूलकरणं घडेति, । यदुत अपूर्वमेव पढंति, वक्तारोऽपि च भवंति 'अनेन साधुना आचारः कृत' इति, यत्तु विस्मृतं पुनः संस्क्रियते तदुत्तरकरणमय, उक्तं करणं । इदानीं कारकः, ज्ञानदर्शनसंयुक्ता गणधरा एव कारकाः, तदेव च क्रियमाणं सूत्र 'कजमाणे कडेतिकाऊणं कर्ड भवति, तं पुण गणधरेहिं कि उक्कोसकालद्वितीएहि कम्मेहि वट्टमाणेहिं कतं०१ जहण्णाद्वितीएहिं? अजहण्णमणुकोसद्वितीएहि ?, एत्थ गाथा-'हितिअणुभागे वंधण णिकाय णिवत्तदीहहस्से य । संकमउदीरणाए उदए वेदे उचसमे य ॥१७॥ ठितिचि अजहण्यामणुक्कोसहितीएहिं कम्मेहि कयं, तेहिं पुण किं तिव्वाणुभावेसु मंदाणुभावेसु 'बंधणेति किं बंधतेहिं कतं णिजरंतेहि कतं ?, तदावरणिज्जाई पडुच णो बंधतेहिं कत, णो णिधर्त्ततेहिं, णो णिकायतेहिं, णो दिग्धीकरतेहि हस्सीकरतेहि, उत्तरपगडीसंकर्म करतेहिंवि अकरेंतेहिंवि कतं, तदावरणिजाई कम्माई अणुदीरंतेहि, सेसाई उदीरंतेहिंवि अणुदीरेंतेहिंवि कयं, अनुक्रम मूल एवं उत्तरकरण [20] Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: मूत्रकरण श्रीसूत्रक- 'उदए'त्ति केसिंचि उदए वर्दृतेहि केसिंचि अणुदए बटुंतेहिं पुरिसवेदे वटुंतेहिं कत, 'उसमें ति केसिंचि उत्रसमो केसिंचि ताङ्गचूर्णिः अणुवसमे, अथवा उबसमेत्ति खओवसमिए भावे वटुंतेहिं कतं, कार एव तस्योपदिश्यते, कथं पुण तेहिं कतं?, 'सोऊण | जिणवरमतं' गाथा (१८) तपणियमणाणरुक्खं आरूढो केवली अमितणाणी। तो मुअइ णाणबुद्धि भवियजणविरोधणट्ठाए ॥2॥ तं बुद्धिमएण पडेण गणधरा गेण्हिउं णिरवसेसं। तित्थंकरभासिताई गंति ततो पवयणट्ठा ॥२॥ एवं गणधरसलदिएदि कृतं, सेसाणं मूलगणधरवञ्जाणं पुश्वकतं अधिञ्जतेहिं तदावरणिजाणं कम्माणं खयोवसमं काऊण कर्तति, एवं गणधरेहिं कृते FA को गुणः १, उच्यते-घेत्तुं च सुई सुहगुणणधारणा दातु पुच्छिउं चेव । एतेण कारणेणं जीतंति कतं गणधरेहिं ॥१॥ अज्सव | साषणं कतंति-पसस्थेहिं अज्झवसाणेहिं कतं, ण पूयासकारवित्तिहेतु वा. उक्तं हि-"पंचर्हि तु ठाणेहि मु अधिजेआ, तंजहाAणाणट्ठताए०, वइजोगेण पभासति गाथा ।।१९।। यद्भगवान् भाषते स वाग्योग एव, न श्रुतं, श्रुतस्य क्षायोपशमिकचादित्युक्तं, वाग्योगस्तु नामप्रत्ययत्वादोदयिको, विज्ञानमप्यस्य क्षायिकत्वात् केवलं, शब्दस्तु पुद्गलात्मकत्वात् द्रव्यश्रुतमात्र, अतोन भावश्रुतमिति, अतो वइजोगेण अरहता अत्थो पगरिसेहिं भासितो पभासिओ, केसि ?, 'अणेगजोगकरणा(गंधरा)ण साधूणं' ते य के ?, गणधरा, कथं पुण ते अयोगजोगकरणा!, उच्यते-जतो अणेगविधलद्भिसंपण्णा, तंजहा-कोहबुद्धी बीयबुद्धी पयाणुसारी खीर-IN सप्पिमधुशासबाओ, वइजोगेण कतं तित्थंति तित्थगरेहिं यइजोगेण पभासिते हि गणधरेहि वहजोगेण चेव सुत्तीकतं, तं पुण | गहितं 'जीवस्स साभावियगुणेहिंति पागतभासाए, स सभावगुणः, वैकृतस्तु संस्कृतभाषा, आगंतुक इत्यर्थः, तं च पुण एवं | 'अवरमतिगुणसंधानणाए' गाथा ।।२०।। अक्षरगुणो णाम एकैकमणतपर्याय अक्षरं, अक्षरामिलापो वा अक्षरगुणो, अमौ ह्य. SHEE अनुक्रम GE MESSA ॥१७॥ [21] Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [] दीप अनुक्रम [] श्रीसूत्रताङ्गचूर्णिः ।। १८ ।। WIELERY OF HIS NIELITH, AFIRA, C “सूत्रकृत” - अंगसूत्र- २ (निर्युक्तिः+चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [१], निर्युक्ति: [१-३५], मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता...... आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : मिलायोsर्थः, न शक्यते अक्षरमंतरेण प्रकाशयितुं प्रदीवमंतरेणेव तमसि घट इत्यतोऽमिलाप्य एवाक्षरगुणः, 'मति'ति मतिणाणविशुद्धयाए सच्चेवि समा, अक्षरसमा अक्षरसंघातणाए लडिओवि सब्वे समा, अथवा जहा जहा अक्षराणि मतिविशुद्धताए संघाएंति 'तहा तहा णिजरा भवति, 'तदुभययोगेणं' ति वाइरण माणसेण य जोगेणंति कृतं सूत्रकृतं सूत्रकृतं सूत्र-सूत्रकृतं सूचनाद्वा सूत्र, 'सुत्तेण सूइतति य' गाथा ॥ २१ ॥ सूता प्रोता इत्यर्थः, उपलब्धच्या दा, ते सुतपदेण अत्थपदा सहता, सूत्रानुसारेण ज्ञायंत इति नासूत्रोऽथ विद्यते, तेन पुनर्युज्यमाना योजिताः, अयुज्जमानास्तु अपार्थकनिरर्थकादयः न योजिताः 'तो बहुविधप्पगारा जुत्त'त्ति गयं पद्यं कथ्यं गेयं चउत्रिण जातिबंधेण पयुत्ता, अथवा प्रतिज्ञादिपंचावयव विशेषेण प्रयुक्ता, ते पुण ससमयजुत्ता अणादीया, सम्प्रतिकालं तावत्प्रतीत्य संख्येयानि पदानि कथं पुण ते अनंता गमा अनंता पज्जवा?, अतीताणागतं कालं पहुंच अनंता गमा अनंता 'पज्जा, पण्णवगं वा पहुंच अनंता गमा अनंता पज्जवा, जेण चोदसपुष्पी चोदसपुव्विस्त छड्डाणपडिओ, गम्यते अनेनाथ इति गमकः, गणधरा पुणो सब्वे अक्खरलद्धितो मतिलडिओ य तुल्ला यथा तुल्यवर्त्तिस्नेहाः पदीपाः प्रकाशेन तुल्या आदित्या वा तथाऽक्षरमतिलाभाभ्यां तुल्याः, अथवा यथा आदित्यः स्वभावतः प्रकाशयति एवं गणधरा अपि गणनिवर्तकस्य कर्म्मणः उदद्याद्वणधारितं ति, एस्थ पुण इमाओवि गाथाओ भाणितव्बाओ 'कताकतं केण कतं केसु य दव्वेसु कीरति बावि । काहे व कारओ वा णयतो करणं कतिविधं वा ॥ १ ॥' कथं १, एताणि सच पयाई, तत्थ सुत्तकडं किं कतं कज्जति अकयं कज्जति ?, जं भणियं किं उप्पण्णं कज्जति अणुप्पण्णं कज्जति ?, एत्थ गएहिं मग्गणं-केइ उप्पण्णं इच्छंति, के अणुप्पण्णंति, ते य णेगमादी सत्त मूलणया, तत्थादिणेगमस्त अणुप्पण्णं कीरति णो उप्पण्णं कीरति, कम्हा १, जहा पंचस्थिकाया णिचा एवं सूतकर्डपि ण कयादि पासी [22] गणधराणांसादस्यः ॥ १८ ॥ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: श्रीसूत्रकबागचूर्णिः ॥१९॥ |ण कदाइ ण भवइ ण कयाइ ण भविस्सति भूयं च भवद य भविस्सति य धुवे णितिए अक्वा अब्बए अवट्ठिए णिचे ण एसउत्पमादि In विचार भावो केणइ उप्पायितोतिकटु, जयावि भरधेरवतेसु चोरिन्जति तयावि महाविदेहे वासे अवोच्छिण्णामेव, सेसाणं णेगमाण चउण्ह य संगहादीणं णयाणं उप्पण्णं कीरति, जेण पण्णरससुवि कम्भूमीसु पुरिसं पडुच उप्पजति, जति उप्पष्णं तिविधेणं सामिचेणं उप्पण्ण-समुट्ठाणसामित्चेण वायणसा० लद्धीसा०, एत्थ को णयो के समुप्पर्ति इच्छति', तत्थ जे पढमबजा योगमसंगइवहारा ते तिविपि उप्पत्ति इच्छंति, समुट्ठाणं जहा तित्थकरस्स सएणं उट्ठाणेणं, वायणाए वायणायरियस्स णिस्साए जहा भगवता गौतमखामी वाइतो, लद्धीए जहा भवियस्म किंचि निमित्तं दणं जातिस्मरणादिगं तदावरणिजाणं कम्माणं खयोवसमेणं उप्पजति, उज्जुसुतो समुट्ठाणं णेच्छति, किं कारणं, भगवं चेव उट्ठाणं स एव वायणायरिओ गोतमप्पभितीणं, तेण दुविध बायणासामित्तं लद्धिसामित्तं, तिणि सद्दणया लद्धिमिच्छंति, जेण उट्ठाणे वायणायरिए य विज्जमाणेऽवि अभवियस्म ण उप्पज्ज-- ति, अभावात् , कतातंति गतं ।। केण कयंति य, ववहारतो जिणेदेण गणधरेहिं च, वस्सामिणातु णिच्छयणतस्स, सतो जातो पाऽषणं । 'केसु दब्वेसु कीरतिति णेगमस्स मणुण्णेसु दम्वेसु कीरति, जहा 'मणुण भोयण भोचा, मणुणं सयणासणं । मणुण्णंसि अगारंसि, मणुण्णां ज्झायते मुणी ॥१।पोगंतेण मणुणं हवइ हु परिणामकारगं दबं । वभिचाराओ सेसा विति ततो समदग्वेसु| ॥२॥ण सब्यपज्जयेसु, जेण 'सुत्ते ण सबपज्जबा' इति वचनात् , केसु दबेसुत्ती गतं । काहे य कारओ भवति, उद्दिद्वेचिय पोगमणयस्स कत्ताऽणधिज्जमाणोऽवि । जं कारण मुद्देसो मि य कज्जोवतारोत्ति ॥ १॥ संगहलवहाराणं पचासण्णतरकारणतणतो। उद्दिट्टमि तदत्थं गुरुपयम्ले समासीणो ॥२॥ उज्जुसुतस्त पडतो अपुब्बसुतपज्जवे ममए २ अकममाणो उपजुत्तस्स वा अनुक्रम Shadi RADUAE [23] Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: ॥२०॥ श्रीसूत्रक- णो सुतं भवति, समत्ते अज्झयणे सुयं भवति, तिहं सदणयाणं अपुव्ये सुतपज्जवे समये समये अफममाणस्स णियमा सम्मदिहिस्सा आलोचताजचाणः .. . नादयः उपयुत्तस्स. णो सुयं भवति, समत्ते कारओ सुतं भवति, एत्थ 'अंगेसु नाव युक्तो कत्ता सद्दकिरियोवयुत्तोवि । सदादीणमणण्णो| M7 परिणामो जेण सुतमतिओ ॥१॥ कत्ता णयतोऽभिहितो अथवा णयतोत्ति णीतियो णेया। सामाइयहेतुपयोजयारओ सो गयो | य इमो ॥२॥ आलोयणाइ विणये खेचदिसा अभिग्गहे य काले य । रिक्वगुण. संपयावि य अभिवाहारे य अट्ठमयो ।।३।। नयतीति नैयायिका-गमयति एभिः प्रकारैः, एवंगुणसंपण्णा य जो सुताई देति सो णायकारी पायवादी य भवति, आलोयणा व सुतोवसंपया य दायव्वा पडिच्छगेणं, सिस्सेणावि जति मूलगुणउत्तरगुणा वा विराधिता ताहे उद्देसावितेण णिस्सल्लेण होता। | आलोयणसुद्धस्सवि देज विणीयस्स णाविणीयस्स । ण हि दिञ्जति आभरणं पलियत्तियकण्णहत्थस्स ॥१॥ सो विणीतो केरिसो, 'अणुरत्तो भनिगतो अमुई अणुअत्तओ विसेसष्णू । उज्जुमइ अपरितंतो इच्छितमत्थं लभति साधू ॥शा विणीयस्सविय कयमंगलस्स | तयविग्धपारगमणाय । दंजा सुकतोवयोगो दब्यादिसु सुप्पसत्थेसु ॥२॥ तत्थ दब्बे सालिवीधियागोधुमजवादिधण्णसमीपे, ण तु तिलचणगादिसमीचे, खेनं पसत्थमपसत्थं वा, उच्छवणे सालिवणे पउमसरे कुसुमिए व वणसंडे । गंभीरसाणुणाए पदाहिणजले| | जिणघरे वा ॥१॥ दिज ण 3 भग्गनामितसुसाणसुण्णामणुण्णगेहेसुं । छारंगारकयारामेज्झादीदव्वदुद्रुसु ॥२॥ अथवा | | अस्थि काणिवि खेत्ताणि जेसु सज्झायो चेव ण कीरति जहा चैदेसे पण्णत्ती, सिंधुविसए य ण पढिअति, मसाणादिसु वा, एवं जो जहि । इदाणिं तिषिण दिसाओ अभिगिज्झ उद्दिसियवं-'पुब्वाभिमुहो उत्तरमुहो व देज्जाऽहया पडिच्छेज्जा । जाए जिणादयो वा दिसाएँ जिणचेइआई वा ॥१॥ कालेत्ति इमं अंग कालेण पढिज्जति, रातिदिणाणं पढमचरिमासु, अहवा उदिसंता-चाउद्दसिं. अनुक्रम [24] Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [] दीप अनुक्रम [] सूचक ङ्गचूर्णिः | २१ ॥ JESH I went “सूत्रकृत” अंगसूत्र -२ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [१], निर्युक्ति: [१-३५], मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता... आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: - पण्णरसिं वज्जेखा अट्टम च णवमीं च छद्धिं च । चउत्थि बारसिं च दोपि पक्खाणं ||१|| पत्थेसु वा रिक्खेनु 'मयसिरमदा पुस्सो तिष्णि य पुब्वाइ मूलमस्सेसा । इत्यो चिता य तहा दस विद्धिकराई णाणस्स || १ | जस्स वा जं अणुकूलं, अथवा 'संझागयं रविगतं विड्डेरं सम्गहं विलंबिं च । राहुहतं गमिष्णं च वज्जए सत्त णक्खते || १|| संझागतंमि कलहो होति कुमत्तं विलंविणकखत्ते । विद्धेरे परविजयो आइचगते अणिव्वाणी ||१|| जं सम्महंसि कीरड़ णक्खते तत्थ दुग्गहो होइ । राहुहर्यमि य मरणं गहभिण्णे लोहिउग्गालो ॥ २ ॥ पण्णत्ती दिट्टिवाओ य दिवड खेत्तेसु उद्दिसंति । गुणसंपया णाम पुत्रि विणेयो जह विणीतो इमे य से गुणा जड़ अस्थि तो उद्दिस्मति- पियधम्मो ददधम्मो संविग्गो वज्जभीरु असढो य । खंतो दंतो मुत्तो थिरव्वत जितिंदिओ उज्जू || १|| असतो तुलासमाणो समितो तह साधुसंगधग्यो य । गुणसंपदोववेदो जोगो सेसो अजोगो तु ॥ २॥ णेयोऽभिव्वाहारोऽभिबाहरण महमस्स साधुस्स । इदमुदिस्सामि सुत्तत्थोभयतो कालिअसुतंमि ॥ ३ ॥ दव्यगुणपज्जवेहि य भूतावायंमि गुरु समादिट्ठे । पेद्दिमिणं मे इच्छामऽणुसायणं सिस्से || ४ || माहूणो पसत्थो वा अभिवाहरति, 'करणं तव्वावारो गुरुसीसाणं चतुर्विधं तं च । उद्देसो वायणया तहा समुद्देमणमणुण्णा || १ || कत्थ लब्भतित्ति जहा णमोकारो, णाणावरणिज्जस्स दुविधाणि फड्डुगाणि सबघातीणि देसघातीणि य, तत्थ सव्वधातीहिं उघातितेहिं देसघातिहिं उदिष्णेहिं उरघातितेाहें अणुदिष्ोहिं उवसामिएहिं विज्झ विज्झमाणस्स लब्भति, कथं लभतित्ति गयं, भणितं सूतगडति णामं अंगस्स, तस्स पुण सूयकडस्स 'दो चैव सुयक्खंधा अज्झयणाई हवंति तेवीसं । तेत्तीसं उद्देसा आयारातो दुगुणमेयं ॥ | १ ||२३|| गाथा सोलसगंमी जेर्सि अज्झयणाणं ते इमे गाथासोलमगा, महन्ति अज्झयणाणि २ अहंचा मर्हति च ताणि अज्झयणाणि२, तत्थ पढमो सुतखंधो गाधासोलगा इइ नाव भूण्णं तित्तिकाऊण [25] आलोचनाद्याः ॥ २१ ॥ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: श्रीसूत्रक नाचूर्णिः ॥२२॥ गाथादि तेण गाथा णिक्खेतब्बा सोलस णिक्खिवितब्बा सुतं णिक्खियितव्वं खंधो णिक्खिवितव्यो, 'णिक्खेवो गाथाए ॥२३॥ गाथा । निक्षेपाः णामादि चतुर्विधा, णामठवणाओ गयाओ, दग्वे जाणगसरीरभवियसरीरवइरिता पत्तयपोत्थयलिहिता, भावगाथा दुविधाआगमतो णोआगमतो य, आगमतो जाणए उपयुत्ते, गोआगमतो एयं चेव, सोलसयं णामाइ छविधं, णामठवणाओ तह चेव, वरितं सोलस मचित्तचित्तमीसगाणि दवाणि, खेत्तसोलसर्ग सोलस आगासपदेसा, कालसोलसयं सोलस समया, सोलस-A समयठितियं वा दवं, भावसोलसयं इमाणि चेव मोलस अज्झयणाणि खयोवसमिए भावे, सुत्ने खंधे य चउको णिक्खेवो पूर्ववत जाव भावखंधो एतेसिं चेव सोलसण्ह अज्झयणाणं समुदयसमितिसमागमेणं गाथासोलसयसुत्तखंधोत्ति लब्भति, गाथासोलमयाणं इमे अत्थाहिकारा भवंति, ससमयपरममयपरूवगा य० गाथा ॥२३।। पढमज्झयणे ससमयपरसमयपरूवणाए अधिगारो १, वितियज्झयणाधियारो पुण ते ससमयगुणे परसमयदोसे य णाऊणं ससमए संयुज्झियन्वं २, तत्तिगज्झयणाहिगागे संबुद्धो संतो जस्थ उपसग्गेण चालिजइ ३,चउत्थज्झयणाओ इस्थिदोसविवजणा, तेऽवि अणुलोम उबसग्गा चेव उवसग्गभीरुणो थीवसस्स(२५) पडिलोमगा वा ४, पंचमअज्झयणाहियारो जो उवसग्गभीरू इत्थीवसमोगओ बहुयं पावं अजिऊण णरएसु उवयजति ५, छहस्स एवं जाणिऊणं महप्पा महावीरो उबसग्गाणि जिणिचि इत्थीपसंगदोसा य दोसे जाणित्तु इस्थिगाओ बजेत्ता णिब्याणं गतो भगवान् अतो आयरिओऽवि एवं चेव चेव सीसस्स उपदिसन्तो हक्वाति जहा सममए जहां उवसग्गा य णिजिणितमा इस्थिगाणि उ4 वजेतवाओ एवं सील बंभं च भवति ६, परिचत्तणिसीलकुसील० गाथा ॥२६।। सत्तमए णिस्सीला गिहत्था दुस्सीला अण्णउत्थिया सममएवि पामस्थादयो कुशीला वजेत्ता सयं च शीलवता भवितवं ८, अट्ठमस्स सयं सीलवता पाऊण वीरियदुर्ग पंडितवीरिए ॥ १२ ॥ [26] Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: श्रीसूत्रक ॥२३॥ | पयतितई। सेसाणं पुण इमो अहियारो-धम्मो समाहिमग्गो गाथा ।। २७ । वितियावि आयाणिय संकलिया गाथा ||२८|| अर्थाधिनाङ्ग चूणि एवं वीरियपंडितअभिगमणट्ठाए धम्मो कहिजइ, पंडियचीरियट्टितो व धर्म कथेति ९, दसमस्स समाधिं च सो उवदिसति १०, काराः उप| णाणादिसंजुत्तो से मग्गो उबदिस्मइ सो वा परेसिं उबदिमति एकारसमस्स ११, चारसमस्स एवं मग्गपडिवण्णो गामायगं (मगर्य) कमाया Aवा उबस्साए या भिक्खायरियगयं वा दुञ्जमाणे वा परउत्थिगा परउत्थिगभावितावि गिद्दी विवदेज सिं पडिसेधणट्ठा समोसरण| ज्यणे तिहावि तिसवाणं पासंडियमताणं असम्भावकुदिट्ठीओ पडिसेधिजने १२ तेरसमस्स जे पडिसेपेत्ता अहवा मग्गो परि कहिअति मवेचि ते धम्म समाधिमग्गं वाण थाणंति १३, चोद्दसमस्स समाधिमग्गद्वितस्सवि सीसगुणदोसा परिकहिअंति | सीसगुणसंपणोण य गुरुकुलबासो वसितव्यो १४, पण्णरसमस्स आयाणिज्जे आत्मार्थिकेन आयतचरित्तेण भवियव्यं सुत्तन्थो य पायेण संकलियाण बद्धो १५, एतेसिं पण्णरसण्डवि अज्झयणाणं गाथाए पिंडकवयणेणं अत्थोऽभिवजति दरिसिजति विभाष्यत इत्यर्थः, गाथासोलमगाणं पिंडत्थो वणितो समासेणं। एत्तो एकेकं पुण अज्झयणं कित्तयिस्सामि ॥१॥ तत्थ पदमज्झयणं समयोत्ति, तस्स इमे अणुओगदारा भवंति, तंजहा-उवमोणिक्खेवो अणुगमो णयो, उपक्रम्यते अनेनेत्युपक्रमः, क्रम पादविक्षेपे। IN उप सामीप्ये सस्थमामीवीकरणं, मन्थस्स णासदेमाणयणमिति भणितं होति, तथा-निक्षिप्यतेऽनेनेति निक्षेपः, क्षिप प्रेरणे इति, नियतो निश्रितो क्षेपो निक्षेपो न्यामः स्थापनेतियावत , अनुगम्यतेऽनेनेत्यनुगमः, अनुगतो वा सूत्रस्य गमो अनुगमः, अनुरूपार्थ| गमनं वा अनुगमः, सूत्रानुमारणमित्यर्थः, णी व प्रापणे, तस्य नय इति भवति, मूत्रप्रापणे व्यापारोपायानयतीति नयः, नीयते वा अनेनेति नया, वस्तुनः पर्यायानां संभवतोऽभिगमनमित्यर्थः, एतेसिं च उवकमादिदाराणं एसेव कमो, यतो नाणुपक्रान्तं अम-101२३ अनुक्रम [27] Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [] दीप अनुक्रम [] श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः ॥ २४ ॥ “सूत्रकृत” - अंगसूत्र- २ (निर्युक्तिः+चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [१], निर्युक्ति: [१-३५], मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता...... आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : मीपीभूतं सन्निक्षिप्यते, न च नामादिभिरनिक्षिप्तं अर्थतोऽनुगम्यते, न च नयमतविकलो अनुगम इति, जतो सत्थं सम्बन्धात्मकेन उपक्रमेण स्थापनासमीपमानीयते नामादिन्यस्त निक्षेपमर्थतोऽनुगम्यते नानानयैः अतोऽयमेवानुयोगद्वारक्रम इति, सो उबकमो छन्निहोऽवि णामोवकमो ठवणा०दव्य० खेत्त० काल० भावष्णू उवकमो, छन्विहोवि जहा आवस्सए तहा परूवे यन्त्रो, अवा उबकमो छन्विधो-आणुपुच्ची णामं पमाणे वत्तव्यया अत्याधियारो समोतारो, एतेऽचि जहा अणुयोगद्वारे तहा भासितव्या जाव समोतारो सम्मत्तो एवं समयज्झयणं अणुपुव्वादिएहिं दारेहिं जत्थ जत्थ समोतरति तत्थ तत्थ समोतारेयचं, आणुपुत्रीए उक्तिणाणुपुत्रीए गणणाणुपुत्रीए य समोतरति सा तिविहा- पुचाणुपुत्री पच्छाणुपुत्री अणाणुपुत्री, समयज्झयणं पुचाणुपुद्दीए पढमं, पच्छाणुपुवीए सोलसम, अणाणुपुढीए एताए चैव एगा दियाए एगुत्तरिआए सोलस (ग)च्छगताए सेडिए अण्णमण्णवभासो दुरूवूणो, एत्थ पत्थार विहिकरणं इमं एकाद्या गच्छ पर्यन्ताः, परस्परस माहताः। राशय तद्धि विज्ञेयं, विकल्पगणिते फलम् ॥१॥ गणितेत्यविभक्त तु, लब्धं शेपैर्विभाजयेत् । आदावते च तत् स्थाप्यं, विकल्पगणिते क्रमात् ॥२॥ णामे छविधणामे समोतरति, तत्थ छविधो भावो वणिजति, तत्थवि खयोवसमिए भावे समोतरति जतो सबमेव सुयं खयोवसमिए भावे वट्टति । पमाणं चउविधं दद्यप्यमाणं खेचप्पमाणं कालप्यमाणं भावप्यमाणं च प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणं तत्थ समयो भावात्मकत्वात् भावप्रमाणगोचरं तं भावप्यमाणं तिविधं गुणप्यमाणं नयप्यमाणं संखष्यमाणं; गुणप्पमाणं दुविधं जीवगुणप्पमाणं अजीवगुणप्पमाणं च तत्थ जीवाणण्णत्तणओ समयस्स जीवगुणप्पमाणे समोतारो, जीवगुणव्यमाणं तिविधं गाणगुणप्पमाणं दंसणगुणप्पमाणं चरित (गुणप्यमाणं च ), तत्र बोधात्मकत्वात् समयस्स णाणगुणष्यमाणे समोतारों, गाणष्यमाणं चतुर्विधं पञ्चक्खं अणुमाणं उवम्मं आगमो, तत्थ समयस्य पायं परोवदेसत्तणतो आगमध्यमाणे समोतरति, आगमो [28] उपक्रमः ॥ २४ ॥ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: १८ ताङ्गचकि गुणनयवक्तव्यता: दुविधो-लोइओ लोगुत्तरो य,लोगुत्तरिए समोतरति,सोऽवि तिविधो-सुसे अत्थे तदुभयेत्ति,तिसुवि संमोतरति,अथवा आगमो तिविधो- अत्तागमो अणंतरागमो परंपरागमो य, तत्थ समयस्स अस्थत्तो तित्थकरस्स अत्तागमो गणधराणं अणंतरागमे गणधरसिस्साणं परंपरागमो, सुत्न(त्थ)ओ गणधराणं अत्तागमो गणहरसीसाणं अणंतरागमो,तेण परं सुत्तत्थभअयोविणो अत्तागमोणो अणंतरागमो,परंपरा गमो, गुणप्पमाणं गतं । इदाणिं णयप्पमाणं-तस्थ मूढणइयं सुतं कालियं तु ण णया समोतरंति इह । आसञ्ज तु सोयारं णए णयवि। सारतो बूया ||१।। इदाणिं णयप्पमाणे ण समोसरति, पुरा पुण जाव चउण्ह अणुयोगाण अपुहुतं आसि ताय सुत्ते णया अवितारिशंता, ॥ इयाणिं पुहुत्ताणुयोगे णायतारिज्जति । इदणि संखप्पमाणं, तं अट्ठविहं, तंजहा-णामट्ठवणसंखा दवखेचकालसंखा परिमाणपजवभावे Ka संखा चेव, तत्थ परिमाणासंखाए समोतरति, परिमाणसंखा य दुविधा-कालियसुतपरिमाणसंखा य दिहिवायसुतपरिमाणसंखा य, | कालिय० संखाए समोतरति, कालियसुतपरिमाणसंखा दुविधा-अंगपचिट्ठ अंगबाहिरं च, अंगपविढे समोतरति, पजवसंखाए अर्णता | पज्जवा, जतो भणितं-सव्वागासपदेसग्गं; सव्वागासपदेसेहि अर्णतगुणितं पज्जवग्गं अक्खरं लब्भति, संखेज्जा अक्खरा संखेज्जा संघाता संखेजा पदा संखेा सिलोगा संखेज्जाओ गाथाओ संखेज्जा वेढा संखेज्जा अणुयोगदारा। इदाणि वत्तव्बया, सा तिविधाM मममययत्तव्यया परसमयवत्तव्यया ससमयपरसमयवत्तव्यया, तत्थ ससमयवत्तवयाए समोतरति, परसमए उभयं वा सम्मदिहिस्स ससमयो, जाणतो सवज्झयणाई ससमयवत्त वणियताई, मिच्छत्तसमूहमयं सम्मत्वं जं च तदुवकारंमि वइ परसिद्धंतो तो तस्स तओ ससिद्धंतो। अस्थाहिकारो दुविधो-अज्झयणस्थाधिकारी य उद्देसास्थाधिकारो य, तत्थ अज्झयणत्याहिगारो ससमयपरसमयप| स्वणाए, उद्देसत्थाहिकारो इमों-पढममुद्देशए ताव इमे छ अस्थाहिकारा भवंति, तंजहा-महपंचभूता एकप्पयतज्जीवतस्सरीरी य तह अनुक्रम A ॥२५॥ [29] Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: ओधनाम्नी सूत्रकचूर्णिः । २६ ॥ य अकारगवादी आतछट्ठो अफलवादी ॥१(३०)। वितियए चत्वारि अस्थाहिकारा, तंजहा-बितिए णियतीवायो अण्णाणी तह य णाणवादी य। कम्मं चयंण गच्छति चतुर्विधं भिक्खुममयंमि ॥२(३१)। तइए आहाकम्मं कडवादी जह य ते पवादी तु । किच्चवमा य चउत्थे परप्पवादी य विरतेसु ।।२(३२)। ततिएऽत्थ अत्याहिकारो आहाकम्म परवादिका य,चउत्थे एगो चेव अधिगारो किच्चुत्रमा परप्पयादीगाणं । एवं समोतारेण जत्थ जत्थ समोतरति तत्थ तत्थावतारितं, उवक्रमो गतो। इदाणि णिक्खेवो, सो तिविहो- ओषणिप्फण्णो णामणि सुत्तालावयणिप्फण्णोत्ति, ओहो णाम जं सामण्णं सुत्तस्स णाम, तं चउविधं-अज्झयणं अज्झीणं आयो ज्झयणा,अज्झयणं णामादि चतुर्विधं, दबज्झयणं पत्तयपोत्थयलिहितं, भावज्झयणं इदमेव समयंति, अज्झीणं णामादिचतुर्विधं, दबज्झीणं सन्चागाससेढी, भावज्झीणं इदमेव समयज्झयणं, ण खीज्जति दिजंतं अण्णेसिं, तत्थ गाथा-जह दीवा दीवसतं पदिप्पदी सोय दिप्पती दीपो । दीपसमा आयरिया दीपंति परं च दीति॥१॥ इदणि आयो, सो नामादि चउन्धिहो, दब्बाओ सचितादि, सचित्ते दुपयादि ३ मिस्से स एव साभरणाणं दुपदादीणं, अचित्ते हिरण्णादि ४, भावाओ इदमेव समयज्झयणं । इदार्णि झवणा, णामादि चतुर्विधा-दव्यज्झवणा पल्हस्थियाए पोती ज्झविजति घोडो विवजाए एवमादि, भावझवणा दुविधा-पसस्थभावज्झवणा य अपसत्वभावज्झवणा य, पसत्थभावज्झवणा य णाणस्स झवणा ३, अपसत्थभावझवणा कोहस्स ४, चउसुवि एतेसु समयज्झयणं भावे समोतरति । इदाणि एतेसिं चउण्हवि णिरुत्तेण विहिणा वक्खाणं भण्णति-तत्थ णिरुत्तगाथाओ-जेण सुहज्झप्पयणं अज्झप्पाणयणमधिअणयणं वा । चोहस्स संजमस्स व मोक्खस्स व तो तमज्झयणं ॥१॥ जेण सुहज्झपंजणेति अतो अज्झप्पजणणं, पगारणकारलोचाओ अज्झयणंति, अथवा बोहादीणं अधिकण णज्झयणं, अयनं गमनमित्यर्थः, अज्मीणं दिज्जतं 'अध्ययन' शब्दस्य निक्षेपा: [30] Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: समयनिक्षेपाः ताङ्गचूर्णिः प्रत अवोच्छित्तिणययो अलोगो वा। आयोणाणादीणं झवणा पावाण खरगत्ति ॥१शागतो ओहणिप्फण्णो णिक्खेवो। अह णामणिफण्णो श्रीसूत्रक समयोति, सो बारसविधो-णाम ठवणादविए खेते काले कुतित्थसंगारे । कुलगणसंकरसमए गंडी तह भावसमए य ॥२९|| णामं ॥२७॥ | ठवणाओ तहेव वतिरितो दवसमओ जो जम्स सचित्तस्स अचित्तस्स वा मभावो, तंजहा-सचित्तस्सोवयोगो सेसाणं गतिठितिअवगाहगहणाणि, अध अचित्तेण दवाणं सम्भावा भवंति वाणगंधरसफासेहि, वण्णतो कालतो भमरोणीलं उप्पलं रत्तो कंबलसारो पीतिया हरिदा सुकिलो ससी सुगंधं चंदणादि दुग्गंधो ल्हसुणादी कदुआ सुंठि तित्तो थियो कसायि चतूरं कविटुं अम्बं अम्बयं | महुरो गुलो कक्खडो पासाणो स एव गुरु लहुगं उलूगपत्तं सीतं हिमं उण्हो अग्गी णिद्धं घतं लुक्खा छारिया एवमादि, अहवा जो जस्स दब्वस्सोवयोगकालो सो तस्स समयो, तंजहा-खीरस्स ताव उण्हमणुण्हं तमसीतं वा, एवमण्णेसिपि पुप्फफलादीणं विभासियवं, अथवा-वर्षासु लवणममृतं शरदि जलं गोपयश्च हेमन्ते । शिशिरे चामलकरसो घृतं वसंते गुडो वसंतस्थान्ते ॥१॥ खेत्त| समयो आगासस्स धम्मो-एगेणऽवि से पुष्णो दोहिवि पुण्णे सतंपि 'माइजा । अहवा जो जेसिं गामाईणं खेत्ताणं ससभावो, जहा आगामे गामधम्मो णगरे णगरधम्म इति, देवकुरादीणं वा खेत्तणंपि जो सम्भावो, अहबा जहा परिपकस्स सालिखेतस्स लुणिसव्वस| मये, अहवा उडलोगअधोलोगतिरियलोगस्स वा जो सम्भावो, कालसमयो जो जस्स कालस्स सम्भावो ओसप्पिणी अबसप्पिणी, | उस्सप्पिणी उस्सप्पति तथा सुभाणुभावा मुदिता एगता सुभा एवं छब्धिहो कालो वण्णेतव्यो, जहा जवुद्दीवपण्णत्तीए:। पासंडसमयो जो जस्स पासंडस्स सम्भावो धम्मतेत्यर्थः, तंजहा केइ 'आरंभेण धम्मं ववसिता केसिंचि णाणा ण धम्मो, केसिंचि अ. भिपेचनोपवासगुरुकुलवासादिभिः, संगारसमयो हि यस्य येन यस्मिन् काले विधिदत्तः, सिंगार:-समयो जहा पुचकअसंगारेण अनुक्रम HAL अध्ययन-१ आरब्ध: [31] Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [] दीप अनुक्रम [] श्रीसूत्रकवाङ्गचूर्ण: ॥ २८ ॥ “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [१], निर्युक्ति: [१-३५], मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: सिद्धत्थसारथिणा चलदेवो संबोधितो, पुट्टिलाए तेयलिपुत्तो, पभावतीए उदायणो, एवमादि, कुलसमयो जो जस्स कुलस्स धम्मो, आचार इत्यर्थः, तद्यथा-शकानं आव पितृशुद्धिः खंडशुद्धिः आभीराणां अमातृमंथनी शुद्धिः, गणसमयो जो जस्स गणस्स समयो, तंजामलगणस्स जो मल्लो अणाहो मरति स सेममलैः संस्कार्यते, पतितं चैनमुद्धरति, गण्डिसमयो जहा भिक्खूणं गोसे पज्जाist म भावणगंडी अवरण्हे धम्मकथागंडी सज्झाए समितिगंडी, भावसमयो इमं चैव अज्झयणं खयोवसमिए भावे, एतेण चैव एत्थ अहिगारो, सेसाणि मतिविकोणत्थं परूविताणि । णामणिष्कण्णो निक्खेवो गतो । इदाणिं सुत्तालावगणिफण्णो णिकखेवो, सो पत्तलक्षणोवि ण णिक्खिप्पति, कम्हा ?, लाघवत्थं, जम्हा अस्थि इतो ततीयं अणु योगदारं अणुगमोति, तहिं वा वित्तं इह णिखित्तं भवति, तम्हा तहिं चैव णिक्खिविस्सामीति । आह-यदि प्राप्तावसरोऽप्यसौ न संन्यस्यते किमिहोच्यत इति, उच्यते - निक्षेपमात्र सामान्यादसौ केवलमिहोपदिश्यते, न तु न्यस्यते, गुरुता मा भूदित्युक्तो निक्षेपः ॥ इदाणिं ततियमणुयोगदारं अणुगमोति, सो दुविधो-सुत्ताणुगमो निज्जुत्तिअणुगमो, गिज्जुत्तिअणुगमो तिविहो- णिकखेवणिज्जुत्तिअणुगमो उवुग्घातणिज्जुत्तिअणुगमो सुत्तफासिय णिज्जुत्तिअणुगमो, तत्थ णिक्खेवणिज्जुत्तीअणुगमो अणुगतो जं एवं हेट्ठा णिक्खेववक्खाणं भणितं, इदाणिं उपघातणिज्जुत्तिअणुगमो उवघातो णाम प्रभवः प्रसूतिः निर्गम इत्यर्थः, अग्भच्छत्रे यथा चंदो, न राजति नभस्तले । उपोद्घातं विना शास्त्रं तथा न भ्राजति विधौ ॥१॥ यथा हि दृष्टसर्वांगो, संवीतवदनो नरः । अभिव्यक्तिं न यात्येवं, शास्त्रमुद्धातवर्जितं ||२|| सोय उघातो इमेहिं छब्बीसाए दारेहिं अणुगंतवो, तंजहा उद्देसे पिसे य णिग्गमे खेत्तकाल पुरिसे य । कारणपचय लक्खण णये समोतारणाशुमतो ॥१॥ किं कतिविधं कस्स कहिं केसु कथं केचिरं हवति कालं । कति संतरमविरहियं भवाग [32] सूत्रालापा नुगमो ॥ २८ ॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक | ॥१-२७|| दीप अनुक्रम [१-२७] श्रीसूत्रताङ्गचूर्णिः ॥ २९ ॥ सूत्रस्य अनुगम “सूत्रकृत” अंगसूत्र-२ (निर्युक्तिः+चूर्णिः) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [१], निर्युक्ति: [ १-३५ ], मूलं [गाथा १-२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र - [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : - रिस फासण णिरुती ॥२॥ एताणि जहा सामाइयणिज्जत्तीए भाणियव्वाणि, उवग्धायणिज्जुत्ती गता । संपति सुत्तफासियणिज्जुनी-जं सुत्तस्स वक्खाणं तीसे अवसरो, सा पुण पत्ताविण भण्णते इधत्ति, किं १, जेणासति सुत्ते कस्स तई ?, तंजहा- कमप्पत्ते सुत्ताणुगमे बोच्छिति होहिति, तीसे य तदावसरो अस्थाणमिदं तीसे, जड़ भो सो कीस भण्णइ एधई ?, इव सा भण्णति णिज्जुत्तिमेचसामण्णतो, णवरं अतो एतेण संबंधेण, इदाणिं निज्जुति अणुगमाणंतरं सुत्ताणुगमं भणामि, सुत्तस्स अणुग मे सुत्ताणु मरणमित्यर्थः किमिह हीणाधिकविपजत्थादीदोसदुस्स आहु णिदोसस्स य वक्खाणं आरम्भति १, णिद्दोसस्स, ण सदोसस्स, जतो सुचाणुग मे सुत्तमुच्चारयवं, सुतेऽणुगते सुद्धे णिच्छिते तह कतो पदच्छेदो सुखालावण्णासणिक्खि ते फासो तु, एवं सुचाणुगमो सुत्तालावय कयो य णिकखेवो । सुत्तफासिय निज्जुत्ती गया य वच्चेति समगं तु ॥ १ ॥ तत्थ सुत्ताणुगमे सुत्तं उचरियां अहीणकखरं अणचक्खरं अवाइद्धक्खरं अक्खलितं अमिलियं अविचामिलितं पडिपुण्णं पडिपुण्णघोसं कंट्ठोहविष्यमुकं तो तत्थ णज्जिहिहि ससमयपदं वा बंधपदं वा मोकखपदं वा ससमयपदं वा गोससमयपदं वा ते, तंमि उच्चारिते समाणे केसिंचि भगवंताणं केइ अस्थाधिकारा अधिकता, भवंति के अणधिगता, तो तेसिं अणभिगताणं अत्थानं अभिगमणट्टताए पण पयं वनस्सामि, तत्थ संहिता य पदं चैव पयत्थो पदविग्गहो। चालणा पचवत्थाणं, छद्विधं विद्धि लक्खणं ॥ १ ॥ तत्थ संहिता सुतं इमं 'बुज्झिज्ज तिउहिजा, बंधणं परिजाणिया । किमाहु बंधणं धीरे १, किं वा जाणं तिउद्धति १ || १ || बुज्झिज्जेति कुत्र बुध्येत ? धर्मे युध्येत इति, युज्झितं वा बुज्झेआ बुज्झेज्जा तिकालगाहणं बुद्धो तमेवार्थं पुनः पुनर्बुध्यते, बुद्ध्यमानो वा बुद्ध्येत किं पुनः तए बुज्झेन्ज वा उबलभेज वा भिदेज वा एवमन्येऽपि ज्ञानार्था धातवो वक्तव्याः, तद्यथा जहेज वा आगमेज वा, समयोति अधि [33] सूत्रानुगमादि ।। २९ ।। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति : [१-३५], मूलं [गाथा १-२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चर्णि: बोधपरि प्रत सूत्राक ||१-२७|| दीप अनुक्रम [१-२७] यारो प्रस्तुतः, स च त्रिविधः, तद्यथा-स्वः परः तदुभयश्च, समय स्वभावे इतिकृत्वा तेषां स्वभावं युद्ध्येत, के तु सम्यक्प्रतिपन्नाः ? के मिथ्याप्रतिपन्ना इत्येवं सर्वाध्ययनाधिकारं बुध्येत, अथवा बंधं वन्धहेतुं वा बुध्येत, अत्राह-अविशिष्टमेवापदिष्टं बुध्येत इति, नेत्यपदिष्टं इति एवं नाम बुध्येत बंधं बंधहेतु वा?, उच्यते, नवपदिष्टमत्रैव द्वितीयपादेन 'बंधणं परिजाणिया' इति, तेनानुक्तमपि ज्ञायते यथा बंधं बंधहेतूंच बुध्येत, तत्र यन्धहेतुः प्रमादः संपरायिकस्य कर्मणः रागद्वेपमोहा वा पाणातिवातमाइगाणि वा मिच्छादसणसल्लपजवसाणाणि आरंभपरिग्गहा वा एवं बंधहेऊ बुझेजा, एत एव विवरीता मोक्खहेतवो भवंति, तेवि बुज्झियवा भवंति, उक्तो बन्धहेतुः, बन्धस्तु प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशो वक्तव्यः, तिउट्टिजत्ति नोडेज, सा दुविधा-दबत्रोडणा य भावतोडणा य, दब्वे देशे सन्चे य, देसे एगतंतुणा एगगुणेण वा छिण्णेण दोरो त्रुटो बुज्झति सवेणवि त्रुटो चेव भण्णति, भावतोहणा भावेणैव भावे त्रोटेयबो, णाणदसणचरित्ताणि अत्रोटयित्ता तेहिं चैव करणभूतेहिं अण्णाणअविरतीमिच्छादरिसणाणि बोटितवाणि, जधुदिढे वा पमातादिवंधहेतू त्रोडेजा, बंधं च अट्टकम्मणियलाणि बोडेज, उच्यते-वैधणं परिजाणिया, बंधस्तद्धेतवश्वोक्ताः, ताणि जाणणपरिणाए णाऊण पञ्चक्खाणपरिणाए तिउहिज,एतबंधानुलोम्यात् सूत्रं गतं, इयरहा हि युज्झेजति वा परिजााणेजेति वा एकट्टमितिकातुं तेन सुद्धः सन् बंधनं परिज्ञाय त्रोडेज, अथवा बुज्झेजति जाणणापरिणा गहिता, बंधणं परिजाणेजति पञ्चक्खाणपरिणा, किमाहुबंधणं धीरो, किमिति परिप्रश्ने, आहुरिति एकान्तपरोक्षे, भगवति सिद्धिं गते जंबूस्वामी अञ्जसुधम्म पुच्छति, किमाहु बंधणं धीरे, तत्थ बंधो अट्ठप्पगार कम्म, चउविहो बंधहेतू , अत्राह-इह सूत्रे नोक्ता बंधहेतबो न चानुक्तमुक्तं स्यात् एवमुक्तमपि अनुक्तमस्तु, उच्यते, यंधने उक्ते बंधी बंधहेतुश्च अपदिष्टो भवति, धीरो इति युयादीन् गुणान् दधाती धीरः, पुनराह-किं वा श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन-१, उद्देश-१ सूत्र आरभ्यते [34] Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति : [१-३५], मूलं [गाथा १-२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: परिग्रहा प्रत सूत्राक ||१-२७|| दीप अनुक्रम [१-२७] जाणं तिउति ?, उच्यते, आघातः इहैव व्याकरणे तमेव बंधबंधहेतु य जाणणापरिणाए णातुं पञ्चक्खाणपरिणाए पडिसेहेतुं पच्छा। ताचूर्णिः। तिउट्टतित्ति तिउति-बंधणाई तोडेइ, सो वा बंधणेहि मिन्नो त्रुटति, अहवा पुवढेण उद्देसो पच्छद्धेण पुच्छा वितियसिलोगेण वागरणं, ॥३१॥ तेन कारणे कार्यवदुपचारं कृत्वा बंधनमपदिश्यते-चित्तमन्तमचित्तं वा सिलोगो।।२।। उक्तं हि आरंभपरिग्गहो बंधहेतू , येऽपि च रागादयः तेपि नारंभपरिग्गहा च अंतरेण भवंतीति तेन तावेव वागराहियं सन्वितिकृत्वा सूत्रेणैवोपनिबद्धो, तत्रापि परिग्गहनिमिर्च आरंभाः क्रियते इतिकृत्वा स एव गरीयस्त्वात् पूर्वमपदिश्यते, पंचण्हं वा पाणातिपातादिआसवाणं परिग्गहो गुरुत्तरोत्तिकाउं तेण पुर्व परिग्गडो चुच्चति, तत्थ चित्तमंतं तिविधं-दुपयं, चउप्पदं अपदं, अचित्तमंतं हिरण्णसुवण्णादि, वा विभापायां, मिश्रं चेति, परिगिझ किसामवि किसामवीति कृशं-तनुः तुच्छमित्यनर्थान्तरं तृणतुषमात्रमपि,अथवा कसायमपीति इच्छामात्र, प्रार्थना कपायतः, असत्यपि विभवे कषायतः परिगृह्यमानानि वसपात्राणि परिग्गहो भवति, तमेव नो सयं परिगिण्हइ नो अण्णेण | परिगिण्हावेति परिगृह्यतं चति सुत्तेण चेव भणियं अण्णं नाणुजाणति, सूचनामात्रं सूत्रं इतिकृत्वा स्वयंकरणकारवणानि अणुमतीए गिहिताई, णवगोवा वेदो, एव दुक्खा ण मुञ्चति, एवं सो णवएण भेदेण परिग्गहे वहमाणो दुक्खाओ न मुञ्चति, तत्र दुक्खं कर्म तद्विपाकश्य, एवं बुज्झेज-सपरिग्गहस्स णियमा पाणाइवायादयो भवंति, तेण पुव्वं परिग्गहो भणिओ, मेथुणं परिग्गहे चेव पडति, | समजिणणणासे य परिग्गहदोसा भाणियव्वा,उक्तं हि-"परिग्रहेष्वप्राप्तनष्टेषु कांक्षामोहौ प्राप्तेषु च रक्षणं उपभोगे चातृप्तिः"। इदाणीDमारंभो,सो य परिग्गहमेव, तत्थ सिलोगो-सयं तिवातए पाणे(३)सयमिति स्वतः अतिवायए नेति,आयुर्बलशरीरमाणेभ्यो त्रिभ्यः पातयतीति त्रिपातयति, त्रिभ्यो वा मनोवाकाययोगेभ्यः पातयति, करणभूतैर्वा मनोवाकाययोगैः पातयतीति त्रिपातयति, अति [35] Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [गाथा १-२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: MEDIAS प्रत मनक ममar सूत्रांक ३२॥ ||१-२७|| दीप अनुक्रम पातयतीति वा वक्तव्यं, अकारलोपं कृत्वाऽपदिश्यते तिपातयति, अदुवा अण्णेहिं घातथे अदुवा अन्यैर्घातयति तया राजादयः, । हणतं वा अणुजाणति जहा उदिडभोयिणो पासंडा, अस्मिँस्त्रितये कश्चित स्वयं त्रिविधेऽपि करणे वर्चते कश्चिद् द्विविधे कश्चिदेकविधे, सर्वथापि वर्चमानो वेरं वद्दति अप्पणो विरञ्जते येन तद्वेरं मुणगपथितिपरंपरे वहमाणे महासंगामे हवेज्जा, किमंग पुण, पुरिसवधे गोणादियधेवा,एत्थोदाहरणं बारत्तएणं महुबिंदुमि पसंगो,अथवा वेरमिति अट्ठपगारं कम्म,उक्तं हि-१ पावे वेरे वजेत्ति,ता वेरं प्राणातिपाताधैरारंभैर्वर्द्धयन्ति मृपावादादत्तादाने अपि आरंभाय गीत एव, एवं बुज्सेजा । तत्किमर्थमारभते प्रतिगृहाती वा ?,उच्यते-जंसि कुलेसु उप्पन्नो सिलोगो (४)परिग्गहविशेषमेचाभिधीयते जंसि कुले समुप्पन्ने, यस्मिन्निति अनिर्दिष्टे कुलइति मातापितृपक्षे जेहिं 1 वा संबसे परे भज्जासुसरसहवासमित्तातिएहि ममाई लुप्पए बालो ममाती मम ममैते बांधवा इति ममीकारदोसेण ये लुप्पति उवत्तेति,उदूई धम्माओत्ति,द्वाभ्यामाकलितो बालः,अण्णमण्णेहि मुच्छितेति तेसु पुत्वसंथुतेसुवा,एत्थ चउभंगो-सो तेसु मुच्छितो ण ते तत्थ मुच्छिता, णासो तेसु ४, सूत्राभिहितस्तु अण्णमष्णेहिं मुच्छितेति सोऽपि तेसु तेऽपि तमि, चतुर्थः शून्यः, एवं बुज्झेज, किंचान्यत्-न केवलं स्वजनमूच्छितालुप्यन्ते,अन्यत्रापि मूच्छिता लुप्यते,तंजहा-वित्तं सोदरिया चेव सिलोगो(५)अथवा जं वुत्तं अण्णामण्णेहि मुच्छितेति एपा मूर्छा न त्राणाय भवतीत्यपदिश्यते वित्तं-सोदरिया चेब, वित्तं तिविधं सचित्तादी, सचित्तं त्रिविधं दुपयादि, अचि हिरण्णादि, मीसं तिविधं तदेव दुपयादी वक्तव्यं, सोदरिया णाम भाता भगिणी णालबद्धा वा समाणोदरिका सहोदरिका मनुष्यजातयो गृह्यन्ते, तेत्रापि न त्रा०, अपरे च अत्रातारः संतो कथं त्रोटयंति, इहापि ताव भवेना तयोः परिग्रहश्च न त्राणाय, किमंग पुण प्रेत्येति, पालकवादच्छेदोदाहरणं वक्तव्यं, किंच-यनिमित्तमसौ परिग्रहः परिगृह्यते तदप्यसंजतानां संघात [१-२७] [36] Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१-२७|| दीप अनुक्रम [१-२७] श्रीसूत्रताङ्गचूर्णिः ॥ ३३ ॥ “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [१], निर्युक्ति: [ १-३५ ], मूलं [गाथा १-२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२ ], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: जीवितं चैव समस्तं घाति संघाति मरणाय धावति, जीवितकामभोगापि हि अग्गिचोरादि विनाशाय वर्धेति, एवं जीवितं कामभोगाश्वानित्यात्मकं जानीहि मृच्छतामस्य कर्माणि बध्यंते, तेभ्यः स्वयं तिउट्टेज्ज, ताणिवि तोडेज्ज, अथवा न केवलं मनसा कर्माणि बोडेज्जा, इतरथापि हि कर्माणि चैव त्रोडिज्जंति, पठ्यते च संखाय जीवितं चैव कम्मणाओ तिउद्धति संखाएचि ज्ञात्वा जाणणसंखाए णचा अणिचं जीवितंति, तेण कम्माई कम्महेऊ य त्रोटेज, एते गंधे विउकम्म० सिलोगो ॥६॥ तत्रारंभग्रहणेन तिष्णि आसवा पाणातिवातादयो गहिता, परिग्गहगहणेण मेहुणपरिग्गहा गहिता भवंति, अथवा समयः प्रस्तुतः, ते सामयिकाः एते गंये विउक्कम्म एते इति ये प्रागुदिष्टाः चित्तमंतअचित्तमंत अथवा वित्तं सौदरिया आरंभपरिग्गहो वा ग्रध्यते येन स ग्रन्थः ग्रन्थमात्रं वा ग्रन्थः तं ग्रन्थं ग्रन्थहेतूंथ विविधमुत्कान्ता विउक्कंता, अथवा विविधैः प्रकारै उकामंति विउकमिता, पुणरवि तेसु चैव व ंति यथा शाक्यादयो, एगेति नास्मच्छ्रमणाः, शाक्यादयो परिव्राजकादयः, अयाणंता वियोसिया अयाणंता विरतिअविरतिदोस य, विविधं उसिता बद्धा इत्यर्थः, बीभत्सं वा उत्सृता विउस्सिता, कामाः शब्दादयः, मनोरपत्यानि मानवाः, अथवा एमत्सा (बीभत्सा) चिचादीन् ग्रन्थानतिक्रम्य अस्मन्मतका अपि एके, न सर्वे, समणा लिंगत्था माहणा-समणोवासगा, तत्पुरुषो वा समासः, श्रमणा एव माहणा श्रमणमाहणाः, नैषयिकनयं प्रतीत्य ते हि अणयाणका एव, ये ये ज्ञानोपदेशे न तिष्टंति पासस्था दयो तेऽचि परतित्थिया इव अपारगा, किमंग पुण कामभोगपविता गृहस्था अप्पसत्थिच्छा, कामेसु इच्छाकामेसु मयणकामेसु वा सत्ता, वृत्ता ओहतो मसमयपरिक्ता । इदाणिं विभागेण परतित्थियाण तिष्णि तिसङ्काणि पावादियस्याणि परिक्खिति, तत्थ पुण्यमेव पंचमहसूतवादिनो भवति, उद्देमत्थाधिकारे य भणितं महपंचभूत एकरपया अ तज्जीवतस्सरीरा य, तत्थ पंचमहाभूतियाण [37] पंचमहाभूतिकाः ॥ ३३ ॥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति : [१-३५], मूलं [गाथा १-२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत पंचमहाभूर्तिकाः सूत्रांक ||१-२७|| दीप अनुक्रम श्रीसूत्रक समयं परूवेति भगवं-संति पंच महाभूता सिलोगो(७)संतीति विचंते पंच महद्गहणं तन्मात्रज्ञापनार्थः, भूतानि-पृथिव्यांपस्तेजो तानचूर्णिः वायुराकाशभिति,'इहेति इह मनुष्यलोके, एगेसि, ण सन्वेसिं, जे पंचमहद्भूतवाइया तेसिं, एवं आहिता-आख्याता, तत्र यो हासिन् ॥३४॥ शरीरे कठीनभावो सो पुढवी यावकिचि द्रवतं आउभूतं उसिणस्वभावो कायाग्निश्च तेउभूतो चलस्वभावोच्छासनिःश्वासच बातभूत वादनादिश्च स्थिरस्वभावमाकाशं । एते पंचमहद्भूता सिलोगो(८)एते इति ये उद्दिष्टाः,तेभ्यः एक आत्मा भवति,पिष्टकिण्वोदनिमित्तयोः सुराया मदवत्, अथवा तेम्पो एगोनि सिस्सामंत्रणं एवमारव्याति भो ! ति, कोऽयं लोकः, चेतनमवेतनद्रव्यं सर्व भौतिक, अथैतेसिं संयोगो अथेत्यव्ययं निपातः, तेपामिति तेषां भूतमयानां प्राणिनां विगतः संयोगो२ विणासो(दे)हिचि देहिणं,विनासो | नाम पंचस्वेव गमनं, पृथिवी पृथिवीमेव गच्छति, एवं शेषाणामपि गच्छंति, उक्तं हि "जह मजंगेसु मओ वीसुमदिट्ठोऽवि समुदये होउं । कालंतरे विणस्सति तह भूतगणमि चेतण्ण।।१।।अस्योत्तरं-पत्तेयमभावातो ण रेणु तेल्लं व समुदए चेता। मजंगेसुंतु मदोवीसुपि णसव्वसो णत्थिा।शाभमिधाणिवितण्हयादी पत्तेयंपिहु जहा मदंगेसु। तह जइ भूतेसु भवे ता तेसि समुदये होजा।।२।।जइ वा सव्वाभावे नवीसुं तो किं तदंगणियमोऽयं ?। तस्समुदयणियमो वा अण्णेसुवि ते हविजाहि ॥३शातस्स गोमयादिषु भूताणं पत्तेयंपि चेतणो अस्थि, समुदयद रिमणाओ, जह मजंगेसु मयोत्ति हेऊ णासिद्धोऽयं, खान्मतिः-साधूक्तं यथा पृथगपि मद्याझेषु मदसामर्थ्यमस्ति, एतदेव हि व्यस्तभूतचेतनायामुदाहरणं-इह व्यस्तेष्वपि भूतेसु चैतन्यमस्ति तत्समुदये दर्शनात् मदवत्,यथा मद्याङ्गेषु मदः पृथगसच्चान्नास्ति स्पष्टः,तत्समुदये तु व्यक्तिमेति, तथा पृथग्भूतेष्वणीयसी चेतना भवतीति,उच्यते,यथाऽऽस्थ त्वं भूतसमुदयगुणाभिप्रायतो चेतनायाः तत्समुदये दर्शनादित्यसमसिद्धः, न हि भूतसमुदयस्येयं चेतना, यदि भूतसमुदयस्येयं भवेत् व्यस्तभूतचैतन्यमपि प्रतिपद्येमहि, MIRCHIVERBASIROHINDISEARRAITADIANRAISHITREE [१-२७] ॥३४॥ [38] Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [गाथा १-२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत पंचमहाभूतिकाः सूत्रांक ||१-२७|| दीप अनुक्रम [१-२७] श्रीसूत्रक आह-ननु प्रत्यक्षविरुद्धमिदं, यत्समुदयोपलभ्यचेतनानुमानमस्ति, भवत एव हि प्रत्यक्षमिदं भूतचैतन्यं, प्रति जानं मनोभावात, नामचूर्णिः || भूतविशिष्टमात्रे पुद्गलानामेव तदात्मकानामविप्रतिपत्तेः, आह-न भूतसमुदयस्य चैतन्यमिति, किमनुमानमुच्यते?-भूतेंद्रियाति॥३५MER रिक्तः संचेतयिता तदुपलब्धार्थानुस्मरणात्, यो हि यरुपलब्धानर्थानेकोऽनुस्मरति स तेभ्योऽन्यो दृष्टः, यथा गवाक्षरुपलब्धान र्थाननुस्मरन् तेभ्यो देवदत्तः, यश्च यतो नान्यो नासावेकोऽनेकोपलब्धानामर्थानामनुस्मा यथा ततो विज्ञानं, इतथेन्द्रियातिरिक्तो विज्ञाता तदुपलब्धार्थानुस्मरणात्, यो हि यदुपलब्धानामर्थानामनुस्मर्ता स तेभ्योऽन्यो दृष्टः,यथा गवाक्षोपलब्धानामर्थानामिवाक्षोपरमेऽपि देवदत्तः, अनुस्मरति चायमात्मा अंधत्रधिरादिकाले पंचेद्रियोपलब्धानर्थान ,ततः स तेभ्योऽर्थान्तरमिति,व्यतिरेकः पूर्ववत्, इतश्चेद्रियातिरिक्तो विज्ञाता, तद्व्यापारेऽप्यनुपलंभतो, यो हि यद्व्यापारेऽपि यदुपलब्धानर्थान्नोपलभते स तेभ्योऽतिरिक्त एव दृष्टः, | यथोपविष्ठगवाक्षोऽपि न दर्शनानुपयुक्तस्तेभ्यो देवदत्तः, इमं पुण णिज्जुत्तीए उत्तरं भण्णति-पंचहं संयोगे अण्णगुणाणं च चेयणादिगुणो। पंचिंदियठाणाणं ण अण्णमुणियं मुणति अपणो॥३३॥असंख्या ईश्वरकारणिका वैदिका वैशेषिका अनमिगृहीता मिथ्यादृष्टयश्च गृहस्थाः सर्वेऽपि भौतिकं शरीरं वर्णयंति,तेषां पुनर्भूतव्यतिरिक्त आत्मा नास्ति तत् जुत्ता पंचमहद्भूतिया, अय| मन्यो मिथ्यादर्शनविकल्पः, ये तत्र केचिदेकात्मकं जगदिच्छंति, तत्र केषांचिद्विष्णुः कर्ता केषांचिन्महेश्वरः, स हि तत् कृत्वा जगत पुनः संक्षिपति, ते पुर्यनदा परैश्चोते कथमेकात्मकं विलक्षणं च जगदिति?, इति चोदिता वने-जहा य पुढवीभूते(थूभे)सिलोगो ||९|| यथेति येन प्रकारेण पृथिव्येव स्तूपो तत्पुरुषसमासः स एक एव स्तूपो नानात्वेन दृश्यते, तद्यथा-निनोन्नतसरित्समुद्रोद-1 शर्करासितागुहादरिप्रभृतिभिर्विशेविशिष्टोऽपि पृथिवीन्वेन व्यतिरिक्तो दृश्यते, अथवा एको मृत्पिडश्चकारोपितः शिवकस्तूपच्छन्न [39] Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [गाथा १-२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत श्रीसूत्रकवाचूर्णिः सूत्रांक 40 ||१-२७|| दीप अनुक्रम [१-२७] अस्तलघटादिभिर्विशेषरुत्पद्यते, तथा चोक्तं -एक एव हि भूतात्मा, भूते भूते व्यवस्थितः। एकधा बहुधा चैव, दृश्यते जलच- एकात्मचा दिनः न्द्रवत् ॥१॥ एवं भो कसिणे लोग कसिणग्गहणं न बनीश्वरामक किंचिदस्ति, विष्णूरिति विद्वान् विष्णु , नानार्था- 01 न्तरत्वेनेव मनुष्यजाविकृमिपिपीलिकावृक्षगुल्मलतावितानवीरुथादिभिर्विशेषैदृश्यते । एवमेगेत्ति जंपति सिलोगो ॥१०॥ एवम्-अनेन प्रकारेण योऽयमुक्तः 'एगोत्ति एक एव पुरुषः, एके प्रभापंते, मंदा नाम मंदबुद्धयः आरंभे नियतं आश्रिता आरंभनिश्रिताः, तेषामुत्तरं-यदि विष्णुमयं सव्वं तदा एगो किचा सयं पावं यदीश्वरः कर्ता येन यदेकस्य सुखं दुःखं वा तत्सर्वेपामस्तु, एकात्मकत्वे हि सति एकः कृत्वा स्वयं पापं कथमस्य नु वेदको वेदयते?, नान्ये वेदयंत इति, यस्माच य एव पार्ष करोति स एव वेदयति, नान्यः, तत एकात्मकत्वं न भवति, तेन नि णियच्छतित्ति य एव कर्त्ता स एव त्रिः प्रकार कायिकादि कर्म णियच्छति, वेदयतीत्यर्थः, अथवा त्रिभिस्तापयतीति त्रिश्र (तप) किंच तत् ?, कर्म, किंचान्यत्-एकात्मकत्वे हि सति पितृपुत्रारिमित्रता न घटते, अथवा एकत्वे हि खल्वात्मनः न सुखादयः संघटते सर्वगतत्वात् , इह यत्सर्वगतं न तत् सुखादिगुणं यथाकाशं, एवं न बध्यते सर्वगतत्वात् , इह यत्सर्वगतं न तद्वध्यते यथाकाशं, यच्च वध्यते न तत्सर्वगतं यथा देवदचा, एवं न मुच्यते न कर्ता न भोक्ता न संसारीत्यादि, नैकात्मकत्वे सुखी बहुतरोपघातीवा, इह यो बहुतरोपघातो नासौ सुखी यथा सर्वरोगावृत्तो अंगुल्येकदेशेऽरोगः, यश्च सुखी नासौ बहुतरोपघातो यथेष्टविकल्पविषयसंपदुपेतो देवदत्तः, न चासौ मुक्तो बहुतरोपनिबंधनात् , इह यो बहुतरोपनिवन्धनः नासौ मुक्त इति व्यपदिश्यते, न च मुक्तत्वसुखमश्नुते यथा सर्वाङ्गकीलितो विमुक्ताङ्गुल्येकदेशः पुमान् , यश्च मुक्को नासो बहुतरोपनिबन्धनो, न च स्वल्पनिबंधनो यथा कीलितः पुमान् , स्वपर्यन्त ith [40] Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१-२७|| दीप अनुक्रम [१-२७] श्रीसूत्रकृ ताङ्गचूर्णिः ॥ ३७ ॥ 119011 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [१], निर्युक्ति: [ १-३५ ], मूलं [गाथा १-२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र- [ ०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : मात्रशरीरव्यापी जीवः तत्रैव तदुणोपलंभात्, इह यस्य यत्र गुणोपलंभः स तन्मात्रो दृष्टः, यश्च यत्रासन् न तस्य तत्र गुणोपलब्धिः यथाप्रेरभसि, उक्ता एकात्मवादिकाः। इदाणिं तज्जीवतस्सरीरवादी, ते भति-पत्तेयं कसिणे आया० सिलोगो ॥ ११ ॥ पत्तेयं नाम पृथक् पृथक् एकैकं शरीरं प्रति एक एवात्मा भवति, न हि सर्व एकात्मकं, कसिणो णाम शरीरमात्रः, नतु शरीराद् व्यतिरिच्यते, वाला नाम मंदबुद्धयः पंडिता बुद्धिसंपन्ना अथवा पंडिता जे एतं दरिणं पवण्णा तेषां प्रत्येकम् एकैक आत्मा | तेषां तु 'संति पथा ण ते संति' संतीति संत्यात्मानः केवलं तु सरीरं आत्मा भूत्वेह प्रेत्य न ते यांति, श्रेत्य नाम परभवो, कथं १, न हि सत्ता उबवातिका विद्यते, यतचैवं तेण 'णत्थि पुण्णे व पावे वा०सिलोगो ॥ १२शन हि किंचि तपोदानशीलैः अपि आचर्यमाणैः | पुण्यं बध्यते, हिंसाद्यैर्वा पापं णत्थि लोगे इतो परंति न वास्त्यन्यो लोकः यत्र पुण्यपापे उक्तरूपे स्यातां, कस्मात् सरीरस्स विणासेणं विणासो होति देहिणो, स्यादेतत्-यदि पुण्यपापे न भवतः तेनायमीश्वरः अनीश्वरो वा न विद्यते, नन्वेकस्मादेव पाषाणात् रुद्रादिप्रतिमा क्रियते पादप्रक्षालनशिला च न चानयोः पुण्यपापे भूः, एवं स्वभावादेव ईश्वरो भवत्यनीश्वरो वा उक्तं च- "कंटकस्य च तीक्ष्णत्वं मयूरस्य च चित्रता । पर्णानां नीलता स्वच्छा, स्वभावेन भवति हि ॥ १ ॥ तेषामुत्तरं विद्यमानकर्तृकमिदं शरीरं आदिमत्प्रतिनियताकारत्वात् इह यदादिमत् प्रतिनियताकारं च तद्विद्यमानकर्तृकं दृष्टं यथा घटः, यच्च न विद्यमानकर्तृकं न हि तदादिमत् प्रतिनियताकारं च यथाकाशं, यत्कर्तृकं चेदं शरीरं स जीवः, तस्मादन्य इति, आदिमद्विशेषणं जंबूद्वीपादि लोकस्थस्थितिनिषेधार्थं, विद्यमानाधिष्ठातृकानींद्रियाणि करणत्वात् इह यद्यत् करणं तद्विद्यमाणाधिष्ठातृकं दृष्टं यथा दंडादयः कुलालाधिष्ठिताः, यच्चाविद्य मानाधिष्ठातृकं न तत्करणं यथाऽऽकाशं, यश्चैषामधिष्ठाता स जीवस्तेभ्योऽर्थान्तरमिति, विद्यमानादात्कमिदं इंद्रियविषयकदम्बकं [41] तज्जीवतच्छरीरा: ॥ ३७ ॥ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति : [१-३५], मूलं [गाथा १-२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूक्षक सूत्रांक ||१-२७|| दीप अनुक्रम [१-२७] आदानादेयभावात् , ३ह यत्रादानादेयभावस्तन्त्र विद्यमानादातृकत्वं दृष्टं यथा संदंशायःपिंडयोरयस्कारादातृकता, यच्चाविधमाना तज्जीव तच्छरीराः दातृकं न तत्रादानादेयभावः, यथाऽऽकाशे, यश्च विषयाणामिन्द्रियैरादाता स तेभ्योऽर्थान्तरमात्मेति, विद्यमानस्वामिकमिदं शरीरं इंद्रियादिभोग्यत्वात् , इह योग्यं तद्विद्यमानभोक्तृकं दृष्टं यथाऽऽहारवस्त्रादि, यचाविद्यमानभोक्तृकं न तद्भोग्यं यथा खरविषाणं, यथैषां शरीरादीनां भोक्ता स तेभ्योऽर्थान्तरमात्मेति, विद्यमानस्वामिकमिदं इन्द्रियादि संघातत्वात् , यत्संघातात्मकं तत् विद्यमानस्वामिक दृष्टं यथा गृहं, यच्चाविद्यमानस्वामिकं तदसंघातात्मकं यथा खरविषाणं, यश्चैषां शरीरादीनां स्वामी स तेभ्योऽर्थान्तरमात्मेति, यथाऽयं कर्ता अधिष्ठाता दाता भोक्तार्थी चोक्तः शरीरादन्यो जीवः तथा चैवोदाहतं, स्यात्-कुलालादीनां मूर्तिमच संघातानित्यत्वादिदर्शनादात्मनामपि तद्धर्मता सा तैविरुद्धा प्रायः, तच न, संसारिणः खल्वदोपात , संसार्यवस्थायामेवायं साध्यते, Nन मुक्तायस्थायां, अयं चानादिकर्मसंतानोऽपि निबंधनत्वात् द्रव्यपर्यायाथिकनयाभिप्रायाच तद्धर्मापीत्यदोषः, किंच-योऽयं जातिस्मरः सः अविनष्टः, इहार्थतः तदनुभूतानुस्मरणात् , योऽन्यदेशकालानुभूतमर्थमनुस्मरति सोऽविनष्टो दृष्टः यथा बाल्यका लेऽनुभूतानां यज्ञदसा, अथ मन्यसे-जन्मान्तरविनष्टोऽप्यनुस्मरति विज्ञानसंतानावस्थानात् , उच्यते, एवमपि भवान्तरसद्भावः, सर्वशरीरेभ्यश्चाविज्ञातसंतानार्थान्तरता सिद्धा,अविच्छिन्नविज्ञानसंतानात्मकश्चेत्यात्मेति शरीरादर्थान्तरमेव सिद्ध तथा च-विण्णाणंतरपुर्व वालण्णाणमिह णाणभावाओ । जह वालणाणपुर्व जुवणाणं तंच देहहियं ।।१।। पढमो थणाभिलासो पुव्वं आहार मिलसमाणस्स। जह संपदाभिलासोस पुवकालाऽणुभृतीतो ।।२।। सो य मिण्णो सो य देहहितो, उक्ता हि तज्जीवतच्छारीरबादी। इदाणिं । अकारकवादिणो भष्णंति-तेपामयं पक्षः, कुवं च कारवं चेव सिलोगो॥१३॥करोतीति कर्ता,स'स्वतंत्रः कर्ते तिकृत्वा न विद्यते, ॥ ३८ ॥ PARITAASTHAN [42] Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति : [१-३५], मूलं [गाथा १-२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: अकारकास्मषष्ठो प्रत सूत्रांक श्रीत्रक-10 ||१-२७|| दीप अनुक्रम [१-२७] | कारवं चेवत्ति न चैतमन्यः कारयति विष्णुरीश्वरो वा, सम्वं कुवंण विज्जतित्ति सर्व सर्वथा सर्वत्र सर्वकालं चेति, अथवा यदपि वाणिःच किंचित्कगेति तथापि सर्वकर्ता न भवतीतिकृत्वा अकर्ता एव भवति, एवं अकारओ अप्पा, एवम्-अनेन प्रकारेण योऽयम्॥३९॥ तः,एगे णाम सांख्यादयः,जे ते तुवादिणो एवं०सिलोगो।।१४॥जे तेत्ति णिसोतु विसेसणे अकर्तृवादिनो लोक्यत्वात् सम्यक्त्व लोगो ज्ञानसंयमलोको वा, अथवा योऽभिप्रेतलोकः परोऽन्यो वा स तेषां नास्ति, तेन पुनरनभिप्रेतलोकमेव तमातो ते तमं जन्ति तम इति मिथ्यादर्शनं अज्ञान या तस्मात् तमसः तम एव यांति, तमो हि द्वेधा-द्रव्ये भावे च, द्रव्ये नरका तमस्कायः कृष्णराजयक्ष, भावे मिथ्यादर्शनं एफेन्द्रिया वा, मंदा उक्ताः, आरंभे द्रव्ये भावे च, द्रव्ये षट्कायवधः भावे हिंसादिपरिणामात् अशुभसंकप्पा, अथवा मोहेण पाउडा मोहो-अज्ञानं तेन प्रावृताः-समाच्छन्नाः, उक्ता: अकारकवादिनः। इदाणि आयच्छट्टाफलवादी ।।१५।। न संति-विद्यत इति तन्मात्रग्रहणं महताः इतिपृथिव्यादयः,इधचि इह कुपाखंडिलोके,एगेसिति, ण सम्वेसि,आहिता-व्याख्याताः, ते तु अचछट्ठा पुण एगे आहु-पंचमहद्भूतियं मरीरं मरीरी छट्ठो, म च आत्मा लोकश्च शाश्वतः, लोको नाम प्रधानः, सम्यक्त्वं वेति दुहतो तेण विणस्संति सिलोगो॥१६॥ दुहतो णाम उभयतो, आत्मा प्रधानं चाक्षुषमचाक्षुष वा ऐहिकामुष्मिको बालोकः दुहि तेण विणस्संतित्ति 'स एवं आत्मा न जायते न म्रियते कदाचित, नायं भूत्वा भविता न भूयः, अभिज्झो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो, न हन्यते इन्यमाने शरीरे, 'नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः । न चैनं क्लेदयन्त्यापो, न शोषयति मारुतः ॥१॥ अच्छेद्योऽयमभेद्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते । नित्यः सततगः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः॥२॥ न चोत्पद्यते असदिति असत्कार्यपरिग्रहः, मरिपडे हि विद्यते घटः, सव्वेवि मथा भावाः,सब्वे महतादयो विकाराः, नियति म प्रधान, तामागताः,सा कथं फलवती [43] Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [गाथा १-२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत स्कन्धवादिनः सूत्राक ||१-२७|| METAITASARIHARAT RIDIHATIRATHISRAHIR RISHTINAME दीप अनुक्रम भवतीति, यत्करोति न तस्य लभते फलं आत्मा, न फलवति प्रकृतिः, न फलतीत्यर्थः। पंच खंधे वदंतेगे० सिलोगो ॥१७॥ तह खंधा इमे--रूपं वेदना विज्ञानं संज्ञा संस्काराः,रूपणतो रूपं,वेयतीति वेदना,विजानातीति विज्ञानं,संजानातीति संज्ञा, शुभाशुभं कर्म संस्कुर्वन्तीति संस्काराः, ते पुण खणजोइणोक्षणमात्रं युज्जत इति परस्परतः,न चैतेभ्य आत्माऽन्तर्गतो भिन्नो वा विद्यते संवेद्यस्मरणाप्रसंगादित्यादि, तेषामुत्तरं-अपणो अणण्णो णेवाहु, केचिदन्यं शरीरादिच्छंति केचिदनन्य,शाक्यास्तु केचिन्न वाच्यं,तथा स्कन्धमातृका हेतुमात्रमात्मानमिच्छन्ति बीजांकुरवत् , अहेतुकं शून्यवादिकाः हेतुप्रत्ययसामग्री पृथग्भावेष्वसंभवात् , तेन तेनाभिलप्यो हि भावः, सर्वे स्वभावतः लोके यावत्संज्ञासामग्र्यमेव दृश्यते यस्मात्तस्मात् संति भावा:-भावाः संति, नास्ति सामग्री, एवं जगदपि | केचिद्वेतुमत् केचिदहेतुमदिति, अथवा हेतुमदिति विष्णुरीश्वरो वा सो उत्पादहेतुरिति,अहेतुमनाम येषां स्वभावत एव उत्पद्यते, तथा लोकायतिकानां-"क: कंटकानां प्रकरोति तैक्ष्ण्यं० । अन्ये त्रुबते-पुढवी आऊ वाऊय सिलोगो॥१८॥ केचिद् ध्रुवते-चत्तारि घातुणो रूवं, एतेसिं उत्तरं णिज्जुत्तीए पंचमहतवादिणो आरम्भ कर्थ अफलवतित्ति। आगारमावसंतोसिलोगो।।१९।।यथास्वं एतानि दर्शनानि प्रपन्नाः, ते पुनरगारत्ने वा वसंति अरण्ये वा तापसादयः, पयगा नाम वणरत्तादगसोयरियादयो ते सव्वेचि एतं दरिसणमावण्णा सव्वदुक्खा विमुञ्चति, तब्बणियाणं उवासगावि सिझंति आरोपगावि अणागमणधम्मिणो य देवा, ततो चंब णिव्यंति, सांख्यानामपि गृहस्थाः अपवर्गमाप्नुवंति, एयं दरिसणमिति एवं सकदरिसणं वा जाणि य मोक्खादिदरिसणाणि बुत्ताई ताई पवण्णो सव्वदुक्खाण मुच्चइत्ति बुत्तं, तच्च ण भवति, कथं ते दशकुशलात्मके कर्मपक्षे स्थिता न निव्वंति, यमनियमात्मके वा सांख्यादयः, तेपामर्थन एवोत्तरंअनेनेव श्लोकेन-आगारमावसंना तु, आरण्णा वावि पव्वगा। एयं दरिसणमावण्णा, [१-२७] [44] Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति : [१-३५], मूलं [गाथा १-२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक श्रीसूत्रतानचूर्णिः ||१-२७|| दीप अनुक्रम [१-२७] | सव्वदुक्खाण मुंचति ॥१॥ किं चान्यत्-तेणावि संधि नचाणं सिलोगो॥२०॥तणत्ति उपासकानामाख्याज्ञानेन त्रिपिटकज्ञानेन| नियतिवादः ते धर्मचिदूरविद्वांसो भवंति, जायते इति जनाः, ये ते तु वादिगो एवं ये यथाऽऽदिष्टाः एते च यान् वक्ष्यामः, सर्वे न ते ओईतराऽऽहिता, ओहो द्रव्ये भावे च, द्रव्योषः ममुद्रः, भावौषस्तु अष्टप्रकारं कर्म यतः संसारो भवति, न ते तस्य उत्पादका वा आहिता-आख्याताः, संसारे चेव संसरन् मोहमुपचिनोति, तस्याप्यपारकः, ततो गर्भजन्मदुःखमाराणि संसारचकवालंमि. | सिलोगो।।२६।। एवमस्मिन् संसारचकवाले भ्रमन्तवकवद् भ्रममाणा उबावयं णियच्छंता उचाई-उत्कृष्टानि अवयाई-नीचानि | मज्झि याणि दुक्खाई ताई अहिगच्छति, अहवा उच्चावचमनेकप्रकारं, संसारश्चानेकप्रकारः, तं नियच्छता गम्भमेसतर्णतसो गम्भोतिरिक्खजोणियमणुस्सेसु गम्भाओ जम्मं एए मार्गजणा तं गभं एसंति अणंतसोत्ति-अणंतखुत्तो, अथवा उच्चावयमिति नाना| प्रकार कम्मं तं णियच्छता ते दुपया गर्भजन्ममरणानि दुःखान्यनुभवंति, तानि तु न एकशः, अनंतशः, अनादीयं अनवदग्गं दीह मद्धं चाउरन्तसंसारकंतारं अणुपरियति, इति परिसमाप्ती, बेमित्ति भगवंतादेशाद् प्रवीमि, न स्वेच्या इति । समयस्स पढमो | उसो सम्मत्तो।। वितियउद्देसयामिसंबंधो स एव सूत्तकडसुत्तकडअवियोगेऽनुवर्तते स एव च समयपरूवणाधियारो बढ़ए, ते परसमया | यथा स्वं स्वं पक्षं संक्षेपतः प्ररूप्य प्रत्युत्सृष्टाः तदास्तापायाश्च उक्ताः, जहा गम्भमेसतर्णतसोसि, णाणाविधाभिग्गहमिच्छादिट्ठीसु वाणिजमाणेसु अयमवि अभिग्गहितमिच्छादिडिविकप्पो वणिज्जति. तस्स इमे चत्तारि अत्याधिकारा, तंजहा-वितिए णियतिवात अत्याधियारो १ अण्णाणवादी २ णाणवादी ३ मिक्खुसमयाहियारो जेसि चउब्विधं कम्मं चयं ण गच्छति ४त्ति, एतेहिं चउहि अस्य पृष्ठे प्रथम अध्ययनस्य दवितीय उद्देशकस्य आरम्भ: [45] Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [२], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [गाथा २८-५९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: PORN नियतिवादः प्रत सूत्रांक पत्रकचूर्णिः ४२॥ ||२८ ५९॥ संसिया गम्भमेसंतणंतसोचि तदादीणि य दुक्खाणि पावंति, इत्यतस्तं नाश्रयीत, तत्थ ताव णियतीवादसमयपरूवणस्थमिदमपदिश्यते । आघायं पुण एगेसिं० सिलोगो॥२८॥ आघातं णाम आख्यातं, पुनर्विशेषणे, किं विसेसेति ?, पूर्वसमयेभ्यो विशेषयति नियतिवादमपि, इति अस्मिल्लोके समयधिकारे वा एकेषां, न सर्वेषां, उपपन्नास्तासु मतिसु 'पृथक् इति पृथक् पृथक् न त्वेकात्मकत्वं जीवोत्ति वा एगहुँ, वेदयंता गाणाविधेसु ठाणेसु पृथक् णाणाविधाणि सुहृदुक्खाणि अणुभवंति, ते च तेभ्यो नानाविधेभ्यो दुःखस्थानेभ्यश्च लुप्यते अनुभवंत इत्यर्थः, येन च ते दुक्खेन लुप्यते तन्नेयं । णतं सयंकडं दुव०सिलोगो॥२९॥येन नियतिः करोति तेण तापण्ण तं सयंकडं दुक्खं, न पुरुपकारकृतमित्यर्थः, यत् स्वयंकृतं न भवति इत्यतो ण अण्णकडं च णं, अन्येन कृतं अण्णकडं, च पूरणे, अन्यनामापुरुषस्तदुभयकृतमपि न भवति, न वाऽकृतं तत्कथं १, उच्यते-सुहं वा यदिवा दुई अनुग्रहोपघातलक्षणे सुखदुक्खे सेद्धसिद्धिः-निर्वाणमित्यर्थः, इतश्च जीवाश्रया सर्वे नियतीकृताः, न वीर्य पुरुषकारोऽस्ति सर्वमहेनुतः प्रवर्तत इति, एपा णियतिवादिदिट्ठी, अकंमिकाणं च कालवादीणं च दिट्ठीण सयंकडंण अण्णे हिं० सिलोगो॥३०॥णिय तीसभावमेत्तमेवेदं संगयं तहा तेसिं संगतियं णाम सहगतं संयुक्तमित्यर्थः, अथवाऽस्यात्मनः नित्यं संगताणि इति, संगतेरिदं संगतियं भवंति, संगतेयं हितं संगतिकं भवति, तहा तेसिंति जेण जहा भवितव्यं ण तं भवति अण्णहा, इहेति इह लोके नियतिवाददर्शने वा, एगेसिं, ण सब्वेसि, आहितमाख्यातं, न तु नियतिवादियो, एवमेताई जंपंता सिलोगो।।३शाएवमवधारणे, कानि?, एतानि कुदर्शनानि तानि सद्दहंता, नियइवायं अकर्मादि आकर्मिमका अहवा परूवेद निययवाददर्शनं वा पंडिवादिणो वालास्तेषां पंडितवादिणो अपंडिताः पंडितप्रतिज्ञाः, ते हि णियताणियतं संतं जे जहा कडा कम्मा ते तहा चेव णियमेण वेदिअंतित्ति एवं दीप अनुक्रम [२८-५९] MAR [46] Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [२], नियुक्ति: [१-३१], मूलं [गाथा २८-५९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: नियतिवादः प्रत सूत्राक ||२८ ५९|| दीप अनुक्रम [२८-५९] श्रीसूत्रक-15 | नियतं, तंजहा णिरुवकमाय देवणेरतियत्ति, अणियतं सोवकमायुति, एतं णियतावियत संत सद्भतं अयाणमाणा अयुद्धि० अबुद्धिका ताङ्गचूर्णिः मंदमेधस इत्यर्थः, ते अमेधस एवमेतं अयाणता, एवमेगे तु पासत्था सिलोगो॥३२॥ एवमवधारणे, न जाणता अजाणता | ॥४३॥ विप्रगज्झिता ते नैव स्वयं विकल्पितमिथ्यादर्शनामिनिवेशे आसज्ज ताईवा सकर्ममिस्तब्धीभूता लज्जनीयेनापि न लज्जते इत्यर्थः, एवं पुवुट्टिता एवं नाम यद्यप्यभिगृह्य तानि नानाविधानि बालतपांसि स्वे स्वे दर्शने यथोक्तमुपास्थिता गुर्वादिविनययुक्ताः सर्वप्रकारेण यथोक्तज्ञानान्मतितो विसीदति तथाप्यात्मानं न संसाराद्विमोचयंति, उक्तंच-मिथ्याष्टिरवृत्तस्था, स्वात-कथं ते न संसारपारगा भवंति ?, मिथ्यादर्शनेनोपहतत्वात् , दृष्टान्तः, जविणो मिगा जहा. सिलोगो॥३३श।जब एषां विद्यत इति जविनः, केच ते?-मृगा परिगृह्यन्ते, संतग्रहणा णिरुपहतशरीरावस्थाः अक्षीणपराक्रमाः, परितन्यत इति परितानः वागुरेत्यर्थः, तजिजता वारिता, ग्रहता इत्यर्थः, न शक्यमेतत् परितानं-निस्सतु, सा च एगतो वागुराः एकतो हस्त्यश्वपदातियती यथा हि भयतो से नश्यति | एकतः पाशकूटोपगा यथा विभागशः नित्यत्रस्ताः, तत्र ते मृगाः स्वजात्यादिभिः परित्रुट्यमाना मरणभयोद्विग्ना अशंकिताई संकंति, स्यात्-किं शङ्कनीय किं नेति, उच्यते-परिताणियाणि संकेता सिलोगो ॥३४॥ सर्वतः परितनितानि यानि वा तानि पुनः वज्झपोतरज्जुमयानि, तान्यशङ्कनीयाः परिशक्षिताः, त एवं वराकाः अण्णाणभयसंविग्गा अज्ञानभयचा, तत एवं न जानते-यथैमा वागुरा | दुर्लधा न अधः शक्यतेति कर्तुं, ते ततस्ते ज्ञानाभावेन संबिम्गा तहिं तर्हि संपलिन्ति अणुकूडिलेहिं अण्णपासेहि अण्णपासेहि, अथवा एकतः पाशहस्ताः व्याधाः एगतो वागुरा तन्मध्ये संप्रलीयंतो प्रमन्तो इत्यर्थः, यावद्वद्धा मारितावा, स तेपामज्ञानदोपः, ते पुण अवतं पवेज्ज वेझं बंधेज पदपासतो, पदं पासयतीति पदपाश:-कूडः उपको या, पठ्यते च-मुनेज पदपासाओ, बंधघात 11१३॥ [47] Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [२], नियुक्ति: [१-३५], मूलं गाथा २८-५९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: नियतिवाद प्रत सूत्राक ||२८ ५९|| TH | मारणानि, तं च मंदे ण पेहती(ति)स भावमन्दः न प्रेक्षति तं स एवं चराका, अप्पाऽहितपणाणोसिलोगो॥३६॥विसम णाम | कूटैः पाशोपगैः आकीर्ण तं द्वारं तं विसमं समंवा तेण गतः उपागतः से बद्धे पयपासेहिं 'सेति स मृगः वध्यते स वध्यः पदं पाशयतीति पदपाशः स च कूट: उपगो वा, तत्थेति तेहिं पासादिएहि बद्धे, घंतःघातकः घातक एवांतष्पंतः यातनामेव स करोतीति घंतः नियतमधिकं वा घेतं गच्छति नियच्छति । एवं तु समणा एगे सिलोगो॥३७॥एवमवधारणे तुविशेषणे निग्रन्थत्वातिरिक्ता एके न सर्वे, के च ते?, नियतिवादिनः, जे य अण्णे णाणाविधदिहिणो,मिच्छादिवित्ति विपरीतग्राहिणाः अणारियति णाणदंसणचरित्तअणारिया ते असंकणिज्जाई संकेता, गाणदसणचरित्ताई असंकणिज्जाई ताई अन्ये जीवबहुत्वादिभिः पदैर्नात्र शक्यते अहिंसा निष्पादयितुमिति संकंति-ण सद्दहंति, संकिताई कुदंसणाई ताई असंकिणो सहति पत्तियंति, स्यात्कि शंकनीयं कि नेति ? उच्यते-धम्मपण्णवणा जा तु० सिलोगो॥३८यावान् कश्चिन ज्ञेयधर्मः समवेन प्रज्ञाप्यते सा धर्मप्रज्ञापना, अहवा दुविधो धम्मो-सुतधम्मो चरित्तधम्मो य, दसविधो च समणधम्मो आगारमणागारिओ धम्मो, सजेण पण्णविजइस धम्मपण्णवणा एती, सेसं कंठय, वज्झत्ति दुक्खं कजति, अहवा ण सद्दहति, अहया किमेवं ण वत्ति वा संकंति, पृथिव्यादिजीवत्वं शंकितं, मूढा अज्ञानेन-दर्शनमोहेन आरंभाय ण संकंति, दवारंभे भावारंभे य वदंति कुपासंडिणो, तमेव आरंभं बहु मन्नति, अवियत्ता णाम अव्यक्ताः, णारंभादिसु दोसेसु विसेसितबुद्धयः, अकोविता अविपश्चित इत्यर्थः, मिच्छत्तकडदोसेण सन्भूतं णिरगंथं पदयं ण संकेति-ण बुझंति, स्याद् बुद्धिःयथा मृगाः पाशत्रद्धाः प्रचुरतणोदकात् वनवाससुखा व्यवंते एवं मिथ्यादृष्टयः, कुतः च्यवन्ते ?, उच्यते-सबप्पगं विउक्कस्स० | सिलोगो॥३९।। सर्वत्रात्मा यस्य स भवति सर्वात्मकः, अथवा जे भावकसायदोसा तेऽवि सच्चे लोमे संभवंतीति सबप्पगं, उक्तं च दीप अनुक्रम [२८-५९] ॥४४॥ [48] Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [२], नियुक्ति: [१-३५], मूलं गाथा २८-५९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत श्रीसूत्रक FAll अंज सूत्रांक ||२८ ५९|| "लोमो सम्बविणासओ "विविध जात्यादिमिर्मदस्थानरात्मानं उकस्सत्ति, नूमं गहनमित्यर्थः, दवणूमं दुग्गं अप्पगासंवा भावणूम तारुचूर्णिः।। माया, एए तिण्णिवि कसाया, विविधैः प्रकार धुणिय विधुणिय, किंच अप्पत्तियं णाम रुसियव्वं तदपि अप्पत्तियं, अकम्मसे साधी ॥४५॥ अकम्मंसे, एमिः सर्वैविधूणिते अकम्मंसो भवति, न बाऽस्य बालबुद्धिणो अप्पत्तियं-अकर्मत्वं भवति, सिद्धत्वमित्यर्थः, अहवा | अप्पत्तियं कोहो, तेण जइया अकम्मंसे भवति, अंसगहणं तिष्णि २ कसाये सेसे काऊण खवेति, एवं सेमाणिचि कम्माणि खवेत्ता | जीवो अकम्मंसो भवति, तं पुण सम्मईसणचरित्ताओ विणएहि खवेंति, ण मिच्छादसणअन्नाणविरतीहि, एतमढें मिए चुतेत्ति जो मियदि©तो भणितो यथा मृगः पाशं प्रत्यभिसर्पन प्रचुरतृणोदकगोवरात स्वैरप्रचारात् बनसुखाद् भ्रष्टः मृत्युमुखमेति एवं तेवि |णियतिवादिणो जे ते तं(एन)णाभिजाणंति सिलोगो॥४०॥ कंठयो, णियतिवादो गतो। इदाणि अण्णागियवादिदरिसणं-1 | अण्णाणकतो कम्मोवचयोण भवति तत्प्रतिषेधार्थमपदिश्यते-माहणा समणाएगे सिलोगो॥४१॥ माहणा णाम धीयारा,समणा | समणा एव, एगे णाम ण सब्बे, जो अण्णाणियवादी, अहवा अम्हतणए मोतूण ते सब्वेवि अप्पणो सपक्खं पसंसंता भणंति, सब लोगंसि जे पाणा ण ते जाणंति कंचणं अस्मान्मुक्त्वा सर्वलोकेऽपि वादिनः सर्वप्राणभृतो वा येऽस्मदर्शनव्यतिरिक्ता ण ते जाणंति | | संसार मोक्खं वा, ते हि मिच्छादिविणो सद्भावयुख्यापि यथा स्वान २ कुसमयान् प्ररूपर्यतः ते तत्र सद्भाव वदंति, दृष्टान्त:-मिल क्खू अमिलक्खुस्स० सिलोगो॥४२॥ यथा कश्चिन्म्लेच्छयुवा केनचिद् विद्वद्वर्गेणाचार्येण पथि गृहे वाऽपदीष्टः-पुत्र ! कुतः आगम्यते १,ण हेतुं से वियाणातित्ति वचोऽभिहितं दृष्टिमुखप्रसादादिभिराकारः परिशुद्धाकारं ज्ञात्वा किंतु तमेव भाषितं प्रत्यनुभाषते,अथवा पृष्टः किंचितचं पृच्छता सोऽपि तथैवाह, आर्यकुमारको वा पित्राऽपदिष्टः-भण पुत्र! सिद्ध, एष दृष्टान्तः, एवमपणाणिया नाणं दीप अनुक्रम [२८-५९] [49] Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [२], नियुक्ति: [१-३१], मूलं [गाथा २८-५९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रकृ. चूर्णिः सूत्राक ||२८५९|| साना सिलोगो॥४३॥ एवमयधारणे, निश्चयाओं नाम यथा भावोऽवस्थितः तह आत्मादिपदार्थान् दर्शयतोऽप्यन्येषां अचित्रकलाभिज्ञा इत्र अज्ञानिकाः न सद्भावात्तावदिति, तदेवोदाहरणं मिलक्खुब्ध अबोधिए, अबोधिरज्ञानमित्यर्थः, स एवं तेषा-अण्णाणियाण वीमंसा सिलोगो।। ॥४४॥ संशयः संदेहो वितर्कः ओह वीमसेत्यनर्थान्तरं, तेषां हि असर्वज्ञत्वादसौ बीमंसा प्रत्यक्षेष्वपि, न चेत् पृथिव्यादिषु संदिह्यते। किं पुनरात्मादिषु अप्रत्यक्षेषु,तदेवं सा वीमंसा,इह निश्चयज्ञानेन नियच्छति-नयुञ्जते न घटत इत्यर्थः स एवं संदिग्धमतिस्तावदात्मानमपि न शक्नोति प्रत्यययितुं, कुतस्तर्हि परं?, संसारतो वा समुद्धत, एवं ते मिच्छादिट्ठिणो तदुपदिष्टं वा मिच्छादसणं पडिवञ्जति, उदाहरणं-वणे मूढोजहा जंतू सिलोगो ॥४५॥ जहा कोइ महति वणे दिसामुढेण भण्णति-भ्रातः कतरस्यां दिशि पाटलिपुत्रमिति, तेनापदीश्यते-अहं तत्र नयामीति, ततो सो तेण सह पट्ठितो, तौ हि मूढानुगामिनी दुहतोवि अकोविना, दुहतो णाम तावेव द्वौ, अथवा उभयावि ण याणंति कुतो गम्यते आगम्यते वा? किंवागतमवशिष्टं वा?, अकोचिया णाम अयाणगा, तिव्वं सोयं णियच्छंति, तीत्रे नाम अत्यर्थं पर्वताससरित्कंदरावृक्षगुल्मलतादिना गहनं, सर्वति तेनेति श्रोतं भयद्वारमित्यर्थः, नियचमनियत्तं वा गच्छति नियच्छंति, अथवा खंधाबारेण महासत्थवाहेण कोइ अग्गिमदेसओ गहितो, सो य दिसामूढताए अण्णतो णेइ, तत्थ ते मज्झिमपच्छिमा ते जागति, अग्गिमगाण जाणंति पंथमिति, तेऽवि मूढा सुगाया, दुहतो दिसामूढदिटुंतो। इदाणिं अंधदिटुंतो भण्णतिअंधे अंधं पहं णेति सिलोगो ॥४६॥ जहा कोइ अंधो अडाणट्ठाणे च कंचि अंध मतं वा समेत्य नीति-अहं ते अभिरूयितं गामं णगरं वा मिति तेण सह पट्ठितो गच्छति दूरमद्धाणंति,नासौ जाणाति, यत्र वस्तव्यं यातव्यं वा इत्यत्र तस्य तदपरिमाणमेव | अध्यानमित्यतो दूराध्वानं, अवा जओ अंधं तो स एवं पथेणं पस्थितोषिक्षणान्तरं पादस्पर्शन गत्वा उत्पथमापद्यते यत्र विनाशं दीप अनुक्रम [२८-५९] ॥४६ [50] Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [२], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [गाथा २८-५९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत श्रीमत्रकबागचूर्णिः ॥४७॥ सूत्रांक ||२८ प्राप्नुते प्रपातकंटकादिश्वापदादिभ्यः, अथवा यदृच्छया पंथानमेवानुपतति, अथवा अचलएहिं बहुगे हि दिटुंतो-बुग्गाहेतूण अच्च अज्ञानिका लया पब्वयं परीयंचावेऊण अग्गिल्लं पच्छिल्लयस्स लाउं मुत्तो, तेऽवि इच्छितव्यं वयं भूमि वच्चामोत्ति तत्थेव भमंति, स सतं चेव आवजे उप्प, जंतूघुणाक्षरवत् ,एते दिट्ठता दवदिसामूढेण वुत्ता अणिययवृत्ती,तस्समवतार:-एवमेगेणियायहोसिलोगो॥४७॥ | एवमवधारणे, एगे ण सव्वे, भावदिसामूदा भववायसाः, नियतो नाम मोक्षः, नियतो नित्य इत्यर्थः, वयमेव धाराधकाः नान्ये, ते एवंप्रतिज्ञा अपि धम्ममावजेऽपिः संभावने, मूलपाठस्तु अधम्ममावजे, अदुवा णाम स्मरणार्थमेव, अप्येवं अधर्ममापद्यते, | यथा शाक्या आरंभप्रवृत्ताः धर्मायोस्थिता अधर्ममेव आपद्यते, येऽपि च कष्टतपःप्रवृत्ताः आजीविकादयः तेऽपि धर्म अधर्मा| नुवन्धनं प्राप्य पुनरपि गोशालवत्संसाराच भवंति, ण ते सव्वुज्जुर्ग वए, सव्वुज्जुगो णाम संजमो सर्वतो ऋजुः अकुटिलः निरुपधः न कस्यांचिदवस्थायां अकल्पानुज्ञानमलिनो भवतीति, पुनरपि विशेषोपलंभात् स एवार्थः उपसंहियते-एवमेगे वितकाहिं. | सिलोगो॥४८॥ उक्तो हि सिलोगो,उक्तं हि-"पुच्चभपितं तुजं भष्णती तत्थ कारणं अस्थि । पडिसेहमणुष्णाकरणहेउविसेसोवलंभोवा | ॥१॥ अथवा द्वौ दृष्टान्तावृक्ती,उपसंहारावपि द्वावेव,एवमवधारणे,एते इति ये उक्ताः,परं तत्र तीर्थकरा वितर्का मीमांसेत्यनान्तरं, एवं स्वादिति, ते तु नान्यं पर्युपासितवन्तः, अन्ये नाम ये छद्मस्थलोकादुत्तीर्णाः सर्वज्ञाः सर्वदर्शिनः तानुपास्य अपणो य वितकाहिं चशब्दादन्यमतेच,यथा ब्यासः-अमुकेन ऋषिणा एवमुक्तमिति,हासमानयंति, यथा कणादोऽपि महेश्वरं किंचिद् आराध्य तत्प्रसादपूतमनाः वैशेपिकमकरोत् , एतैरात्मवितकः परोपदेशश्च यथाखं अयमसिन्मार्गः ऋजुः, अरिजुना शेषाः प्रदुष्टमतयो दुर्मतयः।। एवं तकाए सार्धेता सिलोगो।। ४९ ।। एवमवधारणे खमतिवितर्कामिः, साधयंतो योजयन्तः कल्पयन्त इत्यर्थः, धर्मों दीप अनुक्रम [२८ [51] Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [२], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [गाथा २८-५९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: चूर्णिः प्रत सूत्रांक ||२८ ॥४८॥ दीप अनुक्रम [२८ बौद्धखंडन नाम यथा द्रव्य पर्यायवस्तुभावावस्थान, विपरीतोऽधर्म इति, अथवा कारणे कार्यवदुपचारं कृत्वापदिश्यते-संसारदुःखकारणमधर्मः, तत्र कोविदा धर्माधर्मकोविदा असंबुद्धा इत्यर्थः, दुःखं णेति दुःख-संसारो तं नातिवर्तते न उत्तरतीत्यर्थः, अथवा कारणे कार्यवदुपचारं कृत्वाऽपदिश्यते संसारदुःखकारणमधर्मः, दिटुंतो सउणिपंजरं, यथा शुककोकिलामदनशलाका द्रव्यपंजरं नातिवर्तते, एवमिमे परतिस्थिया दुक्खविमोक्खकारणं भावपंजरं नातिवर्चते, विउद्देति त्रोटयंति अतिवर्तन्ते वा, त एवं परतंत्राः-सयं सयं पसंसंता० सिलोगो ॥५०॥ खं खं नामात्मीयं २ प्रशंसंतः स्तुवंतः ख्यापयन्तः इदमेवैकं सत्यमिति, नान्यं, न तानि गर्हन्ति, परेषां । | वचनानि प्रकटीकुर्वति,एवं ते परस्परविरुद्धदर्शनाः कुसमयतीर्थकराः मुमुक्षवोऽपि न संसारपंजरमतिवत्तते,येऽप्यन्ये ततोऽश्रितास्तेऽपि, यथा जे उ तत्थ विउस्संति, विसेषेण उस्संति-इदमेवैकं तचमिति विशेषेण उद्घोपयति गव्वेण उस्संतीति, ते संसारतो विउस्संति ।। अण्णाणिया वादी परिसमत्ता ।। इदाणी यत्कर्म चतुर्विधं चयं ण गच्छतित्ति णिज्जुचीए वुत्तं शाक्यानां तत्परूपणार्थमपदिश्यते अथावरं परिक्खाय० सिलोगो ॥५१॥ अथेत्ययं निपातः पूर्वप्रकृतापेक्षस्तेभ्यः समयेभ्यः प्रकृतेभ्यः अथ इदमपरं पूर्षमाख्या उक्खाय, त एवं ब्रवते-गंगावालुकासमा हि बुद्धाः, तैः पूर्वमेवेदमाख्यातं, अथवा पुराख्यातमिति पूर्वेषु मिथ्यादर्शनप्रकृतेष्वाख्यातं, अथवा प्रख्यातं क्रिया कर्मेत्यनर्थान्तरं, कर्मवादिदर्शनमित्यर्थः, धिगतं वीभत्सं वा दर्शनमशोभनमित्यर्थः, कम्मचिन्ता णाम यथा येन यस्य येषु च हेतुषु प्रवर्त्तमानस्य कर्म बध्यते ततो कर्मचिंतात: प्रनष्टः, अथवा अतिकभिीरुत्वात्तैः कश्रिवाः केचि| दिदं अवन्धत्वायापदिष्टास्तत्तेपां कुदर्शनं दुःखखंधविवर्द्धनं कर्मसमूहबर्द्धनमित्यर्थः, तेषां हि अविज्ञानोपचितं ईर्यापथं स्वमांतिकंच कर्म चयं न यातीत्यतस्ते कर्मचिंतापणहा, स्थात्-कथं पुनरुपचीयते ?, उच्यते, यदि सचश्च भवति सत्चसंज्ञा च संचिंत्य जीवितात् ॥४८॥ [52] Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [२], नियुक्ति: [१-३१], मूलं [गाथा २८-५९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: पूतिदोषाः प्रत सूत्रांक श्रीमत्रकतागचूर्णिः ॥४९॥ ||२८ दीप अनुक्रम [२८ व्यपरोपणं प्राणातिपातः, अत्र भङ्गायत्वारः जीवो जीवसष्णा य, प्रथमे भङ्गे बंधः,त्रिष्वबन्धः, अथवा सपश्च भवति १ सवसंत्रा वार| संचित्य संचित्य जीविताद् व्यपरोपणं४, चतुसु पदेसु सोलस भंगा, पढमे बंधो सेसेसु अबंधो, अथवा जाणं कारणऽणाउर्टि सिलोगो॥५२॥ जानानः सचं यदि कायेण णाउट्टति, काउट्टणं नाम जिघांसिका उत्थाणं हत्थपदादिव्यापारो, स एवमणाउमाणो जइवि हिंसति तहावि अबंधगो, अबुहो जंच हिंसतित्ति माता प्रसुप्ता पुत्र मारयति, स्तनेन मुखमावृत्यान्यतरेण वा गात्रेण, अथवा स एव अबुहोवालको यदा पिपीलिकादीन् सचान् घातयति, मातापितरौ किंचिदवचनं ब्रवीति, न चास्य कम्मोपचयो भवति, यद्यपि च कश्चिद्भवति स तद्यथाऽस्माकमीर्यापथं तथा पुट्ठो वेदेति, परं पुट्ठो णाम स्पृष्टमात्र एव तं कर्म वेदति, मुंचतीत्यर्थः, अव्यक्तं | नाम यक्ष्म तंतुबंधनवत् शीघ्रमेव छिद्यते, सह अवयेन सावा, अथवा जानंतित्ति षडमिज्ञस्य बुद्धस्य हिंसतोऽपि यत् बध्यते, कारण ण आउट्टतित्ति स्वमान्ते घातयन्नपि सर्च न कायेन आउद्दति, न समारभते इत्यर्थः, अहो नाम अल्पबुद्धीन्द्रियो बाला, सो हिंसादिकर्मसु वर्तमानोऽपि अबंधक एव, अथवा अवुद्धी बाल: अज्ञश्च पथि वर्त्तते, न च पथ्युपयुक्तः, असावपि अबुध्यमानो यानि सचानि व्यापादयति, नानयोः पापोचयो भवति, पुट्ठो वेदेति परं, एतानि चउरो वर्जयित्वा योऽन्यः स स्पृष्टः कर्मणा भवति, वध्येत इत्यर्थः, णियमा वेदयति, चतुर्यो चन्धहेतुभ्यः परत इत्यर्थः, तश्याव्यक्तं सावा, अमूर्तमित्यर्थः, अथवा व्यक्तं तेषां त्रिकोटीशुद्धं मांसमपि भक्ष्यं अन्यथा त्वभक्ष्यमित्यतो व्यक्तं स्यात् , कथं पापं बध्यते ?, उच्यते-संतिमे तयो आदाणा०सिलोगो ।।५३।। संतीति विद्यते, आदानं प्रसूतिराश्रयो वा यैः क्रियते पाप कर्म, तं च अभिकम्माय पेसाया, अभिमुखं क्रम्य अभिक्रम्य स्वयं घातयत्वेत्यर्थः, प्रेष्यनाम अन्य कारयित्वा, हतं हन्यमानं वा मनसाऽनुजानंति । एते तुततो आदाना सिलोगो ॥५४॥ ॥१९॥ [53] Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥२८ ५९|| दीप अनुक्रम [ २८ ५९] श्रीसूत्रकृ ताङ्गचूर्णिः ॥ ५० ॥ Lesi “सूत्रकृत” - अंगसूत्र- २ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [२], निर्युक्ति: [ १-३५ ], मूलं [गाथा २८-५९ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: कंठ, एवं भावणासुदीए, भावयंति तां भाव्यते वाऽनयेति भावना, शुद्धिर्नाम नात्र विचिकित्सामुत्पादयंति, किंच एवं तस्य भावनाशुद्धात्मनः त्रिकोटी शुद्ध भोजिनः यद्यपि कश्चित् पुत्तं पिता समारम्भ० सिलोगो ॥५५॥ अपि पदार्थ संभवने हि, उक्तं हि प्राणिनः प्रियतराः पुत्राः, तेन पुत्रमपि तावत्समारभ्य, समारंभो नाम विक्रीयायामारब्धत्वात्, मांसेन वा द्रव्येण या, किमंगं णरपुत्रं शूकरं वा छगलं वा ? आहारार्थं कुर्याद्भक्तं भिक्खूणं, असंजतो णाम भिक्खुण्यतिरिक्तः, स पुनरुपासकोडन्यो वा, तं च भिक्षुः त्रिकोटिशुद्धं भुंजानो यो मेधावी कम्मुणा णोवलिप्पति, तत्रोदाहरणं-उपासिकायाः भिक्षुः पाहुणओ गतो, ताए लाबगो मारेऊण उबक्खडिता तस्स दिष्णो, घरसामिपुच्छा अहो णिक्खिणि (किव) ति, ताहे तेण भिक्खुणा कृतकच कृतः, मा, कप्परेण हस्ताभ्यां गृहीत्वा स्वेदय इमे गारानिति त्वमेव दासे, नाहं, एवं मत्कृते घातक एव वध्यते, नाहं, एषामुत्तरं मणसा जे पउस्संति० सिलोगो ॥ ५६ ॥ पूर्वं हि सम्वेषु निर्घृणतोत्पद्यते पश्चादपदिश्यते यः परः जीववहं करोति न तत्र दोषोऽस्तीति, ते हि पुण्यकामकाः मातुरपि स्तनं छिच्चा तेभ्यो ददति, अप्रदुष्टा अपि मनसा दुष्टाः एव मन्तव्याः, य उद्देशककृतं भुंजते, एवं ते संघभक्तादिषु, मत्स्यायितेषु च मूर्च्छितानां ग्रामादिव्यापारेषु च नित्याभिनिविष्टानां कुशलचित्तं न विद्यते, अशोभनं चित्तं व्याकुलं वा, तदचित्तमेव यथा अशीलवति, लोकेऽपि दृष्टं व्याकुलचित्ताणं भवति अविचित्तत्तं, एवं तेषां सावद्ययोगेषु वर्त्तमानानां अणवजं- अनयं (हं) तेसिं न, न त्यतीत्य नहं नास्तीत्यर्थः, का तर्हि भावना ?, न तेषामनवद्ययोगोऽस्ति, नित्यमेव हि ते असंवुडचारिणो बंधहेतुषु वर्त्तते, असंवृतत्वात्, ते हि तत्प्रदोषनिहृवमात्सर्यादिष्वाश्रवद्वारेषु यथास्वं वर्तमानाः तदनुरूपमेव च यथापरिणामं कम्मं चंधंति, दन्यसंबुडा पावसियालचौरादयः, भावसंबुडा साधवः संवृतचारिणो नाम संवृतः संयमोपक्रमः, तच्चरणशीलः संवृतचारी । इच्चेताहि दिट्ठीहिं० सिलोगो ||१७|| इति [54] पूतिदोषाः ॥ ५० ॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [२], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [गाथा २८-५९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: श्रीस्त्रक पूर्तिदोषाः ताङ्गचूर्णिः प्रत सूत्रांक ||२८५९|| ॥५१॥ CRI A दीप अनुक्रम [२८ उपप्रदर्शने, एताहिति इहाध्याये या अपदिष्टा नियतिकाद्याः, सातागारवो नाम शरीरसुखं तत्र निःसृताः, अझोपवण्णा इत्यर्थः, | हियति मण्णमाणो-एवमस्माकं हितं भविष्यतीति सुखानि एव-अहितमेव सेवते, अथवा अस्मिन्नर्थेऽयं दृष्टान्तः-जहा आसाविणिं | णावं सिलोगो ।।५८|| आश्रवतीत्याश्रविणी अकतकट्टा पुषणकोट्ठा वा, जात्यन्धग्रहणं नासौ नावो मुखं पृष्ठं वा जानाति, यो | वा अबकपत्रादेरुपकरणस्य यथोपयोगः, स एवमिच्छन्नपि पारं समुद्रपारं वा, अंतरा विषीदति, सब च एव हिवते, निमज्जते वा, सोहणिछिद्दपि ण सकेइ वजिउं तेषु, किमंग पुण सयछिदं, एस दितो, उपसंहारो एसो-एवं तु समणा एगे सिलोगो॥५९|| | एवम्-अनेन प्रकारेण, तुर्विशेषणे, अस्मान मुक्या मिच्छादिट्ठी अणारिया णाम चरिताणारिया अणारियाणि वा कम्माणि कुर्वति ते | संसारपारमिच्छति संसारे च अणुपरियति,अविणाम सो जातिअंधो देवतापभावेण वा अण्णेण वा केइ उत्तारिज्जेज,ण य मिच्छादिट्ठी संसारादुत्तरंति । बितिओ उद्देसिओ सम्मत्ती १-२॥ समयाधिकारोऽनुवर्तत एव,तत्र प्रथमे द्वितीये च कुदृष्टिदोषा अभिहिताः, तृतीये तेषामेवाचारदोषा अभिधीयते, अथ द्वितीयावसाने सूत्रं-'पुत्तं पिता समारम्भ आहारदुमसंजते' आचारदोप उक्तः, इहापि स एयाचारदोषोऽभिधीयते,दृष्टिदोषाश्च तेषामेव तेरासिगवत्वं च भणिहित्ति,इत्यतोऽपदिश्यते-जंकिंचि उ पूतीकडं सिलोगो॥३०॥ यदिति अणिदिहिस्स णिदेसो, किंचिदिति यदाहारिमं उवधिजातं वा, पूतिग्रहणादाधाकापि गृहीतं, आधार्मिक एव हि पूर्ति, | यदपि च तदवयवोऽपि, न वर्तते कथं तर्हि आधाकर्म ?, तद्ग्रहणाच सर्वा अविशोधिकोटि गृहीता 'एगग्रहणे गहणंतिकाउंतजाति| याण सब्वेसिं' तिणि विसोहिकोटीवि गहिता, श्रद्धा अस्यास्तीति श्राद्धी, आगच्छंतीत्यागंतुकाः, तैः श्राद्धैरागंतुकाननुप्रेक्ष्यप्रतीत्य उपक्खडियं, अथवा सहिति जे एगतो वसंति ते उद्दिश्य कृतं, तत् पूर्वपश्चिमानां आगंतुकोऽपि यदि सहस्संतरकडं भुंजे, MIMARATHI nimated ॥५१॥ | अस्य पृष्ठे प्रथम अध्ययनस्य तृतीय उद्देशकस्य आरम्भः 155] Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [3], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [गाथा ६०-७५] (०२) प्रतिदोषाः श्रीमत्रतागचूर्णिः ॥५२॥ प्रत सूत्रांक PARTI ||६० ७५|| d inem दुपक्खं णाम पक्षौ द्वौ सेवते, तद्यथा-गृहित्वं प्रव्रज्यां च, अम्हंतणमोवि जो असुद्धं भुंजति सोवि दुपक्खं सेवति, कथं ?, दब्बो लिंग भात्रओ असंजतो, एवं ते प्रत्रजिता अपि भूत्वा आधाकादिभोजने गृहस्था एव संपद्यते। तमेव अविजाणतोसिलोगो ॥६॥ तमिति णिद्देशे, यथोद्दिष्ट मेव तदर्थं, एवमनेन प्रकारेणा मूलगुणे उत्तरगुणे तदुपघातं च अयाणता, अविशुद्धभोगदोसेग जहा 'आहाकम्मण्णा भंते ! भुजमाणे किं पकरेति किं चिणाति०, विसमा णाम बंधमोक्खा कम्मबंधोवि विसमो, एकेक कंममणेगपगारं अणेगेहिं च पगारेहिं बज्झते अतो विसमंति, अकोविका असंबुद्धा इत्यर्थः, ते अयाणगा प्रत्युत्पन्नगृद्धाः अनागतदोषदार्शनात् आधाकादिमिदोपैः कर्मबद्धा संसारे दुःखमाप्नुवंति,मच्छा वेसालिया चेव विशालः समुद्रः विशाले भवाः वैशालिका:बृहत्प्रमाणाः अथवा विशालकाः वैशालिकाः, पठ्यते च 'मच्छे वेयालिए चेव' वैताली कूलमिष्यते, लोके सिद्धमेव तदभिधानं, यथा पूर्वा वैताली दक्षिणाऽपरोरेति सामुद्रकूलोद्भवो, स वैशालिको वैतालीकूलो वा मत्स्यः सामुद्रकैर्वा विप्रहारैर्मत्स्यैश्वान्यैर्वृहद्भिनं चाध्यते स कथंचि देवतातो निरुपसर्गानिष्कंटकात्समुद्रवेलया निसृष्टकायः यतो, रूढ इव पुमान् परप्रयोगेन अनूद्यमानः सुदूरमन पहृताः उदगस्स अभिआगमेत्ति उदगस्य अभ्यागमो नाम समुद्रान्निस्सरणं, केचित्तु पुनः प्रवेशः, स एवं शरीरसुखाय अज्ञानात् , सूत्रापायात् । उदगस्सप्पभावेन सिलोगो।। ६२ ।। अप्पभावो नाम उदगस्स अल्पभावः, प्रत्यावृत्ते उदगे शुष्का एव वालुका संवृत्ताः पंको वा, अथवा अप्पस्वभावः अप्पभाव, स्तोक इत्यर्थः, स च महाकायत्वात् न तत्र शक्नोति, न परिवर्त्तमानो वा नदीमुखे लग्यते, एवं अप्पकाओ विघातयती घनघातेन वा, घातं करोतीति घंतः, अकर्म च कर्मकतेतिकृत्वाऽपदिश्यते-खयमेव असौ घातार | एति प्रामोतीत्यर्थः, अथवा घेतो णाम मच्चू तं मच्चुमेति, कैः?, उच्यते-ढंकेहि य कंकेहि य०सिलोगो ॥६२॥ पच्छदं, एते चान्ये | दीप अनुक्रम [६०७५] [56] Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [३], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [गाथा ६०-७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक ||६०७५|| दीप अनुक्रम [६०७५] आमिषाशिनः शृगालिपक्षिमनुष्यमार्जारादयः कप्पति तत्रैव यदृच्छयावि, केचित्पुनः वीचीमासाय बर्द्धमाने चोदके समुद्रमेव कर्तृवादश्रीसूत्रक निरासः ताङ्गचूर्णिः | विशंति, दुहिति तैस्तीक्ष्णतुण्डैः पिशिताशिमिरस्यमानास्तीव दुःखमनुभवंतो अह(इ)दुहसहा मरंति, एस दिट्ठतो, एवं तु समणा ॥५३॥ एगे० सिलोगो॥३३॥ एवमनेन प्रकारेण वर्तमानमेव जिहासुखमिच्छंति, अण्णउत्थिया पासत्थादयो वा एगे, समुद्रमुत्तरितुं, अवि सुद्धाणि आहारादीणि गवेसंतो जहा मच्छा एगभवियं मरणं पाति एवमणेगाणि जाइतब्बमरितवाणि पावंति, एवं पासत्थादयोधि जोएयब्वा, इपणमणं तु अपणाणं० सिलोगो।।६४॥ इदमिति जं भणिहामि जहा लोको उप्पजति विणस्सति य, इहेति इहलोगे, एगेसिं, ण मञ्चेसि, अथवा एगे थाम न ज्ञानमहा, एतं कहं ?, देवउत्ते अयं लोगे०सिलोगो॥६५॥ केइ भणति-देवेहि अयं लोगो ANकओ, उप्पइति वीजवत् बपितः आदिसर्गे पश्चादकुरवत् निसर्पमानः क्रमशो विस्तरं गतः, देवगुत्तो देवः पालित इत्यर्थः, देवपुचो मावावर्जनित इत्यर्थः, एवं बंभउत्तेवि तिण्णि विकापा माणितब्बा, बंभउत्तः बंभपुत् इति वा । इस्सरेण कते लोगे• सिलोगो ॥६६।। ईश ऐश्वर्ये, ईश्वरः प्रभुः, स महेश्वरोऽन्यो वाऽभिप्रेतः, तथा प्रधानादन्य इच्छंति, प्रधानमव्यक्त इत्यर्थः, जीवाश्राजीवाश्थ जीवाजीवास्तैः जीवाजीः संयुक्तः, सुखं च दुक्खं च सुखदुक्खे स एकीभावेन अन्धितः सुखदुःखसमन्वितः, अनुगत इत्यर्थः, तथाऽन्ये इच्छंति सयंभुणा कते लोगे सिलोगो॥६७।। स्वयं भवतीति स्वयंभूः, स तु विष्णुरीश्वरो वा ब्रह्मा वा इति, वुत्तंति, इतितिइतिरिति उपप्रदर्शनार्थः, उक्तं कथितमित्यर्थः, महऋषिनाम स एव ब्रह्मा अथवा व्यासादयो महर्षयः, यो वा यस्याभिप्रेतः सतं ब्रवीति महर्षिमिति,एवं यो यस्याभिप्रेतः स स तं तं लोककर्तारमिति । केचित्पुनस्त्रयाणामपि साधारणं कर्तृकत्वमिच्छंति, तद्यथा'एका मूर्तिस्विधा जाता, ब्रह्मा विष्णु०,कारणिका अवते-विष्णुः खर्लोकादेकांशेनावतीर्य इमान् लोकानसृजत् स एव मारयतीतिकृत्वा । [37] Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||६० ७५|| दीप अनुक्रम [६० ७५] श्रीसूत्रक ताङ्गचूर्णिः ॥ ५४ ॥ “सूत्रकृत” - अंगसूत्र- २ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [३], निर्युक्ति: [ १-३५ ], मूलं [गाथा ६०-७५ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र- [ ०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : मारोपदिश्यते, ततस्तेन मारेण मारणे संसृना माया, एके ब्रुवते यदा विष्णुणा सृष्टा लोका तदा अजरामरणत्वात् तैः सर्वा एवेयं मही निरंतरमाकीर्णा, पश्चादसावतीवतरां क्रान्ता मही प्रजापतिः (म्) उपस्थिता, नागार्जुनीयास्तु पठंति अनिविट्टिय जीवाणं मही वृष्णयते पभुं' ततो से मायांसजुत्तकारलोगस्स भीत्वा ततस्तेन परिभीय स्वयं मह्या विज्ञप्तेन या भूल्लोकाः सर्व एव प्रलयं यास्यतीति भूमेरभावात्, तां च भयविहुलांगीं अणुकंपता व्याधिपुरस्सरो मृत्युः सृष्टः, ततस्ते धर्म्मभूयिष्ठाः प्रकृत्याः जीवयुक्ताः मनुष्याः सर्व एव देवेषूपपद्यते सम, ततः स्वर्गेऽपि अतिगुरुतरो क्रान्तः प्रजापतिमुपतस्थौ, ततस्तेन मारेण संस्तुता माया, मारो णाम मृत्युः, संस्तवो नाम सांगत्यं, उक्तं हि मातृपुव्यसंघवः, मृत्युसहगता इत्यर्थः, ततस्तेन मायाबहुला मनुष्याः केचिदेके मृत्युधर्ममनुभूय नरकादिषु यथाक्रमंते - उपपद्यते स्म उक्तं च- 'जानतः सर्वशास्त्राणि, छिन्दतः सर्वसंशयान् । न ते ह्यपकरिष्यति, गच्छ स्वर्ग न ते भयं ॥ १ ॥ " येन वा मारेण संस्तुता माया वितिया तेण लोए असासते । अत्र माहणा समणा एगे सिलोगो ॥ ६८ ॥ माणा धियारा, समणा सांख्यादयः, एगे, ण सव्वे, अंडात् कृतं ब्रह्मा किलाण्डमसृजत्, ततो भिद्यमानात् शकुनवल्लोकाः प्रादुर्भूताः, एवमेते सर्वेऽपि लोकोप्तवादवादिनः स्वं स्वं पक्षं प्रशंसंतो ब्रुवते - असौ तत्तमकासी य, अयाणंता मुखं वदे, असाविति असावेकः योऽसादभिप्रेतः विष्णुरीश्वरो वा, तस्वं नाम असावेव, नान्यो, लोकमकार्षीत्, शेपास्तु लोको प्तवाद मजाणतो मुसं वदे, अथवा वयं ब्रूमः ते बराका लोकखभावं अयाणंता मुसं बदे, कथं ?, जं ते वदंति देवा मणुस्सा तिरिक्खा णारगा सुहिता दुक्खिता राजा युवराजादि सुट्टाणि वा विग्गहाणि वा सुभिक्खाणि वा दुभिक्खाणि वा सव्यमेतत् विष्णुकृतं, ये वाऽन्ये ते सर्व अपागंता मुखं वदे, किंच-जं ते सरण परियारण, लोयं ब्रूया कडे सिलोगो ||३९|| विधिः खपर्यायो नाम आत्माभिप्रायः अप्पणिओ गमकः, य एवं स्वेन [58] G कर्तृवादनिरासः ॥ ५४ ॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [३], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [गाथा ६०-७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत कर्तृवादनिरास: सूत्रांक श्रीसूत्रक- तागचूर्णिः ॥५५॥ ॥६० ७५|| दीप अनुक्रम [६० पर्यायेन ब्रुवते लोगस्स कह विधी, विधिविधान प्रकार इत्यर्थः, तेषामुत्तरं-तत्तं ते णवि जाणंति, तस्य भावस्तच लोकमद्भाव इत्यर्थः, यथा उत्पद्यते पलीयते च स्वकर्मभिः तचं न जाणंतीति, उक्तं हि-अणंता जीवघणा उप्पञ्जित्ता णिलिअंति, एवं परित्ताचि इत्यर्थः, कर्मभिरुत्पद्यमानः प्रलीयमानश्च, संततीः प्राप्य नायं नासीत् कदाचिदपि, नित्यः दबट्ठयार सासओ, पज्जबडयाए असासओ, अथवा सव्व एवायं उत्तरसिलोगो, तेषां कडवादीनां विप्रसृतानि निशम्य सएण परियारण चूया लोककड़े विहिंति अप्पणियाएणं परियाओ णाम वीतरागागमवक्तव्यता, वूया लोए कडे वा णवित्ति, ते उ सब्वे कुवादिणो, तत्तं ते णवि जाणंति-णायं णासि कयाइवि, तवं यथा भगवद्भिरुपदिष्टं ?, किमुपदिष्टं, किमिदं भंते ! लोकेत्ति पवुचति ?, पंच अधिकाया, तत्थ दव्यओ णं लोगेण कयाइ णासि | जाव णिचे' एवं ३ भावओ जे जहा भावा-पजवा उप्पञ्जति विणस्संति च ते पडुच्च अणियो, पठ्यते च-लोकं बूया कडेति च, चशब्दा| दकडेत्ति था, नित्य इत्यर्थः, भावं पडुच्च कडे, किं चान्यत्-ते ह्यसर्वज्ञा नैवं दुक्खं जाणंति ण च दुकाबुप्पायं नैव तंनिरोध, कथं | तहिं लोकोत्पादं ज्ञास्यंति?, कथं-अमनुषणसमुप्पायं सिलोगो ॥७०।। अमणुण्णो णाम असंजमो, न हि कस्यवि संजमत्वं परिपामिन्यात्मनि क्रियमाणमिष्टं इत्यतः असौ दुष्टासीविषवत् सर्वस्यैवावमन्यः असंजमा, तेषां च यत्पूर्व नासीत् पश्चाद् ज्ञानं तत्सर्व दुक्खं, जंपि किंचि सुखसण्णितं तंपि दुक्खमेव, चंकमितं दुक्खं पवट्टति आसितं सयं दुक्खं दुधावि वातगत्तणंपि दुक्खं एत्रमादीणि, पुव्वं णासी पश्चाजायंत इति दुक्खानि, तानि चेश्वरकृतानि नामाभिरिति, त एवं तस्स दुःखस्स समुत्पादमयाणंता किह गाहिति तं वराका, तर्हि भावना-तद्विधैरात्मा, नैव पूर्व कृतं, पश्चाद् द्वैतं, ततः तेष्वपि एक, तद्यथा नाम कृष्यादीनि कर्माणि स्वयं कृत्वा | नत्फलमुप जाना यते यदस्मत्सु किंचित् कर्म विपच्यते तत्सर्वमीश्वरकृतमिति, एवं तस्स दुक्खस्स समुत्पादमयाणंना कह ॥५५ [59] Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [३], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [गाथा ६०-७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत श्रीसूत्रक- ताङ्गचूर्णिः सूत्रांक ||६०७५|| AN दीप अनुक्रम [६०७५] मणिपुणा संसारगता यासर्व ज्ञास्यति ?, संसारदुक्खणीस्मरणोवायं च कहं णाहिन्ति संवर, भणिया कडवादिणो, तेरासिइया इदाणि, त्रैराशिकार तेवि कडवादिणो चेत्र, तेरासिया णाम जेसि ताई एकवीससुताई तेरासियासुत्तपरिवाडीए, ते भणंति-सुद्धे अपावए आया० | सिलोगो॥७१।। तेषां हि यथोक्तधर्मविशेषेण घटमानोऽयमात्मा इह सुद्धाचारो भूत्वा मोक्खो, अप्पा एको भवति, अकर्मा इत्यर्थः, 'इहे'ति इह लोके मिथ्यादर्शनसमूहे वा स-मोक्षप्राप्तोऽपि भूत्वा कीलावणप्पदोसेण रजसा अवतरति, तस्य हि स्वशासनं पूज्यमानं दृष्ट्वा अन्यशासनान्यपूज्यमानानि च क्रीडा भवति, मानसः प्रमोद इत्यर्थः, अपूज्यमाने वा प्रदोपः, ततोऽपि सूक्ष्मे रागे द्वेषे वाऽनुगतान्तरात्मा शनैः शनैः निर्मलपट इस उपमुंजमानः कृष्णाणि कर्माणि पयुज्य स गौरवात्तेन रजसाऽवतार्यते, ततः पुनरपि इह संवुडो (इह संबुडे मुणी जाया) भवित्ताणं सुद्धे सिद्धी' चिट्ठति इहेति इह आगत्य मानुष्ये च यः प्राप्य प्रव्रज्यामभ्युपेत्य संवृतात्मा भूत्वा, जानको नाम जानक एव आत्मा, न तस्य तज्ज्ञानं प्रतिपतति, यतश्चैतत् शासनं ज्वलति, तत एवं प्रज्वाल्य किंचि|त्कालं संसारे च स्थित्वा प्रेत्य पुनरपापको भवति, मुक्त इत्यर्थः, एवं पुनरनन्तेनानन्तेन कालेन स्वशासनं पूज्यमानं वा अपूज्यमान | वा दृष्ट्वा तत्थ से अवरज्झति-अवराधो णाम गगं दोसं वा, ततः सापराधत्वात् चोरवत् रागद्वेषोत्थैः कर्मभिर्वध्यते, ततः कर्म । | गुरुत्वात् पुनरवतार्यते, तेनैव क्रमेण शासनं प्रज्वाल्य निर्वाति च, उक्तंच-दग्धनः पुनरुपैति भवं प्रमथ्य, निर्वाणमप्यनवधारितभीरुनिष्ठम् । मुक्तः स्वयं कृतभवश्व परार्थशूरस्वच्छासनप्रतिहतेविह मोहराज्यं ॥१शा यतथैवं-एतानुबीयि मेधावीसिलोगो ! ||७२।। एवं त्रैराशिकमते चान्ये प्रागुक्ताः कुवादिनः तैश्च गच्छति स्वच्छंदबुद्धिविकल्पैः पूर्वापराधिष्ठितः मती, न तु चित्य, ज्ञात्वेत्यर्थः, नैते निर्वाणायेति, द्रव्यब्रह्मचेरं 'न तं वसे' बसेति पतं रोएज्जा आयरेखा वा, ण.वा तेहिं समं बसेमा, संसम्गि वा कुर्यात् [60] Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [३], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [गाथा ६०-७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: कृत्योप प्रत गत्वं सूत्रांक ||६० ७५|| दीप अनुक्रम [६०७५] श्रीसूत्रक ते होहिंति, मा भूत् सेहमति, बुग्गाहेजा उक्तं हि-"शंका कांक्षा जुगुप्सा च०" सब्वेवि एते पुढो पावादिया सव्वे अक्खातारो सयं, पुढो वाचूर्णिः । णाम पृथक्, यथामति विकल्पशो वा स्व स्वमिति स्वं स्वं सिद्धान्तं प्रशंसंति परसिद्धान्तं च निन्दंति सए सए उवहाणे०सिलोगो ॥५७॥ | 11७३।। स्वे स्वे आत्मीये उपतिष्ठंति तस्मिन्निति उपस्थान, सिद्धिरिति निर्वाणं, एवमवधारणे, नान्यथेति नान्येन प्रकारेण, मुच्यन्ते सर्वा, अन्येषां तु स्वाख्यातं चरणधर्मावशेषादिहैवाष्टगुणैश्वर्यप्राप्तो भवति, तद्यथा-अणिमानं लघिमानमित्यादि, अहवा अबोधि | होति च वसति, अबोहिनाम अबोधिज्ञानः, वशवर्ती नाम वशे तस्येन्द्रियाणि वर्तते नासाविन्द्रियवशकः, सधकामसमप्पियो णाम | सर्वे कामाः समर्पिताः तस्य यथेच्छातः उपनमंते इत्यर्थः, तस्य सर्वकामा अपिताः, सर्वकामानां वा समपितः।। सिद्रा य ते | अरोगा य' सिलोगो॥७४।। ते हि रिद्धिमंतः शरीरिणोऽपि भूत्वा सिद्धा एव भवंति, निरोगाथ, नीरोगा णाम यातादिरोगरागंतुकैश्च न पीब्यन्ते, ततः स्वेच्छातः शरीराणि हित्वा निर्वाति, एवं 'सिद्धिमेव पुरो काउं सएहिं गढिता गरा' सिद्धिं पुरस्कृत त्यैते सिद्धा एव वयं, अनेन वाऽऽचारेण सिद्धिं यास्यामः पूजापुरस्कारकारणात् , हिंसादिषु गढिता णाम मूडिताः, संसक्तभावात्, तत एवं 'सिद्धाः' सिद्धवादिनः ये वान्ये आथवगडिता वादिनः ते "असंबुडासिलोगो"||७५।। अणादीयं भमिहिंति पुणो पुणो, एतत्कंठर्थ, कप्पकालुवयऑति ठाणा असुरकिविसा' कल्पपरिमाणः कालः कप्पकाल: कप्प एव वा कालः तिष्ठत्यस्मिन्निति स्थानं, आसुरेषूपपद्यन्ते किल्विपिकेषु च, ततो उवढा अणंतं कालं हिंडंति संसारे । इच्चेते कुसमये घुज्झेज तिउद्देज ।। ततिओ उद्देसोसम्मत्तो१-३॥ उद्देसामिसंबंधो 'किच्चुत्रमा य चउत्थे णिज्जुत्तीए उत्तं, किचेहि-कृत्यैरुपमीयते इत्यतः कृत्युपमा, | सूत्रस्य सत्रेण सह संबंधने मोक्षार्थमुपस्थितः आत्मनोऽपि ताव- सरणं नो भवति जेण- कप्पकालुववशता, किमंग पुनरन्येषां ?, Sha अस्य पृष्ठे प्रथम अध्ययनस्य चतुर्थ उद्देशकस्य आरम्भ: [61] Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [४], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [गाथा ७६-८८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: श्रीवकतामणि प्रत सूत्रांक कृत्योप गत्वं ॥५८॥ ||७६ दीप अनुक्रम इत्यतोऽपदिश्यते 'एते जिता भो सरणं' सिलोगो ।। ७६ ॥ एते' इति य उद्दिष्टाः, श्रयंति तमिति शरणं, 'भो'! इति शिष्यामंत्रणं, जिता नाम विषयकपायैस्ते जिता, न भवंति शरणाय, दुर्बला इत्यर्थः, अथवा एते भो असरणं, परीपहजितत्वात् , अत्तणो य परेसिं च, स्यात्-कथं अशरणाय भवंति ?, उच्यते, येन 'बाला पंडियमाणिणो, अथवा पयणपयावणादिआरंभविहारधणधष्णगोमहिससयणासणादिपरिच्छंदा, गाणाविधेहिं दुक्खेहिं अभिभूता आत्मनः सरणं मण्णंते ते कथं अण्णेसिं सरणं भविस्संति ?, ते असरणे सरणबुद्धिया बाला पंडितमाणियो, संजमो य भावसरणं, अत्तणो य ताव परेसिं च तं प्रति जिता, जहिता पुव्वं संयोग, के ते?, कुतित्था लिंगत्था य, पुबसंयोगो णाम स्वजनधन इत्यादि, तं च हित्वा 'सिता किच्चोवगा' सिताबद्धा इत्यर्थः, सितानां कृत्यानि सितकृत्यानि, तद्यथा-पचनपाचनारंभपरीग्रहादीनि, उपगा नाम योग्याः, अथवा 'सितकृत्योपगा' इति सिता. गृहस्थाः नित्यमेवारंभोपजीवित्वात् असुभाध्यवसिताः पापोपगा भयंति, ततश्च नरकोपका इति, एत्थ दिटुंतो सुबादिवोदेणं, अंतरदीवे एकस्स भिण्णवाहणियस्स पुवपविट्ठस्त उच्छुखाइयस्स समुद्रकूलावस्करस्थाने मुकं स गुलमट्टियंतिकाऊण भक्षयति, इतरदर्शनं, सम्भावे कथिते णस्थि किंचि सुइत्ति सगिहं चेव हव्यमागते, यतश्चैवं तेण 'तं च भिक्खू परिषणाय०' सिलोगो ।।७७ ॥ तदिति तेपां आरंभादि सितकृत्योपगत्वं चशब्दात्कुदर्शनग्रहणं अन्यच छउमत्थं चउपञ्जवं जाणणापरिणाए परिजाणिया (पचाखाणपरिणाए) पञ्चक्खातुं तदाचारस्य विजं नाम विद्वान् संस्कृतापभ्रंशः न मूर्छा तेषु कुर्यात् , यथा एतेवि णिव्याणाय, अथवा यथेषां परैः क्रियते ण तत्थ मुच्छए, अमूर्छमान एव च 'अणुकसाए अणुवलीपणे अणुकसायो नाम तणुकसाओ, यथाऽणुत्वात्परमाणु नोपलभ्यते एवमस्यापि यद्यप्यक्षीणाः कषायाः तथाप्यणुत्वानोपलभ्यते, निगृहीत्वानोदीयंत इत्यर्थः, ८८ NOMINARIES [62] Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [४], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [गाथा ७६-८८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: कृत्योप गत्वं प्रत सूत्रांक ||७६ दीप अनुक्रम भीषयक-11|| पठ्यते चान्यथा सद्भिः अणुकोसे अणुवलीणे, तत्राणुकोसो गाम न जात्यादिभिर्मदस्थानरुत्कर्ष गच्छति, अपलीयते स्म अप-। तामचूर्णिःलीनः, यो हि जात्यादिरहितः पूर्वमासीत् स नापलीयेत, न गृहयेदात्मानमित्यर्थः, तत आत्मोत्कर्षवापलीनत्वे वर्जपित्वा ।। ५९॥ मझिमेण मुणि जावए, ण-नोत्कृष्येत् लज्येत इत्यर्थः, अथवा रागद्वेपो हित्वा तयोर्मध्येन मुनिर्यापयेत् , अरक्तदुष्ट इत्यर्थः, अथवा मध्यमिति 'सपरिग्गहा य सारंभा य०' सिलोगों ।। ७८ ॥ परिग्रहारंभावुक्तौ प्रथमोद्देशके, 'इहेति इहलोके, एके न सर्वे, आहितं-आख्यात, यदेषामारंभपरिग्रही व्याख्याती निर्वाणाय अतवं, साधवस्तद्विपरीतास्तन्मध्ये अपरिग्रहे अणारंमे ज्ञानवान् ज्ञानी भिक्षुः पूर्वोक्तः समंताद् व्रजेत् परिव्रजेत् , स्थादेतत्-अनारंभापरिग्रहवतो अपरिचयस्य च भिक्षोः कथं शरीर| यापनाप्रक्रिया स्यादिति ?, नैवाशरीरो धम्मो भवति, ततः उच्यते-'कडेसु घासमेसेजा.' सिलोगो ॥७९।। अथवा जावएत्ति | चुतं, सा चेयं यापना-कडेसु घासमेसेजा, तैरेवारंभपरिग्रहवद्भिः पचमानकैः अर्थाय कृतेषु प्रासुकीकृतेषित्यर्थः, ग्रस्यत इति | ग्रासः, तेषु कृतवत्सु स भिक्षुर्यायेत, यदुक्तमेषणीयं चरेत् , चर गतिभक्षणयोः, भुंजीतेत्यर्थः, एवमाहारउवधिसेजाओवि, तदपि भुंजानाः अगिद्धे विप्पमुक्के य, अगिद्धो अरक्त इत्यर्थः, बायालीसदोसविप्पमुक, एसणं चरेदिति गवेसणा गहोसणा य गहिताओ, IN/ अगिद्धेति पासेसणा, विप्पमुकेत्ति न तेष्वाहारादिषु ममीकारः कर्त्तव्यः, यत्र वा इष्टो आहारो लभ्यते तत्रापि कुले ग्रामे या न | संगः कार्य इत्यतो विप्पमुको य, 'उम्माणं परिवजिए'त्ति सपक्खपरपक्खउम्माणपेल्लियं च खेत्तं वजेतब्वंमा भूत्-एवं दोषाः | | स्युरिति, उबहिसेजाहिवि जोइजा आदिग्गहणा, किच्चुवमाहिकारो गतो, समयाधिकारोऽनुवर्तत एव, लोकस्य च-पाखण्डलोकस्य च तदधिकारेऽनुवर्तमाने इदमपदिश्यते लोगावायं णिसामेज'सिलोगो।।८०॥ लोका नाम पापंडा गृहिणव, लोकस्य ८ [63] Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [४], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [गाथा ७६-८८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: CAN प्रत सूत्रांक श्रीसूत्रकताङ्गचूपिणः विचार: ८८॥ दीप अनुक्रम लोकयो वादः लोकवादस्तान् 'अनपत्यस्य लोका न संति, गावान्ता नरकाः, तथा गोमिहतस्य गोषस्य नास्ति लोका, तथा जेसि सुणया जक्खा, विप्पा देवा, पितामहा काया, न लोगदुब्बियडो दुक्खमोक्खा वियोधितुं, तथा पुरुषः पुरुष एव, स्त्री स्त्रीत्येव, तथा पापंडलोकस्यापि पृथक् तयोखि प्रवृत्ताः, केपांचित्सर्वगतः असर्वगतः नित्योऽनित्यः अस्ति नास्ति चात्मा, तथा केचित्युखेन धर्ममिच्छति, केचिदुःखेन, केचित् तानेन, केचिदाभ्युदयिका धर्मपरा: नैव भोक्षमिच्छति, 'इहेति इहलोके आहितंआख्यातं, पठ्यते च 'लोकावादं णिसामेत्ता' णिसामेना-जाणित्ता यण सद्दहेज, लोकस्वभावो नाम अज्ञानित्वाद्यत्किचिद्भाषिता, उक्तं च-"एवं स्वभावः खलु एष लोका, न स्वार्थहानिः पुरुषेण कार्या।"अथ कस्मान श्रद्धेया परसमया इति ?, यस्मात्ते 'विपरीयपण्णसंभूया' प्रयाणामपि ज्ञानानां विपरीतया प्रज्ञया संभृताः, उक्तं हि-'मतिश्रुत विभंगा विपर्ययश्च' (तच्चा० अ०१०) विपरीतप्रज्ञा संजाता येषां ते विपरीतपण्णसंभूताः, अन्योऽन्यस्य वुइतं अणुगच्छंतीति अण्णोण्णबुइताणुगा, तत्कथं ?, व्यासोऽपि हि इतिहास्यमानो यत् अन्यस्य वचः प्रमाणीकरोति, तद्यथा-अमुकेन ऋपिणा एवं दृष्टमन्येनैवमिति नान्योऽन्यस्य वचनमतिवर्तते, प्रायेण हि वार्तानुवात्तिको लोकः, तथा चोक्तं-"गतानुगतको लोकः," अस्यामेव लोकचिन्तायां केचित्पापंडा तच्छावकाथैवं प्रतिपन्ना:-'अणंते णियते लोए.' सिलोगो॥८॥ अनन्तो नाम नास्ति परिमाणमस्य क्षेत्रतः कालतोऽपीति, णितिये नित्य इत्यर्थः, ननु के ?, सांख्याः , तेषां सर्वगतः क्षेत्रज्ञः, कूटस्थग्रहणं यथा वैशेषिकाणां, प्रतिपन्नाः परमाणवः, शाश्वतत्वेऽपि सति णवि सासएति, न तेषां कश्चिद्भावो विनस्यत्युत्पद्यते वा, अन्ये तु ब्रुवते 'अणंते च णितिए लोए' यथा पौराणिकानां सप्त द्वीपा: सप्त समुद्राः क्षेत्रलोकपरिमाण, कालतस्तु नित्यः, केपांचिदन्तवान्नित्यश्च, एवमेवधारणे, वीरो जांवकः, अधिकम्-अन्येभ्यः, सर्वे MINER ८ ATTISGe [64] Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [४], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [गाथा ७६-८८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: अमित । ज्ञानादि प्रत सूत्रांक श्रीसूत्रकतामणिः ॥६१॥ ८८॥ दीप अनुक्रम भ्योऽन्यतीर्थकरेभ्यो वा पश्यत्यधिपश्यति, किंचान्यत्-'अमितं जाणति वीरें ॥८२|| न मितं अमितं, का तर्हि भावना ?- | केपांचित्सर्वज्ञवादिनां अनंत ज्ञानं सर्वत्राप्रतिहतमिति, अथवा लोकमेव अमितं जाणंति, अमितो नाम अपरिमाणो लोका, तच्च सर्वज्ञो वीरः तथैव जानाति, अन्ये पुनः सव्वत्थ सपरिमाणं इति, वीरोत्ति,'सर्वत्रे ति तिर्यगूमधश्चेति क्षेत्रतः, कालतः केषां| चिद् दिव्यं वर्षसहस्रं केषांचिदन्यथा, इति उपप्रदर्शनार्थः वीर उक्तः, अधिकं पश्यतीति, एवं यस्य परिमाणमिष्टं स तेनामिप्रेतेन परिमाणेन, नानन्तलोकमिच्छन्ति, तत्र ये त्रुवते 'अणते णितिए लोए' त एवं ब्रुवते यो हि यथा भावः स तथैवात्यन्तम विकल्पो भवति, तद्यथा-यखसखस एव स्थावर: स्थावर एव सर्वकालं, न सत्वं जहाति न स्थावरत्वं जहाति, एवं देवा देवा एव, मनुष्येषु | स्त्रीपुंनपुंसका इति, अथवा यदुक्तं 'लोकावाद णिसासेज' ते च लोकवादा उक्ताः, अथवा खी खी एव, एवं प्रससस एव, स्थावरः स्थावर एव, भट्टारगो भणति-मिच्छा एयं, जो जहा सो तहेव, अव्वत भण्णति, अयं तु खभावो-'जे केइवि तसा पाणा'सिलोगो | ॥८३॥'जे'ति अणिद्दिढे णिदेसे, केचिदिति न सर्वे, वसा न स्थावराः, तत्र त्रसतीति प्रसाः तिईतीति स्थावराः, परियाए अस्थि से जायं' पर्यायो नाम पर्यायः प्रकार इत्यर्थः, अथ कोऽर्थः, अस्त्यसौ कश्चित् प्रकारः येन ते वसा भवन्ति स्थावरा वा, तत्र तावत् । असनिर्वकानि काण्युपचित्य असा भवंति, एवं स्थावरा अपि, नागार्जुनीयास्तु पठन्ति-प्रसनामउदयेण त्रसं न तु स्थावरोदयनामेन, उक्तं च-'अणिथमावासमुर्विति जंतवो, परलो० सोच समेच इतयं तथा चोक्तं 'ठाणी विविधा ठाणा' अन्यचोक्तं 'अशाश्वतानि स्थानानि', यो हि यथाका स तथा भवतीति, तद्यथा-नारगो तिर्यग्मनुष्यो देवो वा, तथा स्त्री पुं नपुंसकं बा, न तु जातिमनुष्योऽस्ति जातिखी वेत्यादि, यतश्चैवं तेनायसन्यः पर्यायो भवतीति वाक्यशेपः, येन ते वसा भवन्तीति ८८ [65] Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [४], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [गाथा ७६-८८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक श्रीसूत्रक- तामन्चूर्णिः परावत: ८८ दीप अनुक्रम स्थावरा वा, किं चान्यत्-इहैव तावद्दासो भूत्वा राजा भवति राजा भूत्वा द्रमकः, तथा बालकौमारयौवनमध्यमस्थाविर्याण्यन्योपमर्दैन प्रामोति, गतिस्थाननयनासनस्खमबोधादयोऽन्येऽपि विशेषा वक्तव्या इति, किंचान्यत्-प्रत्यक्षेण परोक्षं साध्यते, तच्चामी सत्त्वा 'उरालं जगतो जोगं' सिलोगो ।। ८४ ॥ ओरालं प्रागडं स्थूलं जगतो योगो, तद्यथा--गर्भबालकौमारयौवनमध्यमस्थाविर्याण्योरालाणि प्रागडानि जुञ्जति विजुअंति, तथा च तस्मिन्नेव वयसि कश्चिदासो भूत्वा राजा भवति, ईश्वरश्च भूत्वा निर्द्धनो भवति, 'अस भुवि विपरीततामेवैति विपर्यासः, विपर्यासेन प्रलीयन्ते, अन्यथाभावगमणेनेत्यर्थः, चशब्दान सर्वथा प्रलीयंते, द्रव्यतो हि अवस्थिता एव, अनेन प्रत्यक्षदृष्टेन सामान्येनानुमानेनैव साध्यन्ते, यह जातिसारणाद्वा बहवो विशेषा दृश्यन्ते एवं भवान्तरगतस्य अप्रत्यक्षाः, गतिकायेन्द्रियलिंगत्रसस्थावरराजयुवराजईश्वरादिदासभृतकद्रमकादयश्चोत्तमाद्याः विपर्यासाः, भवान्तरेष्वपि प्रत्येतव्याः, एते तु प्रत्यक्षपरोक्षाः ताँस्तान् पर्यायविशेषान् परिणमंतः 'सव्वे अकंतदुक्खा य' सर्वे इत्यपरिशेषाः कान्तः प्रिय इत्यर्थः न कान्तमकान्तं दुक्खं अनिर्ल्ड अकाम अप्पियं जाव अमणाम दुक्खं, अनुकूलमपि चैतत् ज्ञायते, तथा सव्वे इट्ठा सुभा कंता सुभा जाव मणामा सुभा 'अत' इति अमात्कारणात अहिंसगाः, एवं ज्ञात्वा सर्वसच्चान्यस्य साधोरहिंसनीयानि, 1 किं कारणं , तदुच्यते-'एवं खु णाणिणो सारं सिलोगो ।। ८५ ॥ एतदिति यदुक्तमुच्यते वा सारं विद्धीति वाक्यशेषः, यरिक ?, उच्यते, जे ण हिंसति किंचणं, किंचिदिति वसं स्थावरं वा, अहिंसा हि ज्ञानगतस्य फलं, तथा चाह-'योऽधीत्य शास्त्रमखिलं.' एवं खु णाणिणो सारं जंण भासे अलियपयं, एवं अदत्तं, मेहुणं, परिग्गहं च, जंच रागादि अज्झत्थदोसे विवजेति । तदप्युच्यते एवं खु णाणिणो सारं, स्याक्कि कारणं सच्चा न हिंसनीया?, उच्यते-'अहिंसा समयं चेव' अहिंसासमयो नाम ८ [66] Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥७६ ८८|| दीप अनुक्रम [७६८८ श्रीसूत्रताङ्गत्चूर्णि: ॥ ६३ ॥ “सूत्रकृत” - अंगसूत्र- २ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [४], निर्युक्तिः [१- ३५], मूलं [गाथा ७६-८८ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: तुल्यता, यथा मम दुक्खमप्रियं एवं सव्वसच्चानां एतां अहिंसां समतामात्मनः सर्वजीवैः एतावन्तं वियाणिया न हिंसति कंचनमिति वर्त्तते, एतावांच ज्ञानविषयः यदुत सर्वत्र समया भाव्येति, तथा मृषाऽदत्तादानादिष्वपि आश्रवेषु यथासंभवमायोज्यमिति, उक्ता मूलगुणाः, उत्तरगुणसिद्धये व्यपदिश्यते 'वुसिए य विगतगेही आयाणं सिलोगो ||८६|| बुसिते' त्ति स्थितः, कस्मिन् ?, धर्मे, विगता गृद्धिरिति अलुद्धः, 'आदिरंत्येन सहिति'चि अक्रुद्धः अमानः अमायावी, पठ्यते अकसायी, सदाधिगतबोधी, कपायाः क्रोधाद्याः, गृद्धिलोंभः, एगरगहणे गहणमिति 'आदिरन्त्येन सहितेति' वा गृद्धिग्रहणात्सर्वे आकृष्टाः, 'आदाणं सारक्लए'चि आत्मानं सारक्खति असंजमाओ, आदीयत इत्यादानं ज्ञानादि, तं सारक्खति मोक्खहेतुं किं ?- 'चरियासणसेज्जासु भत्तपाणे य अन्तसो' सारक्खति इति वर्त्तते, चरियति इरियासमिति गहिता, चरियाए पडिवक्खो आसणसयणे, एत्थ आदाणं सारक्खति, अथवा चरियागहणेण समिईओ गहिताओ, आसणसयणगहणेण कायगुत्ती, एकग्गहणेणं गहणंतिकाऊण मणवड़गुत्तीओवि गहिताओ, भत्तपाणग्गहणेण एसणासमिई, एवं आदाणपरिडावणीयाई सहयाओ, 'अन्तस' इति जाव जीवितान्तः । 'एतेहिं तिहिं ठाणेहिं' सिलोगो ॥ ८७ ॥ 'एतानी'ति यान्युक्तानि इरिया एगं ठाणं आसणसयणंति विश्यं भत्तपाणेति तईयं, अहवा एतेसु चैव इरियाइगेसु मणोवयणकाएणं, अदवा इरियं मोत्तूण सेसेसु उग्गमउप्पायणेसणासु संजमेज सया मुणी, सदा| सर्वकालं । इयाणि एतेसु संजमंतो इमानन्यानध्यात्मदोषान् परिहरेत्, तद्यथा-'उक्कोसं जलणं णूमं' सिलोगो ॥ ८८ ॥ उक | स्यतेऽनेनेति उक्कोसोमानः, ज्वलत्यनेनेति ज्वलनः - क्रोधः, नूमं णाम अप्रकाशं माया, अज्झत्थो णाम अभिप्रेतः, स च लोभः, | स एवं परसमयाः, न सद्भाव इति मत्वा सम्यग्दृष्टिज्ञानवान् यथोक्तेषु मूलोत्तरगुणेषु यतमानः 'समिते तु सदा साधू' सिलोगो [67] समतादि ॥ ६३ ॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥७६ ८८|| दीप अनुक्रम [७६ ८८] श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः ॥ ६४ ॥ “सूत्रकृत” - अंगसूत्र- २ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [४], निर्युक्तिः [१- ३५], मूलं [गाथा ७६-८८ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: ॥ ८८ ॥ समिते तु तेषामेवोत्तरगुणानां पूर्वोक्तानां परिसमाननं क्रियते सदा-नित्यं, तुर्विशेषणे, साधयतीति साधुः, पंचासंवराः | प्राणातिपाताद्याः तत्संवृतत्वान्न पापमादत्ते इति, स एवं संवृतत्वात् सितेहिं असिते भिक्खू, सिता बद्धा इत्यर्थः, गृहिकुपापंडा| दिभिर्गृहकलत्रमित्रादिभिः संगैः सिताः तेषु सितेष्वसितः, अवद्ध इत्यर्थः, तैर्याच्यमानः तानाश्रितो वा अणसितः, एवं कथं ?, उक्तं हि 'जणमज्झेवि वसंतो एगंतो ० ' आङ् मर्यादाभिविध्योः परि समंतात् आदिमध्यावसानेषु यावन्न मुच्यसे ताव आमोक्खाए परिवएजासित्ति बेमि शिष्योपदेशो । गतः सूत्राणुगमो, इदाणिं णया-'णायम्मि गिव्हिअच्चे० 'गाथा || || 'सव्वेसिंपि गयाणं०' गाथा || ॥ इति श्री सूत्रकृतांगे समयाख्यं प्रथमाध्ययनं समाप्तं ॥ अज्झयणाभिसंबंधो ससमयगुणे गाऊन परसमयदोसे य ससमए जयमाणो कम्मं विदालेज्जासित्ति वैयालियज्झयणमागतं, तस्सुवकमादि चत्तारि अणुयोगद्दारा अज्झयणत्थाधिकारो कम्मं वियालियव्यंति, उद्देसत्थाधिकारो पुण "पढमे संबोधि अणिचया य" गाहा ॥ ४० ॥ पढमे उद्देसए हिताहिता संबुज्झितव्यं अणियताय 'डहरे बुड़े य पासधा' एवमादि, वितिए उद्देसए 'माणवचणता' माणो वजेयब्वो, 'जे यावि अणायए सिदा' एवमादि, "उद्दे सम्मि ततिए " गाहा ॥ ४१ ॥ ततिए मिच्छत्तादिचितस्स कम्मस्स अवचयो 'संवुडकम्मस्स भिक्खुणो' एवमादि, णामणिफण्यो णिकखेवे वेयालियंति तत्थ गाथा | वेयालियंमि बेयालगो य वेयालयं वियालणियं । तिष्णिवि चउगाई वियालगो एत्थ पुण जीवो ||३६|| तत्थ वेतालिगो णामादि चतुर्विधो, णामठवणाओ तहेव, दब्ववेयालगो जो हि जं दव्वं वेयालियंति रथकारादिः, भावे णोआगमतो भाववियालगो साधुः, जीवो कम्मं विदालयति कम्मं वा जीवं, विदालणंपि णामादि चतुविधं तत्थ गाथा "दवं च परसुमादी" गाथा ||३७|| विदा अस्य पृष्ठे द्वितिय् अध्ययनस्य आरभ्यते [68] समतादि ॥ ६४ ॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥८९ ११०|| दीप अनुक्रम [८९ ११०] श्रीसूत्रकृ बाङ्गचूर्णिः ।। ६५ ।। “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्तिः+चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [३६-४२], मूलं [गाथा ८९-११०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: लणमिति करणभूतं, तत्र द्रव्ये परवादि, ज्ञानाद्यात्मकेन भावेन भाव एव मिथ्यात्वादिरूपो विदार्यते, भावे विदारणं णाणदंसणचरिताणि, विदालणियपि नामादि चतुर्विधं, णामठवणाओ तहेब, दव्यविदालणियं दारुगं, भावे अडविहं कम्मं विदारिअति, वेयालियस्स गाथाए णिरुतं भण्णति "वेयालियं इहं देसियंति वेपालियं नतो होति ।" एतदेव करणभूतं वेयालियकमध्ययनं किं विदारयति ?, तदेव कर्म्म, आह- यद्येवं सर्वाणि कर्म्मविदालणानि, विशेषो वा वक्तव्यः, उच्यते, अयं विशेषो-"वेयालियं इहं वित्त| मत्थि तेणेव य णिवद्धं ॥ ३८ ॥ वेतालियं नाम वृत्तजाति तथा वा बद्धत्वात् चैतालियं । अस्योपोद्घातः "कामं तु सासतमिणं कथितं अट्ठावयम्मि उसमेण । अट्ठाणउतिसुताणं सोऊण य तेऽवि पव्वइया || ३९ ||" भरहेण भरहवासं निजिऊण अट्ठाणऊतीवि भायरो भणिता-ममं ओलम्गघ रज्जाणि वा सुयधति, अट्ठावए भगवन् उसभमामी पुच्छितो, एवं भरहो भगति, किमेत्थ अम्हेहिं करणीयंति, ततो भगवता तेसिं अंगारदाह गदिनंतं भणिऊण इदमध्ययनं कथितं यद्यपि चेदमध्ययनं शास्त्रतं तथापि तेन भगवता पुत्राः संबोधिताः इति कृत्वा स एव विशेषस्तीर्थकरैरप्यस्य उपोदघातेऽनुवर्त्तते स्म इति । एवं उबग्वातणिज्जुतीए 'उद्देसे निदेसे य णिग्गमे 'ति अक्खाणगं समोवारेयच्वं स भगवान् तान् तत्संसारविमुमुक्षुराह-भो ! 'संयुज्झह किष्ण बुझह' बुतं (८९) सम्यक् संगतं समस्तं वा बुध्यत संबुज्झह, स्यात् कहिं बुध्यते १, धम्र्मे, किमिति परिप्रश्ने, स्वातिंक कारणं बुध्यते, संबोधी खलु पेच दुछभा, संबोधिस्त्रिविधा - णाणदंसणचरिताणि, खलु विशेषणे, चारित्र संबोधिरधित्रियते मनुष्यत्वे, न शेषगतिष्विति, अथवा बुज्झह, किं रजेहिं विसएहिं कलचेहिं वा करेस्सह ?, प्रसुप्तस्य संबोधिर्भवतीत्यतः सुप्ता एव वक्तव्याः, एत्थ णिज्जुत्तीगाथा दवे णिदावेए दरिसणणाणतवसंजमा भायो । अधिकारो पुण भणितो णाणे तह दंसणचरिते ॥ ४२॥ मुचो दुविहो-दधसुचो अस्य पृष्ठे द्वितिय् अध्ययनस्य प्रथम उद्देशक: आरभ्यते [69] विदारणादि ।। ६५ ।। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], नियुक्ति: [३६-४२], मूलं गाथा ८९-११०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: सुप्तादि श्रीसूत्रकवाङ्गचूर्णिः ॥६६॥ प्रत सूत्रांक ||८९११०|| दीप अनुक्रम [८९ भावसुत्तोय, तत्थ दवसुत्तो दुविहो-उवचारसुत्तो णिहासुत्तो य, उपचारसुप्तः पतित ओदकः, निद्रासुत्तो नाम निद्रावेदोदयाविष्टः स्वपिती, पश्चानामपि विषयाणां तत्कालमावन्नो, भावसुप्तस्तु ज्ञानादिविरहितः अज्ञानी मिथ्यादृष्टिरचारित्री च, जो दब्बसुत्तो सो भावओऽवि भतिओ, एवं जागरिओवि, द्रव्यजागरिता भावसुप्तेन चाधिकास। स्यात् कथं संबोधि दुल्लभा ?, उच्यते, माणुस्स देसकुलकाला' गाथा ।। इतश्च संबोद्धव्यं धर्मे यस्मात् 'णो हूवणमंति रातिओ णो सुलभ पुणरावि जीवियं,' नयतिक्रान्तरात्रयः पुनरुपनमंते, कथं ?, न हि वालरात्रयो यौवनरात्रयो वाऽतिक्रम्य पुनरुपनमंते, का तर्हि भावना !, न वृद्धो भूत्वा पुनरुतानशायी क्षीराहारो बालको भवति, नवा शिल्पककलाग्रहणसमर्थः कुमारको रक्तगंडमंसु भवति, नवामिनवश्मश्रुभूषिताधरोष्ठकपोलः कामभोगोल्वणमना युवा भवति, अत्रोदाहरणं लौकिक, नन्दः किल मृत्युदतैराकृष्ट आह-कोटीमहं दद्यां यद्येकाहं जीवेत् , तथापि न लब्धवान् , इत्यतः णो सुलभं पुणरावि जीवितं, जहण्णणं अंतोमुहुचाऊहि उकोसेणं पुन्चकोडीआयुगेहि अहियारे ऊहिए एत्यंतरे कस्सइ उपक्कमो होज, तं पुण जिणं ण सकति पुणो वडावेतुं, सदोपक्रमोऽनियतो, तद्यथा “डहरा वुड़ा य पासधा गम्भत्था य चयंती माणवा" (९०) मनोरपत्यानि मानवाः, मानवग्रहणेन मनुष्याणां कथ्यते, अथवा सर्व एव मानवाः अपदिश्यते, 'सेणे जह वट्टयं हरे' 'यथेति येन प्रकारेण, बट्टगा नाम तित्तिरजातित ईपदधिकप्रमाणा उक्ता वार्तकाः, एवमवधारणायां, आयुपः क्षयः आयुःक्षयः, स तु उपक्रमादन्यथा वा 'तुइ'त्ति त्रुट्यते जीवः शरीरात वा शरीरं जीवात् अथ मनुष्यजीवितात्तुट्यति स्वजनादिभिर्वा, योऽपि नाम कश्चित्स्वजनप्रमचो न बुध्यते यथा मातापितरौ मे वृद्धौ, ताभ्यां मृताभ्यां धर्म करिष्यामीति, एतदप्यकारणं, कथं ?, तर्हि उच्यते-'माताहि पियाहि लुप्प' वृत्तं (९१) मातृभ्य इति सर्वमातृग्रामो ॥६६॥ [70] Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥८९ ११०|| दीप अनुक्रम [८९ ११०] श्रीसूत्रकबाङ्गचूर्णिः ॥ ६७ ॥ “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [३६-४२], मूलं [गाथा ८९-११०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: गृह्यते, पितृभ्य इति पितृग्रामः लुप्यत इति छिद्यते तेषु जीवात्, स्वयं कदाचित् पूज्यतरं म्रियते, न च सैव माताऽन्यत्रापि भवति पिता वा, अथैकेन्द्रियादिषु प्रक्षिप्तः नैव मातापित्संबंधं लभते, न वा सुगतिः प्रेत्य सुलभा भवति, सुगतिर्नाम सुकुलं, प्रेत्य योनिस्थितिरेव, नागार्जुनीयास्तु पति 'माता पितरो य भायरो विलमेजसु केण पञ्चए' नारकदेवै केन्द्रियासंज्ञिषु च यतश्चैवं | तेण एताणि भयाणि वेहिया एतानि यान्युक्तानि - णो हूवणमंति राइओ, पेक्खिया- देहिया पस्सिया, आरंभो नाम असंयमः अनुक्तमपि ज्ञायते, परिग्रहाथ, कथं १, आरंभपूर्वको परीग्रहः, स च निरारंभस्य न भवती ततः आरंभग्रहणं, स्यादारं भादनिवृत्तस्य को दोपः १, उच्यते, 'जमिणं जगति पुढो जगा' वृत्तं ॥ ९२ ॥ 'यदि'ति यस्मात्कारणात् अस्मिन् जगति, पुढो नाम पृथक, | कम्मेहिंति यथाकर्म्मभिः लुप्यंति नरकादिषु विविधैर्दुःखैर्लुप्यते, सर्वसुखस्थानेभ्यश्यवंते, किंच- 'सयमेव कडे मि (व) गाहतु' ण | इसरादिकर्त एव, येन यथा कर्म कृतं असंबंधिदोषाद अष्टप्रकारं आत्मनि अवगाहति, आत्मा कर्म्मसुवा, अकारलोपं कृच्चा तमेक अवगाहति 'णो तेण मुचेअ अट्ठवं' नासौ तेण कर्म्मणा मुच्यतेऽस्पृष्टमस्यास्तीति, आह हि 'पावाणं च भो ! कडाणं कम्माणं' किंच-न केवल मिहानित्यता भवति, अन्यत्रापि एषा भवत्येव, तथा 'देवा गंधवरकूस्वसा असुरा' वृत्तं (९३) अथवा मा भूत्कश्चिदेवसुखेषु संग करिष्यतीत्यतस्तदनित्यताज्ञापनार्थं अपदिश्यते 'देवा गंधव्यरक्खसा' देवरगहणात् वाणमंतरभेदो, असुराणां प्रतिपक्षः, सुरा वैमानिकाः, भूमिगता असुरा एव, अथवा भूमिगता भूमिजीवा एव, अथवा भूमिगताः सरिसृपा गृह्यन्ते, इहापि च 'राया गर सेट्टि माहणा' राजानः चक्रवथाः नरा पृथग्जनाः सेट्टिणो णेगमाद्या, अधिपास्तु अधिकं पांतीत्यधिपाः, ते तु मंत्रिमहामंत्रिगणकदौवारिकादयः, माहनग्रहणात् जातिभेदः, त एते सर्व्वे एव स्वस्थानेभ्यश्यर्वते, दुःखिता नाम, नवा स्यात्कस्यचिन्मरणमिष्टं, उक्तं [71] कर्मव्यथा ॥ ६७ ॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], नियुक्ति: [३६-४२], मूलं गाथा ८९-११०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक ||८९११०|| दीप अनुक्रम [८९ श्रीसूत्रक Pच 'मरणमिति महद्भय'तदपि च कालवशेन किं ?, येऽपि कामनिमित्तेनोधर्मते तान् प्रत्युपदेशः, 'कामेहि य संथवेहि य वृत्तं(९४) ताङ्गचूर्णिः एत्थ इच्छाकामा अप्पसथिच्छाकामा मयणकामा य,अविशिष्टा वा शब्दादयः,कामोपग्रहाश्च स्ख्यादयः संस्तुता वन्ते,अथवा संस्तुता ॥६८॥ इति पूर्वापरसंस्तवो गृह्यते, स एवं तेभ्यः कामेभ्यः संस्तवेभ्यश्च 'कम्मसहि'त्ति कर्मभिः सह तुव्यतीति, कोऽर्थः ?, न ते कामाः संस्तुतानं गच्छंतमनुयास्यंति, 'कालेनेति सोपक्रमेणान्यतरेण वा, जायंत इति जन्तवः, 'ताले जह पंधणच्चुतो' ताले जातं तालं, तालं हि गुरुत्वाद् दूरपाताच शीघ्र पततीत्यतस्तद्रहणं, तालस्यापि द्विधा पात:-उपक्रमात कालेन च, एवं आउक्खएवितुति।। जीवोऽपि सोपक्रमेणान्यथा वा, किंच-न केवलं कामेषु संस्तुतेषु च सवा गृहिणस्तावत् पढंति, अन्येऽपि हि तथैव, तंजहा 'जे याचि भवे बहुस्सुता धम्भिय माहण भिक्खुए ॥८५।। बहुस्सुया धर्मे नियुक्तो धार्मिकः, बृहन्मना ब्रामणः, मिक्खसणसीलो भिक्खू, सुचिरिति यथावत्खधर्मव्यवस्थितः, परित्राजको वा, अभिनूमकरेहि मुच्छिया नूमं नाम कर्म मायावा, अमि मुर्ख नूमीकुर्वन्तीति अभिनूमकरा-विपयास्तेषु मूच्छिता-गृद्धा, लोभो गृहीतः, एगग्गहणे गहणंति सेसकसायावि गहिता, कथं तं नेच्छंति ?, पत्थंति पत्थिर्जति , अण्णेहि तेहिं आहारादिसु कामेसु सचाः, इह च परत्र च तीवमेव तदुपचितैः कर्मभिः कृत्यते कामजनितरित्यर्थः, स्यात्-कथं ते कर्मभिरेव कृत्यन्ते न निर्वान्त ?, उच्यते, 'अथ पास विवेगमुहिते' वृत्तं ॥ ९६ ॥ 'अथेति प्रकृतिअपेक्षं, अथवा कर्मविवागो यत्र, किं न पश्यसि विवेगमुट्टिते', विवेगो नाम स्वजनगृहादिभ्यः प्रवज्यास्थानमन्यतरं, अथवा कर्मविवागो यत्र स्थिताः कर्मनिर्वाणायेत्यर्थः, विविधं तीर्णा वितीर्णा न वितीर्णा अवितीर्णा न कामभोगाभावतीर्णा, 'इह' असिछोके, अथवा इहेति पूरणार्थः, धुतं णाम येण कर्माणि विधूयन्ते, वैराग्य इत्यर्थः, चारित्रमपि, केचिद्भणंति- ॥६८।। [72] Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], नियुक्ति: [३६-४२], मूलं गाथा ८९-११०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: आरपारादि प्रत सूत्रांक ||८९११०|| दीप अनुक्रम [८९ ID वयं स्वतः विरता, विरताः अपापकर्माणः, अथवा अपि संभावने, तीर्गा अपि गृहादिसंबृथं केवलं भाषते, न तु कुर्वन्ति, स एवं श्रीसूत्रक भाषमाणः पाखंडी पाखंडगणो वा, अणेगेसु च एकादेशो भवत्येव 'णाहिसि आरं कतो परं' ज्ञास्यति आरं-गृहस्थत्वं परंताङ्गचूर्णिः प्रवज्या, किमुक्तं भवति-न त्वं जानी, कैः-फिर्मभिः गृही भवति प्रबजितो वा, अजानन् कथं कुशलानि वेत्स्यसि ?, अथवा ॥ ६९॥ आरमित्ययं लोकः परस्तु परलोकः, अयं सौत्रोऽर्थः-आरः-संसारः परो-मोक्षः, तदिति आरं पारं वान ज्ञास्यति, कुतः?-कुमा श्रयात् , अथवा 'ण णाहिसि' ति न जानिष्यसि मोक्षमात्मानं परं वा, तत्रात्मा आरं परं पर एव, अथवा णाहिसि गिही ण पच्चइओ, आरो पब्बइओ, आरो गृही परः प्रवजितः, वेहासं नाम अंतरालं, न गृहित्वे नापि श्रामण्ये, अंतराले वर्त्तते, ते हि आहारादिषु | सक्ता इह परत्र च तीवमेव तदुपचितैः कर्मभिः कुत्यन्ते, कामजनितरित्यर्थः, आह-एते तावदवितीर्णत्वात् मा भवनिर्वाणाय, अथ ये इमे उडिकाः चूर्णिकादयश्च एते कथ न तन्त्रिाणाय ?, उच्यते, "जइवि णिगिणे किसे चरे" वृत्तं ।।९७यदित्य| भ्युपगमे णिगिणो नाम नग्नः, कृशस्तपोभिनिष्टप्तत्वाद् आतापनादिभिः, मासो संख्यातप्रतिभाग इतिकृत्वा मासस्य अंते सक द्भुक्तं इति मासान्तशः 'चउत्थछट्ठमदसमदुबालसमेहि स एवं निष्टप्तशरीरोचि 'जे इह मायादि मिजति' अणिद्दिवाणिद्देसा | माया आदिउँपां कपायाणां, आदीयत इत्यादिः, माङ् माने, कथं ?, मीयते, पूर्यत इत्यर्थः, मायादीनां कपायाणां योजनं, अथवा मीयत इति-यथा धान्यस्य कुडो मीयते एवं मायादिभिः कपायः स मीयते, पूर्यत इत्यर्थः, स एवं कपायाणामाकंठं मितः मरणमितो 'आगंता गम्भादणंतसो आगमिष्यतीति आगंता, गर्भः आदिर्यस्य संसारक्रमस्य भवति स गर्भादिः, तद्यथा| गर्भप्रसवबाल्यकौमारयौवनमध्यमस्थाविर्यमरणनरकदुःखान्त इति, उत्तीर्णस्य च नरकात् स एव भुवः, पुनः स एव क्रम इति, [73] Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], नियुक्ति: [३६-४२], मूलं गाथा ८९-११०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: पापोपरम: प्रत सूत्रांक ||८९११०|| दीप अनुक्रम [८९ श्रीमत्रक- यतश्चैवं मिथ्यादर्शनोपहतं तपोपि न दुर्गतिनिवारकमित्यतो मद्दर्शितमार्गमास्थाय "पुरुसोरम पावकामुणा" वृत्तं ॥९८॥ नाङ्गचाणपुरि शयनात पुरुषः, हे पुरुष! पुरुषा वा उपेत्य उवरम-उपरम पावानि-प्राणातिपातादीनि मिच्छादसणसल्लंताणि अट्ठारस ठाणाणि, ॥ ७०॥ स्यात् कामभोगजीवितनिमित्तं नोपरमसि इत्यतोऽपदिश्यते 'पलियतं मणुयाण जीवित परि-समंतात् आदियति जीवितस्य परं वर्षशतं, अथवा प्रलीयं-कर्म यावदायुनिवर्ति तत्परिक्षयान्तं, अथवा यस्यान्तोऽस्ति तत्प्राप्तमेव वेदितव्यमिति, आह हि दूरस्थमपि भावित्वात् आगतमेव, तथा उदधीन्यपि दिव्युषितो, जे पुण असंजमजीवितेण कलत्रादीपंकायसन्ना 'इह' मनुष्यलोके शब्दादिविषयेषु 'मुच्छिता' अध्युपपन्ना 'मोहं जंति नरा असंखुडा' मोहो नाम कर्म तं जंति, मोहतच गर्भजन्ममरणादिः स एव संसारक्रमः, असंवुडा हिंसादिएहिं इंदिएहिं वा, यतश्चैवं तेन 'जयतं विहराहि जोगवं' वृत्तं ॥९९ ।। जययं नाम गामे एगराईयं नगरे पंचराइयं यत्नतः, योगो नाम संयम एव. योगो यस्यास्तीति स भवति योगवान् , जोगा वा जस्स बसे बटुंति स भवति योगवान , णाणादीया, अथवा योगवानिति समितिगुप्तिधु नित्योपयुक्तः, स्वाधीनयोग इत्यर्थः, यो हि अन्यत् करोति अन्यत्र चोपयुक्तः स हि तत्प्रवृत्तयोग प्रति अयोगवानेव भवति, लोगेऽपि च वक्तारो भवंति-विमना अहं, तेन मया नोपलक्षितमित्यतः स्वाधीनयोग एव योगवान् , स्यात्-किमर्थं नित्योपयोगः, उच्यते,'अणुपाणा पंथा दुरुत्तरा'अणवः प्राणा येषु ते इमे भवंति अणुपाणा-सूक्ष्माः, यदुक्तं भवति तानविराधयद्भिः, दुःखेन उत्तीर्यन्त इति दुरुत्तराः, अतः अणुपत्थि पाणा अणुपस्थि बीयहरितादि, अणुसासणमेव परकमे' अनुशास्यतेऽनेनेत्यनुशासनं-सूत्रं तद्यथा सूत्रोपदेशेनानुशास्यते यच्चाचायस्तदन्तरा अननुशासनमेव पराक्रमे भृशं क्रमे, स्यात्केनेदमनुशासनं ?, उच्यते, 'वीरेहिं सम्मं पवेदितं' नित्यमात्मनि-गुरु ॥ ७० 174] Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], नियुक्ति: [३६-४२], मूलं गाथा ८९-११०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: वीरत्वादि श्रीसूत्रक प्रत सूत्रांक ||८९ ताजचूर्णिः ॥ ७१॥ ११०|| दीप अनुक्रम [८९ पुरुषेषु च बहुवचनं, तेन वीरेहिं, सम्म पवेदितं, अथवा सर्व एवाईन्तो वीरास्तै प्रवेदितं, स्यादेतत् , के बीरा इति ?, उच्यते, | 'वीरा विरता हु पावका' वृत्तं ॥१०॥ यो विरतः स वीरः, कुतो ?, पापात् , अथवा विराजमानाः विदालयंतीति वा वीरा:सम्यगुत्थिताः संजमसमुदाणेणं, स्यात्कि पापकं यतस्ते विरताः, उच्यते, 'कोधकातरियादीपीसणा' कातरिया णाम माया, क्रोधग्गहणान्मानोऽपि गृहीतः, कातरियाग्रहणाल्लोभः, पीपणा णाम क्रोधकातरिकादयः कपायाः किं पीपयंति ? ज्ञानदर्शनचारि| वाणि, अथवा त एव वीराः पीपणा, पीसणा दब्वे भावे य, दब्बे कुंकुमादि पसत्थदव्यपीसणा, वप्पादि अप्पसत्थपीसणा, भावे | पसत्थभावपीसणा य अपसत्थभावपीसणा य, अपसत्थभावपीसणेहिं अहिकारो, त एवं पीसणा 'पाणे ण हणंति सब्वसों सव्वसो नाम सबप्पकारेण योगत्रिककरणत्रिकेण, पापं नाम कर्म, येन च हिंसादिकर्मणा तत्पापं बध्यते तस्मिन् कारणे कार्योपचारं कृत्वाऽपदीश्यते 'पापाओ विरताभिणिव्युडा' अभिमुखं णिव्वुडा अभिणिब्बुडा अभिप्रसन्नाः, यथोष्णमुदकं सीतं भूतं | | णिबुडमित्यपदिश्यते एवं, अथवा कपायोपशमाच्छीतीभूना अभिनिन्बुडा बुचंति, स्यात् तस्याभिनिवृत्तात्मनः साधोः परीषहो| पसर्गाः प्रादुर्भवेयुः, ततस्तेन इदमालंबनं कृत्वा अहियासेतव्यं 'णविता अहमेव लुप्पए' वृत्ते ॥ १.१॥ नाहमेक एव शीतोष्णदंशमशकादिभिः परीषहोपसग्गैलुप्पेत्ति, अन्नेऽवि असंयता पुत्रदारभरणादिभिः क्लेशैलुप्यन्ते, तथा च चौरपारदारिकादयः पराधीना लुप्यन्ते, अनपराधिनोऽपि कर्षकादयः करभरविष्ट्यादिमिरुपक्लेशैलृप्यन्ते, 'एवं सहिते' एवम्-अनेन प्रकारेण, सहिते णाणादीहिं, आत्मनो वा हितः सहितः, अधिकं पृथग्जनान् पश्यति अधिपश्यति, अनिहो नाम परीपहोपसगर्न निहन्यते, तवसंजमेसु वा संतपरकर्भ ण णिहेति, 'से' इति णिद्देशे स एव भिक्षुः, कथंचित्परीपहोपसर्गः स्पृश्यते ततः सो पुट्ठोऽधिया 175] Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], नियुक्ति: [३६-४२], मूलं गाथा ८९-११०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: श्रीमत्रक प्रत सूत्रांक ||८९११०|| ताङ्गचूर्णिः ॥७२॥ दीप अनुक्रम [८९ |सए, अकारलोपो द्रव्यः, स एवं परीपहसहिष्णुः “धुणिया कुलियं च लेववं" वृत्तं ॥१०२।। धुणिया णाम धुणेजा कम्म, कर्मधुतादि कथं ?, जहा करणकुडं उभयोपासे लित्तं चिरेण कालेण जुण्णलेवं, सततं लिप्पंते व जोगं वा लेईम, उपमाने वति, कसएति कृशं कुर्यात् , दिह्यत इति देहः यथा कुई लकुटादिभिः प्रहारैः लेपापगमात् कृशीभवति एवं साधुरनशनादिभिः तपोविशेषैः कृशं देहं ।। | कुणंति, देहे च सम्यक्तपोभिरेवं कृश्यमाणे कर्मदेहोऽप्यपकृश्यते एव, द्रव्यकर्षणा कुडे शरीरे वा, भावकपणा रागद्वेषौ कर्ष यति, त एवं अनशनादितपोयुक्ताः रागद्वेषापकृष्टाः "अविहिंसामेव पव्यएन विहिंसा २ अतस्तामविहिंसां पव्वए, कथमहि| सकः स्यादिति, अनुधर्मों अनु पश्चाद्भावे यथाऽन्यैस्तीर्थकरैस्तथा वर्द्धमानेनापि मुनिना प्रवेदितं, अनुधर्मः-सूक्ष्मो वा धर्मः, | पुष्पवत् वृत्तं, अप्पसत्थभावधुणणं, तंमि विधुए कम्मरयो विधुत एव भवति, स्यात्-कथं धूयते , 'सउणी उ जह पंसुगुडिता' वृत्तं ॥१०३ ।। सउणि-काउल्ली, धूलीए वा लेट्टितुं तद्रजः पक्षातो धुब्बति-ध्वंसयति सितं-बद्धं, रंजयतीति रजः, एपो दृष्टान्तः 'एवं दविओवधाणचं दविओ रागदोसरहितो, द्रव्यमात्रमेव, उव. उपदधातीति उपधानं तदस्यास्तीत्युपधानवान् , | कर्म क्षपति, 'तवस्सि माहणो' समणेत्ति वा माहणेत्ति वा, अथ तं कश्चित् "उद्वितमणगारमेसणं" वृत्तं ॥१०४|| उद्वितो णाम धर्म प्रवज्यायां, नास्यागारं विद्यते अनगारः, अनगारत्वमेषति, अथवा मोक्षमेव एपति, समणाणं ठाणे ठितं चरित्ते पाणाइसु वा, तपःस्थितं तपस्सियं, बारसविहे तवे, तमेवं धम्मे दृढप्रतिझं "डहरा वुड्डा य पत्थए" डहरित्ति पुत्तनत्तुआदयः, तेसु विसेसतो पोहो भवति, कालुपियं कारतेसु वडमाइपितिमातुलपितृव्यादयः 'पत्थए ति उप्पव्यातुं इच्छति, ते आजम्मएण ठिता | तण्हाए छुहाए य अवि सुस्से ण तं लभेऊण, अवि मरेज णवि उप्पच्यावेतुं सकेंति, जनानामधर्मव्यवस्थितचाजनवत्स तान् पश्यति, ॥७२॥ [76] Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥८९ ११०|| दीप अनुक्रम [८९११०] श्रीसूत्रवाक्र्चूर्णिः ।। ७३ ।। “सूत्रकृत” अंगसूत्र-२ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [३६-४२ ], मूलं [गाथा ८९- ११० ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: - न तु खजनवत्, "जड़ कालुनिया से कए" वृत्तं ॥ १०५ ॥ कालुनिया णाम 'वाह ! पिय! कंत ! सामिय! उसण णिप्पगत वर्णमि सब्वं सुण्णं पणइणि पुत्ता ते पितु वियोगवेलप्पा ||१|| सण्णा गामो गोड्डी गणो व तं जत्थ होसि सष्णिहितो ।। दिव्यति सिरीए सुपुरिस ! किं पुण णियगं घरदारं ? ॥ २ ॥ पुत्रकारणाद् एकमवि ताव कुलतंतुवर्द्धनं पिपिंडदं धनगोप्तारं च जनयस्व पुत्रं ततो यास्यसि एवं कलुणाणि रुदंता 'दवियं'ति दविओ-रागदोपरहिओ, निक्खणशीलो. भिक्खू, सम्यगुत्थितं समुद्दितं संजमुहाणेण समुट्ठितं 'णो लम्भति णं' ति ण सकेति 'सण्णवेत्तए' चि आणेतुं 'जड़ णं कामेहि भा(ला) बिया' वृसं ॥ १०६॥ 'यदीत्यभ्युपगमे, कामा-सद्दादि घणाइ वा 'लाविय'ति णिमंतणा, जइ कामेहिं घणेण वा बहुप्पगारं उवणिमंतेज, बंघित्ता वा घर आज 'तं जीवितणावकंखिणं' तमिति तं साधु जीवितं असंजमजीवितं नावकांक्षति नावकांक्षिणं 'णो लब्भंति ण सण्णचितए' नोकारः प्रतिषेधे लम्भतित्ति ण ते लभंते सण्णवेत्तए, किंच- 'सेहंति अ णं ममाइणो' 'वृत्तं ॥ १०७॥ असंजमं ममायंतित्ति ममायिनः ते मातिपितिस्त्रिपतिभायारो 'सेहते' त्ति से हावेन्ति, कथं सेहावेंति ?--'पोसाहि ण पासओ तुम' तुमं अतीव: पासओ जं अतीव पस्ससि, भोगनिरिक्खितो भवान्, जतो एक एवात्मा. पायमीरु पासएति प्रवचनवयणेणं, कहं अम्हेहिं दुक्खिताणि ण पासतित्ति, यदि त्वं एवं दीर्घदर्शी परलोगंपि जहाहि उपमंति, इमो ताव विमो लोगो जदो, अम्हेहिय तुजा निमि-तेण अद्वितीय किलिस्ममाणेहिं अम्ह य बुद्धत्तणे सुस्सुसाए अकीरमाणीए पुत्तदारे य अभरिअमाणे य परलोगोवि ते ण भवि 'स्संति, उक्तं च-या गतिः क्लेशदग्धानां गृहेषु गृहमेधिनाम् । पुत्रदारं भरतानां तां गतिं व्रज पुत्रक ! ॥ १ ॥ उत्तमो नाम तत्र एव मातापि सुश्रूषया उत्तमो लोको भविष्यति, अन्यथा त्वधमः, एवं तैरुपसगैः क्रियमाणैः किंचिदेवं धर्म्यकातरः 'अण्णे' [77] कारुण्य का दीनि ७. । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], नियुक्ति: [३६-४२], मूलं गाथा ८९-११०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: भाया प्रत बीसूत्रक सूत्रांक नाचूर्णिः 11७४॥ ||८९ ११०|| दीप अनुक्रम [८९ अण्णेहिं मुच्छिता' वृत्तं ॥१०८॥ अन्योऽन्येषु मूञ्छिताः, तद्यथा-कश्चिद्भार्यायां कश्चित्पुत्र कश्चिन्मातरि पितरि वा 'मोह जंनि णग असंवुडा' मुह्यते चेन स मोहः-कर्म अज्ञानं वा तत्कृतो वा नानायोनिगहनः संसारस, अथवा खजनस्नेहमोहिताः कृत्याकृत्ये न जानति, न संवृताः असंवृताः-इन्द्रियनोइन्द्रियतः संवररहिता 'विसम विसमेहि गाहिया' विसमो णाम असंजमो तमसंजमं असंयतैरेव ग्राहिता, 'ते पावेहि पुणी व गम्भिता' पापानि-छेदनमेदनविशसनमारणादीनि प्राणिवधादीनि वा तेषु पापेपु वर्तमाना पुनरवि गम्भीभूया उन्मार्गमाचरंतो न लजंते, पुराणश्मशानचिंतकमांसखादनपिशाचहस्तावसारणं, अहं संमारस्स ण वीभेमि, कुतस्तर्हि ?, तव यतश्चैवं 'दविप व समिक्ख पंडिते' वृत्तं ॥ १०९।। दविक उक्तः एवम्-अनेन प्रकारेण योऽयमुक्तः सम्यक् ईक्ष्य समीक्ष्य पापं-हिसादि, अन्यथा पाठस्तु 'तम्हा दविइक्व पंडिते' तस्मादेवं ज्ञात्या विरताणं अविरताणं च गुणदोसे पाबाओ विरता अट्ठारसट्ठाणाओ सयणाओ व विस्तो भवाहि, अभिणिचुडों' असंजमउण्डाओ सीतीभूतो 'पणता वीरा महाविधि' भृशं नताः प्रणताः प्रणतार इत्यर्थः, कतरं ?, जो हेट्ठा संबोहणमग्गो भणितो, वीराः उक्ताः, वीही नाम मार्गों चक्रवीथिवत् महती वीही महावीही, अथवा भाववीही एव महावीधी, तत्र द्रव्यवीधी नगरगामादिपंथाः भाववीधी तु सिद्धिपंथाः 'पणेआउअं' शिवं, पाठविशेपस्तु 'प्रणता वीधीमेतमणुत्तरं, एतदिति भाववीधी जं भणिहामि अणुत्तरं-असरिसं अणुत्तरं वा ठाणणाणादि, सेहनं सिद्धिः, पद्यत इति पंथाः, नयतीति नैयायिका, शिवं निरोग, धुवं वाधुयो सासओ स एवं प्रणतः 'वेयालियमग्गमागतो वुत्तं ॥११॥ चैतालिकमुक्तं, अथवा विदालयतीति चैदालिका-भगवानेव-वैतालिकस्य मार्गः वैतालिकमार्ग: तं आनतः, प्राप्त इत्यर्थः, 'मणसा वयसा काएण संयुडे'त्ति गुत्तो 'चिच्चा वित्तं च णातयों चिचा णाम त्यच्या विनं बाह्यमभितरं ॥ ७४ ॥ [78] Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥१११ १४२|| दीप अनुक्रम [११११४२] श्रीसूत्रकृ ताङ्गचूर्णिः २ अध्य० २ उद्देशः ॥ ७५ ॥ “सूत्रकृत” अंगसूत्र- २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [२], निर्युक्तिः [४३ - ४४ ], मूलं [गाथा १११-१४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: - च, चाद्यं गोमहिष्यादि अभितरं हिरण्णसुवण्णादि, अथवा अभ्यन्तरं विद्याबुद्धिकौशल्यादि, शेर्पा बाह्यं, 'णातय'त्ति पुत्रावरसं स्तुता, आरंभस्तु पचनछेदनादि प्राणातिपातो वा चशब्दात् शेषा अत्रयवा अपि, चिच्चा अपि वर्त्तते, संबुडे इंदिएहिं चरेदिति अनुमतार्थे, अथवा परिव्वजासित्तिवेमि । वेयालिए पदमो उद्देसओ सम्मत्तो २- १॥ उत्थाहिगारो माणो जेतन्वो, तत्थ गाथा-तवसंजमणाणे सुवि जड़ माणो वजिओ महेसीहिं । अत्तसमुकसणट्टा किं पुण हीलामणु अण्णेसिं ॥ ४३ ॥ महातवस्सिणा-संजमे अतीव अप्पमतेणं अतीव बहुस्सुतेण जइ ताव माणो वजिओ तेन तपखित्वे अप्रमतत्वे बहुश्रुतत्वे वा गन्धं न याति किमंग पुण नातिक्रत्स्नतपोयुक्तेन प्रमादवता अल्पश्रुतेन वा गच्च कायव्वो ? परो वा हीलेनबो १, किंचान्यत्- 'जड़ ताव णिज्वरमतो पडिसिद्धो अट्टमाणमहणेहिं । अवसेस मयट्टाणा परिहरियवा पयत्तेणं |||४४ || भणिओ य उद्देमत्थाहियारो, सुत्ताभिसंबंधो पुण उक्तं प्रथमस्थान्ते चिचा वित्तं च णातयो एवं वित्तं स्वजनारंभं विहाय तपसि स्थितत्वात् 'तयसं व जहा से रथेनं ॥ १११ ॥ तथा णाम कंचुओ, स्वमित्यात्मीयां, उपमाने वति उरगवत्, 'स' इति स पूर्वविवक्षितः साधुः, रज्यत इति रजः, तत्केन जहाति ? - अकषायत्वेनेति वाक्य शेषः, अकपायस्य हि सर्पत्वगित्र चहीयति रजः, 'इति संखाय मुणी ण सजाए' इति उपप्रदर्शने 'एवं संखाए' ति एवं परिगणेत्ता, एवं ज्ञात्वेत्यर्थः, 'ण मज्जए'ति न मर्द कुर्यात्, तत्केन मअते १ 'गोयण्णयरेण जे बिए' गोत्रं नाम जातिः कुलं च गृधने, अन्यतरग्रहणात् क्षत्रियः ब्राह्मणः इत्यादि, अथवा अन्यतरग्रहणात् शेषाण्यपि मदस्थानानि गृहीतानि भवंति, इखिणी णाम खिंमणा निंदणा हीलगा, अन्ये ब्रुवते रिक्तता, अथवा गोतण्णतरेण माहणे- साधू, अहिंसगो सुन्दरो अण्णे असोभणा, स्यात् य एषा मदानां एकेन नेकैव मदस्यानैर्मतः परं परिभवति अस्य पृष्ठे द्वितिय् अध्ययनस्य द्वितिय उद्देशक: आरभ्यते [79] मानवर्ज नादि ॥ ७५ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], नियुक्ति: [४३-४४], मूलं [गाथा १११-१४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: नादि प्रत सूत्रांक ||१११ श्रीसूत्रकनाङ्गचूर्णिः ।। ७६ ॥ १४२|| दीप अनुक्रम [१११ मानवजतस्य को दोषः१, उच्यते-'जो परिभवति परंजनं वृत्तं ॥११२॥ परो नाम आत्मन्यतिरिक्तः सपक्षः परपक्षो वा, अथवा पर:-अस्वजनः, परिभवो नाम जात्यादिश्रेष्ठस्त्वं हीनजातिरिति, एवं कुलादिषु, नान्यत्रापि, सो अणादीए यपज्जते अणवदग्गे संसारे परियति चिरं' सर्वतो वर्तते परिवर्तते, 'चिर' मिति अणंतकालं, विसेसेण कुत्थिता सुकुत्थिता सासु जातिसुएगिदियवेईदियादिसु, यतश्चैवं तेन 'अदु इंखिणिया तु पाविया' अदु इति यदुक्तकारणात इंखिणिका प्रागुक्ता पातयतीति पातिका, वानरपिटिका इह सुघरीदृष्टान्तः, परलोके कोकिलकश्च परिभट्ठउ सङ्कसुणओ जाओ, इति उपप्रदर्शनार्थ, 'एवं संखाएं एवं परिगण्य मुणी 'ण मज्जए' मदं न कुर्यात् , 'जे यावि अणातए सिया' वृत्तं ॥११३॥ जेत्ति अणिदिवणिद्देसे नान्यो नायकोऽस्यास्तीत्यनायकः-चक्रवर्तिबलदेवो महामंडलिओ वा, वासुदेवो ण पच्चयति, निदानकृतत्वात् ; तेन नाधिकारः, पेसगपेसगो णाम तेसिं चेब- चक्रिमादीण जो पढिगावाहगो प्रबजितः स्यात् , असावपि तं चक्रवर्ति प्रबजितः पूर्व दासदासं चारसावत्तेण चंदणेषण वंदति, वंदणमाणोऽपि वा 'इदं मोणपदमुवटिए'त्ति इदमिति आरुहतं मुनेः पदं मौनं पञ्जतेऽनेनेति पदं-मोक्षं गम्यता इत्यर्थः, उपेत्य स्थितः उवहितो, न तेन पूर्वस्वामिना लज्जा कर्त्तव्या जहाऽहं पुथ्वदासदासं बंदाविज्जामि, इतरेणापि न गर्ने, ) अहं सामिगसामिणा पूइज्जामि, 'समतं ति अरागद्वेपवानित्यर्थः, 'सदा सर्वकालं चरेदित्यनुमतार्थः, स्यात-कथं ताभ्यां लजामदौ न कर्तव्याविति ?. उच्यते. 'समग्रणयरम्मि संयमे वृत्तं ॥११४॥ ते हि.सयं तचं प्रति समा चेव, अथवाऽयमपि। छेदोपस्थानीय, एवं परिहारविशुद्धिकादिषु शेषेधपीति, अरिस्स मि० वृत्तं, तौ हि संयमत्वं प्रति समावेय, अथ समेत्ति एकस्मिन्नेव तो संयमस्थाने वर्तयेतो, अण्णयरे वत्ति विममे वा छट्ठाणपडितस्स, नेसु. सम्यक्त्वादिष्वसंजम इतिकृत्वा अन्यतरे अधिके वर्तमानः ।। ७६ ।। १४. [80] Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], नियुक्ति: [४३-४४], मूलं [गाथा १११-१४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: YHM - श्रीसूत्रक प्रत सूत्रांक ॥१११ ताङ्गचूर्णिः ॥७७॥ १४२|| दीप अनुक्रम [१११ पूज्यः, संयतत्वादेव, अथवा जे यावि भवे अणायगे, जेविय पेसगस्स पेसएत्ति, एगिगो माणेऽई उक्तः, इह तु 'समअण्णतरंमिवाचकादि वा सुते समेऽवि सुएणमिमं परिचिततरंतिकाउंस माणो ण कायचो, लहुं वा मे अधीतंति, अण्णयरंतु एगो गणी एगो वायगो, पूर्वगतं वाचितं येन स वाचकः, न च वाचकेन मानः कार्यः, संशुद्धो स एव, संयमः शुद्धः यत्रासौ वर्तते, अथवा स एवं लजा. | मददोसादिएहि संसुद्धो 'समणे'त्ति सम्यक् मणे समणे वा समणो, परि समंता सव्वातियारसुद्धो सचओ वा परिवए परिव्वए, स्यात्कियचिरं कालं ?, उच्यते 'जा आवकथा समाहिते' यावदस्य कथा प्रवर्तते देवदत्तो यज्ञदत्तो वा, दविओ णाम रोगदोसरहिओ, स्यान्मृतस्यापि कथा प्रवर्तते तत उच्यते 'कालमकासि पंडिते' यावत्कालं न करोति तावन्मानादिदोपरहितेन | भवितव्यं, स्यास्किल किमालंबनं कृत्वेति यतितव्यं ?, उच्यते 'दूरं अणुपस्सिया' वृत्तं ॥११५।। नाम दीर्घ अनुपश्यति तं धम्म| मणागतं, तथा धर्मः स्वमाय इत्यर्थः, वर्तमानो धर्मो हि कालानादित्वाद् दूरः, स तु अविरतत्वान्मानादिमदमत्तस्य दुक्खभूयिष्टोऽतिक्रान्तः, कि च इमेण खलु जीवेण अतीतद्धाए उच्चणीयमज्झिमासु गतिसु असतिं उच्चगोते असतिं पीयगोते होत्था, तथा च | अतीतकाले प्राप्तानि सर्वदुःखान्यनेकशः, एवमनागतधर्ममपि, अथवा दूरमणुपस्मिअत्ति ददं पस्सिय, अथवा मोक्षं दूरं पस्सिय दुर्लभवोधितां पस्सिय जात्यादिमदमत्तस्य च दूतः श्रेयः एवमणुपस्सिय इत्येवमादि अतीतानागतान् धर्मान् अनुपस्सिता 'अद्दे फरसेहि माणे' फरुसा नाम स्नेहवियुक्तैः वाचिकाः कायिकाचोपसर्गा क्रियन्ते, तत्र वाचिकाः आक्रोशहीलनाद्याः कायिकास्तु वधबंधनताडनाङ्कनच्छेदनमारणांताः, अथवा प्रतिलोमा फरसा, तैरुदीणः 'अवि य हण्णू' अपि हन्यमानाः अविहाणू यथा| LE ग्वन्धकशिष्याः , न तु खन्दकः, समयसि रीयति'त्ति यथा समयेऽतिदिष्टं तथा रीयते प्रसन्न इत्यर्थः, पठ्यते च 'अविहष्णू।। ७७ ॥ १X5 [81] Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], नियुक्ति: [४३-४४], मूलं [गाथा १११-१४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: भीसूत्रक प्रश्नसमा तादि प्रत सूत्रांक ||१११ वाझचूर्णिः ॥ ७८॥ १४२|| दीप अनुक्रम समयाधियासए'अस्यार्थ अविद्दण्णू-अविहन्यमानः सम्यक् अहियासए,अथवा अविहाणू इति हन्यमानो न हन्यात् किंचित्, अथवा धर्ममयोपदिशेत् स कीटकधर्मकथिक उच्यते, 'पण्णसमत्ते सया जए' वृत्तं ॥११३|| प्रच्छंति तमिति प्रश्नः यावत्प्रश्नान् परः पृच्छेत् तं व्याकर्तुं समर्थः, पठ्यते च-'पण्हसमत्ते सदाजए' समाप्तप्रश्न इत्यर्थः, सदाजएत्ति ज्ञानवान् अप्रमत्तथ, अयतस्य हि क्षीरं परिचिकित्सिकस्येव न वचः प्रमाणं भवति, उक्तं हि-"अद्वितो ण ठवेति परं" समिता णाम सम्मं धम्मं उदाहरेज, जहा पुण्णस्स कत्थति तथा तुच्छस्स कत्थति, 'सुहमे हु सया अलूसए' सुहुमो नाम स हि सुहुमेणवि अतिचारेण लूसिअति, कथयतो या सूक्ष्मेणापि आत्मोत्कर्पण परहीलया वा लूसिजति, पूयागारवसकारहेउं या कथयतो लूसेति, अहवा सुहुमेति सूक्ष्मवुद्धिः कथयेत् , अलूपकस्तु स एवमनाशंसी, न च मार्गविराधना करोति, अपरियच्छंते य परेण कुप्पेजा, योव कथणलद्धीसंपण्णतार माणी माहणो होआ, अथवा कथयंतो ण परं कोवये-अन्यतरं कपाय गमयेत् , स एवं 'बहुजणणमणमि संवुडे' वृत्चे ॥११७।। बहुजनं नामयतीति बहुजननामने, अहवा नभ्यते-स्तूयत इत्यर्थः, स धर्म एव, सर्चलोकोहि धर्ममेव प्रणतः, न हि कश्चित्परमाधार्मिकोऽपि ब्रवीति--अधर्म करेमि, तत्रोदाहरणं-सेणिओ राया, तस्स अस्थाणीए धर्मजिज्ञासायां के धम्मिया इति, ततो परिसदेहि भण्णति-दुल्लमा धम्मिया, पार्य अधम्मिओ लोओ, अभयो भषणति-लोगस्त भावपारण एस पडण्णा जहा वयं धम्मिया इति, परिसाए अमहतीए अभओ भण्णति-परिक्खामो, ततो रायाणुनाए सितासिताणि दुवे भवणाणि कारवेति, पउरजणवया भणिया-जे तुम्हें धम्मिया ते धवलं गिहं पविसंतु, अधम्मिया असियमिति, ततो ते मव्वे पउरजणा धवलगृहमगुपचिट्ठा, अधिगारिगेहि पुच्छिता-किं भयंतो धम्म करहिंति ?, तत्थेगो भणति-अर्थ करिस्सगो, तत्थ मे अणेगेहिं मउणसहस्सेहिं [१११ 1७८॥ [82] Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], नियुक्ति: [४३-४४], मूलं [गाथा १११-१४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक ॥१११ भीत्रक ताङ्गचूर्णिः ॥ ७९ ॥ १४२|| दीप अनुक्रम [१११ धण्णं उवजीविअति, अण्णो भणति-अहं वणिज्जो, कलोपजीवि भणो मे णिचगं भुजतित्ति, अण्णो भणति-अहं कुटुंबभरणपवितो बहुजनन मनादि किलेसभागी, किं बहुणा, सोयरियादयोऽवि कुलधर्मानुवर्तित्वाद्वयमपि धम्मिया, एवं धवलगिहमणुपविट्ठा, उक्तं च-"सोत| सुतघोररणमुह०" अथ तत्थ दुवे मावगा सकतमद्यपाननिवृत्तिकृतभना असितभवणमणुपविट्ठा पुच्छिता भणन्ति-सुसाहुणो सुमावगा य धम्मिया जे सया अपमत्ता, अम्हे पुण पमादिको स्वकृतमद्यपाननिवृत्तिकृतभंगा ण धवलगिहारुहा, अतो असित. भवणमणुपविट्ठा इत्येवं बहुजननमितो धर्म इति, तस्मिन् बहुजननमिते संवृतात्मा भवेदिति वाक्यशेषः, अन्ये त्वाः-बहुजननमनो-लोभः, सर्वो हि लोकस्तस्मिन् प्रणतः, असंयतास्तावत् सर्वे शब्दादिविषयप्रणताः, प्रमत्तसंयता अपि तेनैव केचित्प्रणताः, बीतकपायास्त्वप्रणताः, जे य जयणा अप्पमत्ता इति तेऽपि न प्रणताः, उक्तं च-'कोधस्स उदयणिरोधा वा उदयपत्तस्स या कोहस्स विहलीकरणं' एवं योगेन्द्रियाणामपि वक्तव्य, संयतो नाम विरतः निवृत्त इत्यर्थः, 'सबढेसु सदा अणिस्सिते ति सव्वेसु इंदियत्थेसु यावतो या असंयमार्थाः अथवा ऐहिकामुष्मिकेषु अणिस्मितो नाम नाकांक्षति 'हरदे व तुमे अणाइलो' हरदेत्ति, | महासमुद्रः, स हि तनादिमिः महामत्स्यैः स्फुरद्भिपि नाकुलजलो भवति, न क्षुब्धजल इत्यर्थः, पद्ममहापमादयो वा इदाः स्वच्छ| प्रसन्नगंभीरजला: गंभीरत्वादनाकुलाः, एवमसावपि पूर्वापरज्ञेयपरिशुद्धस्वच्छज्ञानवान प्रसन्नवाङ्मनाः न च परप्रवादिभिः शक्यते । विक्षोभयितु इत्यनाकुलः, क्रोधादीहि वा अणाइलो, अथवा अणाइल इति निरुद्धाश्रवः अनातुरो-न ग्लायति धर्म कथयन् , III 'धर्म मादुरकासति प्रादुः प्रकाशने स भगवान् आर्यमुधर्मः अण्णतरो वा गणधरो इद इवानाकुलः धर्म प्रादुरकार्षीत् , एवमन्येऽपि स्थविराः प्रादुरकार्षीत् प्रादुष्कुर्वन्ति करिष्यति च, कस्यपश्यार्य काश्यपः, स एवं लक्षणकं धर्म कथयति, तं च वा |||७९ ॥ [83] Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], नियुक्ति: [४३-४४], मूलं [गाथा १११-१४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: सुखप्रिय प्रत सूत्रांक ॥१११ UPT १४२|| दीप अनुक्रम [१११ श्रीसूत्रक- बहवो पाणा पुढो सिया' वृत्तं ॥११८ ॥ अथवोपदेश एवायं, बहवो प्राणा पुढो सिता, बहव इत्यनन्ताः, पृथक् पृथक् सिता वाङ्गचूर्णिः पुढोसिता, तंजहा-पुढविकाइयत्ताए०, तेषां तु प्रत्येकानन्तानामप्येको धर्मः समान एव, सुखप्रियत्वं 'समियं उवेहाए'चि ॥८ ॥ । समिता णाम समता, प्रत्येकाश्रयेऽपि सति अभीष्टसुखता दुःखोद्वेगता च समानमेतत् , अथवा समिया इति समं उवेहिताः जे मोणपदं उपढिए, मुनेरिदं मौनं, चिरमणं विरतिः तेषामतिपातादीनां अकासित्ति करिष्यसि, पापाड्डीनः पंडितः, का मावना ?, यथा तबैते इष्टानिष्टे सुखदुःखे एवं पाणाणमवि इत्येवं मत्वा विरतिं तेषामकासि पंडिते, स एव विरतात्मा धम्मस्स य पारए मुणी ' वृत्तं ॥११९|| धम्मो दुविहो-सुतधम्मो चरित्तधम्मो य, तयोः पारं गच्छतीति पारगः, श्रुतज्ञानपारंगतः चोदसपुन्बी, पारं को वा कांक्षति, एवं पारं गतः कांक्षति वा अकषायः, तस्य च चारित्रमधिकृत्यापदिश्यते, आरंभो नाम जीवकायसमारंभस्तस्यांते व्यवस्थितो, नारभत इत्यर्थः, जे य पुण आरंभपरिग्गहे वटुंति ममायति वा ते तं परिग्गहं णट्ठविणहूँ 'सोयंति य णं ममायणो' अलभ्यमाणमपि यथेष्टपरिग्गहं सोयंति णं ममाइणो, उक्तं हि-"परिग्गहेष्वप्राप्तनष्टेषु काङ्काशोको, प्राप्तेषु च रक्षणमुपभोगे वाs] पृत्तिः" णो लब्भति णियं परिग्गहंति अग्गिसामण्णत्ताए चोरसामण्णत्ताए णितओ ण भवति, अयमपरकल्पः तमिब, धम्मस्स य पारए मुणी, आरंभस्स य अन्तिअद्वितं सोयंति यणं ममाइणो अम्हे सुहिता, तुम्हं संतविभवोऽवि अतिदुकरं तवचरणं करेसि, जेणं ममायते तेषण ममायणो-मातापुत्रादयो णो लभंति परिग्गहंति, स तेषां नित्यं वशकः आसीदिति नित्यं परिग्रहः परः, ततस्तत्प्रत्ययकंगोलभति णितिय परिग्गह,अमुमेवार्थ नागार्जुनीया विकल्पयंति-सोऊण तयं उवहितं केयि गिही विग्घेण उहिता। धम्ममि इह अणुत्तरे, तंपि जिणेजा इमेण पंडिते'इह लोग दुहावहं विदा परलोगे य दुरंदुहावहं' ॥१२०॥ कृषिभृत RAHTIENTATIONRAPTITIPLEADITATISTIC SurNJALPramilar RANARDanimal १४ ॥८०॥ [84] Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], नियुक्ति: [४३-४४], मूलं [गाथा १११-१४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: दुःखा बहादि प्रत सूत्रांक ॥१११ १४२|| दीप अनुक्रम [१११ श्रीसूत्रक | चौरादीनां इहलोमे एव दुहावह धणं, उक्तं हि--अममा जनयंति कांक्षिता, निहिता मानसचौरज भयम् । विठ्ठति जना हि०" परताइन्चूर्णिः | लोकेऽपि च दुहं असाधनोपार्जनदुःखात् सुमहत्तरं दुःखं समावहतीत्यतो दुहादुद्दावहा, अथवा दुहादुहा वा पुनरनन्ते संसारे पर्य||८१।।। टन्तः शरीरादिदुःखं समावहंति 'विद्धंसणधम्ममेव या' अग्गिचौराद्युपद्वैः कालपरिणामतश्च विदंपणधम्ममेव या इत्येवं विद्वान् मत्वा को नाम आगारमावसे?, किंचान्यत्-पब्वइतेणवि न सत्कारवंदणणमसणाउ बहु मागितब्बा, उक्तं च तत्थ-'महता पलिगोह जाणिया०' वृत्तं ॥१२१॥ परिगोहो णाम परिवंगा, दब्वे परिगोहो पंको भावे अमिलापो बाह्याभ्यन्तरवस्तुपु, परस्परतः साधूनां जाबि बंदणणममणा सावि ताव परिगोहो भवति, किमंग पुण सद्दादिविसयासेवणं, अथवा प्रबजितस्यापि पूजासत्कारः क्रियते, किमंग पुणरायादिविभवासंसा ?,'सुहमे सल्ले दुरुद्धरे' सूचनीयं सूक्ष्म, कथं ?, शक्यमाक्रोशताडनादि तिति| क्षितुं, दुःखतरं तु वन्द्यमाने पूज्यमान वा विपयैर्वा विलोभ्यमाने निःसंगतां भावयितुं, इत्येवं सूक्ष्म भावशल्यं दुःखमुद्धर्तु. हृदयादिति वाक्यशेषः, इत्येवं मत्वा विद्वान् पयहेज संथ' सम्यक् स्तवः सतो वा स्तवः संथयो, नागार्जुनीयास्तु पठति-पलिमंथ महं विजाणिया जाविय बंदणपूयणा मह । सुहुम सल्लं दुरुद्धरं तंपि जिणे एएण पंडिए"एगे चरे ठाण आसगे' वृत्तं ॥१२२।। द्रब्ने एगल्लविहारवान् भावे रागद्वेषरहितो वीतरागः, ठाणं-काउस्सम्मो आसण-पीढफलगं भूमिपरिग्गहो वा सयणंति AFTणुवण्णो, एगो रागद्वेषदोमरहितो, सव्वत्थ पवादणिवादसमविसमेसु ठाणणिसीयणमयणेसु एगभावेण भवितव्य, णाणादिसमाहितो. चरेदित्यणुमतार्थे, भिक्खू 'उवहाणवीरिण' उपधानवीर्यवानिति तपोवीर्यवान् , 'बइगुत्तेति चयगुत्तिगहिता 'अझप्पसंखुडे'त्ति | मणोगुत्ती गहिता, पूर्वार्द्धन तु कायगुप्तिः । इदाणि जो सो एगल्लविहारी तं दृश्यघरे य णिकारणेण भण्णति-'णो पीहे ण याव [85] Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], नियुक्ति: [४३-४४], मूलं [गाथा १११-१४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: श्रीमत्रक- अपिधानादि प्रत सूत्रांक ||१११ ॥८२॥ १४२|| दीप अनुक्रम [१११ SaiRRESUNGEERSA ANHIPHATIRITUDRAPAR वंगुणे' वृत्तं ॥१२३॥ पिहितं णाम ढकियं, अवगुत्तदुवारिए सुण्णवरे वा भिन्नघरे बा, शूनां हितं शून्यं, शून्यं वा यत्राऽन्यो । न भवति, पुट्ठो ण उदाहरे वयिं, चत्तारि भासाओ सोसूण उदाहरति वयि, अवस्सं संचुज्झित्तुकामस्स वा एगनायं एगवागरणं | वा जाव चत्तारि, णिसीयणट्ठाणे मोतूण सेसं वसधि 'ण संमुच्छति'त्ति ण पमञ्जति, णो संथडे तणे तिण वा तणाई संथरेति, किमंग पुण कित्ति पोतिया ?, स एवं सरीरोवस्सयादिसु अप्रतिवद्धः अणियतवासित्वात् 'जत्यऽथमिते अणाइले वृत्तं ॥१२४॥ जस्थ से अत्थमिति मरो जले थले वा तत्थ वसति, अणाइलो णाम परीपहोपसर्गः नः समुद्रवत् नाकुलीक्रियते, समविसमाई ठाणसयणासणाई मुणीऽधियासए, न रागद्वेषौ गच्छेत् , तत्थ से अच्छमाणस्स 'चरगा अहवावि भेरवा चरंतीति चरकापिपीलिकामत्कुणधृतपायिकादयः भेरखा-पिशाचश्वापदादयः सरीसृपा-अहिमूपिकादयः सव्वे अहियासएत्ति, एवमन्येऽपि 'तिरिया मणुसा य दिबिया' वृत्तं ।। १२५ ।। तिरिया चतुर्विधा उवसग्गा तिविहाधि सेविया नामासेवित्वा अणुभूय 'लोमादीयपि ण हारिसे' लूयत इति लोमा लोमहरिसो दुधा भवति-प्रतिलोमैर्भयात् अनुलोमः प्रहर्पण हासतः, आदिग्रहणात् दृष्टिमुखप्रमादो दैन्यं था, 'सुन्नागारगते महामुणी' स तैभैरवैरप्युपसगैंरुदी]श्छिद्यमानो मार्यमाणो वा 'णो ताव मिकंग्च जीवितं' वृत्तं ॥१२६ ।। अनुलोमै, उदीण असंजमजीवितं ण वा पूयासकारं पत्थेज, तेनैवं जीवितमनाकांक्षता पूजासत्कारौ च, भयानके बाऽऽवसथे वसता 'अब्भत्थमुवति भेरवा' अभ्यस्ता नाम आसेविता असकद् असकृत्सहमानेन जाता उदिता आसेविता अभ्यस्ता इत्यतः उपेन्ति-उपयान्ति भयानकाः, पठ्यते च-'अप्पुत्थं उबैंति भेरवा' अल्पा न बहवः पिशाचश्वापदव्यालादयः जीविता|न्तयिका उति, शीतोष्णदंशमशकादयस्तु उदीर्णा अपि शक्याऽधिपोडमिति, अभ्यस्तचानिराजितवारणस्येव भैग्वा एव भवंति, ८२॥ [86] Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], नियुक्ति: [४३-४४], मूलं [गाथा १११-१४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक ॥११११४२|| दीप अनुक्रम [१११ श्रीमूत्रकHC तस्यैवं 'उवनीनतरस्स नाइणो' वृत्तं ॥ १२७॥ भिक्षोः धर्ममुपनीतः परीपहजयं वा, अयं चोपनीतः२ अयमनयोरुपनी-100 उपनीत तरादि ताङ्गाणिः ततरः ज्ञानदर्शनचारित्रेषु यस्यात्मा उपनीततरः स भवत्युपनीततरः, वायतीति त्राता, स च त्रिविधः-आत्म०पर उभयत्राता-जिन॥८३॥ कल्पिकाईद्गच्छवासिनः 'भयमानम्म विवित्तमासनं' इत्थीपसुपंडगविरहितं विवि आसनग्रहणादुपाश्रयोऽपि गृहीतः 'सामाइयमाहु तस्स तं' समभावः मामाइयं आहुः तस्स तं समभाष सामाइयं तस्सेवंगुणजातियस्स सामायिक, कतरं ?, चारित्तसामाइयं, आहु-उक्तवानिति तित्थकरो अजसुहम्मो वा सिस्साण कथेति. तस्य चारित्रधर्मः, किं करोति ?, यः आत्मानं भये न दर्शयति, न क्षुभ्यत इत्यर्थः, किंचान्यत्-'उसिणोदकतत्तभोयणो' वृत्तं ॥१२८।। उमिणग्रहणात् फासुगोदगं सोवीरगउण्होदगादीणि गहिताणि, तप्तग्रहणात् स्वाभाविकस्यातपोदकादेः प्रतिपेधार्थः, धर्मेण यस्यार्थः स भवति धम्मट्ठी, ही लजायां, असंयम प्रति हीर्यम्यास्ति स ह्रीमान् तम्य होमतः, स हि लोके शीतोदकं पिबन लजते, हीयत इत्यर्थः, तस्येवमप्रमत्तस्य आसतःसंमग्गि असाधु रायिहि' राजादिभिस्तम्यासाध्वी, कथं ?, रिद्धि दृष्ट्वा तं मा भून्मूछौं कुर्यात् , मुछेतच असमाधी भवति 'तधागतस्मविपत्ति वैराग्यगतस्यापि, अश्या यथाऽन्ये, यथा जिनादयो गता वीतरागं तथा सोऽवि अप्रमादं प्रति गतः, इदानि प्रमत्ता उच्यन्ते'अधिकरणकरस्म भिक्खुणो०' धृतं ॥१२९॥ अधिकरणं करोतीति अधिकरणकरः, 'प्रसय'ति शाक्रम्य परपरिभवात् संबंध स्नेहसंतति दारयति ततः दारुणं, 'अद्वे परिहायते ध्रुवं' अर्थो नामा मोक्षार्थः तत्कारणादीनि च ज्ञानादीनि परिहायति, "जं अजिय ममीखल्लएहि तवणियमबंभमइएहिं । मा हु तयं छड्डेहि य बहुतस्य सागपत्तेहिं ॥ १॥ एतेण कारणेणं अधिकारणं ण करेज संजते । M स्वपक्षपरपक्षाभ्यामितिवाक्यशेषः, तस्यैव अधिकरणमकुर्वाणस्य 'मीनोदगपरिदुगुंछिणो' वृत्तं ।। १३० ।। सीतोदगं णाम अवि [87] Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥१११ १४२ || दीप अनुक्रम [१११ १४२] श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः || 48 || “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [२], निर्युक्तिः [४३ - ४४ ], मूलं [गाथा १११-१४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: गतजीचं अफासुगं प्रती, प्रतिदुर्गुछति णाम ण पिवति, यो हि यन्न सेवति स तत् जुगुप्सत्येव, जहा धीयारा गोमांसमधलसुनपलंई दुर्गुछंति, न केवलं धीयारा गोमांसं दुगुंछंति, वदाशिनोऽपि जुगुप्संति, अप्पडिष्णो णाम अप्रतिज्ञः, नास्य प्रतिज्ञा भवति यथा मम अनेन तपसा इत्थं णाम भविष्यतीति, तंजद्दा-णो इहलोगङ्कताए तवं करोति० जहा धम्मिवयं भदन्ता, आलयाहारउवधिपूयाणिमित्तं वा अप्रतिज्ञः, लवं कर्म्म येन तत्कर्म भवति ततः आश्रवात् स्तोकादप्यवसक्कति, तस्यैवंविधस्य 'सामायिकमाहु तरस' जं तदेवास्य सामायिकं चरित्रसामायिकं, यत्कि १, न करोति, जं गिहिमचे असणं ण भक्खति, मा भूत् पच्छाकम्मदोसो, भविस्सति णट्टे हिते वीसरिते, स एव सीतोदगवधः स्यादिति । किं च 'ण य संखतमाहु जीवितं वृत्तं ।। १३.१ ।। नहि छिन्नतंतुवत् इदं जीवितं पुनः शक्यते संस्कतु, 'तथे'ति तेन प्रकारेण, वालजणो णाम असंयतजनः, प्रगल्भीभवति प्राणातिपातादिषु प्रवर्त्तमानो घृष्टो भवतीत्यर्थः, स एव वालः पापेषु कर्म्मसु प्रगल्भीभवन् तैरेव वाले पावेहि मज्जति हिंसादीहिं, तजणिएण वा कर्म्मणा मानभंडमिव मीयते पूर्यत इत्यर्थः, मार्यते वा संसारे, 'इति संखाय मुणी ण मज्जति' इति संस्कार्यते, एवं परि| गणय्य ण मज्जतिति-न यदं कुर्यात् न कुप्येत, मानाधिकार एव अस्मिन्नुदेशके वर्ण्यते, तेण इति संखाए मुणीण मञ्जति, क्रोधो | माने (मदो ) ऽपि गृहीतो, लोभस्तु 'छंदेश पलेति मायया' वृत्तं ॥ १३२ ॥ छंदो णाम लोभः इच्छा प्रार्थना, तेण छंदेण प्रलीयते यं प्रजाः वासु तासु गतिषु भृशं लीयते गच्छति, पय्यत च छष्णेण पलेति मायया' छंदेणेति डंभेगोवहिणा कूटतुलकूटमानादिभिः तथा हिंसादिषु कर्मसु प्रवर्त्तते दंभेणव, पलायितुमिच्छति कर्म्मबन्धात्, यथा मारतोऽवि य देवस्सुवरिं छुमति, महर्षिप्रणीतोऽयं मार्गः, तथा चित्तं न दूषयितव्यं इति, पापंडिनोऽपि शाक्यादयः छणेण पलायितुमिच्छति कर्म्मबन्धात्, तद्यथा-संघ [88] SA प्रतिजुगुप्सादि ॥ ८४ ॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], नियुक्ति: [४३-४४], मूलं [गाथा १११-१४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: कुकूटकादि प्रत सूत्रांक ॥११११४२|| दीप अनुक्रम [१११ श्रीसूत्रक HO संतगा ग्रामाः, दासीदासहिरण्यादि च ते उपासगसंता वा, भागवता त्रुवते-सव्यं देवो करेति, यथा छण्योण तथा लोभादिभिरपि वाचूर्णिः 'बहुमायेति उत्कंचणादि, पापंडिनोऽपि मायाचहुला कुकडेहिं लोअं उवचरंति, उक्तं हि-कुकुडसाध्यो लोको नाकुक्कुटतः अवर्तते किंचित् । तसात् लोकस्यार्थे पितरं (अवि) सकुकुटं कुर्यात् ॥१॥ चित्तप्रामाण्यं वर्णयन्ति, मोहो नामाझानं तेन प्रावृता छादिता इत्यर्थः, शासनाश्रितास्तु 'वियडेण पलेति माहणे भावेनेति वाक्यशेपः, तेनाकुडिलेनावि अविकुत्थितेनाजिम्हेन, कुतः | पलीयते ?, संसारात्, न केवलमात्मा शुद्ध्या पलीयते, बाह्येनापि पलीयते, तद्यथा-'सीउण्हं वयसाधियासए' सीते अप्राकृतः।। उष्णे आतापयति, अथवा सीता अनुलोमाः उष्णाः प्रतिलोमाः, वयसेति वाचा, यथा वयसा तथा मनसावि, एवं सेसिदियदनोवि, किंच-जं बहुपसणं तं गेहाहि चिट्ठते, 'कुजए अपराजिए जहा०' वृत्तं ॥१३३।। कुच्छितो जयः कुजयः घूतेण थोवं विढप्पति, यद्यपि अपराजितो अक्खेहि देवताप्रसादेन वा अक्खहितत्तेण वा अपराजितो तथापि कुत्थित एव जयः, अक्खापासगादिषु क्रीडाव्यवहाराः, अक्षदर्दीव्यति दिव्य, दिव्यं चास्यास्तीति दिव्यवान्-क्रीडावान् , जह सो दिव्यं च कडमेव गहाय, णो कलिं णो त्रेत णो चेव दावरं, उपसंहारः 'एवं लोगसि ताइणो' वृत्तं ।। १३४ ।। एवम्-अनेन प्रकारेण असिंहलोके पापंडलोगे वा 'ताइणो'त्ति आत्मपरोभवत्रायिणो-जिनतीर्थकरस्थविराः 'बुइते' उक्तः 'अयंति इमो जइधम्मो सुतचरित्तधम्मा य अनुत्तरे' बहुफले, अतुल्ये इत्यर्थः, 'तं गेण्ह हेतंति उत्तम तमिति तं धर्म गेण्हाहि इहलोए परलोए य हितं, इहलोए आमोसहिलद्धीओ परलोए सिद्धी देवलोगसुकुलपञ्चायादि, 'ते' इति तस्य आहे, कस्य निर्देशः, उत्तमः-प्रधानः, धर्म इति वर्तते, कडमिय द्यूतकरवत् सेसा तिणि आता, पासत्था अण्णतिस्थिया गिहित्था य, अबहाय-छोत्ता, को भवति ?, उच्यते, पंडितो भवति, कि ॥८५॥ [8] Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥१११ १४२|| दीप अनुक्रम [१११ १४२] श्रीसूत्रकृ ताङ्गचूर्णि ॥ ८६ ॥ “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [२], निर्युक्तिः [४३ - ४४ ], मूलं [गाथा १११-१४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: - एपा हि शब्दादीनां त्वम्परीपद एव गरीयान् अत एवोच्यते 'उत्तरमणुयाण आहिता' वृत्तं ॥ १३५ ॥ उत्तरा णाम शेषविषयेभ्यः ग्रामधर्म्मा एवं गरीयांसः, यथा मयाऽनुश्रुतं स्थविरेभ्यस्तैः पूर्वं श्रुतं पश्चात्तेभ्यो मया श्रुतं, उक्तं हि "सुखस्यातिरसः स्वर्गः, स्वर्गस्यातिरसः खियः । गवामतिरसः क्षीरं, क्षीरस्यातिरसो घृतं ॥ १ ॥ सर्व्व एव वा विषयग्रामधर्म्मः, अथवा उत्तराःशब्दादयो ग्रामधर्म्मा मनुष्याणां चक्रवर्तिबलदेव वासुदेव मंडलिकानां तेसु उत्तरेसुवि 'जंसि विरता समुट्ठिता' जासु इतिथगासु सम्यक् उडता समुत्थिताः, 'कासवस्स अनुधम्मचारिणो काश्यपो वर्द्धमानस्वामी काश्यपचीर्णानुचरणशीलाः कासवस्स अणुधम्मचारिणो, अथवा ऋषभ एव काश्यपः तेन चीर्णमनुचरंति यथोदिष्टं 'जे एत चरेंति आहितं वृत्तं ॥ १३६ ॥ जे इति अणुद्दिणिसे, जे अणुधम्मचरित्तं कुर्वन्ति, आहितं-आख्यातं केण १, 'णाएण महता' ज्ञातकुलीयेन महता इति ज्ञातृत्वेऽपि सति राजसूनुना केवलज्ञानवता च, महाँथासौ ऋषिव महर्षिः, अथवा मोक्षेसिणा, ते उडिता, उत्थिता नाम मोक्षाय, सम्यगुत्थिताः समुत्थिताः, न जमालिवत्, शाक्यादयोऽपि हि मोक्षार्थमभ्युत्थिताः, 'अन्योऽन्यं च सीदंतं सारंति धर्म्मत' इति धर्मे सीदंतं, अथवा धम्मियाए पडिचोयणाए, अथवा धर्मे सालितं स्खलंतं वा धम्मियाए पडिचोयणाए धम्मिएणं, पडोआरेणं, धम्मै सम्यवस्थित भूत्वा 'मा पेह पुरापणामए वृत्तं ॥ १३७ ॥ अमानोनाः प्रतिषेधे, मा प्रेक्षस्य, पुरा नाम पूर्व्वकालिए पुञ्चरतपुत्रकीलितादि, प्रणामयंतीति प्रणामकाः दुग्गतिं संसारं वा प्रति धर्मे स्थितं, संक्षेपार्थस्तु पुण्यकीलितं सुमरेजा, धम्मं वा प्रति प्रणामयेदात्मानं, उवधिं दव्ये हिरण्णादि भावोवधिं अट्ठविधं कम्मं, अभिमुखं कंखेज्जासित्ति अभिकंखे उवधिं धुणित्तए, मानाधिकारेनुवर्त्तमाने 'जे दूणतेहि णो णता' जे इति अणिदिडणिदेसे दुष्टं प्रणताः दूपनताः शाक्यादयः, ते हि मोक्षाय प्रवृत्ता अपि [90] स्पर्शानामुत्तमता ॥ ८६ ॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥१११ १४२ || दीप अनुक्रम [१११ १४२] श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णि ॥ ८७ ॥ “सूत्रकृत” अंगसूत्र- २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [२], निर्युक्ति: [ ४३-४४], मूलं [गाथा १११-१४२ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: - विषयेषु प्रणता रसादिषु, नेति प्रतिषेधे, आरंभपरिग्रहेषु ये न नता ते जानंति समाहितं त एवं ज्ञानवन्तः ये सम्यङ्मार्गाश्रिताः, न तु अज्ञानिनो, न वा समाधिं जाणंति, समाधिर्नाम रागद्वेषपरित्यागः, स एवं समाधिमार्गावस्थित, 'णो काधिऍ होजा संजते ' वृत्तं ॥ १३८ ॥ कथयतीति कथकाः अक्खाणगाणि गोयरग्गगतो अवस्सयगतो वा अप्रतिमानानि कथयति कथिकः, पासणीओ णाम गिहीणं व्यवहारेषु पणियगादिसु वा प्राश्निको, न भवति, अपाया तत्थ जो जिवति तस्स अप्पियं भवति, संपसारको नाम संप्रसारकः, तद्यथा इमं वरिसं किं देवो वासिस्सति णवत्ति, किं भंड अग्धिहिति वान वा १, उभयथापि दोषः, अधिकरणसंभवात्, अग्धिहिति णवत्ति, 'नचा धम्मं अणुत्तरं एवंविधेन न भाव्यं, कतकिरिओ णाम कृतं परैः कर्म्म पुट्टो अट्टो वा भणति शोभनमशोभनं वा | एवं कर्त्तव्यमासीत् नवेति वा, मामको णाम ममीकारं करोति देशे गामे कुले वा एगपुरिसे वा, किंच-अयं चान्यः कर्म्मविदालनोपायः, तद्यथा-'छण्णं च पसंस णो करे०' वृत्तं ॥ १३९ ॥ द्रव्यच्छन्नं निधानादि भावच्छन्नं माया, भृशं पसंसा-प्रार्थना लोभः | उक्कोसोमानः प्रकाशः-क्रोधः, स हि अन्तर्गतोऽपि नेत्रवक्रादिभिर्विकारैरुपलक्ष्यते, उक्तं हि "कुद्धस्स खरा दिट्ठी" य एवं कषायनिग्रहोद्यताः तेसिं सुविवेकः गृहदारादिभ्यो विवेको बाह्योऽभ्यन्तरस्तु कषायविवेकः, आहितं - आख्यानं, सुविवेगोत्ति वा | सुणिक्खतं वा सुपव्यजत्ति वा एगई, भृशं नता प्रणताः कुत्र नता १, धम्र्मे वा 'सुज्झोसितं 'ति जुपी प्रीतिसेवनयोः, धूयतेऽनेनेति धृतं ज्ञानादि संयमो वा येषां सुज्झोसितं स्वभ्यस्वं तेसिं सुविवेगमाहिते । स एवं विदालनामार्गमाश्रितः 'अणिहे स| हिते सुसंबुडे० ' वृत्तं ॥ १४० ॥ अनिहो नाम अनिहतः परीपस्तपःकर्म्मसु वा नात्मानं विधयति, ज्ञानादिषु सम्यगाहितः गाणादीहि ३ आत्मनि वा हितः स्वहितः, अथवा यस्त्रिगुप्तः स समाहितो, धर्मेण यस्यार्थः स भवति धम्मट्टी तबोवधाणवीरीय [91] | काथिकाद्य भावः 11 2011 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], नियुक्ति: [४३-४४], मूलं [गाथा १११-१४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: आत्म हितादि प्रत | श्रीसूत्रकसूत्रांक ||११११४२|| तानचूर्णिः ॥८८॥ दीप अनुक्रम [१११ संयुक्तः तवे वारसविधे, स एवं गुणजुत्तो 'विहरेज समाहितेंदिए' अनियतवासित्वं गृह्यते, समाहितो, निगृहीतेन्द्रियत्वं च, उक्तं हि-"सद्देसु य भद्दयपावएसु, सोतचिसय उवगतेसु । तुटेण व स्टेण व समणेण सया ण होयव्यं ॥१॥" एवं सेसिन्दियविसएसुवि, सात-किमर्थ एवं विधः प्रयत्नः क्रियते अतिदुःखश्च ?, उच्यते, 'आतहितं दुक्खेण लभते' तंजहा-'माणुस्सखेत जाती' गाथा ।। स्यात्-कथं अनादिमति संसारे अयमात्मा न पूर्वमेवानेन पथा प्रयात इति ?, उच्यते 'णहि गूण पुरा अणुस्सुतं.' वृत्तं ॥१४१॥ नेति प्रतिषेधे, हि पादपूरणे, नूनमनुमाने, पुरा इति क्रमात् अतिक्रान्तकालग्रहणं, अनुगतं श्रुतं अनुश्रुतं, किंच तत् ?, उच्यते, वक्ष्यते हि-मुणिणा सामाइयं पदं, अथवा मुणेत्तावि अवितह णो अधिद्वितं, अवितहं णाम यथावत् , अधिहितं णाम करणे, तदिदं मुनिना सामाइयं पदं आख्यात इत्यर्थः, समता सामाइय, तच्च अनेकप्रकार, कतरेण मुनिना तदाख्यातं ?, 'णातएण जगसव्वदंसिणा'जगे सच्वं पस्सति जगसव्वदंसी, एवं माता(मत्ता)महन्तरं०'वृत्तं ॥१४२॥ एवमधारणे, महन्तरं मत्वाज्ञात्वा, तत् कस्य कयोः केषां वा ?, उच्यते, सुत्तस्स य असुत्तस्स य, विरतीए अविरतीए, मोक्खसुहस्स संसारसुहस्स य सच्छासननयस्य मिथ्यादर्शनानां च, अथवा इमं धम्मं महत्तरं मत्वा कुप्रवचनेभ्यः, सहिता नाम ज्ञानादिभिः, बहवो जना इति अणंतातीतकाले सिद्धाः संपदं च, 'गुरुणो छंदाणुवत्तगा' गुरवा-तीर्थकरादयः छंद:-अभिप्रायः विरता भूत्वा विषयकपायेभ्यः तीर्णा भवौषं तरंति च, द्रव्योषः समुद्रः भावौयस्तु संसारः, आहितमाख्यातं कथितमित्येकोऽर्थः इति वैतालीये द्वितीयोद्देशकः२-२॥ सूयणाधिकारे प्रस्तुते विदारणाधिकारोऽनुवर्तते, उक्तं हि-'उद्देसगंमिततिए अण्णाणचियस्स अवचयो होहि । स च सुहसातस्स ण भवति, परीपहसहिष्णोर्भवति, स कथं ?, उच्यते 'संवुडकम्मस्स भिक्रतुणो' वृत्तं ॥१४३।। संवृतानि यस्य प्राणव ॥८८॥ | अस्य पृष्ठे द्वितिय अध्ययनस्य तृतिय उद्देशक: आरभ्यते [92] Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [३], नियुक्ति: [४३-४४], मूलं [गाथा १४३-१६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: असंहतादि प्रत सूत्रांक श्रीमत्रताजचूर्णिः ॥८९॥ ||१४३१६४|| दीप अनुक्रम [१४३१६४ धादीनि कर्माधि स भवति संवुडकम्मा, इन्द्रियाणि वा यस्य संवृतानि स भवति संवृत्तः, निरुद्धानीत्यर्थः, यस्य या यत्नवतः चंकमणादीनि कम्माणि संवृतानि, अथवा मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकपाययोगा यस्य संवृता भवति स संवृतका, मिक्खणसीलो मिक्खू, जमिति अणिद्दिवस्स णिदेसे, दुक्समिति कम्म, पुढ णाम बद्धपुट्ठणिधचणिकाइतं, अबोधिए णाम अण्णाणेण धम्म | अचुज्झमाणेणं, यावन्न ताव सुयुध्यते स तं संजमतो विवअति, तं पंचणालिविहाडिततडागदृष्टान्तेन, निरुद्धेसु च नालिकामुखेषु चातातापेनापि शुष्यते, ओसिबमाणं च सिग्धतरं सुक्खति, एवं संयमेण निरुद्धाश्रवस्य पूर्वोपचितं कर्म धीयते, आह-तपः अभ्य-| न्तरं, एवं उक्तः, दशप्रकारेन्द्रियादिसलीणता उक्ताः इंद्रियपडिसंलीनता जोगपडिसंलीणता कसायपडिसंलीणता, संवृनात्मकस्तु अनशनावमौदर्यादितपोयुक्तस्य उत्सिच्यमानमिवोदकं क्षिप्रं कापचीयते, सेलेसिं पडिवण्णो उकोसो संयुडो, मणुस्ससंतिय 'मरण हेच वयंति पंडिता' मोक्ख, अथवा म्रियते येन तन्मरणं, तच्च कर्म संसारो वा, तं हित्वा ब्रजति मोक्षं तेनैव भव| गहणेण ब्रजति तान् प्रतीत्यादिश्यते-'जे विष्णवणाहिं झूसिता' वृत्तं ॥१४४।। विज्ञापयति रतिकामा विज्ञाप्यन्ते वा मोहातुरैविज्ञापना:-स्त्रियः, जुपी प्रीतिसेवनयोः, अजुषिता नाम अनाद्रियमाणा इत्यर्थः, विज्ञापनासु हि पंचापि विषयाः स्वाधीना शब्दादयः, उक्तं हि-'पुष्फफलाणं च रसं सुराएँ मंसस्स महिलियाणं च । जाणता जे विरता ते दुकरकारए वंदे ॥१॥" संस्पृष्टा । वा ताभिः, कौमारब्रह्मचारिणः ते 'संतिण्णेहि समं वियाहिता सम्यक्तीर्णाः संवृतात्मानो भूत्वा संसारौयं तीर्णाः मोक्षं जिग| मिषयोऽपि हि अतीर्णा अपि तीर्णा इव प्रत्यक्सेयाः, विविधं आहिता वियाहिता 'तम्हा उइंति पासध' तम्हादिति तस्मात्कारणात् यस्माद्विज्ञापनासु अजुपिता संतिण्णा हि संमं वियाहिया, तीर्णमबन्धकत्वं च प्रति समाः, ऊर्द्धमिति मोक्षः तत्सुखं वा, तं [93] Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥१४३ १६४|| दीप अनुक्रम [१४३१६४५ श्रीसूत्रकतावचूर्णि ॥ ९० ॥ “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [ ३ ], निर्युक्ति: [ ४३-४४], मूलं [गाथा १४३ - १६४ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: कामभोगा द्रष्टव्या, एकार्बुदपरिश्रावणवत् व्रणालेपनबद्वा, पठ्यते च - 'उडूं तिरियं अधे तथा उई दिव्या कामा अधे भवणवासिणं तिरियं तिरिक्खमणुस्सजोणिवाणमंतरा, ते तिविधेवि य दृष्ट्वा कामाणि रोगवत् अधिकं अत्यर्थं वा, यथा रोगा दुक्खावा एवं कामा अपि, अदुविधकम्मरोगापत्तेः, सो भवति एवं, सेसावि आसवदाराणि जोएयव्वाणि, एवं संबुडत्तणं विरदं च कहं तरेज ?, दितो 'अग्गं वणिएहि आणियं वृत्तं ॥ १४५ ॥ यदुत्तमं किंचित्तदग्गं तद्यथा वर्णतः प्रकाशतः प्रभावतश्रेत्यादि, तब रत्नादि, तत्तु द्रव्यं वणिग्भिरानीतं राजानो धारयति तत्प्रतिमा वा तत्तु वखमाभरणादि वा तथैव चावो हस्ती स्त्री पुरुषो वा, यो वा यस्मिन् क्षेत्रे प्रधानं द्रव्यं धारयति, शब्दादिविषयोपगतः परिभुंक्त इत्यर्थः, राजस्थानीया जीवाः, जेहिं मिच्छत्तादि दोसे खवित्ता खयोव सममाणिता वा वारसविधा वा कसाया ते परमाणि महव्यतरयणाणि राईभोयणवेरमणछट्टाणि राजान इवाग्राणि रत्नानि वणिग्भिरानीतानि धारयंतीति अयं प्राधान्यं पूर्वदिनिवासिनामाचार्याणामयमर्थः, अपरदिनिवासिनस्त्वेवं कथयति - ते जे विष्णवणाहिं अजोसिता संतिष्णेहि समं विहायिता तेन सर्व्व एवायं लोकः महाव्रतानि प्रतिपद्यते, उच्यते, 'अगं वणियेहि आहितं', अम्गाणि चराणि रयणाति वणिग्भिरानीतानि धारयति शतसाहस्राण्यनर्थ्याणिवा राजान एव धारयति, तत्तुल्या तत्प्रतिमा वा कियन्तो लोकेऽस्ति वणिजः क्रायिका वा, एवं परमाणि महन्वयाणि रत्नभूतान्यतिदुर्द्धराणि तेषामल्पा एवोपदेष्टारो धारयितारथ, 'जे इह सायाणुगा णरा' वृत्तं ॥ १४६ ॥ जे इति अणिद्दिस्त गिद्देसे सायं अणुगच्छंतीति सायाणुगा - इहलोगपरलोग निरवेक्खा, एवं हड्डिरससायागारवेसु 'अज्योववण्णा' अधिकं उपपण्णाः अज्झोचवण्णा तस्मिन्नेव सोविंदयादिए इच्छामरणकामेसु वा मुच्छिता-गिद्धा गढिता अज्झोचवण्णा, 'किमणेण समं पगन्भिता' ते हि अइयारेसु पसजमाणा यदा [94] अग्रधारगादि ॥ ९० ॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [३], नियुक्ति: [४३-४४], मूलं [गाथा १४३-१६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: मलिनीभावादि प्रत सूत्रांक ||१४३ १६४|| दीप अनुक्रम [१४३१६४ परैश्चोयते तदावते-किमनेन स्वल्पेण दोपेण भविष्यति ?, वितथं वा दुप्पडिलेहितदुम्भासितअणाउत्तगमणादि, एवं थोचे थोवं| श्रीसूत्र | पावमायरंता पदे पदे विसीदमाणा सुबहून्यपि पायान्याचरति, उक्तं च-'करोत्यादौ तावत्सघृणहृदयः किंचिदशुभं०' दिट्ठतो जहा तागचूर्णिः | एगस्स सुद्धे वत्थे पंको लग्गो, सो चिंतेति-किमेत्तियं करिस्सतित्ति, तत्थेवाझवसितं, एवं वितियं मसिखेलसिंघाणगसिणेहादीहि ॥९ ॥ सव्वं मइलीभूतं, अथवा मणिकोट्टिमे चेडरूवेण सण्या बोसिरिता, सा तत्थेव घट्ठा, एवं खेलसिंघाणादीणिवि कताणि, किं करि| संतित्ति तत्थव तत्थेव घट्ठाणि जाव तं मणिकोट्टिमं सच्च लेक्खादीहि-श्लेष्मादिमिः मलिनिभूतं दुग्गंधिगं च जातं, भद्दगमहिail सोवि एस्थ दिलुतो भाणितब्बो, आचंलक्वो राया दिटुंतो य, एवं पदे पदे विसीदंतो किमणेण दुब्भासितेण वा स्तोकत्वाPAदस्य चरित्तपडस्स मलिणीभविस्मति जाव सब्यो चरित्तपडो मइलितो, अचिरेण कालेण चरित्तमणिकोट्टिमं वा 'णवि जाणंति समाहिमाहित' ते हि णिच्छयणयतो अण्णाणिणो चेव लभंति, पदे पदे विसीदत्तणा जया साधम्मिएहिं परहिं वा चोइता भवंति | तदा 'वाहेण जहा व विच्छ से' वृत्तं ॥१४७॥ वाहोणाम लुद्धगो तेण सरेण तालितो मृगोऽन्यो वा स तेण ताव परद्धो यावत् A श्रान्तचत्वारिवि पादे विन्यस्प व्यवस्थितः ततो मरणं चाप्तः, अयं तु सौत्रो दृष्टान्तः, बाहेण जहा बच्छते, वाहतीति बाहः शाकटिकोऽन्यो वा 'यथेति येन प्रकारेण तेन वाहेन विपमतीर्थश्रान्तो वा अवहन् प्रतोदेन विविध क्षतः, अबलो नाम क्षीणवला, भरोद्धहनं श्रान्तो वा, गरछतीति गौः, भृशं चोदितः, चोधमानोऽपि न शक्नोल्युद्वोढुं, जेण तस्य तहिं अप्पथामता'तस्येति तस्य | गोः तस्मिन्निति पासुनिकरे विषमे चा, अप्पथामया णाम जेण अवहंतो तात्तगप्पहारे सहति, जइ थामवं होन्तो तो ण तुत्तगप्पहारे सहतो, सच्चत्थाप्यचयंतो खलु से तीक्ष्णैः प्रतोदाग्रे तुद्यमानो अवसीदति, अथवा से 'अन्तए' अन्त्यायामप्यवस्थायां अन्तशः |||९१ ॥ [95] Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥१४३ १६४|| दीप अनुक्रम [१४३ १६४५ श्रीसूत्रकृ ताङ्गचूर्णिः ॥ ९२ ॥ “सूत्रकृत” अंगसूत्र- २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [ ३ ], निर्युक्ति: [ ४३-४४], मूलं [गाथा १४३ - १६४ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: - 'णातिए' ण सकेति, अवसो विसीदति, एवं सोवि संयमादिनिरुद्यमः 'एवं कामेसणा विदु' वृत्तं ॥ १४८ ॥ एवमवधारणे, उक्ता 'कामपणा' कामकाममार्गणा, विदुरिति विद्वान्, काम विपाकं विदन्निह परत्र च कामपिशाचपीड्यमानचिन्तयति 'अज्ञ सुए पयहामि संघ' संथवो नाम पुण्यावरसंबंधो तं संथवं अद्य श्वः परश्वो वा प्रहास्यामि स हि तं संथवं उत्सिसृक्षुरपि मुमुक्षुरपि कुटुम्बभरणादिदुःखैरेव हि विवक्षतो गौरिव न शक्नोति उत्सृष्टुं, अथवोपदेश एवायं एवं कामेसणं विदु' वृत्तं, एवमनेन प्रकारेण काम्यन्त इति कामाः, एपणा मार्गणैध, विदुरिति विद्वान्, नाविद्वान्, कुटुम्बभरणे दुस्त्यजान् मत्वा तत्र वा शक्नोति गौरिवावहन् तुयते कृषिपशुपाल्यादिषु च कर्म्मसु वर्त्तमानो बाध्यते, एवं बहुपायान् कामान् मत्वा अञ्ज वा सुते वा संथवं श्रुत्वा च संथवं 'कामी कामे ण कामए' कमणीयाः काम्यंते वा कामाः इन्भेसुवि जहा पण्डुमधुरुत्तरमधुराइ भाया संयोगविप्पयोगा, निमंतिखमाणो वा जहा कण्णाए य घणेण य णिर्मतियो जोव्वणंमि गहवतिणा । णेच्छति विणीतविणयो तं वइररिसिं णमंसामि ॥ १ ॥ अल-असंते पत्थेति उवजिणित्ता भुंजीहामि 'कण्डुइति क्वचित् ग्रामे वा पुरे वा, अथवा हीणोत्तममध्यमे उपदेशः क्रियते तेसु तेसु पमत्तस्स 'मा पच्छ असाधुता भवे' वृत्तं ॥ १४९ ॥ मा सेति इयं असाधुता, लप्स्यते नाम हिंसादिकर्म्मप्रवृत्तिः मरणकाले तप्यते, परत्र वा उक्त हि "जहा सागडिओ जाणं, सम्मं हेचा महापहं । विसमं मग्गमोतिष्णे, अक्खे भग्गंमि सोयते ॥ १ ॥ सोयए चैव बहु, अपत्थं आमकं भोच्चा, राया रखं तु हारए।" एवं ज्ञात्वा 'अचेही अणुसास अप्पगं' अतीव अतीहि अत्यन्तं क्रम इत्यर्थः, कुतः १ - प्रमादात्, आत्मानमेवात्मना अनुशास्ति, किंच 'अधियं च असाधु सोयती' जधा असाधुता तदा तहाऽधिगं सोयति, इहापि ताव चोराती असाघृणि कम्माणि काउं गहिता सोयंति, किमु परत्र १, सूतंति च शरीरादिभिर्दुःखैर्वाध्यमानाः शोचनं [96] कामैषणादि ॥ ९२ ॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [३], नियुक्ति: [४३-४४], मूलं [गाथा १४३-१६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: जीविताल्पत्वादि Al प्रत सूत्रांक ||१४३ १६४|| दीप अनुक्रम [१४३१६४ श्रीसूत्रक मानसस्तापः, निस्तननं तु वाचिकं किंचि, कायिकं च, सर्वतम्तप्यते परितस्तप्यते बहिरंतश्च, कायवाङ्मनोमि; बहुति-अपरिमाणं | बाङ्गचूर्णिः | पंकोसण्णनागवत् , किं च 'इह जीवितमेव पस्सधा' वृत्तं ॥९५०॥ 'इहे'ति इह मानुष्ये जीवति येन तत् जीवितं, एवमव॥९३॥ धारणे, तरुणगो णाम असंपूर्णवया वा अन्यो वा कश्चित् , पठ्यते च दुर्यले वा, वाससयं परमायुः ततो 'तिउद्दति छिद्यते प्रत्य पायबहुलात , वक्ष्यति हि-गब्भयमितिअतित्ति गन्भया, 'इत्तरवासं च बुज्झथा' इत्तरमिति-अल्पकालमित्यर्थः, तं चुध्यत अवगच्छत, एवमल्पेऽप्यायुपि बज्झपाये वा, तथापि नाम गृद्धा नरा कामेसु चिप्पित आक्रान्ता, न पुनरुत्तिष्ठति तदुल्लंघनाय, किंAlच 'जे इह आरंभणिस्सिता' वृत्तं ।। १५१ ॥ जे इति अणिदिट्टणिसे, इहेति इह मनुष्यलोके, पापंडिनोऽपी भूत्वा शाक्याMदयः आरंभे हिंसादि तण्णिस्सिता परदंडप्रवृत्ता आत्मानमपि दंडयंति, अथवा ण तेसिं इमो लोगो न परलोगो, तेनात्मानं दण्डमयंति, एगंतलूसगा' एगन्तहिंसगा इत्यर्थः, येऽपि स्वयं न घातयन्ति तेऽपि उद्दिश्यकृतभोजित्याद्वधनमनुमन्यन्ते, एवंविधा 'गंता ME ते पावलोगयं' गंतारो नाम गमिष्यन्ति, पापानि पापो वा लोगः नरकः, 'चिरकालं'ति बहूणि पलिओवगसागरोवमाणि, आसु रिका दम्वे भावे य, आमरियाणि न तत्थ मरो विद्यते, अथवा एगिदियाणं पास्थि जाव तेइदिया असूरा वा भवंति, दिसन्ति दिश्यत इति दिग् दिग्गहणादष्टादशप्रकारा भावदिक, एवं गिहिणो विव इत्थं आरंभणिस्सिता आतदंडा एगतलूसगाते, न खंतिया, 'ण य संखयमाहु जीवितं' वृत्तं ॥१५२।। असंस्करणीयं असंस्कृतं, उक्तं हि-'दंडकलितं करेन्ता यचंति हु राइणो य दिवसा है य। आयु संवेल्लेन्ता गता य ण पुणो णियत्तिन्ति ॥ १।। तहवि य णाम बालजणो हिंसादिषु पापकर्मसु प्रवर्त्तमानः प्रगल्भी भवति शृष्टीभवतीत्यर्थः, यदापि च पापकर्माण्याचरन् परेणोच्यते-किं परलोगस्स ण बीभेसि ?, ततो भणति-पच्चुप्पण्णेण का [97] Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥१४३ १६४|| दीप अनुक्रम [१४३१६४५ श्रीसूत्रकृ चूर्णिः ॥ ९४ ॥ Enta, Nurem “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [3], निर्युक्तिः [४३ - ४४ ], मूलं [गाथा १४३-१६४ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: रितं, को दर्द पर लोग मागते ?' प्रत्युत्पन्नेनैव सौख्येन कार्य, को हि दृष्ट्वा स्वर्ग मोक्षं वा तत्सुखं वा परलोकादायातः १, कथं वा साक्षादश्यमानः परलोकोऽस्तीत्यध्यवसेयः, उच्यते- 'अक्खुब दक्खु आहितं वृत्तं ॥ १५३ ॥ न पश्यतीति अदक्खु अदक्खुणा तुल्यं अदकखुवत्, दक्खू णाम द्रष्टा, दक्खूणा व्याहृतं दक्षुवाहितं श्रद्दधस्य, हे अदक्खुदंसणो!, योऽपि कार्याकार्यानभिज्ञो सोsपि अंध एव न दक्खुदर्शनी, 'हन्दि हि खु निरुद्धदंसणे' हंदीति संप्रेषणे, हि पादपूरणे, दृश्यते येन तद्दर्शनं, निरुद्धं दर्शनं यस्य स भवति निरुद्रदर्शनः, तत्केन ?, मोहनीयेन कर्म्मणा निरुद्धं, मिच्छादिट्ठी, एवं चारित्र निरोधेन चरित्ते अचरिते वा भावना, निरुद्धं तब ज्ञानं सन्निकृष्टं, केन ज्ञास्यसि परलोकं ?, अथवा निरुद्धमिति ज्ञानं तं न चक्षुर्दर्शनं, तत्कथं परलोकं द्रक्ष्यतीति, आत्मादीनि वाचाक्षुषाणि, 'दुक्खी मोहो पुणो पुणो वृत्तं ।। १५४ ।। दुःखमस्यास्तीति दुःखी तैस्तैर्दुःखैः पीड्यमानः पुनः मोहमुपार्जयति, मुज्झति जेण मोहिञ्जति वा स मोहः कर्मेत्यर्थः, संसारमनुपरीति, यतश्चैवं ततो 'निविंदेज्ज सिलोगपूयणं' सिलोगो नाम श्लाघा यशःकामता, पूजा आहारादिभिः, दोण्णिवि णिन्त्रिन्देज गरहेज, सकारपुरकारौ न प्रार्थयेदयमर्थः, 'एवं सहिते धिपासिया' एवमनेन प्रकारेण सहितो णाम ज्ञानादिभिः, अधियं पस्तिया आयतुले पाणेहि भविज्जसित्ति, यदात्मनो नेच्छसि तत्परेषामिति, योऽपि तावत् 'गारंपिअ आवसे परे ' वृत्तं ॥ १५५ ।। आगारत्वं, अपिशब्दार्थः सम्भावने, किमुतान गारत्वं, आवसतीत्यावसे, अनुपूर्व नाम पूर्वं श्रवणं ततो ज्ञानविज्ञाने संयमासंयमञ्च, इह तु संयमासंयमो अधिकृतः दुवालसविधं सावगधम्मं फासितो 'समया सवत्थ सुचते' समभावः समता तां समतां सव्वत्थ भावसमता, कडसामाइए हि सव्यत्य समतां भावयति, तदनु चाकृतसामायिकः, शोभनवतः सुव्रतः, 'देवाणं गच्छे सलोगतां' समानलोगत सलोगतं, [98] अदक्षदर्शनादि ॥ ९४ ॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [३], नियुक्ति: [४३-४४], मूलं [गाथा १४३-१६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: श्रावकदेवत्वादि प्रत सूत्रांक ||१४३१६४|| श्रीसूत्रकतामणिः ॥९५॥ दीप अनुक्रम [१४३१६४ विविक्कतवर्षभचेरदेवाणं सलोगतं, किं पुण जो महब्बयाई फासेति ?, यतश्चैवं श्रावका अपि देवलोकं गच्छंति जिनेन्द्रवचनानुशास्ताः, तेण 'सोचा भगवानुशासन' वृत्तं ॥१५६।। अनुशास्यते येन तदनुशासनं श्रुतज्ञानमित्यर्थः, अथवा अनुशासनस्यश्रावकधर्मस्य फले 'सचे तत्त्व करे उचकम' सत्ये-अवितथे सद्भयो वा हितं सत्यं सत्यवचनं नानृतं संयमो वा, तत्र कुर्यादुपक्रम, उपक्रमो नाम यथोपदेशः, अथवा सत्यमिति सत्यं, तत्थ करेज उवकमंति, न वितर्थ, 'सम्वत्थ विणीतमच्छरे' सर्वत्रेति सर्वार्थेषु येन विनीतो मत्सरः स भवति विनीतमत्सरः, मत्थरो नामाभिमानपुरस्सरो रोपः, स चतुर्दा भवति, तंजहाखेचे पडुच्च वत्थु पडुच्च उवधि पट्टच्च सरीरं पडुच, एतेसु सच्चेसु उत्पत्तिकारणेसु विनीतमत्सरेण भवितव्वं, तत्थ जातिलाभतपो| विज्ञानादिसंपन्ने च परे न मत्सरः कार्यः यथाऽयमेभिर्गुणैर्युक्तोऽहं नेति, तद्गुणसमाने च, दबुंछ उक्खल्लखलगादि भावुछ अज्ञा तचर्या, विशुद्धं नाम उग्गममादीहि कल्पितं 'आहरे' आदद्यात् , एवं 'सव्वं णचा अहिट्ठए धम्म' वृत्तं ॥१५७।। सर्व ज्ञेयं | यावत् शक्तिर्विद्यते तावदध्येयं, ज्ञात्वा च अकृत्यं न कर्त्तव्यं, कृत्यमाचरितव्यमिति, उक्तं हि-"ज्ञानागमस्य हि फलं०"अधिहुए धम्म, णाणादीणि वा, धम्मेण जस्स अत्थो स भवति धम्मट्ठी, तपोपधानवीर्यवान् , 'गुत्ते जुत्ते सदाजते'त्ति त्रिगुप्तः, जुत्तो णाम णाणादीहिं तवसंजमेसु वा सदा-नित्यकाल जतेत यत्नवात् स्यात् , कुत्र यतेत ?, तदिदमात्मपरे, आत्मनि परे च आतपरे, णो अत्ताणं अतिवातेज णो परं अतिवातेजिति, आत्मनः परं आत्मेसु वा परं, कि त ?, आयतार्थिकत्वं, अत्थो णाम णाणादि, आयतो णाम दृढग्राहः, आयतविहारकमित्यर्थः, 'वित्तं पसबो यणातयों' वृत्तं ।। १५८ ॥ वित्-हिरण्णादि पसबो| गोमहिसाजाविगादि णातयो-मातापितासंबंधिणो, बालजणो सरणंति मण्णती, एतान् घालजनः शरणं मन्यते, एते हि मां दुःखा [99] Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [३], नियुक्ति: [४३-४४], मूलं [गाथा १४३-१६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: अत्राणादि प्रत सूत्रांक ||१४३ १६४|| TAH दीप अनुक्रम [१४३१६४ श्रीसूत्र- परित्रास्यति इह परत्र च, तं च न भवति, कथं ?, इह तावत्-सयणस्सवि मज्झगतो रोगामिहओ किलिस्सए एगो । सयणोवि ताङ्गचूर्णिः य से रोग ण विरिंचिति णेव णासेति ॥१। सव्वणयहेतुसिद्धं अप्पाणं जाण णिच्छएणेकं' यथा ते मम न त्राणाय तथाऽहमपि न ॥९६॥ तेषां त्राणाय शरणं च, इतश्च न भवति शरणं, यतः 'अम्भागमियंसि वा दुहे' वृत्तं ॥१५९॥ अभिमुखं आगामिकं अभ्यागमिग-व्याधिविकारः, स तु धातुक्षोभादागंतुको बा, उपक्रमाजातमित्युपक्रमिक, अनानुपूा इत्यर्थः, निरुपक्रमायुः करणं, भवंतो नाम भवान्ते मरणमेव, का भावना ?, तद्धि यद्वालमरणं न भवति, जराकामायुपक्रमतो वा फलप्रपातवत् , तस्यैवंविधमृतस्य भाएगस्स गती च आगती' एकस्येति पशुज्ञातिहीनस्य, एवं विदुः मत्वा न तां वित्तपशुनातिं च शरणं मन्यते,'सब्वे सयक|म्मकप्पिया' वृत्तं ॥१६॥ सर्वे इत्यपरिशेषाः, स्वैः कर्मभिः कल्पिताः प्रविभक्तविशेषा इत्यर्थः, तद्यथा-पृथिविकायिकत्वेन०, कृती च्छेदने, न विकृतं अच्छिन्नमित्यर्थः, अवियत्तेन वा अधिगच्छंतेनेत्यर्थः, 'दुहिणे ति दुःखिनः प्राणिनो जीवा 'हिंडंति भयाकुला सढा' भयैः आकुल्ला भयाकुला, भयानि सप्त, भयानि वा दुःखं, तेणाकुलाः, सढा नाम तपश्चरणे निरुद्यमाः शठीभूतावा, पापक नेमिः ओतप्रोता इत्यर्थः, 'वाहिजरामरणेहि भिदुता'नारकतिर्यग्मनुष्येषु व्याधिः जरा तिर्यड्मनुष्येषु मरणं चतसृष्वपि गतिषु, 'इणमो खणं वियाणिया वृत्तं ॥१६१॥'इणमोत्ति इदं क्षीयत इति क्षणः, सतु सम्मत्तसामाइयादिचतुर्विधस्यापि, एकेकः । | स चतुर्विधो खणो भवति, तंजहा-खेत्तखणो कालखणो कम्मखणो रिक्खखणो, एते चत्वारिवि जहा लोगविजए पढमे उद्देसए 'खणं जाणाहि पंडिए'त्ति सुत्ते भणिता तथा भणितव्वा, विविधं जाणिया विजाणिया, 'णो सुलभं बोधी य आहित' बोधी णाणाति तिविधो आहितमारव्यातं,उक्तं च-"लद्धेल्लियं व बोधि अकरतोऽणागयं च पत्थंतो। अण्णं दाई बोधि लम्भिसि कयरेण मोल्लेणं ॥१॥" audita [100] Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [३], नियुक्ति: [४३-४४], मूलं [गाथा १४३-१६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: Avil ज्ञानादिसहितत्वादि श्रीसूत्रक प्रत सूत्रांक ॥९७॥ ||१४३ १६४|| दीप अनुक्रम [१४३१६४ | विराहितसामण्णस्स हि दुल्लभा बोधी भवति, अब९ पोग्गलपरियट्टं उकोसेणं हिंडति, एवं सहितेहि पस्सिया' एवं मत्वेति ताडचूर्णिः। वाक्यशेषः, णाणातीसहितो अधिया(वा)सए परीसहे, पठ्यते च एवं सहिते अधिया(वा)सए' अधिया वासए अधिवासए, यदुक्तमेवमेतत् , क एवमाह-'आह जिपणे इणमेव सेसगा' रिसभसामी भगवं अट्ठावए पुत्तसंचोहणत्थं एवमाह इदमेव, जे वाऽजिताद्याः | शेषका जिनाः ते पाहुः, किमतिक्रान्ता अनागताश्चैवं जिनाः कथितवन्तः कथयिष्यति च', ओमित्युच्यते 'अभविंसु पुरापि भिक्खयों' वृत्रं ।।१६२ ।। अभविष्यन्नतिकान्ताः भिक्षव इति आमन्त्रणं, 'आएसावि भविंसु सुवता' आदेशा इति आग| मेस्सा 'एताई गुणाई आहिते' एते ये उक्ता इदाध्ययने अप्रमादादिगुणा सिद्धिगमणसफला काश्यपो उसभस्वामी बद्धमाणस्वामी वा अनुगतो अनुकूलो वा अनुलोमो वा अनुरूपोबा धर्मः अनुधर्मः काश्यपस्यानुचरणशीलाः, द्विधा समासः क्रियते-कासवो जं अणुधम्मं चरति जो वा कासवस्स अणुधम्मं चरंति ते च गुणा उक्ताः, पुणरपि चोच्यन्ते-'तिविधेणवि पाण मा हणा' वृत्तं ॥१६२ ।। त्रिविधेन योगत्रयकरणत्रयेण, प्राणाः आयुःबलेन्द्रियाः प्राणाः ते मा हण आत्मनोऽहितं, अणिदाणो ण दिब्यमाणुस्स| एसु कामभोगेषु आसंसापयोगं करेति, इंद्रियणोइन्द्रिएसु संवुडो, 'एवं सिद्धा अणंतगा' एतं मग अशुपालित्ता अतीतकाले अणंता सिद्धा, संपतं संखेजा सिझंति, अणागते अर्णता सिज्झिस्संति, अवरे नाम ये वर्तमाना आगमिष्याश्चेति, 'एवं से उआहु अणुत्तरणाणी अणुत्तरदंसी ॥१६४॥ एवमवधारणे 'स' इति सो उसभसामी अट्ठाणउतीए सुताणं 'आह' कथितवान् , अणुत्तरणाणी अणुत्तरदंसी अणुत्तरमाणदंसणधरो, एतेण एकत्वं णाणदसणाणं ख्यापितं भवति, 'अरहा णायपुत्ते पूजादीनहतीत्यहन नास्य रहस्यं विद्यते वा अरहा ज्ञातस्य पुत्रः, णातकुलपसते सिद्धस्थखत्तियसुते भगवान्-ऐश्वर्यादियुक्तः, वैसाली [101] Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [३], नियुक्ति: [४३-४४], मूलं [गाथा १४३-१६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: उद्देशार्थाधिकारः सूत्रांक ||१४३१६४|| दीप अनुक्रम [१४३१६४ श्रीमत्रक- एचि गुणा अस्य विशाला इति वैशालीयः, विशालं शासन वा इक्ष्वाकुवंशे भवो वैशालीया, 'विशाला जननी यस्य, विशाल ताङ्गचूर्णि: कुलमेव वा । विशालं [प्रवचनं चास्य, तेन वैशालिको जिनः ॥१॥'वियाहितों व्याख्यातः, इति-एवं जंबूस्वामिनः वृद्धभगउप०१ वानार्यसुधर्मा कथयति-एवं से उदाहु जाव वियाहितो, 'इति:' परिसमाप्ती, अथवा एवमर्थः, एवं इति बेमि, सुधम्मसामिस्स ॥९८॥ वयणमिदं, भगवता सर्वविदा उपदिढ अहमवि घेमि, नयाः पूर्ववत् ।। इति चैतालीयाख्यं द्वितीयमध्ययनं समाप्नं।। इदाणी उपसग्गपरिणत्ति अज्झयणं, तस्सवि चत्तारि अणुयोगदारा परूवेयव्या, अधियारो दुविधो-अज्झयणत्याहियारो उद्देसत्याधियारो य,अज्झयणथाधियारो सब्चे उबसग्गा जाणिवा सम्मं अधियासेतवा,उद्देसत्याधियारो पढममि य पडिलोमा ITAगाथा ।। ४९॥ पढमे उद्देसए पडिलोमा जहा पुढे दंसमसएहिं तणफासमचाइता आयपरतदुभयसमत्था उवसग्गा भणंति. वितिए तु मायादि अणुलोमा उवसग्गा अण्णे य रायमादी पाएण अणुलोमे उक्सग्गे उप्पायति, ततिए उद्देसए अज्झत्थविसेसोबदसणं A भणिहिति, के जाणंति विउवातं? इत्थीओ उदयाओ वा, परवादी वयणं संबुद्धा समकप्पाओ अण्णमण्णेहि मुच्छिता परसमयिका परतिस्थियभाविता य उपसग्गा उप्पाएन्ति, हेउसरिसेहिं' गाथा ॥५०॥ चउत्थुद्देसए हेतुसरिसा अहेतू भण्णिहिति, जहा मंथवई णाम सीलक्खलितकुतित्थिया एवं परूविन्ति हेत्वाभासादि, अहेतवो भूत्वा हेतुमिवात्मानमाभासयंति हेत्वाभासस्स 'समयपडितेहिं ससमयजोगेहिं, जो तेसिं समया जुञ्जमाणया णिउणा भणिता, अथ आयरिओ मसमयपडितेहिं णिउणेहिं दिढ़तेहि तेसिं सीलखलियताणं अण्णउत्थियाणं पष्णवणं करेति चउत्थे, एवं दुविधोऽवि अत्याहियारो भणितो । इदाणिं णामणिप्फण्णो णिक्खेवो. तत्थ गाथा 'उवसगंमि य छक०' गाथा ॥ ४५।। णामठवणाओ तहेव, वइरित्तो दव्योवसग्गो दुविधो-चेतनदव्योवसग्गो य अस्य पृष्ठे तृतिय अध्ययनस्य आरभ्यते [102] Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥१६५ १८१|| दीप अनुक्रम [१६५ १८१] श्रीसूत्रक्रवाजचूर्णिः ।। ९९ ।। “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [१], निर्युक्ति: [ ४५-५५], मूलं [गाथा १६५ - १८१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: | अचेतनदधोवसग्गो चेतनदन्विगं जं तिरक्खमणुआ णियगसरीरावयवेण आहणंति, अचेतणदब्बिगं तं चैव लउडादीहिं, अथवा अभिघातो तडिमादि उचरिं पडति, अथवा उवसग्गो दुविधो- आगंतुगो पीलाकरो य, आगंतुगो चउप्पदलउडादीहि, वातियपेत्तियादि, खेत्तोवसग्गो 'जं खेत्तं बहु ओघभव' गाथा ॥ ४६|| ओघो बहुगं उप्पण्णं बहुपसग्गो, जहा बहुउवसग्गो लाढाविसयो, जहिं भहारगो पविट्ठो आसि छउमत्थकाले सुणगादीहि तत्थ विद्धम्मा खर्वेति, ओहभयं भवति जहा भरहवासे, कालोवसग्गो एगंत दूसमा, सीतकाले वा सीत परीसहो वा निदाघउसिसिणकाले उणपरीसहो वा, एवमादि कालोवसग्गो भवति, भावोवसग्गो कम्मोदयो, सो पुण दुविधो-ओहतो उवकमतो वा, ओहतो जहा णाणावरणं दंसणमोहणीयं असुभणामं जियागोतं अन्तरायिकं कम्मोदयितं, उनकमियं जं वेदणिजं कम्मं उदिज्जति । 'दंडकससत्थरज्ज्' गाथा 'उवकमिए संजमविग्धकारए० ' गाथा ॥ ४७ ॥ जे संजमा उबकामेन्ति उवसग्गा तेहिं अहिगारो, जेण वा दव्वेहि वा तं कम्मं उदीरिजति, जेण संजमाओ उबकमा विजति | तेणवि अधियारो, ते चउन्विधा- दिव्या तिरिक्खजोणिया माणुस्सा आयसंवेतणिया, दिव्या चउव्विधा -हासा पदोसा बीमंसा पुढोवेमाता, मणुस्सावि चउन्त्रिधा -हासा पदोसा वीमंना कुसीलपडिसेवणता, तिरिया चउन्विधा-भया पदोसा आहारा अवचलेणसाश्वखणता, आयसंवेतनीया चउन्विधा-घट्टणता लेसणता भणता पवडणता, अथवा वातिता पेनिया संभिया सन्निवाइया, एवं | 'एकेको चउविहो०' गाथा || ४८ || अडविहो कई होति १, एक्केको अणुलोमो पडिलोमो य, अथवा सच्चेऽवि सोलसविधा उवसन्गा, चत्तारि चकगा सोलस भवति, एवं उवसग्गा जाणितच्चा जाणणापरिण्णाए, पञ्चक्खाणपरिण्णाए अधिआसेतव्या, परिहरंतेण तहा तहा घडितव्यं परकमियव्यं जहा परीसद्दा णिज्जेति । गतो णामणिष्फण्णो । सुत्ताणुगमे सुतमुच्चारयच्वं, 'सूरं अस्य पृष्ठे तृतिय् अध्ययनस्य प्रथम उद्देशक: आरभ्यते [103] उपसर्गभेदादि ॥ ९९ ॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥१६५ १८१|| दीप अनुक्रम [१६५ १८१] श्रीसूत्रचूर्णि ॥१००॥ “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [१], निर्युक्ति: [ ४५-५५ ], मूलं [गाथा १६५- १८१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: मण्णति अप्पाणं० 'सिलोगो ॥ १६५॥ कचित्संग्रामे उपस्थितो स्वाभिप्रायेण सूरमित्यात्मानं मन्यमानो वाग्भिर्विस्फूर्जपतिप्रति जाव जेयं ण परसति, जियति जिनाति वा, गर्जते कलभस्तावद्, घनमाश्रित्य निर्भयः । गुहान्तरविनिष्क्रान्तं यावसिहं न पश्यति ॥ १ ॥ तावद्गजः प्रश्रुतदानगंडः, करोत्यकालांबुदगर्जितानि । यावन्न सिंहस्य गुहास्थलीपु, लाङ्गूलविस्फोटरव शृणोति ॥ २ ॥ दिरिसणं 'जुज्झतं दृढं धनुर्यस्य स भवति दढधन्वा तं 'सिसुपालो व महारधं' मधारथो-केसवो शिशुपालेन तुल्यं शिशुपालवत् स किल माद्रीसुतः चतुर्भुजो जातः, भीतया पश्चात् तथा नैमती पृष्टः- किमिदं रूवं १, तेनापदिश्यते - महाद्भुतमेतत् यं दृष्ट्वाऽस्य एतौ द्वौ भुजौ स्वाभाविको भविष्यतः ततोऽस्य मृत्युरिति, ततः सा माद्री दारकजन्मवर्द्धापकानामागतानां तं दारकं दर्शयति स्म, यथा च पादेष्वपातयत्, वासुदेवस्य चागतस्य तमालोक्य तौ भुजौ नष्टौ पचाचस्य मात्रा वासुदेवोऽभयं याचितः तेनापदिश्यते - अपराधशतमस्य क्षमयिष्यामि, ततोऽसौ प्रवृद्धं वासुदेवं समक्षं परोक्षं वा गोपालवत्सपालादिमिराक्रोशैराकुष्टवान्, आज्ञाप्रतिषेधादीयापराधान् कृतवान्, ततोऽपराधशते पूर्णे कचिदेव अभिमुखमापतंतं आक्रोशतं मत्पथोऽसर्पस्व इति, नाहमपथा गच्छामि, अल्पेनैवायासेन चक्रधुक् सुदर्शनं चक्रधारातिपातेन शिरश्छिन्नं कृतवानिति परोक्षो दृष्टान्तः, अयं तु प्रत्यक्षः 'पयाता सूरा रणसी से० ' वृत्तं ॥ १६६ ॥ भृशं याताः प्रयाताः शयति शय्यते वा शूरः, महत उकिट्ठिसीहणात बोलकलकलसद्देणं प्रयाताः, रणसीसं णाम अग्गाणीकं, समस्तं ग्रास्यते ग्रस्यन्ते वा तस्मिन्निति संग्रामः, उपस्थितो णाम अन्योऽन्यचलेषु संग्रामायोपस्थितेषु माता पुत्तं ण याणाति, अमातापुत्री यदा संग्रामो भवति, का भावना १, तस्यामवस्थायां माता पुत्रं मुक्तं उत्तानशयं क्षीरहारमजंगमं भयोद्धान्तलोचना अच्चादण्णा ण याणाति-नापेक्षते, न त्राणायोथमते, हस्तात्कटीतो वा अस्यमानं भ्रष्टं वा [104] शिशुपालवृत्तादि ॥१००॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [१], नियुक्ति : [४५-५५], मूलं [गाथा १६५-१८१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: अष्ट श्रीसूत्रक प्रत सूत्रांक ताल्चूर्णिः ०१॥ ॥१६५१८१॥ दीप अनुक्रम [१६५१८१] वा न जानीते 'जेतेण परिविच्छिते' जयतीति जेता अतस्तेन जेत्रा, तेण जयएण, परि सव्यतो भावे समंता वाणादिभिरायु-01 धर्मादि धेस्तैः कृतः परिविच्छिते, सब्बतो छिण्णमित्यर्थः, एवं सेहेवि अप्पुढे' सिलोगो ॥१६७।। अपुट्ठो णाम अप्पुट्ठधम्मो, अस्पृष्टो VA वा परीपहै:, अदृष्टधर्मा इत्यर्थः, मिक्खूणं चरिया भिक्खुचरिया, कोविदो विपश्चित् न कोविदो अकोविदो, न तावत्परिपहो| पसर्गः विकोविदः, सो पव्ययंतो चिंतेइ भणति य-किं पयजाए दुकर काउंति ?, किं णिच्छ्यिस्स दुकरं ?, णणु सीहवग्घेहिवि समं जज्झिाति, संगामे य पविसिञ्जति, अग्गिपडणं च कीरइ, एवं अदिट्ठपरीसहो सूर मण्णति अप्पाणं तपःशूर, जहा दन्य-10 A संगामे कुंतासिवाणगहणेसु, युद्धे उपट्टिते केई परबलसई सोऊण चेव णस्संति, केइ प्रवृते प्रहताः अप्रहता वा, केइ मारिअंति, AV एवं भावसंग्रामेऽवि सूर मण्णति अप्पाणं जाव लूहं ण सेवएत्ति, रूक्षः-मंजम एव, रूक्षत्वात् तत्र कर्माणि न श्लिष्यति, रूक्ष पटे रजोवत् , तत्र केचित् दृष्टैच साधून जल्लादीहिं लिप्ताङ्गान् केचिदर्द्धकृते लोचे केचित्परिसमाप्ते केशान् उत्स्रष्टुं गतास्तत एव यांति, उक्ता ओघउपसर्गाः । इदाणिं विभागशः उपदिश्यन्ते, तत्थोवसग्गा परीसहा य एगं चेव काउं उवदिस्संति 'जदा हेमंतमासम्मि' सिलोगो ॥१६८ ॥ यत्रातीव शीतं भवति वर्षवईलादयो वा तीब्रवाता भवंति, वातग्रहणात् सीधवग्धविरालोपा| ख्यान, यथा पोसे वा.माहे वा 'तत्थ मंदा विसीदति' तस्मिन् काले तत्र मंदा उक्ताः, विविधं सीदंति विसीदति, अहो इमा | सुदुक्करा पव्या, वहयो परीसहोवसग्गा विसधितब्बा, ते एवं चिंतेतासीयाभिभूया 'रहहीणा व खत्तिया' जहा परवलेण उच्छा| दिते रहे हितसारे य परवलकने विलुप्यमाने वा, खत्तिओ णाम राया, सो जहा सोयति, एवं सेहोऽवि गिरग्गिगे रण्णे गुत्तावगुत्तावसधीसु मीतामिहुतो विचिंतेति-किमेवंविधाए पयजाए गहियाए, भणितो सीतपरीसहो, एष एवोपसर्गः, तत्पुरुषोऽयं ॥१ [105] Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥१६५ १८१|| दीप अनुक्रम [१६५ १८१] श्रीसूत्रताङ्गचूर्णिः ॥१०२॥ “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [१], निर्युक्ति: [ ४५-५५ ], मूलं [गाथा १६५ - १८१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: समासः । तदिदानीं उण्हपरीसहोऽपदिस्सति 'पुट्ठो गिम्हाभितावेणं' सिलोगो ।। १६९ || अभिमुखं तापयतीति अभितापः, अशोभनमनाः विमनाः कर्पूरवासितोदगं कंधराघरादि वा चिंतेंतो, अथवा तपं प्रति विगतं मनोऽस्य स भवति विगतमनाः, पातुमिच्छा पिपासा, सुछु पित्रासितो 'मच्छा अप्पोदर जहां' तदल्पत्वादतीय तप्यन्ते बहिरुदकतापेन अंतथ मनस्तापेन तप्यमानाः यथा सीदन्ति एवनसावपि जलमलखेदक्लिन्नगात्रो वहिरुष्णाभितप्तः शीतलान् जलाश्रयाद्यान् धारागृहाणि चन्दनादीश्रोणप्रतीकारान् अनुसरन् भृशं अनुशोचते व्याकुलचेता भवति, बुत्तो उष्णपरीसहो । इदाणिं जातणापरीस हो- 'सदा दत्तेसणा दुक्खं' सिलोगो ॥ १७० ॥ सदेति सव्वकालमविश्रामेन दत्तग्रहणात् जातितं दत्तं च, जाइयदत्तमध्येसणीयं च दुक्खं खुधातिसाभिभूतेहिं तं परिहरितुं, दुक्खं च पडिसेहिजति अणेमणिअं साम्प्रतसुखाभिलाषी पड़प्पण्णभारिओ जीवो दितगा य रूस्संति 'जायणा दुप्पणोलिया' दुःखं प्रणुद्यते जायणा बलदेववत् वत्तारो य भवति-कम्मत्ता दुब्भगा चैव० कृषी पशुपाल्यादिभिः | कर्मान्तरैरार्त्ता अभिभूता इत्यर्थः, स्त्रीमित्रज्ञातिखामिनां दुब्भगा इति, आहुः पृथक् पृथक् जनो विस्तरा वा जनाः पृथग्जनाः, 'एते सद्दे अचाअंता' सिलोगो ॥ १७१ ॥ शब्दयते अनेनेति शब्दः, अचाएंता णाम अशक्नुवन्तः सोढुं क्कोदीर्यन्ते १, उच्यते, | 'गामेसु नगरेसु वः' वा खेडविकल्पे कब्बडादीसुवि, 'तत्थ मंदा विसीदति संगामंमि व भीरुणो' भीरुवो हि संग्रामे प्राप्ते मरणभयाद्विषीदंति, ऊरू खंभाइजंति, खिन्नचित्ता भवंति, 'अप्पेगे खुज्झि (ग्भिते) भिक्खू' सिलोगो ॥ १७२॥ अपि एके, न सव्वे, खुज्झितो णाम क्षुधितः पिपासुर्या, तं क्षुत्तृष्णाप्रतियोगार्थमटतं 'सुणी दंसती'ति सुणी लूपयतीति लूपकः भक्षक इत्यर्थः, 'तत्थ मंदा विसीदंति' संयमोद्यमं प्रति सीदंति, दिद्रुतो 'तेऊपुट्टा व पाणिणो तेजोनाम अग्निस्तेन दवाग्निना [106] अमितापादि ॥१०२॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥१६५ १८१|| दीप अनुक्रम [१६५१८१] श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः ॥ १०३ ॥ “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [१], निर्युक्ति: [ ४५-५५], मूलं [गाथा १६५ - १८१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: अन्यतमेन वा तेजसा शशमूषक मार्जारकोल वृकक्षुपकलतावितानवृक्षादयो दह्यमानाः संकुचंति, प्राणिनोऽपि दहमाना विसीदति । 'अप्पेगे पडिभासंति' सिलोगो ॥ १७३ ॥ समन्ताद्भापन्ते परिभाषन्ते, पथ्यतेऽनेनेति पंथाः पन्थानं प्रति योऽन्यः पन्थाः स प्रतिपथः प्रतिपन्था वा तेन गच्छतीति प्रातिपथिकः तं गामानुगामं रीयंतं केइ पाडिपंथगाः पडिभासंति, अथवा यो यस्य विलोमकः स तस्य प्रातिपथिको भवति, ते, न तु सर्वे एव कुतीर्था सन्मार्गविलोपकाः, कथं १, अणुसोयपट्टिए बहुजणंमि, साधवो हि प्रतिश्रोतसा मोक्षममि प्रस्थिताः कुतीर्थास्त्वनुश्रोतसा, किं भाषते - 'पडियारगया एते' करणं कृतिर्वा कारः कारं प्रति योऽन्यः कारः प्रतिकारस्तं गताः पडियारगताः, पडियाई कम्माई वेदंति, एते हि अण्णाए जातीए पंथा उच्छ्ढा तेण निड़णा हिंडति ण य दत्ताई दाणाई तेन न लभंति, लद्धेऽपि य ण गेव्हंति, ण चोदगाणि दत्ताणि तेण ताणि ण पिवंति, 'जे एते एव जीविणो 'ति जे एतेवं जीवणसीला, तंजहा कंजिगउसिणोदगादीहिं अन्ताहारेण जीवंति, पठ्यते च-'तदारवेयणिज्जे ते' जेहि चैव दारेहिं कितं तेहिं चैव वेदिजतित्ति तद्दारवेद णिअं, जहा अदत्तदाणा तेण ण लभंति, सेसं तहेव । 'अप्पेगे वई जुंजन्ति ॥ १७४ ॥ अप्येके, न सर्वे, वाचं जुजंति वाचमुदीरयन्तीत्यर्थः, अहो एते 'चरगा पिंडोलगा' पिंडेसु दीयमानेसु उल्लेति पिंडोलगा, अधमजातयः ब्राह्मणा उत्तमाः क्षत्रियाः वैशा मध्यमाः शूद्रा अघमाः, ब्राह्मणस्य किल मिक्षा इष्टा क्षत्रिये कृषी, अवशेषास्तु अवलगन्ति-क्लेशं कुर्वन्ति तेन तत् पिण्डोलगाः, मुण्डेत्यशिष्टाः खेदमलमत्कुणादिभिः खाद्यमाना अङ्गुलीनखशुक्तिशलाकादीनां कण्डुइतमगैः विणडुंगा 'उबजलंति' उवचितजल्ला मलसकटाच्छादिताङ्गत्वात्, उज्जयंति वा, पठ्यते च-उज्जाओ मृगो, नष्ट इत्यर्थः, उज्जातमृगसमाः 'असमाहितं'ति अशोभना विवृताङ्गत्वात् अथवा असमाहिता- दुःखिता एवं विप्पडिवण्णेगे० ' ।। १७५ ।। [107] प्रतिपन्थि कादि ॥१०३॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥ १६५ १८१|| दीप अनुक्रम [१६५१८१] श्रीसूत्रकृ चूर्णिः ॥१०४॥ “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [१], निर्युक्ति: [ ४५ - ५५ ], मूलं [ गाथा १६५ -१८१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: सिलोगो, एवमनेनप्रकारेण न सम्यक् प्रतिपन्नाः विप्रतिपन्ना एगे मिध्यादृष्टयः, स्वयमजानकाः न च ज्ञानवतां शृण्वन्ति, अज्ञानं हि तनो, ते ततो अण्णाणतमातो तमन्तरं या याइ, उक्कोसकद्वितीयं मोहणिजं कम्मं बंधंति, एवं णाणावरणिजं दंसणावरणिजं, एगिंदियाइयाइस या एगंततमासु जोणीसु उववअंति, निबंधकारेसु वा णरएसु, बुद्धीए मंदा मोहो- अण्णाणं पाउता छण्णा, अथवा मतिमंदा इत्थिगाओ य, मंदविण्णाओ स्त्रीमोहेण उक्ताः शब्दाः। इदाणिं फासा 'पुट्ठो य दंसमसएहिं' सिलोगो ॥ १७६॥ सिंधुतामलिचिगादिसु विसएस अतीव दंसगा भवंति, अप्रावृतास्तैः भृशं बाध्यमानाः शीतेन च अत्थरणपाउरणडुताए तणाई सेवमाणा तेहिं विज्ांति, अचाइया अधियासितुमिति वाक्यशेषः, इदं च दुःखमधिसह्यते यदि नाम परः लोकः स्यात्, स च 'न मे दिट्ठे परे लोए, किं परं मरणं सिया' न हि मयाऽन्येन वा साक्षात्परलोको दृष्टः यन्निमित्तं क्लेशः साते, क्लेशान् सहमानस्य हि परं मरणं सिया, तदप्यनिष्टं, मरणमिहेच्छेत् यद्यसौ परलोकः स्यादिति, संदिग्धे तु परलोके किं दुःखेन तपसा तेनेत्ययमदर्शनपरीपहोपसर्गः, किंच 'संतत्ता केसलोएणं' सिलोगो || १७८ ।। समस्तं तप्ताः लिश्यन्त एमिराकृष्टा इति क्लेशाः, दुःखभीरवो हि क्वचित् केसलोयपराजिता विप्पडिवज्र्ज्जति तेषां स एवोपसर्गः, 'बंभचेरं' इत्थिपरीसहो तेण पराड़ता - उवसग्गिता अणुवस ग्गिता वा 'तत्थ मंदा विसीदति मच्छा पविडा व केयणे' केयणं णाम कडवलसंठितं, मच्छा पाणिए पडिणियत्ते उत्तारि|ज्जंति इत्यर्थः, खुडमादी, तत्थ ते पविट्ठा वरागा सोयंति विसीदंति-परिघोलंति जया व पाणियं णिधुलितं । 'आयदंडस मायारा' सिलोगो ॥१७८॥ आत्मानं दंडयितुं शीलं येषां ते भवंति आत्मदंडसमाचाराः, मिच्छतसंठिता भावणा जेसिं ते भवंति मिच्छासंठितभावणा, ते तु कथमात्मानं दंडयंति ?, उच्यते, ते साधून दृष्ट्वा हर्षात्प्रदोषाद्वाऽपि पिट्टेति जहा सो पुरोहितपुत्रः, केयिति [108] तमोsन्त रादि ॥१०४॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत श्रीसूत्र सूत्रांक ताङ्गचूर्णिः ॥१६५- | ॥१०५॥ १८१|| दीप अनुक्रम [१६५ १८१] “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [१], निर्युक्ति: [ ४५-५५ ], मूलं [गाथा १६५ - १८१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: ण सब्बे, लूयति अक्कोसंति पिट्टेति य अनार्या दसणादीहिं। 'अप्पेगे पलियंतंमि' सिलोगो ॥ १७९ ॥ वा अपि एके, न सर्वे, 'पडियेनं समंतादतं परियन्तं कस्य १, देशस्य तस्मिन् २ देशपर्यन्ते केचिद्भापते-चारिकोऽयं चारयतीति चारकः, येषां परस्परवि| रोधः ते चारिकमित्येनं संवदंते, चोर वा तं 'सुवयंपि' संगतं - शोभनं व्रतं. संकिता वा णिस्संकिया वा भूत्वा बंधन्ति भिक्षुयं बालाः, जहा गोसालो बद्धो आसीत्, 'कसायवसणेहि यत्ति तत्पुरुषः समासः द्वन्द्वो वाऽयं सभावत एव केचित्साधून दृष्ट्वा कमाइअंति, बसणं केसिंचि भवति, कप्पडिंगा पासंडिया वा होंति, णचाचेति चा, तेष्वेव पर्यन्तेषु मध्यदेशेषु वा कंचि रियमानं कविद्वालो 'तत्थ दंडेण संवीते' सिलोगो ॥ १८० ॥ दंडो णाम खीलो दंडप्पहारोवा, मुट्ठी मुट्ठीरेब, फलं-चवेडाप्रहारः संगीत :- संग्रहत इत्यर्थः, 'णातीणं सरती वालो' जड़ णाम णातयो कंपि एत्थ होत्था भातिमित्तादयो नाहमेवंविधां आवर्ति | पावेंतो 'इत्थी वा कुद्धगामिणी' जधा सा अर्थकारितभट्टा, कुद्धा गच्छतीति कुद्धगामिणी जहा सा 'एते भो फरुसा | फासा' सिलोगो ॥ १८१|| फरुमा नाम स्नेहवियुक्तैरुदीरिता, दुक्खं अधियासिर्जति दुरधियासमा अप्पसतेहिं ते अणधियासे| माणा हत्थी वा सरसंवीतः शम्प्रहारैरित्यर्थः, यथा रौद्रसङ्ग्रामे हस्तिनः शरसंवीता नश्यन्ति, एवं भावसंग्रामादपि परीसहपरायिता क्लीवा, 'बराका' नाम परीप वराकाः पुनरपि गृहं गच्छति गमिष्यंति च, पठ्यते च 'तिवसढगा गता गि' ति बेमि, तीव्रं | शढाः तीयशदा तीचैव शठाः तीव्रशढाः, तीबैः परीपः प्रतिहता । इति तृतीयस्योपसर्गाध्ययनस्य उद्देशः प्रथमः ||३-१॥ म एव उपसर्गाधियारो अणुवत्तत एव 'अथेमे सुहुमा संगा' सिलोगो ।। १८२ ॥ 'अथे' त्यानन्तर्ये पडिलोमोबसम्मा गता, इदाणि अणुलोमा उक्तं हि पदमम्मिय पडिलोमा णाती अणुलोमगा वितीयमि' । सुहमा णाम निउणा, न प्राणव्यपरो अस्य पृष्ठे तृतिय् अध्ययनस्य द्वितिय उद्देशक: आरभ्यते [109] ACASA--- पर्यन्तोप द्रवाः ॥१०५॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [२], नियुक्ति : [४५-५५], मूलं [गाथा १८२-२०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक ॥१८२२०३|| श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः ॥१०६, अनुलोमोपसगों दीप अनुक्रम [१८२२०३] एच पणवत् स्थूरमूर्तयः, उपायेन धर्माच्यावयंति, उक्तं हि-शक्यं जीवितविघ्नकरैरप्युपसर्गेरुदीर्णैः माध्यस्थ्यं भावयितुं, अणुलोमा पुण पूजासकारादयः मिक्खूणं दुरुत्तरा भवंति, वक्ष्यति हि 'पातालवदुरुत्तरा' सज्जते यत्र स सङ्गः, संगोत्ति वा विग्घोत्ति वा वक्खोडित्ति वा एगट्ठा, अल्पसचाना दुस्तरा, नतु सञ्चवतां,'जत्थ मंदा विसीदंति' मंदा उक्ता, विसेसेण सीयंति च, चएत्ता णाम असर्किता जवइत्तएत्ति वा लाढित्तएति वा एगट्ठा, 'अप्पेगे णातयो दिस्स'सिलोगो ॥१८३॥ अपिः पदार्थसंभावने, एके, न सर्वे, ज्ञातयो-मातापित्रादि पव्ययंत पुवपब्वइतं वा दट्टण रुयंति, किध?, कवणकरुणाणि, 'नाधपियकंतसामिय०' परिवारिया दव्यतो भावतो य, वयं वृद्धा कर्मासहिष्णवः तदिदानीं पोसाहिणे, आबाल्यात् पुट्ठो मदादिभिः, पिता ते थेरओतात "सिलोगो ॥१८४|| तात ! इत्यामत्रणं, उक्तं हि-"पिता ते स्थविरो तात !, वयं च गतयौवनाः । न च तत्कर्म जानामि, यानात्यपरो जनः ॥१॥" त्वां हि मुक्त्वा(गतः)अस्यां दशायां कोऽन्यः पोपयिष्यति ?, तं तु सद्भावतो ते कौतुकाद्वा, अन्येष्वपि पुत्रेषु विद्यमानेषु ब्रवीति-पोसणे तात! पुट्ठो सि, कस्स णाम तुम अम्हे अणाहाई परिचयसि, किंच-कश्चिद् जनैः सुहृद्भिवा निष्काममेवमुपदिश्यते-'पिता ते थेरतो तात!' थेरगो दंडधरितग्गहत्थो अत्यन्तदशां प्राप्तः, युक्तं त्वयि जीवमाने मल्लपिंडमडतो?, कथं च तव धर्मः स्यात् अस्मिन्विलवमाने ?, वसा नाम ते भगिनी, सा य खुडुल्लिया भद्र, वृहत्तमा कन्या वा, कोऽस्या निर्वहर्ष करिष्यति ?, एवमादीणि कार्यसहस्राणि संताणि असंताणि वा उदीरंति, भायरोत सगातात!' अवंतीति श्रवा-आणाउववायवयणणि से य चिट्ठति, समानोदराः सोदराः, सोदरग्रहणात् अन्येऽपि ताव एकपित्रादयो छडिजंति सुई, न तु सोदराः। 'मातरं पितरं' सिलोगो ॥ १८५॥ मातापितरौ हि सुश्रूपाहावेताविदानी पुष्णाहि, एवं लोको भविष्यतीत्ययं परथ, अस्मिंस्तावद्यशः कीर्तिश्व ॥१०६॥ [110] Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥१८२ २०३|| दीप अनुक्रम [१८२ २०३] श्रीसूत्रकृ ताम्रचूर्णिः ॥१०७॥ “सूत्रकृत” अंगसूत्र- २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [२], निर्युक्ति: [ ४५ - ५५], मूलं [ गाथा १८२-२०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: - भयति मङ्गलं च, उक्तं हि - 'गुरवो यत्र पूज्यन्ते, यत्र धान्यं सुसंभृतम् । अदन्तकलहो यत्र तत्र शक 1 वसाम्यहम् || १||' परलोकश्च भवति गुरुशुश्रूषया एते हि पदीवत्थिया समणगा भवंति जे मायापितरं सुसुस्संति, तेण तेसिं गुरुपडिणियाणं क्रतो लोगो धम्मो वा भविस्सति ? ।। किं चान्यत्- 'उत्तरा मुहुरुल्लाया' सिलोगो ।। १८६ ।। उत्तरा नाम प्रतिवर्षमुत्तरोत्तरजातकाः समघटच्छि अगाः, पठ्यते 'इतरा मधुरोल्लावा' इतरा णाम खुट्टलगा अव्यक्तमहुरोल्लावकाः 'पुत्ता ते तात ! खुडुगा' तात इत्यामंत्रणं, | खुट्टगत्ति अप्राप्तवयसः अकर्मयोग्या या 'भारिया ते णवा तात' भरणीया भार्या, नवा नाम नववधूः अप्रसूता गर्भिणीवा, | मा सा अण्णं जणं गमेज, उन्भामए वा करेज, जीवंतए तुमंमि अण्णं पतिं गेण्हेजा, ततो तुज्झ अद्वीतीया भविस्यति, अम्हवि य जणे छायाघातो अण्णओ जणे भविस्सतीति, किंच-जो जहा पुण्यमासी तस्म हि म एव उवमग्गो पायो भवति, येनान्यथा त्रवीति, तद्यथा-यः कृष्यादिकर्म्मपराजितः तं दृष्ट्वा ब्रुवते 'एहि ताव घरं जामो' सिलोगो ॥ १८७ ॥ जाणामो जहा तुमं अतिकम्मा भीतो पव्वतो, इदाणिं वयं कम्मसमत्था, कम्मसहायगा य कम्मसमत्था, कम्मसहायगा य कम्मसहायकत्वं प्रति भवतः, तदिदानीं कुमारः प्रति भण्ण-ण चंप गोणिवि, इत्थेण मा छिवा, णि तेण वा उक्खिवाहित्ति, दूरगतं च णं दट्ठूण भणति - आसण्णं वा गृहमागच्छ, 'वितियंपि तात ! पासामो जामो ताव सयं गि' वितियंपि तात ! पासामो स्वे गृहे तिष्ठन्तमिति वाक्य| शेषः, बितियंपि तात्र पेच्छामु सव्वाई नियलगाई। 'गंतुं तात पुणो गच्छे' सिलोगो ॥ १८८ ॥ गत्वा स्वजनपक्षं दृष्ट्वा पुन| रागमिष्यसि न हि त्वं तेनाश्रमणो भविष्यसि, यस्त्वं स्वजनमवलोकयित्वा पुनरायास्यसि 'अकामं ते परकमं' को नाम अणिच्छिओ 'परकमंतं'ति परिजायंतं अथवा यदा त्वं परं प्राप्य निष्णातो भविष्यसि भुक्तभोगत्वात् तदा अकामकं पराक्रमंत [111] मातृशुश्रूपादि ॥१०७॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [२], नियुक्ति : [४५-५५], मूलं [गाथा १८२-२०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: wittalth प्रत सूत्रांक श्रीसूत्रक ताङ्गचूर्णिः ॥१०८॥ मानशु. श्रूपादि ||१८२ २०३|| दीप अनुक्रम [१८२२०३] 'को तं वास्तुमरिहति' धरेतुं कं वा । पच्वइयगं भणंति-जं किंचि अणगं तात! तंपि सबं समीकतं' उत्तारियंति वा विमोक्खितं वा एगहुँ, हिरण्यं ववहाराओ, जो वा णियगो खीणभंडमुल्लो पन्यइओ तं भणंति-हिरण्यं ते कताकतं दासामो, आदि1 ग्रहणात् सुवण वा भंडमुलं वा दासामो जेणेव बवहरिस्ससि, व्यवहारार्थ व्यवहाराय, अपि पदार्थादिपु तच ते दासामो, अन्यच यद्वक्ष्यसि, 'इचेवं णं सुसिक्वंतं'सिलोगो ॥१८९।। साधुक्रिया सुट्ठ सिक्खंतं सुसिक्वंतं पाठान्तरं सुसेहिंति वा-उस्सिक्खावेतीत्यर्थः, 'कालणतो उवहितं ति कलुणाणि कंदंता य रुयंता य णिरिक्खंता य तं उबसग्गेति, समुट्ठिता उप्पब्बावेत, स च तेहिं णाणाविधेहिं 'वियरो णातिसंगेहि, ततो गारं पहावती'गारं नाम अगारत्वं, भृशं वा धावति पधावति । किंचान्यत् 'वणे जातं जहा रुक्वं' सिलोगो ॥१९०॥ कंठर्य, एवं परिचिट्ठ(वेद)ति द्रव्यतो भावतश्च परिवेढणं असमाधीएत्ति, तं तं भणति करेंति य येनास्यासमाधिर्भवति, अथवा अमाधुताते द्रव्यतो भावतश्च स तैः करुणादिभिः 'विचढे णातिसंगेहि हत्थी वावि णयग्गहो।।१८२।। कंचित्काल कासारोच्छुखंडादिभिरनुवृत्त्य पश्चात् आहारप्रहारैर्वाध्यते, तेऽप्येनं पुनर्जातमिव मन्यमानाः तस्यामिनवानीतस्य पिट्ठतो परिसप्पंति, को दृष्टान्तः ?,'सूतिगोव्व अदूरतों' यथा तदिनमतिकागृष्टिवत्सकस्य पीतक्षीरस्य इतश्चेतश्च परिधावतो ईपदुन्नबालधिः सन्नतग्रीवा रंभायमाणा पृएतोऽनुपप्पति, स्थितं चैनं उल्लिखति, अदूरतोऽस्यारस्थिता स्निग्यदृष्ट्या निरीक्षते, एवं बंधवा अप्यस्स उदकसमीपं चान्यत्र वा गच्छंत मा णासिस्सिहित्ति पिट्ठतो परिसपते, चेडरूवं वदे, मग्गतो देन्ति शयनमासीन चैनं स्नेहमिवोद्विरत्या दृष्ट्या अदरतो निरीक्षमाणा अवतिट्ठते । 'एते संगा मणुस्साणं' सिलोगो ॥१९३।। एते । इति ये उद्दिष्टाः, सञ्जते येन स संगः, मनुष्याधिकार एव वर्चते तेन मनुष्यग्रहणं, पाताला नाम बलयामुखाद्याः, सामयिकोऽयं ०८. [112] Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [२], नियुक्ति : [४५-५५], मूलं [गाथा १८२-२०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: साति श्रीसूत्रक संगादि प्रत सूत्रांक ||१८२२०३|| ताङ्गचूर्णिः ६१.९॥ दीप अनुक्रम [१८२२०३] रष्टान्तः, उभयाविरुद्धस्तु पातालः समुद्र इत्यपदिश्यते, न तारिमा अतारिमा न शक्यते चाहुभ्यां तर्तुमिति, कीवा' कातरा जत्थ | 'विसपणेसी विसणं एसतीति विसण्णेसी 'णातिसंगहि मुच्छिता' विसण्णा वा आसंति, विसण्यणसिं णातिसंगेहि मुच्छिता, अथवा कीवा जत्थावकीसंति, अपकृप्यन्ते मोक्षगुणातो धम्मातो वा, किंणिमित्तं णातिसंगेहि मुच्छिता?, 'तं च भिक्खू परिण्णाय सबै संगा महासवा' सिलोगो ॥१९४॥ तदिति यदेतदुक्तं अथवा तमुपसर्गगणं दुविधाए परिणाए परिण्णाय, सच्चे इत्यपरिशेषाः, संगा एव महांति कर्माण्याश्रयंतीति । 'अहिमे संति आवटा' सिलोगो ॥१९५ ॥ अहो दैन्यविस्मयामंत्रणेषु, अथवा इमे संति आवट्टा, अधेत्यानन्तर्ये, इमे वक्ष्यमाणाः, संतीति विद्यन्ते, द्रव्यावर्ता नदीपूरो, भावावर्ता यैः प्रकारैरावर्तन्ते संयममीरवः, कासवेण पवेइता-प्रदर्शिता इत्यर्थः, 'बुद्धा जत्थावसप्पन्ति' बुद्धा दुविधा-दव्वे भावे य, दब्बे णिहायुद्धा भावे णाणातियुद्धा, अवसर्पन्ति नाम अवगच्छंति, सीदति अबुधा जहिं।। किंच यः कश्चित्संयतः कस्सति रण्णो पुत्तो वा अरायवंसिओवि कोऽपि रूवसंपण्णो विजामंतकलागुणसंपण्णो वा, तंजहा-'रायाणो रायमचा य' सिलोगो ॥ १९६ ।। रायाणो चक्कवट्टिमादी, तत्थ बंभदत्तेण चित्तो निमंतिओ, रायमचा-इस्सरतलवरमाड विगादि माहणा-भट्टा खत्तिया नाम गणपालगा गणभुत्तीए वा भ्रष्टराज्या, जे वा अरायाणो अरायचंसिया णिमंतयंति भोगेहिं 'भिक्खुयं साधुजीविणं'ति साधुविहीए फासुएण पडोआरेण जीवतित्ति साधुजीरी, अथवा साविति प्रशंसायां, शोभनेन जीवनेन जीवतीति, संयमजीवितेनेत्यर्थः, के च ते भोगा?, इमे, 'हत्थस्सरहजाणेहि सिलोगो ॥ १९७ ॥ हथिअस्सरहादीणि पसिद्धाणि, जाणाणि सीदासन्दमाणिगादीणि, तं पुण जले थले य, जले णावादि, थले सीतासंदमाणिगादी, बिहारगमणा इति-उजाणियागमणाई, चशब्दादन्यैश्च श्रोत्रादिभिः [113] Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥१८२ २०३|| दीप अनुक्रम [१८२ २०३] श्रीसूत्रताङ्गचूर्णिः ॥११०॥ “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [२], निर्युक्ति: [ ४५-५५ ], मूलं [गाथा १८२ - २०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: इन्द्रियक्षमैर्विपयैर्यथेष्टतः 'भुंजा हिमाई भोगाई' इमानीति विद्यमानानि प्रत्यक्षाणि वा महरिसित्ति, एवमपि असावस्माभिरन्यैर्वा पूजनीयच, किंचान्यत्-तमेवं णिमंतयंति 'वत्थगंधमलंकार' सिलोगो ॥ १९८ ॥ वत्थाणि - अयिणगादीणि गंधा कुष्ठादयः अलंकारा-हारादयः, स्त्रियः अहं ते धृतं भगिणीं वा देमि, अण्णं वा जं इच्छसि, सयणाई अत्युतपच्चुत्थुताणि, चशब्दात् लोदीलोहकडाहकडच्छुगादीणि सन्चो घरोवक्खरो, सहीणे जारिसो चैव मम परिच्छतो तारिसं चैव दलयामि तेनोपचितो भुंजाहिमाई भोगाई मया विधीयमानानि, आउसो ! पूजयामि ते, साम्प्रतमेभिर्वस्त्रादिभिः पूजयामि, पूजयीध्यामथ त्वं, सर्वसच्चवशयिता भविष्यसि, किं चान्यत्-न च तवासाभिरभ्यर्थ्यमानस्य कृततपः प्रणाशो भविष्यति, कथं ?, 'जो तुमे नियमो चिण्णो' सिलोगो ।। १९९ ।। इंदियोईदिएहिं चीणों-कृतः भिक्खुभावमि उत्तमो भिक्खुभावो णाम पन्वआ. उत्तमो असरिसो, अगारमावसंतस्स ससो चिती, तथा संवियते वा न विनश्यतीत्यर्थः, लोकसिद्धमेव समुक्कयस्स विपुलत्ता किंचान्यत्- 'चिरं दृइजमाणस्स' सिलोगो ॥ २००॥ चिरं तुमे धम्मो कतो, दुइज्जता य णाणापगारा देसा दिट्ठा, तनोवणाणि तित्याणि य, 'दोप इदानीं कुतस्तव ?' किं त्वया चौरत्वं कृतं पारिदारिकत्वं वा?, अथवा दोसो पावं अधर्म इत्यर्थः स कुतस्तव १, क्षपितस्त्वया कृतं सुमहत्तपः, ण य ते उपव्ययंतस्स वयणिअं भविस्सति, किं भवं चोरो परदारिगो वा ?, ननु तीर्थयात्रा अपि कृत्वा पुनरपि गृहमागम्यते, एवमादिभिः हस्त्यश्वरथवस्त्रादिभिः निमन्त्रणैव ते अणियगा वा 'इचेवणं णिमंतेति णोयारेण व सूयरं' णीयारो णाम कुंडगादिया, स तेण णीयारेण द्वितो घरे सूयरगो अडविं ण वच्चति मारिजति य एवं सोऽवि असारेहि निमंतितो तो भोतुं मरणणरगादिवाई दुक्खाई पावेंति । 'चोदिना भिक्खुचरियाए ' सिलोगो ॥ २०१ ।। चोदिता नाम वेधिता तजिया बाधिता [114] वस्त्रादि प्रलोभनं ॥११०॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [२], नियुक्ति : [४५-५५], मूलं [गाथा १८२-२०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: मंदविहादः प्रत मुक सूत्रांक ॥१८२ M.34 २०३|| दीप अनुक्रम [१८२२०३] | इत्यर्थः, चरणं चर्या-चक्वालसामायारी, जवइत्तएति वा लाटेत्तिएत्ति वा एगहुँ,'तत्थ मंदा विसीदति उजाणंसि व दुबला केइ आयसमुत्थेहिं केई परमसमुत्थेहि केई उभयसमुत्थेईि, ऊर्द्ध यानं उद्यान, तच्च नदी तीर्थस्थलं गिरिपम्भारोवा, तत्थ पुंगवावि य| Mआरुभंता सातिअंति, किमंग पुण दुबला दुप्पदा चतुप्पदावा ?, एवं केपि पव्ययंता चेत्र भावदुबला सीयंति, किं च-'अचयंता य लूहेणं' सिलोगो ॥२०२॥ अचएता-अशक्नुवन्तः, लूहं दब्बे य भावे य, दब्ये आहारादि, भावलूहं संयम एव, तवोवधाणेण तञ्जिता अबहत्थिता, तत्थ मंदा विसीदति, पंके जीर्णगौः जरद्ववत् 'एयं णिमंतंणं लडु'सिलोगो ॥२०३॥ एतं णिमंतणंति जं हेढा भणिय, लधु-प्राप्तुं मुच्छिता विसएसु, गिद्धा इत्थिगासु, अज्झोववण्णा कामेसु, कामा-इच्छामदणकामाः, चोइजंता णाम णिन्भत्धिअंता परिस्सहेहिं, णिमंतिजमाणा वा, गिहगयत्ति बेमि, पुनर्गृहं गत्वा पुनर्गृहस्थाभूत्वा इत्यर्थः, णिज्जुत्तीए वुत्तो दुविधा उपसग्मा ओहे ओवकमे य, अज्झत्थविसीयणा य, स च बालपब्वइतो तरुणीभूतश्चिन्तयति-चिरकालं प्रव्रज्या दुष्करा कर्तुमित्यतो विसीदंति, दृष्टान्तः 'जहा संगामकालंमि' सिलोगो ॥२०४॥ येन प्रकारेण यथा, सलामकालो नाम सममिचारितं युद्धं, तत्थ कोइ बञ्चंतो भीरु पच्छतो उवेहति 'वलयं गहणं णूम' वलयं णाम एकदुवारा गडा, परिक्खो वा वलयसंट्ठितो वलयं भण्णति, गृह्यते यत्तद्गहनं-वृक्षगहनं लतागुल्मवितानादि च, नूमं नामाप्रकाशं, जत्थ णूमेति अप्पाणं गड्डाए दरिए वा, 'को जाणेति पराजयत्ति दैवायत्तो हि पराजयो, 'मुहुत्ताणं मुहुत्तस्स' सिलोगो ।। २०५।। मीयतेऽनेनेति मुहर्तः, बहूनां हि मुहर्तानां एकः मुहूत्तों भवति यत्र विजयो भवति पराजयो भवति वा, जयश्चेत् इत्यतः शोभनं, पराजयश्चेदित्यतो वरं पराजयतो अवसर्पिष्यामः, अवसपितो इति भीरू उवेहती, एस दिलुतो, अयमर्थोपणयो-'एवं तु समणा एगे' सिलोगो॥२०६।। | अस्य पृष्ठे तृतिय अध्ययनस्य तृतिय उद्देशक: आरभ्यते [115] Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [३], नियुक्ति : [४५-५५], मूलं [गाथा २०४-२२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: an अनागतभयादि प्रत सूत्रांक ||२०४२२४|| श्रीसूत्रकतानचूर्णिः ॥११२॥ दीप अनुक्रम २०४२२४१ | एवमनेन प्रकारेण 'तु' पूरणे, एगे, ण सव्वे, संजमे तैस्तैः प्रकारैः अवलं ज्ञात्वा अप्पगं 'अणागयं भयं दिस्स' अणागतं णाम अप्पन, मा णाम एवं होजत्ति, ततः 'अबकप्पंतिम सुतं' अब च रक्षणादि, अवकल्पयंति अधीयंत इत्यर्थः,'इमानी ति अर्थोपाजनसमर्थानि गणियणिमित्तजोइमवायसद्दसत्थाणि, 'को जाणति वियोवायं' सिलोगो ॥२०७॥ विउवातो णाम व्युपातः, सो उण इत्थीपरीसहातो भवति, पहाणपियणादिणिमिचं उदगाओ वा, वा पिकप्पे, जो वा जस्स पलिओवमादि, परिसहजिता अमुकेण लिंगेण कोंटलवेंटलादीहिं कजेहि अवृज्झाणेण चोदिअंता य वक्खामो, चोदिजंता-पुच्छिजंता, प्रायशः कुण्टलट्ठीओ लोगो समणे पुच्छति, तत्थ चरेस्सामो, विजामंते य पउंजिस्सामो 'णो ण अस्थि पकप्पियंति ण किंचि अम्हेहिं पुब्बोवजितं धणं पेइयं वा, एवं णचा पावसुतपसंग करेंति, 'इचेवं पडिलेहति ॥२०८॥ इति एवं इचेवं, पडिलेहंति णाम समीक्षते-संग्रहारेंति, भावम्गहणं भावणूमाई पडिलेहंति, "वितिगिंछासमावण'ति, किं संजमगुणे सकेस्सामो ण सकेस्सामोति, उक्तं हि-"लुक्खमगुण्डमणियतं कालाइकंतभोयणं विरसं।" दिटुंतो पंथाणं व अकोवितो, जहा देसिटो विगलपथे चितेंतो अच्छति-किमयं पंथो इच्छितं भूमि जाति ?, एगचोवि ण णिव्यहति, अकोविया अयाणगा, उक्ताः अप्पसत्था, इदाणिं पसत्था-'जे तु संगामकालंमि' सिलोगो ॥२०९॥ जेत्ति अणिदिडणिसे, तु विसेमणे, ज्ञाता णाम प्रत्यभिज्ञाता नामतः कुलतः शौर्यतः शिक्षातः, तद्यथाचक्रवपिलदेवा वासुदेवमाण्डलीकादयः, प्राकृनाथ वीरपट्टगेहिं बद्धगेहि सण्णबद्धवम्मियकवयउष्पीलियसरासणपट्टिया गहियाउधपथरणा समूसियधयग्या सूरा एवं चक्रवर्यादीनां पुरतो गच्छंति, सुरपुरंगमा न ते बलयादीणि पडिलेहन्ति, ते तु संपहारेंति "तरितव्वा च पइणिया मरियम वा समरे ममत्थएणं । असरिसजणउल्लावया ण हु महितब्बा कुले पसूयएणं ।।१।। परबलं जेतव्यं । i malETIN ADMATETAMAKARTS ॥११२॥ [116] Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [३], नियुक्ति : [४५-५५], मूलं [गाथा २०४-२२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत श्रीसूत्रक सूत्रांक |२०४ तामचूर्णिः ॥११३॥ २२४|| दीप अनुक्रम २०४२२४ मरियव्वं बा, ण उ पिट्ठतो पेहंति, अपचे जुद्धे जुद्धमाणे चा, किं परं मरणं भवेत् ?, मरणादप्यनिष्टतम अइलाध्यत्वं, मरणादपि || समुत्था नादि | विशिष्यते भनप्रतिज्ञजीवितं, उक्तः प्रशस्त दृष्टान्तः, तदुपसंहारः प्रशस्त एव । 'एवं समुहितं भिक्खु सिलोगो ।। २१०॥ सम्यग् उत्थितं समुत्थितं दध्वसमुत्थाणेण भावसमुत्थाणेण य, आगारबंधणं छिचा अज्झत्थो, अबसीतयाणं 'आरंभ तिरिय कटु'त्ति दब्बे भावे वाऽऽरंभः, तिरियं णामादि, तिरिच्छ बोलेंति, अनुलोमेहिं दुक्खमतिकाम्यते नदीश्रोनोवत् परीसहोपसर्गा, णिउणो व्वाणरजकंखी, अचत्ताए-आत्महिताय सर्वतो संबजेत् , सिद्धिगमनोद्यतेन मनसा, अथवा आतो-मोक्षो संजमो वा अस्वार्थः, आतत्थाए, अथवा आप्तस्थात्मा आप्तात्मा आप्तात्मैव आत्मा यस्य स भवति अप्पात्मा इष्टो, वीतराग इव बजेदित्यर्थः, अज्झत्थ| विसीदणत्ति गतं । इदाणि परवादवयणं, तं अत्तट्ठाए परिव्ययंत 'तमेगे पडिभासंति' सिलोगो ।। २११ ॥ तमिति तं अत्तट्टयाए संवुड रीयमाणं, एगे ण मन्चे, समंता भासंति परिभासंति, आजीवप्रायाः अन्यतीथिका, सुत्तं अणागतोभासियं च | काऊण बोडिगा, 'साधुजीवर्ण'ति णाम साधुवृत्तिः अपापजीवनमित्यर्थः, जे ते एवं भासंति 'अंता ते समाहिते' अंतए | नामानाभ्यन्तरत:-दूरतस्ते समाधिए, णागादिमोक्खो परसमाधी, अत्यन्ते असमाधौ वर्तन्ते, असमाहिए अकारलोपं कृत्वा, संसारे इत्यर्थः, किं प्रभाषन्ते ! 'संबद्धसमकप्पाओ' सिलोगो ॥२१२।। समस्तं बद्धाः संबद्धा-पुत्रदारादिभिग्रन्थैगृहस्थाः, संबद्वैः समकल्पाः तुल्याः इत्यर्थः, जहा निहत्था माता मे पिता मेति एवमादिभिः संगैबद्धा, अण्णमण्णसमुत्थिता णाम माता पुत्ते मुच्छिता पुचोवि मातरि एवं भवंतोऽपि शिष्याचार्यादिमिः परस्परसंवद्धवाः, अन्यञ्चेदं कुर्घता 'पिंडवातं गिलाणस्स,जं सारेध दलाध य' पिंडस्य पातः पिंडपातः भिक्षं, एवं पिडावार्य गिलाणरस आणेत्ता दर्बु, यच्च पररपरतः सारेध वारेध पडिचोदेध सेजातो [117] Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [३], नियुक्ति : [४५-५५], मूलं [गाथा २०४-२२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२] , अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक ||२०४२२४|| श्रीसत्रक- ताङ्गचूर्णिः ॥११४॥ अनुवशस्वादि दीप अनुक्रम २०४२२४० उट्ठवेहनि, जं च गिलाणस्स आयरियवुडमामाएसु आहारउवधिवसधिमादिएहि य उवग्गहं करेह एवं तुम्भे सरागत्था अण्णमपणमणुवसा' सिलोगो ।। २१३ ।। रागत्थिता सरागत्था सदोसमोहा, अन्योऽन्यस्य अनुगता वशं अणुव्वसा 'भट्ठसप्पधसब्भावा' शोभन: पंथा सत्पन्थाः ज्ञानादि, सतो वा भावः सद्भावः, सत्पथसब्भावो नाम यथार्थोपलभः,'संसारस्स अपारगा' पारं गच्छंतीति पारगा न पारगा अपारगाः। एवं भासमाणेसु 'अह ते पडिभासेजा' ॥२१४ ॥ अथेत्यानन्तर्ये तान् प्रतिभाषते 'भिक्खू मोक्खविसारदों' विसाग्दो नाम सिद्धान्तविनायकः, स किं पडिभासति ?, एवं तुज्झेऽवभासंता दुवक्खं चेव सेवधा, दुपक्खो णाम संपराईयं कम भण्णति गृहस्थत्वं च, किंच 'तुम्भे भुंजह वाएK'सिलोगो॥२१५।। तुब्भे जेहिं भिक्खाभायणेहिं भिक्खं गेहध तेहि आसंग करेह, आजीविका परातकेसु कंमपादेसु मुंजंति, आधारोवकरणसज्झायज्झाणेसु य ।। मुच्छं करेह, गिलाणस्स पिंडयातपडियाए गंतुमसमत्थस्स भत्तमंतेहिं कुलगेण वा अण्णतरेण वा मत्तेहिं अमिहर्ड भुंजेह, एवं तुम्भेहिं पादपरिभोगेहिं बंधोऽणुण्णाओ भवति, अन्तग य कायवधो, सो य तुब्भ णिमित्तं आणतो भत्तिमंतोऽवि कम्मबंधेण लिप्पति, पाणिपायपि ण काय जति पादे दोसो, स च किं तुब्भ देतो णडसप्पधसब्भाव उदाहु सप्पधि बद्दति ?, अविण्णाणा । | य मिगसरिसा तुम्मे जेण असंकिताई संकथ संकितट्ठाणाई ण संकथत्ति, 'तंच वीओदगंभोत्त'त्ति कन्दमूलानि ताव सर्य भुंजह, सीतोदगं पिबध, एवं पुढवितेउवाउवधे वट्टह, जं च छक्कायवधेण णिफण उद्देसियं तं भुंजह, तुम्मे चेव गिहत्थसरिसा, पावतरा वा निहत्थेहिं, येन ते गृहस्था अनभिगृहीतमिथ्यादृष्टयोऽपि भवंति, न तु भवतः, जेण अभिग्गहितमिच्छदिट्ठिणो साधुपरिवायं च " करेह, दवं सित्तं कालं सामत्थं च पुणो वियाणित्ता कीनकडच्छेजादिसुवि दोसा भाणितव्या, ते एवं असंजतेहितोऽवि पावतरा [118] Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [३], नियुक्ति : [४५-५५], मूलं [गाथा २०४-२२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: तीवामितापादि प्रत सूत्रांक ||२०४२२४|| श्रीसूत्रक ताङ्गचूर्णिः ॥११५ दीप अनुक्रम २०४२२४० कता समाणा महता अपत्तिए 'लित्ता तिव्वामितावेणं सिलोगो ॥२१६|| तिव्याभितायो णाम तीवोऽमर्षः दसणमोहणिज- कम्मोदएणं कोधमाणकसायोदएण य लित्ता, उज्झिता णाम शून्या, एतदेव व्याचष्टे-अण्णा, णाणदंसणचरितेहिं असमाहिता, तैरेव विहीणा,'णाइकंडुइयं साधु'त्ति जहा कंडुइयं साधुत्ति तं अरुकस्स अवरज्झति पच्चुयपीडाहेतुत्वात् , एवं साधुहीलणावि अपसस्था, अथवा 'लित्ता तिब्वाभितायेणं ति तेण मिच्छादमणावलेवेण लित्ता गुणेहिं शून्या बुद्ध्यादीहि असमाहिता आतुरीभूता भणंति-जु णाम तुम्भेहिं अम्हे निहत्थसरिसा काउं पापतरा वा, तेन त उच्यन्ते 'णातिकहइतं साधु' साधु णाम सुटु, अरुअं हि रुज्झमाणं खजइ, तं जति ण सुटु कंडूइजइ ततो णातिकंडुइणो माधु अवरुज्झति अरुगस्स अरुइअगत्तस्स वा, अर्थात् प्राप्त अतिकंडुइयंति भृशभपराध्यते, नातिरूढवणस्य, एवं यद्यहं त्वया णातिनिष्टुरं उक्तो भविष्यति ततोऽहमपि नातिनिष्ठुरमेवापदि-1 श्यात् , त्वया वाऽहं यत्किचनपलापिनाऽसंबंधसमकल्पो व्यपदिष्टः, न चाहं तैर्गुणैर्युक्तो, भवन्तस्तु कन्दमूलोदकभोजिनः उद्दिश्यकृतभोजिनश्च सच्छासनप्रत्यनीकाश्च तेन न कथं गृहस्थैः पापतरा इत्येवं तत्तेण अणुसहा ते ' सिलोगो ॥ २१७ ॥ तचं तथ्यं सद्भूतं नानृतमित्यर्थः, अणुसट्ठा णाम अणुसासिता, ते इति आजीविका वोडियादयो ये चोद्दिश्यभोजिनः पाखण्डा,'अपडिपणेणं'ति विसयकसायणियत्तेण जाणएण एवं वुत्ता भणंति-'ण य एस णितिए मग्गे' णितिओ णाम नित्यः अव्याहतः एपः 'असमीक्ष्य वति किती' कृति म कुशलमतिः पौर्वापर्यसम्बन्धसबभावार्थोपलम्भस्तु सर्वज्ञज्ञानात युक्तः, अथवोपदेश एवायं, तत्तेण अणुसट्टाए अपडिण्णेण जाणएचि, कमणुसट्ठाए , ण एस णितिर मग्गे, न एप भगवतां नीतिको मार्गो, नीतिको नाम नित्यः, एष हि असमीक्ष्य भवद्भिरेव वाचा चटकरसा(भ्रा)बा वा कृतिः कृतः। किंचान्यत् 'एरिसा जावई एसा सिलोगो ।।२१८।। [119] Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥२०४ २२४|| दीप अनुक्रम [२०४२२४ श्रीसूत्रकृ ताङ्गचूर्णिः ॥ ११६॥ “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [३], निर्युक्ति: [ ४५ - ५५ ], मूलं [ गाथा २०४-२२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: एरिसा णाम येयमुक्ता तुम्भे संबद्धसमकप्पा वयं नेति, एपा निर्वाहिका, कथं १, 'अग्गिवेलुब करि सिता' वेल्लो हि मूले स्थिरः अग्गे कर्षितः, एवमियं चाकू भवतां संकल्पस्थूला-निश्चयकृता न हि भवति, न संबद्धकल्पा, तथा चोक्तं, कंदमूलादि, उद्दिश्यभोजित्वाच यतश्चैवं तेन नैप भवतां वा‌ङ्निश्चयः सुन्दरः, अथवा एरिसा जा वई एसा अग्गे वेलुब्ध करिसितित्ति जहा धम्मी, कडिले बंसो मूलच्छिण्णो न शक्यते अन्योऽन्यासंबंधत्वात् न शक्यतेऽधस्तात् उपरिष्टाद्वा कर्षितुं, अथासौ वंसो न णिन्विहति, एवं भवतामपि इयं वाकू न निर्वाहिका, तत्र अनिर्वाहिका गिहिणो अभिहिताः, शेषं भवंतो हि सम्प्रतिपन्ना निर्मुक्तत्वात्संसारान्तं करिष्यामः, तन्न निर्वहति, कथं ?, यद्भवतां ग्लायतामग्लायतां गृहस्थः कन्दादीनां मात्रेणानयित्वा ददाति तत्किल भोक्तुं श्रेयः, न तु यद्भिक्षुणाऽऽनीतमिति, एपा हि बाङ् भवतां न निर्वाहिका, कथं गृहस्था ईर्याति शोधयंति, आगच्छतो चास्य कश्चिद् व्यापादः स्यात्, कथानुक्त एवं ब्रूयात् यथा 'गृहीणं अभिहर्ड सेयं, भुंजितं ण तु भिक्खुणो' किं च-'धम्मपण्णवणा एसा' सिलोगो ।। २१९ || धम्मस् पष्णवणा एसा साहिया, इदाणिं धम्मपण्णवणा गिहत्थाणीयं सेयं ण पव्वताणीतमिति 'सारंभाण विसोथिया' सारंभा णाम गिहत्था तेषां पापविशोधिका, न हि भवद्भयो ददतो विशुद्धयन्ते, न तु प्रव्रजिताः दाणधम्मेण संयुज्यंते, | यस्मादानयंति ते गृहीभृत्वा यतयः पापेन संबद्ध्यन्ते, 'ण तु एताहिं दिडीहिं' नेति प्रतिषेधे, दृष्टिर्नाम ग्रहो, ण भवद्भिरेता| मिर्दृष्टिभिः पूर्वप्रकल्पितमासीत्, प्रकल्पितं प्रदर्शितमित्यर्थः, का दृष्टयः ?, यादृशं किल गृहस्थानां तादृशमसाकमपि अन्योऽन्यं किल सारयित्वा स्थेयं, न चानुकंप तामनुभवन्तोऽपि ग्लानकृत्यं गृहस्थैः कारयन्ति, अत्र तावदावयोः साम्यं, येन भवन्तो गृहस्थैः कारयन्ति प्रागुक्तं ग्लानस्य तत्कार्यं मा भूत् संबंधसाम्यकल्पा, न स्युरिति अभिविष्यत् इदानीं स एव ग्लानो गृहस्थैः कारयन् [120] संबद्धसमत्यादि ॥ ११६॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [३], नियुक्ति : [४५-५५], मूलं [गाथा २०४-२२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक श्रीसूत्रकसागचूर्णिः ॥११७॥ ||२०४ २२४|| दीप अनुक्रम २०४२२४० तस्कृतमनुजानन्तः भवंतश्च तत्कारिणः तद्वेषिणश्च एतां दृष्टिं भावयन्तः कथं सम्बन्धसमकल्पा न स्युरिति, किं चातः?, एवं 'सबाहि॥ अनुयुक्त्या दयः अणुजुत्तीहिं' सिलोगो ॥२२०॥ योजनं युक्तिः अनुयुञ्जत इति अनुयुक्तिः अनुगता अनुयुक्ता वा युक्तिः सर्वैः हेतुयुक्तिमि:तर्कयुक्तिभिर्या, अत एव अचयंता अशक्नुवन्तः 'जवित्तए'त्ति णिजट्टमित्यनर्थान्तरं, कथं ण चएति ?, यथा कश्चिद्भलीवई भग्नं वा उवमए, स च तं विचिक्रीपुः परेणोच्यते-उत्थाप्यतां तावदयं गौः, ततो यदि शक्ष्यति तत एव ग्रहीप्यामि, स जनो नेप शक्ष्यतीति | ब्रवीति-यदि ते रोचते एवमयं गृह्यता, नन्वेषोऽव्यंगशरीरो निरुपहतवपुर्व दृश्यते?, एवं सामयिक आह परूको वा, समय इति | परैरुच्यते, येन परीक्षामहे ततो ते किमत्र परीक्षया?, प्रत्यक्ष एवायं दृश्यते बहुजनपरिगृहीतः, ईश्वरस्वामिनं प्रतिपन्नाः, यदि नवं तचं स्यात् नैवात्र बहुजनोऽतिप्रसञ्जते, लोकिका अपि त्रुबते-'आज्ञासिद्धानि चत्तारिन हन्तव्यानि हेतुभिः। भारता | मानवा धर्माः, सांगो वेदचिकित्सितं ॥१।। एपामुत्तर:-एरंडकट्ठगसी जहेह गोसीसचंदणपलस्स । मोल्लेण होञ्ज सरिसे कत्तियमेत्तो गणिअंतो?॥१॥ तहवि णिगरातिरेगो सो रासी जह ण चंदणसरित्थो । तह णिविण्णाणमहाजणोऽवि सोज्झे विसंवदति ॥२॥ एको सचक्खुगो जह अंधलयाणं सएहिं बहुएहिं । होति पहे गहिया वा बहुगावि ण ते अपेच्छंता ।। ३ ।। एवं बहुगावि मूढा ण पमाणं जे गतिं न याणंति । संसारगमणगुविलं पिउणस्स य बंधमोक्खस्स ॥४॥"'ततो वादं णिराकिचा' ततः इति ततः कारणात् , वादो णाम छलजातिनिग्गहस्थानबर्जितः, निराकिच्चा णाम पृष्ठतः, वादं निराकृत्या, ते इति ते आजीविकाद्याः सामयिकाः मस्कराश्च विविधाः प्रगम्भिता धृष्टीभूता इत्यर्थः, 'रागदोसाभिभूतप्पा' सिलोगो ॥२२१॥ रज्यते येन आत्मपक्षे स रागः परपक्षे द्वेषः, अभिभूताः पराजिता इत्यर्थः, रागद्वेषाभ्यामभिभूतो येषामात्मा ते, मरुगा दोसामिभूयप्पा, मिच्छत्तेण अभि- 0॥११७॥ [121] Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [३], नियुक्ति : [४५-५५], मूलं [गाथा २०४-२२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: आक्रोश प्रत सूत्रांक श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः ॥११८॥ शरणादि ||२०४ २२४|| दीप अनुक्रम २०४२२४ हुया' अभिभूया इत्यर्थः, त एवं उक्ताः रोपानललोहिताक्षाः भृशममर्पोद्गमप्रस्पंदिताधरोष्ठाः जिता अवदातहेतुमिनिग्रन्थपुत्रैः पराजिताः 'अकोसे सरणं जंति' प्रायेण दुर्बलस्य रोपो उत्तरं भवति आक्रोशश्च, रुदितोत्तरा हि खियः बालकाच, क्षात्युत्तराः साधयो, दृष्टान्तः 'टंकणा इव पव्वतं' टंकणा णाम म्लेच्छजातयः पार्वतेयाः, ते हि पर्वतमाश्रित्य सुमहन्तमवि हस्थिवलं वा अस्सवलं वा आगलिन्ति, पराजितास्तु शीघं पर्वतमाश्रयंति, कुतीर्थाः पराजिताः आक्रोशयंति यष्टिमुष्टिभिश्वोत्तिष्ठन्ति, न ते प्रत्याक्रोष्टव्याः इदमालंचनं कृत्वा-"अकोसहणणमारणधम्मभंसाण घालसुलभाणं । लाभ मण्णति धीरोजधुत्तराणं अलाभंमि ॥१॥ बहुगुणप्पकप्पाइ. सिलोगो ॥२२२॥ गुणा पकप्पिजति जेहिं ताई गुणप्पकप्पाई, गुणप्पकप्पो णाम येनात्मपक्षः प्रसाध्यते, परपक्षश्चोभासीयते, अथवा सर्वपरीक्षकाविरुद्धो दृष्टान्तोऽबाध्यो हेतुर्वा, उक्तंहि-"लौकिकपरीक्षकाणां यसिन्नर्थे बुद्धिसाम्यं स दृष्टान्तः, हेतुप्रतिज्ञादयः, आतसमाहितो वत्तए, आत्मसमाधिर्नाम दचं खित्तं कालं समत्थं चप्पणो वियाणित्ता इति, अथवा के अयं पुरुषे कं च णतेत्ति, एवं तथा यथाऽत्मनो समाधिर्भवति, उक्तं हि-"पडिपक्खो णायव्वो०" अथवा आत्मसमाधिर्नाम यथा परतो घातो न भवति बाधा वा, किंच-'जेणऽण्णे ण विरुद्धज्ज' येन चोक्तेन अण्णस्स उवघातो ण भवति, तथा प्रतिज्ञादयो वक्तव्याः यथा च सिद्धान्तविरुद्धा न भवंति, कथं विरुध्यते ?, यो व्यान् त एव हि कृतोद्दिश्यभोजित्वाद् गृहितुल्याः, साधवस्तु मूलोत्तरगुणोद्यता: शरीरे चानपेक्षाः, ततश्चातिप्रसक्तस लक्षणस्य निवृत्तये त्वपदिश्यते 'इमं च धम्ममायाय' सिलोगो ।।२२३।। अथवा तैः परतन्त्रैरपदिष्टं-ध्यानकृत्यं हि न कर्त्तव्यं, मा भूत् संबद्धसमकल्पः, तदेनमपदिश्यते 'इमं च धम्म' न यथा भवतां निरनुकंपो धर्मः, अस्माकं हि इमं च धम्ममादाए कासवेण पवेड्यं, अथवा ये ते उक्ता उपसर्गा एते हि अग्लायता सोढव्याः, ग्लायतो हि ॥११८॥ [122] Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥२०४ २२४|| दीप अनुक्रम [२०४२२४ श्रीसूत्रताङ्गचूर्णिः ।। ११९ ।। “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [३], निर्युक्ति: [४५ - ५५], मूलं [ गाथा २०४-२२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: द्रव्यपरीपहा भवंति, न ग्लायमानस्य न कर्त्तव्यं कथं- 'हम' इदं च धम्ममादाय इति यद्वक्ष्यामः। तं धर्ममादाय गृहीत्वा 'कासवेण पवेदिदं' कासवग्रहणात्तीर्थकरणैवेदं प्रवेदितं, न तु स्थविरैः किंचान्यत् 'कुर्यात् भिक्खू गिलाणस्स' ग्लायते रोगेणान्यतरेण वा प्रथमद्वितीयादिपरीपहादिना, अगिलाणेण-अनार्द्दितेन अव्यथितेन राजाभियोगवत् 'समाधिए 'ति आत्मनः समाविहेतोः कर्त्तव्यं, ग्लानस्य वा अथवा समाधीए कायव्वं, ण मणोदुकडेण, किंच-न केवलं उवसग्गा एव अहियासेयव्या ज्ञात्वा सोढव्याः 'संखाय पेसलं धम्मं' सिलोगो ॥ २२४॥ संखा अडविधा, तंजहा - णामसंखा ठवणसंखा दव्यसंखा उबम्मसंखा परिणामसंखा गणणासंखा जाणणासंखा भावसंखा, तत्थ जाणणासंखाए अधियारो, संख्याय-ज्ञात्वा, पेसलं दच्चे भावे य, दव्वे जं दब्बं पीतिमुत्पादेति आहारादि, भावपेसलस्तु सर्ववचनीय दोषापेतो भव्यानां धर्म एव, सो धम्र्मो दुविधो-सुतधम्मो चरितधम्मो य, कस्य तौ प्रीतिमुत्पादयेयातां १, दृष्टिमानिति दृष्टिमतः सम्यग्दृष्टिः परिनिर्वृत्तः सीतीभूत इत्यर्थः, उवसग्गे अधियासेयब्वे उपसर्गा ये उक्ताः ये च वक्ष्यमाणाः तान् सर्वान्निधियासयन् सहन्नित्यर्थः, आमोक्षाय परिसमाप्तेः समन्ता 'वयेजा सि' परिवयेजासि, मोक्षो द्विविधः - भवमोक्षो सच्चकम्ममोक्खो य, उभयहेतोरपि आमोक्षाय परिव्रजेदिति त्रवीमि । उपसर्गपरिज्ञायां तृतीयोदेशकः ४-३ ॥ वृत्तं निज्जुत्तीए हेतुसरिसेहिं अहेउएहिं हेत्वाभासैरित्यर्थः, कथमहेतवो हेतुसदृशाः १, वक्ष्यति हि सुहेण सुहमजेमो० वणिअबत्, तथा च 'जहा गंड पिलागं वा' एवं सीलक्खलिया अण्णउत्थिया तन्भावुकाव 'आहंसु' रिति ॥ २२५॥ आहुः, के ते १महापुरिसाः पहाणा पुरिसा राजानो भूत्वा वनवासं गत्वा पच्छा पिव्वाणं गताः, 'पुधिं तत्ततवोधणा' पुत्रमित्यतीते काले अस्य पृष्ठे तृतिय अध्ययनस्य चतुर्थ उद्देशक: आरभ्यते [123] धर्मादानादि ॥ ११९॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [४], नियुक्ति : [४५-५५], मूलं [गाथा २२५-२४६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: श्रीसूत्रक प्रत सूत्रांक ||२२५२४६| वाङ्गचूर्णिः ४ उद्देशः ॥१२०॥ दीप अनुक्रम [२२५२४६] कचित्रेतायां द्वापरे च, तप एव धनं तपोधनं, तप्तं तपोधनं यैः त इमे तत्ततवोधणा, पंचाग्नितापादि लोइयाणं ते ते महापुरिसा, नम्यादयः आस्माकं तु यदा सामन्नं प्रतिपन्नाः तदा महापुरिसा, भोचा सीतोदकं सिद्धा' सीतोदगंणाम अपरिणतं, तेण सोयं आयरंता पहाणपाणहत्थादीणि अमिक्खणं सोएता तथाऽन्तर्जले वसंतः सिद्धि प्राप्ताः सिद्धाः, एवं परंपरश्रुतिं श्रुत्वा अस्नानादिपरीषहजिताः 'तत्थ मंदे विसीदति तत्रेति तस्मिन्नस्नातकवते फासुगोदयपाणे वत्ति,तथिमे अभुंजिया णमी वेदेही एमाउत्ते य भुजिया। बाहुए उदयं भोचा तहानारायणे रिसी।।२२५|| आसिले देविले चेव, दीवायणमहारिसी। पारासरा दगं भोचा, वीताणि हरिताणि य ॥२२६॥ एते पुर्वि महापुरिसा ॥२२७॥ प्रधानाः पुरिपाः महापुरिषाः आहिता-आख्याता,'इह संमत'ति इहापि ते इसिभासितेसु पडिजंति, णमी ताव णमिपच्चजाए सेसा सन्चे अण्णे इसिभासितेसु, असिले देविले चेवत्ति बंधाणुलोमेण गतं, इतरथा हि देवल आसिल इति वक्तव्यं, एतेसिं पत्तेयबुद्धाणं वणवासे चेय वसंताणं वीयाणि हरिताणि य भुंजंताणं ज्ञानान्युत्पन्नानि, यथा भरतस्य आदंसगिहे णाणमुप्पणं, तं तु तस्स भावलिंग पडिवण्णस्स खीणचउकम्मस्स गिहवासे उप्पण्णमिति, ते तु कुतित्था ण जाणंति कस्मिन् वर्तमानस्य ज्ञानमुत्पाद्यते कतरेण वा संघतणेण सिज्झति ?, अजानानास्तु ब्रुवते. ते नमी आद्या महर्षयः भोचा सीतोदगं सिद्धाः, भोचेति भुंजाना एव, सीतोदगं कन्दमूलाणि वा, जोई च समारंभंता, जहमेतमणुस्सुतं'ति भारहपुराणादिसु एवं एताहि कुसुतीउनसग्गेहि उपसग्गिजमाणे, ण केवलं सरीरा एव उवसग्गा, माणसा अपि उपसर्गा विद्यते, यां श्रुति श्रुत्वा मनसा विनिपातमापद्यते, कथं ?, उच्यते 'तस्थ मंदा विसीदति ॥२२८ ।। तस्मि-2 निति कुश्रुतिउपसगोंदये मंदा-अबुद्धयः विसीतंति-फासुएसणिजे छक्काएसु अपरिहरितब्वेसु, दिट्ठतो 'वाहच्छिण्णा व गहभा' ॥१२॥ [124] Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [४], नियुक्ति : [४५-५५], मूलं [गाथा २२५-२४६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: श्रीसूत्रक प्रत सूत्रांक ||२२५ वाहचूर्णिः ॥१२॥ २४६|| दीप अनुक्रम [२२५ | मारेणेत्यर्थः, खंधेन पृष्ठेन वा, एवं ते परसामयिका कर्मगुरुगा लुक्खमणुहमणियतं एरिसेण लूहेण अजवेत्ता अस्नानादि ताव |DI सातादि संजमगुणे य गुरुए अचइत्ता वोढुं त्वरितमोक्षाध्वगानां साधूनां लघुभूतानां पीढाभ्यां परिसप्र्पतीति पीढसप्पी, संभ्रमति तस्मि-14 मिति संभ्रमः, जनस्यान्यस्य त्वरितमग्गिभयात् णस्सितुकामो किल पीढसप्पी दरातोज्झितोऽपि जणं वा वर्चतं पिटुतोऽणुवयति, एवं तेऽवि किल संसारभीरयो मोक्षप्रस्थिताः सीतोदगादिसंगात् संसार एव पदंति । इदानीं शाक्याः परामृश्यन्ते-इहमेगे तु मण्णंते सातं सातेण विनती ॥२३०॥ सायं णाम सुखं श्रोतादि तं सातं सातेणेव लभ्यते, सुखं सुखेन लभ्यत इत्यर्थः, मयं सुखेन मोक्षसुखं गच्छामः, दृष्टांतो वणिजः, तुम्भे पुण परमदुक्खितत्वात् 'जितत्थ आयरियं मग्गं जिता नाम दुःखप्रत्रज्यां कुर्वाणा अपि न मोक्षं गच्छत, वयं सुखेनैव मोक्खसुक्खं गच्छामः इत्यतो भवंतो जिता, तेनास्मदीयार्यमार्गेण 'परमति समाधित्ति मन समाधिः परमा, असमाधीए शारीरादिना दुःखेनेत्यर्थः। 'मा एतं अवमण्णंतो'सिलोगो।।२२९।। अमाणोणाप्रतिपेधे, अथ तदुदप्रणीतं सुखात्मक मार्गमवमन्यमानाः आत्मानमात्मना बंचयंते इत्यर्थः, 'दूर दूरेण सुखातो, लुपह छिन्दध, दिटुंतो 'एतस्स अमोक्खाए अयहारीब जरथ त एवं वदंतः प्रत्यंगिगदोपमापद्यते, कथं ?, 'इहमेगे तु मण्णंता सातं साते ण विजते,' इहेति इह निग्रंथशासने, सातं साते न विद्यते, का भावना ?-नहि सुखं सुखेन लभ्यते, यदि चेवमेवं तेनेह राजादिनामपि सुखिनों परत्र सुखिना भाव्य, नारकाणां तु दुःखितानां पुनर्नरकेचैव भाव्य, तेन साया सोक्खस्संगे न, 'जिता नाम शिरस्तुण्डमुण्डनमपि कृत्या सम्यगमार्गमास्थाय मोक्षं गच्छंति, परमं च समाधि ता मोक्खसमाधि, इह वा जाऽसंगसमाधि, उक्तं हि"नैवाम्ति राजराजस्य तत्सुखं नैव देवराजस्य । यत्सुखमिहैव साधोलोकव्यापाररहितस्य ॥१॥'मा एयं अवमण्णंता अमानोनाः |॥१२॥ २४६ [125] Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [४], नियुक्ति : [४५-५५], मूलं [गाथा २२५-२४६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: झरणादि प्रत सूत्रांक ||२२५२४६|| श्रीसूत्रकतारुचूर्णि ॥१२२॥ दीप अनुक्रम [२२५२४६1 प्रतिषेधे, 'एतंति' एतं आरुहतं मग्गं अवमणंता आत्मानमात्मना बहुं परिभविजह-लुपह वहुं, को दृष्टान्तः ?,'एयस्स अमोक्खाए अयहारिव जूरथ' कथं ?, जेण तुम्मे वा 'पाणातिवादे वर्दृता' सिलोगो ॥२३२|| स्यात्-कथं प्राणातिपाते वर्तामहे ?, येन पचनानि पाचनानि चानुज्ञातानि, उक्तंहि-पचंति दीक्षिता यत्र, पाचयंत्यथवा परैः। औद्दशिकं च भुजंति, न स धर्मः सनातनः ॥१॥" मुसावादेवि असंजता संजतंति अप्पाणं भणध, अदत्तादाणे च जेसि जीवाणं सरीराई आहारैति तेहिं अदत्ताई आएह, धेनूना बत्सवृद्धयै नियुजितुं मेथुनेऽपि प्रेष्यगोपशुवर्गाणां, परिगहेऽपि धनधान्यग्रामादिपरिग्रहः, एवं कोधमाण जाव मिच्छादंसणसल्ले इति, एवं ताव शाक्याः अन्ये च तद्विधाः कुतीर्थाः, 'एवमेगे तु पासस्था' सिलोगो ॥२३।। एवमवधारणे 'एते' इति शाक्याः अन्ये च तद्विधाः, पार्वे तिष्ठन्तीति पार्श्वस्थाः, केषां ?-अहिंसादीनां गुणानां णाणादीण च सम्मईसणस्स चा, किं ?पण्णवेंति विसयणिग्याते सुहेण सुई, अथवा इमं पपणति दगसोयरियादयो, सुखलिन्भवो अजितेन्द्रिया 'इत्थीवसगता याला जिणसासणपरम्मुहा' किं पण्णावेंति-विसयणिग्यातणे तु कजमाणे णस्थि अधम्मो अप्पणो परस्स वा सुखमुत्पादयतः, अप्पेवं धर्मो भवति, नत्वधर्मः, को दृष्टान्तः १, 'जधा गंड पिलागं वा' सिलोगो॥२३४।। जहा कोई अप्पणो परस्स वा गंडं पिलागं णिप्पीलेत्ता पुव्वं पूर्व सोणितं वा णिस्सावेतित्ति को अधम्मो ?,एवं जो कोई इस्थिशरीरे शुक्रविषयनिर्घात कुर्यात् तत्र को दोषः स्यात् , 'एवं विपणवणीत्थीसु' एवमनेन प्रकारेण विज्ञापना नाम परिभोगः, एकाथिकानि आसेवना, दोपः तत्र कुतः स्यात् , किंच ''जहा मन्धातइए णाम' सिलोगो ॥२३५।। मंधावई णाम मेसो, सो जहा उदगं अकलसेन्तोय जण्णुएहिं णिसीदितु गोप्पएवि जलं अणदुआलंतोवि पियति, एवमरागो चित्तं अकलुसेन्तो जइ इस्थि विष्णवेति को तत्थ दोसो', उक्तं च-"प्राप्तानामु ॥१२२॥ [126] Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [४], नियुक्ति : [४५-५५], मूलं [गाथा २२५-२४६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: सीविक्षपना प्रत सूत्रांक ||२२५२४६|| श्रीसूत्रकवाचूर्णिः ॥१२॥ दीप अनुक्रम [२२५२४६] पभोगः शब्दस्पर्शरूपरसगन्धानाम्" किंच 'जहा विहंगमा पिंगा' सिलोगो ॥२३६॥ विहायसा गच्छंतीति विहंगमा, पिंगा| | पक्खिणी, आगासेण चरंती, उदगे अनिलीयमाना अविक्खोमयंती तं जलं चंचूए पिचति एवं विष्णवणिस्थीसु, एवमरजमाणो | यदि संप्राप्तान् भोगान् भुंजीत अत्र को दोषः १, उत्तरदाणं-णणु तेसिं आसेवणा चेव संगकरणं, मेधुणभावं आसेवामिति, 'जह | णाम मंडलग्गेण सीसं छेत्तूण कस्सई पुरिसो । अच्छेन्ज पराहुत्तो किं णाम तत्तो ण घेप्पेज ॥१॥ अथवा विसगंडूसं कोई | घेतूण णाम उण्डिको । अण्णेण अदीसंतो किं नाम ततो णवि मरेजा ।।२।। जद्द वावि सिरिघरातो कोई रयणाणि णाम घेत्तूर्ण । अच्छेज पराहुत्तो किं णाम ततो ण घेप्पेज ॥३॥"एवं तु समणा एगें सिलोगो ॥२३७।। एवमनेन प्रकारेण, तु विसेसणे; | नासदीया, परे, एकेत्ति परेपामपि न सर्वे, एके, मिथ्यादृष्टयः अनार्या मिच्छाद्दिवीअणारिया, अथवा मिथ्याष्टित्वेऽपि कर्ममि| रनार्याः, अझोववष्णा कामेदि, दुविहेहिवि कामेहिं, दिट्ठतो 'पूअणा इव तपणए' पूयणा णाम उरणीया, तस्या अतीव तण्णगे | छावके स्नेहः, ततो जिज्ञासुभिः कतरस्यां २ जातौ प्रियतराणि स्तन्यकानि?, सर्वजनानां छावकानि अनुदके कूपे प्रक्षिप्तानि, ताश्च सर्वाः पशुजातयः कूपतटे स्थित्वा सच्छावकानां शब्दं श्रुत्वा रंभायमाणास्तिष्ठति, नात्मानं कूपे मुंचति, तत्रैकया पूतनया आत्मा मुक्तः, त एवं पूतना इव तरुणे(ष्णए)मुचिता गिद्धा कामेसु 'अणागतमपासंता सिलोगो।।२३८।। अनागतकाले किपाकफलाहास्वत् विषयदोपानपश्यन्तः 'पच्चुप्पण्णविसयगवेसणा' णाणाविहेहिं उवाएहिं विसयसुहं उप्पार्यता ते पच्छा अणुसोयंति' ते इति अण्णउत्थिया परलोकं प्राप्ता अनुशोचंते देवदुर्गतौ यत्र वाऽन्यत्रोपपद्यते, दृष्टान्तः 'खीणे आऊमि जोषणे' यथातिक्रान्तवयसः क्षीणेंद्रियशरीरबुद्धिबलपराक्रमाः नानाविधैः क्रीडाविशेषैः तरुणान् , वयमप्येवं क्रीडितवन्तः, तीवमनुशोचयन्ति, ॥१२ [127] Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥२२५ २४६|| दीप अनुक्रम [२२५ २४६] श्रीसूत्रताङ्गचूर्णिः ॥ १२४॥ “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [ ४ ], निर्युक्ति: [ ४५-५५ ], मूलं [गाथा २२५-२४६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: एवं तेऽपि परलोकं प्राप्यानुशोचन्ति, इह च मरणकाले, न अस्माभिर्जितेन्द्रियत्वं भावितं वैराग्यं वा उक्तं हि - 'हतं मुष्टिभिराकाशं, तुषाणां कुडनं कृतम्। यन्मया प्राप्य मानुष्यं, सदर्थे नादरः कृतः ॥ १ ॥ उक्तं बहु चरित्रं च स्वार्थयन प्रावितः। ते चैत्रमन्वशोचन्त, यथा के ?, उच्यते, 'जेहिं काले परिवांत' सिलोगो || २३९ ॥ जे इतिणा अणिद्दिदुणिदेसे, कालो नाम तारुण्यं मध्यमं वयः, यो वा यस्य कालो ध्यानस्याध्ययनस्यं तपसो वा तेपामेकेषां सुकृतं नाम श्रामण्यं त एव च श्रमणाः त एव मोक्षाकांक्षिणस्त 'साधवो साधर्मिका वा 'ते धीरा बंधणुम्मुक्का' त. ऐव धीराः तः एव बंधविमुक्का, बंधनं कलत्रादि कर्म्म वा, ये किं कुर्वन्ति १, 'जे पावकखति जीवितं ' पुत्रतरपुण्यकीलितादि असैंज मजीवितं न वांछंति । 'जहा नदी बेयरणी ० ' सिलोगो ॥ २४०॥ | 'यथे 'ति येन प्रकारेण वेगेन तस्यां तरंतीति वेतरणी नामे परोक्षाः अवादिपुः सा हि तीक्ष्णश्रतस्त्वाद् - विपमतटत्याच दुःखमुत्तीर्यते इति दुस्तरी, सर्वलोकप्रतीत एवासौ, पाखण्डिनां च केषांचित्, 'इहे'ति इह प्रबचने, वक्ष्यमाणमपि च 'जह तं नदी वेतरणी'-दुत्तरा एवं लोगंसि नारीओवि दुत्तराओ, एवमनेन प्रकारेण सर्वोपसर्गेभ्योऽनुलोमेभ्यः प्रतिलोमेभ्यश्च दुस्तरतरा नार्यः | ता हि नानाविधैर्द्धावभावविलासैरुत्तितीर्षुनभिभवंति, वैतरण्यामित्र तत्रैव तत्रैव निमज्जापर्यंति, ता हि दुक्खं द्रव्यभावतः परिहियंते, 'अमतीमय'त्ति न मतिमान् अमतिमान् तेनामतिप्रता, 'जेहिं ते णारिसंजोगा' सिलोगो ॥ २४१ ॥ जे इत्य निर्दिष्ट निर्देशः, | त्रिविधा नार्यः, नारीभिः संयोगा नारीसंयोगाः, मैथुनसंसर्गा इत्यर्थः, 'पूयणा पिनो कत'त्ति पूणा नाम वस्त्रान्नपानादिभिः | स्नानाङ्गरागादिभिश्व शरीरपूजनात् उक्तं हि "णो सायासोक्ख पड़िवद्धे भवेजा", अथवा त एवं नारीयोगाः पूतना पातयंति धर्मात् | पातयंति वा चारित्रमिति पूतनाः पूतीकुर्वन्नित्यर्थः पृष्ठतो कृता नाम उज्झिता, 'सबमेवं णिराक्रिचा' सर्वमिति येऽन्ये उपसर्गाः [128] कालपरा क्रमादि ॥ १२४॥ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [४], नियुक्ति : [४५-५५], मूलं [गाथा २२५-२४६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: श्रीसूत्रक ओघतरणादि प्रत सूत्रांक ||२२५२४६|| दीप अनुक्रम [२२५२४६] | क्षुत्पिपासासीतोष्णादयः निरा नाम पृष्ठे कृत्या, अथवाऽनुलोमाः प्रतिलोमाश्व, सोभणाए समाहिए ण उवसग्गेहि खोहिजति, किं तानाचूर्णिःच 'एते ओहं तरिस्संति' सिलोगो ॥२४२।। एते णाम जेहिं एते इस्थिपरीसहादयः उपसर्गा जिताः, द्रव्यौधः समुद्रः भावौ-।। ॥१२५॥ घस्तु संसारः, तरिस्संति ते, नान्ये, न पा भावेन, दृष्टान्ते 'समुदं ववहारिणो' समुदतुल्यं समुद्रवत् , व्यवहरंतीति व्यवहारिणो वणिजः पोतैस्तरंति, 'जत्थ पाणा विसण्णेसी' यमिन्-यत्र एते पापण्डाः गृहस्थवभावं गताः विषयजिता विपण्णा आसंते | गृहिणव, इह परत्र च "किचंती सह कम्मुणा' कृत्यन्ते निपात इत्यर्थः, 'नं च भिक्खू परिणाय' सिलोगो।। २४३ ॥ INDI दुविहाए परिणाए परिज्ञाय जाणणापरिणाए उनसग्गपरीसहे जाणित्ता पचक्खाणपरिणाए उद्वितो ते अहियासेमाणु 'सुबते। | समिते चरे' समितिग्रहणात् उत्तरगुणा गृहीताः, मूलगुणा पुण इसे 'मुसावादं विवजेज' कस्मान्मृपावादः पूर्वमुपदिष्टः? न प्राणातिपात इति, उच्यते, सत्यवतयतो हि व्रतानि भवति, नासत्यवतो, अनृतिको हि प्रतिज्ञालोपमपि कुर्यात् , प्रतिज्ञालोपे च सति किं व्रताणामवशिष्ट ?, तं मुसाबादं विसेसेण वजए विवञ्जए, अदिण्णादि च बोसिरे, अदिण्णमादि यस्थाश्रवगणस्य मोऽयं अदिण्णा| द्याश्रयगणः तं अदिन्नादि विवजए, संजहा-पाणादिवादादि जाव परिग्रह, प्राणातिपातप्रसिद्धये वपदिश्यते 'उड़े अहे तिरियं वा' सिलोगो ॥२४४॥ ऊर्ध्वमधस्तिर्यगिति क्षेत्रमाणातिपातो गृहीतः,जे केई तसथावरा इति द्रव्यप्राणातिपातः"सर्वन्ने'ति प्राणातिपातभावश्च सर्वावस्थासु 'विज विद्वान् सर्वत्र विरतिं विद्वान कुर्यात् इति वाक्यशेपः, विरति एव हि 'संति णिचाणमाहितं | विरतीउ वा विरतस्स वा संति णिवाणमाहितं, शान्तिरेव निर्वाणमाख्यातं संति व्याणमाहितं, अहवा संतित्ति वा णिव्वाणति वा मोक्खोति वा कम्मखयोत्ति वा एगट्ठा, तेनापदिश्यते संति णिबाणमाहितं, उक्ता उपसर्गाः, ते च सर्व एव सोढव्याः, आत्म MaintenaramanandHIRL HAMARTINuri ॥१२५।। [129] Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [४], नियुक्ति : [४५-५५], मूलं [गाथा २२५-२४६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक ||२२५२४६|| श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः स्त्रीप० अ०४ ॥१२६॥ दीप अनुक्रम [२२५२४६] संचेतनीयोपसर्गापवादस्तु नोऽशरीरो धर्मों भवतीतिकृत्वा 'इमं च धम्ममायाय, कासवेण पवेदितं । कुजा भिक्खू गि- निक्षेपाः लाणस्स, अगिलाए समाहिए ॥२४५।। संवाय पेसलं धम्म, दिहिमं परिणिब्बुडे। उवसग्गे णिराकिचा, आमोक्खाए परिवएजासि ॥२४६॥ त्तिवेमि उपसर्गाध्ययनं समा ३।। (ग्रन्थाग्रं ३०००) इदाणि इस्थिपरिणत्ति अज्झयणं, उवकमादि चत्तारि अणुयोगदारे परूवेऊणं अत्याधियारो, सो दुविधो-अज्झयणस्थाधियारो उद्देसत्याधियारो य, अज्झयणस्थाहियारो जाणणापरिणाए तिविधाउवि इथिगाउ जाणियव्यत्ति, पचक्खाणपरिणाए । ताओ परिहरितव्याओ, उद्देसत्याधियारे इमा गाहा 'पढमे संथवसंलावाइएहि' गाहा (५६) पढमे उद्देसए यथा-येन प्रकारेण संवाससंथवेण संबद्धवसधिमादीहि य दोसेहिं गमणागमणमादि पुच्छाहि य उल्लावसंलावभिण्णकथाहि य इत्थीहि सद्धिं सीलक्खलणं भवति, पढमुद्देसे विलंवणा उ लभति चोदिज्जते, वितिए उद्देसए खलितो समणधम्माउ विलंबणा पाविज्जति लिंगत्थो होन्तो, स वा लिंगाओ अपं वा लिंग वा सपक्खपरपक्खातो य हीलणं पावति । णामणिप्फण्यो णिक्खेवे इथि परिण्णा य दुपदं णाम, तत्थित्थीए 'दवाभिलावचिंधेगाथा ॥५४॥ जाणगसरीर० भवियसरीर०, वतिरित्ता दुविधा-मूलगुणणिवत्तणाणिव्यत्तिया य उत्तरगुणनिवत्तणानिवित्तिया य, मूलगुणे इत्थिसरीरगं जदं जीवेणं, उत्तरगुणे कट्ठकम्मादिसु, अथवा दवित्थी तिविधा-एगभविया बद्धाऊ अभिमुहपामगोचा, अभिलावत्थी जहा साला माला वेला सिद्धी इत्यादि, वेदि(विधि)त्थी अवगतवेतं इस्थिशरीरगं, तं पुण छउमस्थस्स केवलिस्स वा, वेदित्थी इस्थिवेदं वेयमाणी, भावित्थी आगमतोणोआगमतोय, आगमतो इस्थिवेदजाणओ तदुवउत्तो, (णोआगमतो) इत्थिवेदणामगोताई कम्माई वेयमाणो जीवो, इथि भणिया । इदाणि परिणा, सा जहा ॥१२६॥ अस्य पृष्ठे चतुर्थ अध्ययनं आरभ्यते [130] Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], नियुक्ति : [५६-६१], मूलं [गाथा २४७-२७७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक श्रीखूत्रकसाङ्गचूर्णिः ॥१२७॥ ||२४७ २७७|| दीप अनुक्रम [२४७२७७] 01| सत्थपरिणाए, जहा संजताणं इस्थिपरिणा तथा संजतीणं पुरिसपडिण्णा, इत्थीपडिपक्रवो पुरिसो, तेण तस्सवि णिक्खेवो भाणि-1| निक्षेपाः | तब्यो 'णामं ठवणा दविए'गाथा ॥५५।। णामे जहा घडो पडो कलसो, ठवणापुरिसो कट्टकम्मादिकता जिणपडिमा वासुदेव-1 | पडिमा एवमादि, दब्वे जाणगसरीरादि जहा इत्थी तथा भणियवं, खेत्ते जो जत्थ खेत्ते पुरिसो, जहा सोरहोसावगो मागधो वा एवमादि, यस्य वा यत् क्षेत्र प्राप्य पुंस्त्वं भवति, अन्यत्र न भवति, कालपुरुषोऽपि यावंतं कालं पुरुषो भवति, जहा "पुरिसे गं भदंते ! पुरिसोति कालो केवइ चिरं होति ?, जहणोणं एगं समयं उकोसेणं सागरोवमसयपुहुतं" यो वा यस्मिन् काले पुरुषो भवति(जहा कोइ एगमि पक्खे पुरिसो)एगम्मि पक्खे णपुंसगो, प्रजन्यते अनेनेति प्रजननं तद्यस्यास्ति, केवलमस्ति न पुंस्त्वं स प्रजननपुरुषः, कम्मपुरुसो नाम यो हि अतिपौरुषाणि कम्माणि करोति यथा वासुदेवः स कर्मपुरुषः, भोगपुरिसो चक्कचट्टी, गुणपुरिसो णाम यस्य पुरुषगुणा विद्यते इमे, तद्यथा-व्यायामो विक्रमो वीर्य, सत्वं च पौरुषा गुणाः। कान्तित्वं च मुदुत्वं वि(च)विधक(च)त्वं च योषितां ॥१|| भावपुरिसो आगमतोपोआगमतो य,आगमतो पुरिसो पुरिसजाणगो तदुवउत्तो, णोआगमतो पुरिसणाम| गोताई कम्माई वेदयंतो, दस एते पुरिसणिक्खेवा इति । 'पढमे संथव' गाथा ।। जेऽभिहिता पढमे संथवसंलावादिगेहिं पुन्बुत्तं । 'सूरा मो मण्णंता'गाथा ॥५७।। सूरा मो मण्णता इथिहि अपडिविरतित्ति वाक्यशेषः, कैतवं नाम माया कैतवयुक्ताः कैतविकाः, उवधी नाम अन्येषां वशीकरणं,अधिका कृतिः निकृतिः नियट्टी तत्प्रयोगात् गहिता तु अभयपज्जोतकूआधारा(कूलवाला)दिणो [सरो पञ्जोतो केतवयारो तवस्सी] एवमादिणो जीवा इस्थिदोसेण इह परभवे य णाणाविधाई दुक्खाई पायंति हत्थपायछेदादीणि, 'तम्हाण उ वीसंभो गंतबो णिचमेव इत्थीणं । पढमुद्देसे भणिताजे दोसा ते गणंतेणं ॥५८॥ सुसमत्वाविऽसम- ॥१२७॥ अस्य पृष्ठे चतुर्थ अध्ययनस्य प्रथम उद्देशक: आरभ्यते [131] Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], नियुक्ति : [५६-६१], मूलं [गाथा २४७-२७७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक ||२४७ २७७|| दीप अनुक्रम [२४७२७७] श्रीमत्रक- त्था कीरति अप्पसत्तिया पुरिसा। धर्म प्रत्यसमर्थों, अपसलिया नाम परीसहभीरुणो, 'दिस्संति सूरवादी णारीवसगा शूरविचार: ताङ्गचूर्णिः || ण ते सूरा ॥५९।। रणसुरवादिणोऽवि णारीवसगा दीसंति जहा ते पजोदादयो, को पुण सूरो?, उच्यते-धम्ममि जो दढमई सो ॥१२८ सरोसत्तिओ य वीरो याण हु धम्मिणिरुच्छाहो पुरिसो सूरो सुबलिओवि॥६॥जो धम्ममि दढो सूरो सत्तिगोय,ण उ0 जो धम्मणिरुत्थाहो धर्म प्रति सूरो भवति, यद्यपि बलवानसौ सरीरेण तथाप्यसौ दुर्बल एव, एते चेव य दोसा पुरिसपमादेवि इत्थिगाणंपि । तम्हा उ अप्पमादो विरग्गमगंमितासिपि ॥६१॥ पुरिसोत्तरिओ धम्मोत्तिकाउं तेण इत्थीपरिष्णा बुत्ता, इत्थीणवि एसा चेव विचरीता पुरिसपरिण्णा, गयो णामणिप्फण्णो । सुत्ताणुगमे सुत्तमुच्चरियव्वं अखलितादि जाव पंचधा वित्तिलक्षण| मिति, सुत्तस्स सुत्तेण संबंधो-'आमोस्खाय परिव्यएजासि'त्ति पडिलोमे उपसग्गे अधियासेन्तो 'इमे इत्यन्ये अनुलोमाः, उपोद्घात एव तसोपदिश्यते-पूर्व प्रव्रजति पश्चादुपसर्गान् सहतीतोऽपदिश्यते 'ये मातरं च पितरं च वृत्तं ॥२४७॥ 'ये' इति अणिहिट्ठ| णिदेसो चशब्दोऽधिकवचनादिपु, भ्रातरं भगिनीत्यादि, विविधं प्रधाय विप्रधाय तृणमिव पटांतलग्नं, पूर्वसंयोगो गृहसंयोगः, अथवा जातः सन् यैः पश्चात्सह संयुजते स संयोगः, स तु भार्याश्च पुत्रदुहित्रादि, अथवा सर्व एव पूर्वापरसहसंबंधः पूर्वसंयोगो भवति, अथवा द्रव्यभावतः पूर्वसंयोगो, द्रव्ये खजनसंथवो नोखजनसंस्तवश्व, स्वजने पूर्वापरसंम्तवः, नोखजनसंस्तवखिविधः-सचित्तादि, | सचित्ते दुपदचतुप्पदापदं,द्विपदे दासीदासभृत्यमित्रवर्गादि, चतुष्पदे हस्तिअश्वगोमहिप्यादि, अपदे आरामोद्यानपुष्पपालादि,अचित्ते | हिरण्णादि मिथे साधारणालंकारप्रहरणहस्त्यश्वादि, भावे मिच्छत्ताविरतिअण्णाणा 'एगे सहिते चरिस्सामि' एगो णाम राग| दोसरहितो, सहितो णाणादीहि, आत्मनो वा हितः स्वहितः, चरति-गच्छति वर्तयतेत्ति एकोऽर्थः, विविक्तान्येपतीति विवित्तेसी ॥१२८॥ [132] Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], नियुक्ति : [५६-६१], मूलं [गाथा २४७-२७७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: विविक्तैषि प्रत तादि सूत्रांक ||२४७ श्रीसूत्रतानचूर्णिः ॥१२९॥ २७७|| दीप अनुक्रम [२४७२७७]] मार्गयतीत्यर्थः विविक्तानां साधूनां मार्गमेपतीति विविक्तषी, आरतमेहुणो नाम उपरतमैथुन:, कतर आरतः ? 'विवित्तेसी' विवित्तं द्रव्ये शून्याकार स्त्रीपशुवर्जितं भावे तत्संकल्पवर्जनता, अथवा कर्मविवित्तो मोक्खो तमेवमेषतीति विवित्तमेसी, सुहुमेणं तं परकम्म' वृत्तं ॥२४८॥ सुहुमेनेति-निपुणेन, उच्यते येनेति वाक्यशेषः, परकम्म'त्ति पराक्रम्य अभ्यासमेत्य वंदणपूर्वकेन सूक्ष्मेनोपायेन 'छन्नपदेनेति अन्यापदेशेन, पुत्तकिडगा य णत्तुयभातीकिडगा य पीतकिडगा य । एते जोव्यणकीडगा पच्छनपती महिलियाणं ।।१।। अथवा 'छन्नपदेने ति छन्नतरैरभिधानैराकारैश्चमं अभिसर्पति, तद्यथा 'काले प्रसुप्तस्य जनाईनस्य, मेहां| धकारासु च सर्वरीषु । मिथ्या न भाषामि विशालनेत्रे!, ते प्रत्यया ये प्रथमाक्षरेषु ॥१।। जाणंति ता उवायं च, उपायो नाम विविक्तविश्रंभरसोहि कामः, स तु एको आत्मद्वितीयो या, गच्छगतस किं करिष्यति ?, तस्यैव देशकालं छ(4)च 'जह लिस्संति'चि येन प्रकारेण लिश्यन्ते संबध्यंत इत्यर्थः, एके, न सर्वे, अन्ये हि स्त्रीजनालिङ्गिताः अपि न ताभिः संबध्यते, पवनय| लसमीरिता वहिज्याला इव चैनां मन्यन्ते, ते तूपाया इमे-यथा यथा ह्यग्निः सन्निकृष्टो भवति तथा तथा दहति, इत्येवं मत्वा 'पासे भिसं णिसीयंति' वृत्तं ॥२४९।। भृशं नाम अत्यर्थे, प्रकर्पण उरुणा ऊरूं अकमिया, दूरगता हि नातिस्नेहमुत्पादयन्ति | विधभदा, तेण अद्धासणे णिसीदंति, सनिकृष्टा वा परि जमाणा पुसा पुष्यन्तेऽनेनेति पोषक तबिमित्तं वा कामिभिर्वखानपानादिभिः पुष्यत इति पोपकं-पोसं, वत्थं णाम णिवसणं, तमभीक्ष्णं अभीक्ष्यमायासबद्धमपि शिथिलीकृत्वा परिहिति, णिविट्ठा उद्वित्ताउ | य आसन्नगताउ य होइऊण 'कायं अधिविदंसेन्ति' जंघा दुन्निवि हूद्धक्खणे वा जणणेण द्विता वा संती णिवेयंति गुह्यमिति प्रकाश्य पुनलिमवेति, बाहु उद्दु नाम उत्सृज्य कक्षा परामृशति, एवमादीनि अन्यान्यपि भ्रूकटाक्षविक्षेपादीनाकारान् करोति, [133] Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], नियुक्ति : [५६-६१], मूलं [गाथा २४७-२७७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक मयूराणा ॥१३०॥ ||२४७२७७|| दीप अनुक्रम [२४७२७७]] किं च-'सयणासणेहि जोगे वृत्तं ॥५०॥ तमेकाकिन व्याकुलसखायं वा मत्वा सयणे णिमंतेति, सयणं णाम उवस्सयो, सीतं । इदाणिं, साह अंतो, अतीवगिम्हे या मत्वा सयणे णिमंतेति, धूलि वा कतवरं वा उपसग्गाउ णीणेति, अण्णतरं वा संमजणवरिसी-13 यणाति उवसग्गपरक्कम करेति, 'आसणेणं ति पीढएण वा कट्ठमएण वा आसंदएण णिमितेति, 'योग्य'मिति यस्मिन् काले हितं निवातं प्रवातं वा स्यात् , किमासां भिक्षुणा प्रयोजनं ? नन्वासामन्ये कामतंत्रविदः तत्प्रयोजनिनश्च गृहस्था विद्यन्ते, उच्यते हि कुयोपितो विधवा विप्रवसितधवाः, तासां हि विरूपोऽपि तावद्वयोस्थोऽतिकाम्यो भवति, दुर्मुखोऽप्यघार्थिकोऽपि एकान्तरुचिरपि, किमु यः सरल सुरूपो विचक्षणः, उक्तं हि-"माधुर्य प्रमदाजने च ललितं०" ता हि सन्निरुद्धाः सधवा विधवा वा, आसनगतो हि निरुद्धाभिः कुब्जोऽन्योऽपि च काम्यते, किमु यो स कोविदः, उक्त हि-"अंबं वा निवं वा अभ्यासगुणेण आरुभति वल्लीं।" दूरस्थं चैनं मत्वा ब्रूयात्-अम्हे हि ण सफेमो सकम्मा दिणओ वंदितुं णमंसितुं वा, इमाणि अम्ह सयणाणि वा, अथवा योग्यग्रहणात् उच्चारपासवणचंकमणत्थाणज्झाणओयणभूभीओ घेप्पंति, सा जइ कदाइ सड्डी भवेजा जाणइ जाई साधुजोगाई 'इत्थी एगता णिमंतेति' एकमिन् काले एकदा, यदा यदा स एकाकी भवति व्याकुलसखायो चा, अथवा बरिसारचादिसु जत्थ सयणासणोपयोगो भवति, सयणमिति संथारगो घेप्पति, उवस्सओवि, एताणि चेव से जाणे पासा उ विरूवरूवाई' एतानीति यान्युपदिष्टानि शयनासननिमन्त्रणानि स भिक्षुः पासयंतीति पासा त एव हि पासा दुच्छेद्याः, न केवलं हावभावभ्रूविभ्रमेंगितादयः, न हि शक्यमुल्लंघयितुं, न तु ये दानमानसत्काराः शक्यन्ते छेतु, उक्तं हि-"जं इच्छसि घेत्तुं जे पुचि ते आमिसेण गिहाहि । आमिसपासणिबद्धो काही कजं अकजंपि ॥शा" 'विविधरूवाई ताई पुण पासाणि विरूवरूवाणि, संबधनउपगृहनआलिंगना [134] Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], नियुक्ति : [५६-६१], मूलं [गाथा २४७-२७७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: दृष्टिपरिहा प्रत सूत्रांक श्रीसूत्रक| ताङ्गचूर्णिः ॥१३॥ ||२४७ २७७|| दीप अनुक्रम [२४७२७७]] दीणि, जहा ताणि परिहरणीयाणि तथा तब्भयादेव सयणासणणिमंतणादीणि परिहरितव्वाणि, ताणि पुण कह परिहरितव्याणि ', | उच्यते 'णो तासि चक्खु संधेजा' सिलोगो ॥२५१।। चक्षुसंधणं णाम दिद्विए दिद्विसमागमो, अकुट्ठउ विकटुओवि य तासु णिचं भवेजा, कार्येऽपि सति अस्निग्धया दृष्ट्या अस्थिरया अवज्ञया चैता ईपनिरीक्षते, 'साहसमिति परदारगमनं, नासाह| सिकस्तत्करोति, संग्रामावतरणवत् , तत्र हि सद्यो मरणमपि, स्यात् हस्तादिछेदबंधघातो वा, स्वदारमपि तावद्दीक्षितस्य साहसं, | किमु परदारगमनं ?, अथवा साहसं-मरणं, प्राणान्तिकेऽपि न कुर्यात् , अथवा यदसौ स्त्री चापल्यात् साहसं कुर्यात्तदस्या न सम| नुजानीयात् , उक्तं हि-"पुरुषे विद्यते सच"मिति, 'न सज्झियंपि विहरेजा नेति प्रतिषेधे,'सज्झिय'ति ताहिं सह, गामाणु| गाम ण विहरेज, जत्थ वा ताओ ठाणे अच्छति तत्थ ण चिट्टितचं, कयाइ पुन्धि ठितस्स झत्ति एजा ततो णिग्गंतव्वं, क्षणमात्र मपि न संवस्याः, 'एचमप्पा रखित्त सेउत्ति आत्मेति सरीरमात्मा च, स इह परे च लोके अतिरक्षितो भवति, ये इह मैथुना| नाचारदोषास्तस्य न भविष्यतीत्यतो निरीक्षितो भवति, पुनरिदानी पाशाः 'आमंतिय ओसवियं वा घृत्तं ॥२५२।। काचित् सन्निकृष्टगृहवासीनी सेजायरी प्रातिवेशिकी वा अहनि विरहाचलंभात् ब्रूयाद्-अहं निश्यागमिष्यामि, नास्ति मेऽद्वनि क्षणो विरहो वा, तद् अस्या न समनुजाणीयात् , धर्म श्रोतुमितरप्रयोगेन वा, यदि चेत् मम भर्तुः शंकसे तत एनमहं आमन्व्य नाम पुच्छिउँ | तत्प्रयोजना बसि तं स्थापयित्वा, अथवा ब्रूयात्-असावहनि कृप्यादि कर्मपरिश्रान्तः भुक्तः सन् निपन्नमात्र एव मृतवच्छेते, भद्रक | एवासौ, न मम रुस्सिहितित्ति, जइवि में परपुरिसेण सह गच्छमाणि पेच्छति तहावि नवि रूसेजा, अथवा संकेतेत, ननु ते भान | विरूप्येत?, सा ब्रवीति-आमंतिय ओसवियाणं, आमंतिय ओसविया च तमहमागता, तुम्भे वीसत्था होह, विविक्तविश्रंभरसो हि ॥१३१॥ [135] Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], नियुक्ति : [५६-६१], मूलं [गाथा २४७-२७७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत श्रीसूत्रसूत्रांक वाचूर्णिः ||२४७ | ॥१३२॥ २७७|| Athe दीप अनुक्रम [२४७२७७] शरीरापकामः, यच पृच्छसि किमागताऽसि-अकाले इति ? तं धर्म श्रोतुं, त्याद्वा ममाऽऽणत्तियं देह यन्मया कर्त्तव्यमिति, शुश्रूषापादशौ णादि चम्रक्षणादि, यद्वा किंचिदसद्गृहेऽस्ति तत्सर्वमहं च भवत्संतकं 'आयसा' नाम आत्मसा, अप्पएणवि णिमंतेति तुभं च इम शरीरगं, अहं ते चलणोवधानकारिया, एवं भिन्नकहादीहि.सम्बन्धः, सम्बधनालिङ्गानउपगूहनकंठवलंबणादीणि चा कुर्वती निवा| रिता ब्रूयात-'कुत्र वा ममान्यत्रोक्योगो, एतानि चेव से जाणि सदाणि' एतानीति यान्युद्दिष्टानि 'से' इति स भिक्षुः, शब्दा नाम | ये शब्दादिविषयाः कथिता, न केवलं गीतातो शब्दा वर्जा, आत्मनिमन्त्रणादयो हि सुदुस्तराः शब्दाः, अथवा यानि सीत्कारा| दीनि सद्दाणि कजति तान्येवैतानि विद्धि निमन्त्रणादीणि शब्दानि, पढंति च-'सदाणि विरूवरूवानि तासु हि पंचलक्खणा विसया | संति विभासियब्वा, विविधं विसिटुं वा रूवं, विरूवाणि रूवाणि जेसिं ताणिमाणि विरूवरूवाणि-'गाह पिय कंत सामिय दइत वसुल होलगोल ! गुणलेहि । जेणं जियामि तुम्भं पभवसि तं मे सरीरस्स ॥१॥ इमानि चान्यानि शब्दानि 'मणबंधणेहिणे'वृत्तं | ॥२५३॥ मनसो. बंधनानि मनोवंधनानि, तानि तु गतयश्च निरन्तरा रूवमंदा यस्मिन् करुणमाकारतो वाक्यतश्च, विनीतवत् वन्दन| पूजन पादादिसंचाधनं 'उपकत्ता' अल्लिइत्ता 'अदु मंजुलाई भासंति' मणसि लीयते मनोऽनुकूलं वा मंजुलं, मदनीयं वा मंजुलं, |मितमधुररिहितजंपुल्लएहि ईसी कडक्खहसितेहिं । सविकारेहि विरागं हितयं पिहितं मयच्छीए ॥१॥ भेदकरी कथा भिण्णकहा, |तंजहा-तुमंसि किंवत्तवीवाहो पब्वइतो ण वत्ति, वृत्तवीवाह इति चेत् कथं सा जीवति त्वया विनैवंविधरूपेनेति, कुमार इति चेत्, अनपत्यस्य लोकान संति, किं ते तरुणगस्स पवजाए ?, दारिका परिजसु, मया वासह मुंज भोए, स्यात्कथं वैराग्यं वा काम- ,. भोगपरंपराज्ञः, भुक्तभोगः कुमारगो वा तत्प्रयोजनात्यन्तपरोक्षः आनम्यते, कथं ? 'सीहं जहा व कुणिमेणं' वृत्तं ॥२५४॥ ॥१३२||-- admah... attha luti [136] Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], नियुक्ति : [५६-६१], मूलं [गाथा २४७-२७७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: एक श्रीसूत्रक प्रत सूत्रांक साचूर्णिः ॥१३॥ ||२४७ २७७|| येन प्रकारेण यथा सहस्रिकोऽपि स्कन्धावारः सिंहेनैकेन भअते, क्वचिच्च पन्थाः सिंहेन दुर्गाश्रयेण निःसंचरः कृतः, स च तद्- हणोपायविद्भिः पुरुपैः छगलकं मारयित्वा तद्गोचरे निक्षिप्य पाशं च दद्यात् , तेन कुणिमकेन बध्यते, एकचारी नाम एक एवासौ चरति, न तस्य सहायकृत्यमस्ति, उक्तं हि-'न सिंहवृन्दं भुवि दृष्टपूर्व"एवेत्थिया बंधंति' भावबंधेन, द्रव्यसंवुत्तो हि समुद्रकूर्मों, पिहिता आश्रवा यस्य भावतः, स तु संवृत्तः भावकचरः, द्रव्यतो भाज्याः, पाशाः कूटादयः, भावपाशास्त्विमे-गतिविभ्रमे|गिताकारहास्पादयः, यैर्भायो पाश्यते, संवृतोऽपि तावद्वध्यते, किन्नु योऽल्पवृत्तिरिति, अह तत्य पुणो नमयंतिसिलोगो।।२५५॥ तस्मिन्निति तत्र, मूच्छित इति वाक्यशेपः, असंजमनतं पुनरने कैरुपायैर्नमयन्ति यद्यदिच्छंति तत्कारयन्ति, यथा रथकारः नेमिकाष्ठं तक्षन क्रमशो, यदि स एवं नतः 'यद्धे मिए व पासेण' यथाऽसौ मृगः पाशेन बद्धः मुमुक्षुः स्पन्दमानोऽपि न मुच्यते एवमसावपि विपयदानद्धः कुकुटुम्बकृतचीहिं व्याप्रियमाणोऽपि पुनर्विजिहीपुरपि न शक्रोत्यवसपितुं क्रव्यगृद्ध इव सिंहा, भावगाय, | कुकुटुम्बव्यापारः कृष्यादिभिः व्याप्तः, कर्मभच्छिताः 'अह सऽनुतप्पती पच्छा' वृत्तं ॥ २५६ ॥ यथा कथिजनो जानन् । अजानन् वा विपमिश्रं पायसं भुक्त्वा तत्परिणामे वेदनोदये भृशमनुशोचते, एवं विवागमणिस्सा एवमिति योऽयमुक्तः विवागो दारभरणादिपरिकेशः, विवेग इति चेत् भवति विवेच्यते येन भवः कर्म वा स विवेगः-संयमः एवं विवेगमानात, स्त्रीभिः संगमो न कार्यः, काष्ठकर्मादिस्त्रीभिरपि तावत्संघासो न कल्पते, किमु सचेतनाभिः १, दबिओ नाम रागदोसरहितो, एगतो वासः संवास: तदासणे वा संवसतो संथवसंलावादि, दोसा असुभभावदर्शनं भिन्नकथा वा स्यात् , उक्त हि-तदिन्द्रियालोचनसक्तद्रव्या:०"तम्हा उ बजए इत्थी' वृत्तं ॥२५७।। तस्मात्कारणात् इन्थी तिविधा, कथं वजए ? 'विस लित्तं कण्टगं णच्चा' विषेण दिग्धो विप-1 दीप अनुक्रम [२४७२७७]] [137] Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], नियुक्ति : [५६-६१], मूलं [गाथा २४७-२७७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: वशवत्ति सूत्रांक ||२४७ २७७|| दीप अनुक्रम [२४७२७७] श्रीसूत्रक- दिग्धः आगंतुना सहजेन वा, अविपदग्धोऽपि तावत् परिहियते, किं पुनः सविप इति, स तु मरणभयात् परिहियते, खियस्तु संयताङ्गचूर्णिः ममरणभयात् , किंच-'ओये कुलाणि वसवत्ति' ओयो णाम रागदोसरहितो, वसे वर्चत इति वशवतीति, पूर्वाध्युषित्वात् यदु॥१३४॥ च्यते तत्कुर्वन्ति ददति या, खियो वा येषां वशे वर्तन्ते, किं पुनः खैरवीजनेषु, वश्येन्द्रियो वा यः स यशवर्ती, गुरूणां वा चशे वर्त्तते इति वशवर्ती, आघाति नाम आख्याति गत्वा २ धर्म निष्केवलानां स्त्रीणां असहितानां पुंसां, असावपि तावन्न निर्ग्रन्थो भवति, किमु यस्ता भिन्नकथं कथयति ?, यदा पुनर्बद्धा सहागता पुरुपमिश्रा वा वृन्देन वा गच्छेयुः तदा स्त्रीनिन्दा विपयजुगुप्सां अन्यतरं वा वैराग्यकथं कथयति, कदाचिदू यात-यदिवा गृहमागंतुं न कथयसि तो भिक्खपाणगादिकारणे] एजह, दृष्टिविश्रामनामपि तावच्चां दृष्ट्वा करिष्यामः, अपश्यत्या हि मे त्वां शून्यमेव हृदयं भवति, एवमुक्त्वा वा 'जे एवं इच्छं अणुगिद्धा' वृत्तं ।।२५८॥ जे इति अणिदिणिद्देसो, एतदिति यदुक्तं गिहिणिसेजे, जे वा एवंविधाणि इच्छंति गवसंतेत्यर्थः, अणुप्रयायते, इम एतदपि तावद्भवतु यदि रहो नास्ति समागमो बा, 'अग्णयरा उ ते कुसीलाणं' पासत्थादीणं कुत्सितसीला कुशीला पासत्था दयः पंच माव वा, पंचति स पासत्थउमण्णाकुसीलसंसत्तअहछंदा, णवत्ति एते य पंच इमे य चत्तारि-काथिका मामकः प्राश्निका संप्रासारिका, स्वीसमागमाद्वा को दोपः?, उच्यते, 'सुतवस्सिएवि भिक्खू अथवा अन्यतरो वा भवति कुशीलानां सुष्ठु तप| स्सिनः सुतपस्सिनः योऽपि ताव तपोनिष्टप्तविग्रहः स्यात् मासोपवासी वा द्विमासोपवासी वा अथवा श्रुतमाभृतः सुतमहिज्जतो Dगणी वायगो चा, नो प्रतिषेधः, विहारो नाम नक्तं दिवा वा शून्यागारादि परिकजणे वा खगृहे 'सहण ति देसीभासा सहेत्यर्थः, एवं ज्ञात्वा स्त्रीसंबद्धा वसधी वर्मा, कूटचारो दृष्टान्तः, कतरा स्त्रियो वर्जा ?, उच्यते, असंकनीया अपि तावदर्जाः, किमु शङ्क [138] Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], नियुक्ति : [५६-६१], मूलं [गाथा २४७-२७७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: |एकान्तविषमता सूत्रांक श्रीसूत्रकतामचूर्णिः ॥१३५॥ ||२४७ २७७|| दीप अनुक्रम [२४७२७७] | नीयाः, तथथा-'अवि धूअराहिं सुण्हाहिं' सिलोगो॥२५९॥ अवि विसेसणे धूयरो पुत्तिया ताहिं, पुत्तवहुणो मुण्डा, जड़ नाम सुण्हा, धीयत इति धाती, दासीग्रहणं व्यापारक्लेशोवतप्ताः दास्योऽपि वाः , किमुत स्वतत्रा खैरसुखोवेता, महल्लीहि वा कुमारीहिं' महल्ली वयोऽतिक्रान्ताः वृद्धाः, कुमारी हि अप्राप्तवयसा भद्रकन्यकाः, संथवो उल्लावसमुल्लावहास्यकन्दर्पक्रीडादि, मातृभिर्भगिणीभिश्व, नरस्यासंभवो भवेत् । बलवानिन्द्रियग्रामः, पण्डितोऽप्यत्र मुह्यति ॥१॥ स्याकिमत्र', 'अउ णातीणं |च सुहीणं च'वृत्तं ॥२६०॥ अदुरिति अथवा णातीणं वा णातयो णाम कुलघरे वसंतीए पितृभ्रात्रादयः, अथवा स्त्री येषां दीयते | त एव तस्याः सगोत्रा भवन्ति ज्ञातकाच, सुहिणो णाम जे सन्नायका मित्राः, तेपामप्रियं भवति, यद्यपि प्रतिषेधयंति 'एकदा' कदाचित , उभ्रामिकेयं उक्ता वा यात्-एप पुत्रमस्तको यथा, नैतत्सत्यं, सा च तस्मिन्नर एवातिमून्छिता यात्-मा मे पुन।। रेवं वक्ष्यसि, गिद्धत्ति पासत्ति वा मुच्छिएत्ति वा एगट्ठा, बयादिति वाक्यशेपः, त्यात् अहो इमीसे वयं रक्खपोसणे करेमो, इमो पुण सेसमणुओ मणुस्सकजं करेइ, भणिज वा-हे खमण ! इमीसे रक्षणपोसणं करेहि, त्वमेवास्या मनुष्यः इति, एस तुमे सद्धि | दिवस उल्लाविंती अच्छइ, अयमपरः कल्पः-हे खमण ! रक्खणपोसणे मणुस्सो भवति, न कहाहिं, किंच-अन्येनाप्युदरे कृते | दंडायाः सोऽपदिश्यते-तत्वमेवास्या रक्षणपोषणं कुरु, मनुष्योऽसि, राउले च ते कडामो, अथवा भणेज-हे साधु ! एसा अम्हचिया गिद्धा सत्ता तुमंसि अम्हे णो आढाति णो परिजाणति, नरकस्त्वं, एनां रक्षणेन पोपणस्त्वमेणां, पोपणेन मनुष्यस्त्वमस्याः, किंच-समणंपि दटुदासीणं' वृत्तं ।। २६१ ।। कदाचिदसौ तस्मिन् रूपवति साधौ गृद्धा स्वरसौष्ठयोपेते वा गृद्धा तश्चित्ता | वम्मणा अच्छेज, अभिक्खणं वा अभिक्खणं तम्मि तेण दीसेज पडिचोदिजंति वा अच्छीयमाणी, तथैवाह-सयणं दद्रुदासीणं, १३५।। [139] Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], नियुक्ति : [५६-६१], मूलं [गाथा २४७-२७७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: औदासी प्रत न्यादि सूत्रांक श्रीसूत्रकतामन्चूर्णिः ॥१३६॥ ||२४७ २७७|| दीप अनुक्रम [२४७२७७] तमपि तथैव तचित्रं तम्मणं स्वाध्यायध्यानप्रत्युपेक्षणादिसंयमकरणोदासीणं तिष्ठन्तं दृष्ट्वा जानानाश्च यथेपोऽस्या निमित्तेन संयमकरणोदासीणो चिट्ठति, तत्थवि ताव एगे कुप्पंति, भणंति वा-किमेवं अज लक्खसि ?; अन्यथा च पठ्यते 'समणंपि दादासीणि उदासीणी गाम येपामप्यसौ भार्या न भवति, बान्धवीया अपि पदार्थादिपु तां च पोपितुं, किमु यस्यासौ भार्या बान्धवी वा तामगणयंती, अथवा 'उदासीन मिति उदासीनमपि भावात् श्रमणं दृष्ट्वा स्त्रीसहगतं एके कुप्यंते, किमु सविकारप्रायमिति, 'अदु भोयणेहिं णत्थेहिं न्यस्तानि-उपनीतानि उपेत्य नीतानीत्यर्थः, न गृहिणो, तस्स हत्थाओवा, सो य धणगसमणगो गिहिणीसेजबाही वा भिक्खाए आगतो, अथवा न्यस्तमिति तद्गतमनसं दट्टुं कूरो दत्तो न तावद् व्यञ्जन, स वाऽऽगतः स तत्रातिसंभ्रमेणातुरीभूता सावातकस्यान्यस्य वा दातव्यं तं न प्रयच्छति, अन्यस्मिंश्च दातव्ये कर्तव्ये वा अन्यत्प्रयच्छति करोति वा, निदर्शनं जहा-कहिचि गामे पदोसे गड्ढे गट्टेण तालिते मद्दले काइ वधू ससुरादीए परिवेशंती भायणेसु दिण्णेसु कूरमानेति, ताए य तण्डुला इतिकाऊण राइआउ अवस्सीयाउ, ततो णाए करोत्तिकाउं ससुरस्स उकिण्णाउ, सो य आणक्खेतुं तुसिणीओ, महत्थिया संचिट्ठति, पतिणा से अस्सादेतुं पिट्टिता, एवं तंपि साधुणिमि संभंतं दटूण गृहिपु आत्मसु वा नादृतां तस्याः भोतकाद्या इस्थीदोससंकिणो भवंति, इत्थीदोसो णाम व्यभिचारिणी, स्यादेवं विधाः अपि दोपाः कस्यचित् दृष्टा अभूवन भवन्ति वा?, ओमित्युच्यते, 'कुवंति संधर्व नाहिं' वृत्तं ॥२६२।। संथवो णाम गमणागमणदाणसंप्रयोगप्रेपणादिपरिचयः, तामि'रिति ताभिः खीभिः, पन्भट्ठा णाम पाणदमणचरिचजोगेहिं, जओ एते दोसा 'तम्हा समणा उ जहाहि' तसात् कारणात् श्रमण इत्यामन्त्रणं अथवा श्रमणस्त्वं किं तवैवंविधैापारः १, एते गार्हस्थानामेव युद्धते, तुर्विशेषणे, जहाहि, पठ्यते च तम्हा ॥१३६॥ [140] Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], नियुक्ति : [५६-६१], मूलं [गाथा २४७-२७७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: मिश्री भावादि प्रत सूत्रांक ||२४७ २७७|| दीप अनुक्रम [२४७२७७] श्रीमत्र कु- समणा ण समिन्ति आतहिओ' न इति प्रतिपेधे, समिति समन्तात् , न समग्रमित्यर्थः, अथवा ण' समेन्ति-ण समुपाताचूर्णिः | गच्छंति, आत्मने हितं आत्महितं आत्मनि वा हितं आत्महितं, तासिपि अविरतियाणं तं हितं इह परलोगे य, मण्णिसे जा णाम | ॥१३७ गिहिसेजा संथवसंकथाओ य, स्थात् प्रव्रज्यामुपेत्यापि एवं कुर्यात् ?, ओमित्युच्यते, बहवे गिहाणि अवहट्ट' वृत्तं ॥२६.३।। प्रभूताः अपहत्यापहत्य उत्सृज्येत्यर्थः, दयलिंगेण समणावि 'मिस्सीभावपण्हया' मिश्रीभावो नाम द्रव्य लिङ्गमिति, न तु भावः, ॥ अथवा पबजाए गिहवासेऽवि पाहता णाम गौरिख प्रस्नुता एवमेषां, कर्मभयाद्वा मिश्रीभावः, प्रियतच्चे कतरः पक्षः, विसय सायासोक्खपडिबंघेणं भर्णति-लिंगछेयणमेर, अवधाणं चिरं, पण्डोमित्ताचि कखामोहणिजफम्मदोसेण कयाइ अधेसत्तमीओ अ PA बंधेज इति, अण्णे पुण अट्टदुहवसट्टा असमाधिगतात एवं पंडितत्तणेण धुवमग्गमेव भासिंसु, धुवमग्गोणाम संजमो. वेग्ग्गमगो वा, तंजहा-बहुमोहेनि णं पुव्वं विहरित्ता अह पच्छा मंबुडे कालं करेजा आराधए भवति, तं तेसिं वायाचीरियमेव, केवलं' ढक्क रिपुचर्ण, न तु करणवीरियं, उक्त हि-'जो जत्थ होति भयो ओवासं 'गाथा, वायावीरियं णाम जो भणति ण य करेति भिलं10 गगनवत् , अथवेदं वायातीरियं 'शुद्धं रवति परिसा' वृत्तं ॥२६४।। सुद्धमिति वेरग्गं, अथवा शुद्धमिति शुद्धमात्मानं, ततः पूजागत्कारहेतो: परिसंदि रीति-सीपत इत्यर्थः, 'अथ रहस्समि दुकर्ड करेंतिति एवमुक्त्वो रहस्संमि दुकई करेइत्ति, दुकर्ड णाम पावं, अथवा दुक्खं तल्लिङ्गस्थैः क्रियत इति दुकडं, किंच 'जाणंति य णं तथावेना' सहि जाणीने-न मां. कथित् | जानानि, अथ चैन नथाचेता जाणंति, तथा वेद यंतीति तथावेदाः, कामतंत्रचिद इत्यर्थः, ते हि कामयमान आकारविकारैनिंति, उक्त हि-"अनमिना कामविपाहुराणि, जनूनि गात्राणि च कामुकाणां । नखदशनच्छेद नै मूल्यन्ते यथैतेऽकृत्यकारिणः, यथा- १७॥ [141] Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], नियुक्ति: [५६-६१], मूलं गाथा २४७-२७७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक ||२४७२७७|| श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः ॥१३८॥ TITLDPana दीप अनुक्रम [२४७२७७] ऽध उच्चाराद्युत्सृजन दृश्यमानोऽपि परैर्मन्यते न मां कश्चित्पश्यति एवमसावपि रागद्वेषान्धो जानीते न मां कश्चित्पश्यति, ज्ञायते च । - परीवजन् , जलभृतवत् , अथवा यो यथावस्थितो भावतः तं तथावेदा:-प्रत्यक्षज्ञानिनः, ते हि आवीकम्मं रहोकम्मं सव्वं जाणंति, ये पुनस्ते तद्विधाः ते ब्रुवते-अहो इमो माइक्लो महासढो जो णाम इच्छति अम्हेवि पत्तियावेत्तुं, णवि लोणं लोणिजति ण य तोपिजइ घयं च तेल्लं वा। किह सका वंचेतु अत्ता अणुहृयकल्लाणी? ||१|'सयदुक्करं अवदते' वृत्तं ॥२६५।। एवं तावदसौ स्वयं दुक्कडकारिणं आत्मानं न वदति यथाऽहं दुकडकारीति, जोऽपि य गूढायारं प्रवचनवात्सल्यात् तद्धितमिच्छन्वा चोदयति तत्थवि णिण्हवति, आक्रुष्टो नाम चोदितः आघ्रातः अभिशास्तो वा, कत्थ श्लाघायां, भृशं कत्थयति श्लाघत्यात्मानमित्यर्थः, अहं नाम / अमुगकुलपम्तो अमुगो वा होतओ एवं करेस्सामि, येन मया कनकलता इब बातेरिता मदनविसविकंपमाना भायों परित्यक्ता " सोऽहं पुनरेवं करिष्यामि ?, "यदि संभाव्यपापोऽहमपापेनापि किं मया ? । निर्विपस्यापि सर्पस्य, भृशमुद्विजते जनः ॥१॥" V/ अपापे धूयाद्वा-को प्रवीति ? यथाऽहमेयंकारीति, स भावेन च ह्येवंझारी, उक्त हि-"खेनानुमानेन परं मनुष्याः०" राउले वा णं । कट्टामि, वेदाणुवीयी कामासि' वेदः वेद इब वेदः तस्यानुवीचिः-अनुलोमगमनं मैथुनगमनमित्यर्थः, तस्यानुलोमं मा कापीः प्रतिलोमं कुरु, एवं चोदितो माणुकडताए सम्मचिट्ठोऽवि च किलामिअति, ग्लै हर्पक्षये, दैन्यमायातीत्यर्थः, किमेप मामेवं चोदयतीत्यर्थः, उसिताचि इत्थिपोसेहिं वृत्तं ॥२६६।। उसिता नाम वसिता, पोपयतीति पोपा:-भगं त्रियो वा पुष्णंतीति पोषकाःभुक्तभोगिनः, इस्थिवेदो हि फुफुमअग्गिसमाणो अवितृप्तो, नाग्निस्तृप्यति काष्ठानां, नायगानां महोदधिःनांतकृत्सर्वभूतानां, न पुंसां वामलोचनाः ।।१।। खियो या येन वेद्यन्ते स खीवेदो भवति, वैशिकतवेऽप्युक्तं "एता हसति च रुदंति च अर्थहेतोः, विश्वा ॥१३८॥ [142] Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक |२४७ २७७|| दीप अनुक्रम [२४७ २७७] श्रीसूत्रकृ ताङ्गचूर्णिः ॥१३९॥ “सूत्रकृत” अंगसूत्र- २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४] उद्देशक [१], निर्युक्ति: [ ५६-६१], मूलं [गाथा २४७-२७७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: - संयंति च नरं न च विश्वसंति। स्त्रियः कृतार्थाः पुरुषं निरर्थकं, निष्पीलितालक्तकवत् त्यज॑ति ||१||" तथा अण्णे भणति पुरतो अण्णं पासे (अण्णं पिट्ठे) विमाणीओ। अण्णं च तास हिअए जं च खमं तं करेंति महिलाओ ||१|| " प्रज्ञया समन्विताः लोकलोकोत्तरशास्त्रविदः उत्पत्यादिबुद्धियुक्ता, एके, न सर्वे, पारीण वसं उचणमिति, दृष्टान्तो वैशिकपाठकः, एगो किल जुआणो वेसियअहिजणणिमित्तं गिहातो णिग्गतो, पाडलिपुत्तं गच्छंतो अन्तरा एगंमि गामे एगाए इत्थीए भण्णति-सुकुमालसरीरो तुमं कत्थ वच्चसि ?, तेण भण्णति-वेसियसत्थं सिखगो वच्चामि, ताए भण्णइ-अधिजितुं मज्झेण एजाधि, सो तं अधिजिउं तीए समीवमागतो, सा य संभमेण उडिता, तम्प्रयोजनार्थीनि चाकाराणि दर्शयति, अभंगुब्बलणण्हागाणि उच्चरगे काउं जहिट्ठपाणभोयणं भुंजावेन्ती ते आगारे करेति, तेण में इच्छतित्तिकाउं हत्थे गहिता, तीए धाहा कतो, जणो पुच्छितो, गताउलो, गलंतिउदगं तस्सुवरि पक्खिविऊण भण्णति- एस गले लग्गएणं मरणं ण गतो, पच्छा जणे गते भगति किं ते अधीतं १ को इत्थीणं भावं जाणितुं समत्योति विसज्जितो गतो, 'अदु हत्थपादछेजाई' वृत्तं ॥ २६७ ॥ अथेत्यानन्तयें परदारप्रसक्ता हि नरा नार्यश्व अपि तच्छेदं 'अदुवा बद्धमंस' ति पृष्टी बद्धाणिचत्कृत्यन्ते मांसानि चोत्कृत्य काकिणीमांसानि खाधिजंति, 'अउ तेयसाभितवणाई' तेजःअग्निः तेनामिवप्यन्ते तच्छेत्तुं वासीए सत्थएण वा खारेण उस्सिच्चंति कलकलेण व 'अउ कण्णच्छेज्ज' वृत्तं ॥ २६८ ॥ कण्णा छिज्जेति णासाउ छिज्जति कंठे छिज्जतित्ति गलच्छेदः, तितिक्खति पुरुषो वाता वा स्त्रियः सहंत इत्यर्थः एवं विलविज्जंतोवि, 'इति एत्थ पावसंतत्ता' अस्मिन् पापे संतप्ताः पापं मैथुनं परदारं वा, 'ण य वैति पुणो ण करिस्सामो' का तर्हि भावना ?| अपि मरणमप्युपगच्छंति न च ततः पापाद्विनिवर्त्तते, अपरः कल्पः - यदाऽसौ स्त्री केनचि उक्ता भवति त्वमेवं अकार्षीरिति पथा [143] खीखभावाः ॥१३९॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], नियुक्ति: [५६-६१], मूलं गाथा २४७-२७७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: विपाका प्रत सूत्रांक ||२४७ २७७|| दीप अनुक्रम [२४७२७७] श्रीसूत्रक दसौ ब्रवीति-अउ हत्थपादछे जाई इमे मे पादे छिदाहि, जीवितस्थापि, मा च मे तं वयणं बहि, पट्ठिबद्धवाणि व मे उताहि, नागर्णिः कागणिभंसाणि च मे खावेहि, मा य मे असम्भावं भणाहि, अउत यसा ता तिवणहि कडरिंगणा च मे डहाहि उम्मुएण वा मे डंभेहि, ॥१४॥ HAI कुंभियाएण मे पयाहि, तच्छेऊण वा मे गाताई खारेण सिंचाहि, कण्णासं कंठं या मे छिंदाहि, मा एतं वितिय भणाहि एलोवि मे बियंगणाओ वेदणाओ वा खलियतरं अन्भाइक्खणं, तृतीयो विकल्प:-अभिशप्ता वाऽसौ यात्-हस्तौ वा मे पादौ वा मे छिंदाहि पृष्ठोबाणि वा में उत्कृत काकीणिमांसाणि वा मे खावय बा, अउतेयसाभितवणाई, तेयसा वामां तृणैरावेष्ट्य अमिताचय, शस्त्रेणान्यतरेण वा मे गात्राणि तक्षित्वा खारेण सिंच अउ कौँ छेद कोष्ठौ वा नामां वा छिन्द कणं वा छिन्द इति, । 'एत्य पावसंसत्ता' पापं नदेव परदारगमनं तत्राऽऽसताः, खियः, ण य वेन्ति पुणो न काहंति, अतीव हि ममासौ मनोऽनु| कूलः, तस्य बाह, नाहं तेण विना क्षत्रमात्रमपि जीवितुमुत्सहे, तं पुण मे वसयंसि जं जाणसि तं करेहि, एमेव पुरुषा अपि कामसंतप्ताः निवार्यमाणा मते 'सुयमेवमेगेमि' वृत्तं ॥२६९|| श्रूयते स्म श्रुतं, श्रुतमिति विज्ञान, लोकश्रुतिप्वपि तत् श्रूयते यथा खियबलम्बभावा भगः संचया अदीयप्रेक्षिण्या लहुसिकाः गर्विताः, एवं लोके आख्यायिकासु आख्यानकेपु च श्रूयते, इस्थि| दो नाम वैगिकं, तत्राप्युपदिष्ट-'दुनिज्ञेयो हि भावः प्रमदाना मिति, "दुर्गाय हृदयं यथैव बढनं यदर्पणान्तर्गतं, भावः पर्वतमागदुर्गविषम: म्रीणां न विनायते । चितं पृष्फरपत्रतोयचपलं नकत्र संतिष्ठने, नायों नाम विपाहुरैखि लतादोपैः समं वर्द्धिनाः ॥१॥" अपि च-"सुटटुवि जियागु सुवि पियासु सट्ठवि पलद्वपमरासु । अडईगु महिलामु य वीसंभो भेण कायव्यो।॥१॥ हक्युबउ अगुलि ना पुरिमा सब्यमि जीवलोमि । कामेन्तएण लोए जेण ण पत्तं तु वेमणसं ।।२।। अह एताणं पगतिया सच्चस्रा ॥१४॥ [144] Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], नियुक्ति : [५६-६१], मूलं [गाथा २४७-२७७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: क्षणरागन्यादि प्रत सूत्रांक ||२४७ २७७|| श्रीमत्रक कति वेमणस्साई । तस्स ण करेज मंतु जस्स अलं चेव कामेणं ॥३॥ एवंपि ता वदित्ताणं यदा तु प्रस्थिता निवारिया भवति मैवं ताङ्गचूणिः कार्षीः तदा न तु भूयः करिष्यामीति एवंपिता वदित्ताणं अह पुण कम्मुणा अवकरेति' अपकृतं नाम यथा प्रतिपन्नं प्रति॥१४॥ | ज्ञातं वा न कुर्वन्ति, तामां हि अयमेव खभावः, अपणं मणेण चिन्तेंति'वृत्तं ।।२७०।। कथं , क्षणरागत्वात् , तद्यथा-'आचार्या मर्कटा चालाः, खियो राजकुलानि च । मूर्खा भंडाश्च निवा(विप्राश्च, विज्ञेयाः क्षिप्ररागिणः॥१॥ यतश्चैवं तम्हा णो सद्दहेयब्वं, यदि नाम हावभावादीनाकारान् कुर्यात् , वायाए वा पत्तियावेज, एवमादि तासां विज्ञाप्यं श्रद्धेयं, दत्तो वैशिकः किल एकया गणिकया | तैस्तैः प्रकारैनिंमत्रीयमाणोऽपि नेटवान् तदाऽसावुक्तवती-त्वत्कृतेऽनिं प्रविशामीति, तदाऽसौ यद्यत्तयोच्यते तत्र तत्रोत्तरमाह-एत दप्यस्ति वैशिक, तदाऽसौ पूर्व सुरंगामुखे काष्ठसमूह कृत्वा तं प्रज्वाल्य तत्रानुप्रवेश्य सुरुंगया खगृहमागता, दत्तकोऽपि च एतदप्यस्ति | वैशिके, एवं विलपन्नपि धूर्वातिकैश्चितकायां प्रक्षिप्त एव, तम्हा तु णो सद्दहियव्वं 'जुवती समणं व्या वृत्तं ॥२७१।। चित्राणि अन्यतरवर्णोज्ज्वलानि अनेकवर्णानि वा, सा हि वस्त्राद्यङ्कारविभूपिता श्रमणसमीपमागत्य 'विरता चरिस्सऽहं हं'णिब्धिण्णाऽहं TAll समणा घरवासेणं, भर्ता मे न प्रशक्तः, रास्य चाहमनिष्टा, स च ममेति, तेन विरता भूत्वा चरिष्याम्यहं लूई, लूहो नाम संयमः, तं धम्मं तावदाचक्षस्वेति, भयागायतीति भयंतारः, एवं संभापमाणा प्रीतिविधभावुत्पादयति, 'अदु साविया पवादेण' वृत्तं | ॥२७२।। श्राविकासु विश्रम उत्पद्यन्ते, नीषिधिकयाऽनुप्रविश्य बंदित्वा विश्रामणालक्ष्येण संबाधनादि कूलवारकवत्, काइ तु लिंगस्थिगा सिद्धपुत्ती या भणति-अधं साघम्मिणी तुभति, स एवमासमवर्तीनिमिः श्लिष्यते ।। २७३ ।। दृष्टान्तो जतुकुम्भा, जतुमयः कुम्भः जतुकुम्भः, जतुलित्तो वा ज्योतिपः समीपे उपजोति गलतीति वाक्यशेपः, एवं संवासेण विदुरपि सीदति, किं HINDINESSMANISHINDE दीप अनुक्रम [२४७२७७] | ॥१४॥ [145] Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], नियुक्ति : [५६-६१], मूलं [गाथा २४७-२७७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक ||२४७ ॥१४२॥ २७७|| दीप अनुक्रम [२४७२७७] श्रीसूत्रक पुनरविद्वानिति ?, उक्तं हि-तज्ज्ञानं तच विज्ञानं, सतत )तपः स च निश्रयः। सर्वमेकपदे नष्टं, सर्वथा किमपि स्त्रियः॥१॥" एवं जतुकुंभताङ्गचूर्णिः दृष्टान्तादि तावदासन्नेभ्यः प्रतिवेश्मकस्त्रीभ्यो दोपः, एकतस्तु संवासे शीघ्रमेव विनाशः, जहा जतुकुम्भो जोति उपगूढः अग्नावाहितः अग्निमध्यमितो वा समंततो भस्वामिः प्रज्वलितेनासु अतितप्तो नाशमुपयाति, 'एवित्थिगाहिं अणगारा' आत्मपरोभयदोषैः आसु चारित्रतो विनश्यति, किंच-'कुवंति पावकम्म' ॥ २७४ ॥ पापमिति मैथुनं परदारं वा, एगपुरिसे ण, संघसमितीए वा आहेमस्युरिति आख्यान्ति-णाहं करेमि पावंति, एपा हि मम दुहिता भगिणी नत्ता चा, अंके सेत इति अंकशायिनी, पूर्वाभ्यासादेवैपा ममांक शेते निवार्यमाणा पर्यकेन, 'बालस्स मंदयं वितियं' वृत्तं ॥२७५॥ द्वाभ्यामाकलितो बालो, मंदो दवे य भावे य, दव्वे शरीरेण उपचयावचए, भावमंदो मंदबुद्धी अल्पवुद्धिरित्यर्थः, मंदता नाम बालतैव, कोऽर्थः-तस्य वालस्य वितिया घालता यदसौ कृत्वाऽवजानाति-नाहमेवं कारीति, ण वा एवं जाणामि, दुगुणं करेति से पावं, मेथुणं पावं, वितिय पुणो पूयासकारणिमित्तं, अविय अबलमिति सकारणिमितं, मा मे परोपरा भविस्सति, विसणो-असंजमो तमेसति विसण्णेसी 'संलोकणिजमणगार' वृत्तं ॥२७६।। संलोकणिो णाम द्रव्यो दर्शनीयो वा, तत्थ कोइ मुच्छिता आतगतं णाम अप्पाणएणं णिमंतेति, अथवा आत्मगतः तस्या अशुभो भावः, संबंधामि ताव णं, ततो काहति वयणं-आईसुत्ति आहु 'वत्थं च ताति पातं वा त्रायतीति ताती अण्णं वा पाणं वा यच्चान्यदिच्छसि तत्तदहं सदैव दास्यामि इत्येवं संबद्धोण तरिति उब्वरितुं,भगवान् भणति-णीयारमेव वुज्झेज' वृत्तं ॥२७७|| निकरणं निकार्यते वा निकरः, यदुक्तं भवति-निकीर्यते गोरिख चारी, जहा वा सूकरस्स धण्णकुडगं कूडादि णिगि// रिजति, पुट्ठो य वहिजति, गलो वा मत्स्यस्य यथा क्रियते एवमसावपि मनुष्यसूकरका वखादिनिकरणेन णिमंतिजति पच्छा संय-6 ॥१४२॥ [146] Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], नियुक्ति : [५६-६१], मूलं [गाथा २४७-२७७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत | मजीवियाओ ववरोइअति, वक्ष्यमाणान्यपि च नानाविधानि अकृत्यानि कारयंति, यतश्चैवं तेण संसारबद्धं संसारपासं च भावनिक- आगारासूत्रांक श्रीसूत्रक वादि ताअचूर्णिः रमेतत् बुद्ध्वा दूरतः तद्राम णगरं वा जत्थ णिमंतिञ्जति तं परिहरंतो 'णोइच्छेजा अगारमागंतुं' इति अगारत्वं अथवा आगा||२४७- ॥१४३॥ | रमावत्तं आगारमेवावर्तः आगारमावर्तः कारणे कार्यवद् उपचारात् संसारावर्तः, यः पुनरत्र संबध्यते, संबंधो क्सियदामेहि, महि२७७|| ४ खी० समयूरादीणं वध्रादीनि दामकानि या, नरसूकराणं तु विसयदामगाणि, दाम्यन्ते एभिरिति दामकानि, बन्धनानीत्यर्थः, तैः बद्धः, २ उद्देशः 'मोहमावजति पुणो मंदो' मोहः-संसारस्तमेवागच्छतीति, अथवाऽनुकम्पया मन्दः स वराको मन्दो विषयपराजितः प्राप्यापि || प्रवज्यां पुनरपि मोहमागच्छतीति चतुर्थे इति प्रथम उद्देशः।। दीप स एवाधिकारोऽनुवर्तते, प्रथमोद्देशकोक्तैराकारैराकष्टा इहैव स्खलितधर्माणो णाणाविधाई खलीकरणाई पाविजंति, वक्ष्यमाणमपि अनुक्रम | सुहिरीमणावि ते संता, संबंधो हि द्विविधः, तद्यथा-अनन्तरसूत्रसम्बन्धः परम्परसूत्रसम्बन्धश्च, णीयारमन्तं बुज्झेजा, बुद्धः ओयाभूतो [२४७ भविजासित्ति, ओजो-विषमः यदा बद्धस्तु भोगकामी पुणो विरजेज, परंपरसूत्रसम्बन्धस्तु संलोकणिजमणगारं कदाचिन्निमत्रयति, २७७] तत्र यः ओजः स सदान रजेजा, अनोज इतरस्तु कदाचित् रज्जेज, द्रव्यभावसम्बन्धस्य तु इहैव वाहनताडणादयो विलंबनाप्रकारा भवन्ति, तासस्य वा बन्धनादयो दोषाः कर्मबन्धाच्च नरकादिविपाकः, एवं विपाकं मत्वा 'ओए सदा ण रजेज' वृत्तं ।।२७८॥ | द्रव्योजो हि असहायत्वात् परमाणुः, भावोजो रागदोसरहितो, स एवमोजः रागदोसरहितः पूर्वापरसंस्तवं जहाय ण तेसु अण्णत्थ वा पुणो रज्जेज, भोगकामी पुणो विरज्जेज्ज-गिज्झेज्जा, अथवा यद्यपि भोगकामी स्यात् तथापि पुणो विरज्जेज्ज, मा भूत् अत्य न्तरागवान् स्यात् , ते य 'भोगे सपणाण सुणेह' भोगा न किलैपां ते निश्चयेन, गृहिणामपि भोगा पिलबना, किमु लिंगिनां ?, IO॥१४३॥ | अस्य पृष्ठे चतुर्थ अध्ययनस्य द्वितिय उद्देशक: आरभ्यते [147] Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥२७८ २९९|| दीप अनुक्रम [२७८२९९] श्रीसूत्रताङ्गचूर्णिः ॥१४४॥ “सूत्रकृत” अंगसूत्र- २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४] उद्देशक [२], निर्युक्ति: [ ५६-६१], मूलं [गाथा २७८-२९९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णिः - ते य सुणेह, एगे न सब्बे, एगे किल जहा भुंजंते, केह आउक्कायरियसायासोक्खपडिवंघेणं लिंगगच्छत्तणं करेंति, ण तु मोहदोसे। 'अथ तं तु भेदावणं' वृतं ॥ २७९ ॥ अथेत्यानन्तयें, तु विशेषणे, भावभेदं चरित्रभेदमावण्णं, ण तु जीवितभेदं शरीरभेदं लिंगभेदं वा मुच्छ कामेसु दव्यभिक्खु, कामेसु अतिअर्द्ध-कामेसु अतिगतं कामेसु अनिवत्तमाणं पलिभिन्दियाण-डिसारेऊण मए तुज्झ अप्पा दिष्णो सर्वस्वं जनश्वावमानितः, ण इमो लोगो जातो ण परलोगो, तुमंषि णचरं खीलगघातो, मज्जायं जातिं वाण सारेति, अप्पयं ताव अध्ययण जाणाहि, कस्स अण्णस्स मए मोचूण तु कर्ज कतं ?, लुत्तसिरेण जलमलितंगेणं दुग्गंघेणं पिंडोलणं कक्षावक्षेोवस्तिस्थानयुकावसथेन, स एवं पडिभिण्णो तीसे चलणेसु पद्धति, ताहे सापडतं मा मे अल्लियसुति वामपादेणं मुद्वाणे पणति, अणोविंधणोऽवि ताव तसिन्काले हन्यते, किं पुण उसिंघणो ?, उक्तं च- "व्याभिन्न केसरवृहच्छि रसव सिंहा, नागाश्च दानमदराजिकशैः कपोलैः । मेधाविनश्च पुरुषाः समरे च शूराः स्त्रीसन्निधौ वचन कापुरुषा भवति ॥ १ ॥ कयाइ सा आगारी भणेज पुच्चभज्जा व से अण्णा वा कायि 'जड़ केसियाए मए भिक्खू' वृत्तं ॥ २८० ॥ केशाः अस्याः सन्तीति केशिका, जड़ मए केसइत्तीए हे भिक्खु ! णो विहरेज 'सहणं'ति सह मया, कोऽर्थो ? - जड़ मए सवालिआए लखसि ततो ‘केसेवि अहं लुंचिस्तं' तत्थ त्वं मए सह विहरेज्जासित्ति, मा पुणो इमं छड्डेऊण अण्णत्थ विहरेज्जासित्ति, एवमसौ ताव एव बद्धो तदनुरक्तः तीसे पिसे चिट्ठति, ततोऽसौ 'अथ णं से होति उबलद्वे ' वृत्तं ॥ २८२॥ उबलद्धो नाम यथैपो मामनुरक्तो णिच्छुतोऽवि ण णस्सइति 'ततो णं देसेति तहारूवेहिं' तहारूबाई णाम जाई लिंगत्थाणुरूवाई, न तु कृष्यादिकर्माणि गृहस्थानुरूपाणि, अलाउच्छेदं णाम पिप्पलगादि, जेण भिक्खाभायणस्स मुक्खं छिज्जति, जेण वा णिमोइज्ज बाहिरा वा तया अवणि [148] लिंगभेदादि ॥१४४॥ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [२], नियुक्ति : [५६-६१], मूलं [गाथा २७८-२९९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: M श्रीसूत्रक- ताणचूर्णिः ॥१४५|| नादि प्रत सूत्रांक ||२७८२९९|| ज्जति, बग्गुफलाणित्ति बग्गुणाम वाचा तस्याः फलाणि वग्गुफलाणि, धर्मकथाफलानीत्यर्थः, तुमं दिवसं लोगस्स बोल्लेण गलएण | धर्म कहेसि, जेसिं च कहेसि ते ण तरसि मग्गिऊणं?, अथवा जोइसकोटलवागरणफलाणि वा 'दारुगाणि अण्णपाणा या | वृत्तं ।। २८२ ।। दारुगाणि आणय, आनीत्य विक्रीणीहि, अण्णपाणाय पढममालिया वा उवक्खडिज्जइत्ति, दोचगं वा परिताविज्जिहिति सीतलीभूतं, तेहिं 'पज्जोतो वा भविस्मति रातो' भृशमुद्योतः, दीवतेल्लंपि णस्थि तेहिं उज्जोए सुह अच्छिद्दामो, वियावेहामो वा, पानाणि य मे स्यावेहि, का मम अणिअल्यिाए इहं पाताणि ते, तेण तुम चेव आलत्तगं आणेहि, अथवा पाया| इति भायणाई, लेबो छादगो, एवं कस्सइ प्रेमि सयं छाणतरंगेहि लिंपावेहि ठाणं, एहि अतो मे पट्टि उम्माहे, पुरिल्लं कार्य अहं | सकेमि उबहेतुं, पिढे पुण ण तरामि, 'वत्थाणि य मे पडिलेहे' वृत्तं ॥ २८३ ॥ इमाणि वत्थाणि पेच्छ सुत्तदरिद्दयं गयाणि |णिग्गियाहं जाया, अहवा किण्ण पस्ससि मइलीभूताणि तेण धोवेमि रयगरस वा णं णेहि य, अबा वत्थाणि मे पेहाहित्ति जओ मालमेज, अहया एयाई वत्थाई वेटियाए पडिलेहेहि, मा से उगारियाई खजेज, तहा रूवगवातएण वा भणेज-मम बस्थाणि पडि| लेहेहि, अण्णपाणं वा मे आहएहि, णाई सकेमि हिडिउं,'गंधं चरयोहरणं च' गंधाणि ताव कोट्ठादीणि आहोहिचुण्णाणि जेण | गायाई भुरुकुंडेता, पठ्यते च 'गथं च रयोहरणं वा' ग्रन्थ इति ग्रन्थः संघाडी स्यहरणं सुन्दरं मे आणेहि, कासवर्ग-हावि| यमाणयाहि, ण तरामि लोयं कारवेत्तए, अउ अंजणि अलंकारं' वृत्तं ॥२८४॥ अंजणवाणियंमि अंजियं आणेहि, अलंकारे । हारकेशायलङ्कार बा, सकेसियाण कुकुहमो णाम तंबलीणा 'लोद्धं लोद्धकुसुमं च लोधं कपायणिमित्त, लोद्धस्सेव कुसुमं तं तु गंधसंजोए उपयजति, वेलुपलासी णाम वेलुमयी सहिगा कंपिगा, सा दंतेहि य वामहत्थेण घेत्तुणं दाहिणहत्थेण य वीणा इव वाइ दीप अनुक्रम [२७८२९९] ॥१४५॥ [149] Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [२], नियुक्ति : [५६-६१], मूलं [गाथा २७८-२९९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: कोष्ठपुरादि प्रत सूत्रांक ॥२७८२९९|| श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः ॥१४६॥ दीप अनुक्रम [२७८२९९] SDETala अइ, पिच्छोला इत्यर्थः, एकता व ओसहगुलिया अत्थगुलिया अगतगुलिया च 'कोडं तगरं अगरुं च' वृत्तं ॥२८५।। हिरिवेरं णाम उसीरं, सेसाणि कंठाणि, एतानि हि प्रत्येकशः गंधंगाणि भवंति, समं हिरिवेरेणंति संयोगश्च भवति, तेलं मुहभिलंगाय' मुहमक्खणयं तेल्लं आणेहि, मिलंगायत्ति देसीभासाए मक्खणमेव, वेलुफलाइति–वेलुमयी संघलिका संकोपेलिया करंडको वा, सण्णिधाणाएत्ति-तत्थ सण्णिधेस्सामो किंचि पो चा पत्त्रं वा ॥ २८६ ।। गंदीचुण्णगं नाम जं समोइमं उड़मक्खणगं येन तेन चा प्रकारेण भृशं आहराहि, अथवा चुण्णाई वट्टमाणाई, वरिसारत्ते वा गिम्हे वा छत्तगंजाणाहि उवाहणाउ वा, नाणाहित्तिआणेहि, जतो जाणासि ततो, ते किं मए एतमवि जाणेतव्वं जहा णस्थिति, सत्थं च सूवच्छेदाए' सत्थं आसियगादि, सूर्य णाम पत्रशाकं, जेण तं छिजति, आनीलो नाम गुलिआ साथालिया, एतेण साडिगा सुत्तं कंचुगं वा राविहि, णीले रागे वा इमं वत्थं छुहाहि, अथवा कुसुंभगादिरागेण जाणति वत्थाणि रावेतुं तेण अपणो वा कजे वत्थरागं मग्गति, जेसि वा रहस्सति मोल्लेण 'सुफणितं सागपाताए' वृनं ॥२८७।। फणितं णाम पकं रद्धं वा, सुखं फणिज्जति जत्थ सा भवति सुफणी, लाडाणं जहिं कति तं सुफणित्ति वुच्चति, सुफणी वराडओ पत्तुल्लओ थाली पिउडगो वा, तत्थ अप्पेणवि इंधणेणं सुई सीतकुसुणं उष्फणेहामो, सूत्रपागाएचि सूवमादि कुसुणप्पगारा सिज्झिहिन्ति, सुक्खकूरो णाम हिंडंतेहिवि लब्भति, आमलगा सिरोधोवणादी भक्खणार्थ वा, उक्तं हि-"भुक्त्वा फलाणि भक्षयेद् विल्लामलकवर्जानि, दगहरणी णाम कुंडो कलसिगा वा, दगधारणी अलुगा अरंजरगो वा, चशब्दाचेल्लघतहरणिं च, तेसिं वा उद्धाइयाणं सच्चं णवर्ग संठवणं कायव्यंति तेण सबस्स घरोवक्खरस्स कारणा तं बड़ेइ, सो य तं सव्यं हट्टतुट्टो करेति, 'तिलकरणिं अंजणि सलागं'ति तिलकरणी णाम दंतमइया सुवण्णगादिमइया वा सा रोयणाए ॥१४६॥ [150] Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [२], नियुक्ति : [५६-६१], मूलं [गाथा २७८-२९९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक ||२७८२९९|| श्रीसूत्रकवाङ्गचूर्णिः ॥१४७|| दीप अनुक्रम [२७८२९९] | अण्णतरेण चा जोएणं तिलगो कीद, तस्थ च्छोढुं भमुगासंगतगस्स उवरिं ठविज्जति तत्थ तिलगा उडेति, अथवा रोचनया तिलक: अंजनादि | क्रियते, स एव तिलककरणी भवति, तिला वा जत्थ कीरंति-पिस्संति वा, अंजनि-अंजनमेव श्रोतांजनं जात्यञ्जनं कज्जलं वा, अंजनसलागा तु जाए अक्खि अंजिज्जंति, 'प्रिंसुरि'ति गिम्हासु मम धर्मा या वीजनार्थ विधवणं जाणाहि, विध्यतेऽसौ विध-। यते वा अनेनेति विधूवन:-तालियंटो वीयणको वा, 'संडासगं च फणिगं च सेहलिपासयं च वृत्तं ॥२८८ ॥ संडासओ | कप्परक्खओ कज्जति सोवष्णिओ जस्स वा जारिसो विभवो, अथवा संडासगो जेण णासारोमाणि उक्खणंति, फणिगाए वाला जमिज्जति उल्लिहिज्जंति जूगाओ वा उद्धरिज्जंति, सीहलिपासगो णाम कंकणं, तं पुण जहाविभवेण सोवण्णिगंपि कीरति, सिहली णाम सिहंडओ, तस्स पासगो सिहलीपासगो, आतंसगं पयच्छाहि, आयंसगं नामेके जणा पारिवेसिगघराउ वा जत्थ अप्पाणं मंडेचा | मुहं पेसामि, पेच्छंती वा सुहं मुहं मंडेहामित्ति, दंतपक्खालणं वा इहेब पवेसेहि, वरं मुहं खाइत्तुं णिगच्छंतीहिं 'पूयाफलतंबोलं |च' वृत्तं ।।२८९।। पूयाफलग्रहणात् पंचसोगन्धिकं गृह्यते, 'सूचिं जाणाहि सुत्तगं' सुत्तगंणाम सिव्वणादोरगं, अप्पणो कंचुगं साडि वा सिवामि, कदाइ सा कंचुगा सीविगा चेव होजा ते परेसि, कोसे णाम मत्तओ, मुच्यत इति मोयं-कायिकी, मिह सेचने.' | मेहं मोचं च अमोयं मोयं मोक्खंतं कासकोसं मोयमेहार्थे मोयमेह, सूप्पं णाम सूप्प, उक्खलं मुसलं च, खारं च खारगलणं |च जाणाहि, 'चंदालगं च करगं च ॥ २९० ।। चंदालको नाम तंवमओ करोडाओ येनाईदादिदेवतानां अच्चणियं करेहामि | सा मधुराए बं(च)दालउ बुच्चति, करकः करक एत्र, सो य करको मघकरको वा चकरिकरको वा, वञ्चघरं पच्छन्नं करेहि कूर्षि चऽत्थक्षणाहि, आउसोति आमन्त्रणं हे आयुष्मन् !, सरपादगं च जा ताए सरो अनेन पात्यत इति शरपातकं, धणुदुल्लक, जायत 7॥१४७॥ [151] Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [२], नियुक्ति : [५६-६१], मूलं [गाथा २७८-२९९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: गोरथादि प्रत सूत्रांक ||२७८२९९|| श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः ॥१४८॥ दीप अनुक्रम [२७८२९९] इति जात:-पुत्रः जातार्थः, जाताया वरं मे एस पुत्तो धणुदुल्लएण रम, गोरहगो णाम संगाडिला, मेल्लिया पुत्तिगा, श्रामणस्या पत्यं श्रामणेरः तस्मै श्रामणेराय कुरु, रथे सुद्धं, तत्थ विलग्गो चेडरूवेहि समं रमतो, एवमादिस्थकारकता भवति 'घडिकम्मे हिं "डिडिमएणं ॥२९१।। गडिगा णाम कंटुल्लिगा चेडरूवरमणिका, डिंडिमगो णाम पडिहिका डमरूगोवा, चेलगोलो णाम चेल मउ गोलओ तन्तुमओ, स तेनाप्यादिश्यते किमेसो रायपुत्तो?, सा भणति-माता हता रायपुत्तस्स, एसो मम देवकुमारभूतो, देवतापसादेण चेवाहं देवकुमारसच्छहं पुतं पसूता, मा हु मे एवं भोज्जासु, वासं इमं समभियावणं' अभिमुखं आपन्न अभिआवण्णं तेण णिवायं णिप्पगलं च आवसहं जाणाहि भत्ता!, जेणं चत्तारि मासा चिक्खिल्लं अच्छंदमाणा सुहं अच्छामो, उक्तं। च-"मासैरष्टभिरहा च, पूर्वेण वयसाऽऽयुपा। तत्कर्त्तव्यं मनुष्येण, यस्यान्ते सुखमेधते ॥१॥" इधई वा इमो आवसहो सडितपडितो एतं संथवेहित्ति । 'आसन्दियं च णवत्तं ॥२९२॥ आसंदिगा णाम वेसमणगं, पावसुत्तगो णवएण सुत्तेण उणट्ठियापट्टेण चम्मेण वा, पाउल्लगा इति कट्ठपाउगाओ, ताहि सुहं चिक्खिल्ले संकमिज्जति, रति विरत्तेसु संकर्म वा करेमि चिक्खल्लस्स उपरि 'अउ पुत्तदोहलहाए' जाहे सा गुग्विणी तईयमासे दोहिलणिगा भवति तो णं दासमिव आणवेति आगलफलाणि च मग्गइति भत्तं ण मे रुचइ अमुगं मे आणेहि, जइ णायोहि ता मरामि, गम्भो वा पडिहित्ति, स चापि दासवत्सर्व करोति आणत्तियं, जेवि इह ण करिअंति तेऽपि संसारे गाणाविधाई दुक्खाई पाविनंति विलंबणाओ य, 'जाते फले समुप्पण्णे'वृत्तं ॥२९३॥ फलंकिल मनुष्यस्य कामभोगाः तेपामपि पुत्रजन्म, उक्तं च-"इदं तु स्नेहसर्वखं, सममाढ्यदरिद्राणाम् । अचंदनमनोशिरं, हृदयसानुलेपनम् ॥१॥ यत्तच्छपनकेत्युक्तं, बालेनाव्यक्तभाषिणा । हित्वा सांख्यं च योगं च, तन्मे मनसि वर्तते ॥२॥ लोके पुत्रमुखं नाम, द्वितीयं ॥१४८॥ [152] Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [२], नियुक्ति : [५६-६१], मूलं [गाथा २७८-२९९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक ||२७८२९९|| श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः ॥१४९॥ INDI दीप अनुक्रम [२७८२९९] मुखमात्मनः। साऽध जाहे किंचि अणता आवण्णसत्ता भवति ताहे भणति, दारके वा महत्थे तुम चेव करेहिति णिबंधया, तस्स वा, तस्स 0 पुत्रपोषाअणेणं भष्णति-एस ते गेहादि व छडेहि वणं, अण्णगस्थ व रोसिता भणति-एस मए णवमासे कुच्छीए धारितओतं दाणि एस ते "दयः गिहाहि व णं छड्डेहि वाणं, एतस्स पेयाल गहिएल्लयं, एवं वुचमाणो एमणिन्भस्थिआमाणो वाण णासति 'अह पुत्तपोसिणो | एगे' पुत्र पोषयतीति पुत्रपोषणः, जाहे गामंतरं कयाइ गच्छति तावदंतारगं उअक्खरं वा वईतो "भारवाहो भवति उड्डो व लहित्तओं' गामतराओ धणं वा भिक्खं वा वडाहिं करंकाहिं गोरसं वा वहतो लट्ठितगो भारवाहो भवति उड्डो वा, अण्यो पुण | केइ अणंतसंसारिया तं पुरिसं साडेउं उट्ठवेउ वा अप्पसागारियं णिक्खणिउंकामा वा वहंतकामा खंधा भवंति, पूर्व हि प्रतिपालणोक्ता, इदानीं तत्प्रतिक्षभृता अप्रतिपालना, एतं पुण पडिपक्खेण गतं, अह पुण पोसिणो एगेचि, 'राओवि उहिता संता' ॥२९४।। दारगं मण्णावेति, धावड़ वा, यदा सा रतिभरथांता वा प्रसुप्ता भवति, इतरहा या पसुत्तलक्खेण वा अच्छति, वेयेन्तिया वा गब्वेण | लीलाए वा दारगं रूअंतपि न पहाणेति ताहे सो तं दारगं अंधाविविध णाणाविधेहि उल्लावणएहिं परियंदन्तो उ सोवेति, सामिओ मे णगरस्स य णकउरस्स य हत्थवग्धगिरिवट्टणसीहपुरस्स य उण्णतस्स निग्णस्स य कण्णउजआयामुहसोरियपुरस्म य 'सुहिरिमाणावि ते संता' ही लजायां, लजालुगाचि ते भूत्वा कोट्टवातिगामस्पृशिनो वा शौचवादिका गृहवासे प्रव्रज्यायां वा सुट्छवि | आतट्ठिया होऊण एगंतसीला वा सूयगवस्थाणि धोयमाणा वत्थधुवा भवंति, 'हंसो वा' हंसो नाम रजकः, दारुगरूवेण वाउह| णविउहणा संमद्दमाणे धुवमाणो य एतं बहहिं कडपुवं' वृचं ॥२९५।। एतदिति यदुक्तं तीसे णिमित्तेण दारगणिमित्तेण वा | तीसे णिमित्तेण जाव चंदालयं च करगं च सरपादयं च जाताएति दारगणिमित्तं, तथा पुत्तस्स दोहलहाते, जाए फले समुप्पण्यो, ॥१४९॥ [153] Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [२], नियुक्ति : [५६-६१], मूलं [गाथा २७८-२९९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: यमि सूत्रक प्राप्तिः प्रत सूत्रांक चूर्णिः ||२७८- ॥१५॥ २९९|| दीप अनुक्रम [२७८२९९] अह पुत्तपोसिणो एगे, राओवि उछितो संतो, सुहिरीमाणावि, एतं पुत्तणिमित्तं, अहया सव्वंपि तंणिमित्तमेव, 'यहूहि ति बहुहिं कृतपूर्वमेतत् तथा कुर्वन्ति करिष्यन्ति च, ते तु के ?, जे "भोगत्थाए इत्थियाभिआवण्णा' अभिमुखं आवण्णा, सो पुण जो तासु अभितावण्णो सो तेसिं 'दासे मिए व पस्सेवा' दासबद्धज्जते, मृगवच्च भवति, यथा मृगो वशमानीतः पाठ्यते मार्यते वा मुच्यते वा, प्रेष्यते णाणाविधेसु कम्मेसु, पसूभृता इति पशुवत् वाद्यते, न च मदांधत्वात् कृत्याभिज्ञो भवति, पशुभृतत्वान्मृगभूतत्वाच 'न वा केयित्ति एभ्योऽप्यसौ पापीयान् संवृत्तः यस्य न केनचिच्छक्यते औपम्यं कर्तुं, अथवा 'ण वा केति'त्ति नासौ प्रबजितो न वा गृहस्थो जातः, नापि इहलोके नापि परलोके, 'एवं(य)खु तासि वेणद्धं(तासि वेणप्प) वृत्तं । ।२९६ ॥ एतदिति एतान् ज्ञात्वा इहलोगपरलोगिए दोसे तेण संथवं संवासं चचा हि भवेज, संथयो णाम उल्लावसमुल्लावादाणग्गहणसंपयोगादी, संवासी एगगिहे तदासन्ने चा, एतदेव तासि वेणप्पं जो ताहि संथवो संवासो वा, संथवसंवासेहिं चेव इतरावि विष्णती भवति, 'तजाइया इमे कामा' तज्ज्ञातिया णाम तबिधजातिया, चतुर्विधा कामा, तंजहा-सिंगारा कलुणा रोहा बीभत्था, तिरिक्खजोणियाणं च, पासंडीणं च, एतदुक्तं भवति-बीभत्स सेवेमानानां तेषां वीभत्था एव कामा, अकारी हि विगमं तं चेन, अथवा तदेव जनयन्तीति तज्जातिया मैथुनं ह्यासेवते, तदिच्छाए च पुनर्जायन्ते, उक्तं हि-"आलसं मैथुनं निद्रा, सेवमानस्य वर्द्धते । 'वज्जकरि'चि बजमिति कम्मं वजंति वा पार्वति वा चोणंति वा, तत्कुर्वन्तीति बजकरा, एवमाख्यातः तीर्थकरैः एवं भयण्ण सेयाए' वृत्तं ॥२९७|| इहलोकेऽपि तावद् भयमेतत् , कुतस्तर्हि परलोके ?, यत एव च भयंकरा इत्यतो श्रेयसे न भवंति, तेन श्रेयः कामेभ्यः अप्पाणं निमित्ता, इहलोकेऽपि तावद् णिरुद्धकामेच्छस्स श्रेयो भवति, कुतम्तर्हि परलोकः?, उक्तं हि-"नवास्ति ॥१५॥ [154] Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [२], नियुक्ति : [५६-६१], मूलं [गाथा २७८-२९९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक ॥२७८२९९|| दीप अनुक्रम [२७८२९९] श्रीमत्रक- राजरानस्य तत्सुखं नैव देवराजस्य । यत्सुखमिहैव साधोलोकव्यापाररहितस्य ॥१॥ तणसंथारणिवण्योऽपि मुणिवरो भग्गराग-00 भयादि ताङ्गचूर्णिः | मयदोसो। जं पावति मुचिसुहं ण चकाट्टोवि तं लभति ॥ २॥ स तु कयं निरुध्यते आत्मकामेभ्यः', उच्यते, 'णो इस्थिणो ॥१५१॥ पसू भिक्खू' इत्थी-मणुस्सी, पत्ति सव्वा एवं तिरिक्खजोणीओ, 'णो सयं पाणिणो णिलेज्जेजति हत्थकम्मं न कुर्यात् , विलंबनं नाम करणं, अथवा खेन पाणिना तं प्रदशमपि न लीयते, जहा पाणिसंहरिसोवि न स्यादिति, कुतस्तहिं करणं ?,'सुविसुद्धलेस्स'वृत्तं ॥२९८।। सुविसुद्धे लेसे सुविसुद्धलेसे, सुविसुद्धलेसे नाम सुकलेसो, परिकिरिया नाम नो इत्थियाए आमजेज वा चा पपज्जेज वा संवाहणत्ति जाव छत्तमउडंति, चशब्दादात्मकियां च वर्जयेत् , सिया से इत्थी पाये आमज्जेज वा पमज्जेज वा Pa| तहाविदोसो 'मणसा बयसा कायेणं'ति ओरालिए कामभोए मणमा ण गच्छति ण गन्छावेति गच्छंतं णाणुजाणइ एवं वायाए | कारणवि, एवं दिव्येवि, एते अट्ठारस भेदा, एवं जहा इस्थिफासं मणमा वयसा काएणंति बज्जेति एवमन्येऽपि फासे सीतोसिणदसणमसगादि अघियासेजासि 'इञ्चेवमाहु से वीरे'वृत्तं ।।२९९।। इति एवं इचेवं, एवमाहुः स भगवान् वीरस स्त्र्यादिषु रागवस्तुपु धूतमेवे(रए)ति धूतरागमार्गमेवाहु, सोमणो भिक्खू सभिक्खू , अथवा भिक्खम्गहणे असावपि भगवान् , न तु यथा पंडरंगाणं महेवरः सराग आसीत् सभार्यश्च, ते किल निरीक्ताः, उक्तं च-"क्षितौ वासः सुरेधाज्ञा" यतश्चैवं 'तम्हा सज्झत्थविशद्धे' अज्झत्थं णाम संकप्पतो विशुद्धं संकप्पविशुद्धं-रागद्वेषविमुक्तं समो मानावमानेषु समं दुःखसुखे पश्यति आत्मानं परं च मन्यते तुल्यं, तथा चोक्तम्-कस्य माता पिता चैत्र, स्वजनो चा कस्य जायते । न तेन कल्पयिष्यामि, ततो मे न भविष्यसि ॥१|आमोक्खाए परिवएजासित्ति बेमि यावन्मोक्षं न प्रामोपि ताव विहरेज्जासित्ति बेमि ।। स्त्रीपरिज्ञाध्ययनं समाप्तं ४ ॥ Iril ॥१५१॥ [155] Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [9], उद्देशक [१], नियुक्ति: [६२-८२], मूलं [गाथा ३००-३२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक नरकादिनिक्षेपाः ||३०० ३२६|| भीसूत्रक- णिरयविभत्तिए अज्झयणस्स चत्तारि अणुयोगदारा, ते परूवेऊण अज्झयणस्थाहिगारो परगावासो जाणितव्यो घोरइया य, ताचूर्णिः जो गरगाणं णिरयागमणं, स वा उद्देसत्याधिगारो दोसुवि उद्देसएसु णेरड्याणां णाणाविधाओ वेदणाओ, णामणिप्फण्णो णिक्खेवो ॥१५२॥ पारगस्स छक्को, तथा चाह-'णिरए छकं'गाथा (६२) दवणिरओ तु इहेव जो तिरियमणुएसु असुद्धठाणा चारगादिखडाकडिल्लमटंगावंसकडिल्लादीणि असुभाई ठाणाई, जाओ य णरगपडिसूचियाओ वियणाओ दीसंति, जहा कालसोअयरिओ चारगादि मरितुकामो वेदणासमण्णाओ अट्ठारसकम्मकरणाओ वा वाधिरोगपरपीलणाओ वा एवमादि, अथवा कम्मदब्धणरगोणोकम्म० वा, तत्थ कम्मदव्यणरगो णरगवेदणिजं कम्मं बद्धं ण ताच उदिज्जति तं पुण एगभविय बद्धाउओ य अभिमुहणामगोयं, णोकम्मदवणरगो य, तत्थ णोकम्म० णाम जे असुमा इहेब सदफरिसरसरूवगंधा, खेचणरगोणरगावासा चउरासीति गरयावाससतसहस्सा, कालणरगा| वा जस्स जेचिरं णरगेसु द्विती, भावणरगो जे जीवा णरगाउयं वेदति णरगपयोगं वा जं कर्म उदि, अथवा ससत्तसहस्सा कालेण, गरगा वा रूवरसगंधफासा इहेब कम्मुदयो गेरइयपायोग्गो जहा कालसोयरियस्स इह भवे चेव ताई कम्माई नेरइय भावभवितारं भावनरका, सोऊण णिस्यदुक्खं तवचरणे होइ जइयव्यं, उक्ता नरकाः। इदाणी विभत्ती, सा णामादि छविधा, तंजहाAणामविभची ठवणाविभत्ती० णामविभासा कंठ्या । ठवणविभत्तिम्मि भासावत्तव्यता, दव्वविभत्ती दुविधा-जीवविभत्ती अजीपविभत्ती य, जीवबिभत्ती दुविहा तंजहा-संसारस्थजीवविभत्ती असंसारथजीवविभत्ती य, असंसारस्थजीववि० दुविधा, दब्वे काले, दब्बतो य तिन्थसिद्धादि पंचद(म)भेदा कालओवि पढमसमयसिद्धादि,संसारत्थजीव विभत्ती तिविधा,तंजहा-इंदियविभत्ती काय०भवतो विभत्ती, सा समासतो एगिदिविभत्ती पुढविकायियादि, भवतो पोरइयभवादि । अजीवविभत्ती दुविधा-रूवयाजीवयविभत्ती अरूविया० य, | FREEMAITRINAASHTRATEGIRemi NEPATHIPAIR दीप अनुक्रम [३००३२६] |१५२॥ अस्य पृष्ठे पंचम अध्ययनं आरभ्यते [156] Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [१], नियुक्ति: [६२-८२], मूलं [गाथा ३००-३२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक ||३००३२६|| A दीप अनुक्रम [३००३२६] | रूवियाजीवविभत्ती चउविधा, तंजहा-खंधा खंधदेसा खंधपएसा परमाणुपोग्गला, अरूवियजीवविभत्ती धम्मस्थिकायस्स धम्म- विभक्तिः श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिःथिकाए देसो पदेसा एवं अधम्म आगास अद्धासमये दसविधा, खेतविभत्ती चउचिहा-ठाणाओ दिसओ दबओ सामित्तओ, ठाण-17 ॥१५३॥ | ओनि लोगविभत्ती विमाणिदगणिरइंदजंबुद्दीवसमुद्दकरणादिविभासा, दिसओ पूर्वस्यां दिशि०, क्षेत्रं चतुर्विधं, दव्यओ सालिखेत्तादि, | सामितो देवदत्तस्य क्षेत्रं यज्ञदत्तस्य चेति, अथवा क्षेत्र-आयरियं अणारियं च, अणारियं सगजवणादि, आयरिय अद्धछब्बीसतिविधं रायगिहमगहादि, कालविभत्ती तीताणागतवर्तमानसुसमसुसमादिओ दिवसरति युगपदयुगपत् क्षिप्रमक्षिप्रमित्यादि, अथवा | समयादि वा, समयस्स परूवणा तुण्णागदारगादि, भावविभत्ती दुविधा-जीवभावधिभत्ती य अजीवभावविभत्ती य, जीवभावविभत्ती उदयगादि, तत्थोदइओ गतिकसायलिंगमिच्छादसणाऽण्णाणऽसंजआसिद्धलेसाओ जहासंखेण चतुचतुतिण्णिएकेकेकेकछमेदा, गती | णारगादि चतुर्विधा, कसाया कोहादओ, लिंगभेदा थीपुरिसणपुंसगा, लेस्सा कण्हलेस्सादि ६, सेसा एगभेदा, सो एकवीसइ-12 भेदो उदइओ भावो, उवसमिओ दुविहो-उपसमिओ य उवसमणिप्फण्णो य, उपशमश्रेण्यादयः, ज्ञानाज्ञानदर्शनदानलब्ध्यादयश्चतुत्रितिपंचभेदाः सम्यक्त्वचारित्रे संयमासंयमश्च, णाणं चउन्विहं मतिसुतावधिमणणाणाणि, अण्णाणं तिविह-मतिसुतिअण्णाणविभंगाणि, सणं त्रिभेद-चक्षुःअचक्खुओहिंदसणाणि, लद्धी पंचभेदा-दानलाभभोगोपभोगवीरियलब्धिरिति, संमत्तं चारित्तं संयमासंयम इति, एस अट्ठारसविधो खओवसमिओ भावो, जीवभव्याभव्यत्वादीनि, जीवत्वं अभव्यत्वं भव्यत्वं चेत्येते प्रयः पारिणामिका भावा भवन्ति, आदिग्रहणेण अस्तित्वं अन्यत्वं च कर्तृत्वं च भोक्तृत्वं गुणवत्वं च असर्वगत्वं च अनादिकर्मसंतानबद्धत्वमसंख्यप्रदेशकत्वं अरूपित्वं नित्यत्वं एवमादयोऽप्यनादिपारिणामिका जीवस्य भावा भवन्ति, संनिवातिको दुसंयोगादिओ, गता ॥१५३॥ अस्य पृष्ठे पंचम अध्ययनस्य प्रथम उद्देशकः आरभ्यते [157] Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [१], नियुक्ति: [६२-८२], मूलं [गाथा ३००-३२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक श्रीसूत्रक विभक्तिः ताङ्गचूर्णिः ॥१५४॥ ||३०० ३२६|| दीप अनुक्रम [३००३२६] जीवभावविभत्ती, अजीवाणं मुसाणं वण्णादि ४, अमुत्तार्ण गतिठितिअवगाहादि, एताए एव छविधाए विभचीए जं जत्थ जुजति तं तत्थ जोइतव्वं । केरिसं तस्थ वेदणं वेदेति ?, उच्यते 'पुढविफासं अण्णण्णकक्कसंगाथा ॥६७॥ केरिसं पुण पुढविफासं ?, से जहा णामए असि० विभासा, तीसु पुढविसु णेरइया उसिणपुढविफासं वेदेति, अण्णण्णुवकमो णाम मोग्गरमुसूढिकरकय०, अथवा लोहितकुंथुरूवाणि छट्ठीसत्तमीसु पुढवीसु विउव्वंति, णिरयपाला णाम अंबे अम्बरिसी चेव०, ते पुण जाव तच्चा पुढवी, सेसासु पुण अणुभाववेदणा चेव वेदेति, अणुभावो णाम 'इमीसे स्यणप्पभाए पुढवीए णारया केरिसयं फासं पञ्चणुब्भवमाणा विहरंति ?, से जहाणामए-असिपत्तेति वा, से जहाणामए अहिमडेति वा गोमडेइ वा, वण्णा काला कालोभासा, एवं उस्सासे, अणुभावे सव्वासु पुढवीस, णिरयबालबंधणंति वुत्तं, ते इमे पण्णरस परमाधम्मिया णिरयपाला, तं०-अंबे अंबरिसी चेव, सोमे सबलेत्ति यावरे। रुद्दोवरुद्दो काले य, महाकालेत्ति यावरे ॥६८॥ असिपत्ते धणु कुंभे, वालू वेतरणीतिया। खरस्सरे महाघोसे, एता पण्णरसाहिते ॥६९|| जो जारिसवेदणकारी सोतेण अभिधाणेण अभिधीयते,'अंबरादीणति तत्थ अंबरं-आगासं विउव्वंति, तत्थ पोरइए 'धाडेन्ति' गाथा ।। ७० ॥ विधति णस्समाणे य सरेहिं णिसुंभंतित्ति, आप दूरपतिट्ठाणे अच(न्ध)तमसे, केइ पुण साभाविगे चेव आगासे अंबरतले वा सत्तद्वतलप्पमाणमेत्ताई उग्विहिता पाडिन्ति अंबरिसाओ, हत उवहते य णिहते. गाथा ।। ७१ ।। उपेत्य हता-ताडिता, णिस्सण्णा नाम मूविशान्निःसंज्ञीभूताः, भावे णिचेयणे चेव भूमितलगते कप्पणीहिं मंसमिह कप्पेन्ति सागटिका वा रथकारा वा जहा कुहाडेहिं तच्छंति, विदलको नाम विदलं जहा फोडेंति दिग्धचउगच्छेएण कडेति । 'साडणपाडणतोडण'गाथा ॥७२।। ते अंगोवंगाई साडेन्ति, संधीओ बोडंति, तुत्तएण तुदंति, सईहि विन्झ ॥१५४॥ [158] Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [9], उद्देशक [१], नियुक्ति: [६२-८२], मूलं [गाथा ३००-३२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: विभक्तिः श्रीसूत्रक ताङ्गचूर्णिः प्रत सूत्रांक ||३००३२६|| ॥१५॥ दीप अनुक्रम [३००३२६ गीहि य विधति, रओहिं बंधति, ताडेन्ति लत्ताहिं लउडेहि या, करतलकोप्परपहारेहि य संभग्गमहिए करेइ, सबला पुण सबलगुणरूवाई | विउचिऊण, विउम्वेद वा परइए।'अंतगयफिफ्फिसाणि य०'गाथा ।।७३|| कंठ्या, रुद्दा णाम असिसत्तिकोंततोमरसूलतिसूलसूईसु हली (चियगा)सु । पोएंति कंदमाणे णेरइए (रुद्दकम्मा उ नरयपाला) तहिं तहिं रुद्दा ।।७४।। उवरुद्दा णाम भंजंति अंगमंगे उरुबाहु सिराणि तय करचरणे । कप्पंति कप्पणीसु(हिं) उवरुद्दा पावकम्मरया ।।७५।। सुंठीसु मिरा ॥७६।। पुण कालं कालो कालोभासं अग्गि विउव्वित्ता सुंठएसु य कंइसु य पयणगेसु य पयंति कुंभीसु य लोहीसु य पयंति काला उ णेरइए खीलगेण णिखि विचा णेरइए मीरासु पयति । महाकाला पुण 'कप्पेंति कागिणीमंसगा' छिदंति सीसपु| च्याणि । खावेंति य णेरइए महाकाला पावकम्मरता ॥७७॥ महल्ले तवगे चुल्लीसु य दहंति, अच्छिण्णे अभिण्णे य णेरइए तत्थारुभेचा महदवग्गाविव दुधिगेव पउल्लेत्ता पच्छा कप्पणीहिं कप्पेऊण कारा(गा) णि भंसाणि खावेंति, कागिणिमंसा णाम कागिणिमेतं | मंसं छेत्तुं पउलेउ खावेंति । असी णाम 'हत्थपादे उरू'गाथा ॥७८॥ ते असी विउव्वेत्ता तेसिं गैरइयाण हत्थपादमादीणि छिदंति, असिपत्ता णाम 'कण्णोट्टणास'गाथा ॥ ७९ ॥ ते असिपत्तवर्ण विउवित्ता तओ तत्थ छायावुद्धीए पविसंति, पच्छा वातं विउमंति, पच्छा वातकंपितेहिं असिपत्ते छिजंति, ण केवलं तत्थ असिसरिसाणि चेव पत्ताणि, अण्णाणिवि खुरूप्पपरसुकरुसमादिसरिसाई, तेसि कन्नणासउट्ठि(ओट्टे)छिन्दंति, उक्तं हि-'छिन्नपादभुजस्कन्धाः, छिन्नकोष्ठनासिकाः। भिन्नतालुशिरोमेदाः, भिन्नाक्षिहृदयोदराः ॥१॥ कुंभी णाम 'कुंभीसु पयणेसु लोहीसु य०'गाथा ||८०॥ ते कुंभकारोविच णाणाविहाई कुंभिलोहिमाई| भायणाणि विउवित्ता कीलगरतओ अपुग्नेसु नेरइए पक्विवंति। वालुगा णाम 'तडतडतडस्स भजंति' गाथा ॥ ८१॥ ते ॥१५५॥ [159] Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [१], नियुक्ति: [६२-८२], मूलं [गाथा ३००-३२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: श्र.सूत्रकतागचूर्णिः प्रत सूत्रांक ||३००३२६|| दीप अनुक्रम [३००३२६ केवल च बालुगं विउच्वंति, केवलं च वालुगा णाम कलंबगपुष्फमिव उठ्ठसिताओ, सो जहा पुष्फरुहं सिंगा मुम्मुरभूता, तत्थ घोसाए प्रश्नोत्त दुक्खं खुप्पंति वाउडताए य अंगमंगेसु णिवयमाणेसु मुंमुरेण व अंगमंगाई डझंति, पाडेऊणं च तत्थेव लोलाविअंति। वेतरणी णाम पूयरुहिरकेसट्टि गाथा ॥८२॥ वेगेण तरंति तामिति वेतरणी, ते अणोरपार गंभीरतरं दि विउव्यंति, तीसे पुण पावियं पूर्वअरुहिरं। खरसरा णाम कप्पंति करकएहिं० गाथा ॥८३॥ ते जंतेऊणं व कटुं जहा फाडेंति कप्पति करकएहिंति परोप्परं । च जुज्झाउँति, सिंखलिंग विउव्वित्ता तत्थारुभिऊणं कटुंति, अंछमाणेसु य खरं रसंतो, महाघोसा णाम भीते पलायमाणे समंततो० ॥८४|| गोवालेवि य गाविओ णियत्तेति य एकतो खुत्ते य कडेति चारो य पक्खिवंति, णामणिप्फण्णो गतो। इदाणिं सुत्ताणुगमे सुतमुचारेयव्यंति 'पुच्छिसुतं केवलियं महेसिं' वृत्तं ॥३००॥ सुधम्मसामी किल जंबुसामिणा णरगे पृच्छितो, केरिसा परगा? केरिसएहिं वा कम्मेहिं गम्मइ ? केरिसाओ व तत्थ वेदणाओ?,ततो भण्णते-पुच्छिसुहं पृष्टवानहं भगवंतं यथैव भवन्तो मां पृच्छंति, केवलमेवैकं तस्य ज्ञानमित्यतः केवली अथवा कृत्स्नः प्रतिपूर्ण केवलमित्यर्थः, संपूर्ण ज्ञानी केवली, महरिसी तित्थगरो, कथमिति परिप्रश्ने अभिमुखं भृशं वा तापयन्तीति अलोपात , भीता वा, नीयंते तमिन् पापे कर्मो इति न रमति वा तस्सिनिति नरका, पुरस्तादिति इह पापकर्तुस्ते परस्ताद्भवन्ति भावनरकान पृच्छति, द्रव्यनरकास्तु इहैव दृश्यन्ते, अविजाणतो मे मुणी ब्रूहि, हे ज्ञानिन् ! नाहं जाने-कैः कर्मभिः कथं वा नरकेधूपपद्यन्ते तद्यैः कर्मभिर्यथा चोपपद्यन्ते तमजानतो मगोच्यता एवं मया पुट्टो महाणुभागे'वृत्तं ॥३०१।। एवमनेन प्रकारेण, पुट्ठोणाम पुच्छितो, महानस्यानुभागः, द्रव्याणुभागो हि आदित्यस्य प्रकाशः, तदनुभागाद्धि चक्षुष्मतः अहिकंटकाः अग्निपातादीनि च परिहरंति, मोक्षसुखं च अनुभवंति, अनुभवनमनुभावः, महांति या ज्ञानादीनि ॥१५६॥ [160] Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत श्रीसूत्रक्रसूत्रांक ताङ्गचूर्णिः ।।१५७. ||३०० ३२६|| दीप अनुक्रम [३०० ३२६] “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [६२-८२ ], मूलं [गाथा ३००-३२६ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र - [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : ---- भजति सेवत इत्यर्थः, इदमत्रवीत् यद्वक्ष्यमाणः काश्यपगोत्रो भगवान्, असौ पुण्णेति न पुच्छितो चिंतेति, आसुं एव प्रजानी ते प्रज्ञ एवं पृष्टो मया-पवेदइस्सं दुहमट्ट दुग्गं साधु वेदयिष्ये प्रवेदयिष्ये, प्रदर्शयिष्यामीति इत्यर्थः, दुःखस्यार्थं दुःखमेवार्थः दुःखप्रयोजने वा दुक्कडकारिणं दुःख निमित्तो वा अर्थः दुहमई, तस्य दुःखस्य कोऽर्थः ?, वेदना, शरीरादिसुखार्था हि देवलोकाः, दुःखार्था नरंकाः, दुर्गं नाम विपमं, आदीनिक अथवा आदीनं नाम पापं दुक्कडकारिणं दुःखोत्पादकानां पुरस्तादिति अग्रतः, अथवा आदि निकं दुकडिणं पुरत्थेति तेसिं आदीणिगपापकम्मटुकडकारिणं पुरस्तात्पूर्वभवदुक्कडकारिणामित्यर्थः, दुक्कडंति महारंभादीहिं । जे के‍ वाला इह जीवितट्टी' वृत्तं (३-२) 'जे'त्ति अणिद्दिगुणिदेसो, द्वाभ्यामाकालितो बालः, ये कंचन बाला, इहेति तिरियमणुएस असंजम जीवतडी तत्प्रयोगजीवतार्थी च, कुराई कम्माई करेंति रोदा कुराई हिंसादीणि रौद्राध्यवसायाः रौद्राकाराच रौद्राः ते घोररूवे तमसंधयारे कुंभी वैतरणी यत्र हण छिन्द भिन्द इत्यादिभिर्भयानकैधररूपो घोररूपा वा ते नरका जत्थ सो उचवञ्जति, तमसंघकारो नाम जत्थ घोरविरूविणं पस्संति, जं किंचि ओहिणो पेक्खति तंपि कागदूसणियामणिया सरिसं पेच्छति तैमिरिका बा, कण्हलेसे णं भंते! पोरइए कंण्डलेस्सं णेरइयं पणिधाय ओहिणा सचओ समता समभिलोएमाणा केवतियं खे तं जाणति ? केवइयं खेत्तं पासंति 2, गोयमा ! णो बहुतरयं खेत्तं जाणइ णो बहुतरयं खेतं पासति, तिरियमेव खेत्तं पासति जह लेसुद्देसए तिब्बाणुभावेत्ति अनुभवनमनुभावः तीव्र वेदनानुभावात् कथमुपैति 'से जहा णामए पवगे पवमाणे' ते तु कैः कर्मभिर्यान्ति 'तिबंति से पाणिणो थावरे य' वृत्तं ॥ ३०३|| तीत्रांध्यावसिता जे तसथावरे पाणा हिंसंति न चानुतप्यन्ते, ये तु मन्दाध्यवसायाः सस्थावरान् प्राणा हिंसंति ते त्रिषु नरकेषूपपद्यन्ते, अथवा तीत्रमिति तीव्राध्यवसायाः तीव्रमिथ्यादर्शनिनच तीव्रमिथ्याध्यवसिता संसारमोचका [161] दुखार्थदुर्गादि ॥१५७॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [१], नियुक्ति: [६२-८२], मूलं [गाथा ३००-३२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत श्रीसत्रक सूत्रांक ||३००३२६|| ॥१५८॥ दीप अनुक्रम [३००३२६] याज्ञिकादयश्च, थावरे पुरदाहगादिः, आत्मसुस्वार्थ आत्मसुखं पड्डुच्च, यदपि हि परार्थ हिंसति हि तत्रापि तेषां मनःसुखमेवोत्पद्यते पुत्रदारे सुखिनि अप्यत्र वा, जे लूसए होंति अदत्तहारी लूसको नाम हिंसक एव, जो वा अंग पञ्चंगं भिन्दति भंजति वा, अदत्तं हरतीति अदत्तहारी, सो य विगयसंजमः, सिक्खा गहणसिक्खा आसेवणासिक्खा वा न किंचिदपि आसेवते संयमठाणं तस्स एगपाणाएवि दंडेण णिक्खिचो 'पगम्भि पाणे बहुणंति'वृत्तं ॥३०४॥ तस तं कर्तुकामस्य कृत्वा वा किंचन माईवमुत्पद्यन्ते यथा सिंहस्य कृष्णसर्पस्य वा, वहणं वेदेति मत्स्यबन्धाद्याः स्वयंभुरमणमत्स्या वा येषां वाऽन्या वृत्तिरेव नास्ति वग्यसिंहनागादीनां, त्रिभ्यः पातयती त्रिभिर्वा पातयति मनोवाक्काययोगैरित्यर्थः, एवं परिग्रहोऽपि वक्तव्यः अणिबुडे अणुवसंते आसवदारेहिं स एव दाहिणगासि गामिए अधम्मा पक्खिएसु बहुं पावकम्मं कलिकलसं समजिणित्ता से जहा णामए अयगोलेति वा' इत्तो चुए धातगति उति घातगामिनामिव गतिवेदनागतिरित्यर्थः, घातकानां वा गतिः श्रुतगतिं गच्छति, अंतकालो नाम जीवितान्त कालः निधो गति रधोगतिः अधो भवद्भिः शिरोभियंग्भवद्भिः शिरोभिः, तओतं अप्रकाशं अधो गच्छदन्धकारमित्यर्थः, अन्तकालो नाम जीवितान्तकालः अधोशिरा इति, उक्तं हि जयतु वसुमती नृपैः समया, व्यपगतचौरभयानुदेव! शोभा। जगति विधुरवादिनः कृतान्त (ग्रन्थाग्रं ३४००) नरकमवाशिरसः पतंतु शाक्याः॥१॥ दूरोत्पतने हि शिरसो गुरुत्वात् अवाशिरसः पतंति, स एव विचारः इहानुगम्यते, तेषां तस्यामवस्थायां शिरो विद्यत एव इति, एकसमयिकदुसमयिकगतितिगसमएण वा विग्गहेण उपयअंति, अंतोमुहुत्तेण अशुभकर्मोदयात् शरीराण्युत्पादयंति, निळूनांडजसनिमानि निजपर्याप्तिभावमागताच शब्दान् शृण्वंति 'हण छिन्दधभिवह णं दहह'वृत्तं ।।३०५।। कण्ठयं, तत तान् शब्दानाकर्ण्य मुखात् भैरवान् श्रुत्वा तद्भयात्पलायमानाः 'इंगालरासिंजलितं सजोति MIRMIREONEHA ॥१५८॥ [162] Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक श्रीसूत्रकृ ताङ्गचूर्णिः ||३०० - ॥१५९॥ ३२६|| दीप अनुक्रम [३००३२६] Semin Ne “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [६२-८२], मूलं [गाथा ३००-३२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र- [ ०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : वृत्तं ||३०६ || जहा इंगालरासी जलितो घणघणेति एवं ते परकाः स्वभावोष्णा एव, ण पुण तत्थ बादरो अग्गी अत्थि, विग्गहगतिसमावण्णएहिं ते पुण उसिणपरिणता पोग्गलगा जंतवाडचुल्लीओवि उसिणतरा, ततोमं भूमि अणोकमन्ता तत्रायसक वल्लतुल्लं ते उज्झमाणा कलुणं थणंति, कलुणं दीणं, स्तनितं नाम प्रततश्वासमीपकूजितं यल्लाडानां निस्तनितं, अरहस्सरा णाम अरहतस्वराः अनुबद्धस्सरा इत्यर्थः, चिरं तेसु चितीति चिरद्वितीया, जहणेणं दस वाससहरुसाई उकोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई, त | एवं प्रतिपद्यमाना न द्यां पश्यंति 'जइ ते सुता वैतरणीतिदुग्गा' वृत्तं ॥३०७॥ यद् त्वया श्रुतपूर्वा वैतरणी नाम नदी, लोकेऽपि | ह्येषा प्रतीता, वेगेन तस्यां तरतीति वैतरणी, अभिमुखं भृशं वा दुग्र्गाऽतिदुर्गा गम्भीरतया परमाधार्मिकैः कृता, केचिद् ब्रुवते स्वाभा | विकैवेति, खुरो जहा णिसिओ यथा क्षुरो निशातश्छिनत्ति एवमसावपि, जइ अंगुली चुंभेज ततः सा तीक्ष्णश्रोताभिः छिद्यते, तीक्ष्णता वा गृह्यते यथा क्षुरधारा तीक्ष्णवेगा, ततस्ते तृष्णादिना प्रतप्ताङ्गारभूतां भूमिं विहाय खिन्नासवः पिपासवश्च तत्रावतरन्तीति, अवतीर्य चैनां मार्गातिदुर्गा प्रतरन्ति नरकपालैरसिभिः शक्तिमिव पृणुतः प्रणुद्यमाना उत्तितीर्षयञ्च ततः शक्तिमिः कुन्तैश्च तत्रैव क्षिप्यन्ते | 'कीले हि विज्झति असाधुकम्मा' वृत्तं ||३०८|| ततो परमाधम्मिएहिं णावा उवि विउव्बिताओ लोहखीलगसंकुलाओ ते ताओ अल्लियंता पुचाविलग्गेहि णिरयपालेहि विज्यंति, कोलं नाम गर्छु, उक्तं हि कोलेनानुगतं बिलं, भुजंगवदसाधूनि कर्माणि येषां ते इमे असाधुकर्माणः, णावं उवेतिं उबलियंति तेसिं तेण पाणिएण कलकलभूतेण सव्वसोत्ताणुपवेसणा सत्ति पूर्वमेव नष्टा, पुनः कोलैर्विद्वानां भृशतरं नश्यति, मिन्नेति सूलाहित्ति मूलयाहिं त्रिशूलिकाभिर्दीर्वाभिः अहे हेडतो जलस्म अधोमुखे वा ततः कथंचिदेव चिरा उत्तीर्णाः सन्तः नरकपालैर्विकुर्वितां नरकभूमिमुपयन्ति, कतरियं ? ' आसूरियं णाम' वृत्तं ॥ ३१० ॥ यत्र शूरो नास्ति [163] अंगारराइयादि ।। १५९।। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [१], नियुक्ति: [६२-८२], मूलं [गाथा ३००-३२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक श्रीसूत्रकनाङ्गचूर्णिः ॥१६॥ महातापादि ||३०० ३२६|| दीप अनुक्रम [३००३२६ अथवा सर्व एव नरकाः अमरिकाः महन्ततावं णाम कुंभीपाकसदृशं महानतितापो यस्मिनीध तमोभूतं यथा जात्यन्धस्य अहनि रात्रौ च सर्वकालमेव तमः एवं तत्रापि, स तु आगाधगुहासदृशा दुःखं तत्थ पावेयुरिति दुखन्तरं, महान्त इति विस्तीर्णा, उ९ अहे। य तिरिय दिसासु ऊर्ध्वमिति उबरिल्ले तले अधे भूमीए तिरियं कुड्डेसु, तत्थ कालोभासी अचेयणो अगणिकायो समाहितो सम्यक् आहितो समाहित एकीभूतो निरन्तरमित्यर्थः, पठ्यते च-समूसिते जत्थ अगणी झियाति समूसितो नाम उच्छृतः सो | पुण जं भट्ठीचुल्लीतो उसिणतरो जंसि 'जंसि गुहा जलणातियट्टे'वृत्ते ॥३१।। गुहाए गतो दारा विउब्धिता, किण्हा गणणा ऊऊयमाणी ऊऊयमाणी चिट्ठति, जलणं अति अतो जलणतियट्टे, अविजाणतो डज्झति लुत्तपण्णे अविजाणतो णाम नासौ तस्यां विजाणाति कुतो द्वारमिति, अथवाऽसौ जानाति अवमे उसिणपरित्ताणं भविष्यति, इह वाऽसौ अविज्ञायक आसीत् , यस्तु द्विधानि कर्माण्यकरोत् लुप्ता प्रज्ञा यस्य स भवति लुत्तपण्णा-न जानाति कुतो निर्गन्तव्यमिति, प्रहासौ वा वेदनाभिर्वाऽस्य प्रज्ञा महिता, अथवा अहिते हि पण्णाणे इदमन्यद्वेदनास्थान-सदा कलुणं पुण धम्मट्ठाणं सदेति नित्यं, न कदाचिदपि तस्मिन् हर्षः ग्रहासो वा, धर्मणः स्थान धर्मस्थानं, सर्व एव हि उष्णवेदना नरकाः धर्मस्थानि, विशेषतस्तु विकुर्वितानि स्थानानानि दुक्खनिष्क्रमणप्रवेशानि | गातं उण्डं दुःखोवणितं गाढ़ा दुर्मोक्षणीयैः कर्मभिन्तत्रोपनीता स वा तेपामुपनीतः अथवा गाढमिति निरन्तरमित्यर्थः, गाढ-IM चेदणं अतिदुक्खधम्मंति, धर्मः स्वभाव इत्यर्थः, स्वभावग्रतप्तेषु तेषु तत्थवि 'चत्तारि अगणिओ समारभित्ता'वृत्तं ॥३१२।। अथवा इदमेव तत् धर्मस्थानं यदुत चत्तारि अगणीओ समारभित्ता चउदिसं अगणि, समारमिता णाम समुद्दीवेत्ता, जहिति यत्र क्रूराणि कर्माणि यैः पूर्व कृतानि क्रूरकर्माण: नारकाः, अथवा ते क्रूरकर्माणोऽपि णरयपाला जे णरयग्गिततेवि तपति तापयंति [164] Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [१], नियुक्ति: [६२-८२], मूलं [गाथा ३००-३२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक ||३००३२६|| SallamIDEOPHOROREOPOR | उपज्योतिश्रीसूत्रकयत एव हि मंदा नरकपाला मंदबुद्धय इत्यर्थः, नरकप्रायोग्यान्येव कर्माण्युपचितवंत इति, भृशं तप्यमाना अतितप्यमाना, जीति रादि ताइन्चूर्णिः a मे जीचं, स एव ज्योतिषः समीपे गओ य जोतिपत्ता समीपगता मिना पवने मत्स्यास्तप्यन्ते, किमंग पुण तत्ते, त एव च्छदा अयोकवल्ले वा, सीतयोनित्वाद्धि मत्स्यानां उष्णदुःखानभिज्ञत्वाच अतीवाग्नौ दुःखमुत्पद्यते इत्यतो मत्स्यग्रहणं । किंचान्यत्-संतच्छणं णाम ॥३१३।। समस्तं तच्छणं णाम जत्थ विउविताणि वासिपरसुमादियाणि तं बलिओ जहा खयरकट्ठ तच्छेति एवं तेचि | | वासीहि तच्छिअंति, अन्ने कुहाडएहि कट्टमिव तच्छिअंति, महन्ति तावं णाम महंताणिवि तत्ताणि तच्छणाणि भूमीवि तता, असा-10 णि कम्माणि जेसिं ते असाधुकम्मी, हत्थेहि य पादेहि य चंधिऊर्ण, रज्जूहि य णियलेहि य अउआहि य कडिकडिगाबंधेणं | । बंधिऊगं मा पलाइस्संति उइंसेन्ति वा तथा पुरकवालफलग इव कुहाडहत्था तळेति, ते एवं संतच्छिता 'रुहिरे' वृत्तं ॥३१४॥ रुहिरे पुणो चेव समूसितं, गोरुधिरं जंते छिअंताणं परिगलति, पुच्वं च तेषां वर्चस्फुटितान्यंगानि ते वर्चसा आलित्तांगाः कुहाडपहारपहि, भण्णंति-भंगे अयकवल्लेस, तम्मि चेव णियए रुधिरे उच्यतेमाणा परियत्तेमाणा य पयंति, ण पोरइए फुरते उकारिगा च, धूवं च जहा सिलिसिलेमाणा पुरुफुरुते य, सज्जो मच्छे व अयोकवसु पयंति सजो मच्छेति जीवंते, अथवा सो कमच्छे सओ हते, अध णिजिगाए चेव वसाए, अयोकवल्लीणीति अयोमयाणि पात्राणि, एवमपि ते छिन्नगात्रास्ताड्यमाणाः पाठ्यमानाच 'ते तत्थ मसीभवंति'वृचं ॥३१५।। छारीभवंति वा, न नियंते, तिव्वा अतीववेदनानुबन्धा न लोमं देवं गतं, इतरहा तु अतितिबवेदणा इति, पठ्यते-कम्माणुभार्ग, सीतं उसिणाणुभागं वेदेति, भूयो २ वेदेंती भूअणूवेदयंति, तेण दुक्खेणं दुक्खंति, सोयंति जूरंति इह दुकडेहि अट्ठारसहिं छापोहिं 'तेहिंपि ते लोलुअसंपगाढा' वृतं ।।३१६।। तस्मिन्नपि ते पुनर्लोलुगसंपगारे अणं ॥१६१॥ दीप अनुक्रम [३००३२६] T ISite [165] Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [9], उद्देशक [१], नियुक्ति: [६२-८२], मूलं [गाथा ३००-३२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: लोलनादि ताङ्गचूर्णिः प्रत सूत्रांक ||३००३२६|| श्रीसत्रक॥१६२॥ दीप अनुक्रम [३००३२६] पगाढतरं सुतं तं विउव्विपलयं अगणिं गाद द्वाणं वयंति, लोलंति येन दुक्खेन तल्लोलगं, भृशं गाढं प्रगाढ निरन्तरमित्यर्थः, गाढतरं सुठुतरं गाद सुतत्तं, ततो विसाला विगतो णरगउसिणगाओ अधिकतरं, अथवा सा अगणिणा तत्तं सीतवेदणिजावि लोलुगा तेसुवि णेरइया सीएण हिमकडअउणपक्खित्ताई च भुजंगा ललकारेण सीतेणं लोलाविअंति, अण्णोसिं पुण णरगाणं वा, लोलुअग्गिति णाम, जहा लोलुए महालोलुए, तत्थ सादं लभंतीति दुग्गे निस्यपालो महत्तरेणापि तावत् ण तत्थ सायं लभति, उक्तं हि-'अच्छिणिमीलियमेत्तं णस्थि सुहं किंचि कालमणुब ०' अतिदुग्गे वा, भृशं दुर्गे वा, ण चेव तत्थ कासइ समा भूमी अस्थि, अरिहिता अभिभावः तस्मिन्नपि अरिहते अमितावो तहावि तं विजंति अयोकवल्लादिसु तेषां नरकाणां गण्डस्योपरि पिटका इब जाताः ते ते स्वाभाविकेन नरकदुक्खेण विशेषतश्च नरकपालोदीरितेन पुनः पुनः समाहता हन्यमानाः स्वयं वेदनासमुद्घातैरिव कालं गमयंति, तत्र पुनर्महाघोपनरकपालोदीरितस्तेषां च परस्परतो हनछिन्दभिंदमारयातिकूपितस्तनितशब्दैश्च से सुब्बती गामवघे व सद्दे०'वृत्तं ॥३१७॥ से जहा नामए अयघाते वा णरघाए वा सर्वस्वहारे च बन्दिग्रहे वा महाणगरडाहे या उकिरिजंतेसु वा णगरेसु गामेसु वा समंता हाहाकारा रवा अमानुपुत्राः श्रूयते, एवं तेष्वपि उदिण्णकम्माए पयायति णरगपा(लाव)याए णरगलोगस्स महाभैरवसद्दो सुब्बते, उदिण्णकम्माण तेसिं असातावेदणिजादिगाओसणं असुभाओ कम्मपयडीओ उदिण्णाओ, असुरकुमाराणवि तेसिं मिच्छत्तहासरतीओ उदिष्णाओ इत्यवस्थे उद्दिष्णकम्मा, पोरइयाणं शरीराणीति वाक्यशेषः, उदीर्णकर्माणोऽसुराः, पुनः पुनरिति अनेकशः,संघातमारणाणि सह हरिसेण सहरिसं दुक्खापयंति दुईति विहंसंति वा, पठ्यते 'पाणेहिं णं पाव विजोजयंति'वृत्तं ॥३१८॥ प्राणाः शरीरेन्द्रियबलप्राणाः ते पापास्तैस्तै.दनाप्रकारैः बलभेदप्रकारैश्च वियोजयंति विश्लेपयन्तीत्यर्थः, साकिमर्थं तेषां वेदनामुदीरयति ? कीदृशी [166] Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [१], नियुक्ति: [६२-८२], मूलं [गाथा ३००-३२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: श्रीमत्र प्रत सूत्रांक ||३००३२६|| तार ॥१६॥ श्रीसूत्रक- ताङ्गनूर्णिः ॥१६३॥ दीप अनुक्रम [३००३२६ वा, उच्यते 'भेऽदं पवक्खामि जहातहति जहित्ति इहं येन प्रकारेण पावाईकम्माई ते तहिं तहेव वेयणाओ पाविजंति, का तर्हि भावना ?, तीवोपचितैस्तीवेदना भवंति मन्दैर्मन्दा मध्यैर्मध्या नरकविशेषतः स्थितिविशेतश्च, अथवा जहा तहत्ति राजन्वे वा राजामात्यत्वे चारकपालत्वे लुब्धकत्वे वा सौकरिकमत्स्यवन्धत्वे वा बधघातमांसापरोधपारदारिकयाज्ञिकसंसारमोचकमहापरिग्रहेत्येवमा| दयो दण्डा यैर्यथा कृतास्तान् तत्थेव दंडे तत्थ सारयंति-वोलंति, ते च यथाक्तैर्दण्डैः स्मारयन्ति याच्यमानाः, सरयतित्ति सारयति, न तथा छिद्यन्ते एव, मार्यन्ते वध्यन्ते सह्यते, एवं यावंतो यथा दण्डप्रकाराः कृतास्तावद्भिस्तथा च स्मारयति ते हम्ममाणा णरगं उति'वृत्तं ॥३१९।। त एवं वालाः हन्यमाना इतश्चेतश्च पलायमाणा णिलुकणपथं मम्गंता नरकमेवान्यं भीमतरवेदनं प्रविशंति, जहा इह चारहिं चोरा चारिजंति, कडिल्लमणुप्रविशंति, तत्रापि सिंहव्याघाजगरादिभिः खाद्यते, एवं ते ते बाला पलायमाणा नरकपालभयात् नरकं पतंति अण्णं पुण्णं उरुअस्स, उरूणाम उच्चारपामवणकदमो, से जहा णामए अहिमडित्ति वा मतकुहितविगट्ठकिमीएणं, तदपि उरूअं तप्तं महत्ति,ताव तत्थ चिटुंति उरूवभक्खी, उरूवं भक्षयन्तीति उरूवभक्खी, ते णिस्यपालेहि उरूवं | खाविअंति, तुद्यत इति तुद्यमानाः कर्मभिः, कर्मावशा णाम कर्मयोग्या कर्मवशगा वा, तत्थ दूरे चेव विट्ठाकृमिसंस्थाणा विउब्बिया किगिगा तेहि खञ्जमाणा चिट्ठति, गुणमार्गा य तत्थ किच्छाहिं गच्छंति, परिसंता य तत्थेव लोलमाणा किमगेहि खजंति, छद्रसत्तमासणं पुढवीस णेरड्या मत्तमहन्ताई लोहितकथुरूवाई विउवित्ता अण्णमण्णस्स कार्य समतुरंतेमाणाअणुखायमाणा चिट्ठति ।। किंचान्यत्-'सदा कसिणं पुण घम्मट्ठाणं' वृत्तं ॥३२०॥ सदेति नित्यं, कसिणं णाम संपूर्ण, तत्तोष्ण कुंभीपागअर्णतगुणा| धियं, जोवि तत्थ बातो सोऽवि लोहारधमणी वा अणंतगुणउसिणाधिको, गाढेहिं कम्मेहिं तचेपामुपनीतं, ते वा तत्थुवणीता अबा [167] Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [१], नियुक्ति: [६२-८२], मूलं [गाथा ३००-३२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: इटापाकादि श्रीमत्रक चूर्णिः प्रत सूत्रांक ||३००३२६|| ॥१६॥ दीप STARRELATIALAAMASIASTHANIDEOHINILASSES अनुक्रम [३००३२६] suTOTRAChumalpamummyTOPATI यानीह गावान्युपणस्थानानि इष्टषाकादीनि तेस्तदुपमीयते, उपनीयतेत्ति वा उवपद रिसतेत्ति वा एगहुँ, अतिदुःखखभावं अतीदुःखधर्म, तथावि अतिदुक्खधम्मे आर्गम परिकप्पयंति, वालि हत्थं कसं पक्खिविऊण विहणंति, विणिहणित्ता खीलरोहिं चम्ममिव ततो वितडितसरीराणं वेधेहिं विधति सिराणि, तेसिं बध्यस्थानानि येषु वेधेपु ते वेधाः, तद्यथा अक्षिकर्णनासामुखानि, अदान्तेन्द्रियाणां पूर्वत एव एतानि पूर्वमदान्तान्यभूवन् , सांप्रतं दामन्यते, अथवा सीसावेढेण तान्ति-सीसं दुक्खाति, किंचान्यत्-तत्रासिपत्रा नाम | नरकपाला 'छिदंति बालस्स खुरेण णकं, उट्टेवि छिदंति दुवेवि कण्णे' वृत्तं ॥३२१ ।। एतानि हि पूर्वमच्छिन्नदोपान्यभूवन् अच्छिन्नतृष्णानि वाऽऽसन् , तत्साम्प्रतं स्वयमेव छिद्यन्ते, जिब्भं विणिकिस्स विहत्थिमेतं, एषा हि पूर्व नसारित्तनी अलीकभापिणी चासीत् , परस्परं विकुवितेहिं छिन्दति, बालस्स खुरेण णकं तिक्खाहिं सलाहिति, लोहखीलगाः, ते च कार्य यावत् ककाटिकातो निर्गता, निपातयतिचि विधति, त एवं विद्धा तो 'ते तिप्पमाणा तलसंपुड(ब)चा' वृत्तं ॥ ३२२।। विनितप्यमानाः | तिप्पमाणाः पीयमाना हेरिकादिपु तलसंपुलिता णाम अयतबंधा हस्तयोः कृता, यथैषां करतलं चैकत्र मिलति, एवं पादयोरपि, | अथवा करतलेन किंचि जोड्यमानाः, एवं तेषां च घडगेहिं जंतेहि य तलसंपुडियचा, अद्या सरीरं भण्णति, रातिदियं तत्थ थणंति मंदा रात्रिंदिनप्रमाणमात्रं कालं णिच्छणते अच्छंति, मंदा नाम मंदबुद्धयः, लीना वा समीरिता, सर्वतो रुधिरं गालाविता | | इत्यर्थः, सर्वतश्च मांसरवकृष्टैः अनायभूमीय थरथरायतो, अण्णावकथलं बंगाई देहोऽवि खंडखंडाई केसिंचि काउं पजोविततो, | सब्बओ पलीवित्ता वेढेऊण केइ खारेण पत्तच्छिन्नंगा वासीमादीहिं तच्छेतुं खारेण सिंचंति, किंच-जइ ते सुत लोहितपागपायी, तैयगुणा परेणं यदि त्वया कदाचित् श्रुता, लोकेऽपि ोपा थुतिः प्रतीता, तत्र कुंभीओ विअंति, लोहितस्यापाकः लोहित ॥१६४॥ [168] Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||३०० ३२६|| दीप अनुक्रम [३०० ३२६] श्रीसूत्रकृ चूर्णि ॥१६५॥ IS A SOLE “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [६२-८२], मूलं [गाथा ३००-३२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र- [ ०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : पाकः पच्यते यस्यां सोऽयं लोहितपाकपायी, वाह्यबलस्य हाग्नेः अधिकस्तायो भवति, परिशुष्केन तस्याभिनवप्रज्वलितस्य, स हि अधिकं दीप्यते दह्यति च, तेयगुणा एत्तोवि परं अनंतगुणा, उन्हो— अग्गी, कुंभी महती कुंभप्रमाणाधिकप्रमाणा कुंभो भवति, जाहेवि चउसुवि पासेसु प्रज्वालितेनाग्निना तप्तलोहिका तेसु, ताम्रपूर्णो दुरासयो, एवं ताओवि कुंभिकेहिं णिरयपालेहिं विउन्विताओ कुंभीओ महंति, महंतीओ पुरुषप्रमाणानीति अधियपोरुसीओ, यथाऽस्यां प्रक्षिप्तो न नारकः पश्यतीति, ण वा चकेइ कण्णेसु अवलंचिउं उत्तरित्तए, अद्दहिता-लोहितपूय मादीणं असुभाणं सरीरावयवाणं पुण्णा, अथवा कुंभी उट्टिगा, अधिया पोरिसेसु वा ऊणा कीरंति तत्थ विच्छोभणा भवति, 'पक्खिप्प तासु' वृतं ॥ ३२४ ॥ अट्टस्तरेति आर्त्तखरमिति, आत्तों हि यावत्प्रमाणं रसति, नासौ लज्जां धैर्य वा तस्मिन्काले गणयति ॥ 'अप्पेण अप्पं इह चइत्ता' वृत्तं ॥ ३२५॥ अप्यं णाम आत्मानं इहेती इह मनुष्यलोके वंचइत्ता कूडतुलादीहिं, अथवा अप्पानं, परोवघातसुद्देण अप्पाणं वंचइत्ता भवाधमो भवाथमो णामाधर्मः अतस्तस्मिन् भवाधमेअधमें पुसते सहस्सेति जाब तेत्तीस सागरोवमाई, चिह्नंति तत्था बहुकरकम्मा। जहाकडं कम्म तहासिभारे बहूणि कूराणि कम्माणि येषां ते बहुक्रूरकर्मा, कम्मा जे य पअंति, जे य पचति सव्वे ते बहूतरकम्मा, जहाकडे कम्मेति यथा चैपां कृताणि कर्माणि तथैवैषां भारो वोढव्यः इत्यर्थः, विभत्ती विज्जते नासौ भारः, का तर्हि भावना ?-या शेनाध्यवसायेन कर्माण्युपचिनोति तथैवैषां वेदनाभारो भवति, उत्कृष्टस्थितिर्वा मध्यमा जघन्या वा, ठितिअ अगुरूवा चैव वेदना भवति, अथवा यादृशानीह कर्मायुपचिनोति तथा तत्रापि वेदनोदीर्यते तेषां स्वयं वा परतो वा उभयतो वा, उभयकरणेण तद्यथा-मांसादा स्वमांसान्येवाशिव | र्णानि भक्ष्यन्ते, रस कपायिनः पूयरुधिरं कलकलीकृतं तउतंवाणी य द्रवीकृतानि, व्याघातसौकरिकादस्तु तथैव विध्यन्ते मार्यंते | [169] लोहित पाकादि ॥१६५॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [9], उद्देशक [१], नियुक्ति: [६२-८२], मूलं [गाथा ३००-३२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक चूर्णिः १६६।। INEKHABAR ||३०० ३२६|| दीप अनुक्रम [३००३२६ च, चारकपाला अष्टादशकर्मकारिणः कार्यते च, आनृतिकानि जिह्वा नक्ष्यते त्रुट्यन्ते च, चोराणां अंगोपांगान्यपहियंति, पिण्डीकृत्य चैनां ग्रामघातेषिव वधयंति, पारदारिकाणां वृपणा छिद्यन्ते अग्गिवर्णाश्च लोहमय्यस्ते स्त्रियः अवगाहाविजंति, महापरिग्रहारम्भश्च येन येन प्रकारेण जीवा दुःखापिताः सन्निरुद्धा जोतीता अभियुक्ताश्च तहा तहा वेयणाओ पाविजंति, क्रोधनशीलानां तक्रियते येन येन क्रोध उत्पद्यते, तेणं एवं रुसिजति, इदानी वा किं तत् क्रुध्यसे? किं वा क्रुद्धः करिष्यसि , माणिणो हि लजंति, मायिणो असिपत्तमादीहिं सीतलच्छायासरिसेहि य तउतंवरहिं प्रवचिजंति, लोमे जहा परिग्गहे, एवमन्येष्वपि आश्रवेवयोग्यमित्यतः साधूक्तं जहा कडे कम्मे तहा से भारयति । 'समजिणित्ता कलुसं अणजा' वृत्तं ॥३२६॥ जहा अधम्मपक्खे बुचिहिन्ति अधम्मिए अधम्माणुएत्ति हण छिंद भिंद वयंतएत्ति जाव णरगतलपतिद्वाणे भवति, कलुपमिति कम्मैव, चिरस्य हि तत्प्रसीदेति, हिंसादि अणारिया कम्मा अणारिया, इष्टा शब्दादयः, कमनीयाः कान्ताः, त एव विषयाः, अथवा कान्ताबंधे वा, तैर्विप्रहीणाः, अहबा णेतिआ, इइ हि इटाणि य कांताणि य पियाणि य तेहिं विप्पहीणा, तओ रसगंध उरुतकदमे य पूगवसारुहिरकदमे या, 'से जहा णामए अहिमडेति वा कसिणे-संपुन्ने असुभभावेण स्पृशंतीति स्पर्शाः, चशब्दात् सद्दे रूवे रसे गंधे फासेत्ति, रयणप्पभाए अणिट्ठा फासादयो, सेसासु कमेसु अणिहतरा, कर्मयोग्याः कर्मपयोगाः, जारिसा कम्मा कया, तिविह तिव्या, सकुणिमेचि न कश्चित् तत्र मेध्यो देशः, सब्वे चेव मेदव्वसामसरुहिरपुव्वाणुलेवणतलाओ, स्थितिपरिसमाप्तेः वसंतीत्यावसंत इति प्रथमोदेशकः ।। स एव भावनरकाधिकारः, यानि दुःखानि प्रथमे उक्तानि द्वितीयेऽपि तादृशान्येवोक्तानि, नरकपाल कृतैस्तु परस्परकृतैश्च विशेष MeanAmAINISTRANSTHANE- ॥१६६॥ अस्य पृष्ठे पंचम अध्ययनस्य द्वितिय उद्देशकः आरभ्यते [170] Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [9], उद्देशक [२], नियुक्ति: [६२-८२], मूलं [गाथा ३२७-३५१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: खभावादि प्रत सूत्रांक ||३२७३५१|| श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः २ उद्देश: ॥१६७॥ दीप अनुक्रम [३२७३५१] उच्यते 'अहावरं सासतदुक्वधम्म' वृत्तं ॥३२७।। अथेत्यानन्तर्ये, अपर इत्यतो विकल्पः, शास्वतमिति नित्यकालं यावदायुः 'अच्छिणिमीलितमेत्तं' गाथा, दुःखखभावं दुःखधम्मा । तं ते पचक्खामि भृशं विविध प्रकारैर्वा वक्ष्यामि पवक्खामि, अथवा | | आदितः इदानीं वक्ष्यामि प्रवाचयिष्यामि, यथेति येन प्रकारेण, सर्वशो हि यथैवावस्थितो भावः तथैवनं पश्यति, तथा तेनैव, वक्ति, याला यथा दुक्कडकम्मकारी येन प्रकारेण यथा, कुत्सितं कर्म दुकडं, दुकडाई कम्माई करेंति दुकडकम्मकारिणः, हिंसादीनि महारंभादीणि च, वेदेतित्ति-अणुभवंति, पुरेकडाईति यन्मनुष्यत्वे त्रिविधकरणेनापि निकाचितानि, तानि तु स्वयं वेदयंति निरयपालैश्च वेदाविजंति, 'हत्थेहिं पादेहि य बंधिऊणं'वृत्तं ॥३२८|| जहा इह राया रायपुरिसा वा अवकारिणो खंधे बंधित्वा सरेहिं विधति एवं तेचि परयपाला खंधेसु बद्धवाणं पाडिताणं वा हत्थपादं तडयित्वाणं उदराई फोडेंति खुरेहिं तेसिं, खुरेहिं वासेहि वा, असिता-णिसिता तिव्हा, अथवा णिसिता मुंडा इत्यर्थः, कृष्णा वा, तेहिं मुंडेहिं दुःखाविजंति मारिजंति च, त्वया उदरनिमित्तं | हतानि सत्त्वानि, अथवा खुरासिगेहिं खुरेहिं असिगएहि य अण्णे पुण गेण्हित्तु बालस्स विहण्ण देहं गृहीत्वेति णस्समाणं वा वशमानयित्वा, विहण्णेति-विहिणित्ता खीलएहिं बज्झं पिट्टतो उद्धरंति स्थिरा नाम अत्रोडयन्तः, पृष्ठतो नाम पण्हिगाओ आरद्धं जाव कुगालिकातो उद्धरंति-उप्पाडेंति, एवं पार्वतोऽपि, किंचान्यत्' बाहू य कत्तंति य मूलतो से वृत्तं ॥३२९।। बाधयति | तेनेति बाहू, मूलतो नाम उद्गमादारभ्य उपकच्छगमूलतो प्रारभ्य, लोहकीलएणं चतुरंगुलप्रमाणाधिकेणं थूलं मुहं विगसावेऊणं, | थूलमिति महत, मा संयुड़ेहिंति वा रडिहिन्ति, आरसतोऽपि न तस्य परित्राणमस्ति, तथाप्यातुरत्वादारसंति आडहंतिचि बुचंति, किंच-रहंसि जुत्तं सरयंति बालं सरयंतिनि गच्छेति बाहेतीत्यर्थः, पापकर्माणि च सारयन्ति, त एव च बालास्तत्र युक्ता ये ॥१६७॥ [171] Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [9], उद्देशक [२], नियुक्ति: [६२-८२], मूलं [गाथा ३२७-३५१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक ||३२७३५१|| सूत्रकगचूर्णिः 1१६८॥ दीप अनुक्रम [३२७३५१] चैनां वायति त्रिविधकरणेनापि ते यस्य रूविणो, रथे सगडे वा, गुरुगं विउधितं रथं, अवधता य तत्रारखि आसज्ज वींचंति, | आरुहा विधति, तुदंतीति तुदा-तुत्रका गलिबलीववत्पृष्ठे, सा च भूमी 'अयं व तत्तं'वृत्तं ॥३३०|| तप्तं हि किंचिदयः कृष्ण मेव भवति, सा तु भूमी ज्वलितलोहभूता सज्योतिषा सबज्वलितेन ज्योतिषा तप्ता, न तु केवलमेपोष्णा, तज्ज्योतिपापि अणंतगुणेहिं उष्णा सा, तदस्सा औपम्यं तदोपमा, अणुकमंतो णाम गच्छंता, ते डज्झमाणा कलुणंति ते य इंगालतुल्लं भूमिं पुणो ख़ुदाविजंति, आगतगताणि कारविजंता य अतिभारोकता डज्झमाणा कलुणाणि रसंति, इषुभिस्तुत्रकैश्च प्रदीप्तमुखैचोदिता तप्तेषु । योगेषु युक्ता, तप्तानि वा युगानि येषां स्थानां त इमे तप्तयुगाः, अतस्तेषु तप्तयुगेषु युक्ताः, त एवं 'याला बला भूमिमणो कमंता'वृत्तं ॥३३।। बाला मंदा, बलादिति बलादनुकमंतो, बलात्कारेण, अथवा चला घोरवला इत्यर्थः, विविधेन प्रज्वलानामपि स्थूलेण पूयसोणिएण अणुलित्ता तला, विगतं बलं विज्वलं जलेज, विजलाविष्टनेन जलेण एव सोयपूयसोणितेणं, लोहमयः । पथः लोहपथः, यथा लोहमयपथः तप्तः तथा सोऽपि, जंसीऽभिदुग्गे बहुकूरकम्मा अभिदुग्गं-भृशं दुर्ग वा, दंडलउडमादीहिं हत्या हत्वा, पुनः पुनः प्रेष्यन्त इति प्रेस्या-दासा भृत्या च, पुरतः कुर्वन्तीति अग्रतः कृत्वा बाह्यते गोणा इव अणिच्छन्ता पिट्टिजंति तुधन्ते च, किं च-'ते संपगादमि पवजमाणा' वृत्तं ॥३३२।। नानामिदनामिभृशं गाद संप्रगाढं निरन्तरवेदनमिति, अथवा संबंधः पथः संप्रगाढा, ते अतिभारभराक्रान्ता शर्करापापाणपथं प्रपद्यमाणाः 'सिलाहिं हंमति नितापिया(निपातिणी)हिं' शिलाभिविस्तीर्णाभिर्विक्रियादिभिरभिमुखं पतंतीति अभिपात्यमाना, नान्यत्र पतन्तीत्यर्थः, किंच 'संतावणी नाम चिरद्वितीया' सर्व एव नरकाः संतापयन्ति, विशेषेण तु वैक्रियाग्निसंताविता चिरं तिष्ठति, ते हि चिरद्वितीया जहण्णेण दस [172] Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [२], नियुक्ति: [६२-८२], मूलं [गाथा ३२७-३५१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक ||३२७३५१|| , तम्हि D वाससहस्साई उकोसेणं तेत्तीससागरोक्माणि संतप्पते शरीरेण मणसा च, अमाधूणि कर्माणि येषां ते इमे असाधुका कंडूपचश्रीमत्रका । ताहचूर्णिः चेच संतावणीसंज्ञके नरके 'कंडसु पक्विप पयंति वालं'वृत्तं ॥३३३।। अयाकोटपिट्ठपयणगमणादीसु पयणगेसु पक्खिप्प ॥१६९|| बाला, ते च यतो भुजिया इव डज्ममाणा उफ्फिर्डति, णेरइया पुणो पत्तोवद्दवं, पंचेव जोअणसयाई, ते उड़काएहिं विलुप्प माणा उड़काया णाम द्रोणिकाः, ते उफिडेन्तावि सन्तो उडुकाएहि विविधेहिं अयोमुहेहिं खअंति, खजमाणा भक्खितसेसा । भूमि संपत्ता अबरेहिं खअंति सणफतेहिं न शक्यते धारयितुमित्यर्थः, सिंहब्याघ्रमृगशृगालादयः विविधाः 'समूसितं णाम विधूमठाणं'तत्थ ते णेरइया समृसियाविजंति, ऊसवितं ऊसवितं विनाशितमित्यर्थः, विधूमोऽग्निस्थान, विधूमो नामाग्निरेव, विधूमग्रहणात् निरिंधनोऽमिः स्वयं प्रज्वलितः, सेन्धनस्य ह्यनेरवस्यमेव धूमो भवति, अथवा विधूमानां हि अंगाराणामतीव तापो भवति, यदि त्वापततु तं वा, यसिन् विकृत्यमानाश्च कलुणं थणंति, कलुणमित्यपरित्राणं निराक्रन्दमित्यर्थः, सपरित्राणा हि यद्यपि स्तनति कूजति वा तथापि तन्नातिकरुणं, अथवा यत्र उवियंता वुसमाना इत्यर्थः, अथवा जेसिं उबकिता विविघमनेकप्रकारेण उत्क्रान्ता विउकंता, अधोसिरं कटु विगंतिऊण अधोसिरं काउं केइ बिगिचंति, केइ विगत्तिऊणं पच्छा अधोसिरं बंधंति, अयो छगलगो, अयेन तुल्यं अयवत् , यथा अय इव कप्पणीकुहाडीहिं केइ कुत्सितं कथंचि चंकम्ममागं फुरुफुरतं वा कप्पणिकुहाडीहिं हत्थेहिं समूसवेंति-छिदंति, एवं कुसितं कुत्सितं वा छिदंति, अथवा अयमिति लोहं, जहा लोहं तनेल्लयं छि अंति एवं वा। किंच | 'समूसिता तत्थ विसूणितंगा' वृत्तं ॥ ३३५ ॥ समृसिता नाम खंभेसु उड्डा बद्धा, तत्थ विभूणिताणि अंगाणि जेसिं तेमे | विसणितवेदना, त एवं सरसविरणिनंगा काकवृद्धादिभिर्भक्षयंति, संजीविणी णाम चिरद्वितीया एवं यथोपदिष्टेर्वेदनाप्रकार दीप अनुक्रम [३२७३५१] TRANS ५६९ [173] Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [२], नियुक्ति: [६२-८२], मूलं गाथा ३२७-३५१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: श्रीसूत्रकगचूर्णिः प्रत सूत्रांक ||३२७३५१|| ॥१७॥ दीप अनुक्रम [३२७३५१] र्भक्ष्यमाणाच स्वाभाविकैनिस्यपालकृतैर्वा पक्ष्यादिभिः छिन्नाः क्वधिता वा मूलिता वा संतो वेदनासमुद्घातेन समोहता संतोजसंजीवनादि मृतवदवतिष्ठति, यथेह मूछिता उदकेन सिक्ताः पुनरुज्जीविता इत्यपदिश्यन्ते एवं ते मूञ्छिताः सन्तः पुनः पुनः संजीवंतीति संजीविनः, सर्व एव नरका संजीवनाः, चिरद्वितीया णाम जहण्योण दसवाससहस्साणि उकोसेणं तेतीसं सागरोवमाणि, अथवा चिरं मृता हिंड(चिट्ठ)तीति चिरद्वितीया, नरकानुभावात्कर्मानुभावाच यद्यपि पिष्यन्ते सहस्रशः क्रिय(मार्य)न्ते तथापि पुनः संहन्यते, इच्छंतोऽपि मूर्ति तथापि न म्रियन्ते, पापचितत्ति पूर्व पापचेता आसीत् , सा प्रजा सांप्रतमपि न तत्र किंचित्कुशलचेता उत्पद्यते येनापापचेता सा प्रजा खादिति, अयं वा परो यातनाप्रकार: 'तिक्खाहिं मूलाहिं वधेति बाला'वृत्तं ।। ३३६ ॥ लोहमयः मूलैत्रिशूलैश्च यथा नामनिष्पन्ने निक्षेपे वधयतीति विंधति, वशं उपगता वशोपगा, शौकरिका इव पशोपगं महिषं व वधयंति, पठ्यते च-वशोपगं सावरिया(सावययं)व लधु, सवरा-शबरा म्लेच्छजातयः, ते यथा कंदोत्कृकाटिकमादि विधति, गलगमादि वा, एवं तेवितं नेरइयं छिदंति भिंदंति, अत्र तु सौकरिकग्रहणं, ते हि तत्कर्म नित्यसेवित्वात् निया भवन्तीत्यतः, ते शूलविद्धा कलुणं थणंति कलुणं नाम दीणं, थणंति नाम कंदंति, एकतेनैव दुक्खं, दुहतित्ति अंतो बहिं च, जमकाइएहिं नेरइएहिं च, न तत्र समाश्वासो अस्ति, नित्यग्लाना इति, महावराभिभूता इव निष्प्राणा निर्वला नित्यमेव च नारका दम विधं वेदणं वेदेति, इदं चान्यत-अमातं-दुक्खं धर्म 'सदाजलं णाम णिहं महंतं'वृत्तं ॥३३७|| सदा चलतीति सदाज्वलं अधिकं तस्य (तत्र नि) हन्यत इति, ज्वरो उपानवस्थितं महदिति गंभीरं विस्तीर्ण च, यस्मिन्निति यत्र, विना काष्ठैरकाष्ठो, विक्रियकालभावा अग्रयः अघट्टिता पातालस्था अधःस्था, चिट्ठति तत्था बहुकूरकम्मा नरकपाले प्रक्षिप्ता, बहुणि कूराणि कम्माणि जेसिं ते बहुकूरकम्मा, ॥१७॥ [174] Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [9], उद्देशक [२], नियुक्ति: [६२-८२], मूलं [गाथा ३२७-३५१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: महभितादि प्रत सूत्रांक ||३२७३५१|| दीप अनुक्रम [३२७३५१] श्रीसूत्रक कूर णाम निरनुक्रोशं हिंसादि कर्म यत्कृत्वा, कृते च नानुतप्यते, अरहितः स्वरो येषां कूजता उत्तारयति, अन्यैश्च बहुमिबिलापैताङ्गचूर्णिः|| विलपंतो अरहितस्वराः, चिरं तिष्ठन्तीति चिरद्वितीया, विविधेन सन्निरुद्धा वेदनादिताः ताहिं ताहि चिरविति, किंच 'चिया ॥१७१।। महंतीउ समारभित्ता' वृत्तं ॥३३८॥ चीयंत इति चितकाः, महंतीओ नाम नारकशरीरप्रामाणाधिकमात्राः यत्र चानेकनारका | मायन्ते, समारभंतित्ति तिविधेणवि डझंति, सय एव प्रक्षिप्ताः आवद्देति तत्थ असाधुकम्र्मा, असाधूणि कम्माणि जेसि पुर | आसीत् ते असाधुका, सप्पंति-सीयतां, यथा सपिः व्यूढः जोतिम्मि, णिचूमए खइरिंगालाणं खड्डाए भरिताए अग्गिवण्णे वा । अयोकवल्लेणं चणंतीव, सपिंग्रहणं तु इतरोऽपि सच्चो गृह्यते मत्स्यो वा, अयमपरो यातनाकल्पः 'सदा कसिणं पुण धम्मट्टाणं' वृत्तं ॥३३९।। सम्पूर्णदुःखस्वभावेन गाहैः कर्मभिस्तत्रोपनीताः, तद्वा तेपाप्नुपनीतं अतिदुःखस्वभावं, हत्थेहिं पादेहि य विधिऊणं चउरकप्पादं बद्धा सन्कुमिव निर्दयं हन्यते, वशीकृतः यथा न जीवतीति न वा सुम्रियते, मा भूद्वेदनां न प्राप्स्यतीति, समारभंतित्ति पिट्टेति, तं एवं हनंतो णिस्यपाला "भंजंति बालस्स वधेण पहि' वृत्तं ॥ ३४० ।। लउडादिधानर्यथा तैरन्यत्र भग्नानि पृष्ठानि एवं तेपामपि भंजंति अयोधणाहें, अपि पदार्थादिषु, पढिपि भंजंति सीसंपि विधति अन्नानवि अंगोवंगाणि संचुपिणतमोडितानि करेंति, ते भिण्णदेहा फलगावतट्टी त एव भग्नाङ्गप्रत्यङ्गाः फलका इव उभयथा प्रकृष्टाः करकयमादीहिं तच्छिता | मोग्गरेहिं पहता शीताभिरुष्णाभिर्वा वेदनामिरमिभूतास्तप्ताभिर्दीर्घाभिराराभिविन्ध्यन्ते, उचिष्ठोत्तिष्ठेति गच्छ गच्छेति, किंच'अभियुजिया रोद्दअसाधुकम्मा' वृत्तं ॥३४१। अभियुजिता तिविघेणवि रौद्रादीनि कम्माणि असाधूणि येषां ते रोद्दअसा| धुका अभियुंजते रौद्रैः, ते च रौद्राः पूर्वमभवन् , तत्रापि रौद्रा एव परस्परतो वेदना उदीरयन्तः, हस्तितुल्यं वहन्तीति हस्ति [175] Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [9], उद्देशक [२], नियुक्ति: [६२-८२], मूलं [गाथा ३२७-३५१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: Painina हस्तिवाहनादि चूर्णिः aman प्रत सूत्रांक ||३२७३५१|| HaHI दीप अनुक्रम [३२७३५१] सूत्रक- 15 वत् , हस्तितुल्य भार बहतीत्यर्थः, हस्तिरूपं वा कृत्वा बाध्यन्ते, अश्वोष्ट्रखरादिरूपं वा, यैर्यथा वाहिताः। किंच एवं उरूहित्तु उवेतयो वा हस्त्यादिरूपं विकुर्वितं वा एवं वराकं अन्यो वा, गुरुत्वादबहतश्च गलिबलिबानिव यातारो आरुह्य किं न बह1१७२॥ सीति कि काणत्तो सित्ति कुकाटिकाए वेंधंति । किंच-बाला बला भूमि अणोकमंता, वृत्तं ॥ ३४२॥ चालाः इत्यजानकाः, चला इति न स्ववशा, बलादनुक्रम्यते भूमि पूयवसाशोणितप्रविचलं, लोहकंटकचिता, महंतीत्यनोरपारा०, न तत्रान्या भूमिर्चिद्यते या एवंविधाया न स्यादिति । विवद्ध नप्पेहिं अन्ये पुनरगाढेपूदकेषु प्रगाहिताः पश्चाद्विपच्यन्ते ।पकेषु, त्रेप्यका नदीमुखेसु विदलकवंशफलीमया पिंडिगासंठिता कजंति, तार ओसरते उदगे ठविजंते हेटाउत्ता, पच्छा मच्छगा जे तेहिं अता ते गलिते उदगे संयुजिता घेप्पंति, एवं तेऽपि बहवः अस्यते, ततः निष्ठिते उदके समीरिता नाम पिजं कुट्टित्वा कल्पनीमिः खण्डशो बलिं क्रियन्ते, अथवा कोट्टं पागरं वुचति, णगरबली विक्रियन्ते, किं चान्यद् ॥३४५।। अन्तरिक्षः छिन्नमूल इत्यर्थः, आकाशस्फाटिकं वा न दृश्यते, अन्तकारत्वाद्वा न दृश्यते, किंच--आरुभणमार्गो न दृश्यते, हत्थपरिमोसक्काए एव, ततस्ते नारुभंति, आरुबहपथेण विलग्गाश्चेत्सर्वपर्वतः संहन्यते, अन्ये पुनः ब्रुवते-दृश्यत एवासौ, भूमिबद्ध एव चोपलक्ष्यते, न च संबद्धः, ततस्तेन संहतीभूतेन 'हमति तत्था बहुकूरकम्मा बहूनि क्रूराणि हिंसादीनि कर्माणि जेसि, परं सहस्राणीत्यर्थः, मुहूर्तस्य हन्यन्ते पुनः पुनः संहन्यमानेऽनेन वियुञ्जमाने च, ते एवं ते संहन्यमानाः 'संयाधिता दुकडिणो थणंति' वृत्तं ॥३४६॥ संयाधिता नाम स्पृष्टा, अहश्च रात्रौ च विरहो नास्ति वेदणाए, त्रिभिस्तप्यमानाः परितप्यमाना, एगंतकूडे णरए महंते, अथवा अदीणियं दुकडिणो थणंति अत्यर्थं दीनं २, आदीनं दुष्कृतानि येषां सन्तीति ते इमे० दुक्कडिणो, अरहितस्वरं चिरं तिष्ट्रतीति, तत्थ य OCHAKAHISHERSITIENammarwarrangem [176] Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥३२७ ३५१|| दीप अनुक्रम [३२७ ३५१] श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः ॥१७३॥ “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [२], निर्युक्तिः [६२-८२ ], मूलं [गाथा ३२७-३५१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र- [ ०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : | चिति चिरं सहाविंता, किंच- एगंतकडे णरए महंते एगंतकूडो णाम एकान्तविषमो, न तत्र काचित् समा भूमिर्विद्यते यत्र ते गच्छंतो न स्खलेयुरिति, न प्रपतेयुर्वा, महदिति क्षेत्रतः कालतथ, खेत्ततो जहण्णेणं जंबूदीवपमाणमेतं उकोसेणं असंखिजाई जोअणाई, कालओ जहणणेणं दसवाससहस्साई उकोसेणं ते तीसं सागरोवमाणि, तथावि तंमि निरयो कूडो तत्थ २ देसे २, सउतारेंता, णिग्गमपवेसेसु य अदृश्यानि कूटानि यत्र ते पाटयंते, मृगा इवासकृद्रध्यन्ते, तत इतरेण कप्पणिकुंहा डिहत्थगता मृतानिवैतान् कल्पयन्ति, ये इह व्याघ्रादयो आसीरन् विषमः स एव नरकः, यत्र वा तानि कूडानि, रयितापि उत्तरोणे (त) रे पथनिर्गमणपथे वाता | इति ता । किंच - 'अणासिया णाम महासिलाया' वृत्तं ॥ ३४६ || तान् हि कूडैर्वद्धान् बद्धान् न असितः अनसितः क्षुधित | इत्यर्थः यथा इह क्षुधिताः शृगालाः किंचित्सिहादिशेषं मृगादिरूपं भक्षयन्ति लकलकाहिं एवं तेऽपि महानिति अतिमहच्छरीरा, पगन्मिता इति प्रधृष्टा, रौद्ररूपा निर्भयं सदैभिर्भक्षयित्वा न तृप्ता भवन्ति, सदा वा अवकोपा, अनिवार्य अप्रतिषेध्या इत्यर्थः, कर्पापणो अकोप्य इत्यपदिश्यते, अथवा अकोप्यन्ते कुप्पितुं इत्युक्तं भवति, खायंति तत्था बहुकूरकम्मा बहुकूरकम्मा इत्युभयावधारणार्थं, ये च खादयन्ति ये च खाद्यंते, लोहसंकलाबद्धा खादति केऽवि खैरा प्रधावतोऽनुधावतो, अनुधाधितुं पाटयित्वा खादंति, महाघोषा छिच्छीकरंति, अण्णे सलक्खगं धारेति । किंच 'सया जला' वृत्तं ॥ ३४७ ॥ सयज्जला णाम नदीऽभिदुग्गा सदा जलतीति सदाज्वला, अभिमुखं भृशं दुर्गा वा अभिदुर्गा, प्रविसृतजला पत्रिजला, विस्तीर्णजला उत्तानजलेत्यर्थः, न तु यथा वैतरणी गंभीरजला वेगवती च सा हि उत्तानजला, लोहविलीनसदृशोदका, लोहानि पंचकाललोहादीनि जंसी दुग्गं पवजमाणा अभिसुखं दुग्गा भृशं दुग्गा वा अभिदुग्गा, प्रपद्यमाना गच्छंत इत्यर्थः, एकतिका असहा इत्युक्तं, अल्पसहाया इत्यर्थः, [177] एकान्तकूटादि ॥१७३॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥३२७ ३५१|| दीप अनुक्रम [३२७ ३५१] श्रीसूत्रकृ ताङ्गचूर्णिः ॥१७४॥ the Amy of th “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [२], निर्युक्तिः [६२-८२ ], मूलं [गाथा ३२७-३५१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: स्पर्शादि अनुक्रमंतीत्यनुक्रमणं । एतानि फासाणि फुसंति० वृत्तं ॥ ३४८ ॥ एतानीति यान्युद्दिष्टानि द्वयोरप्युद्देसकयोः, फुसंतीति फासाणि, गगणे गहणं, सहाणि विरूवरसगंधफासाणीति, स्पर्शग्रहणं तु ते त्रोटकाः दुःखतमाश्च निरन्तरमिति 'अच्छिणिमीलियमेत्तं णत्थि सुहं णिचमेव अनुबद्धं । णरए णेरइयाणं अहोणिसं पञ्चमाणाणं ॥ १॥' चिरद्वितीति उक्ताः, ण हम्ममाणस्स तु अथ ताणं न तत्र हन्यमानस्य पिट्टमाणस्स वा किंचित् त्राणमस्ति प्रत्युत मणंति-हण छिन्द भिन्द घत्ति मार तेपिथ पठवेहत्ति, एवं यां यां कारणां कचित्कारयति तां तामनुवृंहयंति बुभू (सुस्मू) पति च, एगां सयं पचणुहोति दुक्खं एक एवासौ स्वयं अशुभ कर्मफलमनुभवति, अनु पथाद्भावे, पूर्वं तन्निमित्तं तदन्येषु भवति पश्चादसावनंतगुणं तदनुभवति, तं पूर्वं कृतं प्रत्यनुभवति, 'जं जारिसं' वृत्तं ॥ ३४९ ॥ जं जारिसं पुत्रमकासि कम्मं जारिसाणि तिव्बमंदमज्झिमअज्झबसाएहिं जहण मज्झिमुकिङ - ठितीयाणि कम्माणि कयाणि तं तहा अणुभवंति, संपरागो नाम संसारः, संपरीत्यस्मिन्निति संपरायः, कर्मफलोदयेन वा नरगं पराजितीति संपरागतः कर्मावशेषात् तिर्यङ्मनुष्येष्वपि एतदुक्खं भवमजिणित्ता, कतरं भवं १, णरगभवो, पच्छा सो वेदेति ?, गोयमा ! अनंतकालं प्रभूतं, तम्हा 'एतानि सोचा णरगाणि धीरो' वृत्तं ॥ ३५० ॥ एतानी ति यान्युद्दिष्टानि, दधातीति धीरः श्रुत्वोपदेशात् तद्भयाच णो हिंसए कंचण सङ्घलोए किंचिदिति सव्धं, हिंसका हि नरकं गच्छन्तीत्यतः, सच्चलोकेति छजीवणिकायलोके णवरण भेदेण प्राणवधं न कुर्यात्, एगंतदिट्टी अपरिग्गहे य, एकान्तदृष्टिरिति इदमेव णिग्गंथं पावणं, अपरिग्गति पंचमहन्वयग्रहणं तद्ब्रहणात् मध्यमान्यपि गृहीतानि, वुज्झेज्जति अधिजेज, अधीतं च सुणेअ, से न वुज्झेअ, 'लोभस्स वसं ण गच्छेज्जचि कसायणिग्गहो गहितो, सेसाणवि कोहादीनं वसं ण गण्छेज, अट्ठारसवि पावड्डाणा, एताई ॥१७४॥ [178] Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥३२७ ३५१|| दीप अनुक्रम [३२७ ३५१] श्रीसूत्रताङ्गचूर्णिः ६ अध्य० ॥ १७५ ॥ S “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [२], निर्युक्तिः [६२-८२ ], मूलं [गाथा ३२७-३५१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: सोचा परगाई धीरे दुक्खाई मणुस्सेसुवि देवेसुवि 'एवं तिरिक्खेसुवि' वृत्तं ॥ ३५१ ॥ चतुरंते अनंतकालं तदणुव्वियगं कर्मणां स सबमेवं इह वेदइत्ता 'स' इति स साधुः जो पुत्रं वृत्तो बुज्झेज तिउद्वेजत्ति, सर्वमिति यैः कर्मभिः नरके गम्यते संसारो वा याच तत्र वेदनाः, सावशेषकर्मोद्वर्त्तनया वा पुनरपि हिंसादिप्रसंगान्नरको वेदनाथ, एवमिदं सव्वं वेदयित्वा ज्ञात्वेत्यर्थः, अथवा वेदयित्वेति क्षपयित्वा नरकप्रायोग्यं कर्म कंखेज्ज कालं धुवमायरेजत्ति वेमि, सर्व कर्मक्षयकालं, यो वाड्यो पण्डितमरणकालः, धूयतेऽनेनेति, कर्मधुता चारित्रमित्युक्तं, आचार इति क्रियायोगं आचरन् आचरंते वेति कर्मचरणमिति । नरकविभक्त्यध्ययनं पंचमं समाप्तं ॥ इदाणी महावीरत्थवोत्ति अज्झयणं, तस्स चचारि अणुयोगदाराणि, एगसरंति काउं अज्झयणत्थाहिगारो, उद्देसत्थाहिगारो णत्थि, अज्झयणत्थाहिगारो तु महावीरवद्धमाणगुणत्थयेणेति णामणिष्कण्णे महावीरत्थयो, महा णिक्खिवितव्यो वीरो णिक्खि| वियन्यो थयो निक्खिवियन्यो । 'पाहणे महसद्दों' गाथा ।। ८३ ।। महदिति प्राधान्ये बहुत्वे च प्राधान्येनाधिकारी, तस्स नामादि छन्विहो णिक्खेवो, णामठवणाओ गयाओ, दव्वे वइरित्तो तिविहो- सचित्तादि ३, सचित्तो तिविहो, दुबदेसु तित्थगरचक्चिलदेववासुदेवा, चतुष्पदेषु सीहो हत्थिरयणं अस्सरयणं, अपदेसु परोक्खेसु रुक्खेसु जाता अदुक्कडसामली, प्रत्यक्षे इहैव ये वर्णगन्धरसस्पर्शेरुत्कृष्टाः, वर्णे तावत्पौण्डरीकं, वक्ष्यमाणमपि च, पुप्फेसु य अरविंदं वदंति त एव च गंधतो, गोशीर्षचन्दनानि च रसतः पणसादि, स्पर्शतः बालः कुमुदपत्रशरीषकुसुमादि, अचेतणेसु वेरुलियादयो मणिप्रकाराः, वनस्पतिद्रव्याणि च अचेतनानि वर्णगन्धरसस्पर्शेरायोज्यानि, मीसगाणं संयोगेण भवति, अथवा अलंकितविभूसितो तित्थगरो, खेत्तओ सिद्धखेतं, धम्म अस्य पृष्ठे षष्ठं अध्ययनं आरभ्यते [179] तिर्यतचादि महन्तिक्षेयश्व 1120411 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [८३-८५], मूलं [गाथा ३५२-३८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: वीरनिक्षेपः श्रीसूत्रकनाङ्गचूर्णिः प्रत सूत्रांक ||३५२ ॥१७६॥ ३८०|| दीप अनुक्रम [३५२३८०] चरणं वा प्रति महाविदेहं, स्वतत्रसौख्यं च प्रति मनुष्येषु देवकुर्बादौ भवति, काले सुसमादि, जहिं वा काले धम्मचरणं पवतति, भात्रमहं खाइगो भावः, औदयिकभावमपि तीर्थकरादिशरीराद्यौदयिकभावः, भावमहताधिकारः क्षायिकेनौदयिकेन च । वीरः वीर्यमस्यास्तीति वीर्यवान् , वीरस्स पुण णिक्खेवो चतुर्विधो, वतिरित्तो दव्ववीरो यद्यस्य द्रव्यस्य वीर्य सचेतनस्याचेतनस्य वा, मिश्रस्य द्विपदस्य, यथा तीर्थकरस्यैव असद्भावस्थापनातः, स हि तिन्दुकमिव लोकं अलोके प्रक्षिपेत् , मन्दरं वा दंडं कृत्वा | रत्नप्रभा पृथिवीं छत्रकवद्धारयेत , चकबहिस्स-दो सोला बत्तीसा सबवलेणं तु संकलिणिवद्धं । अंछंति चकवहिँ अगडतडंमि य ठितं संतं ।।१।। घेत्तूण संकलं सो वामगहत्थेण अंछमाणाणं । भुंजेज व लिंपेज व चक्कहरं ते ण चायन्ति ॥२॥ सोलस रायसहस्सा सव्ववलेणं तु संकलनिबद्धं । अंछंति वासुदेवं अगडतडंतिय ठितं संतं ॥३॥ घेत्तूण संकलं सो० गाथा ॥ ४॥ जं केसवस्स | उबलं तं दुगुणं होइ चकवट्टिस्स । ततो चला चलवगा अपरिमितवला जिणवरिंदा ॥५।। संगमरणवि भगवतो कालचकं मुकं, तंपि भगवता शारीरवीरियेणं चेव सोढं, चउप्पदव्य वीरियं यथा सिंहसरमाणं, अपदाणं पसत्थं अपसत्थं च, अपसत्थं विसमादीणं, पसत्थं संजीवणिओसधिमादीणं, अचित्तं खीरदधिघृताहारविसादीण य, संजोइमं अगदादीणं, एवमादि जस्स वीरियं अस्थि स द्रव्य| वीरो भवति, खेतवीरो यथा यत्र स एव वीरो अबतिष्ठति वर्ण्यते वा, यद्वा यस्य क्षेत्रमासाद्य वीयं भवति, एवं कालेवि तिष्णि पगारा, भाववीरस्तु क्षायिकवीर्यवान् , भाववीरः असौ, भावः क्षायिक परीपहरुपसगैर्वा शक्यते नान्यथा कर्तु, अथवा दव्वादि चतुर्विधो वीरो, दब्वे वतिरिचो एगभवियादि, खेतं जत्थ वणिजति तिष्ठति वा, काले यस्मिन् काले यचिरं वा कालं, भावीरो दुविधो-आगमतो णोआगमतो य, आगमओ जाणए उपयुत्तो, णोआगमतो भाववीरो वीरणामगुत्ताई कम्माई वेदयंतो, तेण अहि MEIRUPTAURIHITHILIH RAN ॥१७६॥ [180] Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [८३-८५], मूलं [गाथा ३५२-३८०] (०२) स्तवनिक्षेपाः प्रत सूत्रांक ||३५२३८०|| श्रीमत्रक- D| यारो, स तु भगवानेव । थयो णामादिचतुर्विधो-आगंतुअभूसणेहि केसालंकारादीहि, अथवा सचित्ताचित्तमीसो, सचिचे * ताङ्गचूर्णिः पुष्पादि, अचित्ते हाराहारादि, मिश्रो सग्दामादि, भावे सद्भूतकित्तणाए, भावेण अहियारो 'पुच्छिसु जंबुणामो अजसु॥१७७॥ धम्मो ततो कहेसीय । एव महप्पा वीरो जतमाह तहा जतेज्वाह ।। ८५।। णामणिप्फण्णो गतो। सुत्ताणुगमे सुत्त मुच्चारेयर्व जाव 'पुच्छिसु णं समणा माहणा य' वृत्तं ॥३५३।। एतान्नरकान् श्रुत्वा भगवदार्यसुधर्मसकाशात्तदुःखोद्विग्नमानसाः कथमेतान्न गच्छेयाम इति ते पार्पदा भगवन्तमार्यसुधर्माणं 'पुन्छिसु णं समगा माइणा य' अनेनाभिसम्बन्धेन,पदच्छे दविग्रहसमासान् कृत्वा अयमर्थः-पुच्छिसु णंति-पृष्टवन्तः, पुच्छिसुत्ति वत्तव्वे नकारः पूरणे देसीभापतो वा, समणा जंबुणामाFall दयः, जेसि भगवं ण दिहो, दिट्टो व ण पुच्छितो, न य ते गुणा यथार्थतः उपलब्धाः, माहणा:-श्रावका ब्राह्मणजातीया वा, | अकारिणस्तु क्षत्रियविशद्राः, परतीर्थकाश्चरकादयः, चग्गहणाद्देवाश्च, से के इमं णितियं (णेगंतहिय) (हितयं) धम्ममाहु स इति सः परोक्षनिर्दसे, कोऽसाविमं धर्ममाख्यातवान् , इममिति योऽयं भगवद्भिः कथितः यत्र च भगवान् अवस्थित इति, नितिक-नित्यं सनातनमित्यर्थः, हितगं च पठ्यते, धारयतीति धर्मः, आहुरिति एके अनेकादेशात् आत्मनि गुरुषु बहुवचनं वन्धानुलोमाद्वा, अथवा किमेक आहुः, एकारो यदि बहुत्वे भवति यथा के ते, एकत्वेऽपि यथा के सो, 'अनेलिसमिति स्वरा क्षरं विपर्यस्य न एलिसं अनेलिसं, अतुल्यमित्यर्थः, धर्म इति वर्तते, साधु प्रशंसायां, सम्यक् ईक्षित्वा समीक्षि(क्ष्य)केवलज्ञानेन, Hel परिसदाए दरिसति-सुखसमीक्ष्यदेशकः साधुसमीक्ष्यदेशकः उत(अंतजः)आत्मागमादेवेदं कथयसि', आह-नन्वागमात्कथयामि, । | आप्तागमात् , आप्तो-भगवान् श्रीवर्द्धमानखामी तेन भापितं अनुभाषयामि, ततस्ते जम्बुनामाद्याः श्रोतारः पुनरूचुः-परोक्षे नः स दीप अनुक्रम [३५२३८०] ||१७७॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [181] Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [८३-८५], मूलं [गाथा ३५२-३८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रकृ भगवद्गुण प्रश्न: सूत्रांक चूर्णिः १७८॥ ||३५२३८०|| भगवान् , तद्गुणांस्तावत्कथयस्ख, 'कथं च णाणं कथ दंसणं से'वृत्तं ॥३५३।। कथं परिप्रश्ने, कथमसौ ज्ञातवान् , एवं दर्शनेऽपि कथं दर्श(दृष्ट)वानिति, शीलमिति चरित्रमेतान् यथोद्दिष्टान् जाणासि णं भिक्खु जहा तहा णं हे भिक्षो ! त्वया घसौ दृष्टश्वाभापितश्च इत्यतो यथा तद्गुणा बभूवुः तथा त्वं जानीपे, जानानस्तान् अहासुतं ब्रूहि जहा णिसंतं यथा निशान्तं च, निशान्तमित्यवधारितं, किंचित् श्रूयते न चोपधीयते इत्यतः अहासुतं ब्रूहि जहा णिसन्तं तद्यथा भवता निश्रुत्वा निशमितं तथाऽपदिश्यतां, इति भगवान् पृष्टः भव्यपुण्डरीकानामुत्सृज्य सन्मुखीभूतानां कथितवान् , स हि भगवान् ‘खेत्तपणे कुसले आसुपण्णे वृत्तं ॥ ३५४ ॥ क्षेत्रं जानातीति क्षेत्रज्ञः, कुशलो द्रव्ये भावे, द्रव्ये कुशान् लुणातीति द्रव्यकुशलाः एवं भावेवि, भावकुशास्तु कर्म, अथवा कुत्सितं शलांति कुत्सिताद्वा शलांति कुशला, केवलज्ञानित्वात् आशुप्रज्ञो आसु एव जानीते, न चिन्तयित्वा इत्यर्थः, महेसी अनन्तज्ञानीति केवलज्ञानी अनन्तदर्शनीति केवलदर्शनी जसंसिणो चक्खुपहेहितस्स यशः अस्थास्तीति यशस्वी सदेवमणुासुरे लोगे जसो, पश्यतेऽनेनेति चक्खु सर्वस्यासौ जगतश्चक्षुःपथि स्थितः, चक्षुर्भूत इत्यर्थः, यथा तमसि वर्तमाना घटादयः प्रदीपेनाभिव्यक्ता दृश्यन्ते, न तु तदभावे, एवं भगवता प्रदर्शितानर्थान् भव्याः पश्यन्ति, यच्च असौ न स्यात्तेन जगतो जात्यन्धस्य सतो अन्धकार स्थात् , तेनादित्यवदसौ जगतो भावचक्षुःपथे स्थितः, स्वादमुक्तमपि जानीहि जानस्त्र, किंच यो धर्मः धृतिः प्रेक्षा वा अचिन्त्यानीत्यर्थः, क्षायिको घितिवनकुडसमापेक्खा केवलणाणं, अथवा किंचित्सूत्रमतिकान्तं निकाचयतीतिकृत्वा ते पुव्यका भवंति, अजसुहम्मं भगवं तुम तस्स जसंसिणो चक्खुपथेस्थितस्स जाणाहि धम्मं घिति प्रेक्षां च, पथं जारिसो तस्स सबलोगचक्खुभूतस्स, उक्तं च "अभयदए मग्गदए" इत्यतः चक्षुर्भूतः, तस्स जारिसो धम्मो वा घिती वा पेहा ।। TRENDIEOSPHORIGeminihitimesDIA दीप अनुक्रम [३५२३८०] ॥१७८॥ N A [182] Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [८३-८५], मूलं [गाथा ३५२-३८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक ||३५२३८०|| श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः ॥१७९|| दीप अनुक्रम [३५२३८०] 0वा तं तुमं अवितहं जाणाहि, जाणमाणो कहहित्ति णं वाक्यशेषः, स च कथयत्येवं 'उड़े अहे वा तिरिय दिसासु' वृत्तं ॥३५५।। येषामूर्ध्वलोके स्थान यतः प्रभृति वोवों भवति एवमधः तिर्यगिति चतस्रो दिशस्तासु, दीवसमुद्रा इति अस्मिन् त्रिलोकेऽपि ये स्थावराः त्रिप्रकारैर्ये च त्रसास्त्रिप्रकारा एव, से णिचणिचे य समिक्वषण्णे स इति भगवान् , नित्यानित्य इति भावा अपि हि केनचित् प्रकारेण नित्याः केनचिदनित्याः, कथमिति चेत् द्रव्यतो नित्या भावतोऽनित्याः, द्रव्यं प्रति नित्या| नित्याः, एवमन्यान्यपि द्रव्याणि यथा नित्यान्यनित्यानि च तथा सम्यक ईक्ष्य प्रज्ञया, तथा आहेति वक्ष्यमाणान् , दीवसमो दीव| भूतः, दीमो दुविधो-आसासदीयो पगासदीवो य, उभयथापि जगतः आसासदीवो ताणं सरणं गतिप्रकाशकरो आदित्यः सव्वत्थ सम्म पगासयति चण्डालादिसुवि, एवं भगवान् दीवेण समो, समियाएत्ति सम्यक, ण पूयासकारगारवहेतुं, 'जहा पुण्यस्स कत्थति तहा तुच्छस्स कत्थति, 'से सव्वदंसी अभिभूयणाणी' वृत्तं ॥३५६।। सव्वं पासतीति सचदंसी, केवलदर्शनीत्युक्तं भवति, चत्तारि ज्ञानानि त्रीणि दर्शनानि भास्कर इव सर्वतेजस्सिमिभूय केवलदर्शनेन जगत्प्रकाशयति ज्ञानीति, एवं केवलज्ञानेनापि अभिभूय इति वर्त्तते, उभाभ्यामपि कृत्स्नं लोकालोकमवभासते, अथवा लौकिकानि अज्ञानान्यभिभूय केवलज्ञानदर्शनाभ्यां खद्योतकानिवादित्यः एकः प्रकाशते 'णिरागमगंधे घितिमं ठितप्पा' निरामोऽसौ निर्गन्धश्र, आम इति उद्गमकोटिः, धृतिरस्थास्तीति संयमे धृतिः, संयम एव यस्य स्थित आत्मा, धर्मे वा सोधितव्याः 'अणुत्तरं सबजगंसि विजं' नास्योत्तरं सर्वलोके यः कश्चिद्विद्वानित्यतः सर्वलोकं स विद्वान् विजं, न मायाविद्वान्, ग्रन्थादतीतेति गंथातीते, दव्वगंथो सचित्तादि भावे | कोहादि, द्विधा अप्यतीतः निर्ग्रन्थ इत्यर्थः, अथवा ग्रन्थनं ग्रन्थः स्वाध्याय इत्यर्थः तमतीतः, कोऽर्थः ? नासौ श्रुतज्ञानेन जानीत 1॥१७९॥ [183] Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [८३-८५], मूलं [गाथा ३५२-३८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: श्रीसूत्रकगचूर्णिः भगवद्गुण प्रश्न: प्रत सूत्रांक ||३५२३८०|| दीप अनुक्रम [३५२३८०] | इत्यर्थः, अभय इति अभयं करोत्यन्येषां न च स्वयं विभेति, अनायुरिति नोऽस्यागमिष्यं जन्म विद्यते आगमिष्यायुष्कबंधो या, | 'से भूतिपण्णे अणिएतचारी' वृत्तं ॥ ३५७ ॥ भूतिर्हि वृद्धौ मङ्गले रक्षायां च भवति, वृद्धौ तावत्प्रवृद्धप्रज्ञः अनन्तज्ञानवानित्यर्थः, रक्षायां रक्षाभूतस्य सर्वसचानां वा, मङ्गलेऽपि सर्वमंगलोत्तमोत्तमाऽस्य प्रज्ञा, अनियतं चरतीति अनियतचारी, ओघो द्रव्योषः समुद्रो भावौषः संसारःतं तरतीति ओघंतरः, धिया राजतीति धीरः, अणंतचक्षुरिति अणंतं केवलदर्शनं तदस्य चक्षुर्भूतः, अणुत्तरं तवइति सूर एव, न हि सूर्यादन्यः कश्चित्प्रकाशाधिकः, एवं भवारकादपि नान्यः कश्चिद् ज्ञानाधिकः, गाणेण चेव ओभासति तबति भासेति, अथवा सेसं च कर्म तवति, आदित्य इव सरांसि तपति औषधयो वा, वैरोयणेदो वा रूवदित्तो विविध रुचतीति वैरुचनः अमिः, स हि सर्वदीप्तिवतां द्रव्याणामिन्द्रभूत इत्यतो वेरोचनेंद्रः, स यथा आज्यामिक्तः सन् तमः प्रकाशयति | एवं भगवानप्यज्ञानतमांसि प्रकाशयति । 'अणुत्तरं धम्ममिणं जिणाणं' वृत्तं ॥३५८॥ नास्योत्तरा अन्ये कुधर्मा इत्यनुचरं, जिनानामिति अन्येषामपि जिनानां अयमेव धर्मः अतीतानामागमिष्यतां च एप भगवतां धर्मः, अयमेव भगवान्नयतीति नेता, | कोऽर्थः १, जहा ते भगवन्तो नीतवन्तः तथा अयमपि नयति, काश्यपगोत्रः काश्यपमुनिः, केवलज्ञानित्वात् आसुप्रज्ञः आसुरेव प्रजानीते, न चिन्तयित्वेत्यर्थः, इंदेव देवाण महानुभागे ईदेण तुल्पं इंदवत् , अनुभवनमनुभावः, सौख्यं वीर्य माहात्म्यं चानुभावाः, सहस्रमस्य नेत्राणां सहस्सनेत्ता, अनेकानां वा सहस्राणां नेता नायक इत्यर्थः, दिवि भवा दिविनः सर्वेभ्यो दिविभ्यः | स्थानरिद्धिस्थितिद्युतिकान्त्यादिभिर्विशिष्यते इति विशिष्टः, किमुतान्येभ्यः ?, किंच-से पण्णसा(या)अक्खयसागरे वा' वृत्तं ॥३५९।। ज्ञायतेऽनेनेति प्रज्ञा ज्ञानसंपत्, न तस्य ज्ञातव्येऽत्यर्थे तुष्टिः परिक्षीयते प्रतिहन्यते वा सादी अपञ्जवसितो कालतो, ॥१८॥ [184] Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||३५२ ३८०|| दीप अनुक्रम [३५२ ३८० ] श्रीसूत्रकृ ताङ्गचूर्णिः १८१ ॥ so here by what “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [-], निर्युक्ति: [ ८३-८५ ], मूलं [गाथा ३५२ - ३८० ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: दव्वखेत्तभावेहिं अनंते, दृष्टांतः स्वयम्भुरमणसागरः, एकदेशेन हि औपम्यं क्रियते, यथाऽसौ विस्तीर्णगंभीरजलो अक्षोभ्य एवमस्यानन्तगुणा प्रज्ञा विशाला गंभीरा अक्षोभ्या च अणाइले से अकसाए य भिक्खू परीपहोपसर्गौद येऽप्यनातुरः, अकसाय इति क्षीणकषाय एव न उपशान्तकपायः, निरुत्साहयत्, इह कश्चित् सत्यपि वले नियमत्वात् उपचारेण निरुत्साहो भवति, अन्यस्तु क्षीणविक्रमत्वान्निरुत्साहः एवमसौ क्षीणकपायान्निरुत्साहः, सत्यप्यसौ क्षीणान्तरायिकत्वे सर्वलोक पूज्यत्वे च निक्षामात्रोपजीवित्वाद्भिक्षुरेव, नाक्षीणमहान सिकादिसर्वलन्धिसम्पन्नोऽपि सन् तामुपजीवतीत्यतो भिक्षुः, सक्केव देवाधिपती जुतीमंति द्युतिमानित्यर्थः, स हि तुल्यः स्थित्यापि सामानि कत्रायत्रिंशकेभ्यः इन्द्रनामगोत्रस्य कर्मण उदद्यात् स्थानविशेषाद्वाऽधिकं दृश्यते 'से वीरिएणं पडिपुन्नवीरिए' वृत्तं || ३६०|| वीरं औरस्यं धृतिः ज्ञानं वीर्यः, क्षायोपशमिकानि हि वीर्याणि अप्रतिपूर्णानि, 'क्षायिकत्वादनन्तत्वाच प्रतिपूर्ण, सुदंसणे वा णगसबसिढे शोभनमस्थ दर्शन मिति सुदर्शनो - मेरुः सुदर्शन इत्यपदिश्यते, यथा असौ सुदर्शनः सर्वपर्वतेभ्यो विशिष्यते तथा भगवानपि वीर्येण सर्ववीर्येभ्यो विशिष्यते, इदानीं सर्व एव सुदर्शनो वर्ण्यते, सुरालए वावि मुदाकरे सुराणां आलयः, मुद हर्पे, सुरालय:- स्वर्गः स यथा शब्दादिविषयसुखः एवमसावपि स्वर्गतुल्यः शब्दादिभिर्विषयैरुपपेतः, देवा अपि हि देवलोकं मुक्त्वा तत्र कीडंति, न हि तत्र किंचिच्छन्दादिविषयज्ञानं यदिन्द्रियवतां न मुदं कुर्यात इति, विविधं राजते अनेकैर्वर्णगन्धरसस्पर्शप्रभाकान्तिद्युतिप्रमाणादिभिर्गुणैरुपपेतः सर्वरक्त (मुदा) करः, तस्य हि प्रभा| बेण गाथा भवति - 'सुंदरजण संसग्गी सीलदरिद्दपि कुणइ सीलहूं। जह मेरुगिरिविवूढं तपि कणय त्तणमुवेति ॥ १॥ तस्य तु प्रमाणं | 'सतं सहस्साण तु जोअणाणं' वृत्तं ॥ ३६१ ॥ त्रिः काण्डान्यस्य संतीति त्रिकंडी, तंजहा-भोमे वज्जे कंडे जंबूणए कंडे वेरुलिए [185] श्रीमहावीरगुणाः ॥१८१॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥३५२ ३८०|| दीप अनुक्रम [३५२३८०] श्रीसूत्रकृ ताङ्गचूर्णिः ॥१८२॥ QUENNO DESCHEN SOUP ATTEN “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [-], निर्युक्ति: [ ८३-८५ ], मूलं [गाथा ३५२ - ३८० ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२ ], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: कंडे, पंडगविजयन्ते पंडगवणेण शिखरेण चान्यपर्वतान् वनानि च विजयत इति पण्डकविजयंतः, से जोयणे णवणउति सहस्से ऊर्ध्वं उत्सृवा उडूसिते, पठ्यते च उडूं थिरे, तिष्ठतीति स्थिरः, शास्त्रतत्वं गृह्यते निश्चलत्वं च, अधे सहस्सावगाढो, 'पुट्टेण ते भे चिट्ठति' वृत्तं || ३६२ || भूमीए द्विए उड़लोगं च फुसति अहोलोगं च, एवं तिष्णिवि लोगे फुसति, जं सूरिया अणुपरि यहयंति, से हेमवण्णे हेममिति जं प्रधानं सुवर्णं निष्टतजंबूनंदीरुचि इत्युक्तं भवति, बहून्यत्राभिनन्दनजनकानि शब्दादिविपयजातानि बहूनां वा सच्चानां नन्दिजनकः, महान्तो इन्द्रा महेन्द्राः शक्रेशानाद्याः, ते हि स्वविमानानि मुक्त्वा तत्र रमन्ते 'से पव्वते सहमहपगासे' वृत्तं ॥ ३६३|| मन्दरो मेरुः पर्वतराजेत्यादिभिः शब्दैः प्रकाशः सर्वलोकप्रतीतिः सुरालयः तस्स सद्दा सव्वलोए परिभमंति विरायते कंचणमवण्णे मट्टेति 'अड्डे सण्हे लहे जाव पडिरूवे' णो णाफरुसफासो विसमो वा इत्यर्थः, अणुत्तरे गिरिसु य पव्वदुग्गे सर्वपर्वतेभ्योऽनुत्तरः, दुःखं गम्यत इति दुर्ग:-अनतिशयवद्भिर्न शक्यते तं आरोढुं 'गिरीवरे से जलिते व भोम्मे' से जहा णामए खइलिंगाराणं रतिं पञ्जलिताणं अथवा जहा पासओ पञ्जलितो केवि पव्वते वा उरते 'महीय मज्झम्मि ठिते णगिंदे वृत्तं || ३६४|| रयणप्पभाए महीए मज्झे ठिते, प्रज्ञायते नाम ज्ञायते सर्वलोकेन, अधसूयलेस्सभृतेत्ति ज्ञायते, अचिरुग्गयहेमंति सूरियालेस्सभूतो, यदिवा मध्याह्नकालस्य भूतोऽभविष्यत् देवदुरासओ भवि यत् एवं सिरीए उ स भूतिपण्णे कायाश्रितया पर्वतश्रिया, भूतिवर्ण इत्यर्थः, मणोरमे मणसि, अत्र मनचित्त रमत इति मणोरमे भवति अच्चीसहस्समा लिणी एस दस दिसो द्योतयति, एस दितो 'सुदंसणस्सेस जसो गिरिस्स' वृत्तं ॥ ३६५॥ यशः प्रतीतः सर्वलोकप्रकाशः भृशं उच्यते पचते, महोंतस्स महन्तः एतोवमे समणे णायपुत्तो जात्याः सर्वजा [186] श्रीमहावीरगुणाः ॥१८२॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [८३-८५], मूलं [गाथा ३५२-३८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: ताङ्गर्णिः ॥१८॥ सूत्रांक ||३५२३८०|| दीप अनुक्रम [३५२३८०] तिभ्यः यशसा सर्वयशस्विभ्यः दर्शनेन सर्वपर्वतेभ्यो मन्दरः श्रेष्ठः अवशेषाणां जाइवन्तं प्रति 'गिरीवरे वा निसढायताणं' वृत्तं ॥३६६।। न कश्चित्तसादायततमो वर्षधरोऽन्यः, इह चान्येषु वा द्वीपेपु, वेलायायताणं उरूगपवतोस हि, स अस्सासदीवस्सामहावार गुणाः | बहुमझदेसभागे माणुसुत्र इव बट्टे चलयागारसंठिते असंखेजाई जोपणाई परिक्खेवेणं, ततोवमे से जगभूतिपण्णे ताम्यां | | निषधरुचकाभ्यां औपम्यं क्रियते ततोवमे, स इति स भगवान् , जायत इति जगत् , भूता प्रज्ञा यस्य जगत्यसावेको भूतप्रज्ञः, || नान्ये कुतीर्थाः, आवेदयन्ति तेनेत्यावेदः यावद्वेषं तावद्वेदयतीत्यावेदः श्रुतज्ञानमित्यर्थः, तं उदाहु मुणीण आवेदं उदाहु, | पण्णे प्रगतो ज्ञः प्रज्ञः 'अणुत्तरं धर्ममुदीरइत्ता'वृत्तं ॥३६७|| नास्योत्तरा ये अन्ये कुधर्माः उदीरयित्वा-कथयित्वा प्रकाशयित्वा अणुत्तरं ज्ञानवरं झियाति उत्पन्नज्ञानो हि भगवान् । ध्याने ध्यायितवान् , यावत्सयोगी तावत्सुहुमकिरियं अणियहि, रुद्धयोगी तु स समुच्छिन्न किरियं अप्पडियादि, तत्र वर्णतः एवं प्रकारं सुसुकसुकं अप्पगंडसुकं सुट्ठ सुकं सुसुकं, | यथा किं सुकं स्यात् ?, यथा अप्पगंडं, अप्पं गंडं अप्पगंडं उदकफेनवदित्यर्थः, शरनदीप्रपातोत्थं, अप्पेव, संखेन्दु एकांतेन | अवदातसुकं संखेंदुव एगंतावदातसुकं, अवदातं अतिपण्डुरं स्निग्धं वा निर्मलं च, पठ्यते च 'संखेंदुवेगंतावदातसुकं' इव | औपम्ये, संखेंदुव एगंतऽवदातसुकं तदेव ध्यान, एवंविधं झाणवरं झियातिता, अणुत्तरग्गं परमं महेसी'वृत्तं ॥३६८॥ णाणेण | सीलेण य ईसणेणं अणुत्तरं च तत् अन्गं च अणुत्तरग्ग-सर्वसुखानामय्यभूतं सर्वस्थानानां वा अणुत्तरं, अग्रे च लोकाग्रे, महॉश्चासौ ऋषिश्च महऋषिश्च, तत् केन गतः?, शीलेन णाणेण य दंसणेणं, अथवा अणुत्तरं अम्गाणं-परमसुखानां सिद्धिमिति, असेसं णिर| वसेसं कम्मं स इति भगवान् , अथवा अट्ठविहं कम्म खवगसेढीए, विसोधइत्ता णाम खवइत्ता, सिद्धिं गतिं साइयर्णत पत्तो V ॥१८॥ [187] Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [८३-८५], मूलं [गाथा ३५२-३८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत युवकअचूर्णिः श्रीमहावीर गुणाः सूत्रांक 1१८४|| ||३५२३८०|| दीप अनुक्रम [३५२३८०] सेधनं सिद्धिः सिद्धेगतिः सिद्धिगतिः अतस्त, सादि अणंतपत्ते-सादि अपजवसितं प्राप्तः, केण? पाणेण शीलेन य दसणेणं । चशब्दात् शीलं दुविहं तवो संजमो य, णाणदंसणे णिन्भेदे । 'रुक्खेहि णाता महकूडसामली' वृत्तं ॥३६९॥ ज्ञायत इति Ail सर्ववृक्षेभ्योऽधिको लोकेनापि ज्ञातं, अहवा णातं आहरणंति य एगहुँ, सर्ववृक्षाणां असौ दृष्टान्तभूतः, अहो अयं शोभनो वृक्षः ज्ञायते सुदर्शना जंबू कूडसामली वेति, कूडभूताऽसौ शाल्मली च, यस्यां रति चेदयन्तीति, शोभनानि वर्णानि एषां सुवर्णानां, पर्णमिति पिच्चस्याख्या, एवं ताव लोकसिद्धा, अस्माकं तु शोभनवर्णा सुवर्णा, तत्थ वेणुदेवो वेणुदाली पवसंति, तयोहि तत् क्रीडास्थानं, 'वाणेसु या णन्दणमाहु सिद्ध(ह) नन्दति तत्रेति नन्दनं, सर्ववनानां हि नंदनं विशिष्यते प्रमाणतः पत्रोपगाहमुपभोगतच, तथा भगवानपि शीलेनानुत्तरज्ञानेन तु भूतिप्रज्ञः 'थणितं च वासाण अणुत्तरे उ' वृत्तं ॥३७०॥ थणंतीति थणिताः, प्राट्काले हि सजलानां घनानां स्निग्धं गर्जितं भवति, अभिनवशरद्घनानां च, उक्तं च-'सारतपणथणितगंभीरघोसि'चंदे व ताराण महाPणुभागे' कंठणं, चंदणं तु गोसीशचंदणं मलयोद्भवं, सेहो मुणीणं अप्पडिपणमाहु श्रेष्ठो मुनीनां तु अप्रतिज्ञा नास्येह लोकं - परलोकं वा प्रति प्रतिज्ञा विद्यत इति अप्रतिज्ञः 'जहा सयंभू उदधीण सेट्टे'वृत्तं ॥३७१।। उदधिः न तस्मादन्योऽधिकःणागेसु चा धरणमाहुः न तेषां किंचिजल थलं वा अगम्यमिति नाम, 'खातोदए रसतो वेजयंते' खातोदगंणाम उच्छुरसो, दगस्य। समुद्रस्य, अथवा इक्षुरसो मधुर एव, सब्वे रसे माधुर्येण विजयत इति वेजयन्तः, तथेति तेन प्रकारेण, उपदधातीत्युपधान, तपोपधानेन हि भगवान् सर्वतबोवधानतो, विजयन्त इत्यतः वेजयन्तः, तपःसंयमोपधानं जं कुणति मुनिरिति भगवानेव विजयन्तो जयन्त इत्यर्थः । 'हत्थीसु एरावणमाहु णाए' वृत्तं ॥३७२।। सर्वहस्तिभ्यो हि एरावणः प्रज्ञायतेऽधिका तेन चान्येषामुपमानं ॥१८॥ [188] Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||३५२ ३८०|| दीप अनुक्रम [३५२३८० ] श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः ॥१८५॥ A HOTELES “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [-], निर्युक्ति: [ ८३-८५ ], मूलं [गाथा ३५२ - ३८० ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: क्रियते, सिंहस्तु मृगेभ्योऽधिको ज्ञायते, सलिलाभ्यो गंगा, सलिलवद्भयः सलिला, गाढं गता गच्छेति वा गंगा, पक्खी आ गुरुले वेणुदेवे लोकरूढोऽयं शब्दः, विनताया अपत्यं वैनतेयः, णिवाणवादीणिह णातपुते श्रेष्ठ इति वर्त्तते, 'जोधेसु जाते जह वीससेणे' वृत्तं ||३७३|| युध्यत इति योधः विश्वा अनेकप्रकारा सेना यस्य स भवति विश्वसेनः, हस्त्यश्वरहपदात्याकुला विस्तीर्णा, स तु चक्रवति, अहवा विश्वक्सेनः वासुदेवः, पुष्पेसु वा अरविंदमिति पद्मं सहस्रपत्रं सहस्रपत्रं वा, तद्धि वर्णगन्धादिभिः पुष्पगुणैरुपेतं न तथाऽन्यानि खत्तीण सेहो क्षतात् त्रायत इति क्षत्रियः दम्यते यस्य वाक्येन शत्रवः स भवति दान्तवाक्यः, अनृतपिशुनपारुपकल्पादिभिः वाक्यदोषः संयुजते, उक्तं हि - 'मितगुंजलपलावहसित जाव सचत्रयणा' इसीण सिट्टे तथ वद्धमाणे । दाणाण सेहं अभयप्पदाणं' वृत्तं ॥ ३७४ ॥ दीयत इति दानं, 'जो देख मरंतस्सा घणकोडिंο' | गाथा, रायावि मरणभीतो० गाथा, अत्र वध्यचोरदृशन्तः, जहा कोई राया चउहिं पत्तीहिं परिवतो पासादावलोअणे नगरमवलोचयंतो अच्छति, एगो य चोरो रत्तं एगसाडगं पडिहितो रत्तचंदणाणुलिनमत्तो रत्तकणवीरकण्ठेगुणो वज्र्जतवज्झापड हे बहुजणपरिकरितो अवउड्डण बद्धो रायपुरिसेहिं पिउत्रणं जओ णिजति, ततो ताहिं राया भणिओ को एसत्ति ?, रायणा भणियंएस चोरो, चहणाय णीणिञ्जति, तत्थेगा भणति महराय ! तुमेहिं मम पुव्वं वरो दत्तो तं देह, रण्णा आमंति पडिस्मृतं, ततो ताए | सो चोरो चतुर्विधेणावि ण्हाणादिअलंकारेण अलंकितो, चितियाए सव्वकामगुणभोयणं भोयावितो, ततियाए स बहुधणादिणा भरितो, भणितो य-जस्स ते रोयति तस्स देहिचि, चउत्था तूसिणीता अच्छति, राहणा भणिता-तुमपि वरं वरेहि, जं एतस्स दादव्वंति, सा भणति - णत्थि मे विभवो, जेण सि पियं करेहामित्ति, राइणा भणिता-णणु ते सव्वं रजं अहं च आपत्तोत्ति, तं जं ते रोयति तमेव [189] श्रीमहावीर| गुणस्तुतिः 1186411 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [८३-८५], मूलं [गाथा ३५२-३८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: श्रीमहावीरगुणस्तुतिः प्रत सूत्रांक ||३५२३८०|| दीप अनुक्रम [३५२३८०] श्रीसूत्रक तस्स देहित्ति, ताए अभयो तस्स दत्तो, पितिपितुणाम सादेतुं तासिं चउण्हवि कलहो जातो, एकेका भणति-एस चेव पुच्छिअतु, ताङ्गचूर्णिः ततो सो पुच्छितो भणति-ण याणामि केणवि मे किंचि दत्तं, मुक्को यथा मे अभयो दत्तः, इत्यतो दाणाण सेढे अभयप्पदाणमिति ॥१८६॥ 'सच्चेसु आ अणवलं वदंति' अनवद्यमिति यद्यन्येषामनुपरोधकृतं, सावा हिंसेत्यपि, गरहितं, कौशिकरिषिवत् , लोगेऽवि पयरती सुती-जह किर सच्चेण कोसिओत्ति रिसी णिरए णिरभिगमो पडितो वधसंपयुत्तेणं, अण्णं च 'तहेव काणं काणेत्ति, पंडगं पंडगति वा । वाहियं वा विरोगित्ति, तेणं चोरोति णो वए ॥१॥' इत्यादि, सत्यमपि गर्हितं, किमेवंविधेण सत्येनापि यत्परेषां परितापनं 'तवेसु आ उत्तम बंभचेरं' येन तपो निष्टतो, देहस्यापि मोहनीयं भवति, तेन सर्वतपसा उत्तमं ब्रह्मचर्य, अन्ये If वेवं सम्प्रतिपद्यते-एकरात्रोपितस्यापि, या गतिब्रह्मचारिणः०' तथा सर्वलोकोत्तमो भगवान् ‘ठितीण सिद्धा लवसत्तमा वा' वृत्तं ॥३७५॥ जे हि उक्कोसिए ठितीए वट्टति अणुत्तरोपपातिका ते लवसत्तमा इत्यपदिश्यन्ते, जइ णं तेसिं देवाणं एवतियं कालं आउए पहुप्पंतो ता केवलं पाविऊण सिझंता, पंचण्हपि सभाणं सभा सुधम्मा विसिट्ठा, सा हि नित्यकालमेवोपभुञ्जते, तत्थ माणवगमहिंदज्झयपहरणकोसचोपालगा, न तथा इतरासु नित्यकालोपभोगः, 'णिवाणसिट्टा जह सबधम्मा' निब्वाणश्रेष्ठा हि सर्वे धाः, निर्वाणफला निर्वाणप्रयोजना इत्यर्थः, कुप्रावचनिका अपि हि निर्वाणमेव कांक्षते इति, ण णातपुत्ता परमस्थि णाणी जहा वा एते सर्वे लोका श्रेष्ठा अणुत्तराः एवं ज्ञातपुत्रान्न परोऽस्ति कश्चित् ज्ञानी, स एव सर्वज्ञानिभ्योऽधिकः, स एव भगवान् सर्वलोकेऽपि भूत्वा 'पुढोवमे धुणतीति विगयगेधी' वृत्तं ॥३७६।। जहा पुढवी सव्वफाससहा तहा सोऽवि धुणीति अष्टप्रकारं कर्मेति वाक्यशेषः, बाह्यभ्यन्तरेषु वस्तुपु विगता यस्य गृद्धी स भवति विगतगृद्धी, सन्निधानं सन्निधिः द्रव्ये । ॥१८६॥ [190] Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [८३-८५], मूलं [गाथा ३५२-३८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: श्रीपत्रक वाङ्गचूर्णिः ॥१८७॥ श्रीमहावीर| गुणस्तुतिः सूत्रांक ||३५२३८०|| दीप अनुक्रम [३५२३८०] HCHANGrammar | आहारादीनां भावे क्रोधादीनां, कर्म वा सनिधिः, यत्साम्परायिक बनातीत्यर्थः, तरित्ता समुई व महाभवोघं यथा तीत्वा | समुद्रं कश्चिनिर्भयो भवति एवं स भगवान् कर्मसमुद्रमिति, अभयं करोतीति अभयङ्करः, केषां ?, सचानां, विराजयति विदाल| यतीति वा वीरः, अणंतचक्षुरिति अनन्तदर्शनवान् , 'कोहं च माणं च तहेव माय'वृत्तं ॥३७७|| आध्यात्मिका होते दोषाः, बाह्या गृहादयः, एतानि वन्ता अरहा महेसी एते जे उद्दिट्ठा, वन्ता णाम उज्झित्वा क्षपयित्वेत्यर्थः, अर्हतीत्यर्हा, महांश्चासौ | रिपिः, न स्वयं पापं हिंसादि संपरायिकं वा करोति कारयति इति । किंच 'किरियाकिरियं वेणइगाणुवातं' वृत्तं ॥३७८॥ | एतेपां वादिनामुपरिष्टात्कांश्चिद्विशेषान् वक्ष्यामः, दुवालसंगं गणिपिडगं वादो सेसाणि तिण्णि तिसिट्ठाणि अणुवादो, थोत्र वा अणु|| वादो, से सबवाद इति वेदइत्ता स इति स भगवान्, सर्वे वादाः सर्ववादा, इहासिँल्लोके, वेदयित्वा ज्ञात्वेत्यर्थः, उवहिते सम्मस(संजम)दीहरायं उपस्थितो मोक्षाय सम्यगुपस्थितः, न तु यथाऽन्ये, उक्तं हि-'यथा परे सं(पा)कथिका विदग्धाः, शास्त्राणि कृत्वा लघुतामुपेताः। शिष्यैरनुज्ञामलिनोपचारैर्वक्तृत्वदोपास्त्वयि ते न संति ॥ १॥ दीहरात णाम जावजीवाए, 'से वारिया इत्थि सराइभत्तं' वृत्तं ॥३७९॥ वारिया णाम वारयित्वा, प्रतिषेध्यते च, इत्थिग्रहणे तु मैथुनं गृह्यते, सराइभचेति वारयित्वेति वर्तते, एतच्चात्मनि वारयित्वा, न बस्थितः स्थापयतीतिकृत्वा, पश्चात् शिक्षा धारितवान् , अद्वितो ण ठावते परं, उपधानवानिति न केवलं निरुद्धाश्रवः, पूर्वकर्मक्षयार्थ तपोपधानवानप्यसौ अतः, स्थात्-किं निमित्तं तवोवधानवानासीत् ?, उच्यतेदुक्खक्खयत्थं, लोगं विदित्ता अपरं परं च अपरो लोको मनुष्यलोकः, पास्तु नरकतिर्यग्देवलोको, यत्स्वभावावेतौ लोको यैश्च कर्मभिः प्राप्येते इति, सर्व पभू वारिय प्रभवतीति प्रभुः, वशयित्वेत्यर्थः, अथवा सर्व पाणाइवादादीनि दबओ, प्रभुः १८७|| [191] Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [८३-८५], मूलं [गाथा ३५२-३८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: शीलनिक्षेपाः प्रत सूत्रांक ||३५२३८०|| दीप अनुक्रम [३५२३८०] श्रीसूत्रक | ज्ञेयं प्रति, प्रधानत्याच वारितवान् शिष्यान् हिंसानृतस्तेयपरिगृहेभ्य इति, मैथुनरात्रिभक्ते तु पूर्वोक्ते, सर्वसादकृत्यात् आत्मानं ताङ्गचूर्णिः | शिष्यांश्च वारितवानिति, सर्ववारी सर्ववारणशील इत्यर्थः, इदानीं सुधर्मा तीर्थकरगुणान् कथयित्वा श्रोतृनाह-सोचा धम्म ७अध्य० | अरहंतभासियं' वृत्तं ॥३८०॥ श्रुत्वेति निशम्य, इमं धममिति योऽयं कथितः अर्थतो वा भाषितः गणधराणामित्यर्थः, सम्यक ॥१८८॥ | आहित समाहितः सम्यगाख्यात इत्यर्थः, अर्थवन्ति पदानि, अथवाऽथैश्च पदैश्च उपेत्यशुद्धं, तं सद्दहंता य तमिति योऽयमुप| दिष्टः श्रुत्वा श्रद्धानपूर्वकमादाय, आदाय नाम गृहीत्वा च, जना नाम बहवो जनाः अनायुपः संवृत्ता इति वाक्यशेषः, सिज्झन्तीत्यर्थः, जे तुण सिझंति ते इंदा भवंति देवाधिपतयः, आगमिष्येनेति आगमिस्सेण भवेण सुकुलुप्पत्तीए सिज्झिस्संति ॥ महावीरस्तवाध्ययनं पष्ठं समाप्तम् ।। इदानी कुशीलपरिभासितंति जत्थ कुसीला सुसीला य परिभासिजंति, कुसीला गिहत्था अण्णउत्थिया य पासत्यादिणो य, DAI तेषां कुत्सितानि शीलानि अनुमतकारितादीणि परिभासिर्जति जहा य संसारं परिभमंति, तस्स इमानि चत्तारि अनुयोगदाराणि, पुवाणुपुवीए सत्तम, अस्थाहिगारो सीलाणं कुसीलाणं च सम्भावं जाणित्ता कुत्सिता कुत्सितसीलाई असीलाई च बजेयवाई, |जे य तेसु बदति ते व तव्या, णामणिफण्णे सीलंति एगपदं णामति, तत्थ गाथा 'शीले चउक दब्वे पाउरणाभरणभोयणादीसु भावे तु ओघसीलं अमिक्ख आसेवणा चेव ||७४|सील णामादि चउबिह, णामंठवणाओ गयाओ, दवे वतिरित्तं, दव्यसीलो यथा प्रावरणसीलो देवदत्तः, प्रलंबप्रावरणशीलो वा, तथा नित्यभूपणशीला नित्यं मण्डनशीला ते भार्या, अपिच चोद्यते' शीलवती वा, तथा नित्यभोजनसीलोऽसि तथा मृष्टभोजनशीलो न चोपार्जनशीलोसि, यो वा यस्य द्रव्यस्य ॥१८८॥ अस्य पृष्ठे सप्तमं अध्ययनं आरभ्यते [192] Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [७], उद्देशक -, नियुक्ति: [८६-९०], मूलं [गाथा ३८१-४१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: श्रीसूत्रका ताचूर्णिः प्रत सूत्रांक ||३८१ ॥१८९|| ४१०|| दीप अनुक्रम [३८१ खभावः तद्रव्यं च तच्छीलं भवति, यथा मदनशीला मदिरा, मेध्यं घृतं सुकुमारं वेत्यादि, भावशीलं दुविधं तं०-ओहशील शीलनि अभिक्खासेवणसीलं च, तत्थ 'ओहे सीलं' गाथा ।।८७। ओहो णाम अविसेसो जहा सब्यसावजजोगविस्तो विरताविरतोवि," | एवं ता पसत्थं ओहसील, अप्पसत्थओहसीलं तु तद्विधर्मिमणी अविरतिः सर्वसावधप्रवृत्तिरिति, अथवा भावसील दुविहं-पसत्थं अपसत्थं च, एककं दुविहं-ओहसील अभिक्खासेवणसीलं च, प्रशस्तौषशीलो धर्मशीलो, अभिक्खासेवणाए णाणशीलो तवशीलो, पाणे पंचविधे सज्झाए उपयुक्तो, अमिक्खणं २ गहणवत्तणाए अप्पाणं भावेति एम णाणसीलो, तवेसु आतावणअणसणाअणहिकरणसीलो, एवं दुविधो वित्थरेणं, जोएतव्यमिति, अप्पसत्थ भावओ ओहसीलो पावसीलो उड्डसीलो एवमादि, अप्पसत्थे अभिक्खआसेवणाभावसीलो कोहसीलो एवं जाव लोभसीलो चोरणसीलो पियणसीलो पिसुणसीलो परावतावणसीलो कलहसीलो इत्यादि, अथ कस्मात् कुसीलपरिभापितमित्यपदिश्यते ?, उच्यते, जेण एत्थ 'परिभासिता कुसीला' गाथा ।। ८९ ॥ येनेह सपक्खे परपक्खे य कुसीला परिभासिता, सपक्खे पासत्यादि परपक्खे अण्णउत्थिया जावंति अविरताकेयित्ति, सव्वे गिहत्था असीला एव, सुत्ति पसंसा सुरिति प्रशंसायां निपात इति यः शुद्धशील इत्यपदिश्यते, दुः कुत्सायां अशुद्धशील इत्यपदिश्यते, कथं कुसीला ? 'अप्कासुयपडिसेवी य ८९॥ जे अफासुयं कयकारियं अणुमतं वा भुजति ते यद्यपि ऊर्ध्वपादा अधोमुखं धूमं | पिवंति मासान्तश्च मुंजते तहावि कुसीला एच, जे अफासुगाई आहारोवधिमादीणि पडिसेवंति असंयता असंयमत्ता अणगारवा. दिणो पुढविहिंसगा णिग्गुणा अगारिसमा, णिद्दोसत्ति य मइला, साधुपदोसेण मइलतरा, फासुं वदंति सीलं, जे. संजमाणुवरोघेण | अफासुयं परिहरंता ते फासुभोअणसीला इत्यपदिश्यते, जे पुण ते अफासुयगभोई असीला कुसीला य ते इमे जह् णाम गोत ४१०] [193] Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [७], उद्देशक [-], नियुक्ति: [८६-९०], मूलं [गाथा ३८१-४१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: जीवभेदाः प्रत सूत्रांक ||३८१४१०|| वक- चूर्णि ११९०॥ MOHINIChinadiDHIK दीप अनुक्रम [३८१ मारादेवता' गाथा ॥९०॥ गोतमा णाम पासंडिणो मसगराजातीया, ते हि गोणं णाणाविधेहिं उवाएहिं दमिऊण गोतपोतगेण सह गिहे गिहे धणं ओहारेंता हिंडंति, गोवतिगाविधीयारप्राया एव, ते च गोणा णस्थितेल्लूगा रंभायमाणा गिहे गिहे सु(गो)घेहि गहितेहिं धणं उहारेमाणा विहरति, अवरे चंडदेवगा चरकपाया, वारिभद्रगा प्रायेण जलसकारहत्थपादपक्खालरता पहार्यता य आयमंता य संक्रांतिसु तिहिसु य य जलणिबुड्डा अच्छंति परिवायगादि, अण्णे अग्गिहोमवादी तावसा धीयारा, धीयारा अग्गिहोतेण सग्गं इच्छंति, जलसोय केइ इच्छंति, भागवता दगसोयरियादि तिणि तिसट्ठा पावादिगसता, जे य सलिंगपडिवण्णा कुसीला अफासुयगपडिसेवी । गतो णामणिप्फण्णो णिक्खेवो, सुत्ताणुगमे सुत्तमुच्चारेयवं जाव 'पंचहा विद्धि लक्खणं'ति, इदं सूत्रं 'पुढवी य आऊ अगणी य वाऊ तणरुक्खवीया य तसा य पाणा॥३८१शा तणरुक्खनीयत्ति वणस्सइकायमेदो गहितो, एकेको द्विविधो, अवीजा वीजाद्वा प्रसूतिः, पच्छाणुपुची वा गहिया, जहा वणस्सतिकाइयाणं भेदा तहा पुढविमादीणवि भेदो भागियव्यो, तंजहा-'पुढवी सकरा वालुगा य० एवं सेसाणवि भेदाभाणियब्वा, तसकाइयाणं तु इमो भेदो सुत्ताभिहित एव, तं०-जे अंडया जे य जरायु पाणा अंडेभ्यो जाता अण्डजा:-पक्ष्यादयः, जरायुजा णाम जरावेढिया जायते गोमहिष्याजाविकामनुष्यादयः, संखेदजाः गोकरीपादिषु कृमिमक्षिकादयो जायन्ते जलूगामंकुणलिक्खादयो य, रसजा दधिसोवीरकमजा(तक्रा)दिपु, रसजा इत्यभिधानत्वं जेसि रसजा इत्यभिधानं वा, 'एताई कायाई पवेइताई वृत्तं ॥३८२।। एतानि यान्वुद्दिष्टानि कायविधानानि, प्रवेदितानीति प्रदर्शितानि अहंप्रभृतीनां, 'एतेसु जाण' एतेत्ति ये उक्ताः, जानन्तीति जानकाः प्रत्युपेक्ष्य सातं सुखमित्यर्थः, कथं ? पडिलेहेति, जध मम न पियं दुक्खं सुहं चेहूँ एवमेपां पडिलेहित्ता दुःखमेषां न कार्य णवएण भेदेण, जे पुण एतेसु काएसु य ४१०] A RANETARI ॥१९०। [194] Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [७], उद्देशक [-], नियुक्ति: [८६-९०], मूलं [गाथा ३८१-४१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: विपयार प्रत सूत्रांक श्रीसूत्रकनाङ्गचूर्णिः ॥१९॥ ||३८१ ४१०|| दीप अनुक्रम [३८१ आतदण्डे कुशीलः अशीलो वा एपां कायानां आताओ दंडेइ, अथवा स एवात्मानं दंडयति य एषां दंडे णिसरति स आत्म| दंडा, एतेष्वेव पुनः विप्परियासुविन्ति विपर्यासो नाम जन्ममरणे, संसारो विपर्यासो भवति, अथवा सुखार्थी तानारभ्य ताने| वानुप्रविश्य तानि तानि दुःखान्यवामोति सुखविपर्यासभूतं दुःखमवामोति, विवरीतो भावो विपर्यासः, धर्मार्थी तानारभमाणः संसारमामोति, एवं सो अविरतो लोगो अवतलोकः कुशीललोकात् मनुष्यलोकात् प्रच्युतः तानेय कायान् प्राप्य 'जाईवहं अणु परियडमाणे वृत्तं ॥३८३।। जातिश्च वधश्च जातिवधौ-जन्ममरणे इत्युक्तं भवति, समन्ताद्वर्तते अनुपरिवर्तते, ते पुण छवि काया | समासओ दुविहा भवंति, तंजहा-तसा थावरा य, थावहा तिविहा-पुढवी आऊवणस्सई, तसा तिविहा-तेउ वाऊ ओराला य तसा, | तेसु तसत्थावरेसु विणिग्यातमिति अधिको णियतो वा घातः निघात विविधो वा घातः शरीरमानसदुःखोदयो अट्ठपगारकम्मफलविवागो वा 'से जातिं जाति परियट्टमाणे से इति स कुसीललोकः जाति जातीति वीप्सार्थः, तासु तासु जातिसुत्ति तस| थावरजातिसु अणिसं निरंतरं कूराणि हिंसादीणि कम्माणि बहून्यस्य क्रूरकर्मेति बहु आरंभो विविधभंगा यद्यदकरोत्तेन कर्मणा मीयते, मी हिंसायां वा, मार्यत इत्यर्थः, नियंत इत्यर्थः, मञ्जते वा निमजत इत्यर्थः, भावमन्दस्तु कुशीललोको गहितो गिही पासंडी वा यत्पापं करोति तत्किमिह वेद्यते ?, अनेकान्तः, 'अस्सि च लोगे अदुवा परत्थ' वृत्तं ।।३८४।। कथं ?, इहलोगे दुचिष्णा | कम्मा०, इहलोगो असुभफलविवागो, इहलोए दुच्चिष्णा कम्मा परलोए असुभफलविवागा, परलोके दुचिण्णा कम्मा परलोए असुभफलविवागा, कथं ?, उच्यते-केनचित् कस्यचित् इहलोगे शिरश्छिन्नं तस्यापत्येन छिन्नं एवं इहलोगे, कथं इहलोगे न फलति', गरगाइसु उवण्णस्स, परलोए कर्त इहलोगे फलति, जहा दुहविवागेप्नु मियापुत्तस्स, परलोए फलति, दीहकालद्वितीय कम्म ४१०] ॥१९॥ [195] Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [७], उद्देशक [-], नियुक्ति: [८६-९०], मूलं [गाथा ३८१-४१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत श्रीसूत्रक इह परलोकवेदनं जिचूर्णिः सूत्रांक ||१९२| ||३८१ ४१०|| दीप अनुक्रम [३८१ | अण्याम्मि भवे उदिअति, अथवा इहलोक इव चारकवन्धः अनेकर्यातनाविशेपैः तद्वेदयति, तदन्यथा वेदितं कस्यचित्परलोके, तेन वा प्रकारेण अन्येन वा प्रकारेण विपाको भवति, तथा विपाकस्तथैवास्य शिरश्छिद्यते तत् पुनरनन्तशः सहस्रशोवा, अथवा असकतथा सकृदन्यथा, अथवा शतशश्छिद्यते अन्यथेति सहस्से वा, अथवा शिरश्छिन्वानः शिरश्छेदमवानोति हस्तच्छिदं वा अन्यतराङ्गछेदं वा प्राप्नोति, सारीरमाणसेण वा दुक्खेण वेद्यते, एवं यादृशं दुःखमात्र परस्योत्पादयति तत्र मात्रतः शतशो मात्राधिगं तं | प्रामोति अन्यथा बा, त एवं कुशीला संसारमावण्णा परंपरेण संसारसागरगता इत्यर्थः, परंपरेणेति परभवे, ततश्च परतरभवे, | एवं जाव अणंतेसु भवेसु बध्नति वेदेति य दुषिणताई दुष्ठु नीतानि दुनितानि कुत्सितानि वा नीतानि कर्माणीत्यर्थः, एवं ताव | ओघतः उक्ताः कुशीला गृहिणश्चेति, इदानीं पापंडलोककुशीलाः परामृश्यन्ते, तद्यथा-'जे मातरं च पितरं च हेचा' वृत्तं | ॥ ३८५ ॥ 'जे' इति अणिदिवणिदेसो, एते हि करुणानि कुर्वाणा दुस्त्यजा इत्येतद्हणं, शेषा हि भातृभार्यापुत्रादयः सम्बन्धात् | पथाद्भवन्ति न भवंति वा इत्यतो मातापितग्रहणं, चग्रहणात् भ्रातृभगिनी जाव सयणसंगंथसंथवो थावरजंगम रजं च जाव दाणं दाइयाणं परिभाएत्ता, तेसु च जं ममत्तं तं हेचा, हेचा नाम हित्वा, श्रमणप्रतिनः श्रमण इति वा वदंति अग्निं चारभंते, नत्वेकस्यान्यतमेन अन्यतमाभ्यां अन्यतमैर्वा, अथाह स लोगो अणन्यधम्मे, अथ प्रश्नानन्तर्यादिपु, आहेति उक्तवान् , स इति भगवान , लोकः कथं समारभंते पंचाग्नितापादिभिः प्रकारैः पाकनिमित्तं च 'भूयाई वृत्त, भूताई जे हिंसति आतसाते भूतानीति अग्निभूतानि चान्यानि अग्निना वध्यंते, आत्मसातनिमित्तं आत्मसातं तद्यथा तपनवितापनप्रकाशहेतुं उज्जालिया पाणइवातयंति | णिवाविय अगणि निपातरजा उञ्जालयन्तस्ते पृथिव्यादीन् प्राणान् त्रिपातयन्ति, त्रिभ्यः मनोवाकायेभ्यः पातयन्ति त्रिपात ४१०] [196] Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [७], उद्देशक [-], नियुक्ति: [८६-९०], मूलं [गाथा ३८१-४१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: कुशीलाः प्रत श्रीसूत्र सूत्रांक ||३८१ चूर्णिः ॥१९३२॥ ४१०|| दीप अनुक्रम [३८१ यन्ति, आयुर्वलेन्द्रियप्राणेभ्यो वा पातयंति तिपातयंति, उक्तं च-तणकट्ठगोमयस्सिता०, णिवाविया अगणिमेव निपातयंति, उक्तं हि-"दो भंते ! पुरिसा अण्णमण्णेण सद्धि अगणिकार्य समारभंति तत्थ णं एगे पुरिसे अगणिकार्य उजालेति एगे पुरिसे अगणिकार्य णिव्यवेइ, तेसि णं भंते ! पुरिसाणं कयरे २ पुरिसे महाकम्मतरए पण्णते?, तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकार्य णिव्ववेह | से पुरिसे अप्पकम्मतराए, से केणद्वेणं ?, (भंते! एवं वुचइ) गोयमा तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकार्य उजालेइ से णं पुरिसे बहुतराग पुढविकार्य वायु आउ० वणस्सइकार्य तसकार्य० अप्पतगगं अगणिकायं समारभति, तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं णिव्य| वेति से णं पुरिसे अप्पतरागं पुढविकायं समारभति जाव अप्पतरागं तसकार्य समारभति बहुतरागं अगणिकार्य समारभति, से | तेणद्वेणं गोयमा! एवं बुचति", अपि चोक्तं-भृताणमेस आघातो, हव्यवाहो ण संसयो" यस्माचैवं 'तम्हा उ' वृत्तं तम्हा उ मेधावी समिक्ख धम्म ण पंडिए अगणि समारभेजा, कंठय, तु विसेसणे, अहिंसाधम्म समीक्ष्य, समारंभो हि तपनविपातनप्रकाशहेतुर्वा स्यात् , कतरान् जीवानाधानयंति ?, अस्यारम्भप्रवृत्ताः कुसीला उच्यन्ते, 'पुढवीवि जीवा आऊवि जीवा' ॥३८७॥ अपि पदार्थसंभावने, पुढवी जीवसंज्ञिता, ये च तदाथिताः वनस्पतित्रसादयः, एवमाऊवि तदाश्रिताः प्राणाथ, संपतन्तीति सम्पातिन:-शलभवाय्वादयः, कट्ठस्म संस्सिता य, संस्वेदजाः, करीपादिष्विन्धनेषु धुणपिपीलीकाण्डादयः, एते दहें अग|णि समारभंता एवं तावदग्रिहोत्राद्यारंभा तापसायाः अपदिष्टाः, एके निवृत्ताच शाक्यादयः, इदानीं ते चान्ये च वणस्सइसमारंभान्विताः परामृश्यन्ते, 'हरितानि भूतानि विलंबगाणि' वृत्तं ॥३८८॥ हरितग्रहणात् सर्व एव वनस्पतिकाया गृह्यरते, नीला हरिताभा आर्द्रा इत्यर्थः, हरितादयो या वनस्पतयः, भृतानि जंगमाणि, विलंबयंतीति विलम्बकानि भूतखभावं भूताकृति ४१०] ॥१९॥ [197] Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [७], उद्देशक [-], नियुक्ति: [८६-९०], मूलं [गाथा ३८१-४१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: श्रीमत्रक- प्रत सूत्रांक ||३८१ ॥१९४॥ ४१०|| दीप अनुक्रम [३८१ दर्शयन्तीत्यर्थः, तद्यथा-मनुष्ये निपेककललावुर्दपेशिन्यहगर्भप्रसववालकौमारयौवनमध्यमस्थावियन्तो मनुष्यो भवति, एवं हरि-।। कुशीलाः तान्यपि शाल्यादीनि, जातानि-अभिनवानि सस्यानीत्यपदिश्यन्ते, संजातरसाणि यौवनवंति, परिपक्कानि-जीर्णानि, परिशुष्कानि मृतानीति, तथा वृक्षः अहुरावस्थो जान इत्यपदिश्यते, ततश्च मूलस्कन्धशाखादिभिर्विशेषैः परिवर्द्धमानः पोतक इत्यपदिश्यते, ततो युवा मध्यमो जीर्णो मृतश्चान्ते, स इति एवंभूतं विलंवितं कुर्वति, कारणेन कार्यवदुपचारात् आहारमया हि देहादेहिनां, अन्नं वै प्राणा, आहाराभावे हि वृक्षा हीयन्ते म्लायंते शुष्यते च मंदफला हीनफलाश्च भयंति, पुढो सिताणि पृथक् २थितानि, न तु य एव मूले त एव स्कन्धे, केषांचिदेकजीवो वृक्षः तद्वयुदासार्थं पुढोसिताई, तान्येवं-संखेजजीविताणि असंखिजजीविताणि अणंतजीविताणि वा, जो छिदति आतसातं पडुच्च, आत्मपरोभयसुहदुःखहेतुं वा आहारसयणासणादिउवभोगत्वं, प्रागलिभप्राज्ञो नाम निरनुक्रोशमतिः, उपकरणद्रव्याण्येवानि, बहुणंति एगमपि छिंदन बहून् जीवान्निपातयति, एगपुढबीए अणेगा जीवा, किंच-'जाई च बुद्धिं च विणासयंते' वृत्तं ।। ३८९ ।। बातिरिति बीजं, तं मुशलोदुखलास्पन्दि(स्यादि)भिविनाशयन्ति यत्रकैश्च, जातिविनाशे हि अंकुरादिविद्धिर्हता एव, जात्यभावे कुतो वृद्धिी, अथवा जातीपि विनासेति वीजं, सुट्टुं विणासेइ अंकुरादि, बीजादीति बीजांकुरादिक्रमो दर्शितः, पच्छाणुपुची च दशविधाणं, स एवं असंयतः आत्मानं दण्डयति परं वा अधाहु से लोए अणजधम्मे अत्यानन्तर्य आहुस्तीर्थकराः, स इति स पाखण्डी, अनार्यों धर्मो यस्य स भवति अणजधम्मो, जहावादी तहाकारी न भवति, जो हि वीजादि हिंसति आत्मसातनिमित्तं, इत्येवं तान् प्राप्तवयसो वा वृक्षादीन् हत्वा ते कुशीलाः मानुप्यात् प्रच्युताः प्राप्य 'गम्भायि मिजंति पुवच्छ(घुया बु)याणा वृत्तं ॥३९०॥ गर्भानिति वक्तव्ये गर्भादि इति यदपदिश्यते ॥१९॥ ४१०] [198] Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत freeसूत्रांक ङ्गचूर्णिः १९५॥ ॥३८१ ४१०|| दीप अनुक्रम [३८१ ४१०] bad bund at buds “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ७ ], उद्देशक [-], निर्युक्ति: [ ८६ ९० ], मूलं [गाथा ३८१-४१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२ ], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: तगर्भायवस्थानिमित्तं तद्यथा-निषेककललार्बुदपेशित० स हि मासं गर्भाद्यवस्थानिमित्तं, तस्यामन्यतमस्यां कथित म्रियते, अथवा मासिकादि, गर्भावस्थासु नवमासन्ते तेनान्यतरस्यां म्रियते, गतगर्भा विगर्भा, ते तु ब्रुवाणाथ, ग्रन्धानुलोम्यात् पूर्वं (पू) कुर्वाणाः, इतरथाऽनुपूर्व वा ण ब्रुवाणा इतियावत्, न मातापित्रादि व्यक्तया गिराऽभिधत्ते, ततः परं ब्रुवाणा, पंचशिखो नाम पंचसूडः कुमारः, अथवा पंचेन्द्रियाणि शिखाभूतानि बुद्धिसमर्थानि खे खे विषये तस्मात् पञ्चशिखो, तस्मिन्नपि कदाचित् म्रियते, युवाणगा मज्झिमा थेरगा य कंठ्यं चयंति साततो भवतो वा यः पश्चात्प्रलीयते, यैर्यथाऽऽयुर्निर्वर्तितं यैश्च यथा जीवोपघातादिभिरल्पान्यापि निर्वर्त्तितानि सोपक्रमाणि निरुपक्रमाणि च भणितं च- 'तीहिं ठाणेहिं जीवा अप्पाउअत्ताए कम्मं पकरेंति' एवं पंचेंद्रियतिरिएसुवि, गन्भादि मिजंति उ अबुयाणा, व्याधिभिरागंतुकैर्वेदनाप्रकारैम्रियन्ते, एगिंदिएसुवि तहाणुरूवं भाणितव्यं, 'बुज्झाहि | जंतो इह माणचेसु' वृत्तं ॥ ३९१ ॥ किं बोद्धव्यं १, न हि कुशीलपाखंडलोकः त्राणाय, धम्मं च बुज्झह, तं च बोधिं बुज्झा जहा - माणूस्सखेत्तजाती कुलरुवारोग्गमाअं बुद्धी । समणोगह सद्धा दरिसणं च लोगम्मि दुलभाई ॥ १ ॥ जंतोरिति हे जन्तो, | इहेति इह माणवेहिं दृष्ट्वा भयानि इतश्च तस्य जातिजरामरणादीनि नरकादिदुःखानि च, तेण दद्धुं भयं बालिएणं अलं मे बाल| भावो हि बालकं कुशीलत्वमित्यर्थः, नयते कुशील अग्रतः, एतदुक्खे जरिए उ लोगेति णिच्छणयं संपडच एतदुक्खो संसारः, तंजहा- 'जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा य मरणाणि य । अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ किस्संति जंतवो ॥ १ ॥ तहा तण्हाति, तत्तपाणं करोति तस्स जरितेत्ति 'आलित्ते णं भंते! लोए जराए मरणेण य' अथवा जेण सयं संतत्तं जरितमिव जगं कलहं गलेति, ज्वरित इव ज्वलितः, सारीरमाणसे हि दुःखादी, मणुस्से हि कषायैश्च नित्यप्रज्वलितवान्, ज्वरितः सकम्मुणा | [199] कुशीलाः ।।१९५ ।। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [७], उद्देशक [-], नियुक्ति: [८६-९०], मूलं [गाथा ३८१-४१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: कुशीला प्रत सूत्रांक ||३८१४१०|| दीप अनुक्रम [३८१ सूत्रक- विप्परियासुतित्ति खकृतेन कर्मणा, नेश्वरादिकृतेन, विप्परियासेण गरादिनानाविधैः प्रकारैविपरीतमायाति, तदपि चोक्तं, उक्त चूर्णिः कुशीलविपाकः, पुनरपि कुशीलदर्शनान्येवाभिधीयते, 'इहेग मूढा पवदंति मोक्खं वृत्तं ।। ३९२ ॥ इहेति पाखण्डिलोके मनुध्यलोकेऽपि, एके न सर्वे मूढा-अयाणगा खयं मूढोः परैश्च मोहिताः भृशं वदन्ति, आहियते आहारयति च तमित्याहारः, वुद्ध्यायुर्वलादिविशेषान् आनयति-आहारयतीत्याहारः, आहारसंपञ्जणेण रसाद्याहारसंपदं जनयन्तीति आहारसंपञ्जणं च तल्लवर्ण, अथवा आहारेणं समं पंचगं, आहारेण हि सह पंच लवणाणि, तंजहा-सैंधवं सोवञ्चल विडं रोमं समुद्र इति, लवणं हि सर्वरसान् दीपयति, उक्तं हि-'लवणविहणा य रसा, चक्खुविहणा य इंदियग्गामा। तथा चोक्त-'लवणं रसानां तैलं स्नेहानां घृतं मेध्याना'मित्यादि, केइ अठ्ठप्प लोणं ण परिहरंति, केचित्तदपि, अथवा आहारपंचगं, तद्यथा-'मजं लसुणं पललं खीरं करभंतधेव गोमस', वारिभद्दगा तु एगे य सीतोदगसेवणेण स्नानपानहस्तपादधावनेन सीतोदगसेवणं, तत्र च निवासः, सीतमिति अधिगत जीवं, अंगुष्ठाभितप्तं वा, परिवाभागवतादयोऽपि शीतोदकं सेवंति, हुतेण एगे तापसादयो हि इटैः समिघृताभिहव्यैः, हुता॥ शनं तर्पयन्तो मोक्षमिच्छन्ति, तत्र कुंथ्वादीन् सचान गणयन्ति ये तत्र दद्यन्ते, मोक्षो बविशिष्टः सर्वविमोक्षो वा दरिद्रादि दुःखविमोक्षो वा, ये कुलस्वर्गादिफलमनाशंस्य जुअति ते मोक्षाय, शेषास्तु अभ्युदयाय, तेषामुत्तरं 'पायोसिणाणादिसु णस्थि मोक्खों ' वृत्तं ॥३९३।। प्रात इति प्रत्युषः, आदिग्रहणात् हस्तपादप्रक्षालनजलशयनानि, येन तदुदकं सचिन तदसिन् ये वहवे पाणा हम्मंति, किंच-'स्नानं मददर्पकर, कामांगं प्रथम स्मृतम्' खारो णाम अठ्ठप्पं तदादीन्यन्यानि पंच लवणाणि तेषामनशनेन मोक्षो भवति, ते मज मंसं लवणं च भोचा ते इति कुसीला, मांसमिति गोमांस, चग्रहणात् पल्यंई कारभं एतान्यभोचा ४१०] [200] Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [७], उद्देशक [-], नियुक्ति: [८६-९०], मूलं [गाथा ३८१-४१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: सूत्रका चूणि : १९७॥ प्रत सूत्रांक ||३८१४१०|| दीप अनुक्रम [३८१ कथमिहान्यत्रवासं परिकल्पयन्ति मूर्खाः, अन्यत्रबासो नाम मोक्षवासः, अथवा अन्यत्रवासो नाम यत्रेच्छति यदीप्सितं |वा न तत्र वासं परिकल्पयन्ति, अत्रैव संसारे चेव, परिकल्पयंति नाम कुर्वन्ति, विशेपोतरं 'उदएण जे सिद्धिमुदाहरंति' वृत्तं ॥३९४॥ सायंति रात्रौ, पायंति पच्चूसे, सेसं कंठयं । किंच-यदुदकेन सिद्धिः स्यात् तेन 'मच्छा य कुम्माय सिरीसिवा य' वृत्तं ॥ ३९५ ॥ मच्छा एव कुम्मा-कच्छभा, सीरीसवति इह सिरीसिवा मगरा सुंसुमारा य, चतुष्पादत्वात् सिरीसृपा, मंगू | णाम कामजगा, उट्टा णाम मजारपमाणा महानदीपु दश्यन्ते, उम्मञ्जणिमन्जिय करेमाणा, दगरक्खसा मनुष्याकृतयो नदीपु समुनेषु च भवंति, एवमादयोऽन्येऽपि च जलचराः मत्स्यबन्धादयश्च यद्यद्भिर्मोक्षः स्याचेन सर्वे मोक्षमवाप्नुवन्तु, न चेदाप्नुवंतिण, अट्ठाणमेयं कुसला वदंति अस्थानमिति अनायतनं अनादेशः अभ्युदयनिःश्रेयसयोः कुशलास्तीर्थकरास्त एवं वदंति अस्थानमेतत् यदुदकेन शुद्धिर्भवति, 'उदकं जति कम्ममलं हरेज'वृत्तं ॥३९६॥ एवं पुण्यपि, चन्दनकर्दमलिप्तं वा, नोचेत् ततस्ते il इच्छामात्रमिदं, त एवं वराका जात्यन्धतुल्याः अंधं व णेतारमणुस्सरंता अन्धेन तुल्यं अन्धवत् यथा जात्यन्धो जात्यन्धं णेतारमणुस्सरंतो, अणुस्सरंतो णाम अणुगच्छंतो, उन्मार्ग प्राप्य विषमप्रपातादिकण्टकव्यालाग्निउपद्रवानासादयति क्लेशमिच्छन्ति न चेष्टां भूमिमयामोति, एवं ते कुसीला अहिंसादिगुणजात्यन्धा इच्छंतोऽपि मोक्षार्थ अहिंसादीन् गुणानप्राप्नुवन्तः, स्वयं प्राणिनो | विहेडयंति 'हट्ट विवाधने बाधन्त इत्यर्थः, ये चान्ये जीवा अनाप्यास्तानाश्रयन्ति तेऽपि तथैव प्राणिनो विहेडयित्वा अनिष्टानि | स्थानानि अवाप्नुवंति, किंच-पावाई कम्माई पकुवतो हि' वृत्तं ॥ ३९७ ॥ कंठयं 'हुतेण जे मोक्खमुदाहरंति' वृत्तं ॥३९८॥ ये मोक्खं उदाहरति नाम भासंति, सायं च पायं च अगणिं फुसंति सायं रात्रौ, पायं प्रत्युषि, अग्नि स्पृशन्ति | ४१० ॥१९७॥ [201] Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥३८१ ४१०|| दीप अनुक्रम [३८१४१०] श्रीसूत्रकृताङ्गचूर्णिः ॥१९८॥ “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ७ ], उद्देशक [-], निर्युक्तिः [८६-९०], मूलं [गाथा ३८१-४१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: इति यथेयैस्तत्पतैः यदि तेषामेव सिद्धिर्भवति एवं सिया सिद्धि हवेज कतरेपां ! अगणिं फुसन्ताण कुकम्मिणंपि कुकर्मणो मृक्ष्यकारा कूटकारा वणदाहा वल्सरदाहकः उक्तानि पृथकुशीलदर्शनाणि, एषां तु सर्वेषामेव अयं सामान्योपालम्भ:अपरिक्ख दिहं ण हु एवं सिद्धि, एहिन्ति ते घातमबुज्झमाणा । अपरिच्छेति अपरीक्ष्य, दृष्टिरिति दर्शनं, अपरीक्षितदर्शनानामित्यर्थः नैवं सिद्धिर्भवतीति वाक्यशेषः, किंतु एहिंति ते घातमयुज्झमाणाः, अपरिच्छेति अपरीक्ष्य, दृष्टिरिति दर्शनी, तैस्तैर्दुःखविशेषैर्घातयतीति घातः संसारः, धम्ममबुज्झमाणाः, तत्प्रतिपक्षभूताः सम्यग्दृष्टयः, ते तु भूतेहिं जाणं पडिलेह सातं भूतानि एकेन्द्रियादीनि जानीत इति जानकः स जानको अत्तोवम्मेण भूते सातं पडिलेहेति 'जह मम ण पियं दुक्खं, जाणिय एवमेव सन्वसत्ताणं' एवं मत्वा यदात्मनो न प्रियं तद्भूतानां न करोति, एवं समं पडिलेहणा भवति, विजं नाम विद्वान्, गहायत्ति एवं गृहीत्वा अत्तोवमेण इच्छितं सातासात एवं गृहीत्वा नवकेन भेदेन तसथावराण पीडं, अथवा विजं, विजा णाम ज्ञानं हाय, जोए तस्थावरा णचंति, उक्तं च- 'पढमं गाणं तओ दया, एवं चिट्ठति सव्त्रसंजए। अण्णाणी किं काहिति ?, किंवा ाहिति पावगं ? ॥१॥' ये पुनः हिंसादिषु प्रवर्त्तन्ते अशीलाः कुशीलाश्च ते संसारे धणंति लुप्पंति वृत्तं ॥ ४०० ॥ परगादिगती सारीरमाणसेहिं दुःखेहिं पीड्यमाना स्तनन्ति, लुप्यन्त इति छिद्यन्ते, हन्यन्ते च तसन्तीति नानाविधेभ्यो दुःखेभ्य उद्विजते, कर्माण्येषां संतीति कर्मिणः, यतथैवं तेण पुढो जगाईं पुढो नाम पृथक् अथवा पृथु विस्तारो, सव्वजगाई पुढो पडिसंखाएति परिसंखाय परिगण्येत्यर्थः 'भिक्षु'रिति सुसीलभिक्षुः तम्हा विदू विरते आतगुत्ते तसादिति यसान्निःशीलाः कुशीलाभ संसारे परिवर्त्तमाना स्तनन्ति लुप्प॑ति त्रसंति च तम्हा विदुः विरतिं कुर्यात् पंचप्रकारां अहिंसादी, आतगुतो णाम आत्मसु [202] आत्मारंभाः १९८॥ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥३८१ ४१०|| दीप अनुक्रम [३८१ ४१०] श्रीसूत्रताङ्गचूर्णिः ॥ १९९॥ IN SENSE RENNE “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ७ ], उद्देशक [-], निर्युक्ति: [ ८६ ९० ], मूलं [गाथा ३८१-४१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: गुप्तः खयं वा गुप्तः कायवाङ्मनस्वात्मोपचारं कृत्वा अपदिश्यते आतगुप्तेति, दठ्ठे तसे य पडिसाह रेखा चशब्दात् स्थावरेऽपि, पडिसाहरेअचि इरियासमिति गहिता, अतिकम्मे संकुचए पसारए, इदानीं स्वलिंगकुशीला परामृश्यते, तद्यथा- 'जे धम्मल च विधाय भुंजे वृत्तं । ४०१ ॥ जेति अणिट्टिणिसे, लद्धं नान्येषामुपरोधं कृत्वा लब्धमित्यर्थः, वेतालीसदोसपरिशुद्धं, वा विभाषाविकल्पादिपु, असुद्ध श्री लद्धं असणादि निधायेति सन्निधिं कृत्वा तं पुण अभत्तत्थं, दुचरितं भत्तसेसं वा अन्भट्ठो वा मे अज, एवमादीहिं कारणेहिं सन्निधिं काउं भुंजति, विगतेण य साह विगतमिति विगतजीवं तेनापि च साहद्दुरिति साहरिंग, फासुगे देसे जंतुवजिते संहृत्य यः स्नाति प्रयत्नेनापि देशस्नानं वा सर्वस्नानं वा करोति, किं पुण अहिकडेण १, जो धावती लसयतीव वत्थं धावयति विभ्रूसावडिताए, लूमयति णाम जो छिंदति, छिंदित्तु वा पुणो संघेति वा, पठ्यते च-लीस| एज्जावि वत्थं लीसए नाम सेवते, अथवा सूइठाणाई कारेति, अप्पणो वा परस्स वा तमेव कुथाणं, भट्टारगो भणति - अधाहू से णाअणियस्स दूरे नमभावो हि णागणिगं ततो दूरे वर्त्तते, निर्ग्रन्थत्वस्येत्युक्तं भवति, उक्ताः पासत्यकुसीला । इदाणिं सुसीला, 'कम्मं परिण्णाय दर्गसि धीरे' वृत्तं ॥ ४०२ ॥ व्हाणपियणादिसु कन्जेसु तिविधेन तु उदगसमारंभ य कम्मबंधो भवति तमेवं | ज्ञात्वा संसारगीतो दुविधपरिण्णाए परिजाणेज धीरो-जानको, यथा वा यैः प्रकारैः कर्म बध्यते तान् कर्मबन्धाश्रवान् छिंदित्वा न कुर्यादिति, एवं ज्ञात्वा वियडेण जे जीवति आतिमोक्खं विगतजीवं वियडं - तंदुलोदगादि यच्चान्यदपि भोजनजात विगतजीवं संयमजीवितानुपरोधकृत तेन जीवेयुः केचिरं कालमिति जाब आदिमोक्खो, आदिरिति संसारः स यावन मुकः, ततो वा मुक्तः, यावद्वा शरीरं धियते तावत् किंच-प्रासुकोदकमोजित्वेऽपि सति ते चीनकन्दादि अर्भुजमाणाः, आदिग्रहणान्मू [203] सुशीलाः ।।१९९ ।। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [७], उद्देशक [-], नियुक्ति: [८६-९०], मूलं [गाथा ३८१-४१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक ||३८१ ४१०|| दीप अनुक्रम श्रीसूत्रक- लपत्रफलादीणि गृह्यन्ते, विरता सिणाणा अउ इत्थिगाओ विरता अभ्यंगोद्वर्तनादिषु शरीरकर्मसु, निष्हति कर्मशरीरा, सुक्खा | ताङ्गचूर्णिः लुक्खा णिप्पडिकम्मसरीरा जाव अविचम्मावणद्धा एवं तावदहिंसा गृहीता, इस्थिग्रहणतो अन्येऽपि अवागृयते रात्रिभक्तं च, ततोऽपि | ॥२०॥ विरता, ये चैवं विरतास्तपसि चोद्यता ते संसारे न थणंति, णवा तत्र परिभ्रमन्ति, ण वा कुपीलदोसेहिं जुजंति, पुणरवि पासस्था PA कुसीला परामुस्संति-'जे मातरं च पितरं च हेचा' वृत्तं ॥४०३।। गारं नाम घृह पुत्रादि, पसबो हस्तश्वगोमहिष्यादयः, एवं | कृताकृतं एतं संतं असंतं वा विहाय प्रबजितत्वात् आघाति धम्मं उदाराणुगिद्धो, हिंडतो वा उपेत्य अकारणे वा गत्वा तनिधेसु |कुलेसु दाणभयादिसु अक्खातित्ति आख्याति, धर्मा, उदारानुगृद्धो नाम औदारिकः उदरहेतु धर्म कहेति, उधाहु से सामणितं | श्रमणभावो सामणियं तस्स दूरे बद्दति, कुलाई जे धावति सादुगाई. वृत्तं ॥४०४॥ एवंविधाई कुलाई पुव्वसंधुताई पच्छ।संधुताणि वा जो गच्छति सादुगाई, स्वादनीयं स्वादु स्वादु ददातीति स्वादुदानि, स्वदंति वा स्वादुकानि, अक्खाइयाओ अक्खाइ, धम्मकथाओ वा, जाहिं वा कहाहि रजते, उदाराओ गिद्धो पुन्नो, अथवा उदरग्रथिना आख्या ण वट्टइ काउं, इतरहा तु करे- | अवि कुले जाणित्ता, से आयरियाणं गुणाणं सतसे आयरिया चरित्तारिया तेसि सहस्सभाए सो वमृति सहस्सगुणपरिहीणो|M तती व हेहतरेण, जे लावए 'लप व्यक्तायां वाचि' लपतीति नीति जोवि ताव असणादिहेत, अण्णेण केइ लवावेति अहं एरिसो| Vवा , सोवि आयरियाण सहस्सभागे ण वट्टइ, किमंग पुण जो सयमेव लवइ ?, एवं वत्थपत्तपूयाहेतुमवि । किंच-णिकम्मदीणे | परिभोयणट्टी० वृत्तं ॥४०५।। जो अप्पं वा बहुं वा उवधिं च छडित्वा णिक्खंतोऽसौ सीलमास्थितः रूखानपानतर्जितः अला| भगपरीसहेण वा दीनबां प्राप्य जिभिदियवसट्टो पंचविधस्स आजीवस्स अन्यतमेन आहारमुत्पादयति, सर्वोऽपि हि मोहत्थपर-IC॥२०॥ [३८१४१०] [204] Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [७], उद्देशक [-], नियुक्ति: [८६-९०], मूलं [गाथा ३८१-४१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक ||३८१ ४१०|| | प्रणयदीनो भवति, उक्तं हि-कण्ठविस्वरता दैन्यं, मुखे वैवर्ण्यवेष) । यान्येव नियमाणस्य, तानि लिङ्गानि याचिते ॥१॥ आउश्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः 0 दृणाहेतुं च मुहमंगलियाओ करेति मंखवत् , एरिसो वा तुम दसदिसिप्पगासो तच्चणिगो व जहा कंपति, उदरे हितं उदारिक ॥२०१२॥17 | अन्नपानमित्यर्थः, भृशं गृद्धः प्रगृद्धःणीयारगिद्धेव महाराहे णीयारो णाम कणकुंडकमुग्गमासोदणाण विनिकीर्यत इति नीकारः, वरा दारतीति वराहः, वरा भूमी, स उद्धृतविषाणोऽपि भूत्वा अन्यानुरतोऽपि हि हन्यमानान् दृष्ट्वा तत्र नीकारे गृद्धन् । पश्यति, ततः कचिदेव प्रकता वा, अरेति वा अचिरात्कालस्य प्राप्त जरो व एषति पातमेव, मरणमित्यर्थः, अथवा निकारो नाम यस्यानिरालकरालकमुद्गमाषादीनि स आरण्यवराहा, तेषु प्रगृह्यमाण औपगेषु पतति, कर्षकेम्पो यद् एसति घातमेव, एवमसौ ANIकशील आहारगृद्धः असंयममरणमासाथ गरगतिरिक्खजोणिओ पाविऊण अदमासु निघातमेव, स एवं कुसीलो 'अण्णस्स। VAIपाणस्स इधलोइअस्स' वृत्तं ॥४०६॥ इहलौकिकानि हि अन्नपाणानि दिन मोक्खाय, तेषां ऐहिकानां अन्नपानानां हेतुरिति । वाक्यशेषः, अनुप्रियाणि भापते, एस दारिका कीस ण दीजइ, गोणे किंण दम्मए, एवमादि वणीमगत्तगं करेति, सेवमान इति | वायाए सेवति, आगमणगमणादीहि य, स एवंविधं पासत्थयं चेव कुशीलतं च चशब्दात ओसन्नत संसत च, प्राप्येति । वाक्यशेषः, केवलं लिङ्गावशेषः चारित्रगुणवंचितः णिस्सारए होइ जहा पुलाए जहा धणं कीडएहिं णिप्फालितं णिस्सारं भवति, केवलं तुषमात्रावशेष, एवमसौ चारित्रगुणनिस्सारः पुलकधान्यवत् , इहैव बहूणं समणाणं समगीणं हीलणिजे परलोगे 10 य आगच्छति हत्थछिंदणादीणि, उक्ताः कुशीलाः, तत्प्रतिपक्षे भूतं मूलोत्तरगुणेषु आयतत्वं, सो शीलं प्रतिपद्यते, तत्रोत्तरगुणा नधिकृत्यापदिश्यते, 'अण्णायपिंडेणऽधियासएज' वृत्तं ॥४०७।। ण सयं वणीमगादीहि, अण्णातउ एसति, अधियासणाण | ॥२०॥ दीप अनुक्रम [३८१ NEPARIRAMPA ४१०] [205] Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [७], उद्देशक [-], नियुक्ति: [८६-९०], मूलं [गाथा ३८१-४१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक ||३८१ श्रीसत्रकताङ्गाणि २०२॥ पर्ण ४१०|| दीप अनुक्रम [३८१४१०] अलंभमाणा, ण पूयणं तवसा अ, वह जणे पूयासकारणिमित्तं तपः कुर्यादिति, निवहेज्ज वा, जो पूआसकारनिमित्तं तवं करेंति वीर्यनिरूतेण सो तत्वाणि वाहितो भवति, तम्हा ण णिचहेज्जा, स एवं अण्यो य पाणे य अणाणुगिद्धो, जो हि अण्णायपिंडं एसए सो णियमा अण्णे य पाणे य अणाणुगिद्धो, अथवा अणु-पश्चाद्भाव इति, ण पुरभुत्ते अण्णपाणेसु अणुगिज्झेज्झा, एगग्गहणे गहणंति जहा रसेसु णियतत्ति तहेव सब्बेसु कामेसु णियतिं कुर्यात् , सद्दरूवादिसु असजमाणे ण राग दोसं वा गन्छे, कथं ?, 'सद्देसु य भयपावएस, सोतगहणमुवगतेसु । तुटेण व रुटेण व समणेण सदा ण होयव्यं ।।१।। एवं सेमिंदिएसु, अहवा अपसत्थइच्छाकामेसु मदणकामेसु य, यथैव इन्द्रियजयं करोति तहेव 'सवाणि संगाणि अधि(इ)च धीरो'वृत्तं ॥४०८|| संगाः प्राणिवधादयः जाव मिच्छादसणंति ताणि अणिच्छिऊण सव्वाई परीसहोवसग्गाई दुक्खाई खममाणे-सहमाणे, अखिलो णाम अखिलेसु गुणेसु वर्तितव्यं, अथवा खिलमिति पत्र किंचिदपि न प्रमते ऊखरमित्यर्थः, नैवं खिलभूतेन भवितव्यं, यत्र कश्चिदपि गुणो न प्रस्ते, गुणा णाणादी, अगृद्धे आहारादिसु, ण सिलोयकामी परिवएजा, सिलोको नाम श्लाघा, सर्वतो वएज, स्वात्तदज्ञातपिंडं किंनिमित्तमाहारयति', उच्यते-'भारस्स जाता मुणी भुंजमाणे वृतं ॥४०९|| भारो नाम संयमभारो, जाताएत्ति संयम जाताएनि, संयमजाता मत्तो-णिमित्तं, संजमभारवहणट्ठताए 'सो हु तबो कायब्बो जेण मणो दुकर्ड ण उप्पलेञ्ज', कंखेजा य | उद्यानक्रीडातुल्यं तपो मन्यमानः कंसेजा य पावविवेगं नाम मिक्खू, पावं नाम कर्म, विवेगो विनाश इत्यर्थः, सर्वविवेको मोक्षः, सेसो देसविवेगो, अथवा पापमिति शरीरं, कृतघ्नत्वादशुचित्वाच तद्विवेकमाकांक्षमाणः दुःखेण पुढे धुतमातिएज यदि । पुनरसौ संयम कुर्वाणः शारीरमाणसैः परीपहोपसर्गदुःखैरभिभूयते ततस्तैरभिभूतः धुतमादिएज, धुआं-वैराग्यं चारित्रं उपशमो वा ॥२०२॥ [206] Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [७], उद्देशक [-], नियुक्ति: [८६-९०], मूलं [गाथा ३८१-४१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: वीर्यनिरू प्रत सूत्रांक ||३८१ श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः ॥२०॥ ४१०|| दीप अनुक्रम [३८१४१०] | संजमो णाणादि वा, आदीएज्जचि तमादद्यात् , तेन तेषां जयं कुर्यादित्यर्थः, यथा महारक एव, दमदन्तो वा संगामसीसे यथा | | दमितः बरो-योधः संगामशिरस्यपरान् दमयति, अभिहतीत्यर्थः, एवं अट्ठविहं कम्म जिणिचा परीसहे अधियासेहि, किंचान्यत्| "अवि हम्ममाणे फलगावतट्ठी'वृत्तं ॥४१०॥ यद्यप्यसौ परासहेर्हन्येत अर्जुनकवत्, अथवा फलकादवकटः क्षारेंण लिप्येत सिच्येत वा तथापि अग्रदृष्टः अणिहम्ममाणो वा समागमं कंखति अंतगरस सम्यक् आगमः समागमः, अन्तको नाम मोक्षः, अथवा अन्तं करोतीति अन्तकः, यथा 'नाग्निस्तृप्यति काष्ठानां, नापगानां महोदधिः। नान्तकृत्सर्वभूतानां, न पुसा वामलोचनाः ||१|| स एवं निघृय कर्म-अंतकर्ममासाद्य निश्चितं निरवशेपं वा धृत्वा विध्य, कि ? अष्टप्रकार कर्म, नेति प्रतिपेधे, भृशं प्रपंचं | प्रबंचं जातिजरामरणदुःखदौर्मनस्यादि नटवदनेकप्रकारः प्रपंचको दृष्टान्तः, अक्खक्खए व अश्नोतीत्यक्षः, अथवा न क्षयं जातीत्यक्षः, जहा अक्खक्खए सगडं समविपमदुर्गप्रपातोद्यानादिपु तेपु पुनः संखोभमिन्ति एवं स, एवं निघृय कर्म अचलं निर्वाणसुखं | प्राप्य न पुनः संसारप्रपञ्चमामोति । नयास्तथैव ।। कुसील परिभाषितं सप्तममध्ययनं समाप्त । ' वीरियंति अज्झयणं, तस्स चचारि अणुयोगदारा, अहियारो-तिविधं पीरियं वियाणित्ता पंडियवीरिए जतितब्ब, गाथा 'वीरिए छकं' गाथा ॥११॥ चीरियं णामादि छबिह, णामंठवणाओ गयाओ, वतिरित्तं दबबीरिय सचित्तादि तिविधं, सचित्र | दव्यबीरियं तिविध-दुपद चउप्पद अपदं, दुपदाण वीरियं अरिहंतचकवट्टिवलदेववासुदेवाणं इत्थिरयणस्म य, एवमादीण वीरियंजं जस्स जारिसं सामत्थं, चतुष्पदाणं तु अस्सरयणाईणं सीहवग्धवराहसरमादीण, सरभो किल हस्तिनमपि वृक इव औरणकं उक्खिविऊण अ बज्झति, एवमादि यस्य यच चतुष्पदस्य बोद्धव्यं वा सामर्थ्य, अपदाणं गोसीसचंदणस्स उपहकाले डाहं णासेति ॥२०३॥ | अस्य पृष्ठे अष्टम अध्ययनं आरभ्यते [207] Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [-], नियुक्ति: [९१-९८], मूलं [गाथा ४११-४३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: वीय प्रत सूत्रांक ||४११ श्रीसत्रक- ताङ्गचूर्णिः ॥२०४॥ ४३६|| दीप अनुक्रम तहा कंबलरयणस्स सीयकाले सीतं उण्हकाले उहं णासेति, तहा चकवट्टिस्स गभगिह सीते उण्डं उण्हे सीस, एवं पुढपीमादीणं जस्स जारिस संजोइमाणं असंजोइमाण य गदागदविसेसाण य 'अचित्तं पुण वीरियं' गाथा ॥ ९२ ॥ अचिचं दव्यबीरियं 0 आहारादीणं स्नेहभक्ष्यभोज्यादीनां, उक्तं हि-'सद्यः प्राणकर तोयं०' आवरणाणं च वम्ममादि गुडादीणं च चकरयणमादीणं । अन्येषां च प्रासशक्तिकणकादीणां, किंचान्यत्-जह ओसहाण भणियं वीरियं, विवागे ते विसल्लीकरणी पादलेबो, मेधाकरणीउ य ओसधीओ, विसघातीणि य दव्याणि गंधालेवआस्वादमात्रात् विपं णासेन्ति, सरिसित्रमेत्ताओ वा गुलियाओ वा लोसुक्खे णामेत्ते खेचे विपंगदो वा भवति, अन्यं द्रव्यमाहारितं मासेगापि कल(वपि क्षुधा न करोति, न च यलग्नानिर्भवति, किचकेषाश्चिद्रव्यतो संयोगेण वची आलिचा उदकेनापि दीप्यते, कमीरादिपु च कांजिफेनापि दीपको दीप्यते, योनिप्राभृतादिपु वा विभा सियव्वं । खेतवीरियं देवकुबातीसु सर्वाण्यत्र द्रव्याणि वीर्यवन्ति भवन्ति, यस वा क्षेत्र प्राप्य वलं भवति, यत्र वा क्षेत्रे वीर्य वर्ण्यते, एस चेच अत्थो णिज्जुचीगाथाए गहितो, 'आवरणे कवयादी चमादीयं च पहरणे होति । खेत्तम्मि जम्मि खेत्ते काले जो जंमि कालंमि ॥९४|| कालचीरियं सुसमसुसमादिसु, यस्य वा यत्र काले बलमुत्पद्यते, तद्यथा-वर्षासु लवण- । ममृतं शरदि जलं गोपयश्च हेमन्ते । शिशिरे चामलकरसो घृतं वसंते गुडो वसन्तस्यान्ते ॥ १॥ 'भावे जीवस्स वीरियस्स' गाहा ॥९३।। भाववीरियं जीवस्स सीरियस्स लद्धीओ अणेगविधाओ, तंजहा- उरस्सवलं इंदियवलं अन्झप्पवलं, औरसि भयं औरस्यं, शारीरमित्यर्थः, तं पुण अणेगविध, तंजहा-'मणवयणकाय'गाथा ।। ९५ ॥ मणे तार उरस्सवीरियं जारिसं मणपोग्गलगहणसामत्थं वयरोसभसंघातणादीणं जारिसे पढमसंवतणे मणपोग्गले गेण्हति, तं पुण दुविधं-संभवे य संभव्वे य, तित्थ- ४३६] ॥२०॥ [208] Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [-], नियुक्ति: [९१-९८], मूलं [गाथा ४११-४३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: MAY प्रत वी गचूर्णिः सूत्रांक ||४११४३६|| दीप अनुक्रम ४११४३६] श्रीसत्रक | गरस्स अणुत्तरोषवाइयाणं च अतीपट्टणि मणोदवाणि, संभावणीयं तु यो हि यमर्थ पटुमतिना प्रोच्यमानं न शक्नोति साम्प्रतं ||कर्माकर्म परिणामयितुं, संभाव्यते तु एप परिकर्ममाणं शक्ष्यत्यमुमर्थ परिणामयितुं, तंजहा-तवे तणुतए दुबले, विग्णाणणाण इत्यादि । ॥२०५॥ WI संभाव्यं, वायावीरियमवि विध-संभवे य संभब्वे य, तत्थ संभवे य तित्थगरस्स जोअणनीहारिणी वाणी सबभासाणुगामिणी एतत्संभवति वाचावीर्य तित्थकरे, येषां चान्येपां क्षीराश्रवादिवाग्विषयः, तथा हंसकोकिलादीनां सम्भनति स्वरसेन माधुर्यवीर्य, सम्भाव्ये तु श्यामा स्त्री गाइतव्ये, तंजहा-'सामा गायति मधुरं काली गायति खरं च रुक्खं च एवमादि, तथा संभावयाम | एनं श्रावकदारकं अकृतमुखमप्यक्षरेषु यथावदभिलप्तव्येषु, तथा संभावयामः शुकमदनशलाका मनुष्यवक्तव्येन त्वे मासे सम्भाव्यते, कायबीरियं णाम औरस्यं यद्यस्य बलं, तदपि द्विविध-सम्भवे सम्भाव्ये च, संभवे यदिवा चक्रवर्तिबलदेववासुदेवाणं यद्वाहुवलादि कायबलं, जहा कोडिसिला तिविठ्ठणा उक्खित्ता, अथवा 'सोलस रायसहस्सा एवं जाव अपरिमितवला जिमवरिंदा | संभवेयुः, सम्भाव्यते तीर्थकरा लोकं अलोके प्रक्षेप्तुं, तथा मेरु दंडमिव गृहीत्वा छत्रपद्धत, तहा पभु अण्णतरो इंदो जंबुदीवंतु || वामहत्थेण छ जहा धरेज करयलतो मंदरं घेतं, तथा संम्भाव्यते आर्यदारका परिसर्द्धमानः शिलामेनामुदत, अनेन मल्लेन सहा| योद्धमित्यादि, इंदियवलं पंचविधं सोइंदियादि, एकेकं संभवे सम्भाव्ये च, संभवे यथा श्रोतस बारस जोयणाणि विसओ, एवं | | सेसाणवि जस्स जो, संभाव्येऽपि यस्यानपहतमिन्द्रियं थान्तस्य वा पिपासितस्प वा परिग्लानस्य वा साम्प्रतमग्रहणसमर्थ, यथो| दिष्टानामुपद्रवानां उपशमे सम्भाव्यते विषयग्रहणायेति, उक्तं इन्द्रियवीयं । इदानीं आध्यात्मिकं, तमनेकविधं 'उजमधितिधीरत्तं, A// ॥९६॥ उज्जमो गाम षरीसहोवसग्गाणं जये, सोंडीरो णाम त्यागसंपन्नः अविसादिता, अहवा सोंडीर ज्ञाने-अध्येतव्ये तथैव वा ॥२०५॥ [209] Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [-], नियुक्ति: [९१-९८], मूलं [गाथा ४११-४३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत कर्माकर्म सूत्रांक ||४११ ४३६|| दीप अनुक्रम ४११४३६] श्रीयत्रक- कर्तव्ये, न पराभियोग इव करोति, हायमाणः, अवश्यं मया एतत्कर्तव्यं, न विपीदन्ति चलयति वा, क्षमावीय आकुश्यमानोचि तामणि नक्षुभ्यति, गंभीरो नाम परीपहेर्न क्षुभ्यते, दाउं वा काउं वा णो तुच्छो भवति, उक्तं च-'युल्लुबुलेति जं होइ ऊणयं रिचय कण॥२०६॥ कणेइ । भरियाई ण खुन्भंती सुपुरिसविण्णाणभंडाई ॥१।' उवयोगः सागारअणामारुवयोगपीरियं, सागारोवयोगवीरियं अट्ठविह पंच ज्ञानानि वीण्यज्ञानानि, अणागारोवयोगवीरियं चतुर्विधं, येन स्वविपये उपयुक्तः यो यमर्थ जानीते द्रष्टव्यं च पश्यति, एकेकस्स मत्युपयोगादेः चतुर्विधो भेदो दव्यादि, एवं उपयोगवीरिए जाणति, जोगवीरियं तिविहं, मण्णमझप्पीरियं अकुशलमणणिरोधो । वा कुशलमणउदीरणं वा मणस्स एगतीभावकरणं वा, मणवीरिएणय पियंठसंयता वद्धमाणअवहितपरिणामगा य भवन्ति, वइवी1 रिए भासमाणा अपुणरुतं निरवशेष च भापते वागविषयात्मोपयुक्तः, काये वीर्य सुसमाहितपसन्नादनः सुसहरितपादः कूर्मवद वतिष्ठते, कथं निश्चलोऽहं स्यां इत्यध्यवसितः, उक्तं हि-काएवि हु अज्झप्पं ते तपोवीय द्वादशप्रकारं यस्तदध्यवसितः करोति, । एवं सप्तदशविधे संयमेऽपि, एकत्वाध्यवसितस्य संयमवीर्य भवति, कथमहमतिचारं न प्राप्नुयामिति, एवमादि अध्यात्मवीय, एव]] मादि भाववीर्य वीरियपुव्वे वणिजति विकल्पसः, उक्तं च-"सन्यणदीणं जा होज बालुगा गणणमागता संती। तचो बहुतसे उ अस्थो एक्कस्स पुव्यस्स ॥१॥ सव्वसमुदाण जलं जति पस्थिमितं हवेज संकलणं । तत्तो बहुतरो उ अत्थो एगस्स पुषस्स ॥२॥ सबंपि तयं तिविहं पंडियं बालं च चालपंडितं होइ, तस्थ बालयं तथा पंडितं च, मीसितं च, अथवा दुविधं, तं०-अगाखीरियं अणगास्वीरियं, तत्थ पंडितवीरियं अणगाराणं, आगाराणं तु दुविहं-बालं च बालपंडितं चेति, तत्थ पंडितवीरियंपि सादीयं सपजवसितं च, चालचीरियं जहा असंजतस्त, विविधो तिठाणा, तंजहा-अणादीणं अपञ्जवसितं १ अगाइयं सपञ्जवसियं ॥ ॥२०६॥ [210] Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [-], नियुक्ति: [९१-९८], मूलं [गाथा ४११-४३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: S प्रत सूत्रांक ||४११४३६|| H दीप अनुक्रम ४११४३६] कर्माकर्मश्रीस्त्रकID२ सादीयं सपजवसितं ३, णो चेव णं सादीयं अपञ्जवसितं, अथवा समं तु वीरियं तिविहं-खइयं उपसमियं खओवसमियंति, वीर्य तागचूर्णिःखइयं खीणकसायाणं, उपसमियं उबसंतकसायाणं, सेसाणं तु खोवसमिय, जत्थ सुतं-सस्थमेगे सुसिक्वंति, तत्थ गाथा । २०७॥ 'सत्थं तु असियगादि',गाथा, सत्थं विद्याकृतं मत्रकृतं च, तत्थ विजा इत्यी भंतो पुरिसो, अथवा विद्या ससाथणा मंतो असाहणो, एकेक पंचविहं-पार्थिवं वारुणं आग्नेयं वायव्यं मिश्रमिति, तत्थ मीसं जं दुपतिण्ह वा देवतागं, अथवा विजाए मंतेण य, एताणि अधिदेवगाणि, गतो णामणिप्फण्णो, सुत्ताणुगमे सुत्तमुबारेयवं-तं चिमं सुत्तं-'दुहावेतं समक्खातं' सिलोगो ॥ ४११ ।। दधाति एतं, द्विप्रकार-द्विभेदं बाल पंडित च, चः पूरणे, एतदिति यदमिप्रेत, यद्वा हाध्याये अधिकतं वक्ष्यमाणं, जंवा मिक्खे-14 वणिज्जुत्तीवुतं, सम्यक आख्यातं समाख्यातं तित्थगरेहिं गणहरेहिं च, विराजते येन तं वीरियं, विकमो वा वीरियं, पकरिसेण बुचइ पचुनइ, भृशं सावादितो वा बुचति, किण्णु वीरस्स वीरत्तं केन वीरोत्ति वुचति, किमिति परिप्रश्ने, नु वितर्के, वीर्यमस्खास्तीति वीरा, किं तत् वीरस्स वीर्य ?, केण वा वीरेत्ति वुच्चति, किणा वा कारणेन वीर इत्यभिधीयते ?, पृच्छामः, तत्थ वा करणं वीरियं जं पुच्छितं तदिदमपदिश्यते-कम्ममेव परिण्णाय' सिलोगो ॥ ४१२ ।। क्रिया कर्मत्यनान्तरं, क्रिया हि | चीय, एवं परिणाए एवं परिजानीहि, तस्सेगट्ठिया ओट्ठाणंति वा कम्मति वा बलंति वा बीरियंति वा एगहुँ, पठ्यते च-कम्ममेव पभासंति एवं प्रभापन्ति कर्मभीर्य, अथवा यदिदमष्टप्रकार कर्म तत् औदयिकभावनिष्पनं कर्मेत्यपदिश्यते, औदयिकोऽपि च भावः कर्मोदयनिष्पन्न एव, बालवीरियं बुचति, वितियं अकम्मं वावि सुवता अकर्मनीयं तत् , तद्धि क्षयनिष्पन्नं, न वा कर्म वध्यते, न च कर्मणि हेतुभूतं भवति, सुव्रताः-तीर्थकराः, प्रभात इति वर्तते, परिजानंत इति च वर्तते, तत्तु पंडितवीर्यमपदि-IMA ISHTHANE ॥२०७॥ [211] Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [-], नियुक्ति: [९१-९८], मूलं [गाथा ४११-४३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक ||४११ KAN ४३६|| दीप अनुक्रम ४११४३६] श्रीवाश्य ते एव, गते द्वे स्थाने, त कम्मचीरियं च अकम्मचीरियं च, तत्र प्रमादात् कर्म बध्यते अप्रमादान बध्यते, अथवा द्वाविति बाल कर्माकर्म वाणिः पंडितं च, बालं असंपताण पंडितं संजयाण, तत्र तावत् बालवीरिय अपदिश्यते, अथवा जम्म आदिश्यते वट्टमाणा भविया मणुस्सा, ॥२८॥ तत्कथं ?, उच्यते-पमादं कम्ममाहंसु सिलोगो ॥४१॥ प्रमादात् कर्म भवति एवं वक्तव्यः, कारणे कार्योपचारात् प्रमाद: कर्मेत्युच्यते, स च प्रमादा तहावि संभवे आदिश्ये पंडितं सादिं अपञ्जयसितं, बालं तिविहं, अनादि अपज्जवसितं अभवियाणं, अणादि सपज्जयसितं भपियाणं, सादिसपज्जवसितं सम्मदिट्ठीणं, जं तं बालं कथं होज्जा?, उच्यते 'सत्यमेगे सुसिक्खंति सिलोगो ॥४१४॥ धनुरुपदिश्यते धनुःशिक्षामित्यर्थः, आलीढ० स्थानविशेषतः, एगे असंजता, न सर्वे, अथवा सर्वकारणा अस्त्रशास्त्राणि, अधी| यते हि भीमासुरकग्न कोडिल्लगं धर्मपाठका वैद्यकं वावचरिं वा कलाओ सुटु सिक्खंति असुभेनाध्यवसायेन अतिवाताय | पाणिणंति एवं पुरुषस्य शिर छेत्तव्यं एवं चार्थी प्रत्यर्थी वा दण्डयितव्यो नेत्रादिरागादिमिश्च कारी अकारी च ज्ञातव्यो, अमुकापराधे | वाऽयें दण्डो हस्तच्छेदमारणेत्यादि, किंच-केइ मंते अधिज्जति अमु मंते अभिचारुके अथर्वणे हृदयोण्डिकादीनि च अश्वमेधं | सर्वमेव पुरुषमेधादि च मन्त्रानधीयते, भूतमत्रो धातु गदः विलवादादि, बहूर्ण पाणाणं भूताणं विहेडणे, विद्याधन इत्यर्थः, उक्तं च-'पटुशतानि नियुजते, पशूनां मध्यमेऽहनि । अनमेधस्य वचनात् , न्यूनानि पशुभित्रिभिः॥१॥ ते तु अशुभाध्यवसिताः। | किंच-'माणओ काउ मायाओ' सिलोगो ॥४१५ ॥ तेण चाणककोडिल्लईसत्यादी मायाओ अधिज्जति जहा परो वंचे वन्यो, तहा वाणियगादिणो य उत्कोचवंचणादीहिं अत्थं समजिणंति लोभे तस्य च उत्तरेति माणोवि, एवं मायिणो मायाहि ।। | अत्थं उपजिणंति, यथेष्टानि सावधकार्याणि साधयन्ति, तत एषां कर्मबंधो भवति, कामभोगान समाहरे कारणे कार्यवदुप- ||२०८॥ ENCE [212] Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥४११ ४३६|| दीप अनुक्रम ४११ ४३६] श्रीसूत्रताङ्गचूर्णि : ॥ २०९ ॥ “सूत्रकृत” अंगसूत्र-२ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ८ ], उद्देशक [-] निर्युक्ति: [ ९१-९८ ], मूलं [गाथा ४११-४३६ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: - चारः, अर्थ एव कामभोगाः तत्समाहरंति इति, पठ्यते च आरंभाग तिउद्दड़ आरंभा त्रिभिः कायवाङ्मनोभिः आउडती तिउ इति, बहवे जीवे एगिंदियादि जाब पंचिदियति बुच्चति य एवमादि आरभ्यते पापं तं तु मणसा वयसा कायसा, जवएण भेदेणं जीवे हणतो, बंधन्तो उद्धसेन्तो आणवेन्तो कुट्टेन्तो अर्थोपार्जन परो निद्दाय हंता गामादि छेता मियपुच्छादि पकतिया इत्थिदंतादि इत्थादि वा आतसाता मणसा 'कइया वचड़ सत्थो०' | गाथा ||४१६ ॥ कात्रेण किलिस्संतो, पढमं मणसा, पच्छा वायाए, अंतकाले कारण, आरतो सयं, परतो, सयं परतो, अण्ोण दुहावि, स एवं 'वैराणि कुबंति बेरी' सिलोगो ॥४१७॥ स वैराणि कुरुते वैरी, ततो अण्णे मारेति अण्णे बंधति अण्णे दंडेति अण्णे निव्विस आणवेति चोरपारदारिययचोपगादि बहुजणं वेरेति | जेसु वा थाणेसु रज्जति सञ्जति मज्जति अज्झोववञ्जति, पठ्यते च-जेहिं वेरेहिं कज्जति, ततस्ते वैरिणः इहभवे, परभवे च करकथादीहिं किति, छिद्यन्त इत्यर्थः, जाणि वा करेति ताणि से से अहियतराणि पडिकरेंति, रामवत्, जहा रामेण खचिया ओच्छादिता, 'अपकारसमेन कर्मणा, न नरस्तुष्टिमुपैति शक्तिमान । अधिकां कुरु वैरयातनां द्विषतां जातमशेष| मुहरन् || १|| सुभोमेणावि तिसचखुतो णिरंभणा पुहवी कता, पापोपका य आरम्भः पापाः पापोपगाः पापयोग्याः, पापानि वा उपगच्छन्त्यारंमिणः, आरंभा हिंसादयः, दुःखस्पर्शा दुहावहाः दुःखोदयकरा इत्यर्थः, अन्ते इत्यर्थः, अन्ते इत्यन्तशः मृतस्य नरकादिपु 'पावाणं खलु भो कडाणं कम्माणं दुचिण्णाणं जाव वेदद्दत्ता भोक्खो, णत्थि अवेदइत्ता, तवसा वा जोसड़ा ' अष्टानामपि प्रकृतीनां यो यादृशोऽनुभावः स तथा फलति ॥४१७॥ किंच-संपरागः तेसु वा तासु गतिषु संपराणिज्जतीति संपरामः - संसारः, अथवा पर इत्यनभिमुख्येन बध्यमानमेव वेद्यते, निगच्छंति प्राप्नुवं ते, आर्चा नाम विपयकपायार्त्ता, दुकडकारिणो [213] आरंभ वर्जनादि ॥ २०९॥ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [-], नियुक्ति: [९१-९८], मूलं [गाथा ४११-४३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक ||४११ श्रीसूत्रक- तानचाण: ॥२१०|| वीर्यादि ४३६|| दीप अनुक्रम दकडाणि-हिंसादीणि पावाणि कुर्वन्तीति दकडकारिणः, किं निमित्तं? रागदोसस्सिता वाला बालवीर्याः, स एव प्रकृतिः वह किर कालं ठितो मोहणीयस्स विभासा, ततस्तैः पापैः कर्मभिः साम्परायमेव णियच्छंति संसारमित्यर्थः, तत्र च नरकादिषु | दुःखान्यनुभवन्ति । 'एतं सकम्मवीरिय'सिलोगो॥४१९॥ सकर्मवीरियंति वा बालवीरीयंति वा एगहूँ, इदानीं अकम्मवीरि| यति वा पंडितवीरियंति वा एगटुंति, केरिसो पुण पंडितो ?-'दविए बंधणुम्मुके' सिलोगो ॥४२०।। रागद्दोसविमुको दविओ, | वीतराग इत्यर्थः, अथवा वीतराग इव वीतरागः, बन्धनोऽल्पो मुक्तकल्पः, पंडितवीर्याचरणेभ्यः सव्वसो छिन्नबंधणेचि सिद्धस्तेन | नाधिकारः, ये पुनः प्रमादादयो हिंसादयः रागादयो वा तेषु कार्यवदुपचारात् उच्यते-सबतो छिण्णवन्धणे, न तेषु वर्तत इत्यर्थः, कषायअप्पमत्तो वा सः अकर्मवीरा, एवं चेव अकर्मवीरियं चुञ्चति, कथं अकर्मवीरियं ।, यतस्तेन कर्म न बध्यते, न च तत्कर्मोदयनिष्पन्न, येन कर्मक्षयं करोति तेन अकर्मवीर्यवान् , पणोल्ल पावयं कम्मं प्रमादादीन् पापकर्माश्रवान् तान् | अणुध सल्लं कत्तेति अप्पणो भावकम्मसल्लं अट्ठप्पगारं तत्कृतति छिनत्तीत्यर्थः, अन्तसोत्तिं यावदन्तोऽस्य, निरवशेषमित्यर्थः, केन कृतन्ति ? किं वा आदाय कृतन्तीति ?, उच्यते-धम्ममादाय, कीदृशः धर्मः?णेयाउअंसुअक्खायं सिलोगो॥४२१॥ नयनशीलो नैयायिको, कुत्र नयति ?, मोक्षं, सुष्टु आख्यातः सुअक्खाय, उपादाय-तं गृहीत्वा, सम्यक ईहते समीहते ध्यानेन, किं ध्यायते ?, धर्म सुकं च, तदालंबणाणि तु भुजो भुजो दुहावासं भूयो भूय इति बीप्सार्थः, अतीतानागतानि अणन्ताई |N UI भवग्गहणाई, सकम्मवीरियदोसेण भूयो भूयो णरगादिसंसारे णाणाविधदुःखावासे सारीरादीणि दुक्खाणि भुञ्जो २ पापति, अशुभ-| भावः अशुभत्तं तहा तहा तेन प्रकारेण यथा कर्म तथा तथा शुभं फलति, अथवा अशुभमिति अशुभभावना गृहीता, यथा शुभं ४३६] ॥२१॥ [214] Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [-], नियुक्ति: [९१-९८], मूलं [गाथा ४११-४३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: অহাখাस्वादि प्रत सूत्रांक ||४११ श्रीसूत्रकतामणिः ॥२१॥ ४३६|| दीप अनुक्रम ४११४३६] | किं? सह कडेवर०, एवमनित्याद्या, अशुभा अपि, द्वादश भावना गृहीता, तत्रानित्यभावना 'ठाणी विविधठाणाणि' सिलोगो ॥ ४२२ ॥ स्थानान्येषां सन्तीति स्थानिनः, देवलोके तावदिन्द्रसामानिकत्रायविंशाया, मनुष्येष्वपि चक्रवर्तिवलदेववासुदेवमण्डलिकमहामण्डलिकादि, तिर्यक्त्वेऽपि यानीप्टानिष्टानि, विविधानीति उत्तम मध्यमांधमानि, तेभ्यः स्थानेभ्यः सर्वस्थानिनः चइस्संति, नात्र संशयः उक्तं हि-'अशाश्वतानि स्थानानि, सर्वाणि दिवि चेह च । देवासुरमनुष्याणां, ऋद्धयश्च सुखानि च ॥१'किंच'अणितिए इमे वासे' जीवतोजपि हि अनित्यः संवासो भवति, कैः-ज्ञातिमिः, ज्ञातयो नाम मातापितृसंबंधाः, सुहृदः शेपा मित्रादयः, 'एवमादाय मेधावी' सिलोगो ॥४२३॥ एवमवधारणे, आदाएति एवं युद्ध्या गृहीत्वा, यथा सर्वाणि अशाश्वतानि, पंडितगुणवीर्यगुणांश्च मोक्षे च शाश्वतं स्थान आदाएत्ति, अथवा द्वादशसु भावनासु यदुक्तं तमादाय, उपधारयित्वेत्यर्थः, आत्मनैव आत्मनि गृद्धिमुद्धरेत् ममीकारमित्यर्थः, तं०-हत्था मे पादा मे जीविजामि, जेसुवा कलत्रखजनमित्रादिपु गृद्धिरुत्पद्यते तेभ्य आत्मनैव आत्मनि गृद्धिमुद्धरेत् , किश्च-गिद्धिमुद्धरेमाणो आयरियं उपसंपजेज, स्वाध्यायतपादी उत्तरोत्तरगुणानुपसंपद्यमानः चरिचारियं मन्गं उवसंपञ्जञ्जा, आयरियाण चा मग्गं उवसंपज्जेज, सर्वे धर्माः कुतीथिकानां ण अकोविता, अकोविता नाम ण केहिंवि कोविज्जति, कोवितो णाम पितः, कूटकापणवत्, च्छेदो पुण ण कोविज्जइ, ते कथं उपसंपज्जइ ?, दोहिं ठाणेहि, सहसमु| तिआए णचा' सिलोगो ॥ ४२४ ।। शोभना मतिः सन्मतिः सहजात्ममतिः सहसन्मतिः स्वा वा मतिः सन्मतिः, सह मतीए | सहस्संमतिमं प्रत्येकबुद्धानां निसर्गसम्यग्दर्शने या, पित्तज्वरोपशमनदृष्टान्तसामर्थ्यात् आमिणिवोहियसुर्य उग्घाडेति, जहा इलाइ| पुत्तेण, धम्मसारं सुणेत्तु वा, यथा तीर्थकरसकाशादन्यतो वा धर्म एन सार: धर्मसारः, धर्मस्य वा सारः धर्मसारः, चारित्रं ॥२१॥ [215] Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥४११ ४३६|| दीप अनुक्रम ४११ ४३६] श्रीसूत्रक्रताङ्गचूर्णि: ॥२१२॥ AND TASTERS “सूत्रकृत” - अंगसूत्र- २ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ८ ], उद्देशक [-] निर्युक्ति: [ ९१-९८ ], मूलं [गाथा ४११-४३६ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: तं प्रतिपद्यते, पच्छा उ उत्तरगुणेसु परकमति पंडिवीरिएण पुन्त्रकम्मक्खयट्ठिताए, एवं सो दविओ, हिंसादि वा बन्धण विमुको अकम्पीरिए उवद्विते य मेहावी परिघातपाय धम्मे उबट्टिए अकम्मवीरिए वा वट्टमाणपरिणामे मेहया धावतीति मेधावी प्रत्यारूपाति हिंसादि अट्ठारस संयतविरत पडित पञ्चकखायपात्रकम्मे स एवमुत्तरगुणेसु पट्टमाणो 'जं किंचि उवकमं णचा ' सिलोगो ॥ ४२५ ॥ यत्किचिदिति उपक्रमाद्वा अवाएण वा अहवा तिविहो उनको भत्तपरिण्णाइंगिणादि, आयुषः क्षेममित्यारोग्यं शरीरस्य च उपद्रवा आत्मन इत्यात्मशरीरस्य तस्सेव अंतरद्धा तस्सेति तस्यायुःक्षेमस्य, अन्तरद्धा इत्यन्तरालं, यावन मृत्युरिति, ये बद्धा मूढा संज्ञाः, सिप्पमिति खिप्पं, संलेहणा विधि शिक्षेत्, सिक्खा दुविहा-आसेवण सिक्खा गहणसिक्खा य, ग्रहणे तावत् यथावन्मरणविधिर्विज्ञेयः आसेवनया ज्ञात्वा आसेवितव्यं यद्यदिच्छति मनसा आसेपणसिक्खा 'जहा कुम्मो सयंगाई ०' सिलोगो ||४२६|| मरणकाले च नित्यमेव यथा कूर्म्मः खान्यङ्गानि पंचस्वेव देहे समाहरति नाम प्रवेशयति, ततः शृगालादिभ्यः पिशिताशिभ्यः अभिगम्यो न भवति, एवं पावेहिं अप्पाणं, पात्राणि हिंसादीनि कोदादीणि च, मरणकाले चाहारोपकरण सेवणव्यापाराच आत्मानं संहृत्य निर्व्यापारः संलेखनां कुर्यात्, आत्मानमधिकृत्य यः प्रवर्तते तदध्यात्मं, ध्यायो वैराग्यं एकाग्रता इत्यादिनाऽध्यारमेन पापात्समाहरेति, तत्र त्रयाणां मरणानामन्यतमं व्यवस्थते, इह तु पाओवगमणमधिकृतं येनापदिश्यते 'संहरे हत्थपादे य' सिलोगो ||४२७|| हस्तपादप्रवीचारं संहृत्य निष्पन्दस्तिष्ठेत् कार्य च संहर उल्लंघनादिभ्यः सर्वेन्द्रियाणि वा स्वे स्वे विषये संहर, रागद्वेपनिवृत्तिं कुरु, पापगं च परीणामं वृत्तं, णिदाणादि इहलोगासंसपयोगं च संहर इति वर्त्तते, भासादोसं च पावगंति वाम्गुप्तिर्गृह्यते, एवं भचपरिष्णाए इंगिणीएव अयतनं साहर, जतं गच्छेज्ज जतं चिट्ठेज्जति, दुर्लभं पंडितमरणमासाद्य कर्मक्षयार्थं [216] उपक्रमादि ॥२१२॥ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [-], नियुक्ति: [९१-९८], मूलं [गाथा ४११-४३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: मानवर्ज नादि प्रत सूत्रांक ||४११ ४३६|| दीप अनुक्रम ४११४३६] | सदोपयुक्तेन माव्य, तत्थ णं जद अपदिश्यते 'अणु माणं च मायं च ॥४२८॥ अथवा मरणकाले च सर्वकालमेव अणु माणं श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः IIIच मायं च संपरिणाय पंडिते, अणुरिति स्तोकोऽपि मानो न कर्त्तव्यः, किमु महान् , अनुरपि च मायां न कारयेदिति ॥२१॥ पंडितः, पठ्यते च-अतिमाणं च मायं च, तं परिणाय पंडिते अतीव मानो यथा सुभोमादि, कोऽर्थः?-यद्यपि सरागस्य मानोदयः स्यात्तथापि उदयप्राप्तस्य विफलीकरणं कार्य, सुतं मे इहमेगेहिं, एवं वीरस्स वीरियं श्रुतं मया तीर्थकरात् स्थविरेभ्यो वा इहेति इहलोके प्रवचने वा, एकेप न सर्वेपा, तद्वीर्यवतो वीरस्य पंडितवीरियं यदुक्तं वीरस्य वीरत्तं इति, यथा वा | स्याथवसानमिति तद् व्याख्यातं, स एवं मरणकाले अमरणकाले वा पंडितवीर्यवान् महाव्रतेपद्यतः स्यात् , तत्राहिंसा प्रथम, उडुमहे तिरिय दिसासु जे पाणा तमथावरा । सवत्थ विरतिं कुजा संतिनिध्वाणमाहितं, अस्य श्लोकस्य चर्चा उक्ता, किंच-पाणे य णातिवाएज अदिण्णंपि य णातिए। साति ण मुसं बूया, एस धम्मे बुसीमयो॥४२॥ एवं तावत् पाणातिवायं वजेज, ण वा अदिण्णादाणं आदिएज्जा, सादियं णाम माया, सादिना योगः, सह सातिमा सातियं, न हि मृपावादो मायामंतरेण भवति, स चोत्कंचणकूडतुलादिसु भवति, सातियोगसहितो मुसाबादो भवति, स च प्रतिपिध्यते, अन्यथा तु न मृगान् पश्यामि|ण य वल्लिकाइयेसु समुहिस्सामो एवमादि ब्रूयात् , येनात्र परो वंच्यते तत्प्रतिषिध्यते, कोहमाणामायालोभसहितं वचः, धर्म योऽयं उक्त खभावः, चुसिमतां वसूनि ज्ञानादीनि । अयं भारवए णिचं भवे भिक्खू कण्ठय, अतिकर्मति वाचाए मण| सावि ण पत्थए।४३०॥ अतिरिति अतिक्रमणे, येनातिक्रम्यन्ते एतानि पञ्च महात्रतानि सोऽतिक्रमः, तत्र प्राणातिपातमधिकृत्यापदिश्यते-तिपाद एव त्रिभ्यः पातयतीति तिपात: तन्मनसापि न प्रार्थयेत् , किंनुवचसा कर्मणावा?, नवकेन भेदेन, एवं शेपा ॥२१ [217] Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥४११ ४३६|| दीप अनुक्रम ४११ ४३६] श्रीसूत्ररुताङ्गचूर्णिः ॥२२४॥ “सूत्रकृत” - अंगसूत्र- २ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ८ ], उद्देशक [-] निर्युक्ति: [ ९१-९८ ], मूलं [गाथा ४११-४३६ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: णामपि जाव परिग्रहः, एवं तावत्स्वयं न करोति व्रतातिचारं योऽपि तमुद्दिश्यान्यैः प्राणातिपातः कृतः क्रियते वा तत्राप्ययमुपदेशः 'कडंच कीरमाणं च ' सिलोगो ॥ ४३१ ॥ अहाकम्मादि कर्ड अगेहेमाणो णाणुजाणाति, कीरमाणमवि जं जाणति मट्ठाए तं णिवारेति णो खलु मम अड्डाए किंचिवि करणिजं, एवं जोवि आत्मनिमित्तं असंजमस्तैः कृतः तद्यथा-शिशोः शिरछिन्नं छिद्यते वा बध्यो हतो हन्यते वा मांसाद्योपकानि सच्चानि तानि हन्यते वा तमपि कडं च कजमाणं च णाणुजाणाति, आगमिस्सं च पावगंति जहणं कोइ भणिजा-अहं ते आउसंतो समणा ! अमणं वा ४ उवक्खडेमि तंपि णिवारेति, णो खलु मम अड्डाए किंचि करणिजं, एवं असंजतोबि जो जं हंतिकामे तंपि आगमिस्तं पावगं सव्वं तं णाणुजाणति, सर्वमिति तंनिमित्तं वाकर्य कजमाणं वा वगेण भेदेण णाणुजाणंति पंडिया, आत्मनि आत्मसु या गुप्ता जितेन्द्रिया जीहादोपणियत्ता, अथवा सर्वमिति आहारोपकरणादि सेजाओऽचि बायालीसदोस परिसुद्धाओ घेप्पंति, एवं ते भगवन्तः संयमवीरियावस्थिता नवकेन भेदेन तदाऽतिचारमकृतवन्तु ये तु तद्विधर्मिण: बालवीर्यावस्थिता अपि गृहेभ्योऽपि निःसृताः सन्तः जे याबुद्धा महाभागा ॥ ४३२ ॥ जे (इति) अणिदिनिद्देसो अबुद्धा वादिणः, अथवा न बुद्धा अबुद्धा, चालवीर्यावस्थिताः सकम्मवी रिए वर्द्धति, तहा पाणं न यतति महाभागाः विजाए बलेण वा, यथा बुद्धः तपश्वि, निमित्तबलेन वा यथा गोशालाः, रायपव्वगा वा बहुजणनेतारः बहुजनेनाश्रियन्ते, पूयासकारणिमित्तं विज्जाओ निमित्तानि य पयुंजभाणा तपांसि च प्रकाशानि प्रकुर्वन्ति तेषां बालानां यत्किंचिदपि पराक्रान्तं तदशुद्धं भावोपहतत्वात्, नवकेनापि भेदेन अज्ञानदीपाञ्च, एवमादिभिर्दोषैरेशुद्धं तेसिं परवन्तं, अशुद्धं नाम यथोक्तैर्दोष:, पराक्रान्तं चरितं वेष्टितमित्यर्थः, कुवैद्यचिकित्सावत्, सफल होति सङ्घसो फलं णाम कम्मबंधो, तत्तत्कर्मबन्धं प्रति सफलं भवति, [218] SUG कृतादि निषेधादि ॥२१४॥ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [-], नियुक्ति: [९१-९८], मूलं [गाथा ४११-४३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: सफलतादि प्रत सूत्रांक ||४११ श्रीरत्रकताङ्गचूर्णिः २१५॥ ४३६|| | सर्वश इति सर्वाः क्रियास्तेषां कर्मवन्धाय भवन्ति, कथं , सर्व हि कटुकविपाक सुचरितमपि पुद्गलस्य मिथ्याहटेः, निर्वाणं या प्रत्यसफलं भवति, सर्वशः सर्वाः क्रियास्तद्विपरीताः सच्छासनप्रतिपन्ना, जे तु बुद्धा महाभागा सिलोगो ॥४२३।। स्वयं बुद्धास्तीर्थकरायास्तच्छिष्या वा बुद्धबोधिता गणधरादयः, महाभागा इति, चउरासीइ उसममामिणो सिस्ससहस्साणि, उसभसेणस्स | बत्तीसं समणसाहस्सीओ गणो आसी, एवं जाव बद्धमाणसामी, तत्संघस्स चतुर्विधस्स परिमाणं भासितवं, प्रत्येकबुद्धाः पुनः | साम्प्रतं न महाभागा?, केचित्तु पूर्वमासीत् , ये चान्ये राजादयः पूर्व महाभागाः आसीत्पश्चाद्वा जातास्ते वीरा इति-अम्मीरिए वट्टमाणा सरागा वीतरागा वा वीरा, तपसि णाणादीहि वा चीराजंतीति वीरा, विदारयन्तीति वा कम्माणि, सम्म पस्संतीति सम्मतदंसिणो, तेसिं भगवंताणं शुद्धं तेसिं परिकंतं शुद्धं णाम णिरुवरोधं सल्लगारवकसायादिदोसपरिशुद्ध अनुपरोधकृत् भूतानां तन्विउपासणाविधे संजमे च पराक्रान्तिः अफलं होति सव्वसो फलं णाम कर्मवन्धनं तं प्रत्यफलं, कथं ?, संजमे अणण्हयफले | तवे बोदाणफले, उक्तं च-निरासस्साई निस्सुखदुःखं० कल्पनं धर्मसु, वाचा निष्फलं, मोक्षणं वा प्रति सफलं, एवं पूर्व पश्चाद्वा महा|| जननेतृणां महाजनविज्ञातानां च तेसिं तु तवो सुद्धो सिलोगो ॥४२४॥ तेषामिति जे जहुत्तकारिणो, जेति ता णिदिट्ठा, महं | प्राधान्ये कुलं ईक्ष्वाकुकुलादि, केचिद्वा ज्ञातकुलीया अपि भूत्वा विद्यया तपसा सौर्याद् विस्तीर्णा भवन्ति नन्दकुलवत्, एत्थ चउ| भंगो, किंचि कुलतोवि महन्तं जणओवि एवं चउभंगो, एत्तो एगतराओवि णिक्खंतो महाकुलतो, महद्वा कुलमेपां महाकुलाः, भगवानेव छउमत्थो, छउमत्थकाले अबमाणते परेणं तु, ण सिलोगं वयंति ते सिलोगो नाम श्लाघा, अमुक राजा वा आसी| दिति इभ्यो वा शालिभद्रादि तत्पूजासत्कारश्लाघादिनिमित्तं कुलं न कीर्चयितव्य कुलादिकार्यनिमितं वा न कीर्चेत । किं वा दीप अनुक्रम ४११४३६] ॥२१५ [219] Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||४११ ४३६|| दीप अनुक्रम [४११ ४३६] श्रीयुतकु ताि ॥२१६॥ mand, ratio bong) erre ku, “सूत्रकृत” - अंगसूत्र- २ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ८ ], उद्देशक [-] निर्युक्ति: [ ९१-९८ ], मूलं [गाथा ४११-४३६ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: 'अपपिंडास पाणासी' सिलोगो ||४३५|| संयमेऽपीयमेव वर्ण्यते, तेण अप्पपिंडासि अप्पं पिंडमश्नातीति अप्पपिंडासी, असंपुष्णं वा एवं पाणपि, अट्टकुकुडिअंडगपमाणगित्ते कवले आहारमाहारेमाणे अप्पाहारे, दुवालस अद्धोमोदरिया, सोलस दुभागपत्तं, चउवीस ओमोदरिया, तीसं पमाणपत्ते, बत्तीसं कंवला संपूण्णाहारो, एतो एकेणावि ऊणं जाव एकगासेण एगसित्थेण वां, एवं उवकरणोमोदरिया, अप्पं भासेजति अनर्थदण्डकथां न कुर्यात्, कारिणेऽपि च नोचैः, भणिता दव्वोमोदरिया, भावे तु 'खंतेऽभिणिव्वुडे दन्ते' अक्रोधनं क्षान्तिः, अमिणिव्बुढो नाम निवृत्तीभूतः शीतीभूतों, अर्थशीलो अर्थेषु ज्ञानादिपूयतः, दंत इति दंतेन्द्रिया, तबसा यं विगते गेहाणि दाणादिसु गेहिविप्पमुक्के य ण पडुप्पण्णेसु रञ्जति, ण य कंखामोहं करेइ, 'झाणयोगं | समाह' सिलोगो || ४ ३६ ॥ ध्यानेन योगो ध्यानयोगः प्रशस्तध्यानयोगं सम्यक् हृदि आहत्य चोद्धृत्य 'कार्य वोसिन सबस' सर्वश इति आहारक्रियामप्यस्य न करोति, स्वेदजलमल्लपहरणादीश्च बाह्यक्रिया, तितिक्खं परमं णचा तितिक्षा णाम परीपहोवसर्गाधियासणं, तितिक्षणमेव परं मोक्षणं मोक्षसाधनं चेत्येवं च ज्ञात्वा आमोक्षाय परिवपत्ति आमोक्षायेतियावन्मोक्षगमनं ता परिव्वएजासिति, शरीरमोक्षो वा, परि समता सच्चओ वएजासि, भगवानाह - एवमहं ब्रवीमि न परोपदेशादित्यर्थः । णयास्तथैव || वीर्याख्यमष्टममध्ययनं समाप्तं ॥ धम्मोत्ति अज्झयणस्स चत्तारि अणुयोगदारा, धम्मो अत्थाहिकारो, उक्तः उपक्रमः, णामणिष्कण्णे धम्मो, सो पुण 'धम्मो पुव्वुद्दिट्टो ||१९|| धम्मट्टकामाए, तं चैव य इहावि परूवेयब्यो, इह तु भावधम्मेण अहिकारो, एष एव धर्म्मः, एष एव भावसमाधिः, एष एव च भावमार्गः। तत्थ धम्मस्स णिकखेवो णामं ठवणा धम्मो० गाथा ||१००|| वतिरित्तो दन्यधम्मो तिविही अस्य पृष्ठे नवमं अध्ययनं आरभ्यते [220] अल्पपिंडाश्यादि ॥२१६ ॥ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [-], नियुक्ति: [९९-१०२], मूलं [गाथा ४३७-४७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः ॥२१७। सूत्रांक ||४३७ ४७२|| सचित्तादि, तत्थ सचिनस्स जहा चेतना धर्मः, चेतना स्वभाव इत्यर्थः, अचित्ताण जहा धम्मत्थिकायस्स० जा जस्स धम्मता, जहा | ID द्रव्यधर्मादि | 'गतिलक्षणोतु धम्मो, अधम्मो ठाणलक्षणो। भायणं सवदवाणं, भणितं अवगाहलक्खणं ।।१।।' पोग्गलत्थिकायो गहणलक्षणो, मिस्सगाणं दवाणं जा जस्स भावना, यथा क्षीरोदकं सीतलं धातुरक्तवर्द्धकं काशायी यावन परिणमत्युदकं । तावन्मिथं भवति, गृहस्थानां च यः कुलग्रामादिनगरधर्मः, दानधम्मोत्ति यो हि येन दत्तेन धर्मो भवति स तसिन् देयद्रव्ये कार्यवदु-IP पचारादानधर्मो भवति, यथा-अन्नं पानं च वखंच, आलयः शयनाशनम् । शुश्रूषा वन्दनं तुष्टिः, पुण्यं नवविध स्मृतं ॥१॥"लोइय || लोउत्तरिओ' गाथा ॥१०१॥ भावधम्मो दुविहो लोइओ लोउत्तरिओ य, लोइओ दुविहो-गिहत्थाणं कुपासंडीणं च, लोउत्तरियो तिविहो-णाणं दंसणं चरितंच, णाणे आमिणिबोधिगादिना दंसणे उवसामगादिना, चरिते पंचविहो सामायगादिना | पाणिवधवेरमणादिना वा, चतुर्विधो वा चाउजामो, रातीभोयणवेरमणछट्ठो वा छब्धिहो, पासढभावधम्मद्वितेहिं पासत्थो, अण्णा- | दीहिं दाणग्रहणं ण काय, संसग्गी वा, तत्थ पासत्थोसण्णकुशीलसंथवो, एत्थ अत्थे गाथा 'पासस्थोसग्णकुसीलसंथवो | ण किर बहते काउं। सूयकडे अज्झयणे धम्मम्मि णिकाइयं एयं ॥ १०२ ।। णामणिप्फण्णो गतो। सुत्ताणुगमे सुत्तमुच्चारेयव्वं, 'कतरे धम्मे आघाते' सिलोगो॥४३७।। कतरे केरिसोवा, आघात इत्याख्यातो, माहन इति भगवानेव, समणेति । वा माहणेत्ति वा एगहुं, मन्यते अनयेति मतिः-केवलमिति, मतिरस्याम्तीति मतिमान् , अतस्तेन मतिमता, एवं जंबुगामेण पुच्छिओ सुधम्मो आह-'अजुधम्मो जहा तहा'अंजुरिति आर्जवयुक्तः, न दंभकव्वादिमिरुपदिश्येत, ते कुशीला बालवीर्यवन्तः, ते नार्जवानि ब्रुवते, ब्रुवते वा न वयं परिग्रहवन्तः आरंभिणो वा, एतत्सङ्घस्य बुद्धस्य उपासकानां वा इति, भागवतास्तु नारायणः करोति ॥२१७|| दीप अनुक्रम [४३७४७२] [221] Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [-], नियुक्ति: [९९-१०२], मूलं [गाथा ४३७-४७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत श्रीमत्रक धर्मादि सूत्रांक मागचूर्णिः ||४३७ ४७२|| दीप अनुक्रम हरति ददाति वा, उक्तं हि-यस्य बुद्धिर्न लिप्येत, इत्वा सर्वमिदं जगत् । आकाशमिव पङ्केन, न स पापेन लिप्यते ॥१३॥ नैवं भगवता अनार्जययुक्तो धर्मःप्रणीतः, भगवता तु यो यथावस्थितस्तं तथैव मत्वा निरुपधो धर्मोपदिष्टः, न लोकपक्तिनिमित्तं, ग्लानायुप1॥२१८॥ धिना गा किंचित्सावद्यमान वर्तव्यमित्युपदिष्टं, जिनानामिति पष्ठी, जिनानां संतक तीतानागताना, पठ्यते च 'जणगातं सुणेह में' यथोद्दिष्टधर्मप्रतिपक्षभूतस्त्वधर्मस्तत्र चामी वर्चन्ते । 'माहणा क्षत्रिया वेस्सा' सिलोगो।। ४३८ । माहणा मरुगा सावगा वा, खत्तिया उग्गा भोगा राइण्णा इक्खागा, राजानः तदायिणच, अथवा क्षत्रेण जीवन्त इति क्षत्रियाः, वैश्या सुवर्णकारादयः,ते हि हवनादिमिः क्रियामिधर्ममिच्छन्ति, चण्डाला अपि त्रुवते-वयमपि धर्मावस्थिताः कृष्यादिक्रियां न कुर्मः, बोकसा णाम संजोगजातिः, जहा भणेण सुद्दीए जातो णिसादोत्ति वुचति, बंभणेण वेस्साए जातो अम्बट्ठो बुचति, तत्थ मिसाएगं अंबट्ठीए जातो सो बोकसो बुचति, एसिया वेसिया एपंतीति एपिका-मृगलुब्धका हस्तितापसाश्च मांसहेतोर्मुगान् हस्तिनश्च एपंति, मूलकन्दफलानि च, ये वा परे पाखण्डा नानाविधैरुपायैः भिक्षामेति, यथेष्टानि चान्यानि विपयसाधनानि, अथवैपिका वणिजः, तेऽपि फिल कालोपजीवित्वाम किल कुर्वते, अथवा वैश्या स्त्रियो वैशिकाः, ता अपि किल सर्वा विशेपाद्वैश्यधर्मे वर्तमाना धर्म कुर्वन्ति, शूद्रा अपि कुटुम्बभरणादीनि कुर्वतो धर्ममेव कुर्वते, उक्तं हि-या गतिः क्लेशदग्धानां, गृहेषु गृहमेधिनाम् । पुत्रदारं भरतानां, PA ताङ्गति ब्रज पुत्रक! ॥१॥ ये अनुद्दिष्टा च्छेदनभेदनपचनादि दवे, भावे आरंभे णिस्सिता णियतं सिता णिस्सिता, 'परि ग्गहे णिविट्ठाणं सिलोगो ॥४३९॥ परिग्गही मचित्तादि ३, दव्वादिचतुर्विधो वा, तेसिं माहणादिकुशीलाणं परिग्गहे णिविट्ठाणंति उपजिणंताणं सारवंताण य णडविणटुं च सोएन्ताणं, तेर्सि पावं पचड़ति, आउअवजाउ सत्त कम्मपगडीओ सिढिलबंधण [४३७४७२] ॥२१८॥ [222] Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [-], नियुक्ति: [९९-१०२], मूलं [गाथा ४३७-४७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: आरंभसंभृतादि प्रत श्रीसूत्रकताडाचणिः ।।२९१॥ सूत्रांक ||४३७ ४७२|| दीप अनुक्रम बद्धाओ धणियचंधणबद्धाउ करेति, एतेषां आरंभसंवुत्ता कामा, हिंसादिआरंभेन संवृचा, आरंभसंभुता कामा अथवा संमता नाम आरम्भ एषां संमतः, कथं आरंमि णिस्सिया तिष्ठन्ति, सालिसं, उक्तं हि-आरंभारंभकर्माणि, थान्तः श्रान्तः पुनः पुनः। तथा न ते प्राणैरपि परिरक्षिता जराज्याध्युदये दुःखोदये वा मृतौ वा प्राप्ते तस्मान्दुरखान्मोचयन्ति, न च नरकादिपु प्राप्तस्य | ततो नरकादिपु दुःखाद्विमोचयंति । आघातं किच्चमाधेतु'सिलोगो॥४४०॥आहन्यतेऽनेनेति आघाएत्ति, मरणमित्यर्थः, आघाते आघातस्य वा कृत्यं मरणकल्यमित्यर्थः, आघाते शरीरं संस्कारयित्वा दहंति मृतकृत्यानि चास्य पितृपिंडादीनि आघाएत्ति तमाध्याय कुर्वति, महिपच्छागाद्याश्च वध्यन्ते, करकतभक्तानि कुर्वन्ति, उक्तं हि-'अवहत्थेण य पिंडं परिपिंडेऊण पत्थरेंतस्स ।' इत्यादि | मरणकृत्यं, अथवा आघेतुं-काऊण तं पणिधाय, ये तस्य भ्रातृपुत्रादयो दायादाद्या जीति शब्दादिविषयैपिणो तेन मृतधनेन वयं भोगान् भोक्ष्यामहे, अज्ञातयोऽपि दासभृत्यमित्रादयः तत् च्युतं धनं तर्कयन्ति, अपुत्राणां च मृतकूटं राजा गृह्णाति, एवं वै | राज्यादिसामन्यं, अपणे हरंति तं वित्तं अन्य इति अन्य एव दायादाद्याः मृत्यराजचोरादयः, हरंति वा विभयंति वा जाति वा एगहुँ, उक्तं च-'ततस्तेनार्जितैर्द्रव्यदीरैश्च परिरक्षितैः । क्रीडन्त्यनेन राजानः (न्ये नरा राजन्) हएतुष्पा ह्यलंकृताः ॥ १॥ कर्म अस्यास्तीति कम्मी, तत्कर्माय स्वकर्मनितितां गतिं प्राप्य, तत्कर्मफलमन्वेपति । 'माता पिता पहुसा भाता' सिलोगो ॥४४१उरसि भवा औरसाः औरसा अपि ताच तके न त्राणाय, किं क्षेत्रजातादयः ?,'णालं ते मम ताणाए' यथैव मात्रादयो न त्राणाय सम्बन्धेन तथैवारम्भपरिग्रहावपि न त्राणाय, विपयाच णालं भवते मम ताणाए, लुप्यमानस्येति शारीरमानसे| दुःखैदर्मिनस्सु इहभवेऽपि न तावत्राणाय किात परभव इति, कालसोअरिअपुत्तो मुल सो अभयकुमारसखा श्रावक [४३७४७२] ॥२१ [223] Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [-], नियुक्ति: [९९-१०२], मूलं [गाथा ४३७-४७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्राक ||४३७ ४७२|| दीप अनुक्रम [४३७ परमाथादि श्रीसूत्रक- दारको, थावकचासौ दारकथ, दृष्टान्त 'एतमहं सपेहाए' सिलोगो ॥४४२॥ अथमिति योऽयमुक्तोऽर्थः, न बर्मिकाणामिह नागनूर्णिः परत्र चा लोके गरणमस्तीति, वाणं वा, सम्म पेहाए, परमः अर्थः परमार्थः मोक्ष इत्यर्थः, तं परमार्थ अनुगच्छन्ति परमट्ठाणुमामी, ।।२२०॥ यथोद्दिष्टेषु मात्रादिपु वैराग्यमनुगच्छन्ति, ज्ञानादयो वा परमार्थानुगामिकाः, स एवं साधुः 'णिम्ममे जिरहंकारें नास्य कलत्रमित्रवित्तादिपु बाह्याभ्यन्तरेषु वस्तुपु ममना विद्यते इति निर्ममः, न चाहंकारः पूर्वैश्वर्यजात्यादिपु च मम्प्राप्तेष्वपि च तपःवाध्यायादिपु, घरेदित्यनुमतार्थः, जिणाहितं आख्यातं, मार्गमित्यर्थः, चारित्रं तपो बैगम्यं वा, त एवं मात्रादयो नाम सम्बन्धिनः न ग्राणायेति इत्यतः 'चेचा पुते य मिते य'सिलोगो ॥४४३॥ पुत्रे खधिकः स्नेहः तेनादौ ग्रहणं क्रियते, मिचा तिविहामहनावकादयः, महजातकाः पूर्वापरमम्बन्धिना, परिग्गहो हिरण्यादि, चेचाण अत्तगं मोतं त्यया चेचाण आत्ममि भवं आत्मकं नत्र मित्रज्ञातयः परिग्रहावं बाहिरंग मोतं, मिज्छत् कमाया अण्णाणं अविरती य एतं अनगं सो, श्रोतद्वारभित्यर्थः, पठनते | च-चेचाण अंतगं सोतं अण्णत्ता अगाणागिरती मिच्छत्तपञ्जवा, उभयमवि वा, णिएये कम्बो परिवार औज्जुगं धम्ममणुपालेन्तो न पुत्रदारादीनि पुनरपेक्षते, उक्तं हि-'छलिता अवयक्खन्ता गिरवेक्वा गता मोक्वं' म एवं प्रबजितः स्वरुचिनाऽवस्थितात्मा IV अहिंसादिषु अतेपु प्रयतेत, तत्राहिमाप्रमिद्धये जीचा अपदिश्यन्ते-पुढवी उ अगणि याऊ सिलोगो ॥४४४।। कंठच, सर्वेषां 14 HP भेदो वक्तव्यः, अयथार्थ परिहते इत्यतो भेदः, पतेहि कहि काहिं मिलोगो॥४४५॥ एतेहिंति जे उदिट्ठा छकाया, निजामति | शिष्यनिर्देशः, विचतित्ति विद्वान , म एव शिष्यो निर्दिश्यते तद्विद्वान् , परिजाणिया परिजाणिउं, परिणगाए दुविधाए, मनसा | काययकेणं णारंगीण परिग्गही एकके काये णनगो भेदो, न च परिग्गहं कुर्यात् , परिगहनिभिगो हि मा भूत्कायारम्भः, ॥२२०॥ HANIHITamittha, MEINEISAR ४७२]] Palamaya [224] Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||४३७ ४७२|| दीप अनुक्रम [४३७ ४७२] श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णि: ॥२२१॥ if “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ९ ], उद्देशक [-], निर्युक्ति: [ ९९- १०२ ], मूलं [गाथा ४३७-४७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णिः एवं सेसाणिवि वयाणि पालेख, अष्णहा 'मुसावातं यहिद्धं च सिलोगो || ४४६ ॥ चहिद्धं मिथुनपरिग्रहो- गृह्यते, तत्र वर्त्त । मानोऽतीय धर्माहिर्भवतीति वहिर्द्ध, उग्गहं जमजाइयमिति अदत्तादाणं, एताणि सत्यादाणाणि लोगंसि शस्यते अने नेति शस्त्रं, शस्त्रस्य आदानानि शस्त्रादानानि, लूयंत इत्यर्थः कस्य शस्त्रस्य ?, असंयमस्य तदेतद् विद्वत्वरीजानीहि, अथवा उपदेशो भवति, तदेतद् विद्वान् परिजानीयात् । इदानीं उत्तरगुणः-पलिउंचणं च भयणं च' मिलोगो ||४४७|| सर्वतः कुंचनं पलिउंचणं माया, भंजणं भजते वाऽसाविति असंयते जनः लोभः, स्थण्डिलास्थानीयं करोति, क्रोध एवं स्थण्डिलः पूर्वैवर्ण्यादि च, उच्छ्रयनमुच्छ्रयः उच्छ्रयणादिति, बहुवचनं जात्यादीनि अष्टौ मदस्थानानि 'धुत्तादानानि लोगंसि' धूर्तस्यायतनानि कर्म पसुतय इत्यर्थः एवं यद्यदा वर्जयितव्यं तत्सर्वमिह श्रमणधर्मे वर्ण्यमानेऽपदिश्यते, उत्तरगुणाधिकारे च पठ्यते 'धावणं रयणं चेव' सिलोगो ||४४८ ॥ धावणं वस्त्राणां रयणं तेपामेव दन्तनखादीनां च चमणं च विरेयणं, मुखवर्णसौरूष्यार्थं च चमनं करोति, विरेचनमपि बलाग्निवर्णप्रासादार्थ, वत्थिकम्मं सिरोवेधं तं विअं परिजाणिया, बस्थिकम्मं अणुनासणाणि महा वा, तत्थ पलिमंथो संजमस्स, 'गंधमलसिणाणं च 'सिलोगो || ४४९ ॥ गन्धाश्वर्णादयो, मलं गंधमादी, सिगाणं देसे सब्वे, दंतपकखालणं दंनधोवणं जहा कुंचकुंचा वेति, परिग्गहं हत्थकम्मं च परिग्गदो सचित्तादि, इत्थी तिविद्याओ, कम्मं हत्यकम्मं स्यात्पूर्वं बहिद्धावर्जनमुपदिष्टं इत्यतः पुनरुक्तं, उच्यते, तद्भेददर्शनात्र पुनरुकं, 'उदे सिघं की तकडे ॥ ४५० || कंठो सिलोगो 'आसूणियं' ।। ४५१|| आस्तनिकं णाम श्लाघा येन परैः स्तूयमानः सुज्झति यावत्थुणोति यावद्वाऽनुसरति तावत्सुज्झति मानेनेति इत्यास्तूनिकं, अथवा जेण आहारेण आहरितेण सुणी होति, बलवन्तं भवति, व्यायामस्नेहपानरसायनादिभिर्वा अक्षिरागं अंजनं गृद्धिर्बाह्येऽभ्यन्तरे वा वस्तुनि, उपोद्या [225] मृषावादा दित्यागः ॥२२१॥ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [-], नियुक्ति: [९९-१०२], मूलं [गाथा ४३७-४७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: कल्कादिबजेन प्रत श्रीसूत्रक- ताङ्गचूर्णिः ॥२२॥ सूत्रांक ||४३७ ४७२|| दीप अनुक्रम तकर्म णाम परोपघातः तच करोतीत्याह, जातितो कर्मणा सीलेण वा परं उवहणति, उच्छोलणं च हत्थपादमुखादीनां, कल्केन अद्दगमादिणा हत्थपादमुपत्थगचाणि उब्बट्टेति तं विद्वान्परिजाणिया 'संपसारी कतकिरिए'सिलोगो ॥४५२।। संपसारगो णाम असंजताणं असंजमकजेसु सामत्थं देति उवदेसं वा, कयकिरिओ णाम जो हि असंजयाणं किंचिदारम्भं कृतं प्रशंसति, तथथा-साधु गृहं कृतं, साधुश्चायं सदृशः संयोगः, पासणियो णाम यः प्रश्न छेदति, तद्यथा-व्यवहारेषु मिथ्याशास्त्रगतसंशयिके व्यवहारे तावद्यदेष ब्रवीति तत्प्रमाणं, शास्त्रेष्वपि लौकिकशास्त्राणां व्याख्यानं ब्रवीति, भावछके या साहति सागारियपिंडवत् , विजं परिजाणिया कंठथं । 'अट्ठापदं ण सिक्खेजा'सिलोगो॥४५२।। अट्ठापदं नाम द्यूतक्रीडा, न भवत्यराजपुत्राणं, तमष्टापदं न शिक्षेत , | पूर्वशिक्षितं वा न कुर्यात् , वैधा नाम यूतं तच समृसितंगे, रुधिरं जंतछिज्जति ण, हत्थकम्मं विवाहं च हत्थकर्म हस्तकर्म(बत् 'हस्ते खण्ड' गाथा, विवादो विग्रहः कलह इत्यनान्तरं, स तु स्वपक्षपरपक्षाभ्यां विजं विद्वान् , परिजानीहि ।'उवाहणाउ छत्तं च'सिलोगो॥४५४|| उपानहो पादुके च वर्जयितव्ये, छत्रमपि आतपप्रकर्षपरित्राणार्थ न धार्य, नालिका नाम नालिकाक्रीडा कुदुकाक्रीडत्ति, परकिरिया अण्णामांच, परकिरिया णाम णो अण्णमण्णस्स पादे आमजेज वा पमजेज वा जहा छ? सत्तिकाते, अण्णमण्णकिरिया णाम इमोवि इमस्स पादे आमजति वा रएइ, इमोवि इमस्स, 'उचारं पासवर्ण' सिलोगो ।। ४५५॥ कंठयं विगडं णाम विगतजीवं, विगतजीवेणापि तावत्तन्दुलोदगादिना न तत्र कल्पते आयमितुं, किमु अनवगतजीवेणं, एवमन्यत्रापि, अथंडिले पडिसिद्धं, साहटुरिति विगतजीवं साहरिऊग ताणि वा हरिताणि साहरितूणं । 'परमत्ते अण्णपाणं तु ॥ ४५६ ॥ परस्य पात्रं गृहिमात्र इत्यर्थः, अथवा पडिग्गहधारिस्स पाणिपात्र परपात्रं, पाणिपरिग्गहियस्सवि पडिग्गहो परपात्रो भवति, पर [४३७४७२] ॥२२२।। [226] Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत श्रीसूत्रसूत्रांक तावचूर्णिः ॥२२३॥ ||४३७ ४७२|| दीप अनुक्रम [४३७ ४७२] “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ९ ], उद्देशक [ - ], निर्युक्ति: [ ९९-१०२], मूलं [गाथा ४३७-४७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: वत्थं च अचेलतिएवि परस्य वखं गृहिवत्रमित्यर्थः, तत्तावत्सचेलो वर्जयेन् मा भूत्पश्चात्कर्मदोपः हते दोपथ, यद्यप्यचेल कः स्यात्, | एवं तावत्सचेलकस्य यः पुनरचेलकस्यात्मीयमपि वस्त्रं तत् पश्वत्रमेव, न हि तस्य तदनुज्ञातं, स्वयं चोत्सृष्टत्वादित्यतः परव 'आसंदी पलियंकं' सिलोगो ||४५७|| आसंदी त्यासंदिका सर्वा आसनविधिः, अन्यत्र काष्ठपीठ केन, पलियंकेन, पलियं कः पर्यक एव, 'गंभीर विजया एते० ' इत्यादयो दोपाः, गिहंतरे णिसेज्जं ण बाहेज 'अगुती बंभचेरस्स, पाणाणं च बधे वध' इत्यादयो दोषाः, 'संपुच्छणं च सरणं वा' संपुच्छणं णाम किं तत्कृतं न कृतं वा स पुच्छावेति अण्णे, केरिसाणि मम अच्छीणि सोभंते ण वेति एवमादि, ग्लानं वा पुच्छति किं ते वट्टति ? ण वह वा १, सरणं पुव्वरतपुण्यकीलिया में तं विद्वान् परिजानीहि । जसं कित्ति | सिलोगं च ' सिलोगो || ४५७ ।। दानबुद्ध्यादिपूर्वं यशः तपः पूजामत्कारादि पश्चाद्यशः, यशः एव कीर्त्तनं जस किसी, सिलोगो णाम श्लाघा नीतितपोबाहुश्रुत्यादिभिरात्मानं श्लाघेत, चंदनपूर्यााउविण कामए, ण वा कजमाणासु रागं गच्छेजा, सबलोगंसि | जे कामा कामा दुविहा इच्छामदनभेदात् पञ्चविधा वा, किंच- 'जेणेहं विहे भिक्खू' सिलोगो ॥ ४५९॥ जेणेति जेण धम्मकहाए वा संथवेण वा, आजीववणीमगतेण वा, अन्नतरेण वा उवघातणादोसेणं, अण्णहेतुं वा पाणहेतुं वा पर्युजमाणेण इमा ओवम्मा, | णिव्वहति नाम निर्गच्छति, तन्न कुर्यादिति, अथवा जे हिं णिहं णिव्वाहेति येनास्य इहलौकिकं किंचित्कार्य निष्पद्यते मित्रकार्य, प्रति दास्यति वा मे किंचित्, परित्रास्यति वा, धरिस्मह वा मे किंचित् उवगरणजातं, एवमादिकं किंचिदिहलोकिक कार्य निर्वाहकं साधकमित्यर्थः, तं पडुच अण्णं पाणं वा, सील मंते सुसीलो वा, न पुनः परमार्थेन, शीलवन्तः साधुः तस्स मुधेत्र णिजराए दायचं, नत्विहलौकिकं किंचिन्निर्वाहकं प्रतीत्य दायनं, अथवा शीलवानिति श्रावकः, अशीला नाम मिथ्यादृष्टयः तस्मिन् शीलवति वा [227] Sedan had परवखादि वर्जनं ॥२२३॥ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [-], नियुक्ति: [९९-१०२], मूलं [गाथा ४३७-४७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: निबन्ध प्रत त्वादि सूत्रांक ||४३७ ४७२|| दीप अनुक्रम श्रीसूत्रक- दाणं विवज्जए। 'एवं उदाह णिग्गंधे' सिलोगो ॥४६॥ एवमवधारणे, उदाहृतवान् उदाहः, नास्य ग्रन्थो विद्यत इति निर्ग्रन्थः ताङ्गचूर्णिः महावीरः, स एव च महामुनिः, किं महं ? यदसौ मनुते, अणंतं णाणईमणं च, धर्म देशितवान् , थुतमिति कम्मंतरं, धर्म ॥२२४॥ अनेन श्रुतधर्मेण चारित्रधर्मावशेषमेव श्रुतधर्मेणापदिश्यते 'भास माणो ण भासेज'सिलोगो ॥४६१॥ अथवा तेण भगवता भापासमितेनायं धर्म उद्दिष्टः योऽप्यन्यं कथयति सोऽप्येवमेव कथयतु, भासमाणो ण भासेज्ज, यो हि भाषाममितः सो हि भाषामाणोऽप्यभाषक एव लभ्यते, उक्तं च-'वयणविभत्तीइ कुसलो वयोगतं बहुविधं वियाणंतो। दिवसंपि जंपमाणो सोवि हु वइगुत्ततं पत्तो ॥१॥ जहाविधीए परिहरमाणो मचेलोवि अचेल एवापदिश्यते, जहा वा आकंडुअगोय णिठुभगो य, अथवा भाममाणे ण भासेज्ज, ण रातिणियस्स अंतरं भासं करेज्जा, ओमरातिणियस्म वा, णो य चंफेज मंमय बफेति Aणाम देसीए भासाए उल्लाबो वुचति, तदपि च अपार्थक अश्लिष्टोक्तं बहुधा तं वंफेतिचि बुचति, अथवा ण वंफेज्ज मम्मयंति, कथं ?, जातिकुशीलतवेहि मर्मकृत् भवतीति मर्मक, मायाठाणं न सेविज माया णाम गूढाचारतो कृत्वाऽपि निहवः, करिष्यमानच न तथा दर्शयत्यात्मानं, यदा वक्तुकामो भवति तदा पूर्वापरोऽनुचित्य बाहरे। किंच, 'संतिमा तधिया भासा' सिलोगो ॥४६२।। सन्तीति विद्यन्ते, तधिका नाम सद्भुना इत्यर्थः, भाष्यत इति भाषा, अनेके एकादेशात् जं वदित्ताऽणुतप्पति खयमेव चौरः काण: दामस्तथा राजविरुद्धं वा लोकविरुद्धं वा एप वा इणमासी, अनुपातो हि दोपं प्राप्य वा बन्धघातादि भवति, अप्राप्तस्य परं वा सागसं निरागसं वा दोपं प्रापयित्वा चानुतापो भवति, किंच-'जं छगणं तं न वत्तव्यं छण हिंसायां यद्विहिसके तन्न वक्तव्यं, तद्यथा-लूयतां केदारः युजनां शकटानि गोध्यतां निविश्यन्तां दारका इति, एसा आणा णियंठिया PHTTARAKASHANTERTAISIST [४३७ ४७२] २२४॥ [228] Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [-], नियुक्ति: [९९-१०२], मूलं [गाथा ४३७-४७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक HER ||४३७ ४७२|| दीप अनुक्रम होलाबादआज्ञा नाम उपदेशः, णियंठा इति निर्ग्रन्थः, एपा महाणियंठाण था, एपा आज्ञा उपदिष्टा, किंच॥४६॥ होला इति देसीभापातः, IN श्रीसत्रक | निषेधादि ताङ्गचूर्णिः समवया आमन्यते यथा 'लायनं कोइ रे हेल्लनि, सहीवादमिति सखेति, सोलवादो प्रियभाप इव, गोत्रावादो वा पठ्यते, ||२२५॥ यधा किं भो! ब्राह्मण क्षत्रिय काश्यपगोत्र इत्यादि, तुमं तुमंति अपडिपणे जो अ तुमंकारभिजे, वृद्धो वा प्रभविष्णुर्वा स | न वक्तव्यः, अपडिण्णो णाम साधुरेव, सव्वसो तं ण वचए-सर्वशस्तन्न ब्रूयात् । किंच-यदुक्तं णिज्जुत्तीए-'पासत्थोसष्णकुसीलसंथयो ण किर वदति तदिदं-'अकुशीले सदा भिक्खू सिलोगो ।। ४६४ ।। कुत्सितं शीलं यस्य स भवति कुशीला, स तु | पासत्यादीणं एग, ततो पंचण्हवि, तन्न तावत् स्वयं कुशीलेन भाव्यं, णो य संसग्गियं भये न च तैः संसगी कुर्यात , संस-1 र्जन संसगिः, आगमणदाणग्रहणसंप्रयोगान्मा भूत् 'अंबस्स य णिवस्स यत्ति तं न संसर्गिं तैर्भजेत् संसर्गिस्तद्भवं गमयति-कथं : सुहरूवा तत्थुवसग्गा सुखरूपा नाम सुखस्पर्शाः, तद्यथा को फासुगपाणीएण पादेहिं पक्वालिजमाणेहिं दोसो ?, तहा दंतHI पक्खालणे, उम्पट्टणे, एवं लोगे अवण्णो न भवति, अहवा सुख इति संयमः, संयमानुरूपा हि तत्रोपसर्गा भवन्ति, मणे बई, त्रिवि घेनापि करणेन सातिं मनुते, णणु को आहाकम्मे दोसो,ण वा सरीरोऽधम्मो भवति, तेण शरीरसंधारणत्थं उपाहणसन्निधिमादिसु को दोसो ?, उक्तं हि-'अप्पेन बहुमसेजा, एतं पंडितलक्षणं ।' संपयं हि अप्पाई संघयणाई चितिओ य तेण एवमादिसु रूवेसु उवसग्गेसु पडिबुझेज, तेवि हु पडिबुज्झेज णाम जाणेजा, जाणिचा ण संसम्गि कुजा, यदापि नाम स्यात् पहच्छया तैः संसग्मी | तदापि एवमादि मुहरूवे उवसग्गे पडिबुज्झेज, तेचि हु पडिबुज्झिऊणं ण सदहेज, यथाशक्तितश्च अभिहन्यात् । किंच-मिक्खा-101 दिनिमित्तं च गृहपतिमनुप्रविश्य तत्र 'नन्नत्य अन्तरायण' सिलोगो ॥४६५।। अंतरागं 'जराए अभिमूतोवा, वाहितो तपस्वी' ॥२२५॥ [४३७४७२] [229] Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [-], नियुक्ति: [९९-१०२], मूलं [गाथा ४३७-४७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक श्रीसूत्रक ॥२२६॥ ||४३७४७२|| दीप अनुक्रम इत्यादि, गामकुमारीयं कि, ग्रामधर्मः क्रीडा, कुमारक्रीडा च गामकुमारीय, किं तत्र, ग्रामक्रीडा हास्सकन्दर्पहस्तस्पर्शनालिंगनादि ताभिः साई, एवं वा स्त्रीभिः क्रीडते अति, पुभिरिति साई, कुमारकानां क्रीडा कुमारक्रीडा, तब तंदुमआदालिंगादि, तंतु खुद्धगेहिं सार्द्ध गिहत्थकप्पट्टगेहि वा महंतेहिं वा सबकेली न कायव्या, नचातीत्य वेलां हसे मुणी, वेला मेरा सीमा मजायत्ति चा एगहुँ, नातीत्य मार्यादां इसे मुणी, 'जीवे णं भंते ! हसमाणो वा उस्सुयमाणे वा कइ कम्मपगडीओ बंधा', गोयमा! सत्तविहबंधए वा अढविहबंधए वा इह हसतां संपाइमवायुवधो। किंच-'अणुस्सुओसिलोगो॥४६६।। अणिस्सि(णुस्सु)ए उरालेहि, उराला नाम उदाराः शोभना इत्यर्थः, तेषु चक्रवादीनां सम्बन्धिषु शब्दादिपु कामभोगेसु अन्यैश्वर्यवत्राभरणगीतगान्धर्वयानवाहनादिपु इह च परलोके वा अनिःसृतो अपमत्तो परिधए, अन्येषु वा आहारादिपु, चरियाए अप्पमत्तो, चरिया भिक्खुचरिया तस्यामप्रमचः स्याद्, यदि नाम तस्यामप्रमत्तः परीपहोपसर्गः स्पृशेत् ततो समाधिमधियासए।'हम्ममाणो न कुप्पेज'सिलोगो ॥ ४६७।। वुच्चमाणो असिलोगो नाम असुस्वस्समाणो निदिजमाणो वा णिब्भत्थिजमाणो वा न संजले, न हि विदितःकोधा मानाभ्यामिन्धनेनेव वाग्निं संजले, तं पुण समणो अहियासेजा, सुमणो नाम रागदोसरहितो, ण य कोलाहलं करे ण उक्कट्टि बोल बा करेज, राजसंपसारियं वा । किंच-'लद्धे कामे ण पत्थेजा' सिलोगो ॥४६८। लद्धा णाम जइ ण कोइ वत्थगंधअलंकारइत्थीसयणासणादीहिं णिमंतेज तत्थ ण गिण्हेज, जओ धावितो, अथवा लद्धे कामे तवोलद्धीओ आगासगमणविभुतादीओ अक्खीणमहाणसिगादीओ य ण दाव उवजीवेज, ण य अणागते इहलौकिके एता एव वत्थगंधादीए, परलोगिगे वा, जहा बंभदत्तो तहा ण पस्थेज, एवं ताव विवेगो आख्यातो भवति, किंच-आयरियाई सेवेज आचरणीयाणि आयरियव्याणि दुषिधा [४३७४७२] ॥२२६॥ [230] Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [-], नियुक्ति: [९९-१०२], मूलं [गाथा ४३७-४७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सुबुद्धशश्रूपादि सूत्रांक ताङ्गणिः ||४३७ ४७२|| दीप अनुक्रम भीमत्रक एवि सिक्खाए, केसामंतिगं?-सुवुद्धाणं, सुठ्ठ बुद्धा सुबुद्धा गणधराद्याः यथा यदा काले (दा ये यदा काले)आचार्या भवन्ति। | किंच-'सुस्सूसुमाणो उबेहेज' सिलोगो ॥ ४६९।। श्रोतुमिच्छा शुश्रूपा, कोऽर्थः ?, पूर्वमुक्तं आयरियाई सिक्खेज सुबुद्वाणं, ॥२२७ तेपां सकाशादिदानी तदर्थसुथूपा तथैव, उपासित, सु पत्थं शोभनप्रजें, सुप्रज-गीतार्थ प्रज्ञावन्तं, स तवस्सितं सुतवस्सितं, यदि चेत्संविग्ग इत्यर्थः, तत्र के विधाचार्याः शरणं, बीरा जे अत्तपण्णेसी वीराजन्त इति वीरा, आत्मप्रज्ञमपन्तीति आत्मप्र पिणः, आत्मज्ञानमित्यर्थः, कथं ?, येनात्मा ज्ञायते येन वाऽस्य निस्सरणोपायः संयमवृतिव्यवस्थित इति, पुरुपादानीयाः सेव्यंत | इत्यर्थः, राजानो राजामात्यादिकाय पंडिता धर्मलिप्सयो वा, पुरुपादानीया यदा संवृता भवन्ति इत्यतः प्रवति, प्रबजितास्तु 'ते बीरा पंधणुम्सुका ॥४७०।। अहवा पूर्व गृहवासे द्विविधमपि भावद्वीपं अदृष्टवन्तःप्रवजामुपेत्य पुरुपादानीयाः यदा संवृता | भवन्ति धर्म लिप्सुभिः पुरुपैरादानीयाः, अथवा ग्राह्याः पुरुपा इत्यादानीयाः, अथवाऽऽदानीय इत्यादानार्थिकः साधुः पुरुप आसौ आदानीयव पुरुपादानीयः, ते धीरा इति आदानीयाः, वीराजन्त इति वीराः, चन्धनानि कालादीनि तेभ्यो मुका बंधणुम्मुका, न तदसंजमजीवितं पुनखकाइते विषयकपायादिजीवितं वा, जं तं कपायादिजीवितं पासत्यादिजीवितं तदिदं । तंजहा'अगिद्धे सदफासेसु' सिलोगो ॥४७१।। मणुण्णेसु सद्देसु फासेसु य अगिद्धेण भवितव्यं, रूवेसु अमुच्छितेण भवितब्ब, एवं गंधरसेसु, अमणुण्योसु य सब्वेसु देसो न कायब्यो, णिगमणमिदाणिं अपदिश्यते 'सव्यं तं समयातीय' सबमिति यदिदं । Hel धर्म प्रति इह मयाऽध्ययनेऽपदिष्ट, समय आरुहत एव, आदियंति भक्षणं, सामाभ्यन्तरकरणमात्र, अद भक्षणे, समयेण अतीतं सम याभ्यन्तरे ण, समयेनाबद्धमित्यर्थः, अथवा ये वा परे कुसमयास्तान् कुसमयान् तदतीतं, अज्ञानदोपाद्विपयलाभस्वावनतराचर्यत । [४३७४७२] ॥२२७॥ [231] Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||४३७ ४७२|| दीप अनुक्रम [४३७ ४७२] श्रीसूत्रक ताङ्गचूर्णिः १० समा० ॥२२८॥ “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ९ ], उद्देशक [ - ], निर्युक्ति: [ ९९-१०२], मूलं [गाथा ४३७-४७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: इत्यर्थः, किं तत् ?, यदिदं लवितं बहु, लवितं नाम कथितमित्यर्थः, किंच-उक्तावशेषमिदमपदिश्यते 'अतिमाणं च मायं च' सिंलोगो || ४७२ || अतिरतिक्रमणादिषु, अतिशयेन मानं अतिमानं एवं मायामपि चशब्दात् क्रोधलोभावपि, कोऽर्थः १, यदपि च चेत् क्रोधोदयः स्यात्तथापि तस्य निग्रहः कार्यः न तु साफल्यं, एवं शेषाणामपि अज्झवसेया, यद्यपि मानार्हेष्वाचार्यादिषु प्रशस्तो मानः क्रियते सरागत्वात् तथापि तमतीत्य योऽन्यो जात्यादिमानः तं परिण्णाय-तं दुविधाएवि परिण्णाए परिणाय परिजागञ्ज, शेपेष्वपि प्रयोजयितव्यं, गारवाणि य सङ्घाणि इडीगारवादी गि, परिज्ञायेति वर्त्तते, णिवाणं संघए मुणि निव्वाणमिति संयम एवं तं संयगं अच्छिष्णसंघणाए ताव संधेहि जावं परं संयमाणं संघितं, अथवा निर्वाणमिति मोक्षः संधित इति ॥ धर्माध्ययनं नवमं समाप्तं ॥ समाधिति अज्झयणस्स चत्तारि अणुयोगदारा, अहियारो से समाधीए, एसो य जाणितुं फासेतब्बो णामणिफण्णे, 'आदाणपदेणाधं गोण्णं णाम' गाथा (१०३) यस्मादादौ व्यपदिश्यते 'आघंति मतिमं अणुवीति धम्मं' इतरथा त्वध्ययनस्य समाधिरिति संज्ञा, तेनैवार्थाधिकारः, जहा असंख्यस्स आदाणपदेण असंखतंति णाम, तं पुण पमायापमादत्ति अज्झषणं वुचति, जेण तत्थ पमादो अप्पमादो य वणिजति, तहेब लोगसारविजयो अज्झयणं, आदाणपदेणं पुण आवंतिचि बुच्चति, एवमादीणि अज्झयणाणि आदाणपदेण बुचंति, गुणणिष्फण्णेणं पुणाई णामेण तेसिं णिक्खेवो भवति, एयस्स पुण गुणणिष्कण्णं णाम समाधिः, सा च षड्विधा भवति, 'णामं ठवणादविए' गाथा (१०४) तत्थ दव्यसमाधी णं 'पंचसुवि य विसएस' गाथा (१०५) श्रोत्रादीनां पंचानामपि इन्द्रियाणां यथास्वं शब्दादिभिर्मनोज्ञैर्विपर्या तुष्टिरुत्पद्यते सा द्रव्यसमाधिः, अथवा दवं जेवण तु दवेण अस्य पृष्ठे दशमं अध्ययनं आरभ्यते [232] 74 अतिमानवर्जनादि ॥२२८॥ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१०], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१०३-१०६], मूलं [गाथा ४७३-४९६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत श्रीमत्रक सूत्रांक तागपूर्णिः ॥२२९॥ ||४७३ ४९६|| दीप अनुक्रम | समाधी, साधितं च ज द सोमणवण्णादि सा दब्बसमाधिः, क्षीरगुडादीणां च समाधि अविरोध इत्यर्थः, दब्वेण समाधिरिति, All समाधिः जहा उपजुताणं परिणामिगसमाधिरित्यादि, आहितं विच्यं ददति, जहा तु लोए आहितंति समं भवति, एमादब्बसमाधिः, खेततो समाहि खेतसमाही, जहा दुभिक्खहताणं सुभिक्खदेसं पाचिऊण समाधी, तथैव चिरप्रवसितानां स्वगृहं प्राप्य, जत्थ वा सेने समाधी वण्णिाजति, कालसमाधी णाम जस्स जत्थ काले समाधी भवति, प्रशस्तावद्धानसंतानां वासु नक्तमूलूकानां अहनि बलिभोजनानां वायमानां शरदि गवां, जस्स चा जचिर कालं समाधी, भावसमाधी चतु०॥१०६।। तंजहा-पाणसमाही दंसणसमाही चरित्तममाही तयममाही, गाणसमाही जहा जहा सुयमधिजति तथा तथाऽस्यातीव समाधिरुत्पद्यते, ज्ञानोपयुक्तो हि आहारमपि न कांबते, न वा दुःखस्योद्विजते, झेयार्थावलंबने चास्यातीव समाधिरुत्पद्यते, दर्शनसमाधिरपि जिनवचननिविष्टवुद्धिरिह निर्वातसरणप्रदीपवन कुमतिभिर्धाम्यते, चारित्रसमाधिरपि विषयसुखनिःसंगत्वात्पर समाधिमानोति, उक्तं च-"नवास्ति राजराजस्य तत् सुखं०"तपःसमाधिरपि नासौतहा भावितत्वात् कायक्केशक्षुत्वृष्यापरीपहेभ्य उद्विजते, तथैवाभ्यन्तरतपोयुक्ता ध्यानाश्रितमना निर्वाणस्य इव न सुखदुःखाभ्यां पाध्यते, गतो णामणिप्फण्णो । सुक्षाणुगमे सुत्तमुचारेयध्वं जाव 'आघं मतिमं अतिवीय धम्म' वृत्तं ॥ ४७३ ।। सम्बन्धः अच्छिन्नं निर्वाण, संधनेति वर्तते, स एवं भगवान् तस्यामच्छिन्न निर्वाणसन्धनायां वर्तमान आघं मतिमं अणुवीयि धम्म आति आख्यातवान् , मतिमानिति केवलज्ञानी, अणुवीयिनि अनुविचित्य कथयति, ग्राहकं ब्रवीति जहा 'णिउणे णिउणं अस्थं धूलत्थं थूलबुद्धिणो कथए' सुणेलूगावि चितेति-मम भावमनुविचिन्त्य कथयन्ति, तिरि| यायवि चिंतयंति-अम्हं भगवान् कथयति, आहाराद्या द्रव्यसमाधयः प्ररूप्य प्रशस्तभावसमाधिः अंजुमिति उज्जुगं न यथा शाक्या ॥२२९॥ [४७३४९६] [233] Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||४७३ ४९६|| दीप अनुक्रम [४७३ ४९६] श्रीयप्रक्रताइचूर्णिः ॥२३०॥ San “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१०], उद्देशक [-] निर्युक्ति: [ १०३ १०६], मूलं [गाथा ४७३- ४९६ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: वृक्षं स्वयं न छिंदंति, भिन्नं जानीहि तं छिदानं ब्रुवते तथा कार्यपणं न स्पृशति, क्रयविक्रयं तु कुर्वते, इत्येवमादीभिः अंततो विकपितव्यं, अपडिष्णे भिक्खू स समाधिप्रत्येकः समाधिप्राप्तः योऽप्रतिज्ञः इहपरलोकेषु कामेसु अप्रतिज्ञः अमूच्छित इत्यर्थः, अद्विष्टो या, भिक्खू पूर्ववर्णितः तुर्विशेषणे भावभिक्खु विसेसिज्जति भावसमाधिरेव प्राप्तनिबन्धने न निदानभृतः, अनिदानभूतो नाम अनाश्रवभूतः सर्वतो नजेत् परिव्वए, अथवा अणिदानभूतेसु परिवए अनिदाणभृतानीति निदा बंधने अबन्धभूतानीति अनिदान तुयानीति ज्ञानादीनि तानि वा तेसु परिव्वएडा, अथवा निदानं हेतुर्निमित्तमित्यनर्थान्तरं, न च कस्यचिदपि दुःखनिदानभूतो, जहा न तहा परिवएजा, काणि पुण निदाणडाणाणि १, पावचंधादीणि, तत्थ पाणाइवातो चउत्रिहो, तंजहा-दव्यओ खितओ कालओ ओ, तत्र क्षेत्र प्राणातिपातप्रतिषेधे प्रतिपादनार्थमपदिश्यते 'उड्ढे अहे या तिरियं दिसासु' वृत्तं ॥ ४७४ ॥ सच्चो पाणाइवातो कजमाणो पण्णवगादि संपडच उडूं अहे य तिरियं वा कञ्जति, तत्रोर्ध्वमिति अप्पणो यदूर्द्धमिति यदधः शिरसः, अधः इति अधः पादतलाभ्यां शेर्पा तिर्यक्, तत्रोर्ध्वं संपातिमरजोवर्पोल्काप्रदीप्तगृहादीनि वायुवृक्षपक्षिमक्षिकाः ये वाऽन्ये वृक्षगृहाद्याश्रिताः, एवमस्तिर्यक् विभाषितव्याः, द्रव्यप्राणातिपातस्तु तसा य जे पाणा, भावप्रागातिपातस्तु हत्थेहिं पादेहि य असंजमतो, चशब्दात् अपि उच्छ्रासनिश्वासकासितवायुनिसर्गादिषु सर्वत्र संयमति, एवं समाधिर्भवति, एवं मायं माणं च संजमेजा, तथैव अदिष्णं ण गेण्डितव्यंति ततियं वतं, एवं सेसाणिपि अत्थतो परूवेयन्त्राणि, ज्ञानदर्शनसमाधिप्रसिद्धये त्विदमपदिश्यते 'सुक्खायधम्मे वितिमिच्छतिणे ' वृत्तं ॥ ४७५ || सुष्ठु आख्यातो धर्मः सम्भवति सुअक्खायधम्मे द्विविधो, वितिमिच्छातिण्णोत्ति दर्शनसमाधि गिहिता, निस्संकिय निकंखिय गाथा, जेण केणइ फासुगेणं लाढतीति लाढः सुत्तत्थतदुभयेहिं विचितेहिं किसे वि देहे अपरितंते [234] -अनिदानादि ॥२३०॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१०], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१०३-१०६], मूलं [गाथा ४७३-४९६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: आत्मतुल्यत्वादि प्रत श्रीसूत्रा सूत्रांक तादचूणिः | ॥२३॥ ||४७३४९६|| rena o दीप अनुक्रम 1 लाडेत्ति, आयतुले पयासुचि प्रजायन्त इति प्रजाः पृथिव्यादयस्तासु यथाऽऽस्मनि तथा प्रयतितव्यं, न हिंसितच्या इत्यर्थः, आत्म तुल्या इति 'जह मम ण पियं दुक्खं' एवं मुमाबादेऽवि, जहा मम अभाइक्खि जंतस्स अप्पियं एवमन्नस्यापि, एवमन्येवपि आथवद्वारेपु आत्मतुल्यत्वं विभापितव्यं, आयं ण कुजा इह जीवितट्टी आयो नाम आगमः तमायं न इहलोकजीवितस्यार्थे | कुर्यात् , अण्णपाणवत्थसयणपूयासकारहेउं वा चयं ण कुञ्जा, चयो णाम सन्निचयं न कुर्याद् , अन्यत्र धर्मोपकरणं, शेपमाहारादि, वस्तुसञ्चयः सर्वः प्रतिविध्यते, हिरण्यधान्यादिसंचयोऽपि प्रतिषिध्यते, येनानागते काले जीवका स्यादिति, प्रतीत्य भावसंचयो | भवति, कर्मसंचय इत्यर्थः, तेण चयं ण कुजा सुतबस्सी-भिक्खू । किंच 'साधिदिया(याभि)णिब्वुडे पयासु'वृत्तं ॥४७६॥ | मन्द्रियनिवृत्तो जितेन्द्रिय इत्यर्थः, प्रजायत इति प्रजाः-खियः, तासु हि पंचलक्खणा विषया विद्यन्ते, शब्दास्तावत्कलानि वाक्यानि विलासिनीनां, रूपेऽपि 'गतानि सव्यं व्यवलोकितानि, सितानि वाक्यानि च सुन्दरीणां०'रसा अपि चुंबनादयः, यत्र रसस्तत्र गन्धोऽपि विद्यते, म्पर्शाः सम्बन्धकुचोरुवदनसंसर्गादय इत्यतः सबैदिया णिबुडो पयासु, सबओ विप्रमुक्त इति चरेत् , सर्वासमाधिविप्रमुक्तः सर्ववन्धनविप्रमुक्तः, किंच-स एवं विप्रमुक्तबन्धनः पासाहि पाणे य, पुढो णाम पृथक् २ अथवा पुढोति बहुगे पाणे विविहेहि दुक्खेहिं सण्णा विसण्णेहि, विसंतो वा विसंतीति प्रविशंति संसार नगरं परलोगं च, अथवा अयमाजवंजविभावो ज्ञायत एव, अडविहकर्मोदयदुःखेन अट्टेति आत्तों, अथवा दुक्खट्टिता, अदृत्ति आर्चध्यानोपगताः, मनोबाकायैः परितप्यमानो, एतेसु वाले तु पकुवमाणे' वृत्तं ॥४७७।। एतेष्विति जे ते पुढो विसन्ना ये प्रकुर्वन्ते हिंसादीनि एतेष्वेव आवर्यते-कर्मणि पाचकैः वध्यते च एवं वालो एवमित्यवधारने एवं हि बाल: चौर्यपारदारिकादीनि इहैव हस्तादिच्छेदान् बन्धबधादीश्च प्रामोति, aurimp [४७३४९६] [235] Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१०], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१०३-१०६], मूलं [गाथा ४७३-४९६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक श्रीमानक- तागचूर्णिः ॥२३॥ ॥४७३४९६|| दीप अनुक्रम [४७३४९६] एवं तु एवमनेन सामान्यतो दृष्टेनानुमन्ये यथा इह हिंसानृतचौर्याब्रह्मपरिग्रहादीन् प्रकुर्वन् दोषान् प्रामोति एवमेव परत्रापि नरकादिसु दुःखानि प्रामोतीत्यतः आउद्धृति, आउद्धृती नाम निवर्चते, वक्तारोऽपि च भवंति-आउट्ट समाउट्टो समाउर्मिसु तु, इदाणिं 'चाला हि रटापायाः प्रायसो निवर्तते, अपायोद्वेजिनां चालानां भीरूणां अपदिश्यते, संसात् कानि पापानि येभ्योऽसौ निवर्चते, अतिवातो कीरति अतिपतनमतिपात: प्राणातिपात इत्यर्थः, जेणं अप्पाणं वा परं वा जीविताओ ववरोवेति, नियतं युञ्जते नियु ते, यथा राजादिभिर्भृत्यादयः युद्धाधिकरणाध्यक्षादिपु तेषु निमुंजते, एवं यावन्मिथ्यादर्शनादीनि, किंच-तिष्ठन्तु तावोऽतिपातं कुर्वन्ति, ये च भृत्यानुभृत्या वा तेपु तेषु कर्मसु नियुंजते अन्येऽपि पापं कुर्वते, तद्यथा-'आदीणभोईत्ति' वृत्तं ॥ ४७८ ।। यावदैन्यं तावद्दीनः, कोऽर्थः ?-दीणकिवणचगीमगादि पाच करेंति, उक्तं हि-'पिंडोलगेवि दुस्सीले, नरगाओ ण मुञ्चति' आदीणतणेण मुंजतीति आदीणभोजी, सो पुण कयाइ अलब्भमाणो असमाधिपंचो अधे सत्तमाएवि उववजेजा, जहा सो रायगिहच्छणपिंडोलगो वेभारगिरिसिलाए घल्लितो 'मंता हु एवं मत्वा एगन्तसमाहिमाहुः, द्रव्यसमाधयो हि स्पर्शादिसुखोत्पादकाः अौकान्तिकाय भवन्ति, कथं ?, अन्यथा सेवनादसमाधि कुर्वते, उक्तं हि-तचेच होति दुक्खा पुणोवि कालंतरवसेणं ज्ञानार्यास्तु भावसमाधयः एकान्तेनैव सुखमुत्पादयन्ति हि, परवचः--एवं मत्वा संपूर्ण समाधिमाहुस्तीर्थकराः, सं एवं बुद्धे समाधियरते बुद्ध इति जानको, भावसमाधीय रते, बुद्ध इति जानको भावसमाधी एवं चतुर्विधो पट्टितो, दब्वविवेगो आहारादि, अट्टकुकडिअंडगप्पमाणमेत्तकवलेण०, एगे वत्थे एगे पादे, भावंत्रिवेगो केसायसंसारकम्माण, दुविधे विरत्तो विवेगो एवमस्य समाधिर्भवति, पाणातिपाताओ णवएण भेदेणाविरमणा अविरति, लेश्या स्थिता यस्याचिः स भवति ठितचा, अवहितलेश्य इत्यर्थः, [236] Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१०], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१०३-१०६], मूलं [गाथा ४७३-४९६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत जगत्रामतादि श्रीसूत्रक- तानचूर्णिः ॥२३३॥ सूत्रांक ॥४७३४९६|| OSHAHNAamirmi दीप अनुक्रम [४७३४९६] विमुद्दलेसासु'ठितो सो 'सचं जगं तु' वृत्तं ।। ४७९ ।। जायत इति जगत् , 'समता नाम 'जह मम ण पियं दुक्खं"णस्थि य सि कोइ बेसो पिओ व.' अथवा अन्यस्य प्रियं करोति अन्यस्याप्रियमित्यतः, कोऽर्थो ?-नान्यान् पातयित्वा अन्येषां प्रियं करोति, मुपकैः मारिपोपवत् , अथवा प्रियमिति सुखं मसचानां, तदपां प्रियं न कुर्यात् , न कस्यचिदप्रियं, मध्यस्थ एव स्यादित्यतः सम्पूर्णसमाधियुक्तो भवति, कश्चित्तु समाधि संधाय 'उहाय दीणे तु पुणो विसण्णो' उत्थायेति समाधिसमुत्थानेन, दीन इत्यूजितो भोगामिलापी, सर्यो हि तर्कुको दीनो भवति, ईप्सितलंभे च दीणेतरः, पुणो विमति गिहत्थीभूतो वा पीसत्थभूतो वा, अयं तु पाश्र्वोऽधिकृतः, पूयासकारामितापी वसपात्रादिभिः पूजनं च इच्छति, सिलोगो णाम श्लाघा यश इत्यर्थः, सो दुह. सेजाए वति, अमिलममाणी असमाधिट्ठितो भवति, किमयं पुण पूयासिलोगकामी, भणितं च-जाति णिपीय पजं जति० 'अहाकडं चेव' वृत्तं ॥४८०।। आहाय कर्ड आधाकड आधाकर्मत्यर्थः, अथवा अन्यानपि जागि साधुमाधाय कीडकडादीणि | क्रियते ताणि आधाकडाणि भवति, अधिक कामयते-प्रार्थयतीत्यर्थः, अथवा णियमेण णिमंतणा, जो तं णियामणं गेण्हति सो णियायमाणे, जो पुण अहाकम्मादीणि कम्माई सरति-सुमरइति निगच्छति गवेष(य)तीत्यर्थः, स पासत्थोसण्णकुशीलाणं विस| पाणं संयमोद्योते मार्ग गर्बपति, विपीदति वा, येन संमारि चिसण्णो भवत्यसंयम इति, विसपणमेपतीनि विषण्णेपी, तहा तहा दीणभावं गच्छति शुक्लपटपरिभोगवत् , परिभुञ्जमाणा शुक्लपटवत् मलिनीभवत्यसो, इत्थीहि सत्ते च पुढो य बाले सत्ता रक्ता गृद्धा, पुढो इति पृथक बयः, स्त्रीनिमित्तमेव च परिग्रहं ममायमाणा, चतुर्विधपरिग्रहनिमित्तमेव 'आरंभसत्ता' वृत्तं ॥४८॥ | आरमसत्ता, 'आरभो दब्बे भावे य, तत्र सक्ताः' असमाधि पत्ता णिचयं करेंति, हिरण्णसुर्वण्णादी देव्यणिचप, दव्वणिचयदो ॥३३॥ [237] Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१०], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१०३-१०६], मूलं [गाथा ४७३-४९६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक द्रव्यचयादिनिषेधः ॥२३॥ ॥४७३४९६|| दीप अनुक्रम [४७३४९६] श्रीयत्रक- सेणं अट्ठविधाम्मणिचर्य करेति, इहलोक एव च असमाधिगुणं जानानः समाधिधर्म वा समीक्ष्य चरेदित्यनुमत्यर्थः, सर्वेभ्यो ताहाण ममाधिस्थानेभ्यो विषमुक्तः आरभपरिग्रहादिभ्यः अणिस्सितभावविहारेण पिहरमाणो । छंदे ण कुजा हित(इह)जीवितही' IN वृत्तं ।। ४८२ ।। छन्दः प्रार्थना अमिलाप इत्यनान्तरं, पठ्यते च 'आयं ण कुआ' आयं गच्छतीत्यादयो हिरण्यादि सद्दादी वा, माइजीवितं णाम कामभोगादयः यश-कीतिरित्यादि, असंयमजीविताधिकारेसु तद्गृहकलत्रादिषु अमजमाणो य परिवएज्जा, | किच-णिसम्मभासी य विणीतगेधी णिसंमभासी णाम पूर्वापरसमीक्ष्य भाषी, अहाअकम्मभोगी, स्वजनादिषु गिद्धी विनीता यस्य स भवति बिनीतगिद्धी, हिमया अन्विता कथ्यत इति कथा, कथं हिंसान्वित , तस्मादश्नीत पिचत स्वादत मोदत हनतातिहनत छिन्दत प्रहरत पचतेति, आहाकडं वान निकामगन्ज ।।४८३|| आहाकडं-औदेशिकमित्यर्थः, ण अधिकामेजा ये | तान् च कामयन्ति न तैः पावस्थादिमिरागमणगमादि तत्प्रशंसादिसंस्तवं च कुर्यात् , किंवा एवं समाधियुक्तः धुने उरालं तु अकंग्बमाणो उरालं णाम औदारिकशरीर तत्तपसा धुनीहि, धुननं कृशीकरणमित्यर्थः, तस्मॅिश्च धूयमाने कर्मापि यतेऽनपेक्ष| माण इति, नाई दुर्बल इतिकृत्वा तपो न कर्त्तव्यं, दुर्बलो वा भविष्यामीति, याचितोपस्करमिव व्यापारयेदिति, तत्र विशेषान् | अनपेक्षमाणः वेचाय असमाधिः, यतीति श्रोतस्तद्धि गृहकलनधनादि प्राणातिपातादीनि वा श्रोतांसि, तान्यनपेक्षमाणः धुनीहीति वर्तते, श्रोतांस्यप्यनपेक्षमाणः, म एव तेपु असज्जमाण इत्यर्थः, किंच-पेक्ष्य ने प्रार्थये तबो 'एगत्तमेव अभिपत्थएज्जा' | वृत्तं ॥ ४८४ । एकभाव एकत्वं, नाहं कस्यचिन् ममापि न कश्चिदिति, 'एक्को में मामओ अप्पा, णाणदसणसंजुतो। सेसा में बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्षणा॥१॥ एवं वैराग्यं अणुपत्थेज्ज, अथ किमालंबन कृत्वा ? 'एवं पमोक्खे ण मुसंति ॥२३४॥ [238] Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१०], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१०३-१०६], मूलं [गाथा ४७३-४९६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक ॥४७३४९६|| दीप श्रीसूत्रक- 10 पास' जं व एतं एकत्वं एम चेव पमोक्खो, कारणे कार्योपचारादेष एव मोक्षः, भृशो मोक्षो पमोक्खो, सत्यवाय, अथवा ||D|| प्रमोक्षादि ताङ्गचूर्णिः जानादिसमाधि प्रमोक्षं, अमुसंति एतदपते, तदेकान्तसमाधिरेव प्रमोक्षः, अमुसंति अननृतः, अयं वा परमोक्षक इति,अक्रोधने; ॥२३५॥ न केवलमक्रोधनः, एवं अर्थभणे अयंकणो अलुब्भणे जाव अमिन्छादसणो, सत्या णाम संयमोऽनृतं वा, सत्ये रतः सत्यरत , सत्यो नाम संयमस्तस्मिन् , तपस्तपस्वी दुरुत्तरगुणाः, एते हि मूलोत्तरगुणा विचित्रा सगिर श्रीकृताः, तत्रोत्तरगुणा दर्शिताः, मूलगु णास्तु 'इत्थीसु या अरतमेहुणे या' वृत्तं ॥ ४८५ ।। तिविहाओ इस्थिगाओ, न रतः अग्तः विरत इत्यर्थः, परिग्गहं चेव FA अमायमाणे एवं सेसावि अहिंसादयो मूलगुगाः, चउत्थपंचमयाण तु बयाणं भावणा-उचावएहिं अनेकप्रकाराः शब्दादयः, अथवा उच्चा इति उत्कृष्टाः, अबचा जघन्याः, शेषा मध्यमा, त्रायत इति धाता, श्रि सेवायां, ते न संश्रियमानाः, असंश्रयमान एप च विषयान भिक्षुःममाधिप्राप्तो भवति, इहैव नैवास्ति राजराजस्य तत् सुग्वं' परे मोक्ष इति, स एवं समाधिप्राप्तः 'अरर्ति रतिं च अभिभूय' वृत्तं ॥ ४८६ ।। कण ?, समावीए, पतनादिफासंति, तणफासग्रहणेण कट्ठसंथारगइकडा य, समाधिसमाओगे हियाओ तत्थ तणहि विज्झमाणे वा अत्युरमाणे वा सम्म अधियासंति, सीतं सीतपरीसहो, तेऊ उसिणपरी सहो, तणादिफासग्गहणेण दंसगमसगादिपरीसहा गहिता, सदग्गहणेण सव्वे अकोसादिसहपरीसहावि गहिता, सुभिभिगहोण 2. इटाणिविसया गहिता, किंच-'गुत्ते वई ग ममाधिपत्ते' वृत्त ।। ४८७ ॥ मौनी वा समिते वा भाषने, भावममाधिपत्ते | भवति, लेसं समाहट्ट तिणि लेस्साओ अवहट्टु तिणि पसत्याओ उपहटु, मयतो ब्रजेत् परिवएन्ज, किंच-गिहंण छाए णवि च्छादराजा उग्ग एव परकृतनिलयः स्यात् , संमिस्स भावं प्रजायंतः प्रजाः-खियः, अथवा सर्व एव प्रजाः- ||२३५॥ अनुक्रम [४७३४९६] [239] Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१०], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१०३-१०६], मूलं [गाथा ४७३-४९६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत श्रीरत्रक अक्रियावाद्यादि तामणिः सूत्रांक १॥२३६॥ ॥४७३४९६|| दीप अनुक्रम गृहसाः ये तैः सन्मिश्रीभावं प.हे, संमिस्सिमावो णाम एगतो वासः, आगमणगमणाइसंथवो स्नेहो वा, एवं चारित्रममाधिः परिममाप्तः । इदानी दर्शनभावममाधिः-'जे के लोगंमि तु अकिरिया य' वृत्तं ।। ४८८ ॥जेति अणिदिवणिदेसो, अशोभनक्रियावादिनः पारतच्या अक्रियावादिनः क्रियातो, अक्रियो वाऽऽत्मा येपा, निश्चितमेव अक्रियात्मा नः, अन्येन केनचित्पृष्टाःकीदृशो वा धर्म ?, धुतं आदियंतित्ति धुतबादिनो, धुतं नाम वैराग्य, धुतमादिर्यति-धुतं पसंसेति, एवं ते धुतमपि आत्मी कुर्वतः आरंभसत्ता यथा शाक्या द्वादश धुतगुणा ब्रुवते, अथवा पचनादिद्रव्यारंभेऽपि सक्ताः समाधि वर्मन जानंति, विमोविस्य हेतुः विमोक्षहेतुः तमेवं तत्समुपदिसंति, 'तेसिं पुढोछन्दा' वृत्तं ॥ ४८९ ॥ पुढोछन्दाण भाणवाणं पृथक पृथक् छंदा नानाछन्दा इत्यर्थः, केचित क्रूरस्वभावा केचिन्मृदुस्वभावास्तथा कांचिन्मसं केचिन्मासमद्याशिनः तथा केचित् गीतनृत्यहसितमाप्रियाः केचित्परव्यसनरताः केचिन्मध्यस्था इत्यादि, तथा दृष्टिभेदमिति, प्रतिक्रियाण बा, पुढो वा तं, यथैव हि नानाछन्दा कतव्यादिपु लौकिकाः तथैव हि किरिया अकिरियाणं वा पुणो पवाद उपादीयंत इत्युपादाः गृहा इत्यर्थः, अथवा उपवादो दृष्टिः, तद्यथा-केपांचिदात्माऽस्ति केपांचिन्नास्ति, एवं सर्वगतः नित्यः अनित्यः कर्ता अकर्ता मूर्तः अमूर्तः क्रियावन्निस्कियो वा, तथा केचित् सुखेन धर्ममिच्छन्ति केचिद् दुःखेन केचित् सोचेन केचिदन्यथा केचिदारंभेण, केचिनिःश्रेयसमिच्छन्ति केचिदभ्युदयगिन्छंति, एकस्मिन्नपि ताबच्छास्तरि अन्ये अन्यथा प्रज्ञापयंति, तद्यथा-शून्यता, अत्थि पुग्गले, णो भणामि पस्थिति पोग्गले, जपि भणामि तंपि न भणामीत्यवचनीयं, अवचनीय एव अवचनीयः, स्कन्धमात्रमिति, पैशेपिकाणामपि, अन्येषां न, द्रव्याणि नयेत, अन्येषां दश दशैव सांख्यानामपि, अन्येषां इन्द्रियाणि सर्वगतानि, एवं ते मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकं अनुसमय [४७३४९६] ॥२३ [240] Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१०], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१०३-१०६], मूलं [गाथा ४७३-४९६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक ॥४७३४९६|| दीप अनुक्रम श्रीमत्रक-INमेव कर्म वध्यते, दृष्टान्तो-जातस्स बालस्स पकुवदेह जातस्येति गर्भत्वेनोत्पन्नस्य, तद्यथा-निपकारप्रभृतिरारंभः शरीर-10 शरीरतारचूणिः वृद्धर्भवति, यावद्गर्भानिस्मृतः, आवाल्याच प्रवर्द्धते यावत्प्रमाणस्थो, जातशरीरवृद्धिरिह कालक्षेत्रबाझोपकरणात्मसानिध्यायत्ता यतः ध्यादयः ॥२३॥ अत उच्यते-प्रकुर्व इव प्रकुर्वन् , यथा तस्यानुमामयिकी शरीग्वृद्धिः एवं तेषामपि मिथ्यादर्शनप्रतिपत्तिकालादारभ्य तत्प्रत्ययिक ME धैर-प्रबर्द्धते कर्म, वैराजातं बैर, यथा वेरै दुःखोत्पादकं वैरिणा एवं कर्मापि, यद्यप्पाकाशे निश्चल उपतिष्ठति अविरंतस्तथा AME अप्यस्व कर्म यध्यत एव,पठ्यते च-जाताण बालस्स पगम्भणाए. जातानामिति गर्भपाकानिस्सृतानां, प्रगल्भं नाम धाष्ट, हिंसादिकर्मस्वभिगतिरतिनिवेशोऽभिसंगितावा, इत्यतः पवद्धते बेरमसंजतस्स आयुक्वयं चेव अवुज्यमाणे वृत्तं ॥४९० स एवं हिंसादिकर्मसु पसलमानः कामभोगे तृपितः छिन्नदमत्स्यवदुदकपरिक्षये आयुपः क्षयं न वुध्यते, उजेणीए वाणियो एगो रययाणि कथं पविसिस्मामित्ति रजनिक्षयं न बुध्यते स्म, अंततो व्यग्रतया यावदुदिते सवितरिराज्ञा गृहीतः, यथा वा दिवि देवाः, दोगुंदुगा इन देवा गपि कालं ण णायंति, ममाई तद्यथा--में माता मम पिता मम भ्रातेत्यादि सहस्माई हिंसादीनि करोति मन्दमिति भन्दः, अहो य रातो परितप्पमाणे सर्वतस्तप्यमानः परितप्यमानः मम्मणवणिग्वत् , कायेण किसंतो वायाए मणेण य आर्तध्यानोपगतः आः द्रव्या चप्पडिअंति शकटवर्क द्रव्यानों वा, भावट्टो रागहोंसेहि, सुठु सद्दे संमूढो, सव्वत्थ वाणियगदिद्रुतो वक्तव्यः, अजरामरयद्धालः, क्लिश्यते धनकारणात् । शाश्वतं जीवितं चैव, मन्यमानो धनानि च ॥ १॥ एवमेतद्धनः मत्याऽ(नमत्य)जित्वा गजचौराग्निदायकाय विशेष, अप्पं च बहुं वा 'जहाय वित्तं पसबो य बंधर्व'वृत्तं ४९१।। जधापत्ति त्यक्ता, वित्-धनं पशवो-गोमविष्यादयः, बान्धवाः पूर्वापरसंबद्धाः, मित्राः सहजातकादयः, लालप्यती मो॥२३७/ [४७३४९६] [241] Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१०], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१०३-१०६], मूलं [गाथा ४७३-४९६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: वित्तादि प्रत त्यागादि सूत्रांक ॥४७३४९६|| दीप अनुक्रम श्रीमथक- अत्यर्थ लवति पुनः पुनर्वा लवतीति लालप्यते, हा मातः हा पितः हा विभवाः हा जीवलोक अदुहद्दविसहा कुतीथिकाः नागनूर्णिः राजादयश्च अपि, रूपवानपि कोण्डरीकपौण्डरीकसरिसो, धनवान्नंदसरिसो, धान्यवान् तिलगसेडिसरिसो, तेऽचि सव्वे लाल॥२३८ INE प्ययंता घतमति, घन्त:-संसारः, एवं ते यथा कर्मनिष्पन्ना प्रेत्य ममाधि न प्राप्नुवन्ति, यच तच्छाश्यतकारित्वेनाजरामरणेव अह न्यहनि उत्पद्यमानेन धनमुपार्जितं तदप्यस्याग्रे राजादयोऽपहरंति, एवं मत्वा पापाणि कर्माणि वर्जयेत् तपश्चरे, कथं?-सीहं जहा खुमिया चरंता' वृत्तं ।।४९२।। क्षुद्राः मृगाः क्षुद्रमृगा, व्याघ्रकद्वीपिकादयः, मृगा रोहितादयश्च, अथवा स एव क्षुद्रमृगः दूरेणेति अदर्शनेनागन्धेन वा तद्देशपरित्यागेन च, अपि वातकम्पितेभ्यः तृणेभ्योऽपि सिंहा भयादुद्विग्नाश्चरन्ति, एवं तु मेधावि समिकाव धम्म एवं-अनेन प्रकारेण मेधया धावतीति मेधावी सम्यक ईक्षित्वा समीक्ष्य ज्ञात्वेत्यर्थः, असमाधिर्तृणि च पावाणि दूरेण विवाएजा । 'संवुझमाणो' वृत्तं ॥४९३॥ संवुज्झमाणो य, किं संयुज्झमाणो?, समाधिधम्म, मतिरस्यास्तीति मतिमान् बडमाणपरिणामो हिंसादिपापत आत्मनो निवृत्ति कुर्यात् , निवृत्तेः करणमित्यर्थः, स्यात्-किं पापात्०१, हिंसापरताणि दुहाणि मचा, हिसातः प्रसूतानि हिसापसूताणि जातिजरामरणाप्रियसंचासादीनि नरकादिदुःखानि च अट्ठविधकम्मोदयनिष्फण्णाणि, असमाधि प्रसवीति णिव्वाणभूते च परिवएजा, निर्वाणभूतः सर्वभूतानां निर्वृत्तिकरणमित्यर्थः, द्रव्यवलयं शंखक: भाववलयं माया, यथा वा निवृत्तोऽव्यायाधसुखप्राप्तस्तिष्ठति एवं भगवानपि अव्यावाधसुखनिस्संगो, अनिवृत्तोऽपि निर्वृत्तभूतः, सर्वतो व्रजेत् परियएजा। मूलगुणाधिकारे प्रस्तुते 'मुसं ण व्या' वृत्च ॥४९४।। आत्मनिःश्रेयसकामी एवं गिर्वाणसमाधिर्भवति, कसिण इति सम्पूर्णः, संसारिकानि हि यानि कानिचित् स्नानपानादीनि निर्वाणानि तान्यसंपूर्णत्वात् नैकान्तिकानि नात्यंतिकानि च, वक्तारोऽपि च भवंति [४७३४९६] ॥२३॥ [242] Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१०], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१०३-१०६], मूलं [गाथा ४७३-४९६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: शुदेषणादि प्रत श्रीसत्रक ताङ्गचूर्णिः | सूत्रांक ॥२३९॥ ॥४७३४९६|| दीप अनुक्रम [४७३ पञ्चा णिहि लद्धा एवमन्येपामपि बतानामतीचार सयं ण कुजा, ण य कारवेला, करतमण्णपि य णाणुजाणेआ, एवं योगत्रिक- करणत्रिकेन । इदानी उत्तरगुणसमाधि-'सुद्धे सेयो जायणंत सज' (सुद्धे सिया जाइयमेसणिज) वृत्तं ।। ४९५॥. सुद्धे सिया जाइउं लद्धं एसणिजं च, अथवा सुद्धं अलेनकडं, एसणिणं आहाणा(अणाहा)दीणं गल्लं पासएजा, अमुच्छितो अणज्झोववण्णो गवेसणघासेसणासु बिइंगालवीइधूम, धितिमं विप्पमुके सुसंजमे धृतिमान् आगारबंधणविष्पमुक्के, ण पूजासकारही सिलो. | गोत्ति जसो णाणतवमादीहि सिलोगो ण कामए'निक्खम' वृत्तं णिक्खम्म गेहातो णिरावकंखी अप्पं वा बहुं वा उपधि विहाय | निष्क्रांतो मिच्छत्तदोसादीहिं गृहकलत्रकामभोगेसु णिरावकंखो, दव्यतो भावतो य कार्य विसेसेण उत्सृज्य विउमज्जा, दव्वणिदाणं सयणधणादि भावणिदाणं कम्म, णो जीवितं णो मरणामिकंखी, वलयं वक्रमित्यर्थः, द्रव्यवलयं शतकः माक्वलयं अटप्नकार कर्म, येन पुनः पुनर्वलति संसारे, बलयशब्दो हि वक्रतायां भवति च गती, वक्रतायां यथा वलितस्तन्तुर्वलिता रज्जुरित्यादि गतौ च, चलति सार्थ इत्यादि, वलयविमुक्त इति कर्मवन्धनविमुक्तः, अथवा वलय इति माया तया च मुक्ता, एवं क्रोधादिमाणविमुक्ताः इति ।। दशममध्ययनं समासम् ।। मग्गोत्तिअज्झयणस्म चत्तारि अणुयोगदाराणि, अधियारो मग्गपरूवणाए, पसस्थभावमग्गोयरणाए य, णामणिप्फण्णे मग्गो, 'णामंठवणादविए' गाहा ॥१०७|| बतिरिनो दव्यमग्गो अणेगविधो 'फलग लता अंदोलग'गाथा ॥१०८|| फलगेहि जहा ददरसोमाणेहि, जहा फलगेण गम्मति वियरगादिसु, चिक्खल्ले वा, जहा वेचलताहिं गंगमादी संतरति, जहा चामदत्तो वेतपतिं वेचेहिं उल्लंघिऊण परकूलवे सेहिं आलाविऊण अण्णाए उत्तिणो, अंदोलएण अंदोलारूदो एत्तिया, जं वा रुक्खमालं ४९६] ॥२३९॥ | अस्य पृष्ठे एकादशमं अध्ययनं आरभ्यते [243] Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [११], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१००-११५], मूलं [गाथा ४९७-५३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक ||४९७ ५३४|| दीप अनुक्रम श्रीरघक- अंदोलि रऊणं अप्पाणं परतो बञ्चति, जहा लता तहा वेचे वि, अथवा लतत्ति आकंपिऊणं, अणाए लत्ताए लग्गवि रज्जुहि गंगं उत्त- नद्रव्यमा गोदि तामणिः HA रति, दर्ग णदी, जायणं विलं दीवहिं पविसंति, रज्जु वा कडिए पंधिऊण पच्छा रज्जु अणुसरंति केचिद् रसकूपिकादौ महत्यं॥२४॥ धारे, पुणो णिगच्छति गच्छति, स चेव पासमग्गो खीलगेहिं समाविसए चालुगाभूमीए चकमंति केचित् , रेणुप्रचुरे प्रदेशे कीलिकानुसारेण गम्यते, अन्यथा पथभ्रंशः, अयं पथो लोहबद्धः सुवण्णभूमीए एत्थं पक्खीणंति, जहा चारुदतों गतो, छत्तगPI मग्गो छत्तगेण धरिजमाणेणं गच्छति उपद्रवमयात , जहा गणिगों पावातो, जलमग्गोणावाहि, आगासमग्गो चारणविजा हराणं, 'खेत्तंमि जंमि खेत्ते 'गाथा |१०९॥ जमि खेते मग्गो, भूमिगोअराणं भूमीए मग्गो, देवाणं आगासे, खेचरविज्जाशहराणं उभये, अथवा खेत्तस्स मग्गो जहा सो खेत्तमग्गो एवमादि, ग्राममार्गों नगरमार्ग इत्याहि, यथैप पंथा विदर्भाया: अयं गच्छति हस्तिनागपुरं, कालमग्गो जो जंमि काले मग्गो वहति यथा वर्षाराने उदगपूर्णानि सरांसि परिरयेण गम्यते, व्याशु- MAY ककईमानि शिशिरे, ग्रीष्मे वा, उज्जुमग्गेण यस्मिन् वा काले गम्यते यथा ग्रीष्मे रात्री सुखं गम्यते, हेमंतेऽहनि, जचिरेण या गम्मति यथा योजनिकी संध्या, भावमग्गो दुविधो पसत्थो अपसत्यो य, दुविहंमिवि तिगभेदो० गाथा ॥११०॥ अपसत्थभावमग्गो तिविधी, तंजहा-मिच्छ अविरति अण्णाणं ३, पसत्थभावमग्गो तिविहो, तंजहा-सम्मणाणं सम्मदंसणं सम्मचारित्रं ३, तरस पुण दुविहस्सावि मग्गरस दुविहो विणिच्छयो, विनिश्चयः फलं कार्य निष्ठेत्यनर्थान्तरं, पसत्थो सुग्गतिफलो, अप्पसत्थो दुग्गतिफले, सुगतिफलेनाधिकारः, अप्पसत्थमग्गडिताणं पुण दुग्गतिगामुगाणं दुग्गतिफलवातीणं ॥१११।। तिणि तिसट्ठा पावादियसता, दच्वमग्गो पुण चतुर्विधो खेमे णामेंगे क्खेमरूवे खेमे णामेगे अक्खेमरूवे अखेमें णामेगे खेमरूवे अखेमे अखेमरूति, अदुग्ग-षिच्चोएँ R ४०।। [४९७५३४] [244] Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [११], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१०७-११५], मूलं [गाथा ४९७-५३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: VAAN प्रत सूत्रांक ॥४९७ ५३४|| दीप अनुक्रम श्रीसूत्रक खेमे खेमरूवे च, एवं चउसुवि मग्गेसु योजयित्तव्यं, भावमग्गे एवमेव चतुभंगो, पढमभंगे मापदवलिंगजुत्तो साधू, अक्खेम- द्रव्यमा ताङ्गचूर्णिः रूवे कारणिो दवलिंगरहितो 'माधू, अक्खेमा खेमरू विगा पिण्डगा, अण्णउत्थिय गिहत्था चरिमभंगे, संमप्पणीतमग्गो गांदि ॥२४॥ गाथा ॥११२।। जो मो पसत्यभावमग्गो सो तिविधो-गाणं तह दसणं चरितं, तित्थगरगणधरेहिं साधृहि य अणुचिण्णो, तबिघरीशो पुण मिच्छत्तमग्गो, सो चरगपरिचायगादीहिं अनुचिण्णो मिच्छत्तमग्गो, येऽपि सस्थासनं प्रतिपन्नाः इडिरससातगुरुगा. गाथा ।। २१३ ।। इहिरसगारवेहि वा धम्म उबदिसंति तेऽवि ताव कुमग्गमम्गस्सिता, किमंग पुण परउत्थिगा तिगारवगुरुगा, छज्जीवकायवधरता जे उवदिसंति धम्म संघभत्ताणि करेमाणा एवमादि कुमग्गमग्गस्मिता जणा, जे पुण तवसंयमप्पहाणा० गाथा ॥११४।। सीलगुणधारी जे वदंति, सम्भावं णाम जहा बादी तहा कारी सबजगजीवहितं यं तमाह संमप्पणीतं, अवि तस्स पुण एगट्ठियाणि णामाणि भवंति, तंजहा--पंथोणाओ मग्गो गाथा ।।११५|| सव्या, णामणिफण्णो गतो। सुत्ताणुगमे सुत्नमुञ्चारेयव्यं, अञ्जसुधम्म जंबू पुच्छति-'कतरे मग्गे अक्खातेसिलोगो।।४९७।। आघात इति आख्यातः, माहणेत्ति वा सम णेत्ति वा एगहुँ, भगवानेवापदिश्यते, मतिरस्यास्तीति मतिमान् तेन मतिमता, तत्र ताव द्रव्यमागों वा अप्रशस्तभावमागों वा। HAN तेनारुपातः, अवश्यं तु प्रशस्तभावमार्गः पमस्थो आख्यातः, किं तेहिं ?, तेण दिट्ठो उज्जुगो य तं मे अक्खाहिजे मग्गं उज्जु| पवजिता ओधों द्रव्योधः समुद्रः भावे संसारोघं तरति । 'तं मग्गं णुत्तरं सुद्धं 'सिलोगो॥४९८।। तमोधतरं महापोतभूतं नाखोसरा, अन्ये कुमार्गाः शाक्यादयः, शुद्ध उति एक एव निरुपहत्वाचेवं, अथवा पूर्वापराव्याहतनया, वध्यदोपापगमा बुद्धाः, सबदुव विमोक्वणं अन्येऽपि प्रामादिमार्गाऔरश्वापदभयोपद्रुता दुःखाबहा भवंति, भूत्वा च न भवंति उदकायुपप्लवैः, अप्पगासे २४ - [४९७५३४] BE [245] Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [११], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१०७-११५], मूलं [गाथा ४९७-५३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: मार्ग प्रत प्रश्नोत्तरे सूत्राक ॥४९७५३४|| दीप अनुक्रम श्रीमत्रक | भावमार्गा अपि दुःखाबहा एव ते, सम्यग्दर्शनज्ञानतपोमयस्तु प्रशस्तभावमार्गः, शुद्धः सर्वदुःखविमोक्षणः, तमेवंविधं जाणेहि वाचूर्णिः णं जहा भिक्खू यथेति येन प्रकारेण, भिक्षुरिति भगवानेव, यथा स भिक्षुर्ज्ञानवान् तथाभूतं त्वमपि जानीपे तमेवं जानीते, ॥२४॥ अथवा हे मिक्षो! तमेवं बेहि महामुणी, हे महामुने, स्थाकिमर्थमहं गृच्छामि ?, तत उच्यते-'जइ मे केइ पुच्छेजासिलोगो ॥४९९॥ देवाश्चतुष्प्रकाराः एते प्रच्छाक्षमा भवंति, तिरिया मणुस्सा, उत्तरगुणलद्धि या पडुच तियं अपि, कश्चित् गिरा वत्ति वयसावि पुच्छेज, तेसिं तु कतरं मग्गं तेषामजानकानां खयमजानका कतरं मार्ग कथं वा? कथयिष्यामि, अव्यावाधसुखादीनि | आवहतीति सुखावहः, अथवाऽभ्युदयकं निःश्रेयसं च, इति पृष्ट आर्यसुधर्मा जम्बूस्खाम्याद्यान् साधून प्रणिधाय सदेवमणुआसुरं IMIच परिसं णिस्साए कहेति 'जइ वो केइ०'वृत्तं ॥५००॥ जड़ वा केइ पुच्छेजा, जतित्ति अणिहिट्ठणिद्देसे, संसारभ्रांतिनिविण्णा देवा अदुव माणुसा। तेसिं तु इमं मग्गं आइक्खेज सुणेध मे, पठ्यते च तेसिंतु पडियो(सा)हेजा मग्गसारं सुणेह मे, साहितं प्रति अन्येषां साहति-कथितं सत् पडिसाहेजा, मार्गाणां सारः मार्गमारः। अणुपुब्वेण 'सिलोगो।।५०१।। कथं मार्गप्रतिपत्तिरेव तावद्भवति ?, उच्यते, अणुपुब्वेण महाघोरं, अणुपुञ्वेगंनि 'माणुस्स खेत्त जाती० गाथा, अथवा 'चत्तारि परमंगाणि' सिलोगो, अथवा 'पढमिल्लुगाण उदये गाथाओ तिष्णि, एवं 'कम्मकावयाणुपुर्वि०'गाथा, जाव 'बारसविधे' दुरन्तत्वात् महाघोराः, अणुपुंमिः दुस्तरं, महापुरिसा सुघोरमपि तरंति, घोरसंग्रामप्रवेशवत् , कासवेण प्रवेदितं प्रदर्शितमित्यर्थः, जमादाय इतो पुवं जं आयाय इति यमनुचरित्वा, इत इति इतस्तीर्थादवाक्, अद्यतनाद्वा दिवसादिति, समुद्रेण तुल्यं समुद्रवत् , व्यवहरंतीति व्यवहारिणः चणिजः, यथा तेऽतिक्रान्ते काले समुद्रं 'अनरिंसु०' सिलोगो ॥५०॥ अतरिष्यन् तरंति तरिष्यन्ति [४९७ ५३४] [246] Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [११], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१०७-११५], मूलं [गाथा ४९७-५३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत पटकायः सूत्रांक श्रावक- ताङ्गचूर्णिः ॥२४३| ॥४९७ ५३४|| दीप अनुक्रम [४९७ च, नद्वत्सम्यग्मार्गमनुचर्य तीतद्धाए अर्णता जीवा संमारौषमतरिसु संख्येयाः तरंति साम्प्रतं अर्णता नरिस्संति णागतंति, तं DD | मोचा, तमहं श्रुत्या भवदादीन श्रोतृन् प्रति वक्ष्यामि, जायंति जन्तवः, जम्बूसाम्यादीनां आमत्रणं हे जन्तवः!,तं सुणेह मे | चरितमग्गं आइक्खिस्मामि, नन्दन(ज्ञानदर्शन)मार्गावपि तदन्तर्गतावेव, जेसु संजमिजति ते इमे, जहा-'पुढवी जीवा पुढो सत्ता' सिलोगो ॥५०३।। पृथक् इति प्रत्येकशरीरत्वात् , आउजीवा तदा अगणी पुढो भत्ता इति वर्नने, तेण रुक्खगहणेणं भेदो दरिसिते 'अहावरे 'मिलोगो ।।५०४॥ अहावरे तसा पाणा, पनं छकाय आहिया, एतावना जीवकाए, न हि असम्भूतो | विद्यते जीवः १, कायाः एते, 'सबासिं अणुजुत्तीहिं' मिलोगो ।।५०५।। अनुरूपा युक्तिः, जहा 'पुढवीए णिक्खेवो परू|वणा लावणं परीमाणं । उवनोए सत्थे वेदणा य चवगा णियत्तीय ॥१॥ किंच-अङ्कग्वजीवत्वं पार्थिवानां विद्रुमलवणोपलादयः स्वस्वाश्रयावस्थाः मचेतनाः, कुन:?, ममानजातीयांकुरमद्भावान , अशोविकाराष्ट्रावन, भूमिग्वयसामावियसम्भवतो दडुरं जलमुत्तं । अथवा मन्छो व मभावयोमसंभूतपातातो॥१॥ सात्मकं तोयं भौम, कुतः ?, समानजातीयस्व| भावसम्भवात् ददुखत् , अथवा अन्तरीक्ष्यमपि अभ्रादिविकारखभावसंभूतपातान् मन्स्यवत् , ग्रहणवाक्यं, इतरसंयोगात्तेजसां, तेज: | मात्मकं आहारोपादाना उद्घचनिशेपोलब्धेः हृद्विकारदर्शनाद् पुरुषवत् , ग्रहणवाक्यं, गतिमच्चाद् वायु वः प्रयत्नगतेः, यमादयं | सविक्रम इव पुमान् तीव्रमन्दम यान् गतिविशेपान् स्वेन महिना अयतीति, वेगवचाच वृक्षादीन उन्मूलयति, इत्यतो गतिमच्चाद्वायु वः, मान्मकाश्च वनस्पतयः जन्मजराजीणमरणभद्भावा स्त्रीवत् , आह-नन्वयमन कान्तिको जातायाख्यायाः विपक्षेऽपि दर्शनात् , तद्यथा-जातं दधि जीर्ण वासः संजीवितं विषं मृतं कुसंभकमित्यादि, उच्यते, न, वनस्पती ममस्तलिङ्गोपलब्धेः, दध्यादाव ५३४] ॥२४३।। [247] Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [११], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१०७-११५], मूलं [गाथा ४९४-५३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: जीव प्रत लिंगानि सूत्रांक ॥४९७ ५३४|| दीप श्रीमत्रक- समस्तदर्शनादुपचारतः जातमिति, इतश्च सात्मका वनस्पतयः, तसंरोहणादाहारोपादानदौहृदसद्भावात् रोगचिकित्सासद्भावात् तामणि (अशोका)दौ सम्भवः कुष्माण्ड्यादीनां विशेषपक्षः, विशेषश्चासौ पक्षश्च विशेषपक्षा,कर्तव्यः, छिक्कापरोइता छि कमेत्तसंकोअतो कुलिङ्गो २४४।। ||व । आसयसंचारातो जाणमु वल्लीविताणाई ॥१सात्मिकाः स्पृष्टप्ररोदिकादयः स्पृष्टाकुंचनात्कीटवत् आश्रयाभिसंसर्पणाद्वल्ल्याPall दयः 'सम्मादीया सावप्पयोहसंकोयणादितोऽभिमता । बउलादयो य सदादिविसयकालोबलंभातो ॥१॥ शम्यादयः स्वापप्रबोध संकोयणादिसद्भावात् ,शब्दादिविपयोपलम्भात् बकुलासार(शो)कादयो देवदत्तवत् ,एवमाद्यामिस्त्रसानुरूपाभिः सुयुक्तिभिः एगिदिए पडिलेहिय जति जीवहिंसोपरतिः कार्या स्वकामतः अज्झोवगमियाओवकमियाओ वेदणाओ भणितव्याओ, तत्थ मणुस्सपंचेंदियतिरियाण य दुविधा, सेसाणं उवकामिया, एवं मतिमं पडिलेहिता सव्वे अफतदुक्खा य सारीरमाणसं अथवा सब्वेसिं | अणिटुं अकंतं अपियं दुक्खं अत' इत्यसात्कारणात् नवकेण भेदेन अहिंसणीया अहिंसका एतं खुणाणिणो सारं 'सिलोगो ५०६॥ न हि ज्ञानी ज्ञानादर्थान्तरभूत इतिकृत्वाऽपदिश्यते-एतं खुणाणिणो सारंति, कोऽर्थः १, एप हि ज्ञानस्य सारः जण हिंसति कंचणं कश्चनमिति केनचदपि भेदेन, अहिंसा समयंति समता 'जह मम ण पियं दुक्खं०'गाथा, अथवा यथा हिसितस्य दुःखमुत्पद्यते मम एवमभ्याख्यातस्यापि, चोरियातो वाऽस्य दुःखमुत्पद्यते, एवमन्येषामपि इत्यतो अहिंसासमयं चेव, अथवा | दबओ खेत्तओ कालो भावो हिंसा भवति, एवं शेपान्यपि, एतावाश्चैप ज्ञानविषयः यदुत हिंसाद्याश्रवद्वारोपरतः, क्षेत्रमाणातिपातं तु प्रतीत्यापदिश्यते, 'उडमहं तिरियं च०' सिलोगो ।। ५०७ ।। प्रज्ञापकं प्रतीत्य उड्डे अहं तिरियं च पूर्ववत् , सवत्थ |विरति कुन्जाइहापि तावत् निब्वाणं भवति, कथं ?, अहिंसकोऽयं न हि हिंसक इच सर्वस्योद्रेजको भवति, उपशान्तवैरत्वाच्च न कस्य अनुक्रम [४९७५३४] ॥२४४|| [248] Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [११], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१००-११५], मूलं [गाथा ४९७-५३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत श्रीरामक ताङ्गचूर्णिः ॥२४५|| सूत्रांक ॥४९७ ५३४|| दीप अनुक्रम [४९७५३४] चिदपि विभेति, किंच-तणसंथारणियाणोऽवि मुणिवरो भट्टरागमयदोसो। किम् ?, मोक्खो,एवं निर्वाणं भवतीत्याख्यातं, 101 | दोपनिरा | 'पभू दोसे णिराकिचा०' सिलोगो । ५०८॥ प्रभवतीति प्रभुः, वश्येन्द्रिय इत्यर्थः, नवा संयमावरणानां कर्मणां वशे वर्तते, करणादि अथवा स्वतंत्रत्वात् जीव एवं प्रभुः, शरीर हि परतन्त्रं, मोक्षमार्गे वाऽनुपलायितव्या प्रभुदोषाः क्रोधादयः, निरा इति पृष्ठतः कृत्वा, ण विरुज्झेज केणइ न विरुध्येत केनचिदिति, अपि पूर्वशत्रूणामपि, अपि हास्येनापि विरोधे विग्रहः घन इत्यर्थः, यद्वा यस्य प्रतिकलं, मणसा वयसा चेवत्ति नबकेन भेदेन अन्तश इति यापजीवितान्तः, उक्ता मूलगुणाः। उत्तरगुणप्रसिद्धये त्वपदिश्यते 'संधुडे य महापणे सिलोगो ।। ५०९।। हिंसाद्याश्रवसंवृत्तः इंदियभावसंवुडो वा, महती प्रज्ञा यस्य स भाति महाप्रज्ञः, धीवुद्धिरित्यनान्तरं, आहार उवधिसेजाउ याचितद्रव्यं एपणीयं च चरति-गच्छति तं, चर्यत इत्येकोऽर्थः, एसणासमिते णिचं तिविधा एमणा-गवेसणा गहणेसणा घासेसणा, एवं सेसा मोवि समिईओ, तत्राधाकर्म सर्वगुरुअनेपणादोपः आद्यश्चेति तेन तनिषेधार्थमपदिश्यते-'भूतानि समारंभ'सिलोगो ॥५१०|| भूनानि तसथावराणि, कथमिति, साधू निर्दिश्योपकल्पितं, तारिख तु ण गेव्हिज्जा, एवं ओधिषि, इत्येवं सार्वमार्गप्रतिपन्नो भवति, किंच-'पूतिकम्मं ण सेविजा ॥५११ ॥ एस धम्मे बुसीमतोति, चुसिमानिति संयममान् , बुमिमं च किंचि अभिसंकेजा सबसो तंण भत्तए यदिति आहार उयधि सेञ्जा अथवा यदिति यत्किचित् दोप, अमिसंकने पणीसाए अण्णवर किमेत एसणिझं असणिज?, सर्वश इति, यद्यपि प्राणा| त्ययः खाद, इदाणि वायासमिती 'ठाणाईसिलोगो ॥५१२॥ ठाणाणि संति सडीगं, श्रद्धावन्त श्राद्धिनः, गामेसु नगरेसु वा जाव सन्निवेसेसु वा सम्नदिट्ठीणं मिच्छादिट्ठीण वा, तेहिं सडेहिं पुधिणाम पुच्छ गतो, परेणावि मिच्छादिट्ठीणा, मरुयस- ॥२४५॥ [249] Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [११], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१०७-११५], मूलं [गाथा ४९४-५३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: थासाक- प्रत दानविचार सूत्रांक ॥२४६॥ ॥४९७ ५३४|| दीप अनुक्रम डेण तपणियादिसड़ेण वा, हेवाऽधो, जमिदो अम्हे वादाणं भिक्षु वा तर्पयामो, तत्र कश्चिद्धम्मं च मग्गद्वितो मग्गचिट्ठ एवं पुट्ठो अस्थि धम्मोति णवचि?, 'अस्थि वा' सिलोगो ॥ ५१३ ।। अथवा णत्थि पुणति, स्याद्-अनुज्ञायां को दोपः प्रतिपेधे या?, उच्यते-'दाणताए जे सत्ता हस्मंति तसथावरा' ।। ५१४ ॥ तंजहा-तणणिस्सित्ता कट्टगोमयणिस्सिता संसेतया तसा थावरा य हुमते नेसि सिलोगो तेसिं सारक्खणहाए अस्थि पुण्णन्ति णो वदे मिच्छत्तथिरीकरणं च, तेणाहारेण परिवूढा करेस्संति असंयम अप्पाणं परं वा बहुहिं भावेंति तदनुज्ञातं भवति, पडिसेधेवि जेसि तं उपकपति अण्णं पाणं तधाविधं । तेसिं लाभतरायन्ति, तम्हा णस्थिति णो वदे ।। कंठथे, तन्त्र का प्रतिपत्तिः तुसिणीपहिं अच्छितव्वं, निबंधे चा प्रवीति-अम्हं आधाकम्मादिवायालीसदोसपडिसुद्धो पिंडो पसत्थो, जंच पुच्छसि किमत्रास्ति पुण्यमित्यत्रास्माकं अव्यापारः, कथं ,उभयथा दोपोपपत्तेः, कथं ?,'जे य दाणं पसंसंति, बधमिच्छंति पाणिणं जे यणं पडिसेधेति, वित्तिछेदं कति ते ॥५१६।। महाभट्टारकदृष्टान्तः, सर्वैः जलचरैः स्थलचरैश्च प्रतिरोधितः, अनुज्ञायामननुज्ञायां चोभयथापिदोपः, अथवा 'ग्रसत्येको मुश्चत्येको, द्वावेतौ नरकं गतो' एवमुभयथापि दोपं दृष्ट्वा 'दुहओ' सिलोगो ॥ ५१७ ॥ दुहतोचि जे पा भाप्तति अस्थि पस्थि वा पुणो ते भगवन्तः, अयं स्यस्सा एतीत्यायमं रज इति रजइतुं, रजसः आगमं हिचा णियाणंति ते इत्येवं वाक्यममितिरुक्ता, तद्ग्रहणात् सेसावि समितीओ घेपनि, एवं पा णियाणं भवतीति, भगवंतच 'णिवाणपरमा बुद्धा सिलोगो ॥५१॥ णिब्वाणं परमं जेसिं ते इमे णियाणपरमा एते बुद्धा अरहन्तः तच्छिष्या युद्धबोधिताः, परमं निर्माणमित्यतोऽनन्यतुल्यं, नास्य सांसारिकानि तानि तानि वेदनाप्रतीकाराणि निर्वाणानि, अनन्तभागेऽपि तिष्ठन्तीति दृष्टान्तः मोक्ष एव, नक्खत्ताण व चंदि [४९७५३४] ॥२४६॥ [250] Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [११], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१००-११५], मूलं [गाथा ४९७-५३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: सदायः तत्वादि प्रत साजचूर्णिः सूत्रांक ||४९७ ५३४|| दीप अनुक्रम श्रीसूत्रकन मा न क्षयं यांतीति नक्षत्राणि तेभ्यः कान्त्या सौम्यत्वेन प्रमाणेन काशेन परमचन्द्रमा नक्षत्रग्रहतारकेभ्य, एवं संसारसुखेम्यो ऽधिकं निर्वाणसुक्खमिति, तम्हा सदा जते दन्ते मोक्षमार्ग पडिवण्णे उत्तरगुणेहिं बद्धमाणेहि अच्छिण्णं संधणाए णिचाणं ॥२४७॥ संधेजा, स एवं मिच्छत्तासंधनया निर्वाणं संधेमाणः उभयत्रापि 'बुज्झमाणाण पाणाणं' सिलोगो ॥५१९।। संमारनदीश्रोतोमिरुह्यमानानां स्वकर्मोदयेन, ये उच्छुभं तीर्थकरत्वनाम तस्य कर्मण उदयात अक्खाति साधु तं दीव अक्खाति भगवानेव शोभनमाख्याति साधुराख्यातं, एतावता समणे वा माहणे वा जावऽत्थऽन्धुत्तरीए, दीपयतीति दीपः, द्विवा पिचति वा द्वीपः, स MAIT आश्वासे प्रकाशे च, इहाश्वासदीपोऽधिकृतः, यस्मादाह-उद्यमानानां श्रोतमा दीयो ताणं सरणं गति पतिद्वा य भवति, एत-| दाश्वासदीपं प्राप्य संसारिणां प्रतिष्ठा भवति, इतरथा हि संसारसागरे जन्ममृत्युजलोमिमिरुद्यमानः नव प्रतिष्ठा लभते, जंव मग्गं अणुपालेंतस्स अट्ठविधं कम्म, प्रतिष्ठां गच्छन्ति, निष्ठामित्यर्थः, यथाऽऽख्याति तथाऽनु चरति सयं, अणुग्गहितबालविरतो जेय जीवो हिंडतो प्रतिष्टां लभते, एष प्रशस्तभावमार्गः इति लभ्यते, केरिसो गुण पमत्थभावमग्गगामी प्रतिष्ठा लभते ? कीदृशोवा भावाभासदीपो भवति ?, 'आयगुत्ते सदादंते' सिलोगो ॥५२०॥ आत्मनि आत्मसु वा गुप्त आत्मगुप्तः इंदियनोइंदियगुप्त इत्यर्थः, न तु यस्य गृहादीनि गुप्तादीनि, हिमादीनि श्रोतांसि छिन्नानि यस्य स भवति छिन्नसोते, छिनधोतस्त्वादेव निराश्रवः, जे धम्म सुद्धमक्खाति य एवं विधे आश्वासद्वीप स्थितः प्रकाशद्वीपः अन्येषां धर्ममुपदिश्यति, प्रतिपूर्णमिदं सर्वसच्चानां हितं सुह सर्वाविशेष्य निरुपध निर्वाहिकं मोक्षं नैयायिक इत्यतः प्रतिपूर्ण, अथवा सौर्दयादमध्यानादिभिर्धर्मकारणैः प्रतिपूर्णमिति, अनन्यतुल्यं अपेलिस, योऽयमनन्यसदृशो धर्मोपदेशः। तमेव अविजानंता ॥५२१|| तमिति तद्विविधं प्रदीपभूतं धर्म न युद्धा STALATHEMATRI [४९७५३४] ॥२४॥ [251] Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [११], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१०७-११५], मूलं [गाथा ४९७-५३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: बीजोदकनिषेधादि सूत्रांक प्रत । श्रीसूत्रकनागचूर्णिः ॥२४८॥ ||४९७५३४|| दीप अनुक्रम बुद्धनादिनच युद्धमन्यावात्मानं बुद्धा मोति य मन्नता अण्णाणिणो अविरया तिष्णि तेसट्ठा पावाइयसया एवमसाकं मोक्षसमाधिर्भविष्यतीति, 'दूरतस्ते समाधिए', कथमिह लोकेऽपि तायत् अनेकाग्रत्वात्समाधि न लभते, कुतस्तहिं परमसमाधि, मोक्षं, तद्यथा-शाक्याः अवुद्धा बुद्धवादिनः सुखेन सुखमिच्छंति, इहलोकेऽपि तावद् ग्रामव्यापारैर्न सुखमास्वादयंति, कुतस्तहि परमसमाधिसुखमिति ?, उक्तं हि 'तत्रैकाथ्यं कुतो ध्यान, यत्राध्यानं यत्रारंभपरिग्रह मिति, इत्यतस्ते चतुर्विधाए भावणाए दूरतः, इतश्च दूरतः 'ते य बीयोदगं चेच' सिलोगो ॥ ५२२ ।। बीयाणि सचेतणाणि, शाल्यादीनां, सृतमिति चोदकं सचेतनमेव, हरिद्राकहोदकवत् , तमुद्दिश्य च कृतं उपासकादिमिः स्वयं च पाचयंति पक्षचीरिकादयः, तेषां हि पक्षे चारिका भवंति, अनुज्ञाते च सुपकं सुमृष्टमिति, जीवेषु च अजीवबुद्धयः अतच्चे तत्चबुद्वयः वराकास्तकारिणस्तवपिणश्च संवभक्तानि गणयंतोऽतीतानागतानि च प्रार्थयन्तः झाणं णाम मियायन्ति णाम परोक्षस्तवादिपु तेऽपि नाम यदि ध्यायंति, को हि नाम न ध्यानं ध्यायति 'ग्रामक्षेत्रगृहादीनां, गीयजनस्य च । यत्रप्रतिग्रहो दृष्टो, ध्यानं तत्र कुतः शुभम् ।।१।। इाते, सचित्तकम्मा य तेसिं आवसहा, विहारकुडीउशि, मांसं कल्पिक इत्यपदिश्यते, दासी उ कप्पया रीउचि, यथा वबरेण मांसप प्रत्याख्यानं अशक्नुवता तमनुप्रासयितुं भगमिति संज्ञाकृत्वा भक्षितं, फिमसौ तद्भक्षयं निर्विशंको भवति ?, लूता.या शीतलिकाभिधानेनामिलप्यमाना किन्न मारयति ?, एवं तेषां न संज्ञान्तरि परिकल्पितास्ते आरंभा निर्माणाय भांति, न च वैराग्यफरा भवंति, येऽपि तावद्भिक्षाहारा भवंति तेऽपि सविकारस्त्रीरूपसचित्तकर्मसु लेनेपु वसंति तेपामपि तावत्कुतो का ध्यान ?, किमंग पुनः कल्पिकारीापारयन्तः पचन चना। प्रवृत्ताः, ता तनुमेय वानुप्रेक्षमाणानां कुतो ध्यानं ?, न हि मोक्षमागस ध्यानस्य च शुद्धस्य अखेत्तपणा अजाणगा, अस [४९७ ५३४] [252] Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [११], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१०७-११५], मूलं [गाथा ४९७-५३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक ॥४९७ ५३४|| दीप श्रीसूत्रक- माहिता णामासंवृत्ता, मनोज्ञेषु पानभोजनाच्छादनादिपु नित्याध्यत्रसिताः, कोऽत्थ संघभत्तं करेन्ज ? कोऽत्य परिक्खारं देज वस्त्राणि तागचूर्णि:17। इत्येवं नित्यमेवा ध्यायति 'जहा का' सिलोगो ।। ५२३ ।। जहा ढंका य कंका य पिलजा जलचरपक्षजाति से मग्गुकाः वर्जनादि ॥२४९॥ काकमंगुवत् शिखी च जलचराः, एवं एते हि न तृणाहाराः, केवलोदकाहारवत् ते नित्यकालमेव मच्छेसणं झियायंति निवलास्तिष्ठति जलमम्झे उदगमक्खोमेन्ता मा भून्मत्स्यादयो नश्यति उकसिष्यते वा 'एवं तु समणा एगे'सिलेागो ॥५२४॥ एवंपि नाम श्रवणा वयं इति ब्रुवन्तः एकेन सर्वे पचनादिपु आरंभेषु अशुभाध्यवसायेनैव वर्तमाना मिथ्यादष्टयः चरित्तअणारीया आहारं परपूजासत्कारांच ध्यायति सन्मार्गाजानकाः कुमार्गाश्रिताः मोक्षमिच्छंति, अपि..संसारसागर एवं निमजतो दृश्यन्ते। 'जहा आसाविणी णा'सिलोगः ॥५२६।। आश्रवतीत्याश्राविनी-सदाश्रया शतच्छिद्रा, नयति नीयते वाऽतो, जाति य, एव जात्यन्धः पूर्वापरदक्षिणोचराणां दिशामार्गाणां गतेः गन्तव्यस्यानभिज्ञः एतावद्गतं एतावद् गन्तव्यं इच्छेजा पारमागंतुं | अंतरा एव नदीमुखे पर्वते वा प्रतिभग्ने निमग्ने वा पोते अंतरा इति अप्राप्त एव पारं विसीदंति, एय दृष्टान्तोऽयमपिनयः| 'एवं तु समणा एगे सिलोगो ।।५२७|| एगे, ण सम्वे, अण्णाणमिच्छत्ततमपडलमोहजातपडिच्छन्ना, अणारियाणाम अणारिय| चरिचा, सोतं कसिणगावपणा, श्रवतीति श्रोतः आश्राविनी नौ थानीय कुचरिक श्रोतमास्थाय कसिणमिति सम्पूर्ण कर्म ततो भवति, तदभावे तु न शेपाः आश्रयाः, यद्वाऽपि भवति तथापि न सर्वा उत्तरप्रकृतयो वध्यन्ते, न वा सम्पूर्णाः, यस्मादुक्तं 'सम्मदिट्ठी जीवो', अथवा कसिणद्रव्यश्रोतः प्रापि वर्षासु वा नदीपूरः, एवं मिच्छत्तमहगता जोगा कसाया वा संपुण्णभाव| सोतं भवति, त एवं सोतमावण्णा आगंतारो महाभयमिति संमारथ जाति जरामरणबहुलो, तजहा-गन्भातो गब्भ जम्मतो 1.॥२४९॥ अनुक्रम [४९७५३४] [253] Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [११], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१०७-११५], मूलं [गाथा ४९७-५३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत उत्सर्गापवादादि सूत्रांक श्रीसत्रक- ताजचूर्णि: ॥२५०॥ ॥४९७ ५३४|| दीप अनुक्रम जम्मं मारओ मार दुक्खओ दुक्खं, एवं भवसहस्साई पर्यापारित बहून्यपि, पसत्थं चेव पसत्थभावमग्गो वणिज्जमाणो, पुर्व | बुत्तं किंचि अभिसंकिज्ज सव्वसोतं ण भोत्तए एस उस्सग्गमग्गे इत्यादि, अतिप्रसक्तं लक्षणं निवार्यते, सर्वस्योत्सगर्गापवादः, यथा चोत्सर्गः काश्यपेन प्रणीतः तथाऽपवाद इत्यतोऽपवादसूत्र प्रारम्यते, प्रत्ययश्च शिष्याणां भविष्यति यथाऽस्त्यपवादोऽपीति तेन तमाचरंतो नामाचारमात्मानं मंस्यते, तच्च शास्त्रमेव न भवति यत्रोत्सर्गापवादौ न स्तः तेनापदिश्यते-'इमंच धम्ममादाय'सिलोगो ।।५२८।। धर्ममादाय धर्म फलं च तीर्थकरः काश्यपः स एवं भगवान् किं प्रवेदितवान् ?-कुजा भिक्खू गिलाणस्स पूर्ववत् , किंच-संखाय पेसलं धम्म संख्यायेति ज्ञात्वा, पेसलं इति सम्पूर्ण, द्रव्यपेसलं धम्मं यद् द्विभेदं सुन्दरं मांसं, भावपेशलस्तु ज्ञानदयादिभिः सर्वैर्धर्मकारणः सम्पूर्णो धर्म एव, तं ज्ञात्वा दृष्टिमानिति सम्यग्दृष्टिः, संख्याग्रहणा धर्मग्रहणा(ज्ञानं धर्मग्रहणाचारित्र) दृष्टिग्रहणात्सम्यग्दर्शनं, एवं त्रीण्यपि सम्यग्दर्शनशानचारित्राणि गृहीतानि भवति, तरे सोतं महाघोरं मार्ग एवानुवर्तते, तराहि सोतं महाघोरं, श्रवन्तीति श्रोत्रं, द्रव्ये भावे च जातिजरामरणाप्रियसंवासादिमिर्महाघोरं भावश्रोतः संसार अत्तत्ताएवित्ति अत्ताणं तरतो परिचएजासि तमेव तरति 'विरते गामधम्मेहिं' सिलोगो ॥ ५२९।। ग्रामधर्माः शब्दादयो, जे केइ जगती जगति जायत इति जगत् तसिन् जगति विद्यन्ते ये, जायन्त इति वा जगा:-जन्तवः, तेसिं अतुवमाणेण तेषां आत्मोपमानेन-आत्मौपम्येन, कोऽर्थः ? 'जह मम ण पियं दुक्खं० धीमं कुब्वं परिवए'त्ति संयमचारियं भवति 'अतिमाणं च सिलोगो ॥५३०॥ अथवा संयमवीरियस्स इमे विग्धकरा भवंति, तंजहा-अतिकोधो अतिमाणो अतिमाया अतिलोभो इत्यतः अतिमानं च मायां च, अतिक्राम्यते येन चारित्रं सोऽतिमाणं, अप्रशस्त इत्यर्थः, प्रशस्तोऽपि न कार्यः, किंतु तरिक [४९७५३४] ||२५०|| [254] Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [११], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१००-११५], मूलं [गाथा ४९७-५३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक थीत्रक- ताङ्गचूर्णिः ॥२५॥ ॥४९७ ५३४|| दीप अनुक्रम [४९७ यार्थमेव क्रियते, रजककूपखातकदृष्टान्तसामर्थ्यात् , यथा रजको मलदिग्धानि वखाणि प्रक्षालयन् शुख्यर्थ अन्यदपि मल औष-10 कषायधादिकं समादत्ते, एवं साधुरपि, कूपेऽप्येवं, न च नामावीतरागस मानादयो नोत्पद्यन्ते, ते त्वप्रशस्ताः, तेवि नरेण न कार्याः, वजनादि एवं शेषा अपीति । दुविधाए परिणाए परिजाणाहि, किंध-ये केचित् क्रोधमानमायालोभायन्यदपि दोपजातं सबमेतं निराकिच्चा, सव्वं निरवशेष तं, एतदिति यदुदिष्ट, निरमिति स्पृष्ट, णियाणं अच्छिण्णसंधणाए संधए, किंच-'संधए साधुधम्म वा' सिलोगो ।।५३१।। दमविहो चरित्तधम्मो णाणदंसणचरित्ताणि वा तं अच्छिन्नसंधणाए, णाणे अपुब्बगहणं पुब्बाधीतं च गुणाति, दसणे हिस्संकितादि, चरिते अखंडितमूलगुणो, पठ्यते च-'सबहे साधुधम्मंच' पावधम्मो अण्णाणअविरतिमिच्छताणि, अथवा पावाणं धम्मो, पापा मिथ्यादृष्टयः सर्वे गृहिणोऽन्यतीथिकाय, तेसि धम्म-सभावं, निराकुर्यादिति पृष्ठतः कुर्यात् , | तत्केन कुर्यात् को वा कुर्यादिति ?, उच्यते, उवधानवीरिए भिक्खू उपधानवीर्य नाम तपोवीर्य स उपधानवीर्यवान् भिक्खू कोचं माणं न पत्थये न क्रुध्येत न मायेत, न क्रोमिच्छेदित्यर्थः, अक्रोधं तु प्रार्थयेत् , एवं शेषेवपि, स्वात् किमेवं वर्द्धमामानवामी एतन्मार्गसुपदिष्टवान् उतान्येऽपि तीर्थकराः?, उच्यते, 'जे य बुद्धा अतिकता सिलोगो ॥५३२।। अतिकंता अतीतद्धाए अर्णता, एतन्मार्गमुपादिक्ष्यंत, आचार्या वा मोक्षमिताः, साम्प्रतं पचदशसु कर्मभूमीषु संख्येया, अणागतद्धाए जे य बुद्धा अणागता संतित्ति संति पतिवाणं गमनं शान्तिश्चारित्रमार्ग इत्यर्थः, एषा शान्तिः तेषां प्रतिष्ठा नामाधारः आश्रय इत्यर्थः | प्रतिष्ठानं प्रतिष्ठा निर्वाणं वा शान्तिः तेषां प्रतिष्ठानि, को दृष्टान्तः ?-भूयाणं जगई जहा जगतीनाम पृथिवी, यथा सर्वेषां | | स्थावरजङ्गमानां जगती प्रतिष्ठान तथा सर्वतीर्थकराणामपि एष एव शान्तिमार्गः प्रतिष्ठानं प्रतिष्ठा, 'गहणं व तमावणं' | ॥२५॥ ५३४] [255] Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [११], उद्देशक -], नियुक्ति: [१०७-११५], मूलं [गाथा ४९७-५३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक ॥४९७ ५३४|| दीप अनुक्रम श्रीसूत्रक- सिलोगो ॥५३३।। अथ पुनस्तं अतानि आपणं चारित्रमार्गप्रयातमित्यर्थः, पठ्यते-अथेनं भेदमावणं भावभेदो हि संयम ।। भावभेदादि ताङ्गचूर्णिः एव, कर्माणि भिनतीति भेदः फासा सीतउसिणदंशमशकादयः उच्चावचा अनेकप्रकाराः परीपहोपसर्गाः स्पृशेत् ण तेहिं समवसर१२ अ० णानि विणिहम्मेजा ण तेहिं उदिण्योहिवि गाणदंसणचरित्तेसु जत्ताओ मग्गाओ विणिहण्योजा, पुवीए जिणेता संयमवीरियं उपादे॥२५२॥ | जासित्ति, जहा ते गुरुगावि उदिण्णा लहुगा भवन्ति, दृष्टान्तः--आभीरयुवत्ति, जात मेत्तं वच्छगं दुणि वेलाए उक्खिविऊण |णिक्खामेति, पीतं चैनं पुनः प्रवेशयति, तमेव क्रमशो बर्द्धमानं अहरहर्जयं कुर्वता जाब चउहायगंपि उक्खिाति, एप दृष्टान्तोऽयमर्थोपनयः-एवं साधुरपि सन्मार्गात् क्रमशो जयति उदीर्णैरपि परीपहन विहन्यते, वानेण व महागिरिरिति मन्दर संवुडे सि महापण्णे' सिलोगो ॥५३४॥ स एवं संवरसंवृतः प्रधानप्रज्ञः विस्तीर्णप्रज्ञो वा, दधाति बुद्ध्यादीन गुणानिति बुद्धा, पाठाHAIन्तर धीरं, द एसणं चरेआसित्ति दचेसणं चरे, अथवा दत्तमेपणीयं च यश्चरति स भवति दलेपणचरः, णिव्वुडे कालमानाखो शान्तसमितो णिम्खुडः शीतभूत इत्यर्थः, कालं कांक्षतीति कालकंखी, मरणकालमित्यर्थः, कोऽर्थः?-तापदनेन सन्मार्गेण अविश्राम गन्तव्यं यावन्मरणकालः, एवं केनलिणो मतंति, जं तुमे अजजंबू पुच्छिते 'कतरे मग्गे' तदेतस्य केवलिनो मार्गाHAIमिधानं कथितमनन्तरमाख्यातमिति ।। इति मार्गाभययनं ।। समोसरणंति अज्झयणस्स चत्तारि अणुभोगदारा, अधियारो किरियावादिमादीहिं चउहिं समोसरणेहि, णामणिकपणे मणिकखेवो गाथा 'समोसरणंमिवि छ' गाथा ॥११६॥ वहरि दब्बसमोमरणं सम्यक् समस्तं वा अवसरणं, तं तिविध सचित्तं दुपदादि यत्रैकत्र बहबो द्विपदाः वा बह्वो मनुष्या समवसरंति तं सचितं दधसमोसरणं दुपदसमोरणं, जहा साधुसमो- ॥२५॥ [४९७ ५३४] | अस्य पृष्ठे द्वादशमं अध्ययनं आरभ्यते [256] Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [११६-१२१], मूलं [गाथा ५३५-५५६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत श्रीसूत्रतारचूर्णिः ॥२५॥ सूत्रांक ||५३५ ५५६|| दीप अनुक्रम त्रिषष्य| सरणं, चतुष्पदानां निर्वाणादिपु गयादीनां समोसरणं, अपदानां नास्ति स्वय समोसरणं, गत्यभावात् , सहजानां वा स्वयमपि भवति घिक त्रिशवृक्षादीनां समोसरणं, अचेतनानां अभ्रादीनां, खेनसमोसरणं जंमि खेत्ते समोसरति द्रव्याणि, जहा साधुणो आणंदपुरे समो तपाखंडाः सरंति, कालसमोसरणं वैसाहमासे जत्ताए समोसरंति, वासासु वा जत्थ समोसरंति, तहा पक्षिणो दिवाचरा वन-17 खंडमासाद्य समवसरंति । 'भावसमोसरणं पुणगाथा ॥११७|| तिण्णि तिमट्ठा पावादियसयाणि णिग्गंथे मोत्तूण मिच्छाII दिविणोत्तिकाऊण उदइए भावे समोसरन्ति, इंदियादि पडुच खोपसमिए भावे समोमरंति, पारिणामि जीव, एतेसु चेव तीसु|| भावेसु तेसिं सन्निवातिओ भावो जोएतच्यो, सम्मदिट्ठीकिरियावादी तु छसुवि भावेसु, उदइए भाये अण्णाणमियत्तबासु अट्टसुचि कम्मगतीसु समोसरंति, एवं चरित्ताचरित्ती य जोएयब्धा, उपसमिरवि भावे समोसरंति, उपसामगं पड्डुच उपसममङ्गीकृत्य, यदुक्तं भवति-अस्मिन्नेव भंगद्वये भवंति, खओवममिएवि भावे समोमरंति अट्ठारसविधे खओवयमिए भावे, तद्यथा-ज्ञानाज्ञानदर्शनदानलब्ध्यादयश्चतुस्लित्रिपश्चभेदाः सम्यक्त्वचारित्रसंयमासंयमाच, णाणं चउन्धिई-मतिसुतओहिमणपजवाणि, अण्णाणं मतिअण्णाणं सुतअण्णाणं विभंगणाणं, ज्ञानाज्ञानमित्यत्राज्ञानमिति यदुक्तं तदेकभावापकर्षमङ्गीकृत्य, यद्वा सामान्येऽन्ये च, केवलिनोवा | वदति, दरिसणं तिविधं-चक्खु अचक्षु अवधिसणमिति, लब्धिः पञ्चविधा-दानलाभभोगोपभोगरीरियलद्धी इति, संमत्तं चरितं | संघमासंयम इत्येतेऽष्टादश क्षायोपशमिका भावा भयंति, णवविध खाइगे भावे समोसरंति, तद्यथा-'ज्ञानदर्शनलाभभोगोपभोगगीर्याणि च,णाण-केवलणाणं, दंगणं केवलदंगणं, दाणलाभभोगोपभोगवीर्यमित्येतानि सम्यक्त्यचारित्रे च नब क्षायिका भाषा भवन्ति, | परिणामिएऽवि अगातियपरिणामियगे भावे समोमरंति, एवं सन्निपातिगेवि सण्णिकासो ओइयिकादयो द्विकादिधारणिकाः। अथवा २५३॥ [५३५५५६] [257] Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||५३५ ५५६ ॥ दीप अनुक्रम [५३५ ५५६ ] श्रीकताङ्गचूर्णि : ।।२५४ । SEASE INSULIANCES “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], निर्युक्तिः [११६ १२१], मूलं [ गाथा ५३५-५५६ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: भावसमोसरणं चतुर्विधं, तंजहा - किरियाबादी अकिरियाबादी अणाणीयवादि वेणइवादी, 'अस्थित्ति किरियावादी' गाथा ॥ ११७ ॥ तत्थ किरियाबादी अत्थी आयादि जाव सुचिष्णाणं कम्माणं फलविवागो, तत्थावि ते मिच्छादिट्ठी चैत्र, जैनं शासनं अनवगाढा, तद्विधर्म्मवादिनो अकिरियाचादिणो, तंजहा -- णत्थि मातादि जाव णो सुचिण्णाणं कम्माणं सुचिण्णा फल विवागा भयंति, अणाणीवादिति किं णाणेण पढितेण : सीले उअमितव्यं, ज्ञानस्य हि अयमेव सारः, जं शीलसंवरः, सीलेन हि तपसा च स्वर्गमोक्षे लभ्येते, वेणड्ववादिणो भगति-ण कस्सवि पासंडिगोsस्स गिद्दत्थस्स वा गिंदा कायच्या, सव्वस्व विणीयविणयेण | होय । 'असियस किरियाण' गाथा ॥ ११९॥ तंजहा- 'णत्थि ण णिचोण कुणड़ कतं पण वेदे णत्थि णिवाणं' सांख्यवैशेषिका ईश्वरकारणादि अकिरियवादी, चउरासीइ तच्चणिगादि, क्षणभंगवादित्वातु क्षणवादिणः, अण्णाणीयवादीणि सचट्ठी, ते तु मृगचारिकाद्या, वेणइयवादीण छत्तीसा दाणामपाणामादिप्रव्रज्या, तेसि मताणुमतेणं पण्णवणा वण्णिता इहज्झयणे । सम्भावणिच्छयत्थं समोसरणं आहु तैणंति ॥ १२० ॥ तेषां क्रियावाद्यादीनां यद्यस्य मतं यस्यानुमतं तेषां समवायेन त्रीणि त्रिपष्टानि प्रायादुकशतानि भवति, तद्यथा - आस्तिक मतमात्माद्या नित्यानित्यात्मिका नव सं (भवं ) ति । कालनियतिख भावेश्वरात्म कृतितः स्वपर संस्थाः || १ || १८०, एवं असीतं किरियावा दिसतं, एएसु पदेसु णवित्ति नव, जीव अजीवा आसव बंधी पुण्णं तहेव पार्वति । संवरणिअरमोक्खा सन्भूतपदा णत्र हति ॥ १ ॥ इमो सो चारणोवाओ-अस्थि जीवः स्वतो नित्यः कालतः १, अस्थि जीवो सतो अणियो कालतो २, अस्थि जीवो परतो निधो कालओ ३, अस्थि जीवो परतो अणिच्चो कालओ ४ अस्थि जीवो सतो मिचो नियतितो ५, एवं नियतितो स्वभावतो ईश्वरतः आत्मनः एते पंच चउका वीसं, एवं अजीवादिसुवि [258] त्रिषष्ट्य. धिक त्रिशतपाखंडा ॥२५४॥ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||५३५ ५५६ || दीप अनुक्रम [५३५ ५५६ ] श्रीक ॥ङ्कचूर्णि : ॥२५५॥ “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], निर्युक्तिः [११६ १२१], मूलं [ गाथा ५३५-५५६ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: वीसं बीसं एताओ णत्र वीसाओ आसीतं किरियाचादिसतं भवति । इदाणिं अकिरियाचादि-कालयच्छा नियति भावेश्वरात्मनचतुरशीतिः। नास्तिकवादिगणमतं न संति सप्त स्वपरसंस्थाः ||१|| इमेनोपायेन णत्थि जीवो सतो कालओ १, गत्थि जीवो परतो कालओ २, एवं यदृच्छाएवि दो २ णियतीएवि दो २ इस्सरतोवि दो २ स्वभावतोऽपि दो २, सर्वेऽवि वारम, जीवादिसु सत्तसु गुणिता चतुरसीति भवंति । इदाणि अण्णाणिय- अज्ञानिकवादिमतं नव जीवादीन् सदादिसप्तविधान् । भावोत्पत्तिः सदसत् द्वेधाऽवाच्यं च को वेत्ति १ ॥१॥ ६७, इमे सतविविधाणा-सन् जीवः को चेति १ किं वा गातेण ११, असन् जीवः को वेत्ति ? किं वा तेण णातेण ? २ सदसन् जीव को वेत्ति किं वा तेण णातेण १ ३ अवचनीयो जीवः को वेत्ति किं वा तेण णातेण १४ एवं सत् अवचनीयः ५ असत् अवचनीयः ६ सदमत् अवचनीयः ७, अजीवेअवे ७, आश्रवेवि ७ संबंधे।ये ७ पुण्णेवि ७ पातेवि ७ संवरेवि ७ णिजराएचि ७ मोक्खेवि ७, एवमेते सत्त पत्रमा सत्तड्डी, इमेहिं संजुत्ता सचसड्डी हवंति, तंजहा - सन्ती भावो | त्पत्तिः को वेत्ति १ किंवा ताए जाताए । असती १ भावोत्पत्तिः को वेति ? किं वा ताए माताए १२ सदसती भावोत्पत्तिः को | वेत्ति १ किंवा ताए णाताए १ ३ अवचनीया भावोत्पत्तिः को वेत्ति ? किं वा ताए जाताए ? ४, उक्ता अज्ञानिकाः। इदाणिं चैनविको-चैनयिकमतं विनयश्रेतोवाकायदानतः कार्यः । सुरनृपतियतिज्ञातिनृस्थविराधमातृपितृपु मदा ||१|| सुराणां विनयः कायन्यो, तंजहा- मणेणं चायाए कारणं दाणेणं, एवं रायाणं ४ जतीणं ४ णाणी (ती)णं ४ थेराणं ४ किवणाणं ४ मातुः ४ पितुः ४, एवमेते अट्ठ चउका बत्तीसं, सव्वेवि मेलिया तिणि तिसट्टा पावादिगसता भवति, एतेसिं भगवता गणधरेहि य सम्भावतो निश्वयार्थ इदाध्ययनेऽपदिश्यते, अत एवाध्ययनं समवमरणमित्यपदिश्यते, ते पुग तिष्णि तिसट्टा पावादिगसता इमेसु दोसु ठाणेसु ॥२५५॥ [259] त्रिपष्ट्य धिक त्रिशतपाखंडाः ACCESS Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [११६-१२१], मूलं [गाथा ५३५-५५६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक श्रीक्षकवागवूर्णिः ॥२५६॥ निषष्ट्य. धिक त्रिशतपाखंडा ||५३५ ५५६|| दीप अनुक्रम समोसराविअंति, जहा-संमवादे य मिच्छावादे य, तत्थ गाथा 'सम्मद्दिट्टी किरियावादी' गाथा || १२१ ।। ता किरियावादितेऽपि सति सम्मदिट्ठीणो चेव एगे सम्मदिट्ठीवादी, अबसेसा चत्तारिवि समोसरणा मिच्छावादियो, अण्णागी अविरता परस्परं विरुष्टयः, तेण मोत्तण अकिरियावादं संमावादं लघृण विरतिं च अप्पमादो कायव्यो जहा कुदसणेहि ण छलिजसि, तेण धम्मे भावसमाधीए भावमग्गे अ घडितानमिति, णामणिक्खेको गतो, सुनाणुगमे सुत्तं, अभिसंबंधो अज्झयणं अज्झयणेण | तेण णिब्युडेण पसत्यभावमग्गो आमरणन्ताए अणुपालेतब्बो, संसग्गे अप्पा भावेतन्यो, कुमग्गसिता य जाणिउं पडिहणेतव्या, | अवो चचारि समोसरणाणि, अथवा णामणिफण्णे चुत्तानि समोसरणाणि इमानीति वक्ष्यमाणाणि, प्रवदंतीति प्रवादिनो ते इमेत्ति, 'चत्तारि समोसरणागि सिलोगो ॥५३५।। चत्तारित्ति संखा परवादिपडिसेधत्थं अंते चउण्ह गहणं, समवसरंति जेसु दरिसणाणि दिट्टीओ या ताणि समोसरणाणि, प्रवदंतीति प्रावादिका, पि,पिधं वदंति पुढो वदंति, तंजहा-किरियं अकिरियं विणयं अ|पणाणमासु चउत्थमेव, तत्थ किरियावादीणं अत्थित्ते सति केसिंचि श्यायाकतन्दुलमात्रः केसिंचि हिययाधिहाणो पदी| वसिहो धम्मो(वमोजीबो)किरियावादी कम्म कम्नफलं च अस्थिति भणति, अकिरियावादीणं केइ णस्थि किरिया फलं त्वस्ति, | केसिंचि फलमविणस्थि, ते तु जहा पंचमहाभूतिया चउभूतिया खंधमेत्तिया सुण्णवादिणो लोगाइतिगा य वादि अकिरियावादिणो, अण्णाणिया भणंति-जे किर णरए जाणंति ते चेव तत्थुववअंति, किं णाणेणं तवेणं वत्ति. तेसु मिगचारियादयो अडवीए पुष्फफलभक्विणो इचादि अण्णाणिया, वेणया तु आदा)णामपणामादिया कुपासंडा, तत्थ पुर्व-'अण्णाणिया ताव कुसलावि सत्ता' वृत्तं ।।५३६॥ अकुशला एव धम्मोवायस्स, असंथुता गामण लोइयपरिक्खगाणं सम्मता, सवसत्थबाहिरा मुका, विति [५३५५५६] ॥२५६॥ [260] Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||५३५ ५५६ || दीप अनुक्रम [५३५ ५५६ ] श्रीसूत्रपूर्णिः ॥२५७॥ H “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], निर्युक्तिः [११६ १२१], मूलं [ गाथा ५३५-५५६ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: तिर्गिछिएणवि वितिमिच्छा गाम मीमांसा, तिष्णत्ति तीर्णा, णत्थिति तेसिं वितिमिच्छा अण्णाणित्तणेणं, अथवा ससमएवि ताव केसिचि वितिगिंछा उप्पञ्जति, किं तर्हि परसमये १, तं कतरेण उवदेसेण करेस्संति विचिकित्साऽभावं १, जोऽवि तेसिं तित्थगरो तस्सवि सुत्तं, ण अत्यविचारणा, अथ अस्थि समयहाणीत, एवं अकोविता, ण तं सयं अकोविदा, अकोविदानामेव कथयंति, को हि णाम विपश्चित् तान् अत्रवीत् जहा अण्णाणमेव सेयं अवद्धं कंमंच, अणाणुवीत्ति अपूर्वापरतो विचिन्त्य यत्किंचिदेवासर्वज्ञप्रणीतत्वात् बालवत् मुसं वदंति, शाक्या अधि प्रायशः अज्ञानिका एव तेपामज्ञानोपचित्तं कर्म नास्ति, जेसिं च बालमत्त सुत्ता अक्रम्मबद्धगा ते सव्व एव अण्णाणिया, सत्यधम्मता सा तेसिं जह चैव ठितेल्लगा तह चेव उवदिसंति, जहा अण्णायेगं बंधी गत्थि, तह चैव ताणि सत्याणि विवद्वाणि 'सर्व' (५३७) सन्धं मोसं इति चिंतयंता असाधु साधुति उदाहरंता सव्यंपि कताई मोसं होऊति, एवं ते चितयंता सच्चपि ण जाणंति, कथं १, साधू दट्टण ण साधुत्ति भणति, कयाइ सो साधु होज कताई असाधू, कयाइ चाउचओ कथाह पावंचितो, चोरो वा कदाचि चोरः स्यात् कदाचिदचौरः, एवं स्त्रीपुरुपेधपि वैक्रियः स्यात् वेसकरणा वा योजइतव्यं, गवादिपु च यथासम्भवावस्थासु पुरुषादिषु च इत्येवं सर्वाभिशंकितत्वात् तदसाधुदर्शनं साधुति ब्रुवते, साधुदर्शनं चासाध्विति, अथवा सचं मुसंति इति भासयंता, जो जिणपण्णत्तो मग्गो समाधिमग्गो तमेते अण्णाणिया सचमपि संत असचंति भणति, अथवा सचो संयमो तं सचदसप्पगारा य असचं भणति असंयममित्यर्थः, जहा ते किल भणति तहा सचं भनंति, अणुवातो सचं तं च कुदंसणमण्णाणवादं साधुति भणति, असाधू अण्णाणियं साधूति भणंति, तच्छासनप्रतिपन्नांच असाधून् साधून् ब्रुवते, वृत्ता अण्णाणिया । इदानीं वेणइयवादि, जेमे जणा वेणइया अगेगे, पुट्टावि भावं विशियं [261] Comm विचिकित्सादि ॥२५७॥ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [११६-१२१], मूलं [गाथा ५३५-५५६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: श्रीसूत्रक प्रत सूत्रांक ||५३५ ५५६|| दीप अनुक्रम IAS सुणामा जेत्ति अणिविट्ठणिदेसे, जणा इति पृथग्जनाः, विनये नियुक्ताः चैनयिकाः, अनेगे इति बत्तीसं वेणइयवादिभेदा, तागचूणिः ते पुडा परेण अपिशब्दात् अपुट्ठावि विणयिंसु भावंति भावो नाम यथार्थोपलंभ विणयिंसु, तथा वा स्यात् अन्यथा बा, ॥२५८॥ एवं ताव तेषां सत्यं भविष्यति, अथवा पुट्ठा वा-कीदृशो वा धर्मः ? इत्युक्ता बुबते-सर्वथा परिगण्यमानः परीक्ष्यमाणः मीमांस्यमानो वा अयमसाकं धर्मः, विणयमूलेण आरुहयधम्मगेण जणो णाधियो, कहं ?, जेण वयमपि विणयमूलमेव धम्मं पण्णवेमो, कथंचित्ते, येन वयं सर्वाविरोधेन सर्वविनयविनीताः मित्रारिसमाः, सर्वप्रबजितानां सर्वदेवानां च पुण्यं सत्कुर्मः, न च यथाऽन्ये वादिनः परस्परविरुद्धास्तथा वयमपि, अम्हं पुण पव्वइए समाणे जं जहा पासति इंदं वा खंदं या जाव उच्चं पासति उचं पणाम करेति णीयं पासति णीयं पणामं करेति, उच्चमिति स्थानतः ऐश्वर्यतः तमुच्चं रायाणं अण्णतरं वाइस्सरं दठूर्ण प्रणाममात्रं कुर्मः, णीयस्स तु साणस्स वा पाणस्स वा णीयं पणामं करेति, भूमितलगत्तेण सिरसा प्रहाः प्रणमामहे, त.एवं तालिशाः 'अणोपसंखा इति ते उदाहु'वृत्तं (५३८) संखा इति णाणं, संखाए समीवे उपसंखा, अणउपसंखा अज्ञाना इत्यर्थः, अनोपसंखयात एवमाहुः उदाहरेतस्स उदाहुः अढे स ओभासति, अर्थो नाम सत्यवचनार्थः, ओभासति उद्धवित्ति प्रगासति, एवं चेतसि नः प्रकाशयतीत्यर्थः, एवं च समीक्ष्यमाणं सत्यवचनं खाद्, अन्यथा तु तथा चान्यथा च भवति, अथवा अढेस नो भासतित्ति अर्थो नाम धर्मोऽर्थ एवं चेतसि नः प्रभासयति एवं च प्रकाशयति एवं दृश्यते युज्यमानः, आईतधर्मो ण, किल ज्ञानभासितेण तु सेसेहिं अण्णाणियकिरियावादिहिं घडते, कहं ?, जेण ते जात्यादिरागद्वेषाभिभूता तेण ण तुल्लोऽवभासति, भणिता विणईया। इदाणि अकिरियवादीदरिसणं 'लवावसकी य अणागतेहि' लवमिति कर्म, वयं हि लवात् कर्मबन्धात् अबसक्कामो-फिट्टामो [५३५५५६] ॥२५८॥ [262] Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [११६-१२१], मूलं [गाथा ५३५-५५६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक सूत्रक प्रचूर्णिः २५९॥ ||५३५ ५५६|| दीप अनुक्रम अबमराम इत्यर्थः, संववहारबंधेणावि ण यज्झामो, किं पुण णिच्छयतो, उपचारमात्रं तु तयथा 'बद्धा मुक्ताश्च कथ्यन्ते, मुष्टि-II बन्धोपग्रन्थिकचोतकाः । न चान्ये द्रन्यतः संति, मुष्टिग्रन्थिकपोतकाः ॥१॥ ते हि वातूलिकाः शाक्यादयः आत्मानमेव नेच्छंति, किं चारादि पुनम्तद्धं इति, अणागतेत्ति कालग्रहणात अनागतेऽपि काले न बध्यन्ते, चग्रहणाचातिकान्तवर्तमानयोः, अथवा विसक्कित्ति | क्षणलबमुहूर्तअहोरत्तपक्षमासर्वयनसंवत्सरादिलक्षणे काले. सर्वत्र कर्मबन्धादवशक्नुमः, लवः कालः, वर्तमानादवसक्कामो, एवम| नागतादपि, एतदर्शनः मिच्छत्तकिरियामाहंसु-आख्यातवंतः, के ते?, अकिरियओ आता जेसिं ते इमे अकिरियाता, ते नापि कारकमिच्छंति नापि करणानि, येषामपि करणानि किचीणि आत्माकर्ता, तेऽपि अक्रियावादिनः, उक्तं हि-'कः कंटकानां प्रका| रोति तैक्ष्ण्यं, विचित्रभावं मृगपक्षिणां वा । स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृत्तं, न कामचारात् स्ववशो हि लोकः ॥१।। तेसामुत्तरं-गंता च नास्ति कश्चिद् गतयः पड़ बुद्धशासनप्रोक्ताः । गम्यत इति च गतिः स्यात् श्रुतिः कथं शोभना बह्वी॥१॥ क्रिया कर्म कतं न वास्ति, असति कारके कुतः कर्म?'कथं च पद् गतयः, अंतराभावे वा, यथाऽस्माकं 'विग्रहगती कर्मयोगः' एवं | तेषामपि अन्तराभावः, एवं ते पुट्ठा वा अपुट्ठा वा सम्मिस्सभावं त्रुवते, अवंधानि च कर्माणि पण्णवंति, एवं जातकशतान्युपदिशति बुदस्य, तानि शून्यत्वे न युज्यंते, तथा--'मातापितरौ हत्वा बुद्धशरीरे च रुधिरमुत्याद्य । अर्हद्वधं च कृत्वा स्तूपं मिधा च पश्चैते ॥१॥ आविहि नरकं याति' एतच न युजते, जातिजरामरणानि च न स्युः, उत्तमाधममध्यमत्वं न स्यात्, मनुप्यतिर्यग्योनीनां स्वयमेव कर्माविपाको, जीवस कत्तृत्व कर्मावद्धं च कथयति, चौरादीनां च कर्मणामिहैव विपाकं दृष्ट्वा | सामान्यतोदृष्टेनानुमीयते कृतकर्ताऽयमात्मा, येनास्य गर्भगतस्यैव व्याधयः प्रादुर्भवन्ति मृत्युश्च, तथा च सामान्यतोदृष्टेनानु- ॥२५९॥ [५३५५५६] [263] Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [११६-१२१], मूलं [गाथा ५३५-५५६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: संमिश्र प्रत सूत्रांक पाचूर्णिः भावादि ॥२६०|| ||५३५ ५५६|| दीप अनुक्रम मानेन, संमिश्रभावो नाम असतित्वमपि प्रतिपद्यमानाः अस्तित्वमेव दर्शयंति, तमेव सन्मिश्रभावं यया गिरया गृयंते, निगृह्यन्त इत्यर्थः, उम्मत्तवादं वदंति, तद्यथा-कश्चिदुन्मत्तः स्वाभाविकं ब्रवीति चेष्टते वा, क्वचिदन्यथा, अंधो वाऽध्वानं व्रजेत् क्वचित् अपथा गच्छति, एवं तेऽपि गन्धर्वनगरतुल्याः मायास्वमोपनतधनसदृशाः मृगतृष्णानिद्रामदपनर्तितालातचक्रसमाः एवमपि निश्चयाभावात् , भावानुक्त्वा पवाजातिस्मरणानि जातकान् निरन्वयाश्रयं निर्वाणं च प्रतिपद्यन्ते, एवं ते संमिश्रभाववादिनः मिथ्यादर्शनान्धकाराः जातकानेतस्यां गिरि गृहीता, यदि शून्यं कथं जातकानि?, कथं सारणं कथं शून्यता ?, किंच-यदि शून्यस्तव पक्षो मत्पक्षनिवारणं कथं भवति ।। अथ मन्यसे न शून्यस्तथापि मत्पक्ष एवासौ ॥१|अस्तित्वात् तस्य, किंच-केन शून्यता देसिता किमर्थं देशिता स्यात्रिप्पयोजना शून्यता इत्यादिभिः कर्कशहेनुभियोदिता कच्छाघरघरियार आहतियाए एलमूगो वा मम्मणमूगो चा, जहा मुंमुएति, णो एक अणेकं वा पक्खं अणुवदंति अस्ति नास्ति वा, याप्यष्टौ व्याकरणानि पठंति, ते पुण अकिरियावादिणो दुविधं धम्मं पत्रवेंति, तंजहा-इमं दुक्खं इमं एगपक्खं तावत् , अविज्ञानोपचितं १ परिज्ञानोपचितं २ ईर्यापथं ३ स्वभान्तिकं ४ च चतुर्विधं कर्म चयं न गच्छति, एतद्धि एकपाक्षिकमेव कर्म भवति, का तर्हि भावना ?, क्रियामात्रमेव, न तु चयोऽस्ति, चन्धं प्रतीत्याविकल्प इत्यर्थः, एगपक्खियं दुपक्खियं तु, यदि सत्यश्च भवति सच्चसंज्ञा च संचिपैव जीविताद् व्यपरोपणं प्राणातियातः, एतत् इह च परत्र चानुभूयते इत्यतो दुपक्खिकं यथा चौरादयः, इह दुक्खमात्रामनुभूय शेपं नरकादिष्वनुभवंति, किंच-आहंसु छलायतणं च कम्मं पडायतनमिति पड् आयतनानि यस्य तदिदं आश्रयद्वारमित्यर्थः, तद्यथा-श्रोतायतनं यावन्मनआयतनं, 'त एबमम्बंति' वृचं ॥५४०।। अक्रियाअण्णाणिआगमानं अज्झमाणा इह मिच्छत्तप [५३५५५६] ॥२६ [264] Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||५३५ ५५६ ॥ दीप अनुक्रम [५३५ ५५६ ] श्रीसूत्रकचूर्णिः ॥२६१॥ SECREEN “सूत्रकृत” अंगसूत्र-२ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], निर्युक्तिः [११६ १२१], मूलं [ गाथा ५३५-५५६ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: - लोच्छणा अप्पाणं परं वा तदुभयं वा बुग्गाहेमाणा विरुवरूवाणि दरिसणाणि, कथं ?, दाणेण महाभोगा देहिनां सुरगतिथ शीलेन । भावनया च विमुक्तिरित्यादि, किंच-यथ वेदान्तथ के ब्राह्मणे दधात्, यो वा विहारं कारयति, किंच- 'एगपुष्फ पदाषेण, आसीतिः कल्पकोटयः । सुखिनस्तिष्ठति, एवमकिरिओ आता जेसिं ते होंति अकिरियाता, जमादितित्ता मणुस्सा जमित्यनिर्दिष्टस्य निर्देशः, आदित्वा गृहित्वा स्वयं अन्यांश्च गाहित्वापि अणादीयं अणवदन्गं संसारं भमंति, किञ्चान्यत्, यदि | सर्वमक्रियं तेन कथमादित्यः उत्तिष्टति अस्तं वा गच्छति ?, कथं वा चन्द्रमा बर्द्धते हीयते च १ न वा सरितः प्रस्थन्देरन्, नवा वायवो वायेयुः सर्वसंव्यवहारोच्छेदः स्यात् एवमुक्ताः ब्रुवते -'णातियो उट्टेति ण अत्थमेई 'ति वृत्तं ॥ ५४१ ।। आदित्य एव नास्ति, कुतस्तर्हि तदुत्थानमस्तमनं वा १, मृगतृष्णिका सदृशं तु एतदिति लोहितमर्कमंडलमवभासते एवं चन्द्रमापि नास्ति, कुतस्तर्हि वृद्धिहासोत्थानास्तमनानि १, किंच-संघातो मरीची उट्ठेति, उट्ठो णासेणं इमं लोगं तिरियं करेति, करेत्ता सेणं इमं लोगं उज्जोदेति पभासति न सरितोऽपि ण संदंति, न च न वायवः, ततः कथं न संदिष्यते वास्यति चा ?, स्याद् बुद्धि:-उत्तिष्ठन्नादित्यो दृश्यते अस्तं च गच्छन्, यतः पूर्वस्यां दिशि दृष्टः अपरस्यां दिशि दृश्यते, तेन क्रियावान्, देवदत्तस्य हि गतिपूर्विका देशान्तरप्राप्ति दृष्ट्वा चन्द्रादित्यावनुमीयेते, सरितश्च स्यन्दमाना दृश्यन्ते, वायवथ वृक्षाग्रकंदादिभिरनुमीयते क्रियावंत इति, तचासत् कथं ?, गतं न गम्यते तावत्, अगतं नैव गम्यते । गतागतविनिर्मुक्तं, गम्यमानं न गम्यते ॥ १ ॥ एवमयं वंध्यो लोकः, वंध्यो नाम शून्यः, अथवा वन्ध्यावत् अप्रसवत्वाद्वन्थ्यो, लोकायतानां हि न मृतः पुनरुत्पद्यते, एतावानेव परमात्मा, त एवं दर्शनं भावयंति, गलागत्यमपि कुर्याणा नोद्विजन्ते, मातरं भगिनीं वा गत्वा नानुतप्यंते, येषां बंधाभाव एव ते कथं पापेभ्यो निर्वत्र्यन्ते ? [265] विरूपदर्शनादि ॥२६१ ।। Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [११६-१२१], मूलं [गाथा ५३५-५५६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत पीसत्रक नित्यलोकादि सूत्राक ||५३५ ५५६|| दीप अनुक्रम निवृत्तिमूलं वा धर्म देक्ष्यन्ते ?, एवं शाक्या अपि एवं वन्ध्याः , नितिओ गाम नित्यकालमेघ शून्यः, शुन्य वा न चोच्छिमाणमयते, कसिणो नाम गृहनगरपर्वतद्विपदचतुष्पदादि सर्वो वन्ध्यः, त एवं विद्यमानमपि लोकं न पश्यति, दृष्टान्तः-'जहा य| २६२॥ अंधे सह जोतिणावि' वृत्तं ॥५४२॥ यथेति येन प्रकारेण, द्योतयतीति द्योतिः आदित्यश्च चन्द्रमाः प्रदीपो वा, धोतिना सह | सहयोति नानादिरूवाणि घडादीणि, न पश्यन्ति, जग्गतोऽपि वर्तमानानि स्पर्शनापि न तेषां वर्णादिविशेष पश्यन्ति, नयतीति ने हीने यस्य नेत्रे स भवति हीननेत्रः, उदत्ते उपहते वा संतं तु ते एवं अकिरियाता संतमिति विद्यमानं, तु पूरणे, अकिरियावाइणो, अकिरिओ मिच्छत्तोदयान्धकारात जीवादीन् पदार्थान्न जाति, अथवा किरियं न ते पस्संतित्ति क्रियावा द्रव्याणां आगमनगमनाद्याः क्रियाः पश्यन्तोऽपि न पश्यन्ति, स्वयं क्रियासु वर्तते उघवत् , न चैताः न पश्यन्ति, निरुद्धा येपां प्रज्ञाः ते भवन्ति निरुद्धपन्ना णाणायरणोदयेन, अथवा ते वराकाः कथं ज्ञास्यंति ये आगमज्ञानपरोक्षा एव ?, जे पुण ण निरुद्रूपन्ना | ते प्रत्यक्षेण वा आगमेन परोक्षेण जीवादीन पदार्थान यथावजानति, तत्रावधिमनःपर्यायकेवलानि प्रत्यक्ष, मतिः श्रुतिः परोक्ष, प्रत्यक्षज्ञानिनस्तावत् जीवादीन पदार्थान् करतलामलकवत् पश्यन्ति, समत्तसुतणाणिणोवि लक्षणेण, अटुंगमहानिमित्तपारमा अर्थ च साधबो जाणति णिमित्तेणं, 'संबच्छर सुमिणं लक्ग्वणं च'वृत्तं ॥५४३।। संवत्सरनिमित्ते इमे एगदिया, तं०-संवच्छरोत्ति वा ओतिसेत्ति वा, सुमिणं सुविण ज्झाया व, लक्खणं सारीरं, एतेण चेव सेसयाईपि सूइताई, तंजहा-भोमं १ उप्पातं २ सुमिणं ३ | अंतरिक्खं ४ अंग५ सरं६ लक्षणं ७ वंजणं ८, चमस्स पुच्चस्स ततियातो आयारवत्थुतो एतं णीणीतं, एतं बहने अधिञ्जिता, एवं अटुंगं णिमित्तं बहवे समणा अधिजिताण 'मधलोगसि जाणंनि अणागताई' अतिक्रान्तवर्नमानानि च, केवलिबद्वा [५३५५५६] ॥२६॥ [266] Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||५३५ ५५६ || दीप अनुक्रम [५३५ ५५६ ] सूत्रक्र स्वर्णिः १६३॥ Nove “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], निर्युक्तिः [११६ १२१], मूलं [ गाथा ५३५-५५६ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: | करेति तथा गताणित्ति, तथा भूताणित्ति यथावस्थितानीत्यर्थः, अंगवर्णानां अनुष्टुमेन छन्दसा अर्द्धत्रयोदशशतानि सूत्रं तावदेव शतसहस्राणि परिपातिका, अङ्गस्य तु अर्द्धत्रयोदशमहस्राणि सूत्रं तावदेव सयसहस्राणि वृत्तं, अपरिमितं वार्तिकं, एवं निमित्तमध्यधीत्य न सर्वे तुल्याः, परस्परतः पदस्थानपतिताः, चोहसपुच्चीवि छड्डाणपडिता एवं आयारधराणि छट्टाणवडिया, यतश्चैवं तेनापदिश्यन्ते 'केई निमित्ता तधिया भवति' वृत्तं ॥ ५४४ ॥ केचिदिति न सर्वे, अभिन्नदसपुत्रिणो हेडेण एतं अट्ठगंपि महाणिमित्तं अधितुं गुणित्तुं वा, अधीत्य एवमेव केचित् परिणामयति, ते पडुच्च ते निमित्ता तधिया भवंति, केई पुण निमिबुद्धित्वात् विशुद्धिमित्त केहिंतो छण्हं ठाणाण अष्णतरं ठाणं परिक्षीणा अविशुद्धखयोवसमा 'विप्पडिएन्ति णाणं' विपर्यासेन एंति विप्पडिएन्ति, 'इक् स्मरणे' 'इङ् अध्ययने ' 'इण् गतौ' एषां त्रयाणामपि इगिङीणां परिपूर्वाणां अप्रत्ययान्तानां विपर्यय इति पूर्वरूपं भवति, विपर्ययेण एति विप्पडिएति को अर्थः ? - विपर्ययज्ञानं भवति, असम्यगुपलब्धिरित्यर्थः, सपरिभवम|ध्यङ्गमधीत्य, अब्भपडलदितेगं यथा लक्षाभ्रपडले कश्चिद्वेत्ति एकमेवेदं अभ्रपडलं यावत्तत्रान्यदप्यस्ति सूक्ष्ममिति नोपलभ्यते, | संजतात्रि केई विपडिएन्ति गाणं, किमंग गुण अण्णउत्थिया दगसोयरिया तब्वणिगादयो, ते विज्जनासं अणधिजमाणा अधिजमाणेति अधीतेन निमित्तेण दुरधीतेन वितधं दृष्ट्वा निमित्तं वदंति णिमितमेव णत्थि तथथा - कचित् क्षुते त्वरितत्वात् सङ्कित एव गतः, तस्य चान्यः शुभः शकुन उत्थितः येनास्य तत् क्षुतं प्रतिहतं स चेत् न तं शकुनं वेद शकुनोऽपि वा न लक्षितः स तु मन्यते व्यलीकमेव निमित्तं वेनाशकुनेऽपि सिद्धिर्जाता इति, एवं शोभनमपि शकुनं उत्थितमन्येनाशोभनेन प्रतिहत मनवयुद्ध्य| मानः कार्यसिद्धिनिमित्तमेव नास्तीति मन्येत, अपरिणामयन्, विजाहरि (भा) से णाम यथार्थोपलम्भः, विद्यया स्पृश्यते विद्यया [267] अष्टांगनिमित्तं ॥२६३॥ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [११६-१२१], मूलं [गाथा ५३५-५५६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: विद्यापतिमोक्षादि प्रत श्रीसत्रक- | चूर्णिः ||२६४|| ||५३५ सूत्रांक ५५६|| दीप अनुक्रम प्यते, विद्यया गृह्यत इत्यर्थः, त एवं चराकाः चक्षुधमपि णिमित्तमपरिणामयन्तः आईसुविजाए पतिमोक्खमेच निमित्त| विद्यापरिमोक्ष, एवं हि कर्त्तव्यं, नाधीतव्यानि निमिचशाखाणीत्यर्थः, किंचित्तथा किंचिदन्यथेतिकृत्या मा भून्मृपावादप्रसङ्गा, बुद्धः किल शिष्याणामाहूयोक्तवान्–द्वादश वर्षाणि दुर्भिक्षं भविष्यति, तेन देशान्तराणि गच्छत, ते प्रस्थितास्तेन प्रतिसिद्धाः | सुभिक्षमिदानी भविष्यति, कथं ?, अद्यैवैकः सन्यः पुन्यवान् जातः, तत्प्राधान्यात्सुमिदं भविष्पति, इत्यतो निमित्तं तथा चान्यथा |च भवतीतिकृत्वा आहेसु विजाए पलियोक्खमेव, उज्झनमित्यर्थः, मोक्षं च प्रति निरर्थकमित्यतः निरुत्सृष्टं, अथवा विजया परि| मोक्खमाहु, सांख्यादयो ज्ञानात् मोक्षमिच्छन्ति, जे णिमित्तं संखाणं परिज्ञाणमियन्ति न ते किलात्यन्तपरोक्षमात्मानं परलोकं मोक्षं च ज्ञास्यन्ति ? इत्यादि हास्य, पच्चल्लं कम्मं बंधति ते सुत्तणाणहीलणाए, उक्तं हि-ज्ञानस्य ज्ञानिनां चैव, निंदाप्रद्वेपमत्सरैः। उपघातैश्च विश्व, ज्ञानघ्नं कर्म बध्यते ॥१॥ स्यागुद्धि:-केनैतानि समोसरणानि प्रणीतानि ? जं च हेवा वुत्तं जंच उपरि भणिहिति?, उच्यते-अनिरुद्धपण्णा तित्थगरा ते एयमक्खन्ते 'समेच लोगं' वृत्तं ॥५४५॥ ते इति तीर्थकराः, एतदिति यदतिक्रान्तव्यं च परसमयसिद्धपरूवणाओ बा, एवमन्येऽप्याख्यातवंतः आख्याइस्संति च, सम्यक् इचा समिध शात्वेत्यर्थः, तथागता समणा माहणा य तथागत इति तीर्थकरत्वं केवलज्ञानं च गताः, पठ्यते च-तहा तहा समणा माहणा य, तथा तथेति यथा यथा समाधिमार्गव्यवस्थिताः तथा तथा ख्यान्ति त्रैकाल्यात् , जे अभिग्गहियमिच्छादिट्ठी जे अ अणभिग्गहियमिच्छा| दिट्ठी तेसि सम्वेसि दर्शनमाख्यान्ति, समणा माहणा यत्ति एगहुँ, पचक्खणाणिणो परोक्खणाणिणो वा आगमनामाण्यात् , किमा| ख्यान्ति ? अस्थि माता अस्थि पिता जाव सुधिष्णा कम्मा सुचिषणफला भवंति, एवं क्रियावादित्वं ख्याप्यते, किंच-'सयं [५३५५५६] ॥२६४॥ [268] Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||५३५ ५५६ || दीप अनुक्रम [५३५ ५५६ ] श्रीसूत्रकृ चूणिः ||२६५।। “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], निर्युक्तिः [११६ १२१], मूलं [गाथा ५३५-५५६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: कडे णण्णकर्ड च दुक्खं सयं कर्ड णाम स्वयं कृतं सयं कर्ज, सव्वमेव हि कर्म्म दुक्खं प्रतीकारात्पुण्यमपि दुःखं, उक्तं हि - 'तो सबकालदुगखौ' तं तु स्वयं कृतमेव, नान्यकृतं न वाकतं, आहंसु विना चरणं पमोक्खं विजया चरणेग वा मोक्खो भवन्ति, न तु यथा सांख्या ज्ञानेनैवैकेन, अज्ञानिकाथ शीलेनैवैकेन, उक्तं हि - ' क्रियां च सज्ज्ञानवियोगनिष्फलां, | क्रियाविहीनां च निबोधसंपदं । निरस्यता क्लेशन म्हशान्तये त्वया शिवायालिखितेय पद्धतिः ॥ १ ॥ ' 'ते भोगधस्मिया (भूया उ सुहं पयाणं ) गायगा' वृत्तं ५४६ ॥ चनुर्भूता लोकस्य, प्रदीपभूता इत्यर्थः, देशका गायकाः पमढगाः, मरगं णाणातिहितं सुहं प्रजानां तु विसेसणे, सन्मार्गगुणॉथ दर्शयति कुमार्गदोषांच, अथवा तु विशेषणे, अहितमार्गनिवृत्तिं च प्रजा|यंतीति प्रजाः, तथा तथा सालयमाहु लोगो तथा तथेति येन येन प्रकारेण शास्त्रतो लोको भवति पञ्चास्तिकायात्मकः अथवा यथास्यात्मनः अव्यवच्छिन्नकर्म संततिर्भवति यथाप्रकारा च तथा तथा सासतमाहु लोगे, तहा 'चउहिं ठाणेहिं जीवा रइयाउयत्ताए कम्मं पकरेंति०' तावत्संसारो नोच्छिद्यते 'यावन्मिथ्यादर्शनं, तीर्थकराहारकर्जाः सर्व एव कम्मविन्थाः सम्भाव्यन्ते, उपलक्षणत्वादस्यान्यदपि यदन्नं संभवति तत् द्रष्टव्यं एवं रागद्वेपावपि संसारकरौ इतिकृत्या तहा तहा वदति-संसारमाहुः, अहवा अतधा तथति जस्म जारिसी सत्ता तहा तस्स उबचयो होति मिच्छा, अहवा मिच्छत्त अविरति अण्णाणाणि जहा २ तहा २ संसारः, अथवा पाणवहादी जहा २ तहा २, अहवा कमायादयो जहा रहा, कायवाङ्मनोयोगा जहा २ तहा २ संसारो सर्वत्र यात्रा परिमाणं वक्तव्यं, 'जंसी पया' यस्मिन्निति यत्र, प्रजायंते इति प्रजाः सर्व एव सच्चा मानवा इत्यपदिश्यन्ते, मानवानां | प्रजा मानवप्रजा, अथवा माणवा इति हे मानवाः !, संप्रसृताः संप्रगाढा ओगाढा विगाढा सम्प्रगाढा इत्यर्थः एवं आश्रवलोके [269] विद्याप्रतिमोक्षादि • ॥२६५॥ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [११६-१२१], मूलं [गाथा ५३५-५५६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक ||५३५ ५५६|| दीप श्रीसनक-15 कथयंति, आश्रवलोकानुरूपमेव च लोकं विशति 'जे रक्खसा जे जमलोइया वा' वृत्तं ॥ ५४७॥ पांचित् भवनपत्यादि आजचूर्णिः देवा शाश्वताः तेण रक्खसगहणं, अथवा व्यन्तरा ग्रहीता राक्षसग्रहणात , जमलोइयग्रहणाद्वैमानिकाः सचिताः, गान्धर्वा व्यन्तराः ने मोक्षादि २६६॥ एए जेणं जमदेवकाईया तिविधा, सर्वे ते जम्मस्स महारायस्स आणाउववातवयणणिदेसे चिट्ठति, असुरग्रहणेन भवनवासिनः सचिताः, गान्धर्वा व्यन्तरा एव, ज्योतिष्का दृश्यन्त एव, सेसा आगासगामी य पुढोसिता य देवपक्खिवातादयः आगासगामी, पृथ्व्यंबुवनस्पतयः द्वित्रिचतुरिन्द्रियाश्च स्थलचरा जलचराथ, एते पुढोसिता, पुनः पुनः विपर्यासमेति विपर्यासो नाम जन्मनि मृत्युः, सर्व एव संसारे विपर्यासः, जेणं ' पुढविकायमइगओ उकोसं जीवो तु संवसे' 'जमाहु ओहं सलिलं अपारगं' वृत्तं ॥५४८॥ यत् इत्यनिर्दिष्टस्य निर्देशे आह भगवानेव, द्रव्योधः स्वयम्भुरमणः, स एवौघः सलिला, ओघसलिलेन । तुल्यं औषसलिलं तस्यापार, जलचराः स्थलचरा वा न शक्नुवन्ति गंतुं गणत्थ देण महदिएण इत्यतः अपारगः, जाणाहिणं जहा जिनैरुपदिष्टः आगमप्रामाण्यात प्रत्यक्षतश्च उपलक्ष्यते मनुष्यादिसंसारः, चतुर्विधं भवग्गहणं २, कडिल्यमित्यर्थः, चउरासिति । जोणिपमुहसयसहस्सगहणो जत्थ अणोरपारपविट्ठो सन्चद्धाएविण मुञ्चति मिच्छादिही लोको, लोकाएतसुण्णवादिगादि लौकिक इत्यादि, दुर्मोक्षेति मिच्छत्तसातगुरुत्वेन च ण तरंति अणुपालेत्तए, जेवि अस्थिवादिणो किमंग पुण नास्तिकाः,जहा ताणि चत्तारि तावससहस्साणि सातागुरुयत्तणेण छकायवधगाईजाताई, 'जंसी चिसपणा विसयंगणादी' यत्र संसारे यत्र वा साकारधर्म समाधी कुमार्गे वा असत्समवसरणेपु, पंचसु वा चिसएसु विसन्नाः, सुगरियान् स्पर्शः, तेष्यप्यंगनाः, तासु हि पंच विपया विद्यन्ते, तद्यथा-'पुप्फफलाणं च रसं' इत्यतः अंगणाग्गहणं, दुहतोवित्ति द्विविधेनापि प्रमादेन लोकं अमुं संचरंति, तंजहा- ॥२६६॥ अनुक्रम [५३५५५६] [270] Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [११६-१२१], मूलं [गाथा ५३५-५५६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: श्रीसूत्रका प्रत सूत्रांक ||५३५५५६|| दीप अनुक्रम | लिङ्गवेससज्जाए अविरतीए य, अथवा आरंभपरिग्रहाभ्यां रागद्वेपाभ्यां वा सस्थावरलोगाभ्यां इमं लोग परलोगं वा, त एव विद्याप्रति मोक्षादि ताडचूर्णिः | मिथ्यात्वादिभिदोपैरभिभूताः अमत्समवसरणावस्थिताः 'ण कम्मुणा कम्म खति बाला' वृत्तं ॥५४९।। न इति प्रतिषेधे, ||२६७॥ SAI मिथ्यात्वादिषु कर्मबंधहेतुपु वर्तमानाः न कर्माणि क्षपयन्ति बाला:-कुतीर्थाः, यस्यैव हि ते भीतास्तमेवाविशंति, कर्मभीताः IN | कर्माण्येव बर्द्धयन्ति, न निदानमेव रोगस्य चिकित्सा, यथा कश्चिन्मूढधीनिंदानरेव रोगचिकित्सां करोति, स हि तस्य वृद्धिमामोति, | अकर्मणा णु आश्रयनिरोधेन कर्माणि क्षपयंति धीराः विधिक्रियाभिरिवामयान् वैद्याः, मेधाविणो लोभमयं मेरा (मेहया) धाविणो, लोभमतीताः, वीतरागा इत्यर्थः, एवं सायामतीता २ वा संतोसिणोति अलोभाः, स्याद् बुद्धिः अलोमाः संतोपिण एकार्थमितिकृत्वा तेन पुनरुक्त, उच्यते, अर्थविशेषात् न पुनरुक्त, लोभातीतः इति लोभमतिक्रान्तोऽलोभो वीतरागः, संतोपिण इति | निग्रहपरमा अवीतरागा अपि वीतरागाः, णो पकरेंति पावं संतोसिणो पयणुयं पकरेंति, तब्भववेदणिजमेव, यत एव लोभा ईया अत एव संतोसिणः, एवं अमातिनः स्तोकमायिनः, त एव भगवन्तः अनिरुद्धपष्णा 'ते तीअउप्पन्नअणागताई' वृत्तं ।।.५५०॥ त इति तीर्थकरादयः प्रदीपभूताः, तीताणि लाभालाभसुखदुःखादीनि एवं पडुपन्नअणागताई, जेहिं या कम्मेहिं पुच्च| कतेहिं इहायातो जोणिवासं पदं करैति जं च भविस्सति इत्यतः तीतपच्चुप्पणअणागताई, तहा भूताई तहागताणि अवितहाणित्ति भणितं होति, न विभंगनानिवत् विपरीतं पश्यन्ति, 'अणगारे णं भने ! मायामिच्छादिट्ठी रायगिहे नयरे समोहए' तेनावधिविभंगोपयोगेण,रायगिहे गतवं च वाणारसीए णयरीए रूबाई जाणति जाव से से दमण विवचासो भवति' ते भगवन्तः प्रत्यक्षज्ञानिनः, परोक्षे या पूर्वविदः, तारो अण्णेसिं अणवणणेता-णयंतीति नेतारः अन्येषां भव्यानां सर्वेषां नेतार इति, न अन्यस्तेषां नेता ||२६७॥ [५३५५५६] [271] Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||५३५ ५५६ || दीप अनुक्रम [५३५ ५५६ ] श्रीसूत्रकृ वागचूर्णिः ॥२६८॥ “सूत्रकृत” अंगसूत्र-२ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], निर्युक्तिः [११६ १२१], मूलं [ गाथा ५३५-५५६ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०२] अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: - विद्यते, एवायं ताथ समषेण वा धम्मे अक्खाते इत्यतो अणण्णणेता, बुद्धा स्वयंवृद्धाः बुद्वयोषिता वा गणभरायाः, अवं कुर्वन्तीत्यन्तकराः भवान्तं कर्मान्तिं वा चे यात्र भवान्तं न कुर्वेति तावत् 'ते वच्यंति ण कारयेति 'वृत्तं ॥ ५५१ ।। स्वयं न कुर्वन्ति न कारयन्त्यन्यैर्नानुमन्यन्ते, किं तद् ?, पाणाडवातं, अनुक्तमपि विज्ञायते प्राणातिपावं, बेनापदिश्यते घृताभिसंकाए दुर्गुछमाणा भूतानि तस्थावराणि ताणि यतो भितं संकति सा भूताभिसंका भवति, हिसेत्यर्थः तां भूतायिसंकां तत्कारिणथ जुगुप्समाना उद्विजमाना इत्यर्थः, पाणातिपातमिति वाक्यशेषः, लोकोऽपि हि मत्स्यवत्वादीन् हिंसकान् जुगुप्सते, एवं ते ण आमन्ति ण भाषावैति मुसावा, एवं जाव मिच्छादंसणं ण परुवेंती णो दहंति णवएण भेण व एवम पाणं परं तदुभयं च संजममाणा सदेति सर्वकालं प्रवज्या कालादारभ्य यावज्जीवं ज्ञानादिषु विविधं प्रणमंति पराक्रमंत इत्यर्थः विदितु वीराः विज्ञाय धीम भवन्ति, ज्ञानादिभिर्वा राजन्तीति वीराः, एके न सर्वे, पठ्यते च विष्णत्ति वारा व भवति एके, विज्ञप्तिमात्रा बीरा एक्के भवन्ति, ण तु करणवीराः स्यात् कैः करणभूतानि येषां संकितव्यं ?, उच्पते-' डहरेय पाणे' वृतं ॥ ५५२ ॥ डहरा सूक्ष्माः कुन्थ्वादयः सुदुमकायिका था, बुढा महामरीश बादरा बा, ते डहरे य पाने बुट्टे य पागे जे आनो पति सव्यलोगे आत्मना तुल्यं आत्मवत् यत्प्रमाणो वा मम आत्मा एतावत्प्रमाणः कुंयोरपि हस्तिनोऽपीति, अथवा 'जह मम ण पिवं दुक्खं एवं सव्वजीवाणं, उहाण चा महलाण वा 'पुढविकाइए णं भंते! अर्थाते समाणे केरिमयं वेदणं वेदयंति ?,' सुत्तालायगो इत्यत स्तेऽपि ण अमितच्या ण संघद्वेयच्या, वे एवं पश्यन्ति 'उबेहती लोगमिमं भने ' वृत्तं उबेहती उपेक्षते, पश्यतीत्यर्थः, : उपेक्षां करोति, सर्वत्र माध्यस्थ्यमित्यर्थः महान्त इति लज्जीवकायाकुलं अटविधम्र्म्माकुलं वा बलिपिंडोवमाए महान्तो लोगो, [272] विद्याप्रतिमोक्षादि ॥२६८॥ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||५३५ ५५६ || दीप अनुक्रम [ ५३५ ५५६ ] 1101 श्रीमूलकताङ्गचूर्णिः | ॥२३९॥ “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], निर्युक्तिः [११६ १२१], मूलं [गाथा ५३५-५५६ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०२] अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: अथवा कालतो महंते अनादिनिधनः अस्ति एके भव्या अपि वे सर्वकालेनापि न सेत्स्यन्ति, अथवा द्रव्यतः क्षेत्रतत्र भावतच नान्तः, बुद्धो नाम धर्म समाधौ मार्गसमोसरणेसु च, अप्रमत्तः कायेषु जयणाए य, अथवा अप्रमत्तेषु असंजतेषु परिवएञ्जासित्ति बेमि अथवा बुद्धे अप्पमते सुद्ध परिव्वए । 'जे आतयो परतो यावि णचा ' वृत्तं ॥ ५५३ ॥ आत्मनः स्वयं तीर्थकरा जाणंति जीवादीन् परतो गणधरादयः, अलं पर्याप्त्यादिषु स द्विधाऽपि जानकः अलमात्मानं परांचेति, अकृत्यात् वा प्रतिषेधे यतितव्ये, इत्येवं तं ज्योतिर्भूतं तमिति तं उभयत्रातारं ज्योतयतीति ज्योतिः आदित्यश्चन्द्रमाः मणिः प्रदीपो वा यथा प्रदीपो द्योतयति एवमसौ लोकालोकं ज्योततीति ज्योतिस्तुल्यः इत्यर्थः सततं आव से (सेवि ) जा सित्ति जावजीवाए से (वे) जा तित्थगरं गणधरे वा यो यस्मिन् काले ज्योतिभूतः जे 'पाटुकुज्जा' य इत्यनिर्दिष्टः, प्रादुः प्रकाशके, ये प्रादुष्कुर्वन्ति धम्मं पूर्वापरतोऽनुचिंत्य, करतलामलकवत् लोकं दृष्ट्वा इत्यर्थः अथवा अणुवीयिणितुं परममयं दर्शयति, धर्मं समाधिमार्ग समोसरणानि च कीदृशाः पुनस्ते विधारितज्ञानिनः त्रैलोक्यदर्शिनः १, उच्यते-' अत्ताण जे जाणति जे य लोगं' वृतं ॥ ५५४ ॥ आत्मानं यो वेत्ति यथादममातोति संसारी च, अथवा स आत्मज्ञानी भवति य आत्महितेष्वपि प्रवर्त्तते, अथवा त्रैलोक्य (काल्य) कार्योपदेशादात्मा प्रत्यक्ष इति कृतवानित्यादि, येनात्मा ज्ञातो भवति तेन प्रवृत्तिनिवृत्तिरूपो लोको ज्ञात एव भवति, आत्मौपम्येन यथा ममेष्टानि, दष्टेष्वर्थेषु प्रवृत्तिनिवृत्तिभावतः यथाऽस्तीति, अथवा आत्मौपम्येन परेण्वहिंसकः। किंच 'जे अगतिं जाणइ णागतिं च' जे आगति जाणंति, कुतो मनुष्या आगच्छति ? सत्तममहिणेरड्या०, कैर्वा कर्मभिः कुत्र वा गच्छंति ?, तब्वेए, कुतोऽहमागतः गमि | प्यामि वा ? अनागतिरिति सिद्धिः सादीया अपजब सिता, जे सासत जाणइ असासयं वा' सर्वद्रव्याणां शाश्वतथं द्रव्यतः [273] आत्मपर ज्ञानादि ॥ २६९॥ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [११६-१२१], मूलं [गाथा ५३५-५५६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: श्रीस्यक प्रत शाश्वतादि सूत्रांक ॥२७॥ ||५३५ ५५६|| दीप अनुक्रम [५३५५५६] अगाश्यतत्वं पर्यायतः, चशब्दाच शाश्वताशाश्वतं चा, तंजहा-णेरड्या दबट्ठयाए सासता भावद्वताए असासता, अथवा निर्वाणं शाश्वत, संसारिणस्तु संसारं प्रतीत्य अशाश्वता, जातिमरणं च जाणीते, औदारिकानौदारिकानां सच्चानां जातिः, एत्थ जोणीसंग्रहो माणितव्यो, णवविधोऽवि तंजहा-"सचित्तशीतसंवृत्ता मिश्राश्चैकशस्तधोनयः," सचित्ताचित्तसीतोष्णसंवृत्तविवृता एताच | सेतराः, ओरालिएणं चेव मरणं, बंधानुलोम्याच यतोऽपवादं, इतरधा तु पूर्वः उपपातो वक्तव्यः, स तु नारकदेवानां, चयणं तु जोतिसियमाणियाणं, उन्धदृणा भवणवासियाणं वंतराणं नेरइयाणं च, 'अघोवि सत्ताण विउवणं च' वृत्तं ॥५५५।। जहा जहा गुरूणि कर्माणि तहा २ अधो विउहंति, विविध उद्घति विउति जातंते मियंत इत्यर्थः, सर्वार्थसिद्धादारभ्य यावदधोसप्तम्यां तावदधो वर्तन्ते, तत्रापि ये गुरुतरकर्माणः ते अप्रतिष्ठाने शेपेषु चोत्कृष्टस्थितयः, जो आसवं जाणति आश्रवान् रागादीन् प्राणवधादीन् पञ्च आरंभपरिग्गहौ च इत्याद्याश्रवास्तद्विधर्मा संवरः संयम इत्यर्थः, जाय निरुद्धजोगित्ति, 'यथा प्रकाराः | यावन्तः, संसारावेशहेतवः । तावन्तस्तद्विपर्यासा, निर्वाणावेशहेतवः ॥ १॥ दुक्खं च जो जाणति निज्जरं वा दुक्खमिति | कर्मवन्धः प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशात्मकः तदुदयश्च, निर्जरा नाम पन्धापनयः द्वादशप्रकारं तपो निर्जरा, सो धर्म समाधिमग्गं समोसरणाणि य आख्यातुमर्हति, पठ्यते च-आइक्खेतुमाहति सो किरियावादं एतानि मिथ्यादर्शनसमोसरणानि संसारकराणिति ज्ञात्वा क्रियावादी सम्यग्दृष्टिश्चारित्रवान् 'सद्देसु रूवेसु अमुच्छमाणो' वृत्तं ।। ५५६ ।। रागो गहितो एवं जाव फासेसु, रसेहिं गंधेहि अदुस्समाणो द्वेपः गृहीतः, एवं शेपेष्वपि इन्द्रियेषु 'सदेसु० आभक्ष्यावएसु अ' णो जीवितं णो | मरणं विपस्था असंजमजीवितं, अणेगविधं पत्थए विपत्थए, पण वा परीसहपराइयं मरणं, णो विपत्थए, अथवा मा हु चिंते ॥२७॥ [274] Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [११६-१२१], मूलं [गाथा ५३५-५५६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक ताङ्गचूर्णिः ||२७१।। १३ याथा ||५३५ ५५६|| दीप अनुक्रम जासि जीवामि चिरं, मरामि च लई, वलयं कुडिलमित्यर्थः, तत्र द्रव्यवलयं नदीवलयं वा संखवलयं वा, भाववलयं तु कौतथानिक्षेपः चउसमोसरणं, कुडिलं तु मिच्छत्तं, बलयत्तएण मुको वलयादिविमुको हि, पठ्यते च-मायादिविमुक्के इत्यर्थः।। इति समवसरANणाध्ययनं द्वादशं समाप्त। ___आहयधियंति अज्झयणस्स चत्तारि अणुओगदाराणि, अधिकारो सीसगुणदीवणाए, अण्णंपि जंधम्मसमाधिमग समोसरणेसु | जं जत्थ अणुवादी तं च अवितत्थं भणिहिति, एतेसिं चउण्हवि धम्मादीणं विपरीतं वितह, अत्र चायं न्यायः-यदुत उपसर्ग प्रत्यय विमुक्ता प्रकृतिनिक्षिप्यते, यतः 'णामतह'मित्यादि ॥१२॥णामणिकण्यो आयतधिज, तं चतुर्विध अत्तं, जहा णाम-IM | तहं ठवणतहं दवतहं० गाथा ॥ ९२२ ॥ तं च यतिरित्तं दव्यतह तिविधं सचित्तादि, सचितं जहा सर्व एव जीवः उपयोगस्वभावः, अथवा जो जस्स दब्बस्स सभावोत्ति, कठिनलक्षणा पृथ्वी द्रवलक्षणा आप इत्यादि, अथवा दारुणस्वभावः मृदुस्वभावो वा, जो जस्स वा अचित्ताणं गोसीसचंदणकंचलरयणमादीणं, जहा-'उष्णे करेती शीतं स.ए उण्हत्तणं पुणरुवेति' मीसगाण | तंदुलोदगमादीणं जाब ण ता परिणतं, भावतरं पुण णियमा० गाथा ।। १२३ ।। भावतई, तत्य छविधो भायो, तंजहा| उदइयभावतह, उपसमणमेव औपशमिकः अनुदयलक्षण इत्यर्थः, क्षयाजातः क्षायिकः, किश्चित्क्षीणं किंचिदुपशान्तं क्षायोपशमिकः, तॉस्तान् भावान् परिणमतीति पारिणामिका, एवं समवायलक्षणः सान्निपातिकः, अथवा भावतह चउधिध-दसणं णाणं चरितं विणय इति, णाणं पंचविध स्वे स्वे विषये अवितहोपलम्भः, एवं तु विधिः, दसणे चक्खुदंसणादि, चरिचे तवे संयमे य, तवे दुवालसविधे संजमे सत्तरसविधे, विण यस्स वा बायालीसतीविधस्स, ज्ञानदर्शनचरिते जो वा जस्स जहा जदा य पउंजियचो, २७१॥ [५३५५५६] | अस्य पृष्ठे त्रयोदशमं अध्ययनं आरभ्यते [275] Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||५५७ ५७९|| दीप अनुक्रम [५५७ ५७९] A WA श्रीसूत्रताङ्गचूर्णिः ॥२७२॥ “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], निर्युक्तिः [१२२-१२६], मूलं [ गाथा ५५७-५७९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: अण्णा वि, एत्थ भाववितण अधियारो, अथवा भावतहं पसत्थं अपसत्थं च, पसत्येणाधिकारो, 'जह सुत्तं तह अत्थो' गाथा || १२४ || यदि यथा सूत्रं तथैवार्थो भवति तथा दर्शयति तहत्ति, किं भणितं होति १, जं सतं सोमणित्ति य, जं संत संसारनित्धारणाय प्रशस्यते तं सत्यभावतहं, जं पुण विद्यमानमपि दुगुंछितं तं संसारकारण मितिकृत्या अशोभनं आसीदित्यपदिश्यते, अशोभनमित्यर्थः, जो पुण एवं पसत्यभावत आयरियपरंपरेण आगतं जो उ छेयबुद्धीए । कोवेति च्छेयबुद्धी- दूषयति जमालिणासं व णासिहिति ॥ १२५ ॥ जो एयं आयरियपरंपरएण आगतं कोवेति सो-ण कुणेति दुक्खनोक्खं उज्जमाणोऽवि संयमपदेसु । तम्हा अतुक्करिसो वज्जेयधो जजणेणं ।। १२६ ।। णामणिष्कण्णो गतो । सुत्ताणुगमे सुत्तं उच्चारयन्यं, अणंतरसुचे वलयाविमुक्केति वृत्तं, इहापि वलयादी अवितहशीलेन प्रयतितव्यं वलय विनिर्मुक्तेन, भाववलयं माया, शिष्यदोपाश्च इहोक्ताः, अत्तुकरिसादीया भावदोसा वज्जेयच्चा, इत्यत 'आधातविजं तु पवेइयस्सं० ' वृत्तं ॥ ५५७॥ अ यथा मिथ्या, आहतधियं याथातथ्यं, शीलव्रतानीन्द्रियसंवरसमितिगुप्तिकपायनिग्रह सर्वमवितहं यथा तह, ते अनाचरतां च दोषान् वक्ष्यामः, अथवा व्रतसमितिकपायाणां धारणालक्षणादि, नित्याव्यग्रौ (निग्रहादिकं तुर्विशेषणे, ये च वितथमाचरंति तॉथ वक्ष्यामः, भृशमावेदयिष्यति, नानार्थान्तरभावे पुरिसजातिमिति, केचित्प्रियधर्माण, केयि अहाछन्दाः सत्पुरुषशीलगुणॉश्चोपदेक्ष्यामः, समोसरणे उत्थियगित्या दृष्टयो दर्शिताः इत्यतो नानापगारं पुरिसस्स जातं तिष्ठन्तु तावन्नानाप्रकारा गृहस्थाः, अन्यतीर्थिका पासत्यादयो संविग्गा य णाणापगारा पुरिसजाता णाणाछन्दा इत्यर्थः, अथवा किं चित्तं यदि नानाविधाः पुरुषाः नानाशीला एव भवन्ति, एक एव हि पुरुषस्तांनि तानि परिणामंतराणि परिणमते, णाणापगारा पुरिसजाता भवति, तंजहां- कदाचित्तीत्रपरिणामः [276] भाव तथावि ॥२७२ ॥ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१२२-१२६], मूलं [गाथा ५५७-५७९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक ||५५७ SARAMINAT ५७९|| दीप अनुक्रम का श्रीस्वक- कदाचिन्मन्दस्वभावः कदाचिन्मृदुस्वभावः कदाचिन्निधर्म एव भवतीति, कृत्वा च कृत्यं कश्विनिवर्त्तते कश्चित्सुतरां प्रवर्तते, अन्यस्य अशीलासाङ्गचूर्णिःचान्यः परीपहो दुर्विपहो भवति अथवा दारुणादारुणखभावत्वाच नानाप्रकारं पुरुपजातं भवति, सतोय धम्म असतोय असीलं'। LAL दयः ॥२७३।। IN सदिति शोभनस्तस्य सतः धर्मो भवति, यथार्थः, एवं समाधिर्मार्गश्च, असदिति अभावे जुगुप्सायां च, अभावे तावत् अशीला एवं गृहस्थाः, जुगुप्सायां अशीलानारीवत् नामौ न शीला किन्तु अशोभनशीलत्वात् अशीला इत्यपदिश्पते, दुगुंछायां पासत्थादयो, | अण्णाउत्थिया पामत्था य कुसीला, सर्वाशुभनिवृनिः शान्तिः सर्वभूतशान्तिकरत्वात् , सर्वाशुभानिवृत्तिः अशान्तिः, तथा च परमा शान्तिनिर्वाणं भवति, अशान्तिरशीलः आत्मनः परेषां च, इह या शान्तियत्यमुत्र च तां कर्मनिर्जरणशान्ति, प्रादुः करिष्यामि | प्रकाशविष्यामीर्थः, कर्मबंधकरणं चाऽशान्तिः, इह परत्र शिष्यदोपगुणांश्च प्रादुः करिष्यामि, तत्र तावच्छिष्यदोपाः । 'अहो य राओ असमुट्टिाहिं' वृत्तं ॥ ५५८ ॥ सम्यक् उस्थिताः २, सम्यग्गहणात् समुस्थितेभ्यः संयमगुणस्थितेभ्यथ द्विविधां शिक्षा गृहीत्वा तीर्थकरादिभ्यः 'तधागतेभ्यः' संमारनिस्सरणोपायस्तावत् प्रतिलभ्यते, प्रतिलभ्य ज्ञानदर्शनचारित्रवन्तः धर्म FA प्रतिलभ्य तीर्थकरोपदेशात् जमालिबदान्मोत्कर्पदोपाद्विनश्यन्ति, गोहामाहिलावसानाः सर्वे निहवाः आत्मोत्कर्षाद्विनष्टाः बोटिकाश्च, एयमात्मा समाहिमाघातमजोसयंता भावसमाधिव्रख्यातः, तीर्थकरैः जुपी प्रीतिसेवनायोः, तं 'अजोसयंता' कम्मोदयदोसेणं केयि दुपियबुद्धयः असद्दहंता केचित् श्रद्दधतोऽपि धृतौ अपि दुर्वलाः, यावीवमशवतो यथारोपितमनुपालयितुं जेहि चेय णिकारणयच्छलेहिं पुत्रवत् संगृहीताः ते चेव कहिंचि दुक्खलितादौ, मणो अणुत्तरं वा साधु पडिचोदेति-मा एवं करेहित्ति, नेग शास्तारोपदेश इति, सत्थारमेवं फरसं वदंति सो हि न ज्ञातवान् , किंवा तस्म. उवदिस्संतस्सपि पारकस्स छिअति ? ॥२७३॥ PARAN [५५७५७९] [277] Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१२२-१२६], मूलं [गाथा ५५७-५७९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक श्रीराध- तामणिः ||२७४॥ ||५५७ ५७९|| दीप अनुक्रम सुहं परायएहिं हत्थेहि इंगाला कड़ि अंति, अथवा यः शास्ति से शास्ता-आचार्य एव, तपि चोदंति, अशीलो वा, असंतिभावे या शास्तृतिर स्कारादि वद्यमाणो, असत्पुरुषाः सुशील दुःशीलं वदंति, दुःशीलं सुसीलं च ।। किञ्च-'विसोधियं वा (ते) अणुकोयते (अणुका यंते) वृत्तं ॥ ५५९॥ विसोधिकरं विसोधियं, धम्मकथा सुत्तत्थो वा, अनु पश्चाद्भावे, कथितमाचार्यः अनु कथयन्त्यन्येषां, तथाऽऽचार्यपरंपरागतं गाणं चरित्र वा जमालिपमिती य आतभावेण वियागरेति, भावो नाम ज्ञानं अभिप्रायो वा, उस्सुत्रं पनवेति, यैर्वा धैर्येणाशकान्तः परिणामयितुं वितहं कथयंति, आचार्यसमीपे गोष्ठामाहिलवत् , निग्गता वा जमालिवत् , एवं न युज्यते, यथोदितमेव संयुज्यते, इत्येवमातभावेन वियागरेंति, केचित् कथ्यमानमपि ब्रुवते नैतदेवं युज्यते यथा भवानाह, स्यादेनं तु युज्यते, स एवं स्वछन्दः अहाणिए होइ बहुगुणाणं अनायतनं असम्भवः अनाचार: अस्थानमित्यनर्थान्तरं गुणाही 'सुस्ससति पडिपुच्छति सुणेति गेहति य ईहए आवि। ततो अपोहए वा धारेइ करेइ वा सम्मं ॥१॥' एतेसिं सुस्ससणादीणं गुणाणं अत्थाणं भवति, पैनयिकमन्योऽन्यसाधारणवैयावृत्त्यादीनां च अथवा 'सवणे गाणे' पठ्यते च-'अहाणिए होंति बहुणिवेसो' अस्थानिको गुणानां, दोषाणां तु बहूनिवेशो भवति, नियतं वेशो निवेशोऽनयिकादीनां दोपाणां,जेणाणसंकाए मुसं वदन्ति गाणे संका णाणसंका तेसु तेसु णाणंतरेसु एवमेतन युज्यते अथवा संकेतितमान्यार्थाः, जे ज्ञानवन्तमात्मानं मन्यमानाः असं लवंति अभयभावे छन्दता णियमा चेव मुसंवदंति जमालिवत् , जंमि अणुवादी अमिणिवेसेण भवति तदपि मृपा भवति, 'जे आवि पुट्ठा पलिकंचयंति' वृत्तं ।। ५६०॥ य इत्यनिर्दिष्टनिर्देशः, केनविऽधीतं कस्यचित् सकाशात् जात्यादिपरिपेलवस्य, स च पृष्टः केनचित्-कस्य सकाशात् भवताऽधीतमिति ?, स तस्मादाचार्याजात्यादिभिरात्मानमुत्कृष्टं मन्यमानः तमाचा [५५७५७९] ||२७४॥ [278] Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१२२-१२६], मूलं [गाथा ५५७-५७९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक श्रीसूत्रक- सानाचूर्णिः ॥२७५|| आचार्यापलापादि ||५५७ ५७९|| दीप अनुक्रम यमपलपते, प्रख्यातमन्यमुद्दिसति, योऽपि तावद् यथा वैरस्वामी पदानुसरणलब्धिसम्पन्नः, आयरिआओ अधिकतरं पण्णवेति, तेनापि न निलवितव्यः आचार्य:, किमंग पुनर्ये समानो न्यूनतरो वा, जे पुट्ठा भणंति अत्तकस्सेण-मया चैतद्विस्तरतो विकल्पितं अर्थपदं, सूत्रं वा विसोधितं, सो णिण्हगो असंतिभावद्वितो, यस्य चा सकाशात् केनचिदधीतं ग्रहणशक्तितया वा तेनान्यतोऽधिकमधीतं शब्दच्छन्दहेतुतर्कादि गृहवासे वा तेन शब्दादीन्यधितानि, परेण चोदित:-त्वया अमुकाचार्यस्य सकाशात अधीतमिति ?, स किं जानीते बराको मृत्पिण्डः यस्यौछावपि न सम्यक्, यतः अभ्युत्थानादिविनयभीतानि यति, एवं णाणे पलिउंचणा, सणे य, चरिते तु कोइ कोई पामत्थादि पुढविकाइयादि समारभते, कप्पाकप्पविधिष्णुणा मावगादिणा पुट्ठो-किह तुझं एतं कप्पती ?, | उदउल्लादि गेण्हंतो वा अमुगो ण एवं गेहति तुम कहं एतं गेण्डसि?, तुझं बा एतं एवं आगतेल्लगी, एवं पुडो इह लोग कथेती, | नइतुं इमं लोयं जोणिधम्म, सो पलिउंति, सोऽत्थ कि जाणति? तुम वा किं जाणसि?, चीर्णवता वयं, पलिउंचंता आदाणमट्ट बलु आदानं शानादीनि, आदीयत इत्यादानं आदातव्यमित्यर्थः, अमाधुमाधुमानीनः साधुगुणवाह्यास्ते अमाधव एव साधुमानिनः, अणोपसंखाए य ते साधुवाद वदन्ति, स: असाधुः साधुमाणी, दगुणं करोति स पापि, वीया बालस्म मंदया, एवं शुद्धखंतिपरिचाए द्वितीयं पापमासेवंतो, एवं मायान्विताः एहिति ते अणतसंमारिय, दायोधिपलाभियं कर्म पंधिया अगाइयं । जाइतब्यमरितव्बाई घातमेहिंति, एवं माणलोभादोसेवि, कोये तु सब एवं प्रतिपेधः क्रियते', 'जो कोहणे होति जगहभासी' वृत्तं ॥ ५६१ ।। जगतः अट्ठा जगतहा, जे जगति भापले, जगात २ तागत् खरफरुमणिठ्ठराणं असंयतार्थ इत्यर्थः, न पुनराचार्यादीन साधून गृहिणो वा खरफलमणिटुराणि भगति, कामकलुगादीणि वा, अथवा जगदर्था छिन्दि भिंदी वध मार- [५५७५७९] ॥२७५|| [279] Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१२२-१२६], मूलं [गाथा ५५७-५७९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत श्रीमत्रकताजचूर्णिः जगदर्थभाषितादि सूत्रांक ॥२७६।। ||५५७ ५७९|| दीप अनुक्रम यत् जातिवाद वा काणकुंटादिवाद वा फुडताणि वा, जगट्ठभासी य, पठ्यते च-येन तेन प्रकारेणात्मा जयमिच्छति, विउसितं या पुणो, विसेसेण उस वितं विउसितं, खामितमित्यर्थः, तं सपर्ख परपक्खं वा क्षामयित्वा पुनरुदीरयति। अंधे व से दंडपहं गहाय, दंडपहे णाम एकपहए, महापथ इत्यर्थः, तमन्ध उद्देसतो गृहीत्वा गायां धृष्य विपमे कूपे वा पतति, पापाणकंटकाअग्न्यहिश्वापदेभ्यो वा दोषमयामोति, अविउसितो णाम अधिनपाहुडो दंडगत्थाणीयं केवलमेव लिङ्गं गृहीत्वा गायां धृष्टे विषमे कूपे वा पतति पाषाणादिचिखिल्लादिसुवा, उत्तरगुणेसु मूलगुणेसु वा विसुद्धिमयाणतो कुर्वन् भावान्ध एव लभ्यते, घासति सारीरमाणरोहिं दुक्खेहिंति, सीसगुणदोसाहिगारे अनुवर्तमाने तदोषदर्शनार्थ-'जे विग्गहीए (अन्नायभासी) वृत्तं ॥५६२।। विग्रहो णाम कलहः, विग्रहशीलो विग्रहिका, यद्यपि प्रत्युपेक्षणादिमेरां नालुपालयंति,नात्याभाषी अत्याभापी गुर्वधिसेवी प्रतिकूलभाषी नमो समो भवति, समो नाम मध्यस्थः, न रक्तो न द्विष्टः, झंझाणाम कलहः, प्राप्तः, अथवा नासौ समो भवति झंझाप्राप्तस्तु गृहिमिः समो भवति जेन तेनैवंविधेन न भाव्य शिष्येण, पुनरपि पठ्यते च 'जे कोहणे होति उणायभासी' एवं समे भवति, तेननैवविघेन न माव्यं शिष्येण, अझंझापचे, किंच-ओवायकारी य, यशोद्दिष्टदोषरहितः ओवातकारी, चशब्दो यत्र दोपनिवृत्तये द्रष्टव्यः, उवातो णाम आचार्यादिनिर्देशः तद् वाच्यं कुरु मा चैवं कुरु, तत्थ गच्छतेति बा, अधया सूत्रोपदेशः उपवायः, हीः लजा संयम इत्यनान्तरं, श्रीमान् संयमवानित्यर्थः, लजते च आचार्यादीनां अनाचारं कुर्वन् लोगतच, पगंतदिट्टी य एगंततदिट्ठी नाम सम्मदिहि असहायी अमायरूपी नाम न छमतः धर्म गुर्वादीधोपचरति । 'से पेसले' वृतं ॥५३॥ पेसलो नाम पेसलवाक्यः, अथवा विनयादिभिः शिष्यो गुणैः प्रीतिमुत्पादयति पेशला, सुहुमो णाम सुहुमं भापते अबई च अविघुष्टं नौचैः [५५७५७९] ratis २७६॥ [280] Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||५५७ ५७९|| दीप अनुक्रम [५५७ ५७९] श्रीसूत्रक ताङ्गचूर्णिः ॥२७७॥ “सूत्रकृत” अंगसूत्र-२ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], निर्युक्तिः [१२२-१२६], मूलं [ गाथा ५५७-५७९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: - | पुरुषजात इति से पेसलवाक्यः, अथवा विनयादिभिः शिष्यगुणैः प्रीतिमुत्पादयति, पेशल: सूक्ष्मः, स जात्याऽन्वितः से उंज्जु, उज्जुगो णाम संयमो, जं वा पुण्यस्सईति तं उज्जुगमेव करेति ण विलोमेति, सकारो दीपनार्थे द्रष्टव्यः, संपेशलः सूक्ष्मः सः अमोहः पुरुषो जातः म जान्यादिगुणान्वितः स उज्जुकारी बहुपि अनुमासिते, यद्यपि कचित्प्रमादात् स्खलितो ब्रह्मप्यनुशास्यते | तथाप्यसौ तथाऽधिरेव भवति, अचिरिति लेश्या, तथेति यथा पूर्वलेश्या तथा लेश्या एव भवंति पूर्वमसौ विशुद्धलेश्य आसीत् | अनुशास्यमानोऽपि तथैव भवत्यतो, तथा च न क्रोधाढा मानाद्वा अविशुद्धलेश्यो भवति, समो नाम तुल्यः, अमौ हि नमो भवत्यज्झेझप्राप्तेर्वीतरागो ऋजुरित्यर्थः इदाणिं माणदोसा मिस्सस्सवि आयरियस्यवि 'जे आवि अप्पं बुसिमंति णचा (मत्ता) 'वृत्तं |||५६४॥ य इत्यनिर्दिष्ट निर्देशः, बुसिमं संयतमात्मानं वमिमंति णचा, वृत्तं मत्वा, अहं सप्तदशप्रकारः संयमत्रान, मत्वा नाम ज्ञात्या, संख्या इति ज्ञानं ज्ञानयन्तमात्मानं मत्वा, चंदन वादः, किं वदति है, कोsन्यो ममाद्यकाले संयमे सदशः सामाचारीए १, अपरिक्खं गाम अपरीक्ष्य भणति, रोमपडिणिवेम अकयण्णुताए वा, अथवा माणदोपानपरीक्ष्य वदति, माणदोसा गाम जं जं मदं करेति तं तं उवहण्णति, तेणेच बाद अहितेति णचा, चलादीनां तपमां कोऽन्यो मया सदृशो भवतामोदनमुण्डानां, विम्वभूतमिति मनुष्याकृतिमान्, द्रव्यमेव च केवलं पश्यति, न तु विज्ञादि मनुष्यगुणानन्यत्र प्रतिमन्यते, अथवा चित्रमिति लिङ्गमात्रमेवान्यत्र पश्यति, न तु श्रमणगुणान् उदकचन्द्रवत् कार्षापणवचेत्यादि त एवंविधाः शिष्याः गुणहीनाः अशीले अशान्तौ च वर्त्तन्ते, सच्छीला चा प्रलीयन्ते, केण ?- एगंतकडेण उ पेमले (से पलेह) ' वृत्तं ॥ ५६५॥ संयमाओ पलेऊण पुनर्जन्म कुटिले संसारे पुनः पुनर्लीयन्ते यतयैवं तेण ण विजति मोणपर्यसि गोत्ते, पदं नाम स्थानं, मुनेः पदं मौनं, पदं संय [281] वाक्यादि ॥२७७॥ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१२२-१२६], मूलं [गाथा ५५७-५७९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: श्रीमत्रक मौनपदादि प्रत सूत्रांक ताङ्गचूर्णिक ॥२७॥ ||५५७ ५७९|| दीप अनुक्रम मस्थानमित्यर्थः, गोचेत्ति गौरवः, संयमस्थानं प्राप्य तन कार्य इति, अथवा गोत्रमिति अष्टादशशीलासहस्साणि तत्रामौ गोण विद्यते, किंच-जे माणणढे ण विउकसेजा मान एवार्थः माननिमित्त इत्यर्थः, विविधं उत्कर्ष करोति, वसुति संयमेण विउ| कसति अप्पाणं, अण्णतरेण चा, प्रज्ञानेन अन्यतरेण वा, प्रज्ञानं ज्ञानं नाम, सूत्रमर्थं उभयं वा, ममाहिकं कंट्ठोडविप्पमुकं विशुद्ध Aसुतं अर्थग्रहणपाटवं विस्तरतश्चतान कथयामि, लोकसिद्धान्तो बज्झाई, किमन्यैर्जनैर्मुगास्त्वन्ये चरति चंद्र अधस्ताद्वा भ्रमन्ति अचु| ज्झमाणेत्ति आत्मोत्कर्षदोपं । किंच-जे माहणे वृत्तं ॥५६६|| माहण इति साधुरेव जो वा मुनी ब्राह्मण जातिरासीत् क्षत्रियो-राजा तत्कुलीयोऽन्यतरो वा उग्र इति लेच्छद च क्षत्रियाणामेव गोत्रभावः, अन्ये वा कविद्विजायाः प्रजिता एवमादि जातिविसुद्धा जे पचईए परदत्तभोई, चइताणं रज रटुं च पचइतो, अथवा अप्पं वा चहुं वा चहग पचइतो परतो य ये च दत्तमेपणीयं च | मुंक्ते, शेपैरन्यैः सर्वैरपि संयमगुणैः युक्तः असावपि तावद् जो गोतेणेत्यादिना स्वरूपतो जो कोइ हरिएसब लच्छणीया मेतज्जस्थाणीउ वा अन्यतरं वा एवंविधं द्रमकादिभवजितं निन्दति, अथवा जे माणा खत्तिय अहवा उग्गपुत्ता अदु लेच्छची वा जे | पब्वइया, प्रबजिता अपि भूत्वा शिरस्तुंडमुंडनं कृत्वा परगृहाणि भिक्षार्थमटन्तः मानं कुर्वन्तीत्यतीव हास्य, कामं मानोऽपि क्रियते | यद्यसौ श्रेयसे स्यात् ‘ण तस्स जाती व कुलं बताणं०'वृत्तं ॥५६७। जातिकुलयोविभाषा, मावसमुत्थोत्पत्यादि, त्राणमिति न संमारपरिवाणं, कर्मनिर्जरेत्यर्थः, नान्यत्रेनि, विद्याग्रहणात् ज्ञानदर्शने गृहीते, चरणग्रहणात् संयमतपसी, णिक्खम्म से सेवतिऽगारिकम्मं स इति जातिकुलविकत्थनः, अकारिणां कर्म अकारिकर्म, तद्यथा-अहं जात्यादिसुद्धो, न भवानिति, ममकारो | वा इत्यादि गारिकर्म, नासौ पारको भवति धर्मसमाधिमार्गाणां विमोक्षस्य वा, अथवा नात्मनः परेषां वा तारको भवति, किंच [५५७५७९] ॥२७८।। [282] Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१२२-१२६], मूलं [गाथा ५५७-१७९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: नमवादि प्रत थीसूत्रकतानचूर्णिः ।।२७९॥ सूत्रांक ||५५७५७९|| दीप अनुक्रम जिणेण उचं 'णिगिणिविया (णिकिंचणे) भिक्खु सुलूहजीवी ।। ५६८॥ णिगिणो नाम द्रव्याचेला, लूहो संयमः, तेन जीवति अन्तप्रान्तेन, हिते वा, जेनैव रूक्षजीवीतेन गर्वितो भवति, न च समो भवति, अरक्तद्विष्टैरिति, न वा अझंझाप्राप्तः समो | भवति, आजीवमेतं तु अबुज्झमाणो 'जातीकुलगणकम्मे सिप्पे आजीवणा तु पंचविधा', जात्या संपन्नोऽहमिति मानं करोति, प्रकाशयति चात्मानं स्वपक्षे तथाचैन कश्चित्पूजयति, एपा हि आजीविका च भवति मददोपश्च, आजंजवं पुणो पुणो चाउरंते संसार| कंतारे, विपर्यासो नाम जातिमरणे, किमंग पुण जो सव्यसो चेव मुकधुरो लिङ्गमात्रावशेपः नानन्तकालमटति, जमेते दोसा | समाधिव्याघातमदसुमत्ताणं आयरियपरिहावीणं तस्मादिमः शिष्पगुणैर्भाव्यं, तंजहा-'जे भासवं' वृतं ।। ५६९।। सत्यभाषा वान् धर्मकथालब्धियुक्तो वा भाषावान् , सुष्टु साधु वदति सुसाधुवादी, मृष्टाभिधानो बा, क्षीरमध्याश्रयादिप्रणिधानवंति 'सेकालं |गोवलंभो तथा के' यं च णए पुरिसे, आक्षिप्तः पडिभणति-उत्तरं भापते, प्रतिभणतीति प्रतिभाणवं, उत्पत्तिक्यादिबुद्धियुक्तः सन्न || प्रतिभापितवान् , अर्थग्रहणसमर्थो विशारदः, प्रियकथनो चा, कश्चिद्धर्मकथी अपि वादी अत्यर्थमागादप्रज्ञः, विशेषिकादिहेतुशाखाणि, तैरस्य भावितः आत्मा स भवति भावितात्मा. अण्णं जणं अण्णमिति योन भाषावान संस्कृतभाषी वा असाधुवादी न स्पृष्टवाक् संप्रतिपत्तिकुशलो न, न च लोकलोकोत्तरशास्त्रेषु आगाहप्रक्षेन सुभावितात्मा, स एवंविधः कश्चित् पपणसा णाम प्रज्ञया परिभवति न वासनाहः उच्यते-'एवं ण से होइ' वृत्तं ।।२७०।। एवं न से होति समाधिपते एवमनेन प्रकारेण | समाधिप्राप्तः चतुर्विधसमाधिग्राप्तः, यः प्रज्ञया भिक्षुरात्मानं विउकस्सति-अहं श्रेष्ठो नान्य इति, अथवाऽवि जे ताव मदेण | मत्ते (मयावलिते) अहं वत्थपडिग्गहपीठफलगसेज्ञासंथारंगमाही अण्णमवि उप्पावेउं सत्तो, किमंग पुण अप्पणो उप्पादेतुं तुम [५५७५७९] ॥२७॥ [283] Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१२२-१२६], मूलं [गाथा ५५७-५७९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत खिसावर्जनादि सूत्रांक ||५५७ ५७९|| दीप अनुक्रम श्रीरक-TANI सो वा?, स अण्णपाणगमविण लभसि, एवं सो अण्णं जणं विसति यालपुणे (पण्णे) न इतरेऽपि, पठ्यते च-अपणेऽवि ताङ्गचूर्णिः जो जातिमदेण मत्तो अण्ण जणं खिसति बालपण्यो, एवं अण्णेवि सदा अजुत्तावि भाणितव्या, एतान् दोपान मच्चा तेण'पण' ॥२८॥ | वृत्तं ॥ ५७१ ॥ पण्णामयं चेव तवोमयं च, प्रज्ञामदो नाम अहं प्रज्ञासंपन्नः अहं तपस्वी, नान्ये इत्यतः परं परिभवति, तदेतौ द्वावपि मदौ निच्छितं निश्चितं वा नामयेत् निर्नामेत् णिण्णामयेदित्यर्थः, एवं गोत्रमदमपि, चशब्दात् अन्यान्यमपि आजीवितं चेव चउत्थमाहः आजीच्यतेऽनेनेति आजीविका मद इति वाक्यशेषः, मदेन जीवतीत्यर्थः, तद्यथा जातिमदेन जीवति, नाम नातीच्य वर्तते एवं इति, स इति स पण्डितः स्वकर्मभिः, पूर्यते गलंति वेति पुद्गलाः, स पंडितश्चोत्तमपुद्गलश्च उत्तमजीव इत्यर्थः, अथवा जो सोभणो लाडाणं सो पुद्गलो चुञ्चति, जहा पुग्गलजम्मा पुद्गलजीवत्ती। एताणि मदाणि विगिंच धीरा ॥५७२॥ PA वृत्तं, एतानि यान्युद्दिष्टानि, विगिचत्ति उज्झित्वा, अहमिदानी जात्यादिमदस्थानानि हित्वा प्रवजितः, धी:-बुद्धिः, ण ताणि | सेवेञ्ज, किमुक्तं ?-न जात्यादिभिरात्मानं उत्कर्पत, यथा पूर्वरतादीनि न स्मर्यन्ते तथा तान्यपि, नवा पश्चाजातैर्बहुश्रुतादिभिरा| त्मानं उत्कर्पत , मुष्ठुधीरधर्माणः ज्ञानर्मिणो गीतार्थाः, आसेवित्ता जे सबगोत्तावगया महेसी 'ते' इति धीरधर्माणः, | सर्वगोत्राणि सर्व वा कर्म गुप्यन्ते येन तासु २ गतिपु स्वकर्मोपगाः, अतः कमैंव गोत्रं भवति, उच्चं नाम इहैव सर्वलोकोत्तमानां प्राप्य लोकाग्रं निर्वाणसंज्ञकं अगोत्रस्थान प्रामोति, स एवं सर्वमदस्थानपरिहितः भिक्खू मुतचा(चे) वृत्तं ॥५७३।। अर्चयन्ति | तां विविधैराहारैर्वसाधलङ्कारैश्चत्यर्चा, मृता इव यस्याची स भवति मृतार्चः, मृतो हि न शृणोति न पश्यतीत्यर्थः, एवं भिक्षुरपि शृण्वन्नपि न शृणोति, पश्यन्नपि न पश्यतीत्यादि, इत्यतो मुतचा, संयमं वा मुतमुच्यते, अर्चेति लेश्या, स मुतलेश्यो मुतचो, विसु [५५७५७९] ॥२८॥ [284] Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) अरत्यभि प्रत सूत्रांक ||५५७ “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१२२-१२६], मूलं [गाथा ५५७-१७९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: 15 , इत्यर्थः क्वचिद् ग्राम नगरे वा द्धाओ संमत्ताओ अविसुद्धाओ असंमत्ताओ, कचित् सूत्रे वाऽर्थे च दृष्टयम्मी, दृष्टसारो दृष्टधा थीसूत्रकताङ्गचूर्णिः MA अनुप्रविश्य गच्छासी णिग्गतो वा से एसणं जाणमणेसणं च स एमणा बायालीसदोमविसुद्धा तनिवरीता अणेसणा, अथवा ॥२८॥ एमणा जिनकप्पियाण पंचविधा अलेवाडादि हेडिल्लातो अणेसणा, अथवा जा अभिग्गहिताणं सा एसणा, सेसा असणा, जो पुण | अण्णापाणे य अणाणुगिद्धे, सया सकेति परिहरितु सो चेव य जाणगो, किंच-अरर्ति रतिंच अभिभूय भिक्खू वृत्तं ॥५७८।। | अरति संयमे रतिं असंयमेचि, अभिभूय णाम अकमिऊणं, बहुजणमज्झम्मि गच्छयासी, एगचारित्ति एगल्लविहारपडिवण्णगा, अर| तिग्रहणात् परीसहगाहणं, एगंतमोणेणं तु एगंतसंयमेणं, एकान्तेनैव संजममवलम्बमानः पृष्टो वा किंचिद्वाकरोति, न तु यथा | मौनोपरोधो भवति, संयमोपरोध इत्यर्थः, तद्यथा-'जाय भामा पाविका सावा सकिरिया', किंच से नागरेति ?, उच्यते, एगस्स जंतो गतिरागती य, एक एव च परभवं यात्यात्मा, एक एव चागच्छति, उक्तं हि-'एकः प्रकुरुते कर्म, भुनक्त्येकश्च तत्फलम्। | जायत्येको मृपत्येको, एको याति भवान्तरं ।। ९॥ पत्तेयं पत्तेयं जाति पत्तेयं मरति । धर्म कथिकविशेषस्त 'सयं समेचा वृत्तं । 111०७५|| स्वयं समेत्येति स्वयं ज्ञात्वा तीर्थकरः अन्यः सुच्चा भासेज धम्म हिययं पयाणं हितं इहलोके परलोके य, किंच जे गरहिता सणिदाणप्पयोगा गर्हिता निन्दिता 'णिदाण बंधणे सह णिदाणेण प्रयुंजत इति प्रयोगा-त्रिविधाः, अथवा कम्म, कथा | | अधिकता, तेन ये वाक्यशेपाः प्रयोगा गर्हिता, तद्यथा-शास्त्रं सपरिग्गहं कर्म प्रज्ञापर्यतः कुतीथिनी न प्रशंसति, एतेऽपि हि काय. क्लेशादीन कुर्वते, सावञ्जदानं वा प्रशंसंति, न वा तथाप्रकारं कथं कहेजा जेण परो अकोसेज बहेत एवमादी वागदोपां धर्मजीवितोपरोधकत्वेन न सेवते सुधीरधर्माणः कथकाः। किंच-'केसिंचितझाए(इ)अबुज्झभावं' ।।५७६।। खरफरुसाइ भणेजा, मा भूत्, ५७९|| दीप अनुक्रम [५५७५७९] ॥२८१ [285] Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१२२-१२६], मूलं [गाथा ५५७-५७९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत आयुः कालादि सूत्रांक ताङ्गचूर्णिः ।।२८२।। ||५५७ ५७९|| दीप अनुक्रम रौद्रमपि गच्छति, अबुद्धयमानाः रौद्रं वर्मतः आउस्स कालाइयारं व घातं यावयेनायुषकालोऽतिवतितः स तस्यायुःकालः अतिचरणमतिचारः आयुःकालस्य अतिचरणे चरणोषघात होजा, पालक इव खन्दकस्य, येन चान्योपघातो भवति, अथवा अकोसेञ्जा वा, लद्धाणुमाणे तु अणुमीयतेऽनेनेत्यनुमान लब्धं अनुमानं येन स भवति लब्धानुमानः, कथं लब्धं?, नेत्रवक्त्रविकारेहि अन्तर्गतं मनो गृह्यते, तंजहा-'केऽयं पुरिसे ? किंवा दरिसणं अभिप्पसण्णे ? किं चास्य प्रियमप्रियं वा? यदिदं कथ्यत' इति एवं लब्धानुमानः परेषु कथयेत् येनात्महितं भवति परहितं च इह परत्र च, अथवाध्यमर्थः 'कम्मं च छंदं च विगिंच धीरो (रे) ॥५७७॥ वृत्त, येन कर्मणा जीवति न तेनैनं परिभापेत् , यथा होका(अक्का, न चैनं तेन कर्मणा निन्दयेत् इति, यथा चर्मकारो भवान् कोलिको वा मा सो उदुरुट्ठीण गेण्हिज, छन्दं चास्य जाणेज, तद्यथा-दारुणो मृदुर्वा, अथवा छन्द इति येनाक्षिप्यते वैराग्ये न शृङ्गारेण इतरेण वा, तथा-किंच अयं पुरिसे कंचा दरिसणमभिलसे? एवं ज्ञात्वा विणएज तु सर्वतो आतभावं आतभावो णाम मिथ्यात्वं अविरतो या, ततो अप्रशस्तादात्मभावात सर्वतो विनयेत, एवं कालण्यो मायण्णे, जे व क्वेअण्यो, तंजहा रुवेहि लुप्यति रूपं सर्वप्रधानं विषयाणां तथानापि स्त्रीरूपादि तेष्वेव मूर्छन्नालुप्यते इहापि तावत् जहा 'सद्दे गओ०'गाथा, किमु परलोए? एवमेतानिन्द्रियापायान् दृष्ट्वा विजंति विद्या गृहीत्वा ज्ञात्वेत्यर्थः, गृहीतविद्यः सन्ः त्रसस्थावररक्षणं धर्म कथयति, तं हुणं कहेत्ता न पूजासकारादीन्यालम्बनानि आलंघयेत् इत्यतो निवार्यते 'न पूयणं चेव॥५७८॥ वृत्तं, ण पूया मम भबिस्सती,सिलोगो णाम जसो कित्ती यथाऽनेन तुल्यः प्रशस्तविस्तरो कथको, मृष्टवाक्य इत्यादि, प्रियं च न कुर्यादसंयतानां अन्यतरेण सावधोपकारेण वा, अप्रियं, अथवा ममायं प्रियं अयं वाऽग्निय इति, अथवा यो यस्य प्रियः सन् तस्य पिशुनवचनविद्वेप गादि न कुर्याद् धर्म कथी। किंच [५५७५७९] २८२॥ [286] Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१२२-१२६], मूलं [गाथा ५५७-५७९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: ग्रन्थनिक्षेपः प्रत श्रीसूत्रक सूत्रांक ॥२८॥ ||५५७ ५७९|| दीप अनुक्रम 'सर्वे अणडे' अशोभना अर्थाः अनर्थाः, संयमोपरोधकद अर्थोऽनर्थः अनर्थदण्ड इत्यर्थः, अणाउलो णाम अनातुरः क्षुदादिमिः तानचूर्णिः परीपहै:, अपापशील: अकपायी, 'आहत्तहीयं समुपेहमाणे॥५७९।। वृत्तं, आधचहियं धम्मं मग्गं समाधि समोसरणाणि | य यथावद् बच्चानि, सम्यक् उप इक्ष्यमाणः, सब्वेहिं पाणेहिं णिखिप्प दंडं दंडो नाम घातः, णो जीवियं णो मरणाभि१४ याथा | कंखी असंजमजीवितं परीपहोदयाद्वा मरणं, चरेज मेधावी वलयाविमुक्कोत्ति बलया माया, एवं उक्तं एवं ब्रवीमि ।। यथा तथ्यं त्रयोदशमध्ययनं समाप्त ।। ___अज्झयणामिसंबंधो-वलयाविमुशोचि भावगंथविमुक्कोत्ति अभिहितः, सो पुण गंथो इह वणिजति एस संबंधो, तस्स चत्तारि अणुओगदाराणि, अत्याहिगारो गंथो, जाणिऊण विपहियचे, पसत्यभावगंथो य गच्छेययो, णामणिप्फण्णे गंथो, तत्थ 'गंथो पुब्बुद्दिट्टो ॥१२७|| गाथा, दुविधो गथो दच्चे भावे य, जहा खुड्डागणियंठिजे भावगंथो पुब्बुदिट्ठो, तं पुण गंथो जो सिक्खइ । सो सिक्खउसि वा सेहोत्ति वा सीसोति वा बुधति, सो पुण दिविधो-सहत्थपब्बावितो सिक्खवितो, तत्य सिक्खावणासिस्सेण VA अधियारो, सो सिक्खगो तु दुविधो गहणे आसेवणे य बोद्धयो। गहणंमि होइ तिविहो सुत्ते अत्थे तदुभए य H॥१२८॥ आसेवणाय दुविहो मूलगुणे चेव उत्तरगुणे य । मूलगुणे पचविहो उत्तरगुण वारसविहो उ ॥१२९॥ | मुलगुणो पंचविधो-पाणाइवायवेरमणादि, प्राणातिपातविरमणं ज्ञात्वा तमेव आसेवते करोतीत्यर्थः, एवं उत्तरगुणेसुषि, ते य द्वादसविधमासेवते, एप हि शिष्यः आचार्य प्रति भवति, तेनाचार्योऽपि द्विविधः, आयरिओ पुण द्विविधो॥१३०|| गाथा, पवावंतो य सिक्खावंतो य, पयावतो णाम जो दिक्खेति, सिक्खावतो दुविधो-गहणे आसेवणे च 'आधेत्तो(गाहावेतो)वि AANISEARNISHAIL [५५७५७९] ॥२८३।। | अस्य पृष्ठे चतुर्दशमं अध्ययनं आरभ्यते [287] Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||५८० ६०६|| दीप अनुक्रम [५८० ६०६] श्रीसूत्रताङ्गचूर्णिः ॥२८४॥ “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१४], उद्देशक [-] निर्युक्तिः [१२७- १३१], मूलं [गाथा ५८०-६०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: यतिविहो' गाथा ।। १३१ ॥ गहणे विविधो-सुतं गाहेति अत्थं गार्हति उभयं गाहेति. आसेवणाए दुविधो-मूलगुणे उत्तरगुणेय, मूले पंच, तंजा - पाणावायवेरमणं सेहावेति, कारयतीत्यर्थः, उत्तरगुणे तवं दुवालसविधं आसेवाविंति णामणिष्फण्णो गतो। सुत्तागमे सुतारेवन्धं स एवमाधत्तधिए घम्मे द्वितो 'ग्रंथं विहाए इह सिक्खमाणो ॥ ५८० ॥ वृत्तं, साव द्रव्यं ग्रन्थः प्राणातिपातादि मिथ्यात्यादि अप्पसत्यभावग्रन्थं च विसेसेण हित्वा विधाय, पसत्यभावगंथं तु णाणदंसणचरिताई आदाय, खओवसमियं गाणं कस्सह पुण्यादत्तं भवति, किंच आदाय ?, पव्वजाति आदानार्थ, खाइगस्म तु नियमादाय, दर्शनं त्रिविधं तस्यापि कस्यचिदादानाय, केनचित्पूर्वेनादत्तेन क्षायोपशमिकेन पूर्वगृहीतस्य तु आदानार्थं वृद्ध्यपेक्षं, चरित्रस्य तु त्रिवि धस्याप्यादानाय, प्रशस्तभावग्रन्थो आदानीयेत्यर्थः, तेन चात्मानं ग्रन्थयति, इहेति इह प्रवचने, इति च पठ्यते उपप्रदर्शनार्थं, एवं दुविधाए सिक्खाए सिक्खमाणो उत्थायेति प्रव्रज्य सोभनं बंभचेरं बसेज्जा सुचारित्रमित्यर्थः, गुप्तिपरिसुद्धं वा मैथुन भचेरं चति, गुरुपादमूले जावजीवाए जाव अन्भुजयविहारंण पडिवजति ताव बसे, उवायकारी निदेशकारी, जं जं बुञ्चति तं सिक्ख - न्ति सिखाए, वि सिक्खितं च आसेवणसिक्खाय अपडिकूलेति, जे छेय विष्पमायं ण कुज्जा, यश्छेकः स विप्रमाद, प्रमादो नाम अनुद्यमः यथोक्ताकरणं, यथाऽऽतुरः सम्यक् वैद्ये उपपातकारी शान्ति लभते एवं साधुरपि सावधग्रन्थपरिहारी पापकर्मभेपजस्थानी येन प्रशस्वभावग्रन्थेन कर्मामयशान्ति लभते, जो पुण एगलविहारपडिमाए अप्पजंतो, गच्छेति केयि पुरिसे अविदिष्णं णिगच्छेति, अवितीर्णश्रुतमहोदधी अविद्वानसौ तीर्थकरादिभिर्विधूतः, तस्स दुखदादी दोसा भवंति इमे चान्ये, सूत्रम्जहा दिया ॥ ५८१॥ वृतं, पोतमपत्तजातं सावासगा पविडं मनमाणं । स्ववासगात् गर्भादण्डाद्वा, द्विर्वा जातो द्विजः, [288] S आदानादि '॥२८४॥ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१२७-१३१], मूलं [गाथा ५८०-६०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: मागा अपोतद्विजादि प्रत सूत्रांक श्रीसूत्रकताइचूर्णि ||५८०६०६|| दीप अनुक्रम पततीति पोतः, पतन्तं त्रायन्तीति पतत्राणि पिच्छानीत्यर्थः, नास्य पत्राणि जातानि अपनजातः, साबसगा पवितुं प्रपलातुं, तम- चाई तरूपक्खगं दा सावामगातो उल्लीणं पुणो उडेनुमसकेन्तं, ढकः पक्खी, ढंक: आदिउँपां ते भवंति ढंकादिणो अन्यतरा, अव्य॥२५/Aक्तगम इति अपर्याप्तः, हरेज बा, पिपीलिकाउ व णं खाएजा मारेज वा णं चेडरूवाणि धाडेज वा, अपि काकेनावि हियते, एप | दृष्टान्तः, सूत्रेणैवोपसंहारः। एवं तु सिद्धिवि (सेहंपि) अपुटधम्मे (अपुट्टधम्म) ॥ ५८२ ।। वृत्तं, न स्पृष्टो येन धर्मः स भवति अपुदृधम्मे, अगीतार्थ इत्यर्थः, णिस्सारियमिति इहलोकसुहं णिस्सार, बुसिमं णाम चारित्रं, णिस्सारं मण्णमाणो, परं सो असुई चाणिस्सार मण्णमाणो, दियस्य छायं स एव द्विजः पक्षी वरिकादीनामन्यतमः, छायर्ग नाम पिल्लग, अपनजातं, हरिसु [इरिति हरिरसंति वा, त्रैकाल्यदर्शनार्थमतीतकालग्रहण, येषां धर्मः मिथ्यादर्शनं अविरतिय तेऽप्यधा, मिक्षुकादीनी तिणि तिसट्टाणि पानादियसयाणि विष्परिणामेऊण हरति, तद्यथा-जीवाकुलस्वात् दुःसाध्या अहिंसा, दुःखेन वा धर्मः, इह तु सुखेन, शुचिवादिनोऽपि द्विपंति, आमिससुधरिवदित्येचं कुप्रवचनजालेन विनश्यन्ति, रायादिणो णियल्लया वाणं विसएहिं णिमंतेन्ति, इत्थी या इत्यादि, अनेक इति बहवः, पापंडिनो गृहिणश्च, यतश्चैते दोपाः अगृहीतग्रन्थस्य तेन तहहणार्थ गुरुपादमूले 'ओसाणमिच्छे IN५८३ ॥ वृत्तं, ओमाणमित्यवसानं जीवितावमानमित्यर्थः, अथवा ओसाणमिनि स्थानमेव, गुरुपादमूले, उक्तं हि -'आसवप दमोसाणं गल्लिस्स' 'मणोरमा चेया मनुष्य इतियावन्मनुष्यत्वं च अस्य तावदिवान्ते वसिओ, अगिलाए समाधि मणमाणोऽनवबुद्धो नवग्रहयत् , समाविरुक्तः, तमाचार्यसकाशादिच्छति, अन्यत्रापि हि वसन् जो गुमणिद्देशं वहति म गुरुकुलवासभेव वसति, अनिर्देशवनि तु सन्निकृष्टोऽपि दूरस्थ एव, लोकेऽपि सिद्धा प्रत्यक्षपरोक्षसेवा, 'कामक्रोधायनिर्जित्य, किमरण्ये [५८०६०६] २८५॥ [289] Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१२७-१३१], मूलं [गाथा ५८०-६०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: ज्ञानवि प्रत श्रीयत्रक- वामन्चूणिः २८६॥ त्तादि सूत्रांक ||५८०६०६|| दीप अनुक्रम [५८०६०६] करिष्यसि ?।' कालगतेऽपि गुरौ असहायेन गीतार्थेन चान्यत्र गन्तव्यं, सात्को दोपः?, अनधिकारिणोऽपि तस्य 'अ| पोसिए णंतकरिंति णचा' ण उपितः गुरुकुलेहिं अनुपितः न भवस्यांतकरो भवति, वालुकवैद्यदृष्टान्तः, गुरुसमीपे तु स्खलि| तोऽपि पुनर्विसोध्यते, कया ?, मेरया वासे, 'ओभासमाणे दवियस्स'वृत्तं ॥५८|| ओभासितं णाम रागद्वेषरहितत्वात् तीर्थकर एव भगवान् , ज्ञानधना हि माधव इतिकृत्वा, वित्तं ज्ञानमेव, ज्ञानदर्शन चारित्राणि वा, अथवा तं दविगवित्तं प्रकाशयति, वादी वा धम्मकथी वा विसुद्धचारित्रो वा तपस्वी वा, तद्यावदाचार्यसमीपे विद्यते ताव ण णिकसे बहिया, असावपि तावद्वशको गुरुमपि(मुप)जीवति, आचार्यवत् गुर्वणुज्ञातो णिकसेजा, ततो वा बहिता ण णिकसे, विपयकपायाभ्यां वा हीरमाणमात्मानं अवभासते अनुशासतीत्यर्थः, मा एवं कुरु यावदित्यर्थः, निवार्यमाणं चात्मानमिच्छन्ति गुर्वादिभिः, आसुप्राज इति क्षिप्रप्रज्ञा, क्षणलव| मुहूर्त प्रति युदयमानता, तथा 'किं में कडं किन्चमकिञ्च सेसं०' प्रमादं च गत्वा आसु प्रतिनिवर्तते किल, सप्रमाद वा तत्र खयं प्रमादनिवृत्तये इत्यपदिश्यते । सद्दाइ(णि)सोचा अदु भेरवाइ(णि)वृत्तं ।।५८५।। तयथा-वन्दनस्तुत्याशीर्वादनिमन्त्रणादीन् तथोपसेवनादीनि, येनादिग्रहणं करोति तेन ज्ञायते यथैतानि स्तुत्यादीनि शब्दजातानीह संतीति, भयं कुर्वन्तीति भैवाणि, तद्यथा-खरफरुमणिठुरभैरवादीनि सदाणि, सोचा वाक्यशेषादिति ज्ञाप्यंते, वाशब्दादभैरवान् , अथवा अभैरवाणि, अनाश्रयो । नाम अनाश्रवः तेषु भवेत् , अथवा आश्रय इति स्थानं रागद्वेपाश्रय इत्यर्थः, अनुभूनेषु वा, एवं जाव फरुसाणि फुसित्ता अदु मेरवाणि अपि फासरूवरसगंधेहि, एते इंदियपमाददोपा इहैव, निद्राप्रमादनिवृत्तये तु णिदं च भिक्खू न पमादकजा (पमाय कुञ्जा) दिवमतो ण णिहायति, रतिपि दोणि जामे जिणकप्पी, एकान्तं वितण्हणिद्दो, सरीरधारणार्थ स्वपिति, निद्रा हि परम ॥२८६॥ [290] Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||५८० ६०६|| दीप अनुक्रम [५८० ६०६] श्रीसूत्रकृ ताङ्गचूर्णिः ॥२८७॥ “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], निर्युक्तिः [ १२७-१३१], मूलं [गाथा ५८०-६०६ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: विश्रामणं, चशब्दात्कपायकथामद्यप्रमादा अपि गृह्यन्ते, कथं कथमपीति किमहं पञ्वजंण णित्थरेज ? समाधिमरणं णलभेला ?, अथवा कथं कथमिति सम्यक अनुचीर्णस्यास्य कि फलमस्ति नास्तीति एवं वितिगिच्छां तरे, न कुर्यादित्यर्थः, धर्मकथां वा कथयन् वितिगिंछामध्यणो तरेज, 'तमेव सचं निस्संकं जं जिणेहिं पवेदितं ।' अण्णेसिं च तहा कहेज जहा वितिगिछा ण भवति, उत्तर शिक्षाधिकारे तु (नु )वर्तमाने 'जे ठाणओ सगणासणे य' वृत्तं ॥ ५८४॥ स्थानेन साधु भवति पडिलेद्दित्ता पमजित्ता, जहा ठाणसत्तिक्कए, सयणे सुबंतो साधू साधुरेव भवति, स जागो सुत्रति जहा ओह णिज्जुत्तीए, आसणे निसीयंतो पडिलेहणादि करेति, पीढगादि वा जहिं काले आमणं गेण्तन्वं जहा परिभुंजियन्नं, पलियंकादीओ य पंच गिसिजाओ आचरंतो साधुरेव न भवति, | परमेरियासमितिवान् साधुरेव भवति, समितीसु अ गुत्तीसु अ समिती इरियासमिती मुक्का सेमाओ, गुत्तीओवि कायगुत्तिं मोत्तुं, ठाणमयणासणगहणेणं कायगुत्तीरुक्ता, आगना प्रज्ञा यस्य स भवति आगतत्रजः, समिती गुप्तिथ आसेविते विया| गतिति, स एवं समितात्मा गुप्तथ यदा वा करोति धम्मं तदा सुखं प्रज्ञापयति, पुढो विस्तरशः कथयति, तस्य हि उद्यममानस्थ ग्राह्यं वचो भवति, विसुद्धं भवति, स्थानादिषु वा यो हि चिरं स्खलतीत्यर्थः तं पुढो वदेजा पतिचोदिज्ज स्वयं यथा ते हि सुखं परिचारयंति, अथवा पुढोति परस्परं चोदयंति, न गौरवेन, ममैते वश्या अभियोज्या वा, सो पुण चोदंतो दुविधो समानत्रयोऽममानवयो य, सर्वस्यापि पोढव्यमिति, तद्यथा- 'डहरेण० ' वृत्तं || ५८६ ।। डहरो जन्मपर्यायाभ्यां बुडो वयसा, अनुशासितः क्वचित् चुकस्खलिते पडिचोदितः रायणिए आयरिओ परियारण वा पव्यत्तगाईण वा पंचानामन्यतमेन समवयोपरियारण वयमा वा एवमादीनां वचनं सम्मं तगं थिरतो वेदेति चोदनावचनं, थिरं नाम जं अपुणकारयाए अच्भुङ्केति, न नाभिगच्छति, न गति न, [291] fat and anti निद्राप्रमाद वर्जन ॥२८७॥ - Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||५८० ६०६|| दीप अनुक्रम [५८० ६०६] श्रीकनाचर्णिः ॥२८८॥ “सूत्रकृत” अंगसूत्र-२ (निर्युक्तिः+चूर्णिः) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१४], उद्देशक [-] निर्युक्तिः [१२७- १३१], मूलं [गाथा ५८०-६०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: - मिच्छा करेति, कुम्भारमिच्छादुकडं न करेति, चोदितो वा न पडिचोदति, णिजंतए वावि अपारए से यथा नदीपूरेण हियमाणः केनचिदुक्तं इदं तुरकाएं अवलंवस्त्र, वारं अंबे वृक्षशाखां वा मुहूर्त्तमानं वा आत्मानं धारय इत्युक्तो रुष्यति न वा करोति, यदुच्यते स हि अपारगे भवति, पारं न गच्छतीति अपारगः, एवं समिओऽवि, अथवा निमंत्रणामिवातुरः न रागं परं गच्छन्ति, अथवा णिज्जतराणि इति णिज्जवतो, स हि आचार्यमक्षं प्रति नीयमानोऽपि सम्यगुपदेशैः पडिचोअणाहि या पारं गच्छति संसारस्य कपायवशात् अहं अप्पसुतेहि य, एसा ताव सपक्खचोदणा । इदाणि सपक्खे परपकखे य-'विउद्वितेणं समयाणुस हे (सिट्टे) ' वृतं ॥ ५८७|| विउडिनो नाम विच्युतो यथा व्युत्थितोऽस्य विभवः, संपत् व्युत्थिताः, संयमप्रतिपन्न इत्यर्थः, पार्श्व स्थादीनामन्यतमेन वा कचित्प्रमादाय कार्येण वा त्वरितं गच्छन् जहा तुझं ण वहति तुरितं गंतुं, कहं १, कीडगादीनि न हिंसध, हिंसितु वा एवं मूलगुणेसु वा उत्तरगुणेसु वा विरावणाए अण्णतरेण वा समये वाऽनुशास्तः ण तुझं वहति एवं काउं, जे अंतरपलोयण होयचं, ते तु डहरेण वा महंतेण वाऽनुशास्तः, अम्भुट्टिताए घडदासीए वा, अतीव उत्थिता अन्भुङ्किता, कुत्रोत्थिता है, दौ:शील्ये, घटदासीग्रहणं तीसेवि ताव गोदिज्जतो ण रुस्सियन्वं, किं पुण जो तणुआणिवि सीलाणि धरेति १, अथना अमुडिता सा दंडघट्टिता भुयंगीव धमथर्मेति रुड्डाणं भणेति तुज्झ वहति एवं काउं ? अथवा अडितेति पडि पक्खत्रयणेण गतं, चन्द्रगुप्तस्त्री पुरुषः, तद्यथा - दासदासी, पतितेभ्योऽपि पतितस्याचि चोदंती, ण वक्तव्या, से वावि ताव तुमं कहेसि ममं चोदेंतु, आगारिणंति स्त्रीपुंनपुंसकं वा, आह केन ?, अन्यतरेण वा एवं चोदितो 'ण कुप्पेजा' वृत्तं ।। ५८८ ।। कोपो नाम मनप्रद्वेषः, पडुचे तं पण्यहेज्जा लोहरथादीहिं, ण वा फरुसं वदेज्ज, जहा मरुओ, रक्तपडगे णाम मंसखोयडक्खाओ मुंडकुटुम्बी, सोडविता वत्थे [292] नोदनादि ॥२८८॥ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१४], उद्देशक -], नियुक्ति: [१२७-१३१], मूलं [गाथा ५८०-६०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत पूजादि ताडाचूर्णिः सूत्रांक ||५८०६०६|| दीप अनुक्रम Bणासियो लोगो या फिर जाणति जेण तुज्यो दिट्ठ, किगंग पूण तुमं सपक्पेग वा ओसण्योण चोदितो, भगति-को तुममढे घा श्रीसूत्रक AI चोदेतुं भवति ?, तहा करिस्संति, सपक्से मिच्छामिदुपार्ड, परपक्खे ममैन तकपः, एवं पडिसुणेजा, न च प्रमादं कुर्यात् , ||२८९॥ येन पुनश्चोधते यत्तुल्यगं तस्स पूया कायब्धा । 'वर्णसि मूढस्स'चं ॥५८९|| वनमरण तत्र दिग्मूढस्य उत्पथप्रतिपत्रस्य वा | अमूढः कश्चित्पुमान् अन्यो ग्रामो वा अदिस्सं गच्छनो मार्ग कथयति, यथा कथयागि तथा तथाऽयं मार्ग इप्सितां भुवं गच्छति, | अनुशासंतो यदि उन्मार्गापायान् दर्शचित्वा ब्रवीति-अयं ते मग्गे हितः क्षेमोऽटिलत्यादितः फलोयगादिवृक्ष जलोपेतत्वाच, प्रजायते इति प्रजा:-मनुष्याः, प्रयान्ति वा येन तत्प्रयानं भवति मार्ग एव, तेणेवमेव सेय, तेणावि मूढेण अमूढयस्स तेण मज्ज्ञ य चेच एतं मे सेयं जं बुद्धा ममणुसासयंति, जं मे एते युहा मग्गविदू सम्म उअर्ग, न वा द्वेपेण, अनुशासना नाम धी, सम्ममणुमाययंति, युद्धा बुद्धा आचार्याः पुत्रस्येवोपदिगंति, न देगेण पक्षरागेण या, स्खलिनेषु अणुशासति, एप दृशन्ता, उपसंहार ततस्तेन मृढेनेश्वरेण वा. वृत्तं ।।५९०॥ अमूढस्येति देशिकाय, यद्यपि चण्डाल: पुलिन्दिगन्दगोपालादि च तस्यापि विस्तीर्ण| बता नरेण सता शक्त्यनुरूपा कायव्वा, पूया भत्तिसंजुना, अहमनेन दुर्गा मापदभयान दोपेभ्यो मोक्षिन इत्यतोऽस्य कृतज्ञत्वात् | प्रतिपूजां करोमि, विशेपयुक्ता नाम यावती मे तेन पूजा कृता अतो अस्याधिकं करोमि, नद्यथा-वस्त्रानपालनभोगप्रदाने राजा | दद्यात् , उक्तो दृष्टान्तः 'एलोवमं तत्थ उदाहु वीरे' तसिन्निति तम्मिन्मार्गोपदेशक उदाहरति स्म उदाहः, धीराः, अणुगमन अत्यति अणुगमेण अणुगम्य उपनयति, वेनापि मिथ्यात्वपचनान् उत्तारनेन अभ्युत्थानादि सविशेषा पूजा कर्तव्या, यद्यप्यसौ चक्रवर्ती निष्कान्तः आचार्यश्च द्रमालादिजातः, द्रगपूजा आहारादि, माये भक्ति वर्णाव, वान मन्येऽपि दृष्टान्ता, [५८०६०६] १२८९॥ [293] Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१२७-१३१], मूलं [गाथा ५८०-६०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: नेतृत्वादि प्रत सूत्रांक ||५८०६०६|| दीप अनुक्रम श्रीस्त्रक तद्यथा-'गेहमि अग्गिजालाउलंमि जह णाम डज्झमाणमि । जो बोहेइ सुयंत सो तस्स जणो परमबंधू ॥१॥ जह वा विससंजुत्तं 'तामचूर्णिः भत्तं निद्धमिह भोत्तुकामस्स । जो विसदोसं साहइ सो तस्स जणो परमबंधू ।।२।। अयमन्यः सौत्रः 'णेता जहा अंधकारंसि ॥२९ ॥ रातो०'वृत्तं ॥५९१॥ नयतीति नीयते वा नेता, अंधं करोतीति अन्धकार मधान्धकार अचन्द्रामा रात्रिः अडवीसा गत्तापाषाणदरीवृक्षदुर्गमा से तस्यां पूर्वदृष्टमपि दण्डकपथं न पश्यति, कुतोऽमार्ग, सो सूरीयस्स अन्भुग्गमेणं स एव सूर्यप्रकाशामिव्यक्तचक्षुर्जानकः मग्गं वियाणाति पगासितंति प्रकाशितमिति जगति चक्षुषि वा, एवं तु सेहे' वृत्तं ॥५९२।। सेहो पुव्युत्तो दुविधो-गहणे आसेवणे य, अपुट्टधम्मो णाम अदृष्टधा, धर्म न जानाति, प्रवृत्तिनिवृत्तिलक्षणं धर्म ज्ञानादि, प्राणातिपातादिषु यथासंख्य, अथवा चित्रधर्म अप्रमादादिधम्म वा से कोवितो जिणवयणेण पच्छा कोविता णाम विपश्चितः गहणसिक्खाए कोवितो, आसवितव्यं च गहणशिक्षया ज्ञायते सूरोदए पासति चक्खुणेव देशिकोऽपि च पथं, अकृत्यादावर्य कृत्ये प्रवर्तते, गुरुकुलबासगुणात्प्रमादाप्रमादी मूलोत्तरगुणौ च पश्यति, मूलगुणेसु तावत् अहिंसापथमपदिश्यते 'उड़ अहेयं तिरिय दिसासु वृत्तं ॥५९३।। उड़ अहेयचि खेत्तपाणातिवातो, जे थावरा जे य तसा दमपाणातिवातो, सदाजतोत्ति कालप्राणातिपात:, तस्स परकमंतो मणप्पओसं अविकंपमाणोत्ति भावपाणातिवातो योगत्रयकरणत्रयेण, एवं सीतालं भंगसतं पंचसु महब्बएसु, दब्यादिचतुष्कं च सामान्येन सन्यासु जोएयच्या, मणप्पदोसं, पदोसेण या विविध कम्पयति २, एवं उत्तरगुणसुवि दुविधा सिक्खा PI जोएब्बा, यस्मायेने गुरुकुलवासगुणाः तत्राबसन् ज्ञानमधीत्य करतलामलकवाल्लोकं पश्यति व्रतेषु च खिरो भवति, ज्ञानगुणात् । तेन तज्जातं 'कालेण पुच्छे समियं पयासु' वृत्तं ॥५९४॥ 'कालेने ति 'काले विणए बहुमाणे 'णाणायारो सयिति, सम्य [५८०६०६] ||२९० [294] Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१२७-१३१], मूलं [गाथा ५८०-६०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: तुल्यकधनादि प्रत सूत्रांक श्रीमत्रकनाङ्गचूर्णिः ॥२९॥ ||५८०६०६|| दीप अनुक्रम गिति तिविधाए पज्जुवासणताए, प्रजायन्त इति प्रजाः सम्यग्प्रजाभ्यः आइक्खमाणं (णो) 'जहा पुण्णस्म कत्थइ तथा तुच्छस्स कत्थई' यथा ईश्वरनिक्रान्तस्य तथा पेलवनिष्कान्तस्यापि कथ्यते, दविओ णाम दोहिवि रागदोसेहिं रहितो भावात् तस्य तज्ज्ञानं, बानधनानां हि साधूनां किमन्यत् वित्तं स्यात् १, स तु गीतत्थो पुच्छिययो, इतरो उ अतञ्चपि देसेज्ज, तं सोयकारीय तमिति यत्कथ्यते श्रोतसि करोतीति श्रोतकारी, गृहीत्वेत्यर्थः, गृह्णाति, अथवा श्रोत्रेण गृहीत्वा हृदि करोतीति श्रोत:कारी, श्रुत्वा वा करोतीति श्रोतकारी, पुढोपवेसेत्ति पृथक् पुणो २ वा पवेसे हृदयं पुढो पवेसे, 'सहस्रगुणिता विद्याः, शतशः परिवर्तिताः', पत्तेयं वा पत्तेयं पवेमो पुढोपवेसो, तंजहा-उस्मग्गे उस्सग्गं अवयाते अववातं, एवं ससमए सममयं परसमए परसमयं वा, अतिक्रान्ते अतिक्रान्तकालं, संख्यायतेऽनेनेति संख्यानं, केवलिन इदं कैवलिकं समाधिरुक्ता, 'अरिंस सुठिच्चा' वृत्तं ।।५९५॥ अस्मिन्निति यद्गुरुकुलबासे बमता श्रुतं गुणितं च, सुठ्ठ डिच्चा सुठिच्चा, दुविधाए सिक्खाए अप्पमादे समितिगुत्तीसु अ एसकालं यथा साम्प्रतं तथैष्यकालमपि यावदायुः, एतेसुत्ति एतेष्वेव समितिगुप्त्यप्रमादेषु धर्मसमाधिमार्गेषु च वर्तमानस्य शान्ति:-इहान्यत्र च सौख्यमित्यर्थः, सर्वकर्मशान्तिर्वा, शान्तस्य च सतः सर्वकर्मनिरोधो भवति, अनाथव इत्यर्थः, अथवा समित्यादिषु अप्रमादस्थानेषु यानि चिहान्युक्तानि तेसु वर्तमानस्य कर्मोपनिरोधो भवति, क एवमाख्यांति?, उच्यते, ते एवमक्खंति 'ते' इति ते तीर्थकराः ज्ञानदर्शनचारित्राख्यांखीन् लोकान् पश्यन्तीति त्रिलोकदर्शिनः, ऊर्धादि वा त्रिलोकं पश्यति, तस्माद्गुरुकुलबासे वसतः समितिगुप्तिगुप्तस्य प्रमादरहितस्य शान्तिर्भवति कर्मनिरोधश्च, तेन न भूयः पतंति प्रमादसंग, एतदिति यदुक्तं, | असमितित्वमगुप्तत्वं च, प्रमाद एव सङ्गः, संगो वा थोवक्खो मोक्खमग्गस्म, एवं गुरुकुलबासे दवियस्स वित्तं । 'णिसम्म से [५८०६०६] 1॥२९ [295] Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१२७-१३१], मूलं [गाथा ५८०-६०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: ' थीनक समीहिता प्रत । सूत्रांक र्थादि ॥२९॥ ||५८०६०६|| दीप अनुक्रम भिक्खु समीहमद (समीहियट्ट)'वृतं ॥५९६॥ निशम्येति गृहीत्वा गुणयित्वा निशभ्य वा, सम्यक् पौर्वापर्येण वा समीक्ष्य, 0 अर्थमिति श्रुतार्थ मोक्षार्थ या, तॉग्तान् प्रति अर्थान् भातीति प्रतिभा, श्रोतृणां संशयच्छेचा, विशारदः खसिद्धान्तजानका, आदा णमद्री आदीयत इत्यादान, ज्ञानादीन्यादानानि, आदानेन यस्यार्थः स आदानार्थी, बोदानं विदारणं तपः, मीन-संयमः, आदानार्थी वोदानं मौनं च, उपेत्येति प्राप्य, दुविधाए सिक्खाए गुरुकुलवासी प्रमादरहितः शुद्धेत्ति निरुपधेन सम्यग्दर्शनाधिष्ठितेन चोदनेन प्रतिपेधेन, उबेतिति, मारं मरंत्यस्मिन्निति मार:--संसाः, उक्कोसेणं वा सत्तट्ट भवग्गहगाई मरेज, एवं सो बहुस्सुओ जातो जो वुत्तो अस्सि सुविचा, यस्थ पढितं-णिसम्म से भिक्खु समीहियहूं, देशदर्शनं कुर्वन् अब्भुजयमेगतरं प्रतिपत्तकामेण , वा गुरुणा आचार्यत्वेन स्थापितः समीक्षितो वा, एके अनेकादेशात् अभिधीयते 'संवाइ धम्मं च वियागरंतिवृतं ।।५९७।। संखाएति धर्म ज्ञात्वा श्रुतं धर्म वा कथयति सिस्मपहिच्छगाणं धर्मकां च कथयति, अथवा 'संखाए'त्ति खेर कालं परिसं सामत्थं वऽप्पणो बियाणित्ता परिकथयत्ति, अथवा कि अयं पुरिसे? कं च गए?" अथना संख्यायेति एतत्मात्रस्यायं श्रुतख योग्या, अतः परं शक्ति स्ति, सत्यां वा शक्ती जचियं प्रचरन्ति तत्तियं गहिय, एवं संख्याय 'अयोच्छित्ति०' एवमादिभिः प्रकारैः संख्याय धम्म वागायंता बुद्धबोधितास्ते आचार्याः, कम्माणं अंतं करेंतीति अंतकराः, अन्याश्च कारयति, यतः पारगाः ते पारगा दोपहावि मोयणाए ते इति संख्याय धम्म व्याकरयन्तः, पारं गच्छंतीति पारगाः, आत्मनः परस्य च, दोण्हवि मोयणाए, पारं गच्छति मोचनाः, कतरे ते, जे संसोधिगा पण्हमुदाहरंति सम्यक समस्तं वा सोधिया संसोधिया, पुच्छंति समिति प्रश्नः, पूर्वापरेण समीक्षितुं आत्मपरशक्तिं च ज्ञात्वा द्रव्यादीनि च तथा केऽयं पुरिसेत्ति परिचितं च सुत्तं करण आयरिया देसाचारित्तेण [५८०६०६] ॥२९२॥ [296] Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१२७-१३१], मूलं [गाथा ५८०-६०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत श्रीसूत्रक सूत्रांक तानचूर्णिः ॥२९३॥ SATARRANTIPANT ||५८०६०६|| दीप अनुक्रम अत्धेण सरितेणं तो संघमज्झयारे चवहरितुं जे सुई होति, अच्छिद्दपसिणवागरणा अकेवली केवली वा रयणकरंडसमाणा, कुत्ति अनाच्छा दनादि यावणभृता कथा, चोदसदसणवपुथ्वी जाव दसकालियंति, संसोधितुं अविच्छिन्नोच्छित्ति करेति, तं पुण कहतो-'णो छादएका वृत्तं ॥५९८।। मत्सरित्वेनार्थे नाछादयेत् पात्रस्य, धर्मस्य कथां कथयन्त्र सद्भूतगुणान् छादयेत् , नवा चायणारिय छादयेत् , लूसितं भग्नमित्यर्थः, लूसित्ता णाम अवसिद्धांतं कथयति सिद्धान्तविरुद्धं वा, माणं ण सेवंति प्रज्ञामानमाचार्यमानं वा, संशयानात्मनः परस्य वा छेत्तुं न मदं कुर्यात् , न वा प्रकाशवेदात्मानं यथाऽहमाचार्यः, णयावि पपणे परिहास कुजत्ति प्रज्ञावान् प्राज्ञः, न चेदृशीं कथां कथयेत् येन श्रोतुमात्मनो वा हास्यमुत्पद्यते, अपरियच्छते या परे अण्णहा वा अबुझमाणे न प्रज्ञामदेन परिहासं | कुर्यात् , यथा' 'राजा तथा प्रजेतिकृत्वा न सर्वत्रैव परिहासः, ण याऽऽसियावायंति 'शंसु स्तुतौ तस्याशीर्भवति स्तुतिवादमित्यर्थः, न तदानबन्दनादिभिस्तोपितो यात-आरोग्यमस्तु, ते दीर्घ चायुः, तथा सुभगा भवाष्टपुत्रा इत्येवमादीनि न व्याकरेव , एवं वाक्समितिः स्यात् , किंनिमित्तमाशीर्वादो न वक्तव्यः ?, उच्यते, भूताभिसंकाए(इ)दुगुंछमाणा(णे)' ॥५९९।। वृत्तं, भूतानि अभिसङ्केयुः सावद्याभिधायिनः अत इदमपदिश्यते, भूतानि यस्य सावधवचनस्य शङ्कते न तेन वचनेन णिचहे, संयमे निर्गच्छेदित्यर्थः, न चानेन वचनेन णिबहे, संयम निर्गालवेदित्यर्थः, मन्त्र्यत इति मत्रा-वचनं, मत्र एव पदं मत्रपदं, अथवा मत्रा इति विद्यामधादयो गृह्यन्ते, तेन मत्रपदेन निब्बहे, गुप्य(गूय)त इति गोत्र-संयमः सप्तदश विधः अष्टादश च सीलगमहस्साणि इत्यस्माद्गोत्रान्न तद्विधं वचो ब्रूयात् यन्त्र निर्वहेत् , पट्काया वा गोत्रं यत्र गुप्यते तां न निर्वहेत् , गोत्रात् जीवितादित्यर्थः, तच्च गोत्रमाचरेत् , कहेन्तो वाण किंचि मिच्छे ण कितिवणमसिलोगट्टताए कहिश धम्म, मनुष्य इति स पदकथका, ||२९३॥ [५८०६०६] [29] Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१२७-१३१], मूलं [गाथा ५८०-६०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत असाधुध सूत्रांक ||५८०६०६|| दीप अनुक्रम श्रीसूत्रक प्रजायत इति प्रजाः यामां कथ्यते, तासु प्रजासु, स्त्रियो वा प्रजा, न कीतिमिच्छेत् , असाधूनां धर्माः २ तान् असाधुधर्मान् न संवताचूर्णि: BI एमा, ते च दर्पमदाहंकारादयः, अथवा न तत्कथयेत् येन असाधुधर्माणां सद्धानं भवति, पचनपाचनादीनां, असंयतदानादि मविदनादि २९४|| वा, न कुतीथिकान् या प्रशंसंति, किंच-'हासपि णो संधति ॥६००॥ वृत्तं, हास्येनापि नो पापधर्म संचयेत् , यथेदं छिंदत भिदन वा खाद मोय वा, अथवा हास्येनापि न प्रशंसयेत् कुप्रवचनानि, शाक्यं ब्रुवते-अहो तुझं सुदि8 जंबरचोल्ला व ति, सुह चेच धम्मं तुझे करेह, यद्यपि सोल्लंठं तथापि न वक्तव्यं, मा भूदन्येषां पात्रबुद्धिः स्थात् , गोमडं खअति गोचम्मेसु वधं, जायेति । रागद्वेपरहितः, न विगंतव्यं सद्भूतं, फरुसं अतिजाणति, रागद्वेपवन्धनभावात् , परुपः-संयमः कर्मणामनाश्रय इत्यर्थः, तथ्य-संयम, अभिमुखं जानाति यथा सो वाग्दोपान विराध्यते यथा वाऽऽचार्यते तथा च कथयति, अथवा कथयन् कथां लब्धिगर्वितो न भवति, नैवार्थक पदं, किं, लब्ध्या गर्वितो भवति, जहा तुच्छस्स कहेति-तणहारगस्सवि तहा रायस्स, जहा जहा तुच्छस्स तहा तहा राज्ञोऽपि, प्रकथनो नाम नो धर्मकथित्वेनान्येन चा आत्मानं कथयति इलाघयतीत्यर्थः, अपरिच्छंतं वा नावकंसेति, चमढयतीत्यर्थः, तत्र न अन्येपामपि संयतानामुदुरुस्सती, अथवा न तुन्छए आत्मानं मौनपदेन प्रकथयति, यथाऽहमीदृशो अनन्यमदृशो वा अणाइलेत्ति न धर्म देशमानो, न आतुरो भवति, मन्यादितो वाऽऽकुल:-व्याकुलो भवति, अपरियच्छन्ते वा परे, सिद्धताविरुद्धानि सेवन्ते इत्यविरुद्वसेवी, न च विरुद्ध्यते तेन सह यस्य कथयति । किंच-'संकेज याऽसंकितभाव भिक्खू०॥६०१|वृत्त, यत्र शंकितमस्य ज्ञानादिपु तन्न कथयति, अपृष्टः पृटो चा शंकेत अशङ्कितभावः, एवं तावत् ज्ञायते, अतः परं जिनाजानंति, भावो नाम ज्ञानं, सङ्किसज्ञानमित्यर्थः, न च तद्भापते कथयति वा येनान्यस्य शङ्का भवति, विभज्यवादो नाम भजनीयवादः, तत्र शङ्किते भजनीय- ॥२९४॥ [५८०६०६] [298] Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||५८० ६०६|| दीप अनुक्रम [५८० ६०६] श्री त्रक्रताङ्गचूर्णिः ॥ २९५॥ “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१४], उद्देशक [-] निर्युक्तिः [१२७- १३१], मूलं [गाथा ५८०-६०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: बाद एव वक्तव्यः अहं तावदेवं मन्ये, अतः परमन्यत्रापि पुच्छेजासि, अथवा विभज्यवादो नाम अनेकान्तवादः स यत्र २ यथा युज्यते तथा २ वक्तव्यः, तद्यथा - नित्यानित्यत्वमस्तित्यं वा प्रतीत्यादि, किं कथयति ? केन वा कथयति ? सत्या असत्यामृषा च भाषादुगं, संमसमुद्दितेहिं पढमचरिमाओ दुवै भासाओ, सम्मं समुट्ठिते, ण मिच्छोट्ठिते, जहा उदाइमारगो, चोदकबुद्ध्या या चैतण्डिका वा करेजा, सनीपति सम्यक् आशुप्रज्ञः उक्तः । किंच- 'अणुगच्छमाणे वित विजाणे०' ||६०२॥ वृत्तं, तस्यैव कथयति कश्चिद् ग्रहणधारणासंपन्नः यथोक्तमेवाचितहं गृह्णाति कश्चित्तु मन्दमेधात्री वितथं हि जाणति, तकं मंदमेघसं तथा २ तेन प्रकारेण हेतुष्टान्तोपसंहारैः, यथा २ प्रतिबुद्धयते तथा साधु सुष्ठु प्रतिबोधयेत् न चैनं कर्कशाभिगिराभिरमिहन्येत्, विग मूर्ख ! किं तवार्थेन ? स्थूलबुद्धे !, एवं वाचा अककसं, कायेनापि न क्रुद्वमुखः, हस्तचक्रौष्टविकारैः वा, मनस्तु नेत्रवविकारेण अनादरेण गृह्यते, सर्वथा अकर्कशे, किंच तत् कुत्रचिद्भावं कचित् स्वसमये परसमये वा तथोत्सर्गापवादयोः ज्ञानादिषु द्रव्यादिज्ञापनायां वा न कुत्रचिद्भायां विहिंसेत् परुपमृपावादादिदोषः, तस्य वाबुद्ध्यमानस्य श्रोतुर्न कुत्रचिद्भापां विहिंसेत्, अहो भंगा लक्ष्यन्ते, न निन्ददित्यर्थः, निरुद्धगं चार्थमर्थाख्यानं वा न दीर्घ कुर्यात् अधिकार्थैः, 'सो अत्थो वक्तव्यो जो अत्थो अक्खे हिं आरूढो 'अपक्खर महत्थं॰ 'चउभंगो जहा जहा परूविज्ञा० हंदि महता चडगरत्तणेण अत्यं कथा हणति ॥ १॥ किंच-'समालवेला' ||६०३ || वृत्तं, सोभणं समयं या कधेजा, पडिपुन्नभासी अड्डेहिं अक्खरेहिं अहीनं अक्खलियं अमिलितं नियामियं जहा गुरुसगासे निशान्तं समीक्षितं वा बहुशः तथा सम्यगर्थदर्शी कथयति, समिया नाम सम्यक् यथा गुरुपकाशादुपधारितं सम्यक् अर्थ पश्यन्ति ममियाअडमी नामाचार्य इतिकृत्वा, संति वा श्रोतारः यत्किञ्चित् कथयितव्यं तेण हि आगाइ सुद्धं त्रयणं आज्ञा, यथा गुरु [299] A विभज्यवादादि ॥२९५॥ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१२७-१३१], मूलं [गाथा ५८०-६०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: HE प्रत आज्ञा| सिद्धादि सूत्रांक ||५८०६०६|| दीप अनुक्रम श्रीवत्रक- णोपदिष्टं तथैवोपदेष्टव्यं, आज्ञासिद्धं नाम यथोपधारितं, तास्वविकल्पितं वचन मिति सुत्तमत्थो वा, विविध वैधं जुजेजा, कथं ?, तानचूर्णिः उसग्गे उस्सग्गं अववाए अवघात, एवं ससमए ससमयं परसमए परसमयं, तदेवं युज्यमानः कंखेजया पावविवेग भिक्खू, ॥२९६॥ कथं मम वाचयतः पापविवेकः स्यात्, न च पूजामत्कारगौरवादिकारणाद्वाचयति, किंच-'अहावुइयाई सुसिक्खएज्जा'वृत्त ॥६०४।। यथोक्तानि अहावुझ्याणि सुट्ठ सिक्खमाणे सूत्रार्थपदानि दुविधाए सिक्खाए जएजसुचि घडेजसु पडिक्कमिजसु आसेवPणाए सिक्खाए, अतिप्रक्रमलक्षणनिवृत्तये व्यपदिश्यते-णातिवेले वएजा, वेला नाम यो यस्य सूत्रस्यार्थस्य धर्मदेशनाया वा काला, वेला मेरा, तां वेलां नातीत्य अयादित्यर्थः, एवं गुणजातीयः से दिट्टिम म इति स यथाकालवादी यथाकालचारी च दृष्टिमानिति सम्यग्दृष्टिः, सपक्खे परपक्खे वा कथां कथयन् तस्कथयेत् जेण दरिसर्ण ण लूसिञ्जइ, कुतीर्थप्रशंसाभिः अपसिद्धान्तदेशनाभिर्वा न श्रोतुरपि दृष्टिं दुपयेत् , तथा २ तु कथयेत् यथा २ अस्य सम्यग्दर्शनं भवति स्थिरं वा भवति, यश्चैवंविधं स जानीते उपादेष्टुं ज्ञानादिसमाधिधर्ममार्ग, चारित्रं च जानीते सः, एवं 'अलूसए ण य पच्छन्नभासी०॥६०५॥ वृत्रं, अलूसकाः सिद्धान्ताचार्याः, प्रकटमेव कथयति, न तु प्रच्छन्नवचनैस्तमर्थं गोपयति, अपरिणतं वा श्रोतारं प्राप्य न प्रच्छन्नमुद्घाटयति, अपवादमित्यर्थः, मा भूत 'आमे घडे णिहितं' किंच-अणुकंपाए ण दिजति, न सूत्रमन्यत् प्रद्वेषण करोत्यन्यथा वा, जहा रणो मसिगो उज्ज्वलप्रश्नो नामार्थः तमपि नान्यथा कुर्यात् , जहा 'आवंती के आवंती-एके यावंती तं लोगो विप्परामसंति' सूत्रं सर्वथैवान्यथा न कर्त्तव्यं, अर्थविकल्पस्तु स्वसिद्धान्ताविरुद्धो अविरुद्धः स्यात् , किमन्यथा क्रियते ?, उच्यते, सत्थारभत्तीए शासतीति शास्ता शास्तरि भक्तिः सत्थारभत्तीः स भवति सत्थारभक्तिः, अनुविइणं तु अणुचिंतेऊण, वदनं वादः, तदनु विचिन्त्य वदेत् , तच श्रुत्वा [५८० ६०६] [300] Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१२७-१३१], मूलं [गाथा ५८०-६०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक श्रीत्रक- सागाचूर्णिः ॥२९७ १५ आदा ||५८०६०६|| दीप सम्यक् अन्येभ्यः रिणपरिमोक्खाए बाएमा, तदिदं परिवादयेत् पडियाएजा, बमर्थ धर्मका चा, स एव गुराधनायां वर्त- आदानमानः सुद्धसुत्ते उवहाणवं च ॥६०६।। वृत्तं, स इति ग्रन्थवान् , सुद्धं परिचितं अविच्चामेलितं च० उपधानवानिति रापोप- MAL निक्षेपादि धानं या धर्म यावजीवेदिति, तत्तु आज्ञा ग्राह्या, आगमेनैव प्रज्ञापयितव्याः, दार्शन्तिकोsपि हेतूदाहरणोपसंहारैः, अथवा तत्र इति |खसमये परसमये था, तथा ज्ञानादिपु द्रव्यादिपु वा उत्सर्गापवादयोर्वा यत्र २ तत्तथा द्योतयितव्यं आहेज्जवक्के आहेयवाक्य इति ग्राह्या प्रत्यक्षा परोक्षज्ञानी बा, खेदण्यो कुसले पंडिते स एव अर्हता भापितुं समाधि, सनाधिरुतः घमों मार्गश्चेति ।। इति ग्रंथा| ध्ययनं चतुर्दशं समाप्तम् ॥ ___आयाणिजज्झयणस्त चत्तारि अणुओमदारा, अधियारो आयाण चरित्ते, णामणिफण्णे दुविधं णाम-आयाणिअंति वा संकलित्तज्झयणति वा वुचति, तत्थ गाथा-'आदाणे ॥१३२।। गाथा, एते तु आदाणगहणे किमेकार्थे स्यातां उत नानार्थे ?, उच्यते अभिधानं प्रति नानार्थे शकेन्द्रवत् , अर्थ तु प्रति एकाौँ , तदेवादानं तदेव च ग्रहणं, यथा पुत्रमादाय गच्छति पुत्रं गृहीत्वा गच्छतीति नार्थो व्यतिरिच्यते आदानग्रहणयोः, एकेकं चतुर्विध-नामादानं०, उच्यते तावत् वित्तमेवादानं तेन भृत्या गृह्यन्ते, तदेव वा आदीयते, प्रशस्तभावादानमेवाध्ययनं, द्रव्यग्रहणेऽपि गलो मत्स्यस्य ग्रहणं, पाशकूटो मृगस्येति, भावग्रहणं तु यो येन भावेन गृह्यते प्रशस्तेनाप्रशस्तेन या सिंहो मृगान् गृहाति, प्रशस्तेन साधुः शिष्यान् गृहाति, यो वा येन भावेन गृह्यते यथा दास्योः परस्पर चोरभाषेन, उपशमभावेन शिष्यो गृह्यते, आदानमुक्तं । इदाणि संकलिका, सावि णामादि चतुर्विधा-द्रव्यसंकला कुंडगमादीया २ बद्धा संकलिता बुझंति, भावसंकला इणमेव अज्झयणं-जं पढमस्संतिमए बितियस्स उतं हवेज आदिम्मि । एतेणा- २९७॥ अनुक्रम [५८०६०६] अस्य पृष्ठे पंचदशमं अध्ययनं आरभ्यते [301] Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१५], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१३२-१३६], मूलं [गाथा ६०७-६३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक कादि ॥२९८1AL ||६०७६३१|| दीप अनुक्रम [६०७६३०] धीरा-140/(ण उ आ)दिज एसो अन्नोऽपि पजाओ॥१३शा कहिंचि सुत्तेण संकला भवति, कहिंचि अत्थेण, कहिंचि उभयेणवि, एतचैवं ताइनूर्णि: नेण आदि णिक्विवियच्या, स च णामादी ठवणादी गाथा ॥१३४|| दवादी णाम जो जस्स दबस्स भावो होति, उत्पाद इत्यर्थः, HAधीर हि क्षीरभावात् परिणमते दधित्वेन, य एव क्षीरनाशः स एव दधि द्रव्यं, यस्मिन् २ काले आत्मभावं प्रतिपद्यते तस्य द्रव्य स्यादिर्भवति, उक्ता द्रव्यादिः । भावादिस्तु आगमणोआगमतो ॥१३५।। गाथा, पोआगमओ भावादी पंचाह महन्बयाणं जो पढमताए पडियजणकालो, आगमओ पुण आदी गणिपिडगं ॥१३६॥ गाथा, सुअस्स सुअणाणस्स आदी सामाइयं, तस्त च करेमिति पदमादी, तस्सवि ककारो आदी, दुवालसंगस्स आयारो, तस्सवि सत्थपरिणा, तीएवि पदमुद्देसओ, तस्सवि 'सुतं | मे आउसं! तेणं तस्सवि सुकारो, इमस्सवि सुशखंधस्स समयो, तस्सवि पढमुद्देसओ, तस्सवि सिलोगो पादो पदं अक्खरंति, YAणामणिप्फण्णो गतो। सुत्ताणुगमे सुत्तमुच्चारेयव्यं, स एवं गुरुकुलबासी गंथंति सिक्षमाणो शिक्षापादं केवलज्ञानमुत्पाद्य-जमतीतं | पडप्पणणं ॥६०७॥ सिलोगो, यदिति द्रव्यादीनि चत्तारि, तं अतीतद्धाए दयादिचतुष्कं सव्वं जागति, केवलं नाणं सब्वभावे पासति केवली, एवं पडिपुणं अणागतेवि भावे ज्ञान, तसादावतो जानीते सर्व मण्णति मेधावी 'सर्व'मिति सर्व द्रव्यादिचतुष्कं युगपत्काले वा सर्व, मेराए धावतीति मेधावी, कस्माद्धेतोः जानीते ?, उच्यते, 'दसणावरणतए' चउण्हं घातिकम्माणं, दर्शनग्रहणात् ज्ञानस्य ग्रहणं, स एवं-'अंतए वितिगिच्छाए' ॥६०८|| सिलोगो, अत्रोभयेनापि सङ्कलिका, वितिगिच्छा णाम | संदेहज्ञानं, तेसु य णाणतरेसुत्ति, तस्यान्तए, वितिगिच्छाए, समस्तं जानाति संजापति, न ईदृशं अणेलिसं, अतुल्यमित्यर्थः, तस्यैवंविधस्य अपोलिसस्य-अतुल्यस्याख्याता दुर्लभः । तहिं तहिं सुयक्खायं ॥६०९॥ सिलोगो, वासु २ णारगादिगतिसु [302] Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१५], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१३२-१३६], मूलं [गाथा ६०७-६३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक श्रीमत्रकहिचूर्णि: ॥२९९॥ ||६०७ ६३१|| दीप अनुक्रम D| तत्र तवेति सूत्रार्थः, स्खसमयोत्सर्गद्रव्यादिपु या, अथवा तहिं २ ति न तस्य तासु णरगादिगतिसु सुलभो भवति, यच सो व्या- | विचिकिख्याति से असचे अणेलिसो-अवितहो सच्चे, कथं?-'वीतरागा. हि सर्वज्ञा, मिथ्या न यते वचः । यस्मात्तस्मादचस्तेपा, ICE IA सान्तकादि तथ्यं भूतार्थदर्शनं ।।१।। संयमो वा सत्यं, सदा सचेण संपण्णो वचनेन तपः संयमज्ञानं सत्यं संयमः येन यथा वादिनःA तथा कारिणो भवंति, यथोदिष्टं चास्य सत्यं भवति, स एवं सत्यवान् मित्तिं भूतेसु कप्पए करोतीत्यर्थः, आत्मवत्सर्वभूतेषु यतते। सा चैवं भवति भूतेसु(हिं) न विरुज्झेजा ।।६१०॥ सिलोगो, भूताणि तसथावराणि तैन विरुध्यते, विरोधो-विग्रह: तदुपघातो 'एस धम्मे वुसीमओ' बुसीमॉश्च भगवान् , तस्यायं धर्मः, साधुर्वा बुसीमान् 'जगं परिण्णाय' दुविधाए परिण्णाए न एकस्मिन्निति 'अस्सि' धर्मे आजीवितादात्मानं भावयति पणवीसाए भावणाहिं बारसहिं वा । किंच-'भावणाजोगसुदुप्पा' ॥६११।। सिलोगो, भावनाभियोगेन शुद्ध आत्मा यस्य स भवति भावणाजोगसुद्धप्पा, अथवा भावनासु योगेषु च यस्य |AV सुद्धात्मा, यथा जलान्तनौंर्गच्छति तिष्ठति वा न निमञ्जति, स एवं हिणावा व तीरसंपन्ना यथाऽसौ निर्यामिकाधिष्ठिता मारुतवशाचीरं प्रामोति उपायात् , यथा तथा जिनचारित्रवान् जीवपोतः तपःसंयममारुतवशात् सज्ज्ञानकर्णधाराधिष्ठितः संसारतीरमवाप्य सर्वकर्मेभ्यो तिउति-छिद्यते इत्यर्थः, किंच-'तिउद्दई उ मेधावी' ।। ६१२ ।। सिलोगो, अतीव त्रुट्यति अतितुट्टई, अतीत्य वा उट्टति अतिउद्धृति, जाणमाणो असंजमलोगस्स पावगं यथा, पठ्यते कर्मा, तस्य पापानि जानानस्य तपःस्थितस्य खिजंति, पाचं पूर्वकर्माणि-पूर्वबद्धानि, संयमतो निरुद्धाश्रवस्य सतः, नवानि कर्माणि अकुर्वतस्तस्यैवोपरतस्य अकुवतो णवं णस्थि | ॥६१३।। सिलोगो, अकुर्वतो णवं कर्म, निरुद्धेसु आमवदारेसु नाम परोक्षस्तवादिषु, कर्मणामकुर्वतः, अकुर्वतः कर्मणां णवानामपि ॥२९९॥ [६०७ ६३०] [303] Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||६०७ ६३१|| दीप अनुक्रम [६०७ ६३०] श्रीमूलकताङ्गचूर्णिः ||३००॥ “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१५], उद्देशक [-] निर्युक्तिः [१३२ - १३६ ], मूलं [गाथा ६०७-६३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: पत्थि, विजानतो हि कर्माकर्मनिर्जरणोपायांश्च कुतो बन्धः स्यात् ?, एवं कर्म तत्फलं संवरं निर्जरोपायच णचाण से महावीर इति आयतचारित्र महावीर्यवान्, सर्वकर्मक्षये सति न पुनरायाति, न वा मञ्जते संसारोदधौ न वा कर्म निर्णीयते, आश्र चद्वारैर्वाऽस्थाजातरागरोसो ण मञ्जते 'ण मिलाई' || ६१४ ॥ सिलोगो, अत्र ब्रह्माद्याः, तदेव दुश्वरत्वादपदिश्यते, वायु जालं अचेति यथा वायुः द्वीपजालां अच्चेति-कंपति णोहसतीत्यर्थः एवं स भगवान्, प्रिया लोकस्य स्त्रियः, अंचेतित्ति वा णामितित्ति चाएगई, न ताभिरचते, एताः स्त्रियो नासेव्याः, किंच-'इत्थिओ जे पण सेवंति ॥ ६१५|| सिलोगो, स्त्रियोऽपि त्रिविधकरणयोगेनापि ण सेवन्ते, आदिमध्यावसानेषु आयतचारित्तभावपरिणता, ते जणा बंधणुम्मुक्का ते जना इति ते साधवो महावीरा कम्मादिबंधणांतो मुक्का णावकंग्वंति जीवितं असंयमकसायादि जीवितं, अणवकखमाणो अणागतमसंयमजीवितं वट्टमाणं णिरुमित्ता शेषमतीतं पिवतीकिचा असंयमं जीवितं, अंतं पावेंति सर्वकर्माणां, कहं ?, जेण कम्मुणा संमूही भूतो येनासौ कर्माणिकस्य क्षपनाय संमुखीभूतः, न पराङ्मुखः, जेण इमं णाणदंसणचरिततव संजुत्तं मग्गमणुसासति अण्णसिं च कथयति आत्मानं चानुशासते अणुलासणं पुढो पाणी (णे) ॥६१६ ॥ सिलोगो, अनुशासंतो- कहें तो पुद्ध विस्तारे, पुढ इति पुढो विस्तरेण पुनः पुनर्वा, पाणे अणुशासति आयतचरितभावो वसुमं पूयणं णासंसति-ण पत्येति, किंच-अणासए जए दंते अनाश्रवो अनाश्रयो वा पुनरपि पठ्यते-अणासवे सदावंते सदा नित्यकाले दंते इंदियणीईदिएहिं दंते, मूलत्तरगुणेसु मूलगुणधारी गरीयस्त्वाद् गृह्यन्ते 'आरतमेहुणे' उपरतमैथुन इत्यर्थः, णीवारे व ण लीएजा ॥ ६१७ ॥ सिलोगो, णिकरणं दण्डः दण्डस्थानमेतद् व्यवसानं बन्धनस्थानं च इत्यतः तत्र स्थानं न लीयते विकारितां न लभेज, छिन्नसोपं सोतं प्राणातिपातादीन्द्रियाणि वा [304] महावीर - स्वादि ॥ ३००॥ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१५], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१३२-१३६], मूलं [गाथा ६०७-६३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: VORY प्रत श्रीमत्रक सूत्रांक तागचूर्णिः ||६०७६३१|| दीप अनुक्रम [६०७६३०] रागादयश्च 'अणाइले'ति, अणातुरेण छिन्दियब, पुणरपि उच्यते च 'अणाइले' स एवमनाकुलः सदा दान्तः, संध्यते सन्धिः, भावसंधिर्मानुष्यं कर्मसन्धिः कर्मविवरः ज्ञानादीनि च, भावसन्धिः प्राप्तः अणेलिसं योगत्रयकरणत्रयेण 'अंतरा' इति यावत्कर्मतो | ANअध्ययन | भवन्तो वा, एवंविधो वा से हु चक्खु लोगस्सिह ॥६२०।। सिलोगो, स भव्यमनुष्याणां चक्षुर्भूतः, यः किं करोति ?, जे कंखाय करेंति अंतर्ग, कांक्षानाम प्रार्थना कामभोगयोः, अंताणि च सेवंति, सात्को गुणः इत्यतः पुनः पठ्यते--अंतेण खुरो बहती, अंतेनेति धारया, नान्यतः, चकं अंतेण लुट्ठति, चक्रमप्यन्तेन लोट्टति, इयमर्थसंकलिका, अंताई आरामोद्यानानि वसत्यर्थ अंतप्रान्तभूतानि, आहारार्थ कर्माश्रवॉश्च न सेवन्ते, न तेषु वर्तन्ते इत्यर्थः, तेनैव प्रांतसे वित्वेनायतचरित्तकर्माऽन्तकरा भवन्ति, इह धर्म, स्थादिदं-धर्मान्तमासाद्य कुत्रान्तकरा भवन्ति ।, उच्यते, इह माणुस्सहाणे मनुष्यभवे, अथवा स्थान| ग्रहणात्कर्मभूमिः गम्भवकन्तियसंखेजवामाउयत्तं च गृह्यते, धर्ममाराधका नाम अंतधर्म च आराधयंति तमाराध्य । णिट्टियट्ठा व देवा वा ॥६२२।। सिलोगो, ' गता' वित्यस्सार्थो भवति, संसारार्थः कर्मार्थः विपयार्थ इत्यादि, णिहियट्ठा, निष्ठानं च येषां | ज्ञानादयोऽर्थागताः ते भवंति णिडियट्ठा, सिद्धयन्त इति, तदभावे देवा, उत्तरीयं तित्थगरसगासाओ तचत्थो योच्यते, इदं चान्यत् || 'सुयं च मएमेगेसिं' च अनुकर्षणे, एवं मया श्रुतं, यदुक्तं साधवः सिध्यन्ति, अणुत्तरा वा भवन्ति', इदं च श्रुतं 'अमाणुस्सेसु णो तहा' अमनुष्या तिस्रो गतयः न तास्वन्तं कुर्वन्ति यथा मनुष्येषु, शाक्या वा ब्रुवंति 'अनागामिनो देवा भवन्ति, ते हि देवा अनागत्यान्तं कुर्वन्ति, अस्माकं तु नो अनागत्यान्तं कुर्वन्ति इत्यतः तद्व्युदासार्थ अमणुस्सेसु नो तहा यथा अन्येपामिति वाक्यशेषः, 'अथ न यथाऽमनुष्येषु सर्वनिर्जरा भवति नो तहा अमाणुस्सेसु तेसु देपणिजरा न भवति, उक्तं हि-सर्वोऽपि संसा- ॥३०॥ [305] Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१५], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१३२-१३६], मूलं [गाथा ६०७-६३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत अध्ययन सूत्रांक ||६०७६३१|| दीप अनुक्रम [६०७ श्रीसूत्रकृ- रान्तः स्यात् , किं तत् ?, जं अमणुस्सेसु णो तहा भवति, उच्यते-अंतं करंति दुक्खाणं ॥ ६२३ ॥ सिलोगो, अमनमन्तः, तानचूर्णि 1 दुःखानि कर्माणि, इहेति इह प्रवचने, एकेषां न सर्वेषां, अस्माकमेव हि तमाख्यातं, किंच आघात पुण एगेसि आघातमा॥३०२।। ख्यातं, पुनर्विशेषणे, नान्येषां, एके वयमेव, किमाख्यातं ?, दुल्लभेयं समुस्सए समुच्छ्रीयते इति ममुच्छ्रय:-शरीरे, समुच्छ्रि तानि वा ज्ञानादीनि, किंच-इतो विद्धंसमाणस्स अंतं करंति दुक्खाणं सिलोगो, अत इति इतो मनुष्यात् , विद्धसमाणे विद्धत्थे, धर्माद्धि विद्धंसमाणस्स उकोसेण अबड्डेण पोग्गलपरियट्टेणं चोवी लब्भति, माणुस्संपि उकोसेणं असंखेज्जा पोग्गलपरियड्डा, आवलियाए असंखेज्जइभागेणं, किंच-दुल्लभाओ तहवाओ अर्चा लेश्या, तहेति तेन प्रकारेण तथा अर्चा येषां ते इमे तथा वा तीर्थकरा चिसुद्धार्चा, अथवा यथा प्रतिपत्तौ लेश्या चात्यन्तं भवति, दुल्लभा वट्टमाणपरिणामा अवहितपरिणामा वा इत्यर्थः, धर्म एवार्थः परं शोभनं, तद्यथा मोक्षो मोक्षसाधनानि च, अपरमशोभनं मिथ्यादर्शनाविरत्यज्ञानादि, धर्मार्थस्स विदितं परापरं ये ते दुर्लभा धम्मट्ठी विदितपरा, के ते?-जे धम्मं सुद्धमक्वंति ।।६२५|| सिलोगो, सुद्धं निरुपहं आख्याति चानुचरति च, पडिपुण्णं नाम सर्वतो विरतं पडिपुण्णं अहाख्यातं चारितं, अणेलिसं अतुल्यं, न कुधर्मज्ञानादिभिस्तुल्यं तमनेलिसं, आख्यान्ति चानुचरन्ति च तस्यातुल्याचारस्य कुतो जन्मकथा भवति ?, ज्ञातौ वेति, अथवा कथास्वपि तस्यां जन्मकथा नास्ति, IAN अत एवोच्यते-कओ कयाइ मेधावी ॥६२६॥ सिलोगो, कुत इति कुतस्तस्य अनिधनसावीजाहरवत् कदाचिदिति सम्यमना गतकालं उपज तित्ति न पुनरुत्पद्यते मनुष्यत्वेनान्यतरेण वा जन्मना, तच्चा(हा)गता अथाख्यातीभूता, मोक्षगती वा के तथा गता ?, उच्यते-तथागता ये (ग्रन्थाग्रं ६४०० ) अप्पडिण्णा तीर्थकरा, चग्रहणात् केवलिणो गणधराश, अपडिण्णा अप्रतिज्ञा, ६३० ॥३०२॥ [306] Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१५], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१३२-१३६], मूलं [गाथा ६०७-६३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: NILOP प्रत अध्ययन श्रीसूत्रकताचूर्णिः ||३०३॥ A सूत्रांक ||६०७ ६३१|| दीप अनुक्रम [६०७६३०] HTREATins MEAUNERARIALohatarnadainabali अनाशंसिन इत्यर्थः, परं आत्मनश्चक्षुर्भूता देशकाः, अनुत्ता ज्ञानादिना, स्यात्नैतदुक्तं ?, उच्यते-अगुत्तरे य ठाणे से ॥६२७॥ सिलोगो, ठाण-आयतनं चरित्तट्ठाणं, काश्यपगोत्रेण वर्द्धमानेन, तस किं फलं ?, उच्यते, जं किचा णिब्बुडा एगे, णिचुडा उवसंता, निष्ठानं निष्ठा तं णिहाणं, पण्डिता, पापाड्डीनः पण्डितः, अनेके एकादेशे पंडिए बीरियं लधु ॥६२८॥ सिलोगो, || पंडियं वीरियं संयमवीरियं तपोयीरियं च लब्ध्वा कर्मनिर्धातनाय प्रवर्तते, केणाय, चारित्रेण, धुणे पुब्धतं कम्म, तपसा धुनाति पूर्वकृतं कर्म, संयमेन च न नां कुरुते, संयतात्मा तु सन् न कुवति महावीरे।।६२९।। सिलोगो, णाणवीरियसंपनो, अणु-10 पुब्बकडं णाम मिच्छत्तादीहि, संमुहीभूताः उत्तीर्णा इत्यर्थः, कम्मं हेचाण जं मतं कर्म हित्वा क्षपयित्वेत्यर्थः, जं मतंति यन्मतं यदिच्छन्ति सर्वमाधुप्रार्थितं, खात् किं तत् ?, उच्यते, जं मतं सवसाधूनां ।।६३०॥ सिलोगो, यत्सर्वसाधुमतं तदिदमेव णिग्गथं पावयणं, सर्वकर्मशल्पं कृतन्ति छिनचीत्यर्थः, साधइत्ताण तं तिन्ना यदाराधित्वेत्यर्थः, णाविहाए आराहणाए तिण्णा संसारकतार, सावसेमकम्माणो वा देवा चा अभविंसु, ते तीर्णा इत्यतिक्रान्त काले निर्वृत्ता, देवाश्थ, अभविष्यनित्यतिक्रान्त एवमभविष्यन् उच्यते, अभर्विसु पुरा बीरा ॥६३१।। सिलोगो, विराजन्त इति वीराः साम्प्रतं तरति देवा वा भवन्ति, अनागते व्यपदिश्यते आगमिस्सावि सुचता तरिष्यन्ति देवा वा भविष्यन्ति, के ते?-दुनियोहस्स मग्गस्स नियतं निश्चितं दुःखं निवोध्यते दुणियोधः ज्ञानादिमार्गः अंतं पाउकरा अमनमंतः प्रादुष्कुर्वन्तीति, तरमाना ती इति ।। पनरसमं आदानीयं वा जमइयमज्झयणं समत्तं ॥ गाहाशयणस चत्तारि अणुशोगदारा, अधिकारो अह गंधेण पिंडगवयणेणं, जं पणरससुवि य अज्झयणेसु भणितं सव्य इहं ॥३० अस्य पृष्ठे षोडशमं अध्ययनं आरभ्यते [307] Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१३७-१४१], मूलं [गाथा ६३२-६३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: i प्रत अध्ययन सूत्रांक श्रीसूत्रकताजचूर्णि ॥३०४॥ ||६३२६३५|| दीप अनुक्रम [६३२६३२/२] सहज्जइ, णामणिप्फण्णे एगपदं गाहत्ति, णाम ठवणा ॥ १३० ॥ गाथा, पत्तयगाधर्व, वतिरिचा दव्यगाहा पत्तयपोत्थगलिहिता जहा 'वीर ! वसभभमराणं कमलदलाणं चउण्ह णयणाणं । मुणियविसेसा अस्थी अच्छीसु तुम रमइ लच्छी॥१३॥ अथवा इमा चेव गाथा यस्मिन्नेव पत्रे पुस्तके वा लिखिता, होति पुण भावगाहा ।। १३८ ।। गाहासु उपओगो सागारोवयोगोत्तिकाऊण खओवसमियं सव्वं सुतंतिकाऊण खओवसगियणिप्फण्णा, सा पुण मधुरामिधानजुत्ता, चोयतो वा पुच्छंतो वा परियट्टतो वा गायतीति गीयते वा गाथा, अस्या निरुक्तिः गाथीकताव अस्था ।। १३९ ।। गाथा, ग्रथ्यत इत्यर्थः, अथवा सामुद्दएण छंदेणं एत्थं होति गाथा एसो अमोवि पजाओ पण्णरससु अज्झयणेसु पिडितत्था अवितह इह सूयंती, तंमि एवं पिंडियवयणेण गाथीकते अत्थे जतितव्वं घडियव्यं गंतव्वं च, तेण पंथोवदेमणा, ततो गाथासोलसमे अज्झयणे ।। १४१ ॥ गाथा, एवमे तेसुवि सोलससुवि गाथासोलसएसु यथोक्ताधिकारिकेपु अणगारगुणा वर्ण्यते अगुणांश्च दर्शयति(त्या)प्रतिषिध्यन्ते येन तेषां पोडWशानामध्ययनानां गाथासोलसमीति तेनोच्यते गाथापोडशानि, णामणिफण्णो गतो । सुत्ताणुगमे सुसमुचारेय, 'अहाह भगवं' सूत्रं, अथेत्ययं मङ्गलवाची, आनन्तर्ये च द्रष्टव्यः, यदिदं प्रागुदितानां पञ्चदशानामध्ययनानामनन्तरे वर्तते, आदौ मंगलं बुझेअचि, इहाप्यथशब्दः, अन्तेन सर्वमङ्गल एवायं श्रुतस्कन्धः, भगवानिति तीर्थकरः, एवमाह-जे एतेसु पण्णरससु अज्झयणेसु साधुगुणा वुत्ता तेसुवि जहावस्थितो, तत्थ पढमज्झयणे ससमयपरसमयविऊ संमत्तावत्थितो वितियज्झयणे णाणादीहिं विदालणीएहि कम्म विदालतो ततिए जहाभणिते उपसग्गे सहमाणो तत्थविह इत्थीपरीसहो गरुउत्ति तज्जयकारी चउत्थे पंचमे पारगवेदणाहितो उच्चियमाणो तप्पओगकम्मचयरित्तो छठे जहा भट्टारएण जतितं एवं जयमाणो, अविय 'तित्थयरो सुरमहिओ चउणाणी ॥३०४॥ [308] Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१३७-१४१], मूलं [गाथा ६३२-६३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: अशेषा प्रत श्रीआचा सूत्रांक चूर्णिः ||६३२६३५|| दीप अनुक्रम [६३२६३२/२]] | सिज्झितब्वय धुमि । अणिगृहियबलदी रिओ तबोपहाणेसु उज्जमति ।।१॥ किं पुण अबसेसेहिं दुक्खक्खयकारणा सुविहिएहिं । ग सूत्र-II होइ ण उजमियव्वं सपचवायमि माणुस्से १ ॥२॥ सत्तमे कुसीलदोसे जाणेतो ते परिहरेंतो सुसीलोवचिओ अट्ठमे पंडित विरिय | संपष्णो णवमे धम्मे भणितं धम्ममणुचरंतो दसमे संपुण्णसमाधिजुत्तो एकारसमे संमं भावमग्गमावण्णो बारसमे कुतित्थियदरि॥३०५|| सणाणि जाणमाणो असहंतो तेरसमे सिस्सगुणदोसविद् सिस्सगुणे णिसेवमाणो चोइसमे पसत्थभावगंथभावितप्पा पण्णरसमे ६ अध्य आयातचरित्तावस्थितः एवं विधे भवति । दंते दविए वोसट्टकाएत्ति बचे, तत्थ दंतो इंदियणोइंदियदमेणं, इंदियदमो सोईदियदमादि पंचविधो, णो इंदियदमो कोहणिग्गहादि चतुर्विधो, दविए रागदोसरहितो, बोसट्ठकाएत्ति अपडिकम्मसरीरो उच्छुढसरीरेचि बुलं होति, एवंविधो वाच्यः माहणेत्ति वा समणेत्ति वा भिक्खुत्ति वा मा हण सव्वसचेहि भणमाणो अहणमागो य माहणो भवति, मिचादिसु समो मणो जस्स सो भवति समणो, अथवा 'णस्थिय से कोइ वेसो पियो वा०"मिट दारणे' क्षु इति कर्मण आख्या तं भिंदंतो भिक्षुर्भवति, बझभंतराओ गंथाओ णिग्गतो णिग्गंथो, एवमेते एगट्ठिया माहणणामा चत्तारि, | वंजणपरियाएण वा किंचि णाणलं, 'अत्थो पुण सो चेव, पडियाबुझंति' सिलोगो, सिस्सो पडिभणति आयरियं, पुच्छितित्ति बुइयं | होति, अथवा आहुः गणधराः-भंते ! ति भगवतो तित्वगरस्स आमतर्ण, कथं दंते दविए?, कथमिति परिप्रश्ने, कथमसौ पण्ण रसज्झयणेसुवि दंते दविए बोसट्ठकाए 'स' वाच्यः, माहणेति वा तं णो ब्रूहि महामुणी! तदिति तकारणं हि भो महामुने, 10 एवं पुच्छितो भगवं पडिभणति-इति विरए सबपावकम्मे इति एवंविधेण पगारेण जे एते अज्झयणेसु गुणा सुता तेहिं जुत्तो विस्तसब्बसावजकम्मो सब्यसावजजोगविरतोचि भणित होति, अथवा विरतसव्यपावकम्मोत्ति सुत्तेण एतदेव भणितं, तंजहा- ३०५॥ [309] Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१३७-१४१], मूलं [गाथा ६३२-६३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: विरताद्यर्थः प्रत श्रीरात्रक-1 | पिजदोसकलहअब्भक्खाणपेसुष्णापरपरिवादारतिरतिमायामोसं, णस्थि मिच्छादसणसल्ले, तस्थ पेज-पेमं रागोत्ति भणितं होति, सूत्रांक | तामचूर्णिः दोसो अप्रीति, कलहो विग्गहो सपक्खे परपक्से वा, अग्भक्खाणं असम्भूतामिनिवेसो यथात्वं इदमकापीः, पैसुणं करेति पिसुणो, ॥३०६॥ पर परिवदति दुस्सीलादीहि, अरती धम्मे अधम्मे रती, मायामोसं मायासहियं सदनृतं, मिच्छादसणं-'णस्थि ण णियोण कुणति ||६३२ कतंण वेदेति णस्थि णिब्याणं । णस्थि य मोक्खोपायो छम्मिच्छत्तस्स ठाणाई ॥१।। एतं सल्लं मिच्छादसणसलं, एवमादीसु पाव६३५|| कम्मेमु जो विरतो सो विरतसव्वपावकम्मे, ईरियादीहिं समितो, णाणादीहिं सहितो, सदा सव्यकालं, 'यती प्रयत्ने' सर्वकालं प्रयत्नवानिति, णो कुज्झेज्जा ण माणं करेज्ज, एवंविधो गुणजुत्तोसऽवीन्ने हिंसत्थमुग्वाडेहि उवदिस्लति माहणेति बचो, भणतिदीप श्रमणगुणप्रसिद्ध उपदिशंतो, एत्थवि समणे य एते पापकर्मविरताद्या माहणगुणा वुत्ता जाय मागेत्ति, एत्थं पुण ठाणे समणोवि अनुक्रम PAवचो अनेन सत्रेण, इमे चाग्रे, तंजहा-अणिस्सिते अणिदाणे अणिस्सितेत्ति सरीरे कामभोगेसु य, अणियाणचि ण णिदाणं करेंति, आदाणं च येनादीयते तदादानं, रागदपौ हि कर्मादानं भवति, अतिवातं च आयुःप्राणा इंदियप्राणा एभ्यः यिजोएति [६३२ | अतिपात इत्यर्थः, 'वहिद्ध' मैथुनपरिग्रही, एगग्गहणे सेसाणवि मूमावादादत्तादाणाणं गहणं कतं भवति, उक्ता मूलगुणाः, उत्तर६३२/२]] | गुणास्तु 'कोहं च माणं च मायं च लोहं च पिजं च दोसं च, इचे जओ जओ आदाणाओ, इति एवं इच्चे, जओमाणा तिपाततः मृपावादादा आत्मनः प्रवेपहेतून पश्यति तस्माद् , आदानं कर्महेतुरित्यर्थः, पुवं पडिविरते'त्ति, पूर्वमादानं चेव, ततो विरतो भावप्राणातिपातवेरमणमनुवर्तते, एकग्गहणेन मृपावादादिविरतोवि, स एवं भवति(सिआ) दंते इंदियदमेणं, दविओ रागद्वेपरहितो, वोमट्टकाए, गच्छवासी गच्छनिर्गतः 'समणे' इति वाच्यः, मिक्षुरिदानी, एत्थंपि मिक्खू इमो बाच्यो, तंजहा-अणु ॥३० [310] Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||६३२ ६३५|| दीप अनुक्रम [६३२ ૬૩૨/૨] श्रीचकताङ्गचूर्णिः 113-1911 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ १६ ], उद्देशक [-], निर्युक्तिः [१३७ १४१], मूलं [गाथा ६३२-६३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: पणओ णावणते ण उष्णते अणुण्यते, उष्णओ नामादि चतुर्विधो, दस्युण्गतो जो सरीरेण उण्गतो, भावण्णतो जात्यादिमद| स्तब्धो, एवं स्यात् अवनतोऽपि शरीरे भजितः भावे तु दीनमना न स्थात्, अलाभेन च ण मे कोई पूयतित्ति णो दीनमणो होजा, 'दंते दविए बोसडकाए' पूर्ववत्, 'संविधूणिय विरूवरूये परीसहोवसग्गे ति, एगीभावेण विधुणीय संविहणीय, | विरूवरूवैति अणगप्पगारे बाबीसं परीसहे दिव्याई सउवसग्गे 'अज्झप्पजोगसुद्धादाणे' अध्यात्मैव योगः अध्यात्मयोगेन शुद्धमा| दानं इति अज्झप्पजोगसुद्धादाणे 'उचट्टिते' सयमुडाणेणं ठितप्पा णाणदंसणचरिचेहिं 'संखाए' परिगणेंतो गुणदोसे 'परदत्त| ओइ चि परकडपरणिट्टितं फासुएलणिअं मुंजतित्ति, एवंविधो अडविधकम्ममेत्ता भिक्खुचि वचे । इदाणिं णिग्गंथो-एत्थवि | णिग्गंथो जह दिडेसु ठाणेसु वद्धृति, तेचि य समणमाहु भिक्खुणो णिग्गंथं, किंच णाणचं ?, एगो एग बिक, एगे दव्यओ भावओ य, जिणकपिओवि दब्वेगोवि भावेगोवि, थेरो भावओ एगो, दच्चओ कारणं प्रति भाज्य इत्यादि, एगविरु एकोऽहं न च मम | कञ्चित्, अथया 'एगे'त्ति एमचिई, एगंते दिट्ठी, इणमेव णिग्गंधं पावयणं नान्यत् 'बुद्धि'चि धम्मो बुद्धो, सोताई कम्मासवाई | दाराई ताई छिण्णाई जस्स सो छिष्णसोतो, लोगेवि भण्णइ-छिष्णसोता ण दिन्ति, सुट्टु संजु ने सुसंजुचे, सुद्ध समिए सुसमिए, समभावः सामायिकं, को भगइ सुद्द्ध सामाइए सुसामाइए, आतवादपत्ते विऊत्ति अध्यणो वादो अत्तए वादो २ यथा-अस्त्यात्मा | नित्यः अमृर्त्तः कर्त्ता भोक्ता उपयोगलक्षणो य एवमादि आतप्पवादो, सो य पत्तेयं जीवेसु अस्थिति, न एक एव जीवः सर्वव्यापी | एवं जणो विदुः विद्वान्, दुहओत्ति दव्वजो भावओ य सोताणि इंदियाणि, दव्यतो संकुचितपाणिपादो, लोएसु कारणाणि | सुगमाणोवि ण सुगति, पेच्छमाणोवि ण पेच्छाते, भावतो इंदियत्थेषु रागं दो ण गच्छति, अतो दुहतोचि सोतपलिच्छिष्णो, [311] अन्नतादिवजितत्वादि ॥३०७॥ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१३७-१४१], मूलं [गाथा ६३२-६३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत धर्मा सूत्रांक APRITA त्वादि ||६३२६३५|| श्रीमत्रक- णो पूयणट्ठी ण पूयासकारादि पत्थेति, पूइजमाणोवि ण सादिजइ, 'धम्मट्टी' णाम धम्ममेव चेष्टते भापते वा, नान्यत् , ताङ्गचूर्णिः 'धम्मविऊ'त्ति सर्वधर्माभिज्ञः 'नियागं' णाम चरितं पडिवण्णो, समयं च सम्यगाचरन् ‘दंते दबिए बोसहकाए णिग्गंथेत्ति ॥३०८॥ विज्जू विज्जुत्ति विद्वान् , सेवमाणाण व भयंतारो,'स' इति निर्देशः स माहणः समणः भिक्खू णिग्गंथेचि या, एवमनेन प्रकारेण प्रयुक्तः आयागविभेयं गेण्हति, भयंतारो इहलोगादिभयात्रातारो, वेमित्ति अञ्जसुहम्मो जंबुणाम भणति, भगातो बदमाणमामिस्सुवदेसेण ब्रवीति, न खेच्छया इति, तंजहा-एगे एगविद् एगे दबतो भावओ, जिणकप्पिओ दब्बेगो भावेगोवि, थेरा दबतो कारणं प्रति भइया, एगविऊ एकोऽहं न मे कश्चित् , अथवा एगविदो एगदिट्ठी, ओहओ इणमेव निग्गंथं पावयणं, दुहतो दव्यतो भावतो य परिच्छिण्णे, ण पूयणट्ठी णाम पूयासकारादि पत्थेति, पूइजमाणोविण साइआइ पंचसमितिओ, धम्मट्ठी णाम धर्म Pएव आचेष्टते भापते वा, मुंक्ते सेवते चा, नान्यत् प्रयोजन, धर्मविऊत्ति सर्वधर्माभिज्ञः नियाकं नाम चारित्रं तं पडिवण्णो, समि गत्ति सम्यक् चरेत् , दंते देविए बोसट्टकाए, एवंगुणजातीए णिग्गन्थे विजा, विज्जत्ति विद्वान् । गाथाषोडशकचूर्णिः संमत्ता पढमो सुयक्खंधो सम्मत्तो॥ गाहासालसगाई खुडुलगाई, महज्झयणाई इमाई, महत्तरियाई महंति अज्झयणाई, अहवा महंति च ताई अज्झयणाई च महज्झयणाई, महं णिक्खिवितव्वं अज्झयणं च, महं छविहं, णामठवणाओ गयाओ, 'दब्बमहं सचित्ताइ, सचित्तं ओरालाइ, ओरालियं महा मच्छसरीरं जोअणसहस्मियं, वे उब्धियं जोयणसयसाहस्सिअं, तेआकम्माई लोगंता लोगतो, सचित्तमहं इलिकागत्या केवलिसमुग्धाओ वा, अचित्तमहं लोकव्यापी अचित्तमहखंधो, मिसियं तस्सेव च मच्छसरीरस्स देशे उवचितो, खेत्तमहं MATIPREAMITAPAIME दीप अनुक्रम [६३२६३२/२]] R ICAN ALE ॥३०८।। प्रथम-श्रुतस्कन्ध: समाप्त: ...अथ द्वितिय-श्रुतस्कन्ध: आरभ्यते [312] Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [१], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१४२-१६५], मूलं [१-१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१-१५] दीप अनुक्रम [६३३६४७] महर्णनं श्रीसूत्रक 01 आगासं, जइ वा खेतमहं जहा इह जम्बुदीवे महाविदेह, काल नहं सब्बद्धा, भावमहं उदइयो बहाश्रयत्वाद् सव्वसंमारिपु विद्यत ताङ्गचूर्णिः इतकृत्वा महान् भवति, कालतोचि सो चेव तिविहो-अणादीओ अपजवसितो सचिचअभवसिद्धिअस्स, अणादिओ' सपजब॥३०९॥ सिओ भवसिद्विअस्स, सादीओ सपञ्जवसितो परइयस्स, सादिरपर्यवसानस्तु नास्ति, खइए केवलणाणे, ण तत्राश्रयमहाचे, किंतु सादिअपर्यवसितत्वात् , कालो महं खइओ, खउचसमिओवि आश्रयवहुत्वादेव महं, स च इन्द्रियादि, कालतो ठाणं एकेक पहुंच साई सपञ्जवसितो, परिणामिअस्स सर्वजीवाजीवाश्रयत्वाच सव्वं महत् , उदइयं यद्यपि पुद्गलाश्रयी तथापि न सर्वपुद्गलाश्रयी, A केवलमेवमनन्तपएसिआणं संधाणं अणतए सरीरमणवायापाउगेसु वट्टइति, कामं अप्पतरो पारणामियो भावो, उ महं। इदाणिं 14 - अज्झयणंपि णामाइ छबिह, दब्बे पसयपोत्थयलिहिअं, खेचे जंबुदीवपणत्ती दीवसागरपग्णत्ती, जंमि वा खेत्ते काले |चंदमूरपण्णत्तीओ, जंमि वा काले, भावज्झयणं आगमतो जाणओ उवउत्तो, णोआगमओ इमाई महती अज्झयणाणि । पिंडत्थो | वणिो समासेणं । इत्तो इकिकं पुण अज्झयणं वण्णहस्सामि ।।१।। तत्थ य अज्झयणं पोंडरीयं पढम, तस्स चत्वारि अणुओगIT दाराणि उवकमादीणि परूवेऊण पुज्वाणुपुब्बीए, एताए सत्तगच्छगताए सेढीए, णामे खोवसमिअभावणामे समोअरह, पमाणे जीवगुणप्पमाणे, तत्थवि लोगुत्तरिए आगमे कालियसुवपरिमाणसंखाए, बत्तव्बताए अवस्सगं सब्बज्झयणा ससमयवत्तव्बताए, Diअत्याहिगारोपोंडरीउपमाए, जत्थ जत्थ समोतरति तत्थ २ समोतरियचं, तस्स छविहो णिक्वेयो, णाम ठवणादविए ॥१४॥ गाहा, दब्वे सचिचादि तिविहो-जो जीयो भविओ खलु ॥१४५।। गाहा, पण्डरीयमिति यद्यत् चैतं पों, एगभविए य बद्धाउए य ॥१४६।। गाहा, परगवजासु गइसु जो जीयो पहाणो सो पुंडरीओ भण्णइ, ते जहा-तेरिच्छिया मणुस्सा ॥१४७॥10॥३०९॥ अथ द्वितिय-श्रुतस्कन्धस्य प्रथम अध्ययनं आरभ्यते [313] Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [१], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१४२-१६५], मूलं [१-१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत महवर्णन सूत्रांक श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः ॥३१०॥ [१-१५] दीप अनुक्रम [६३३६४७]] गाहा, तिरिच्छएसु वा जलयर थलयरा खयरा ॥१४८॥ गाहा, जलचरेसु मच्छादि जे पहाणवण्णादिजुचा, थलचरेसु सिंघाद्या ये च वण्णरूवादिजुत्ता, परिसप्पेसु फणि मणिरूवादिगुणजुत्ता, उर परिसपेषु सर्पाः भुअपरिसप्पेसु मंडुगादी दरिसणता रूवतोय | पसत्था, खयरेसु देसणरूयसराइपसस्था ईसमयूरा कोकिलाइ, मणुस्सेसु अरहंतचकवट्टी।। १४९ ।। गाहा, देवेसु भवणवह ॥१५०|| गाहा, एवमार्यादि, सव्वेसि एतेसिं पहाणाओ पोंडरीया, बुत्ता सचित्तदव्यपोंडरीया, कंसाणं दूसाणं ।। १५१ ॥ गाहा, मिस्सगचिचार्ण पहाणाणं देसा उवचिता अवचिया, अहवा समोसरिता उजलालंकारविभूसिया अरहंतचकवाट्टिमादी, क्षेत्रपोंडरीआ खेत्ताई जाई वलु ॥१५२।। गाहा, कालपोंडरी जीवा भवहितीए॥१५३।। गाहा, भवद्वितीए देवा अणुत्तरोचवाइया, कायट्टितीए मणुस्सा सुहकम्मसमायारा सत्त भवम्गहणाणि सत्तट्ठ भवाणि चा, तद्भवे मोक्खं प्राप्तस्य सप्त, अप्राप्तस्याप्टौ, अणुपरिअद्वितुं असंखेजवासाउएसु उववअंति ततो देवलोग, तिरिक्खजोणिएसु च जे पतणुकम्मा, परिकम्म रज्जु रासी क्वहारे तह कलासवणे य । पोग्गल जावं तावं घणे य घणवग्ग वग्गे य ॥१॥ गणिते विशेषाः सर्वे, तत्थ रज्जुगगणितं पोंडरीयं, संठाणे चउरंसं संठाणं पोंडरीयं, एतेसिं विवरीया कण्डरीआ, भावपोंडरीए-ओदइए उवसमिए ॥१५५॥ गाहा, ओदइए य भावे | पहाणे अणुत्तरोववाइया तित्थगरसरीरं वा, उपसमिए उवसन्तमोहणिजा, खइए केवलणाणिणो, खओवसमिए चउदसपुची पर| मोही विपुलमई, पारिणामिए भवसिद्धीआ, उक्ता भावपोंडरीआ, शेपाः कंडरीयाः ये अप्रधानाः । अहवावि णाण ॥१५६॥ गाहा, णाणे महणाणपहाणा जे उप्पत्तिआइमइजुत्ता, सुत्ते चउदसपुची, ओहिणाणे परमोही, मणपञ्जवनाणे पिपुलमई, सव्वेसि वा केवलं, दसणे खाइए, विरतिएवि खाइए, विणए अब्भुट्ठाणादिवियणजुत्तो जो अणासंसी अज्झप्पे परमसुकज्झाई, उक्ता पोंड ॥३१॥ [314] Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [१], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१४२-१६५], मूलं [१-१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक श्रीमत्रकताङ्गन्चूर्णिः ॥३१॥ PAN [१-१५] दीप अनुक्रम [६३३६४७] रीया, एत्थं पुण अहिगारो ॥१५७॥ गाहा, दन्चपोंडरीएण, तत्थवि सचित्तदन्वे गिहिअवणस्सइकाइअजलरुहपउमवरपोंड- महवर्णन | रिएणाहिगारो, भावंमि अ समणेणं, कयरेणं समोणं, जो सो खाइअणाणदंसणचरित्तविणयऽझप्पजुत्तो, वुता णिक्खेवणिजुत्ती । इदाणि सुत्तफासिअणिज्जुत्ती, अणुचरित्ते चेव सुतिअप्पा च कासइ वा उच्चइ 'उवमाइ पोंडरीए' गाहा, वण्णगुणोवचएण तस्स णिप्फत्ती, अह्वा मूलाई तदंगोवचएण, एयरस दिटुंतस्स को उवसंहारो ?, जिणोवदेसणा सिद्धिति अहिगारो, स्यात् कथं सिद्धिं गच्छति ?, उच्यते-'सुरमणु गाहा, उवगाणाम असंजया जीवा, चउण्ठं गईणं उवगा भवंति, पभू चरित्रेण उवगा चरितं, तेण वा सिज्झइ, ते इमे मणुस्सा चेव, मणुस्सेसु अहिगारो, ते चेव महाजणणेतारो भवंति आश्रयणीया इत्यर्थः, तेसु | विसेसेण रायाणो, तेसु विसेसेण चक्रवर्तिनः, तंमि गाहिते प्रायेण सर्वलोको ग्राहितो भवति, उत्तममहता मार्गाःसुखमितरोN जनः प्रपद्यते, किंचान्यत्-'अवि दुस्साहियकम्मा' गाहा उक्कोसकालद्वितीपओगेवि णेरहाउगणिवत्तीए आउयसंबद्धे, | जिनोपदेशात् संबोहि लधु केइ तेणेव भवेण सिझंति, ते अबंधमोक्खा, पड्डपन्नाणागते अमणुएहिं अहियारो, सा य पोक्खरणी | दुरोगाहा, कह ?–'जलकद्दमाला' गाहा, जलमगाई कद्दमोवि अगाहो, कलंयुगावल्लिमाईउ वल्लीओ, पउमाणि उप्पलसंठाणा, | जंघाहिं वा बाहाहिं वा, विजा केवलणाणविञ्जा, सुत्ताणुगमे सुत्तं उचारेयव्वं अस्खलितादि, 'सुअं मे आउसं तेण' (सू०२) इत्यादि, श्रुतं मया आउसंतेपोत्यत्र चत्वारः प्रकाराः, इह खु अस्मिन् प्रवचनेसुवा, सूअगडस्स वावित्ते, एसुत्ति खंधो, पोंडरीएण | उवमा अतः पुण्डरीकाध्ययनं आदाणपदेण वा पोंडरीअं, से जहाणामए पोक्खरणी पोक्खरं णाम पउम, पुष्कराण्यस्यां |संतीति पुष्करणी, सिआ, बहुदगा आतीरभरिता, सीदंति तस्मिन्निति स्वेदः पङ्क इत्यर्थः, पुष्करिण्यर्थ उपलब्धो यया सालद्धत्था, ॥३१॥ [315] Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [१-१५] दीप अनुक्रम [६३३ ६४७] श्रीसूत्रकृ वाङ्गचूर्णि ॥३१२॥ CUINA “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [-], निर्युक्ति: [ १४२ - १६५], मूलं [१-१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: पवर्णनं कथार्थः १, प्रसन्नोदकाः, पुष्करादिजलजोनसोभिता, पुष्करन्ते विमए, विसेसिआई पोंडरीआई तस्यां सन्तीति पोंडरी गिणी, तैरेव स्वगुणैः चक्षुष्मतां मनसः प्रसादं जनयतीति प्रासादिका, दट्ठव्या दरिसणिजा, अभिमतरूपा प्रतीतरूपा प्रतिरूपा, तत्थ तत्थति जाब जलं पंको अ, देशे देशे तद्देशः तहिं २ जत्थ एगं तत्थ अण्णाणिवि, अणुपुच्चिद्विता, पंकादुत्तीर्य जलमतिक्रम्य स्थिता, उस्सिता जलता दूरमतिक्रम्य उस्सिता, रोयन् चक्षुषः, यदितरो वर्ण एपां श्वेतोऽस्तीति वर्णवंतः, गन्धाः सुरभिः, जत्थ गंदी तस्स रखो,वि, फासं, स्वेदः कोमलः, वण्णतादिग्रहणात् नातिक्रान्तवयाः, अजढरा इत्यर्थ:, तीसे (णं) पोक्खरिणीए बहुमज्झदेस भाए एगे महं पउमे प्रधानत्तं गृहीतं, अणुपुधिए जाव पडिरूवे । सङ्घावंति च णं तीसे पोक्खरिणीए ते बहवो, सन्वावतित्ति सर्वायेच मृगालनालपत्र केसरकर्णिका किंजल्कैरुपेतानि, अणुपुब्वेण पत्ताई जहा आतड्डा उस्सिताणि जाय पडिरुवाणि, अहवा सच्चावंति सव्वाणि चैत्र पउमरपोण्डरीयाणि, अणुपुव्विताणि जाव पडिरूवाई, सन्यावंति च णंएगे पउमरपोंडरीए जाव पडिरूने, जुत्ता पोक्खरिणीए तत्प्रयोजनं तु अह पुरिसे पुरित्थिमाओ दिसाए तीरे ठिया एवं बदासी आत्मसम्भावितत्वात् अहमस्मि पुरुषः देशज्ञः कालज्ञः क्षेत्रज्ञः, देशो येन यथा च तीर्यते, कालः दिवसो, कुशलो दक्षः, प्लवने उत्पतने च उत्पाटने च पण्डितः, उपायज्ञः तरितुं ग्रहीतुं पुनरुत्तरितुं च विअत्ते वयसा वक्तव्यः अपोडशकः, मेधाचित्ति आशुग्रहणधारणसंपन्नः अचालोsवुडो वा व्यक्तबुद्धिर्धा, एगडिताई वा सच्चाई एयाई, तेसु २ कंजेसु अधिकारित्वात्, मग्गण्णुचि मग्गविद् जेण उत्तरिजइ मग्गस्स गतिआगति जो जेण वा कालेण गम्मह उत्तरणं च परकम्मण्णू तरितुं जाणइ, अहं इह अहमेकः एतत्पौण्डरीकं समर्थः, .. उत्पाटयितुं च, उष्णिक्खि विरसं उप्पार, इति वच्चा बच्चा, अभिमूहं परक मे अभिपराक्रमेत्, यावत् अभिक्रमे तावत् महंते उदय ॥३१२॥ [316] Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [१], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१४२-१६५], मूलं [१-१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: मिक्षवर्णन श्रीक प्रत ताङ्गचूर्णिः ॥३१॥ सूत्रांक [१-१५] दीप अनुक्रम [६३३६४७]] | आगाहे, सेतो-पंको सोवि अगाहो घेर, पुणवि केण पउमाणि संभवंति ?, जाव २ परिसंते, जाब २ सेते पादं छुभइ ताव २ खुप्पइ उदये सिग्गो हत्थे पादेवि छुभंतो अहिअतरं खुप्पति, पहीणे तीराओ भृशं हीनः प्रहीणः, तीरं अवगत इत्यर्थः, अपत्ते पउमचरपोंडरीयं णो हवाए मग्गे, ण तरंति पच्चुत्तरिउं परकूल वा गंतुं पोंडरीयसमीचा उल्लंघेत्तुं, निवृत्ता कथा त्रोटने, अउत्तरा उदकतलमतिक्रम्य विसण्णे ते सेते खुत्ते पढमो पुरिसे। अहावरे दोचे (सू०३)। एवं चचारिवि । अह भिक्खू लूहे रागद्वेषरहितः तौ हि स्नेहभृतौ ताभ्यां कर्मादत्ते, जहा णेहत्थुप्प(तुप्पि)तगत्तस्स, रुक्खयरेण ण लगइ लग्गा वा पप्फोडिता पडइ, एवं | वीतरागस्सवि कम्मा ण पज्झन्ति, संपराइअं, इतरं बंधइ जाव सजोगी, अजोगिस्स तंपिण बज्झइ, संसारतीरट्ठी खेत्तण्णे व्रतसमिति| कपायाणां, सव्वठाणपदाणि संजमोवाए समोतारेयब्वाई, अण्णतरिओ दिसाओ, अणुदिसा अग्गेयांदी, समोतारं वा पहुच अण्णा| तरीओ पण्णपगदिसाओ दसप्पगाराओ, भावदिसाओ वा अट्ठारसपगाराओ, पासंति ते चत्वारि ग्राहिणो तीए णो हवाए, एतेहि रिसेहिं एवं णाता वयं एवं पोंडरीय उनिक्खिस्सामो. न उवायमुपायाओ अंतरीय, पोक्खरिणीए एवं उप्पाडेतव्वं, अयंत विशेपः, अहमंसि खेयन्ने जाव उपिणक्खिविस्सामि इति वुच्चा णो अभिकमति तीसे पोक्खरिणीए, तीरे ठिचा सई कुजा उप्पदाहि | खलु भो पउमवर २, अह से उप्पतिते किट्टिते वण्णिते, कथिते इत्यर्थः, किमर्थं पुष्करिणीदृष्टान्तः कृतः?, अर्थोऽस्य. मर्यादया | | ज्ञातव्यः, भंते ! त्ति आमंत्रणं, अन्योऽन्यं समणा समणे वदंति, किट्टितं गाय-दिलुतो, से किट्टिते भगवता, अम्हे पुण से अणु| पसंहारितस्य अटुं ण आयाणामो, भगवान्-आयुष्मन् ! श्रमण इत्यामन्त्र्य उवाच, हंतेति संप्रेपे पृष्टोऽहं भवद्भिः, अहं त्वाख्यामि आइयखामि, विभयामि किडेमि पवेदयामि, अटुं अयमेव पुष्करिण्यर्थः, यदर्थमुपेताः स्था, सहेतुमिति हेतुः नास्ति जीवः शरीरा-| A ||३१३॥ [317] Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [१], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१४२-१६५], मूलं [१-१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत थीया- सानूर्णिः ॥३१॥ ओघातः उपनयः सूत्रांक [१-१५] दीप अनुक्रम [६३३६४७] वर्ष ष्णादिरहितत्वादिति एतमादि हेतुः, किं कारणं-हेतुदृष्टान्तः, उक्तावित्यर्थः, यथा ते पुरुषा अग्राप्तप्रार्थिता विपन्ना एवं क्ष्यमाणा अन्नउस्थिया अपारगा संसारस्य, अभिप्रेतस्य वाऽर्थस्येत्युपसंहारकरणं, अथवा सर्वज्ञानां निरथिका वाक् न भवतीति | सबई, एवं हेतुकारणे अपि, अथवा सह हेउणा सहेउ, एवं कारणेवि, अथवा स्त्रो हेतुः खहेतुः, एवं कारणंपि, सत् प्रशंसास्तिभानयोः, गोभनोऽर्थः सदर्थः, सद्धेतुः सत्कारण वा, अथवा निमित्तं हेतुरुपदेशः प्रमाणं कारणमित्यनर्थान्तरं, लोगं च खलु मा अप्पाहटु मए लोगो अट्ठविहो, यथाप्ययमात्मा एवं लोकात्मा, तमहविहं आहृत्य मया सा पुष्करिणी बुइता, अथवा आत्मना ज्ञात्वा मया पुष्करिणी दिष्टंतो चुइत्तो, नान्यतः श्रुत्वेत्यर्थः, कर्म उदगं, कामभोगा सेओ, कर्मोदयाद्धि कामसंगो भवति, कामसंगा या पुनः कर्म ततो जन्म, पोंडरीयाणि पौरजणवया वड्डपोंडरीय राया, अण्णउत्थिया ते पुरिसा, धम्मो भिक्खू, धम्मकहा सदो, णिव्वाणं उप्पतो, सर्वसासंसारादुत्तीर्य लोकाग्रे स्थान, एवं च खलु मए णिर्वाणार्थ वुइतं, ताव संखेत्रेण पोक्खरिणीदिद्रुतो समोवारितो, इदाणि वित्थारिजइ, उक्तं हि-पुब्वभणितं हि०, इह खलु पाइणं वा०, इह मणुस्सलोगे पण्णवगं पडुच्च संति-विअंते एगतिया ण सब्वे, अभिगिहीतमिच्छादिट्ठीणो भवंति, उपलक्षणत्यादनभिगृहीता अपि, के ते?, आर्या अपि खेत्तादिआयरिया, तब्बदरित्ता अणारिया, इकिका उच्चागोअणिञ्चागोआ, जच्चातिएहिं मतहाणेहि जुत्ता उच्चागोता, तेहिं विणा णीआगोआ, प्रांशवः कायवन्तः वामनकुन्जस्ववंतो एकेका पुणो सुपर्णा वेगे अबदाता: श्यामा वा वण्णमंता काला पिंगला वा दुव्यण्णा अथवा काला अपि स्निग्धन्छायावन्तस्तेजस्विनाथ सुवर्णाः, अवदाता अपि फरुसच्छविणो दुवक्षणा, उक्तं हि-'चक्षुःस्नेहेन सौभाग्यं, दन्तस्नेहेन भोजनं । त्वक्स्नेहे परम सौख्यं, नखस्नेहेऽशनादिकं ॥ १॥ सुवण्णा णामेगे सुरूवे भंगा एकिका, सुरूवा दुरूवा [318] Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [१-१५] दीप अनुक्रम [६३३ ६४७] श्रीसूकताङ्गचूर्णिः ॥३१५॥ “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [-], निर्युक्ति: [ १४२ - १६५], मूलं [१-१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: अहीनपंचिंदिया नातिथूरा नातिकृशाथ सुरूपा, इतरे दुरूपा, अहवा ये चक्षुपो रोचते ते सुरूवा, इयरे दुरूवा, तेसिं राया भवति, महंतग्रहणं महाहिमवंते, सको चैव मलयो बुचति, मंदरो सुमेरु, महिंदो सको, तत्थ हिमवंतमलया पञ्चक्खा, दिडंतो, मंदरमहिंदा परोक्खा, सारं स्थैर्य, पर्वतानां औपधिरत्न संपण्णा, महेन्द्रचापि धैर्यैश्वर्यविभवाकुलप्रसूतत्वादमर्यादां न करोति, अचंतविसुद्धपूर्वकमपि तस्स असकण्णा वर्णा, लक्षणसंपन्नो चिरंजीवी निरुपहतं च तस्य राज्यं भवति, मातुं पितुं सुजातं जहिच्छिते मणोरहे पूरयति, दयालु दाणशीलो वा दयप्पत्तो, सीमा मर्यादाकारः, क्षेमं परचक्रादिनिरोधो सेऊ-पाली यथा सेतुं नातिवर्त्तन्ते अपि, एवं तत्कृतां मर्यादां नातिवर्त्तन्ते भृत्याः, केतुर्नाम ध्वजः केतुभूतं स्वकुलस्य, आसीविसे सो जहा दृष्टमात्रमेव मारयति एवं अवकारिणो रिऊणो अ आशु मारयति, वग्घो अतीसयदढग्गाही य, पोंडरीयं प्रधानं, गंधहत्थी गंधेण णस्सति एवं तस्स वि, एवं तस्स सत्यवलं, सारीरं चतुरगं च पच्चमित्ता सामंता दाईआ तकरा डिंवं सचकं रजखोभादि परचकं परवलं, परिसयतीति परिसा, 'उग्गा भोगा राइष्ण खत्तिया संगहो भवे चउहा। आरक्खिगुरुवयंसा सेसा जे खचिया ते उ ॥ १ ॥' भट्टा जोधाः, ते तावद्भटत्वमप्राप्तवयत्वात् कुर्वन्ति ते भट्टपुत्राः, एवं सर्वत्र, लेखकाः धर्मपाठका, रक्षका रसकाया, प्रशस्तानि कुर्वन्तीति प्रशस्तारो, लेच्छवि कुलं लिच्छाजीविणो वा वणिजादि, माहणा जेसिं अण्णे वणिया चबहरंति ते, इड़िते वणिया इति इन्भा, आह हि - 'अणुश्रवणपुत्राभ्यां०' इत्यादि, तेसिं च णं एगतिए सड्डी भवइ, धर्मशुश्रूपूर्वा धर्म्मजिघृक्षुर्वा, काममवधृतार्थे, अववृतमेव हि आश्र यणीयं आश्रीयते, प्रफुल्लसरो वा पत्तोवगादिजुत्तो वा वणसंडो, कमु इच्छायां वा कामयमाणा तं ग्राहिण्यामः, ससमयं परसमयं | इत्येवं समणा पासंडी माहणा गिहत्था पहारेंसु - पत्थैति, तत्थ णं मच्छरेण नासदीयेन वयमनेन खप्रणीतेन धर्मेन पण्णवहस्सामि, [319] राजवर्णनं | ॥३१५॥ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [१], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१४२-१६५], मूलं [१-१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: नास्तिकमतं प्रत श्रीयत्रक- ताङ्गचूर्णिः ॥३१६॥ सूत्रांक [१-१५] दीप अनुक्रम [६३३६४७] त एवं सम्प्रधार्य तदंदिकं गत्वा ईभो आमत्रणे, अत्यर्थं जाणह यद्वक्ष्यामः, भयात् पायन्ति इति भयत्रातारः, ते तु राजानः, उग्रायाश्च तद्भूताः, जहा मे से धम्मे मम एप प्रत्यक्षः, सुट्ठ अक्खातो सुपण्णचे, कतरो लोगायतधम्मो, तेषां आत्मा विद्यते न तु शरीरादर्थान्तरं, शरीरमेवात्मा, तत्परिमाणं उड़े पायतले अहे केसग्गा तिरियं तयाए, ता वातेन जीवति, सदा विञ्जति पञ्जवों प्रकारो पञ्जयपकारो, कसिणं-कृत्स्नं शरीरमात्मा जीवे जीव इति सरीरे जीवति शरीरादनर्थान्तरमेव जीवितं, तद्विनाशो जीवविनाशो, वातपित्तश्लेष्मणश्च शरीरं त्रिविष्टंभसूत्रवत् वर्द्धते, तेपामेकतराभावे शरीराभावः, एतावंत जीवितं यावत्सरीरमवि कलं, आइ हि-एतावानेव परमात्मा०, तचविगतं शरीरं आइहणं परेहिं णिज्जू , आहृत्य यसिन् सुहृदो दहति तं आदहणं-श्मशान, । परेहि चउहिं पुरिसेहिं णिजइ अगणिज्झामिए, कायोतो पारेवओ, आसनं ददातीत्यासंदी धारा, चत्तारि गाम पञ्चेन्ति, मंचगंपि पाणा आणेति, यदि पुनरात्मा विद्यते तेन शरीरे छिद्यमाने भिद्यमाने दह्यमाने वा निस्सरन् उपलभ्येत, वृक्षविनाशे शकुनिवत् , इत्येवं शरीरादुर्ध्वमविद्यमाना, जेमिं तं सुअक्खाय, किमाख्यातं, यथा अण्णो जीयो अणं शरीरं तस्मादप्येवासुअक्खातं, णों विविधं पवेदिति, अयमाउसो! आया दीहेति वा, यदि सरीरादर्थान्तरमात्मा स्यात् तेन तस्याशरीरवत् संस्थानं वर्णगन्धरसस्पर्शा उपलभ्येरन् , न चोपलभ्यन्ते, इहे यदस्ति शरीरादर्थान्तररूपं दीहं हस्सं वा जाव असमं वा, कण्हेति जाव लुक्खेति वा एवं | तावच्छरीरादन्यो नास्ति, कहं से जहाणामए केइ पुरिसो कोसिओ असिं इत्येवमादिभिदृष्टान्तैः शरीराणां दाहे सति छदे या को दोपः परमात्मिकोऽस्ति ? अविद्यमाने जीवे, अथवा सरीरादूर्ध्वमविद्यमानो जेसिं तं सुअक्खाय, किमाख्यातं ? यथाऽन्यो जीवोऽन्यच्छरीरं, तम्हा तं मिच्छा, यसाच्चैवं तसात् है भो हणध पयध, उक्तं हि-पित्र मोदन साधु शोभने तावं ते जीवा न भवंति, ॥३१६॥ [320] Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [१], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१४२-१६५], मूलं [१-१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: IVAL प्रत सूत्रांक [१-१५] दीप अनुक्रम [६३३६४७]] त्थि परे लोए, ते एवंवादियो विप्पडिवेदेति-विविधं प्रवेदयन्ति २, किरिआइ या अकिरिपाइ घा, यधारमा मृतः परलोकं गच्छेत् । सांख्यमतं श्रीपत्रकताङ्गचूर्णिः MO सक्रियः, क्रिया कर्मबन्ध इत्यनान्तरं, ये चाक्रियावादिनः तेसु सुकडदुक्कडविवागीण भवति, सुकडाणं कल्लाणफलविवागो, सुक॥३१७॥ | डकारी च साहू, दुकडकारी असाधू, सुकृतकल्याणाच साधो सिद्धिर्भवति विपर्ययवद्, असिद्धिः असिद्धस्स दुक्कडकारिस्स इत रस्स णिरयो, तेषामेते एवं प्रकाराः स्वकर्मजनिताः सुकृताद्याः फलविपाका न भवति, त एवं संसारं स्वकर्मविहितं अश्रद्धानाः | निरूबरूवेहि कम्मसमारंभेहिं प्राणवधाः अथवा स्वयं परेहिं च, यथा च विरूवरूवाई सदाईणि कामभोगाई समारभंति अर्जयन्ति | रक्षयन्ति, 'भुज पालणाभ्यववहारयो रिति भोजनायैव एवं एगे पागम्भिणि, कम्मप्रागल्भीति धृष्टाः, अण् जी अण्णं शरीरं, जातिस्मरणथणामिलासादिएहि दिटुंतेहि अत्यविदितं अन्यत्वं दरिसिजमाणं असद्दहमाणा तथापि धृयाः णिलजा मामगं धर्म || | पण्णवयंति, कथमिति यथा नान्यः शरीरादात्मेति, तं सद्दहमाणा तं पत्तिप्रमाणा साधु अक्खाता आख्यातीत्याख्याता, कामं 'कमु इच्छायां' इच्छामि देवाणुप्पिया! तं तुमे अम्हाणं तज्जीवतस्सरीरको पक्खो अक्खातो, इहरहा वयं परलोगभएण हिंसादीणि सुह| साहणाणि परिहरमाणा दुक्खिता आसी, संपति णिस्संकित पव्वइस्सामो, इहरहा हि मजं मंसं परिहरामो उबवासं करेमो णिस् | स्थयं चेव, अस्माच कारणात् वयं भवतां प्रत्युपकारं कुर्मः, आयुष्मन् ! पूजयामः, केण ?, असणेण वा ४ गंधेण वा ४ तत्थ पूयPणाए आउट्टिसु, एतेहिं चेव असणाईएहिं सयणासणवसहीहिं वा, तत्थ एगे णिकामइंसु, णिकामं णाम एवं ता पुव्वं जेहिं सम रोहिं गहिता ते ते पूएन्ति, स्याद् बुद्धिः, यदि नास्ति परलोगो किं ते पन्धइता?, उच्यते, तेसिं लोगायतियाणं पासंडो चेवणस्थि, | ते पुण अण्णेसि केसिं गेरुलिंगमाईण सच्छंदमतिकपि धम्मं सोतुं भणति-तेसिं अंतिए पब्वइतुं समणा भविस्सामो, अणगारा ॥३१७॥ HEHENSIBE [321] Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [१], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१४२-१६५], मूलं [१-१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सांख्यमतं सूत्रांक WATIOHTTRACTERI [१-१५] दीप अनुक्रम [६३३६४७] श्रीमत्रक- जाव पावं कर्म णो करिस्सामो एवं संप्रधार्य तदन्तिके प्रबजिता आढत्ता पढितुं सोतुं च पच्छातं चेव रुचि तं, अथवा लोकपंताङ्गचूर्णिः क्तिनिमित्तं सूत्रमात्रपापंडमाश्रित्य विचरिष्यामः, मुद्गलासातिपुत्रवत् । किंच-चरगादिलिङ्गमाश्रयन्ति, लोकपंक्तिनिमित्तं च ॥३१८॥ प्रच्छादयन्त्यात्मानं पव्वयाभो, पब्वइतुं समणा भविस्सामो अणगारा जाव पावकम्म पो करिस्सामो, पव्वइयावि सन्ता तमेव वादं वदंति यथा वयं अणगारा अकिंचणा जाव पाचकम्मं णो करिस्सामो, उक्तं च–'अतीते सरहस्य' इत्यादि, एवं ते कुकुडा पापंडमाश्रित्य एमेव पचनपाचनमादिएसु हिंसाइसु पावकम्मेसु अप्पणा अप्पडिविरता रयमाईयंति, जं च तं अगाराई सचित्तकम्माई हिरण्णा दियंति परेहि य अदत्तमादियंति, अण्णेहि य अदत्तमादियावंति, तेसु इथिकाईएसु कामेसु मुच्छिता, किंच-ण जाण एवं ते मुच्छिता इस न तत्र दोपान् पश्यन्ति, गृद्धास्तदभिलापिणः, ग्रन्धिताः बद्धाः न तेभ्योऽपसर्पन्ति, अझोववातो तीवाभिनिवेशः, 'कामस्य वित्तं च वपुर्वयश्चेति मूलमितिकृत्वा कामसाधनेष्वपि लुब्धा ते तानु रक्तास्तत्प्रत्यनीकभूतेषु द्विष्टाः, मनसि चक्रुः, उपकारं कृत्वा ताभ्यामेव रागद्वेषाभ्यां बाधितमनस्त्वादश्रद्धाणा अप्पाणं समुच्छिदिति, कुतः?-कामभोगतृष्णाकात , परास्तच्छिध्या: तब्वइरित्ताइणो अण्णाई पाणाई समुच्छिदिति, अथवा तेसिं लोगायतगाणं संसारो चेव णस्थि, किं पुण मोक्खो ?, तेण न युक्तं यत्कुतो अप्पाणं समुच्छिदिति ?, उच्यते, केणापि प्रकारेणासद्भावनेनेत्यर्थः, स समुच्छेदो नाम विनाशः अभावमः Vवणमित्यर्थः, त एवं विप्रलंभंतोऽप्यात्मनः अमावं कर्तुमसमर्थाः कथं ?, तदुक्तं-जातिस्मरणात् स्तनाभिलापात् पूर्वापरगमना गमना'दित्येवमादिभिः सरीरादन्यो जीवः, ते एवं महामोहिताः पहीणा पुन्वसंजोग-गृहावासं णातिसंयोग वा, सारिओ समणाण धम्मो, संसारी वा जीव इति श्रद्धानं, जहा भट्टारएहिं भणितो सद्भूतो अन्योऽमूर्त इति उफादर्शनार्थः, हेतुं गिहिवासो जहा AAFARISTIA तक BIPI N E [322] Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [१], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१४२-१६५], मूलं [१-१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: सांख्यमतं प्रत सूत्राक श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः ॥३१९॥ [१-१५] दीप अनुक्रम [६३३६४७]] | हविपि, तान् रूवान् विमः, पारं प्रवज्या फलं वा पारलोकिक वा सग्गो मोक्षो वा, अंतरा कामभोगसि पंकमि विसणा गर- गादि दुर्गतिसेयंसि वा । पढमे पुरिसजाते, अहावरे दोचे पुरिसजाए। ३ह खलु पाइणं वा ४, संतेगतिया ५ जाव | से एवमायाणह भयंतारो जहा मे से धम्मे सुअक्खाते, कयरे धम्मे?, पंचमहभूइए, इह ग्खलु खल्लिति विशे|पणे, किं विशिनष्टि ?, सांख्यसिद्धान्तो, जहिं णो कजड़ किरियाइ वा अकिरियाइ वा, क्रिया कर्म परिस्पन्द इत्यनान्तरं, तद्विपर्ययः अक्रिया अनारंभः अवीय अपरिस्पन्द इत्यनन्तरं, सुठु कडं सुकडं, दुटु कई दुकर्ड, सुकडमेव कल्लाणं पाप| मितरं, शोभनं-साधुमितरमसोभणं ईप्सितार्थः मिष्ठानां सिद्धिविपयः, असिद्धिः, निर्वाणं वा सिद्धिः, असिद्धिः संसारिणां णिरएत्ति चा अणिरयः तिर्यग्योनिः मनुष्यामराः, स्यात्कथं महाभूतान्यचेतनानि क्रियाकर्म कुर्वते ?, उच्यते, सच्चरजस्तमोमिः प्रधान| गुणैरधिष्ठितानि कर्म कुर्वते, उक्तं च-"सचं लघु प्रकाशकमिटमुपष्टम्भकं बलं च रजः । गुरुवरणकमेव तम" इत्यादि, सत्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः, प्रधानमव्यक्तमित्यनर्थान्तरं, तत्र रजोबाहुल्या क्रिया भवंति, तमस्तु गुर्वावरणकं चेतिकृत्वा अक्रिया भवति, सत्यवाहल्या सुकर्ड रजस्तमोबाहुल्यात दुफर्ड, एनमन्यान्यपि कल्याणसाधुसिद्धिनरकादीणि अ०, प्रशस्तानि | सचबाहुल्यात् , रजस्तमो न यदि स्यात् अपि अतशो तृणस्य कुब्जीकरणेऽपि पुरुषोऽनीश्वरः, गुणकृतं फलं भुंक्ते, उक्तं हि'तस्मात्तत्संयोगादचेतनं चेतनाववभाति । लिंग स्वप्रकृतिगुणं कर्तृत्वे च भवत्युदासीनः ॥१॥ तं च पदउद्देसेण पदानामुद्देशः पदैर्वा पञ्चभिरुपदेशात् , वाच्यस्य समवायणं रामवायः, स्यात्-कथं समवायः, प्रधानत्वात् , उक्तं हि-प्रकृतेर्महान् महतोऽहंकार:०, | प्रतिलोमं संहारः, प्रधानमेव समवेति, अनिर्मिता न केनचिदीश्वरेणान्येन वा अर्मेन्द्रधन्वादिवत् , स्वयं प्रादुर्भूताः, अनियया न ||३१९॥ [323] Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [१-१५] दीप अनुक्रम [६३३ ६४७] श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः ॥ ३२० ॥ “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [-], निर्युक्ति: [ १४२ - १६५], मूलं [१-१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: निर्मिताः न निर्मितव्यं येषां असत्कार्यं तेषामभूत एव काष्ठादनिर्निर्मीयते मृदुपिंडाच घटः इत्यादि नैवं सांख्यानां, कारणे कार्यसद्भावात् न हि किंचिनिर्मितव्यमिति, अकडा णो कडा यथाऽन्येपामकृतक्रमाकाशं एवमकडा, यथा च घटः कृत्रिमः एवं नो अतिमा अत्रिमत्वादेव च अनादी अणिघणा नेत्तत्ता भवति, ततोऽवन्ध्या न शून्या, न तेषां कथित् स्वामी प्रवर्त्तते इत्यतः अपुरोहिता, पुरुषार्थे तु स्वतः प्रवृत्तिरेपा, आह हि - 'वत्सविवृद्धिनिवृत्तं क्षीरस्य' यथा, अथवा नैवैपां कश्विदेकं इन्द्रियाणामिव चक्षुः प्रधानं, स्वचिपयवलयन्ति हि भूतानि, सकतत्ता नाम सासतनि, स्वकतभावः स्वकतचं, आयतङ्कं पुणेगे उक्तानि भूतानि भूतकारणाणि च, अव्यक्तमहदहंकारः तन्मात्राणि, स्यात् किमेषां प्रवृत्तिरिति १, तदुच्यते, पुरुषार्थः स एवैषां पष्ठ यदर्श नातिवर्त्तते, असावपि सन्नेव, सच्चेऽपि प्रधानवत् शाश्वतः सतच नास्ति विनाशः परमाणुवत् असतः सम्भवो नास्ति खरविपाणवतु, आह हि - 'असदकरणादुपादान' एताव जावजीवकाएत्ति, किमिति १, न कविदुत्पद्यति वा विनश्यति वा, नापि संसरति सर्वगतत्वात्, कूटस्थवदवतिष्ठते, एताव अस्थि, कोऽस्ति ?, यदस्ति तदेतावदेव प्रधानपुरुषावित्यर्थः, एताव ताव सन्दलोगे प्रधानः पुरुषानेव लोकः, एतंमुहं कारणमित्यर्थः, कारणभावः कारणता, अवि अन्तसो प्रधानपुरुषो व्यवस्य तृणाग्रादपि किंचिदन्यतो जायत इति, परमात्मा कारणात्मा तु करोति, तत्फलं तु परमात्मा भुंक्ते, तद्यथा तत्प्रकृति पुरुषान्तरं जानीते स किणं किणाविमाणो, जो किणकिणावेति च सोऽमुक्तोऽपि जायते, अनुमोदतेऽपि, कारणकारणाई पुणो भारियतराई तेण ताई गहिवाई, उक्तं च - 'जो खायन माणुस्सं मांसं अण्णं कतो स मेलेति ?,' एवं पयणपायणाईपि, एतेहिं पुण तिहिनि णव कोडीओ गहिताओ, अवि अन्तसो पुरिसमनि विकिणित्ता एत्थवि जाण णत्थेत्थ दोसो, तेणोऽचि पडिवेरंति, सच्चे सिद्धते मोतुं अण्णत्थ किरिआदि वा [324] temer सांख्यमतं ॥३२०॥ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [१], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१४२-१६५], मूलं [१-१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत श्रीसूत्रकवाङ्गचूर्णिः ॥३२॥ सूत्रांक [१-१५] दीप अनुक्रम [६३३६४७] अकिरिआइ वा जहा संखसिद्धते वुत्तं तहा किरिआइ वा अकिरिया २, तेपामुत्तरं-अत्यन्तानुपलब्धेः प्रधान नास्ति, मत्काथमप्येकांतेन नास्ति, कस्मात् ?, यस्य च भवति उपलब्धेग्नुपलब्धेश्च, तथा कारणात् कार्यसान्यत्वात् , इत्येवमादिभिर्हेनुभिः कारणकाः सांख्यसिद्धान्तस्योत्तरं, एवं तेहिं विरूवरुवेहि कम्मममारंभेहि जाव भोषणाए, एवं एगे मामगं धम्मं पणवति, आत्माप्यथैमामकर्ता, तथापि निर्लजा मामगं धम्म पष्णवैति, ययकर्ता तेन पण्णवणा ण जुञ्जते. नुढेश्यचेतनत्वात् घटस्येव प्रज्ञापनासामर्थ्य नास्तीति, ततस्तदुपदेशद्रष्टुरभावात् , कामं च खलु परलोगणिमित्तं ते सहायका सांख्या ते समणपाहणा पूएंति, न तु प्रत्युप-| | कारार्थ, लोकायतिकवत् , जाप णिकामईसु, पुवामेव तेसिं णातं भवति धम्मसट्टाए ते अप्पणा आचरंता उद्देसगादीनि आत्यंति एवं जाव कामभोगसेयंसि दोचे पुरिसजाते॥ अहावरे तचे पुरिसे (सू० ४) इस्सरकारणिए, इह हि पुरिसाइया धम्मा-स्वभावाः, जीवानामजीवानां च, अत्र जीवधर्मा जन्मव्याधिजरारोगशोकसुखदुःखजीवितमरणाधाः, अजीवधर्मा अपि मूर्तिमताममूर्तिमतां च द्रव्याणां, मूर्तिमद तावत् वर्ण| गन्धरसस्पर्शाः, अमूचिमतां आकाशदिकालादीना, दिश्यन्त इति दिशा, परापरत्वादि कालस्य, शब्दगुणमाकाशं, कतरः पुरुषो | योऽसौ परमेश्वरः विष्णुरीझरो वा?, आह हि-'पुरुषः कर्मणां कर्ता तथा चाहुः 'ईश्वरान् संप्रयते' अपरे वाह:-'एका मतिः। | त्रिधा जाता०' इत्यतः पुरुषादीया, पुरुपप्रणीताः पुरुपेण प्रणीयमानास्तान प्रकारानापद्यन्ते क्षीरवत् , पुरुषोत्तमीयाः नवीन | नपुंसो, पुरुषः प्रधान, पुरुपेण प्रदर्शिताः प्रयोतिताः, यथा प्रदीपेनादित्येन वा घटा, पुरुपणाभिरामन्यागताः सर्वंगतत्वात , | पुरुपेण आमिमुख्येन अणुगता सर्वगतत्वात मृणालतंतुवन, न पुरुपमुदस्य वर्तते, पलयकालेऽपि पुरुपमेवाधितिष्ठंति जलोम्मिवत, Hal:३२१॥ [325] Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत श्रीपत्रक्र सूत्रांक • वाङ्गचूर्णिः ॥३२२॥ [१-१५] दीप अनुक्रम [६३३ ६४७] “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [-], निर्युक्ति: [ १४२ - १६५], मूलं [१-१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता...... आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : आह हि - 'जह सलिलंमि तरंगा' दृष्टान्तः गण्डे जहा शरीरे जाए बुड़े जार अभिभूय चिट्ठा, यथा वा तं समादिभिः क्रियाविशेषैः समितं सरीरमेव अभिभूय चिट्ठह एवमेव धर्मा इस्सराईया०, एवं सेसाईपि । जंपिय इमं दुबालसंगं गणिपिडगं, तं जहा - आयारो जाय दिडीवाओ सव्वमेतं मिच्छा, अनीश्वरप्रणीतत्वात्, ये हि ईश्वरं न प्रतिपद्यन्ते ततः स्वच्छन्दविकल्पितानि शाखाणि प्रथयन्ते, वयं तीर्थकरा इति मूढानां वचो, 'सदसतोरविशेषाद् यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवद्' (तत्ता० १) असत्य, असत्यत्वात् अतथीयं अतध्यमि त्यर्थः यथातथ्यं आहतहियं एकार्थवाचकानि वा पदानि शक्रेन्द्रवत् व्यञ्जन विशिष्टानि, इमं सचं इमं ईश्वरकारणीयं दरिसणं सच अहतहियं, त एवं मोहाः मोहिताः सव्यं कुर्वन्ति, काउं तत्थेव ठवेंति, सुद्ध ठवेंति, तेसिं एवं मोहा मोहितता, मोहा पुरिसस्स रागो | भवति, तस्तिच्छाभावतो तद्विद्विष्टेषु च द्वेषः, रागद्वेपमोहाच कर्मबन्धहेतवः, कर्मणः संसारो तदुःखं च तेनोच्यते तमेव ते तज्जातीयं दुःखं नातित्रर्चते सउणं पंजरं जहा ते णो विप्पडिवेदंति, ईश्वरं मुक्त्वा अन्यतः किरियाई वा करेति धम्मेणचि, यथा इह खलु दुवे पुरिसजाते, किरियाणं अकिरियाणं च हेतुः, एवं ईश्वरस्योपरि तगं छोढुं विरूवरूवेहिं भणति, 'यस्य बुद्धिर्न लिप्येत, हत्वा सर्वमिदं जगत् । आकाशमित्र पंकेन, न स पापेन लिप्यते ||१|| तेऽपि परलोग कंखी धर्मयुद्ध्या ईश्वरं भक्या पूजयन्ति जाव विसष्णे । तचे पुरिसजाते ॥ अहावरे चउत्थे (सू० ५) गितिया जात्र जहा जहा मे एस धम्मे सुअक्खाए, कयरे ते धम्मे १, णितियाचादे, इह खलु दुबे पुरिसजाता एगे पुरिसे किरियामक्खंति, किरिया कर्म परिस्पन्द इत्यर्थः कस्यासौ किरिया १, पुरुषस्य, पुरुष एव गमनादिपु क्रियासु स्वतो अनुसन्धाय प्रवर्त्तते, एवं भणिचापि ते दोsवि पुरिसा तुला नियतिवसेण, तत्र नियतिवादी आत्मीयं दर्शनं [326] नियतिकारणिकाः ॥३२२॥ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [१], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१४२-१६५], मूलं [१-१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत श्रीसत्रक सूत्रांक ताङ्गचूर्णिः ॥३२३॥ [१-१५] दीप अनुक्रम [६३३६४७] समर्थयन्निदमाह-यः खलु मन्यते 'अहं करोमि' इति अमायपि नियत्या एव कार्यते अहं करोमीति, तदायत्तत्वाचराचरस्य, यत्र || नियति | कारणिकाः | चैव २ मेधावीग्रहणं तत्र २ नियतिवादिनः परामर्पः, एगो मण्मति-अहं करोमि, वितिओ मण्णइ-णियती करेइ, एगट्ठा, कतरोऽर्थः ?-कारकार्थः, तत्थ पुण वाले एवं पडिवजंति कारणमात्रने, अहंमि दुःखामि वा बाधनालक्षणं दुःखं शारीरं, शोको इष्टदारापत्यादिविप्रयोगादि, शोकः मानसः, शारीरेण मानसेन वा दुःखेन, शारीरेण जायति, करोमि त्रिभिः कायवाङ्मनोमिः तस्यामिति, तप्पामि बाबैरभ्यन्तरैश्च दुःखविशेपैः, उभयथापि पीडयापि, मध्वतो तप्पामि परितप्पामि, एतत्सन दुःखोदयं कर्म | | अहमकार्षीः परो वा मे दुःखति वा सोयति वा जा परितप्पति वा, परो एवमासी, नेश्वरो, नियतिति, एवं खलु सकारणं पर-17 कारणं एवं विप्पडिवेदेति कारणमावण्णा, मेधावी एवं विपडिबेदेह जं खलु दुःखामि जाव परितप्पामि वा णो एतमहमकासि, किन्तु णियती करेइ, न चाकृतं फलमस्तीत्यतः णियती करेति, जति पुरिसो करेज तेन सर्वमीप्सितं कुर्यात् , न चेदमस्तीति ततो | नियती करेइ, नियतिः कारिका, परोऽपि खलु जं दुःखति वा णो परो एतमकासी, णियतीए तं कृतं, एवं खलु सेसं कारणं, एवं विप्पडिवेदेति-इह खलु पाइणं चा ४, जे तसा थावरा पाणा ते पंच-संघातमागच्छंति, केण संघायमागच्छंति ?, सरीरेण, परि-1 जातबालकौमारयौवनमध्यमस्थ विरान्तः पर्यायभेदः, परि आगाः परिआगाः, एवंविधणेन शरीरेण बालादिपज्जवे विहि पियागो| विधान, पृथक्षरणमित्यर्थः, त एवंविधो विधिविधान, तचैवं-संघानपरियागविवागा विधानं, स्वकृतं वा कर्म विधान, जन्मजरारोगशोकमरणानि वा, नरकतिर्यक्मनुष्यदेवेषु उत्तमाधममध्यमविशेषाः, विशेषेणाह-इन्द्र सामानिकवायखिंशपारिपद्यात्मरक्षकलोकपालानीकप्रकीर्णकामियोग्यकिल्विपिका: दशविधाः, तिर्यक्षु चेकेन्द्रियादयः, पण्णवणापदे जहा मणुस्सेसु समुच्छिमा गम्भवतिश्रा ॥३२३॥ [327] Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [१], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१४२-१६५], मूलं [१-१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: HEL प्रत श्रीयत्र नियतिकारणिकाः सूत्रांक [१-१५] दीप अनुक्रम [६३३६४७]] य. ते एवं संगतिआ उति, नित्यकालसंगता हि पुरुपेण नियती, यथा रूपं स्पर्शन, अनिरोष्ण्येन, अथवा आपो द्रवा अस्थैर्यवती तागचूर्णिः च, यथा गो: दक्षिणविपाणं सवेणं, एवं सब्बजीवा णियतीए णिचं कालं संगता, तत्कृतानि विधानानि प्राप्नुवन्ति, उपेक्षण॥३२४॥ मुपेहा, नियती करोति, पुरिसो उवेक्खा, उवसंख्या पुरुषक्त , एवं उपेक्षा हि णियतीवादः, एवं ताबञ्जीवणिस्सिता णियती वुत्ता। इदाणिं अजीवणिस्सिता, तजहा-त एव संघातमागच्छंति परमावादयः, अभ्रेन्द्रधन्वादिकानां वा संवातपरियागं, तेसिंदोवण्णादिपज्जया, विवेगः तेसिं चेव संघाताणं मेदो वण्णादिचिवेगो य, विधाणं तेसि भेदः प्रकार इति, तेसिपि णियतीकत:, त एवं संगतिय तेसिं अजीवाणं, ता णियंतीमंतरेणं णस्थि अण्णतो अकिरियाइ वा, जं च अण्णे रएति वासमाउद्देति सभावओ एव, HAण पुण जहा लोगायतियाणं रूपकारणणिमित्तं जाव सेयंसि विसण्णे, एते चेव चत्वारि पुरिमजाता पाणापण्णा सुक्ष्मसूक्ष्म तरमन्दबुद्ध्यादयः, गाणावणा वा बादाणादयः जातिकृता वर्णाः, शारीरा वा कृष्णश्यामादयः, छन्दोऽभिप्रायोऽभिलापमित्यर्थः, अन्यस्यानिटशो भवति, अण्णस्स पिया छाती' गाहा, जहा दोहल्लए चेव, महिलाणं णाणाबिहा दोहल्ला उप्पज्जति जहा मल्लिसामिस्स मातुं मेहकुमारस्स य, णाणासीला दारुणभद्रसीला, पाणादिट्ठी, एते चेव चत्तारि लोगायतिगादयो, एगग्गहणे गहणं तिणि तिसट्ठाई पागाइयसताई, णाणारंभा असिमसि फसिवाणिज्जादयो आरभा, अण्णोण करेंति, णाणाअज्झवसाणा तीवमन्दमध्याध्यवसानाः, सम्वेऽपि पहीण पुब्वर्ग आयरिया मग्गं अंतरा कामभोगेसु विसन्ना, उक्ताः पंच यथा भवी, तेऽपि किलापबर्गतो अण्णउत्थिया, संपति भिक्खू चुचइ, जो सो पोंडरीयमुपाडेति, से वेमि मिक्खोरुपोद्घातं विवक्षुः सोऽहं ब्रवीमि, पाइणं वा० पण्यवगदिसाओ भावदिसाओ गहिताओ, संतेगतिया मणुस्सा, सन्ति-विद्यन्ते, तंजहा-आयरिया वेगे जाय दुरूवा वेगे SavanigINERGREATIONSION alam ॥३२४॥ [328] Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक श्री विचूर्णिः [१-१५] | ॥३२५॥ दीप अनुक्रम [६३३ ६४७] in the date to his pale izmed pet “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [-], निर्युक्ति: [ १४२ - १६५], मूलं [१-१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता...... आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : अणारियावि पव्वयंति, जहा अद्दयो वक्ष्यमाणः णीयागोतावि जहा हरिएसबलो, ह्वग्न्तो जहा अतिमुत्तो वामणा वा | दुयण्णरूवेसु सो चैव हरिएमबलो, अण्णो वा जो कोइ दुरणरूरो, संपतंपि णिवागतवज्ञा पवाविजंति, अण्णदेशे वा हरिएसवजा, दुरूवदुवण्णा पुण अव्यंग मरीरा सदोमावि पञ्चाविज्जति चैव खेरावत्युविभासा, अप्पा दुग्गततणहारादीनां भूयो बाहुल्ये, इदं भूयः इदं भूयः इदमनयोर्भूयस्तरं, अल्पेभ्यः बहुतराणि, 'भुज्जतरे वेगेसि, तद्यथा - अहं चिय राजमंडलियब|लदेववासुदेवा चक्कत्रट्टी य, ण य जहा कम्मं भुज्जतरो, तेसिं च णं जणजाणवताई, जगणः सर्व एव प्रजाः, जनपदस्यैतानि | जानपदानि, ग्रामनगरखेट कटादीनि अथवा जनः प्रजास्तत्प्रतिगृहितानं द्विपदचतुष्पदादीनि जानपदानि, तहप्पगारेहिंतो भिक्खू | भाणितब्बो उच्चणीयमज्झिमेहिंतो कुलेहिंतो, कश्चित्केचिद्वा साधुममीपमागम्य धम्मं सोचा तं सद्दहमाणा, अभिभूय, किं ?, परीसहोवसग्गे भिक्खायरियाए समुट्ठिता, दुक्ख निक्खं अडितुं, उक्तं हि - 'पिंडवातपविट्टस्स, पाणी, तथा उक्तं 'चरणकरणस्स सारो मिक्यायरिया०', संमं उडिता समुट्ठिता, सतोचि एगे णातयो पुव्यावरसं मड्डा णातयो, कामभोगोत्रकारी उपकरणं, ताणि चैव खेत्तवत्थु हिरण्णसुवण्णादीणि च, जे ते सती चा असती चा, सतिचि अस्थि से गातयो जहा भरहस्स, असतिति | णत्थि से गातयो, अडवा नास्य नाती सन्ति अणातयो- अणातगा ते अत्थि, असिं उ परिचिन्तगा भिचा, अस्थि उकरणं, उबकरणं च उपकरोतीत्युपकरणं घटपटशकटादि, नास्य उपकरणं विद्यते अनुपकरणः, अथवा नोपकारं करोतीत्यनुपकारणं यथा छिद्रबुनत्वात् घटः जीर्णत्वात्पटः एवमन्यान्योपकरणानि एकांगविकलानि यथा स्वं स्वं कार्य न साधयन्यि तान्यनुपकारित्वादनुपकरणं, समुट्ठिता, स्यात् कथं समुद्दिता ? धम्मे एव्जाए य समुट्टिता, कथं समुट्ठिता १, पुर्धमेत्र तेहिं णातं भाति, पुव्यं धम्मं | | | [329] मिक्षुः ॥ ३२५॥ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [१-१५] दीप अनुक्रम [६३३ ६४७] श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः ॥ ३२६॥ “सूत्रकृत” अंगसूत्र-२ (निर्युक्तिः+चूर्णिः) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [-], निर्युक्ति: [ १४२ - १६५], मूलं [१-१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता...... आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : - सुर्णेति पच्छा जाणंति, एवं सोतुं गातं । इह खलु पुरिसे अण्णमण्णं मम अड्डाए, अण्णं च अण्णं च अण्णमण्णं, अनेकप्रकारमित्यर्थः, अन्यचान्यच अण्णमण्णं, एवमधारणे, विविधं प्रवेदयन्ति विप्पडिवेदयन्ति किमिति १, विजा, तंजा खेपणे जाव सदा मे, कारणे कार्यवदुपचारात्, ताडका ताडकातोज्जा आतसमुत्था मद्दा एवं सर्वेषु कामगुणेषु विभाषा, एते ममाहीणा अह मवि एएसिं स्वामी, मेधावी पुन्त्रमेव, किमिति नमभिजाणेज ?, एते खलु कामभोगा मम अडाए अजिजंति परिवद्विजति परिवारिजंति, न चैकान्तेन सुखाय भवन्ति, कथमिति १, इह खलु मम अण्गतरे रोगातंके, विदूगमामासो, पुग वातिओ वा पेसिअ असिंभियसंणिवाइय, इ इच्छायां न इष्टो अनिष्टः, अकमनीयः- अकान्तः न प्रीतिकरः अप्रियः न शुभः अशुभः अशोभन इत्यर्थः, सर्व एवानुभो व्याधिः कुष्ठादिव विशेषतः, मनसा ज्ञायते मनोज्ञः, मनमो मतः मनोमः, दुक्खेणोस हो, दीर्घकालस्थायी रोगः, सजोघाती आतंकः जे इति अहं, तेण रोगातङ्केणामिभूयते, कामभोगे भणेज से हंता, हंत संप्रेपे, भयात्तायंत इति भयंतारो, इमं दुक्खं परिआइयंतु, एगं मम अर्जनरक्षणादिसमुत्थं भवनिमित्तमेत्र दुक्ख समुत्थितं मां बाधते तं भवन्त एवैतं प्रत्यापितु, स्वाद् अचेतनत्वात्कामभोगानां आमन्त्रणं न विद्यते ततः उच्यते, शुकशारिकामयूराणां आमन्त्रणमिष्टं, तंजहा- 'अकतण्ण ओसि तुंडिय " तथा च- 'भो ! हंस ! निर्मलनदीपुलिनादि', तथा च 'बोहित्य ! ते यतः कान्तास्पृष्टामपि स्पृश्य' इत्येवं तेषां पुत्रेभ्योऽपि प्रियतराणां कामभोगानां पुरस्ताद्भवद्भिरपि पूर्व भवति वाण, जम्हा एवं तम्हा कामभोगा तन्निमित्तेहिं तु दुक्खेहिं अण्ण णिमितेहिंतो वाचि हु बहतडिघातादीहिं णो ताणाए वा न चात्यन्तं भवति, कहं १, पुरिसो वेगड़तो पुब्धि कामभोगे विष्पहेजा, जहा संयोगविप्पयोगो, कामभोगो वा पुरिसं पुचि विप्पजहायह, त चैव पंडुमधुरवाणिजपुत्तं, जम्हा ते गच्चतिया [330] मिक्षुवर्णनं ॥ ३२६॥ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [१], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१४२-१६५], मूलं [१-१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: भिक्षुवर्णन प्रत श्रीसूत्रक-IVAL सूत्रांक ताङ्गचूर्णिः [१-१५] दीप अनुक्रम [६३३६४७] भवंति ण घेचेगन्तिया, रोगितादीनां जहा कालसोयरियं मि, तम्हा एवं गचा अण्णे खलु कामभोगा जाव अण्णमणेहिं मुच्छामो, इति संखाए ज्ञात्वेत्यर्थः, वयं कापभोगे संयुज्झितुं विष्पजहिस्मामो, चुता कामभोगा, से मेधावी जाणेजा बाहिरगा मे तं एते च ॥३२७॥ उपसामीप्पे णी प्रारणे, आसन्नतरमित्यर्थः, तंजहा-माता मे जाव संतुना से, एते मम अहमवि एतेमि, कथमिति ?, ममैप पिता अहमस्य पुत्रः, भार्या पतिः, एवमन्येष्वपि यथासंभयं विभापा, से मेधावी पुन्नमेव अप्पणा एवं सममिजाणिजा, इह खलु मम अन्यतरे दुःखे रोगातथे जाव णो सुभे, तेसिं वा मम भयंताराणां जाव एवामेव णो लद्युध भाति, अण्णा दुक्खं जो IN अण्णो परिआतियति, अण्णण कडं णो अण्णो संपडिवेदयति दुक्खें, दुक्खं ता णियमा कृतं कृतं दुःखं वा स्यात् , सुखं वा, अहवा दुक्खोदयमपि कृतं यावन्नोदीर्यते न बाध्यत इत्यर्थः, तावत् कृतमेव नाकृतं, यस्मादेवं तस्मादन्येन कृतं अन्यो न प्रतिसंवेदयति तन्हा पत्तेयं जाति पतेयं मरति, पत्तेयं त्यजति उपपद्यते, झंझा-लहो, संजानातीति संज्ञा तां, पिअमेव वेद्यत इति वेदना, इति खलु एवं इत्येवं णातिसंयोगा गो ताणाए वा सरणाए वा, पुरिसो वेगता पुधि णातिसंजोगे विप्पजहति, जहा भरहो, परिसं | या एगता णातिसंयोगा विप्पजहंति जह अट्टणं, बाहिरए नार एम संजोगे इमे उवणीततरिए, फिमिति शरीर चेन तदवयवा हस्तादयः यथा मम पातलकोमलौ लक्षणोपचितौ हस्तौ तथा कस्यान्यस्य ? 'इमौ करिकराकारी, भुजौ परंपरजुनौ । प्रदांती गोसहस्राणां, जीवितान्तकरः करः ॥१।। पादा मे कुर्मणिभा, आयु मे दीहं, निरवधृतं च बलं, उरसं बुद्विवलं च, वप्पा अबदातादी, त्वक् स्निग्धा. छाया प्रभा, वर्णच्छाययोः को विशेषः १, वर्णः अनपायी, छाया तु उचिन्नपुरिसमनपायिनी, शेपाणां भवति चन भवति च, 'अनलानिलसलिलसमुद्रयागयुद्भिः पंचधा स्मृता छाया' अशुभदा विकार्य लक्षणा, अथवा अवर्णगीयेऽपि ममीकारो | ३२७॥ [331] Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत श्रीसूत्रक : सूत्रांक [१-१५] दीप अनुक्रम [६३३ ६४७] ॥३२८॥ “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [-], निर्युक्ति: [ १४२ - १६५], मूलं [१-१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: भवति, शरीरे शरीरावयवेषु वा सडतंपि कोड़ गेच्छड़ च्छेतुं, जति णिचिजतिण जीवति, गप्पगोणसखड़ताइणं सडण च संकेति पवितुं एवं अच्छी विशालरतुप्पलधवलाई, दिड्डी मे बलिया, उज्जुतुंगायता णासा, जित्र्माचि तणुइआ विसदा, फासा ककउमओ, इस्थी विपरीतो, एवमन्येऽपि दंतोकोलमगणिडाल गलखंब उरपक्डिकडिजाणुजंघादि ममाति-ममीयते जारिसं मम सरीरं सरीरावयवा वा तारिसा कस्सति ?, एव ममीयमाणो जेसिं पदमे मज्झिमे पच्छिमेवा, वयसि वावयवे ममाति, तस्सि च वातो झूरति कथं ?, पढमे तात्र वये परिश्रमाणो मज्झिमो भवति, मज्झिमेवि परिमाणो पच्छिमो भवति, एवमेकैकस्मिन् वयसि परिमाणो अन्यां वयोवस्थां प्राप्नोति, जहा वयतोऽसौ परिझरति तथा बलतोवि, जं पढमवयस्स गत्थि, सणंकुमारदिहंतो, उक्तं च- 'पण्णासगस्म चक्खू परिझरति परिमाणे तु वयसि संधिना संधी विसंवीभवंति, सुणिगूढसम्मुगणिमुग्गसंठिता पाया उकडसंठिता पहारुसंघातपरिणिजा भवंति चलितरंगे गाते, किण्डा केमा पलिया, जंपि इमपि सरीरं तदपि परायतं, ण विणा आधारेण तेनोच्यते- आहारोपचयं, विणा आहारेण सुस्सति मरयति य, सतापि च आहारेण कालोपकेण णिङ्खण मण पत्ते पदिञ्जमागेण आणुपुत्रीए जाव तीसवरियाणि वडितुं ताव तंपि अवद्धितं वा गोमणुवाऊणं, जंपि णिरुवकमं आउ भवति तंपि आणुपुब्बीए परिहाति, तंजा-पण्णामगस्त चक्खू हायति, अथवा समए २ आवीचियमरोण मरमाणो २ जीर्णशकटयत् पतति, एवं शरीरं अणिचं अधुवं संखाय भिक्खू एव, जं पुरेक्खडेभिक्खू चैव वबहारीयणयस्स, णिच्छयणयस्त भिक्खु चैव भिक्खापरियस मुट्ठितेण, भिक्खायरियं विणा प्राणी प्राणयिता न ज्ञानादीनि तेन भिक्खायरियग्रहणं, दुहतो लोगं जाणिआ, किं दुहतो?, तंजहा—जीवा चैव अजीवा चैव जदत्थि लोए, अहिंसापालनार्थं, जीवा दुविधा, तंजहा-इमं च अण्णं ॥३२८॥ [332] भिक्षुवर्णनं Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [१-१५] दीप अनुक्रम [६३३ ६४७] • 113 श्रीसूत्रताङ्गचूर्णिः ॥ ३२९॥ DESPRE IN “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [-], निर्युक्ति: [ १४२ - १६५], मूलं [१-१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र- [ ०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: 11490 जाणेजा, इह खलु गारत्था सारंभा सपरिग्गहा आरंभो पयणपायणादी हिंगाप्रवृत्तिः परिग्गहो खेचवत्थहिरण्णादि, संतेगतिया समणा पंच, माहणा द्विजातयो गहिताओ, आद-णणु गारत्थगहणेण द्विजातयो गहिता १, उच्चते- केचिद्विजाः घरदारं | पर्याहिऊण लोडआई तित्थतवोवणाई आहिंडंति मिगचारियादि चरति, समणोवासगा वा, ते तु अविरतत्वात्, जे इमे तस्थावरा - पाणी ते करिसणपयणपायणादिसु वद्यमाणा समारभंति अण्णेहिं समारंभावेंति, उदेसियभोषणा पुण अण्णे समारभंते समणुजाणंति, किंचान्यत्, जे इसे कामभोगा सरूवा कामा गंधरसफासा भोगा, तदुपकारिषु द्रव्येषु कामभोगोपचार कृत्वाऽपदिश्यन्ते, तेसिं परिगिति वणिय करिमादयो, इस्सरपुरिमा परिगेहाने ते परिगिन्हन्ते य समगु जाणंति, एवं समणमाहणेसु विभाषा, तिविहूंतिविद्वेण सारभे सपावए गातुं गारत्थे समणमाहणे य, संसारभया अहं खलु अगारमे अपरिग्रहे भविस्यामि, स्याद् बुद्धि:-अगारभो अपरिग्गहो य कथं शरीर धारयिष्यति ?, उच्पते, जह खलु गारत्था सारंभा एगतिना समयादगारंभं प्रति जड़ णाम के अणारंभा अपरिग्रहा वा आरभं प्रति असंयतत्वात् सारभा सपरिगहा चेन, तत्थ जे ते दव्वारंभं प्रति सारभा सपरिग्गदामिखगमादी ते चेत्र विस्साए आहारोबहिसेज्जादि जायमाणा वंमचेर बसिस्सामो चारित्रमित्यर्थः, कस्स णं तं हेतुं ? कस्माद्धेतोः भवतानुत्सृज्य तानेवाशपति १, उच्यते, जहा पुग्यं तहा अवर अहावर तहा पुत्रं, आहाजुत्तं-गिहत्थे णिस्साए जुत्तं, किंवा तेसिं अस्थि जं देहेतेि ?, उच्यते, पुव्यं एगे सारंभा सपरिग्गहा एन आसी, इदाणिपि पाहता संता पचमागगा ग्रामादिपरिग्गहेण यमपरिग्गहा, जेवि दुग्गता आसी तेरि कामादीगि सेति, केवलं तेहिं फणिहा परिचता, कई कततो ?, उच्यते, जस्सारंभो य. घश्यामपायोग्ग, अद्भुवेता रिजुभावेण गणु कांता तावैकं धम्ममनुपस्थिताः, पुणरवि तेऽचि तारिमगत्ति असंतत्वात्संसारिंगः, [333] पुंडरीकाध्ययनं ३२९॥ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [१], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१४२-१६५], मूलं [१-१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: पुंडरीकाध्ययनं प्रत श्रीरात्र- जे खलु गारस्था सारंभा सपरिग्गहा पासंडत्थावि सारंभा, दुहयोति दोवि ते, अथवा पुब्धि पच्छा य, अहवा सयं परेहि य, अहवा सूत्रांक तारागेण दोसेण य, इति संखाए ज्ञात्वा, दोहि अंतेहिं अदिस्समाणेहिंतो गारत्थावृत्ते पासंडवृत्ते इति भिक्खू रीएजत्ति ॥३३०॥ । इति परिसमाप्ती उपप्रदर्शने वा, भिक्खु रीएज इति, तत्थ पण्णवगदिसं पहुंच से बेमि पाईणं वा ६ एवं दुविधाए परिणाए [१-१५] | परिणायकम्मे, परिज्ञातकर्मत्वात् व्यपेतकर्मा अवन्धक इत्यर्थः, अवन्धकन्वात् पूर्वोपचितकर्मणः वियंतिकारिए, अंतं करोत्येव IAS/माख्यातं भगवता, कथं अंतं करोतीति ?, अत्रोच्यते, तत्थ भगवता छज्जीवणिकाय०, उक्तं च-'पुत्र मणितं तुजं भणत्ती दीप तत्या'ते कह रक्खितव्या ?, अन्तोधम्मेण, कह अंतोधम्मं भवति?, से जहाणामए मम अमापदण्डेण आउडिजमाणस्स, अनुक्रम || आउडिजइ खीलउ, जहा सीसे हम्मइ खीलगो तहा सकण्यो आउडिजति, हम्मति तज्जणं, वाघाए आउडिजति हमइ एगट्ठा, देसि या आसज, अयमण्णत्थ वुचति जहा ओयणो कूरो भचं ददाति, एक एवार्थः अण्णण्णधामिलवेंति, एवमाननक्रियायां केह [६३३ आउडत्ति भणंतिचि, केई हम्मतिति भणति, केई पुण तिहिवि पगारेहि, तातिगाढं दुक्खं परितावणा, जेण वा मरणसंदेहेण भवति, ६४७] किलावणं पुण मुच्छा, मुच्छकरणं जाव लोमकरणं, लूयते लूगंति वा तमिति लोमं दुक्खाविज्जतो, अंगाई अक्खिवंतो हिंसंति करोति, || इच्चेव जणे सधे पाणा जाब दुक्ख पडिसंबेदेंति, एवं अंतोषम्मेण जाणित्ता सब्वे पाणा ण हतव्या, आह-किमयं धम्मों वर्द्धमानस्वामिनैव प्रणीत:?, आहोखिन पभाद्यैरपि तीर्थकरैरन्यैश्च ततः परेणातिकान्तैः, किमिति ?, जमु सब्बे पाणा०, एवं शिष्येण चोदिते आचार्यवाक्यं-से बेमि जे अतीता अणंताजे अ पच्चुप्पन्ना साम्प्रतं बर्द्धमानखामिकाले पण्णरससु कम्मभूमीसु जे आगमेस्सा अणंता अरहंता भगवंतो सब्वे ते एवमाख्यातवन्तः एवमाख्यासंति अर्थतः, अतीतानागतकालग्रहणसूत्रेण [334] Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [१-१५] दीप अनुक्रम [६३३ ६४७] श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः ॥३३१ ॥ “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [-], निर्युक्ति: [ १४२ - १६५], मूलं [१-१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता...... आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : तु वर्त्तमानकालो गृहीतः सर्वे ते एवमाइक्खंति, आकारकथनत आख्यानं, यथा 'अवलोअणं दिसाणं' नन्वेवमाकारेण भगवन्तो अरहन्तः धम्ममाइक्र्खति, भाषमाणा अपि भृशं ज्ञापयन्ति प्रज्ञापयन्ति, भृशं रूपयन्ति प्ररूपयति, स्याद्वादतो वा रूपयंति, उक्तं हि- 'नानामागेप्रगम महती०' किं तं रूपयन्ति १, सव्वे पाणा ण हंतव्वा 'हन हिंसागत्योः' आज्ञापनं प्रसह्याभियोगः तद्यथा कुरु याहीत्येवं, ण परितावेयव्वा ण उदवेयच्या, एस धम्मे धुवे, ध्रुवः नित्यं तिष्ठति, सर्वकर्मभूमिषु नितिओ नित्यः, शश्वद्भवतीति शाश्वतः, एगट्ठाई वा, एवं मंता अंतोधम्मेण से भिक्खू विरते पाणातिवायाओ जात्र परिग्गहाओ, तत्परिपापालनार्थमेव उत्तरगुणेवि रक्खड़, तंजहा -- णो दंतवणेणं दंते धोवेज्जा, गिलाणो अगिलाणो वा विभ्रमावडिए, आया वा णो अंजणं, गिलाणो वा रोगा पडिकंमठाणो वमणवेरमणविरेयणं वा, अज्जधूवर्णेतमवि धूमं पिव्यति कासादिप्रतिघातार्थ, एवं मूलगुणोचरगुणेसु सुसंवृतात्मा से भिक्खू अकिरिए नास्य क्रिया विद्यते ते सो अकर्म्मबन्धक इत्यर्थः, लूप हिंसायां, अहिंसक इत्यर्थः, | अकमायाणं विव्याणंतिकाउं अकोहे जाव अलोभे स एवं मूलगुणसंवुडो भवति, जे य कमायग्रहं करेइ, कसाइओ पुण मूलगुणे उत्तरगुणे य खिष्पं अतिचरति, जो पुण अकोहो जाय अलोभो सो चेव उवसंतो भवति सकाया, अणुवसंतो चैव परिणिति, जहा उन्होदगं, उन्हाणं समाणं परिणिब्युडेत्ति युबइ, एवं कसायोचि उसिणो, तदुवसमे परिनिब्बुडे बुधति, एवं ताब इहलोइएस विरतो, अथवा परलोइया कामभोगा किमासंसितव्या १, णेति उच्यते, परलोइएस कामभोगेसु णो आसंसा पुरतो काउं वियरेजा, कथमिति ?, इमेण मे दिद्वेण वा दिडं धम्मफलमिदेव, तंजहा- आमोसहि विप्पोसहि अक्खीणमहाणसिआ चारणविउब्वणिड्डिपत्ताणि, परलोए सग्गं सुकुलपचायादिमादि, सुतं अक्खाणएस धम्मिल भदत्तादि, मणज्ञानी, सुतं सयमेव जातीस्सरणादिएहिं [335] पुंडरीकाध्ययनं ॥३३१॥ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [१], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१४२-१६५], मूलं [१-१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: B पुंडरीका प्रत श्रीस्त्रक तानचूर्णिः ॥३३२॥ RINJAL ध्ययन सूत्रांक [१-१५] दीप अनुक्रम [६३३६४७]] चेब दिलु, सुतं सुत्तेहि, विविधं विसिटुं वा णातं विण्णातं, इमेण वा सुचरिततवणियम सुचरितं तयो बारसविधो, नियमो इंदियनोइंदिय०, ब्रह्मणश्चरणं बंभचेरं चारित्रमित्यर्थः, इमेण जातामातागु(ब)त्तिएण धम्मेण, यातामाता यस्य वृत्तिः स भवति यातामातावृत्तिकः, यात्रा नाम मोक्षयात्रा, मात्राऽल्पपरिमाणा या वृत्तिराहारादि, उक्तं च-'यात्रामात्राशनो भिक्षुः, परिशुद्धमलाशयः। विविक्तनियताचारः, स्मृतिदोपैर्न बाध्यते ॥१॥' इतो चुतो देवे सिया कामकमित्ति यतिमितान् कामान् कामयते तान् लभते चासेवतित्ति, वसे इंदियाणि जस्स चिटुंति, कामवसवत्तिगहमेण अहविधं लोइयं इसरियं सहतं, तंजहा-अणिमा लधिमा महिमा प्राप्तिः प्राकाम्यं ईशित्वं वशित्वं यत्र कामावसायित्व, सिद्धे वा अदुक्खमनुभवतेत्ति, एते चेव अट्ठविधा सिद्धा ते, इच्छाए सुहं वा दक्खं वा भवति, एस्थवि सिया एत्थवि णो सियत्ति एरिसओ भवामि. एरिसमिति एरिसओ देवो भवामि, एरिसओ चा पुरिसो, इच्छियरूपो, इस्सरिओ वदे-देवे, एरिसया च मे सद्दादयो विसया भवंतु, एवमादि आसंसप्पयोग पुरतो काउंणो विहरेज्जा, स एवं भिक्खू सद्दे हिं अमुच्छितो जाय फासेहिं विरतो कोहातो जाव मिच्छादसण सल्लाओ जहा अमुच्छितो सद्दादिएसु विमएसु सुभेसु, असुभेसुवि अदुडे, विरतो कोहातोत्ति णिग्गहपरो, णिक्खीणा सबसो चेव, उत्तरगुणा एते मुत्ता अमुच्छतेत्ति, इति से माहणा आदाणतो इतिः परिसमाप्तौ उपप्रदर्शने वा, कस्स आदाणं?, कोहादि ४, अथषा आरंभो पयणादि परिग्गडो वा सचित्तादि कामभोगा सणातमा सरीरंबा, महंति-महंत एतं कम्मादाणं, सद्दाणं अमुच्छितेऽद्वेपो वा यथाऽग्निः क्षीणेधनो उपसंतो ण डहति उपसंतो मोक्खं तु धम्मेसुहितो उपसृत्य उपरतो हिंसादिकर्मसु आयरियसगासे वा अविरतिप्रतिविरतो पडिविरतो स मिक्खू भवति, जे इमे तसथावरा विषयार्थ अचिन्त्यत्रादुपदेशकसाथ पूर्व च तसा उ पत्तो, तेऽवि पयार्थ HitmINISTRATION I KANHAINTERESTMIDARASATISE KAITRIPATHANNEarthiMIND Mara ||३३२॥ [336] Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [१], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१४२-१६५], मूलं [१-१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत क्रियाध्ययन सूत्राक [१-१५] दीप अनुक्रम [६३३६४७] श्रीसूत्रक Meणासइ समारंभंति पब्वइ योगत्रिककरणत्रिकेण, अहिंसा गता, से भिक्खू जे इमे सचित्ता मीसा सदरूवा कामा गंधरसफासा भोगा तानचूर्णिः सचित्ता दुपदादि दुपदेसु सद्दादि इत्थीपुरिसगीतहसितभणितसद्दा कोइलसुयमयणसलागा हंसाण वा, एतेसिं चेय अलंकिताणं ॥३३॥ मणुआणं तिरियाणं च हंसमयूराणां, रूवसंपण्यो णामेगे णो स्वसंपण्ण चतुभंगो, चउप्पदसद्दा हयहेसितहत्थिगुलगुलाईये वसभढ कितादिरूवं एतेसिं चेव अण्णेसिं च, अपया सदा पोसवणपवादादि वातेरियाण वा सालीणं रुक्खाणं तणाणं वा अचित्ताणं 'तेसि भंते! तणाणं मणीण य केरीसए सद्दो किष्णवरित्यादि विभासा, वीणादीणं वा मीसाणंपि भासितव्वा, सद्दे वेणुसद्दो रूवे | अलंकिताणं, बुत्ता कामभोगा, सचित्ता मंधा दुपदाणं पमोच्छासा माणुआ, रसो तत्थेव, फासो इत्थीणं, चउप्पदे विदाणं गंधो रसोवित्थ तत्थेव, फासो आसट्ठादीणं रसेसु पुप्फफलाण फासे हंसतूलादीणं, एते कामभोगे योगत्रिक करणत्रिफेण णेव सयं परिगि| ण्हेजा ३, से भिक्खू जं इमं संपराइयं कर्म काइ, सम्पराए भवं संपराईयं संपरेंति वा जेण तासु संपराइयं, अब रक्षणादिपु न कृतं, | मात्रं संवेद्यते, तच तत्पदोपनिद्ववमात्सर्यान्तरायासातनोपधातैबध्यते जाव अन्तराइय ते कर्महेतवः नापि खयं करोति ३ से भिक्खू जं पुण जाणेजा असणं वा ४ आहारो, इदाणिं यस्मादुक्तं 'नाशरीरश्चरेत् धर्म, नाशरीरस्तपश्चरेत् । तस्मात्सर्वप्रयत्नेन, कर्त्तव्यं देहरक्षणम् ॥ १॥ उक्तं च "धम्म णं चरमाणस्स पंच णिस्साठाणा पण्णत्ता इत्यादि" कंठयं, अह पुणे जाणेजा विजति तेसिं परकमे हिंसादिप्रवृत्तिः, पराक्रमः प्रकरणमित्यर्थः, आतपरउभयपराक्रमः खभावः धर्मः जस्स अट्ठाए अप्पणो परस्स य भंगा ४, चेतितं कृतं करिज्जमाणं वा तत्किमर्थं ?, उच्यते-अप्पणो पुत्चाईणं भोजगाएत्ति, भुज पालनास्यवहारयोः यत्पालनीय अभ्यवहरणीयं च वस्त्राभरणादि आहारश्च, एवं तस्स अट्ठाए णिहिते, तस्स णिहितं भंगा ४, उग्गमे१६,उप्पादणाए १६, एसणा,१०, पसत्था, ॥३३३॥ [[337] Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [१], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१४२-१६५], मूलं [१-१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत क्रिया: ध्ययन सूत्रांक [१-१५] दीप अनुक्रम [६३३६४७]] श्रीमत्र- शसु हिंसायां शशति तेनेति शस्त्रे-अश्यादि सत्येण कामितं जीवभावात् सत्थादीनां सत्थेणा अजीवभावात् , परिणमितं जीविता था, ताङ्गचूर्णिः | पारणामितं यणादीहिं, अवहिसितं उग्गमदोसादी, तं एसणिजं एसियं वेसियं न इत्यादि, अहवा जहा वेसीयाणि रूपादि जोएति ॥३३४॥ तंपि सामुदाणियं एतत्प्रज्ञस्यासणं पिण्डकप्षियस्येत्यर्थः, अहवा पण्णग्गहणे कुसणं घेप्पेत्ति असणग्गहणा दुरुयणो अयवावादि वा, कारणट्ठा वेदणादि, पमाणं बत्तीसं, बिलमित्र जहा विले पण्णउ पविसति ण यतं विलं आसातमितिकाउं सम्मिलावेंति तडाई, जहावा किंचिवि लेटु घेज्झति, पातं बिलं संमिलावेंति आसादेन्ति वा, पणउत्ति जहा पण्णओ किंचि मंडकादि अणासादितो असति, भूतेण तुल्लेणं, एवं साधूचि णो वामातो हणुवातो दाहियं दाहिणओ वा वाम, अण्णं अण्णकाले, कालो दुविथो-गहणकालो परिभोगकालो य, छुहितो भिक्खावेलाया, अकाले बरसे, तिसितो पाणं पिवति, पुव्यं च भुंजेति मज्झे पाणगं पिबति, वत्थं जम्मि काले परिभुज्जति N/ उदुवासेसु वा, वासे या वासत्ताणं, सीते वा लेणं, लयति लीयतेऽसिनिति लेणं सेज्जा गहिता, जहा य सोतव्वं पडिमापडिवण्ण एणचि गएणवि सेज्जाए वसति, सुसाणादिसु उड्डबद्धे, वासासु सेज्जं उबलीयति, सेसा णिचं सेज्जामयंति, सयणं सयणकालेत्ति | संथारसेज्जा गहिता, जयणाय विहिणा सुप्पति, से भिक्खू मात्रज्ञः आहारोवधिसयणस्वाध्यायध्यानादीनां मात्रां जानातीति, | अण्णतरं दिसं वा रीयमाणे आइक्खेज्ज धम्ममाइक्खे जहा धुते, से भिक्खू धर्म कहेमाणो णो अण्णस्स हेतुं पाणवत्थलेणसPalयण णो अण्पोसि विरूवरूवाणं पूयासकारसद्दरूवगंधादिकामभोगाणं, गण्यत्य धम्मं णिज्जरहताए इति खलु हेतुं एवं णिरुवधं | मिरासंसं धर्म, तस्स मिक्खुस्स अंतियं जो सो उदिसमागतो तीरही तस्स अंतिए धर्म सोचा नं सद्दहमाणा उट्ठाए धीरा अस्सि धम्मे सुहिता, ते एवं सम्बोधगता सर्वात्मना उबगता इत्यर्थः, बाहिरेण अभितरकरणेण य आचार्यसमीपं गत्वा उपेत्य मकवाDPIRITUNER ames ॥३३४॥ [338] Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [१], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१४२-१६५], मूलं [१-१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: क्रिया-- ध्ययन प्रत सूत्रांक [१-१५] दीप अनुक्रम [६३३६४७] श्रीमत्रक-16 संतो सर्वतो सब्वामेव संता, उण्होदगं वा उसिणं होऊण पच्छा कमेण सर्वात्मतया णिव्बुडा परिणिवुडा, एवं सो भिक्खू धम्मट्ठी, ताङ्गचूर्णिः से बेमि पाईणं वा ६, एत्तो आरंभेऊण जाव परिणिचुडे वेमित्ति, एवमवधारणे से इति स भिक्खू एवंगुणजाईओ धम्मेण | ॥३३५वा जस्स अट्ठो ३, धर्म वा वेतीति धम्मविदु, णियागं णाणादी ३ चरितं चा, से जहामेत्थं बुइयंति से इति निर्देशः येन प्रका रेण यथा, जं एत्थ अज्झयणे किंचि बुचं तं सव्वं वुइतं, अदुवा एचो पोंडरीयं तं सव्वं बुइतं केवलणाणं, जहा पत्चे तहा बुर्त, अदुवा अपने अण्णउत्थिया तंपि वुत्तं, एवं से भिक्खू कतरो जो तिणि णाणादीणि उप्पाडेति सो वुत्तो, स एव परिण्णायकम्मे | | भवति, दुविधाए परिणाए पाबाई कम्माई जस्स परिण्णाताई, एवमेव तु वाहिलभन्तरेसु वत्थेसु रागदोसादिलक्खणो संगो, गृहं | समृद्धं सकुडकवाडादिलक्खणं कलत्रमित्रपुत्रादि, एयपि दुविधाए परिणाए परिण्यातं, कोधादि उवसंते, एतेहिं तिहिं कम्मसग्गेहिं गिहिवासेहिं असज्जमाणे उवसंते भवति, रियादिसमितोणाणादिसहितो सदा सव्यकालं जतेचि जतेज्जा, हितजाते जतिया जतो, | अहवा को उपसंतो? जो समितो, को समितो? णाणादिसहितो, को सहितो? जो सदा जतेत्ति, सेति णिदेसे स एवंगुणजातीयो वक्तव्यः, तस्सेवंगुणजातीयस्स मिक्खुस्स इन्द्रशक्रपुरन्दरवत् नामानि भवंति, तद्यथा-समणेति वा माहणेत्ति वा सर्वाणि, था तपसि खेदे च, श्रमणा, अथवा तो समणो०, ब्रह्म अणतीति ब्राह्मणः, अथवा माहणा ण हणतीति २, खमतीति खंतो| | इन्द्रियणो० इति, त्रिभिर्गुप्तः, बाह्याभ्यन्तरग्रन्थमुक्तत्वात नीगंथचि मोक्षं ऋपिवेत्यर्थः, करोतीति ऋतुः यज्ञः, यती प्रयत्ने यतत | इति यतिः, विद्-ज्ञाने विद्वान् विदु मुणितं गमितमित्येकोऽर्थः मुनतीति मुनिः मिक्षणशीलो भिक्षुः रागद्वेपविमुक्तत्वात् लूहे | संसारतीरेण जस्स अट्ठो स भवति तीरट्ठी चरंति तदिति चरणं व्रताभ्युपगमं कुर्वन्तीति तदिति करणं पडिलेहणादि पारमन्तगमन ॥३३५॥ [339] Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [१], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत क्रिया श्रीमत्रकतामणि ॥३३६॥ ध्ययन सूत्रांक [१-१५] दीप अनुक्रम [६३३६४७]] मित्येकोऽर्थः, चरणकरणपारं विदंतीति चरणकरणपारविदुत्ति बेमि, एवं ब्रवीमि तीर्थकरवचनात् , अजसुहम्मो जंयुणामस्स कहेति॥ पौडरीकाध्ययनं समाप्तम् ॥ किरियट्ठाणस्स अभिसंबंधो-एवं तेण चरणकरणपारगेण विदुणा भिक्षुणा कम्माणं खवणट्ठमभुद्वितेण कम्मबंधणट्ठाणाणि बओतब्वाणि तब्यिवरीताणि य मोक्खवन्धवाणाणि'आसेतवाति, एस संबंधो, अहवा ते अण्णउत्थिया कहं संसार अणुपरियइंति ?, कम्मणा, तं कम्मबंधं वज्जेति, इमेहिं बारसहि किरियट्ठाणेहिं वज्झति, मुञ्चति तेरसमेणं, एतेणामिसंबंधेणं किरियट्ठाणं णाम अज्झयणं आगतं, तस्स चचारि अणुओगद्वारा वणोतव्या, अहिगारो पुणाई संबंधे तह बंधे मोक्खे अ, आह-अस्तु ताव मोक्खेणाधिकारो, वन्धेन किं प्रयोजन ?, उच्यते-अनेनावन्धे मोक्खो न भवतीति अतो बन्धेनाप्यधिकारो भवति, तच क्रियास्थानं क्रियावत्स्वेत्र भवति नाक्रियावत्सु, ते च क्रियावन्तः केचिद् वध्यन्ते केचिन्मुच्यन्ते तेण इमस्स अज्झयणस्स बंधमोक्खेण य वुत्तो अधिकारो। इदाणिं णामणिफण्णे किरियाठाणं, किरियाओ णिक्खिवियब्या ठाणं च, किरियाओ पुब्वभणिताओ पडिकमणए 'पडिकमामि | पंचहि किरियाहिं' किरिआ णिक्खिवितव्या णामादि, दब्वे किरिएजणया ॥१६६।। माहा, जीवस्स अजीवस्स वा जा किरिया सा व्यकिरिया, एंजृ कंपने, एजते इत्यर्थः, एजनं कम्पनं गमनं क्रियेत्यनान्तरं, तत्र जीवनोदना कर्मणो गुरुत्वात् विश्रसायोगावा या गतिः सा सव्या अनुयोग इतिकृत्वा द्रव्यक्रिया द्रव्यजीवस्येह प्रयत्नपूर्वकत्वेनापि सति या परप्रयोगादनुपयोगाद्वाईपदपि कम्पनं अप्यन्ते चक्षुनिमेषमात्रमपि सा दबकिरिया,भावकिरिया उपयोगपापकरा णिजसमुदाणो इरियावद्धसम्मत्ते मिच्छते,सम्ममिच्छत्तोपयोगो तिविधो मणप्पयोगादि ३ नास्फुरद्भिर्मनोद्रव्यैरात्मनो योगो भवतीति मणप्पयोगा किरिया एवं वाकायद्रव्यैरपि, उक्तं ॥३३६॥ अथ द्वितिय-श्रुतस्कन्धस्य द्वितियं अध्ययनं आरभ्यते [340] Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत क्रियाध्ययन श्रीसत्रक सूत्रांक ॥३३७॥ [१७-४३] दीप अनुक्रम [६४८६७४] हि 'गेण्हा य काइएण' कायफिरिया गमणादि, उवायकिरिया द्रव्यं येनोपायेन क्रियते, यथा पटं वेमनलिकांछणितुरिचि-1 गचूर्णिः लेखनादिमिः पटसाधनोपायैः शिखितप्रयत्नपूर्वकं पटकारः करोति, एवं घटादिष्यपि आयोज्यं, करणं णाम यद्येनोपायेन करणीयं द्रव्य तत्व क्रियते नान्यथा, अथया करण हितं, करणीयान्मृपिण्डात् बटः क्रियते नाकरणीयात् उपदग्धाच्छ क्यते पापाणसिकताभ्यो वा, समुदाणकिरिया णाम समित्येकीभावे जंकम्म पयोगगहितं तं पसिट्टाएगाण समुदयसमुत्थं पुट्ठणिधत्तणिकाचितं स्थित्युपायापेक्षं करोति सा समुदाणकिरिया, उक्तं हि-'कम्म जोगणिमित्तं बज्झति०' सा य पुण समुदाय किरिया असंजतस्स संजतस्स | अप्पमचसंजतस्सवि जाव सकसायया ताव कीरति, इरियावहिया पुण छ उमत्थवीतरागस्स केवलियस्स जाव सजोगिचि, किरिया ट्ठाणं पुण एक चेव सयोगी, मम्मतकिरिया णाम जावतियाओ सम्मदिट्ठी कम्मपयडीओ बंधति, प्रायेण अपसत्थाओ ण बंधति, Pइदाणि मिन्छादिट्ठी सव्वासि कम्मपयडीणं मिच्छादिट्ठीओ बंधओ होइ आहारगतित्थगरतं च मोत्तूणं, सम्ममिच्छादिट्ठी इदाणि जाव कम्मपगडीओ बंधति येन बंधति जयाओ विभासियधाओ, तंजहा-सम्मामिन्छादिही मिच्छ पंचगं आहारगतित्थकरविAF भासा 'पिदाथिदा पयलापयला श्रीणद्धि ण चंपतु एवं' तु एवमादि इदाणिं । हाणं-णामं ठवणा दविए खेत्तद्धा ॥१६७|| गाहा, जहा लोगविजए तहा, तओ भणियबाओ किरियाओ डाणं च, एत्थ कतराहि कतरेण वा द्वाणेणं अधिकारों ?, तत उच्यते, | समुदाणिवाणिहणयोगट्ठा समुदायकि रियाहि अधिकारो बंधणचंधणयो अधिगारो सम्मपयत्तेण भावकिरियाओ, ठाणं च, एस्थ कतराहिं कतरेण वा वाणेणं, आह-किं इरियावहियाकिरियाए णो अधिकारो?, उच्यते, सा संमपयने ठाणे वट्टमाणस्त भवत्येव, ताई पुण सम्मपयचाई भावठाणाई विरती संजमहाणं-लोगोचरियो परिग्नहो पसत्थभावसंधणा यत्ति एतेसु चट्टमाणो इरियाबंधो ॥३३७॥ [341] Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत श्रीसूत्रक ध्ययन सूत्रांक । ॥३३८ A [१७-४३] दीप अनुक्रम [६४८ वा अवन्धो होजा, जो पुण अपसत्येसु भावट्ठाणेसु सो णियमा पायोगियं वा सामुदाणियं वा संपराइयं वा बंधति, अर्थापत्तिश्चात्र द्रष्टव्या, समुदाणीयग्रहणात् इरियावहियावि गहिता, पसत्थभावट्ठाणगहणा अपसत्थट्ठाणमवि गहितं, एताहि किं कज्जति ?, उच्यते, किरियाहिं पुरिसा पावाझ्याओ सव्वे परिक्खिज्जा, तंजहा-धम्मेति लोयाणुगामियभावं पडिसंधाय तत्थानासे भवति महेच्छे महारंभे, तहा धम्मपक्खेवि पुणो तउबकरणं च विप्पजहाय भिक्खायरियाए समुढेता इति वक्ष्यामि, तत्थ धम्मिया धम्मिट्ठा से | जहाणामए अणगारा भगवन्तों तिधा पावाझ्या परिक्खिज्जंति मंडलबाहिंहिता अगणिकायपाती य, णिजुत्ती समत्ता। सुत्ताणुHOT गमे सुत्तमुच्चारेयव्यं-सुतं मे आउसं तेणं भगवता इह खलु(सं)जूहेणं (सू०१७) जूहे संजूहः संक्षेपः समास इत्यना न्तरं ये ते क्रियावन्तः ते सव्येवि एतेसु दोसु ठाणेसु वटुंति, तंजहा-धम्मे अधम्मे च उवसमे या अणुवसमे या, धर्म एवोपशमः उपशम एव च धर्मः, उभयावधारणं क्रियते, अथवा उपशमाद्धर्मों भवतीति तेन धर्मग्रहणे कृतेऽपि उपशमस्य क्रियते ग्रहणं, | एवं अधर्म अनुपशमे च विभाषा, अर्चितत्वात् पूर्व धर्मस्योपशमस्य च ग्रहणं कृतं, इतरथा हि पूर्वमधर्मोऽनुपशमश्च भवति पन्छा धम्म उवसमं च पडिवज्जेति, तेण एते दो चेव पक्खा भवंति, तंजहा-धम्मपक्खो अधम्मपक्खो य, तस्स पढमस्स ट्ठाणस्स अधम्मपक्खस्स विभंगो विभाग इत्यर्थः, इह च खलु पाईणं वा ६ संतेगतिया मणुस्सा जाव सुरूवा वेगे, तत्र घातो हिंसा मारणं दंड: अधर्म इत्यनर्थान्तरं, तेसिं पुण सब्वेसिं अधम्मपक्खे वट्टमाणाणं इमेतारूवं दंडममादाणं संपेहाए जाव हिंसापरद्धस्स दंडः क्रियते एव, अत्र अधम्मपक्खे अणुवसमे य वट्टमाणस्स दंडस्स समादाणं ग्रहणमित्यर्थः, सपेहाएत्ति संमं पेहाए दणं , तंजहा-णेरइएमु तिरिक्ख० मणुस्सेसु देवगतीए य एतावं ता, पाणादिकं तु जाव वेमाणिएसुत्ति, मणुस्साणं दंडसमादागं समीक्षितुं आह ६७४] ॥३३८॥ [342] Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: क्रिया ध्ययन प्रत सूत्रांक श्रीसूत्रक ताङ्गचूर्णिः II ॥३३९॥ [१७-४३] दीप अनुक्रम | यदि मणुस्साणं चउगतिसु दंडसमादाणं सेसाणं ओरइयतिरियदेवाणं तेसिं णाम किरियाहाणेसु वट्टमाणाणां दंडोणस्थि ?, उच्यते, अस्ति, कथं ?, जे यावण्यो तहप्पगारा, अण्णे मणुअवज्जासु तिसु गतिसु, प्रकार इति सादृश्ये शरीरेन्द्रियादि, णेरड्यदेवाणं पुष्णा| दिलक्षणत्वात् शरीरसादृश्यमन्ति, तिरिक्खजोणियाओ ओरालियशरीरसादृश्यं इन्द्रियसादृश्य, 'विन्नू वेयणं वेयंति' 'विष्णू' | संज्ञानग्रहणं इन्द्रियाणां च तानि केषांचित् सगलाणि, इंदियणिमित्तं चेच, उक्तं हि-"भवपचइयं देहं०" गाथाओ तिष्णि, अहवा | विन्नू वेदेति य भंगा ४, सणिणो वेदणं विजागंति य वेदति य, सिद्धा विजाणंति ण वेदंति, असणिणो ण जाणंति वेदंति, अजीवा न जाणंति ण वेदयन्ति, एत्थ पुण पढमततिएहिं भंगेहिं अहिगारो, वितियचउत्था अवत्थू , तेमिंपिएयाइंति जहा मणुस्साणं तधा तेसिपि नेरइय० किरियाठाणाई भवन्तीति अक्खाताई, तंजहा-अहादंडे जाव इरियावहियाए। तत्थ पढमे दंडसमादाणे (सूत्र १८) आहिज्जतित्ति आख्यात इत्यर्थः, से जहाणामए केइ पुरिसे आतहेतुं वा आतहेतुति आत्मार्थ, | णातहेतुति पुत्रदारादीणं अट्ठाए, अगारहेतुति घरस्स खंभे इट्टकादि वा करोति, परियारोत्ति वासभत्तगचारभट्टासहत्थिमादि परिवारो, अहया घरस्सेव वा पडियादिपरिवारं करोति, एवमादीणि अट्ठाए दंडं तसथावरेहिं पाणेहिं तं च सयमेव णिसिरति, तस्स ताव अण्णे अहिउंजति अण्णे बोहंति, अण्णणे मंसादीणं अट्ठाए उद्दयेइ, थावरेवि, अण्णेवि हन्ति अ अण्णे छिंदति अण्णे | तच्छेति अण्यो आहारहेतुं खाति वा, एवं अण्णेहिघि कारवति, कीरतंपि समणुजाणति, योगत्रिककरणत्रिकेण विभासा, एवं खलु तस्स तप्पचियं तत्प्रतिकं सायद्यकर्म पढमे दंडसमादाणे १। अहावरे दोचे अणत्थदंडेत्ति (सूत्रं १९) से जहाणामए केइ पुरिसे जे इमे तसथावरा पाणा ते णो अचाए अर्चयन्ति तामिति अर्चा-शरीरं तस्य मार्यमाणस्य शरीरमुपयुज्यते यथा मृगं, [६४८ ६७४] [[343] Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-1, नियुक्ति: [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत श्रीसत्रक किया सूत्रांक य [१७-४३] दीप अनुक्रम [६४८६७४] एतं हणंति, एवं णो अइणाएति अइणं णाम चर्म तं वग्यादीवगादीणं, एवं जाव णो अद्विमिंजाएत्ति, हिसिसु खेत्ति ताङ्गणिः एतेण मम पिता अण्णो वा कोह मारितो जह कत्तविरियावराह गाहा स मम व अण्णं वा मारेहित्ति जहा दसारेहिं जरासिंघो हिंसिस्सतित्ति गम्भत्थं वा बालं वा मारेति जहा कंसो देवइपुत्ते णो पुत्तपोसणं मारयित्वा पुत्रादीनां मांसानि दासंति, पसुपोसणताएत्ति गवां गवात्राय आसहत्थीण उदण्णमंसादीणि दीयंते, अगारहित्तूणहेण(विद्धिहेतुणा)वा अगारं-- IV गृहं तं बृहयंति इष्टककाष्ठादिभियंतीत्यर्थः, णो समणमाहणेहिं तु समणाणं चरगादीणं पंचण्डं भत्तमावसथं वा करेति, एवं माहणाणवि, सम्बत्थ वा सरीरादीणि किंचि एति, से हंता छेत्ता जाव उद्दवेउं उज्झितुं वाले रस्स आभागी भवति, वेराणिवि इमेकडादीणं एमेव, जहा पंथं वचंतो रुक्खस्स पत्तं छेत्तूर्ण छडेइ, लडीए चा मोडतो पाणाई वचति, कुहार्डि वा आयुधं वा रुक्खखंधेसु रुक्खडालेसु वा णिवाडेतो वच्चति, स वाले न किंचि तत्तो पत्तं वा पुष्पं वा आजीवति, केवलमेव वेर-कम्मं तस्स भागीभवति, अणट्ठदंडे । से जहाणामए केइ पुरिसे कच्छसि वा जाव पव्ययदुग्गंसि वा तणाणि-सेडियभंगियादीणि पत्तापिा पुण सुक्खाणि उस्सविय २ जाव णो दव्वोच० भवतुत्ति अगणिकायं णिसरति ३, योगत्रिककरणत्रिकेणं ३, एवं खलु तस्स लप्पत्तियति सावज्जेत्ति दोचे दंडसमादाणे २॥ अहावरे तचे दंडसमाणे (सूत्रं २०) हिंसाति एत्तियं अधिज्जति, से जहाणामए केइ पुरिसे से इति निर्देशे, येन प्रकारेण यथा, नाम परोक्षसूचादिषु, केइ अणिदिणिदेसो कीरती, ममंती ममेव मीयते तम तदीयं पुत्रं प्रातरं वा दुहितरं वा, अण्णं णाम अणिएल्लयं, अणि वेति अणिएल्लियं, जहा कुप्पिसप्पेण खइतो अमचो, अण्णो साहामरत्ति, तेण च सो मप्पो गहितो, तेण चिंतितं-अहं ताव खइओ मतो य, मा एस जीवतो अपणं पि लोगं ॥३४०॥ [344] Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत कियाध्ययन सूत्रांक ताङ्गचूर्णिः [१७-४३] दीप अनुक्रम खाहित्ति तेण मारेमि, एवं सो अण्णस्स अट्ठाए तं राष्पं मारेति, अथवा अन्य इति परः पराश्यः अण्णिायं हिंसेतीति, एतेण 'कोइ श्रीसूत्रकृ मम मारतो आसि, हिंसंति उद्यतायुधः' एवं जहा सुरायादि, हिसिस्सतित्ति जहा आसनीयो तिवटुं, मा मे मारेसतित्ति मारि॥३४॥ तुमिच्छति, रायाणो वाऽद्दामाए खुड्डलए चेव मारेंति, एवं ममं वा अण्णं वा अगि वा एक हिंमतिचि त्रिकालो भावितव्यः, तसेसु दुपदचतुष्पदअपदादिपु जाव थावरेसु विहिसिंसुति रुक्खसालियं अजाणतो आवडितो रोसेण छिदति, उक्तं हि-'एत्तो किं कट्टतरं जं मू०' हिंसतित्ति रुक्खमालं पडतं अणामंतं चेव आयुधेण छिंदति, हिंसतित्ति दब्भसूइमादीकण्टए मलेति, यथा वा साक्यभिक्षुः पलं पत्रं छिन्नं वा, योगत्रिककरणत्रिकेण णिसिरति, तो दंडसमादाणे ३।। अहावरे चउत्ये अकम्हावत्तिएत्ति आहिजइ, (सून २१) अकस्मात् नाम हेत्वर्था पञ्चमी अकस्मात , से जहाणामए केइ ताव पचतदुग्गंसिवा मियवत्तीए. मृगा एव यस वृत्तिः सङ्कल्पो नामामिप्रायः मृगान् मारयिष्यामीतिकृत्या गृहानिर्गच्छति तदेवास्य प्रणिधानं धुद्धिरभिप्राय इत्य| नर्थान्तर, अथवा प्रणिधान, बीतं संगमादीहि अप्पाणं ण वेत्ति, उक्तं हि-वीतं मयणो सरणो०, विगद्धार गंता एते मिगत्तिकट्टु जाव णिसिरति से मिगं वधिस्सामित्तिकट्टु, तित्तरंति वा जाव कजिलं वा विधित्ता भवइ, जहा मृगं तहा अन्न दुपदचतुष्पदं Mसिरीसिवं या विधित्ता भवति, इति खल से अन्नस्स अट्टाए जान से जहाणामए के पुरिरो सालिमाइ णिलिजमाणे निन्दसाणे अन्नयर अन्नतरस्स हत्थं निसिरति, सत्यं वा अशियगमादि, से समागमे या मरणकाले सुगंगी तणजातिसालिमाइ छिदिता भवाते, HEL इति (खलु) से अन्नरस अट्ठाए अनं फुसति णाम छिंदति अथवा फुसंशि फसमाणो चेव दुक्खं उपपाडेति, किं पुण छिजमाणे १, | चउत्थे दंडे ४॥ अहावरे पंचसे दंडे (सूत्रं २२) से जहाणामए केइ पुरिसे माईहिं वा पितीहिं वा नियमात्मनि गुरषु [६४८६७४] ॥३४॥ OLL [345] Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति : [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: कियाध्ययन प्रत सूत्रांक [१७-४३] दीप अनुक्रम [६४८६७४] श्रीमत्रक- 10/च पहुवचनं अहया माईहिति सवचीणीओ मातुसियातो पितुस्सिताओ गिहिताओ, पितीहिंति पितुपितृव्यादयः पिवयंसावा, वाचूर्णिः सेसाणि भातिमादीणि मिनं अमिचंति निग्गहणा, एते चेव पुन्बुद्दिट्ठा मायादीया गहिता, तेसिं एगतरं वा, गतो वा खणखण॥३४२॥ उत्तिकाउं घरं अतितवानिति, तं वा मित्रं च अमित्तमिति मिचे वधितपुब्वेति, सांदृष्टकं क्रियते, अध केह वधितपुव्वे भवति अजा|णतो दृष्टेविपर्यासः, दिद्विविष्परियासिया, से जहा० केइ पुरिसे गामघातंसि या रातो वा वियालसि वा दिवसतो वा तावद् भ्रांतलोचनः अतेणं तेणंति अतेणे हतपुव्वे भवति आसग्यो वा असिमादिणो जइ दिट्ठीविपज्जासो ण हंतो ण मारतो तस्स ते | सावज्जेत्ति पंचमा किरिया, दंडो घात इत्यनान्तरं, स तु पराश्रयं दण्डं समादियति एभिरिति दंडसमादाणे । इदाणिं प्रायेण | आत्माश्रयाणि, ण च एकान्तेन तेसु परस्स ववरोवणं भवति तहावि कम्मबंधो भवतितिकाउं किरियाट्ठाणाणि उचंति, आदिल्लाई | पुण किरियाट्ठाणत्तेवि सति दंडसमादाणेवि सति दंडसमादाणा बुचंति ५॥ अहावरे छट्टे किरियाहाणे मोसावत्तिएत्ति (सूत्रं २३) से जहाणामए मोसवत्तिए आतहेतुं वासहेतुं वा सहोदोवि कोइ चोरो गहितो अवलवति गाहं चोरोत्ति, पाइहेतुत्ति पुत्तो वा से अण्णो वा से कोइ ण एस चोरो णो पारदारिओ, एम भत्तगादी परिवादे सइ, मुसं भणावेइ मोसोवदेसं करेइ एवं तुम भणेज्जासि, कूडसक्खी वा करेति, अण्णं वा अणुजाणतेत्ति चेव भणति-सुट्ठ तुज्झेहिं अबलतं, योगत्रिककरणत्रिकेण ३ । सावजे ति छट्टे किरिया०६॥ अहावरे सत्तमे किरियहाणे अदिन्नादाणवत्तिएत्ति (सूत्रं २४), आतहेतुं हरि| स्सामि इति एवं णेति, अगारपरिवारहेतुं वा हरति, योगत्रिककरणत्रिकेण सावज्जेति सत्तमे किरिए ७॥ अहावरे अट्ठमे अज्झथिए (अज्झत्थवत्तिएत्ति) (सूत्रं २५), से जहा० केइ पुरिसे णत्थि ण च विसंवादेति, यो हि यद्विवक्षुश्चिकीर्षुर्वा [346] Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति : [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: क्रियाध्ययन प्रत सूत्रांक श्रीमत्रकताचाणिः ॥३४३॥ [१७-४३] दीप अनुक्रम [६४८६७४] दित्सुर्वा कस्यचित् किंचित् स यदा अन्येन अपदिश्यते एवं कुरु अहि वा असंवादेहि स एवं विसंवादिज्ज तो पुण कोइ रुस्सति कोइ तुस्सति, ण एवं केइ विसंवादेति, सयमेव अज्झस्थियण हीणो अदीणे दीणे, अथवा समित्येकीभावे सम्यम्बादः विसंवादः, | क्षेपः प्रपञ्चः, अन्य वा किंचिदप्रियं वचनं काममप्रियमुक्तस्य कोपः, स एवं अविसंवादितोवि अकस्मादेव हीणोत्ति हीणे सरतो ओयातो छायातो, दीणो णाम अकृपणोऽपि सन् कृपणवनिःसंहृतोऽवतिष्ठते, दुट्टोचि अकृतापकारस्थापि प्रदुष्यते, दुष्टमनाः दुर्मणाः, इष्टविषयप्रार्थनाभिमुखं हि मनः तदलाभे अपहतं भवति, अभिहतमित्यर्थः, मनसा च संकल्पाः मनःसंकल्पचिन्ताः जार अति | तत्क्षणं आत्मानमधिकृत्य वर्तते आध्यात्मिका अध्यात्मे संश्रिताः अज्झत्थसंसरया, अथवा युक्तमासंसयमेव समानदीपत्वे कृते अज्झत्थया आसंसइया, अहवा संशयः अज्ञाने भये च, संशयं कुर्वतीति संशयिता, कसाएहिं कपायावृत्तमतिर्न किंचि जानीते, भयं चास्य इह परत्र च भवति, चचारि, तंजहा-क्रोधं वा ४, अप्पणो कुज्झति, अगम्म वा गंतु, वाया दुरुत्तरं वा काउं अप्पणो चेव रुस्सति, रुट्ठो ओहतमणसंकप्पो अज्झत्थमेव कोहमाणा, सिस्सो पुच्छति-एते कोहादि अज्झत्थतो जाता किं अज्झत्थं भवति?, A उप्पतिमाणं भावाणं उभयथा दृष्टत्वात्संसयः, तत्र तावत् तुभ्यः पटो जातः तंतुप्रत्याख्यानाय भवति, गोलोमाविलोमेभ्यो दूर्वा जाता, कारणमविलक्षणा भवति, एवमध्यात्मक्रोधाया जातो किमध्यात्म भवति पटवत्सूत्राकारादन्यत्वे आहोश्चि दूर्वा यथा खकारणेभ्योऽन्या, एवमध्यात्म कपाया अध्यात्मवतिरिक्ता वा भयंतीति संदेहः ?, उच्यते-कपायास्तापन्नियमादध्यात्मं च स्यात् , कषायाः स्यादन्यत् खदिखनस्पतिवत् च, कथं ?, येनाकपायस्यापि अध्यात्म भवतीति, कथं काए विदु अज्झप्पं अपायस्यापि कायवाड्मनोयोगा भवन्तीतिकृत्वा तेऽध्यात्म भजते इति, निराश्रयकपायवतो हि कपायिणश्च, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं अट्ठमे ॥३४३॥ [347] Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-1, नियुक्ति: [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक श्रीसूत्रकताङ्चूर्णिः ॥३४॥ क्रियाध्ययन [१७-४३] दीप अनुक्रम [६४८६७४] M/कि० कोवपत्तिएत्ति आहिते ८॥ अहावरे णवमे किरियहाणे माणवत्तिएति (सूत्रं २६), से जहा के पुरिसे जाति-NE मएण वा अहं जात्यादिविशिष्टः असंकीर्णवर्ण उत्तमजातीय अन्येष्वपि विभापा, अण्णातरेण मतेणंति, णस्थि एतेहिंतो अहविहे. हिंतो मदट्ठाणेहिंतो अणं मयहाणं, चरित्तं अस्थि, किंतु संजोगा कायव्या, संजहा-जायमयपते णामेगे णो कुलमयमत्ते० जातिमदमोवि कुलमदमचेचि एगे, णो जातिमदगते णो कुलमदमत्ते सोचि अवत्थु, आदिल्ला तिणिण भंगा घेप्पंति, एवंजातीए सेसाथि। पदा भइतब्वा, दुगसंयोगो गतो, तिगतिगसंयोगे एगो जातिमदमत्तोवि कुलमदमचोवि बलमदमचोवि, एवं चउक्तगपंचगछक्कगसत्तगअट्ठगसंजोगा कायव्या, बुद्धिविभवेण जाच परं हीलेति, परो णाम यो जात्यादिहीनः, अतुल्यजातीय रत्नं हीलयति लजा. | मिति, एवं जाब अणिस्सरदुर्गतं हीलयेति, निंदितो नाम परजात्यादिन्यूनसमुत्था, आत्मसमुत्थो मनस्तापः, जहा इमो वराओ हीणजाती दुग्गतओ बेति, मा मरिसउ कोइ कुलो भोज्जो, जोवि केणइ मंदेणवि सिट्टो तंपि ण जिंदति, सम्बंग णाम मएहितो सो बलिओ रूविओ अथावि दुजातीओत्तिकाउं, श्मशाने इव, एवं सब्वे संजोगा भाणितचा, गरहा णाम परेसिं पागडीकरणं, एस दुजातीओ चंडाले डंबो चम्मारादि वा, परिभवो णाम आत्मनो जात्यादिमदावष्टम्भात् तद्धीनेषु परेपु अवज्ञां करोति, त्रिष्यपि अनभ्युत्थानं न्यूनमासनं असकारिताहारादिप्रदानमित्यादि, इत्तरिओ अल्पप्रत्ययः, इत्वरमित्ययमल्पतरोऽयमसात् जात्यादिमिः असादहं जात्यादिभिर्महत्तर इति अप्पाणं विउकसेड़ विविधं विशिष्टं वा आत्मानं विउकमतीति अपाणं विउकस्से, सो पुण कि जाणह बराओ?, एतानि जात्यादीनि मद स्थानानि इहैव भाति, अथवा बलरूपतपःशुतलामैश्वर्येभ्यः इहापि कदाचिद् अश्यते, किं पुनः परत्र , तद्यदि अत्यन्तं जातिमदादीनि भवंति तो कि स्थ मज्जिती , इतो पुण देहतो चुतो कम्मवितियो अबसो पयाति 1131 [348] Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [१७-४३] दीप अनुक्रम [६४८ ६७४] श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः ॥३४५॥ “सूत्रकृत” अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति:+चूर्णिः) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-], निर्युक्ति: [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२ ], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: LS / - तासु तासु उच्च नियतासु गतिसु, उपपद्यत इत्यनर्थान्तरं, रंगनट इव, सो चैव राया भवति, सो चैत्र राया भवित्ता सो चैव दासः, सो चेव इत्थीवि, को या तस्स माणो १, एवं जीवोवि एगता खत्तिओ, अथवा यत्र परवशता तत्र को मानः १, सर्वः कर्मवशेन, एवं गन्माओ गव्यं गभाओ अगमं अगभाओ गन्भं अगभाओ अगर्भ मणुस्सर्पचंदियाणं गन्भो सेसाण अगन्भो, जम्माओ जम्मं एवं एकभंगो, णरगाओ परगं चतुभंगो, यावत्स्वकर्म्मवशादेव सुखी भवति दुःखी वा मृत कर्म्मभिरेव शोभनामशोभनां गतिं नीयते, उक्तं हि - 'आकडणं कर्मा, कर्मणं विकद्धती'ति एतद्भावे उत्कर्षापकर्षो को नाम ?, जो पुण मानी तस्स अवमानितस्स रोसो भवति तेनोच्यते- चंडे थद्धे चंडे कोधीत्यर्थः, जात्यादिधर्म्मः स्तब्धः, अवमाणितो सिमा रुस्सति, रुडोऽपि माणंपि का गतिः तेन १, क्रोधमानयोर्नित्यमन्योऽन्यस्य विद्यते, चचले नाम० अगंभीरे, मुहुत्तेण अवमाणितो रुस्सति धरथरेति अकोसति जात्यादिमिरात्मानं, प्रशंसति मानी यावि भवति, चशब्दः पूरणे अपिः संभावने, माणी अवमाणितो चंडो चवलो च भवति, एवं तस्स माणदोसा सावअंति, णवमे किरियाट्ठाणे ९ ॥ अहावरे इसमे मित्तदोसवत्तिएत्ति आहिए ( सू २७ ) से जहाणामए केइ पुरिसे मातीहिं वा पितीहिं वा जाब सुहाहिं वा संवसमाणे तेसिं अण्णतरे निवाइए वा अवराधवइए ताव अकोसो वा कारण हत्थेण वा संघट्टे वा उपकरणे या कम्हियि भिण्णे वा एवमादि लहुमओ-अल्प इत्यर्थः, सीतोदगे वा कार्य उबलेत्ता. भवति, हेमंतरातीसु, उसिणोदवियडेण वा कार्य उस्सिचित्ता भवति, वियडग्रहणा उसिणतेल्लेण वा उसिणकंजिएण वा अगणिकाएण वा उम्मुण वा तत्चलोहेण वा कार्य उड्डहिता भवति, कंडण वा वेढेतुं पलीवेति, सो चेच कडग्गिति बुच्चति, आह- 'हिंसाश्रवा: केशव । मायया वा विषेण गोविन्द । दिवाग्निना वा' छिज्जति से सओ कसओ, सैस कंठ्यं, उद्दालेत्ति चम्माई लंबावेति, दंडोति [349] BIMORE मानप्रत्ययं ||३४५|| Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-1, नियुक्ति: [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: मित्रा प्रत सूत्रांक श्रीसूत्रकताजबूर्णिः ॥३४६॥ [१७-४३] दीप अनुक्रम लउडओ, अट्ठित्ति कोप्परं, तेण खीलं देति, अंगुढि अंगुलितलसंघातो, मुट्ठी, लेल लेटुओ, लीलावयति प्रहारेणेति लेलू कवाल, वसकघरमित्यर्थः, कुड्डयतीति आउद्देति, तहप्पगारे पुरिसे संवसमाणे दुहिता दुम्मणा भवंति, त एवं यथा मार्जारे प्रोपिते मूषिकादी सत्था सुई सुहेण विहरंति एवं तंमि पयसिते वीसत्था घरे ठिया वा जागरगा गामेल्लगा था, सचो वा जगवतो वीसत्थो खकर्मधर्मानुष्ठायी भवति, तहप्पगारे दंडगरुओत्ति वधति चारंभति वा सम्बस्सहरणं वा करेइ हत्यच्छिन्नत्ति व करेति णिधि-N सयं वा करेति, दंडपुरक्खडेति वा दण्डं पुरस्कृत्य राया अयोइल्ला एगट्ठावेति, आउल्लगावि दण्डमेव पुस्कृत्य करणे णिवेसेन्ति, सब्यालिए ववहरंति, अप्पणो चेव अहिते अस्मिन् लोगसि कथं किंचि दंडेति सो पां मारेति अहवा पुतं अण्णं वा से णिएल्लग मारेइ वा अबहरति वा अण्णं वा किंचि अप्पियं करेतित्ति तस्स घरं वा से डहति सस्साणि वा चतुष्पदं वा से किंचि गोर्ण वा अस्सं वा हत्थि वा घूरेति-अवहरेति वा २, अह ते परलोगमि एवमादिएहिं पावेहिं कम्मे हिं सुबहुं पावं कम्मं कलिकलुसं समजिणिता गरगतिरिक्खजोणीसु वा सुबई कालं सारीरमाणसाई पचणुभवंति, संजलणेत्ति संजलति यथाऽनि:, भस्मोपधायी वनयोगादि, सोऽपि लहुसएवि अवराधे खणे २ संजलतीति संजलगा, परं च संजालयति दुक्खसमुत्थेण रोसेण, संजलण एव य कोधणो वृञ्चति, एगद्विता दोषि, परं च अवगारसमुत्थेण दुक्खुप्पादेण कोपयति, एवं ताव उरंउरेण सयं करोति कारवेइ वा, अप्यो पुणो सयं असमत्थो रुडोवि संतो परस्स दुक्खं उपाएतुं पच्छा से रायकुले वा अण्णत्थ वा पट्ठीमंसं खायति चोपनयतीत्यर्थः, पृष्ठिमांसं खादतीति पिट्ठिमंसिओ, एवं ताव अधालहूमए अवराधे जो एरिसं दंडं वत्तयति सो महंते अवराधे दारुणतरं दंडं निवत्तेति, कह , पुत्तदारस्सेव यथोक्तानि दंडस्थापनानि शीतोदकादीनि अवि रोसेण सयं करोति वा कारवेति बा, एवं पुण [६४८६७४] ॥३४६॥ Kalingan [350] Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: मायाप्रत्यय प्रत सूत्रांक [१७-४३] दीप अनुक्रम श्रीयत्र केथिवि दोसवचियं अट्टमं किरियाटाणं भावितुं पच्छा भणति, परे दोसवत्तिय णवमं किरियट्ठाणं पच्छा माणवत्तिय ९॥ एवं तामणिः | खल्लु तस्स सावजत्ति दसमे किरियहाणे से जे इमे भवंति गूदायारा 'गुह संवरणे' गूढो आचारो जेसिं ते गूदायारा वा ॥३४७॥ IN गलगर्चा सट्ठिलचारो वा, णाणाविधेहिं उवाएहिं वीसंभंजणयितुं पच्छा मुसीत वा मारेति वा जहा पज्जोयेण अभयो दासीहिं हरावितो तमो तिमिरमन्धकार इत्यनन्तरं यथा नक्तंचराः पक्षिणः रति चरति अदृश्यमानाः केनचित एवं तेवि चोरपार| दारिया तमसि कार्य कुर्वन्तीति तमोकाईया, उलुगपत्तलहुएचि उलुका:-पक्षिणः पात्यतेऽनेनात्मा तमिति पत्रं पिच्छमित्यर्थः जहा तं उलुगं पत्तं तणुएणावि बातेण चालिञ्जति वा उच्छल्लिञ्जति वा उत्क्षिप्यति वा एवं लहुगधम्मो, जेण इधं थोलगुरुएवि कले उच्छल्लिञ्जति, पन्चयगुरुएत्ति जहा पव्यतो गाढावगाढमूलो संवगवातेणावि ण सकेति चालेउं वा एवं सोऽवि मायावी मुसाबाई, जत्थाणेण लंबो गहितो जं वा असंतेणवि अभियोगेण विणासेतुकामो तत्थ अण्णेहिं अन्भस्थिजमाणो वा अवि पादपडणेहि ण सकति उच्छल्लेत, आरियावि संता अणारियाहि विउदंति, आयरिया खेत्तारियादि, आरियमासाहि, गच्छ भण भुंज एवमादिएहि, | एते चेवत्थे कलादतालाचरचोरादी आत्मीयपरिभाषाएहि भणंति, मा परो जाणीहीति, अजाणतो सुहं वंचिजइ, अण्णं पुट्ठा आत्मा न पृष्टः, को विचारान् कथयति !, एवं कोई सुडिताए गारीओ पंथे हिरंतो कुढिएहिं णाओ, चोरोत्ति विंदमाणो गहितो, राउलं नीतो, कारणिएहि पुच्छिओ भणति-णाई चोरो, पहिउत्ति, अमृगत्थ पट्टितो, कथंचि समावत्तीए एयासि गावीणं पिट्टतो संपत्त। मेतो चेव गहितो, अथवा कस्सइ किंचि आसिआडितं, पच्छा सो तं चोरं किंचि भणति-अवस्सं एतं अमुगेण हितं भविस्सति, सो य तं जाणंतोचि जहा तेण हितंति भणइ-अमुगेण हितं अण्णेण वा एवमादि अन्नं वागरेति, अपणहा संत अप्पाणं अण्णधा | [६४८६७४] ||३४७|| [351] Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति : [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत मायाप्रत्य सूत्रांक [१७-४३] दीप अनुक्रम [६४८ श्रीसमक- दंसेतित्ति, जहा गलगा णाणाविहेहिं पासंडवेसेहिं अपरं बचेति, एवं चारिगावि चारैति, अण्णहा आइक्खंति, जहा पुट्ठो केणइ ताजणि कोसि तुम? मोढेरगातो आगतो भवान् ?, सो भणति-णाहं मोढेरगातो, भवद्यामादायातो, विकतो वा पुच्छइ कोइ-अशो! निउण भणत्ति, किणतो अधियंतो एवं कूडकरिसावणं च्छेयं कूडगंति, से जहा वा केइ पुरिसे अंतो सल्ले मा मे दुक्खाविजिहित्ति कंटं णो अणुण्णवति, विजेण अण्णण वा ण णीहरावेति, णो पलिविद्धसमेतित्ति, नान्येन केनचित् ओसहेण कोत्थति, केणइ चा पुढे दुबलो , ण एतेण पसवणे पउणतित्ति, मा ससल्लो अञ्जवि होजा पच्छा एवं एवमियंति, जह से सयं णो उद्धरति एवमेव अण्णणवि पुट्ठो चेदणभीतो णत्थि सल्लोचि गिण्हइ, अविउमाणेत्ति परेण पुट्ठो वा अणालोएमाणो, तेणान्तर्गतेन दुःखेन पोल्लरुक्खोविव अन्तर्गतदावाग्निना अंतो अंतो झोसियाति, एवं एत्थ णं पारदारियादि विरहेणं तप्पंति, अलब्भमाणो पोलरुक्खोविच अन्तर्गतPA पात का अंतो अंतो शियाति, आह हि-तं मित्रमंतर्गतमूढमन्मथं' एप दृष्टान्तोऽयमर्थोपनयः-एवमेव मायी मायाकरो वा अचोरो अण्णो वा पुच्छिजंतोवि णो अपणो आलोएति, लोउत्तरिओवि किंचि मूलगुणातिचारं वा उत्तरगुणातिचारं वा कटु णो आलो. एति, आलोचना आख्यानं, प्रतीपं क्रमणं प्रतिक्रमणं, निन्दा आत्मसंतापे, गरहा परेसिं वा, तस्मात् निवर्त्तनं बिउट्टणं णो जधाFA वराह जं जस्स अवराहस्स अणुरूवं पायच्छित्तं लोगे चरेत् , लोके तावत् अगम्यं गत्या अगदाघेव, मद्यं पीला, णिब्धिसओ चा, मांसं खाइत्ता माणवो धम्मकोविताणं उपहेति, जाव पच्छित्तं ते दिति, किंचित् अतिचारं पलंडुभक्खणादि कृत्वा मद्यं वा पीत्वा 'सद्यः पतति मांसेन' अध्यापकानामालोचयति जाव पच्छि, समये विश्वासाय विरुद्धं कृत्वा सयाणं सयाणं गुरूणं आलोएति, लोगुत्तरेबि एतं चेव णो आधारिधं, मायी अस्सि लोये मणुस्सलोए, जे ताय गृहस्था मायी सो कदाइ उस्सण्णविदोवा इमं लोग ६७४] [352] Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति : [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१७-४३] दीप अनुक्रम [६४८ Oणचेव लभति, परलोगेण तिरिक्खजोणिएसु अप्पणोगासा पचायति, जइ कोइ उस्सण्णदोपत्वात् अस्सि चेव लोगे पचायाति, देव- तापसादिश्रीसूत्रक क्रिया ताङ्गचूर्णिः IN लोगपि गो लब्भति, कुतो मोक्खो ?, अणालोइए अपडिकंतो वा सम्मदिट्ठी जावणो सिज्झति, परलोए पचायाति, देवलोक इत्यर्थः, ॥३४॥ किं पुण ?, स एवं मायी, निंदागरहानिंदनादयो मिथ्या, उक्तं हि-'अमायमेव सेवेत' मायी च निन्द्यते लोकेन इत्यर्थः, आत्मानं प्रसंसतीति, सेविता च मए असुद्धं बंचेति अप्पणो तुस्सति, आह हि-"येनापत्रपते साधुरसाधुस्तेन तुभ्यते" णिगरति यदा मायिना | परो वंचितो भवति तदा लब्धपसरो अधियं चरतीति णियरतीति, णो णियट्टति-न निवर्तते तस्मात् प्रसङ्गाद, उक्तं हि-'करो त्यादौ०" णिसिरियदंडो णाम हरणे माहणाणं वा तं काउं छादेति, ण करेमित्ति, अण्णस्स चा उवरिंछुभति, माई असमाहडलेस्सेHal| हेविल्लाओ तिष्णि असमाहडलेस्साओ, सम्यग्भिः त्रियोगैरात्मनाऽऽहत्य असमाहडाओ, उपरिल्लाओ तिष्णि समाहटाओ, ते एवं खलु से मायिस्स जसमाहडलेसस्स सापत्ति आहिते, एकारसमं किरियाहाणं ११॥ (सूत्रं २८) अहावरे दुवालसमे | (सूत्रं २९), एताणि प्रायेण गृहस्थानां गतानि एकारस किरियाट्ठागाणि, इमं पुण पासंडत्थाणं बारसमं किरिया० तेनोच्यते-- जे इमे भवंति आरणिया अरण्णेसु वसंतीत्यारणिया तावसा, ते पुण केइ रुक्खमूलेसु य बसंति, केइ उदएसु, आवसहेसु S वसंतीत्यावसस्थिगा, गामे अंतिका ग्रामाभ्यासे ग्रामस्स ग्रामयोर्वा ग्रामाणि वा अंतिए वसंतीति ग्रामणियंतिया, ग्राममुपजीवन्ती-1 2. त्यर्थः, कण्हुईरहस्सिया, रह त्यागे, किंचिद्रहसं एषां भवति यथा होम मंत्राश्च आरण्यगं वा इत्यादि, सर्वे वेदा एपां रहसं येनात्रामणाय न दीयन्ते, णो बहुसंजता णो संजता णो बहुएसु जीवेसु संजता, पंचिंदिए जीवे ण मारेति, एगिदियमूलक-II न्दादि उदयं अगणिकायं च वधेति, संयमो नाम यत्नः, विरती वेरमणं जहा मए असुओ ण इंतव्योति, पच्छा तेसिं चेव जेसु ॥३४९|| ६७४] [353] Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति : [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत श्रीसूत्रकतागचूर्णिः तापसादिक्रिया सूत्रांक ॥३५०|| [१७-४३] दीप अनुक्रम [६४८६७४] विरतो तेसु जतणं करेति, मा में मारेस्सामित्ति, अथवा संजमो विरती एगट्ठा, सब्यपाणजीवसत्तेहिं, अथवा णो बहुसंजओ-बहु- संजओ णो बहुविरते अप्पणो सच्चामोसाई एवं विजंति, सच्चं मोसं कतं, तंजहा-अहं न हंतव्यो अण्णे इंतव्वा, ब्राह्मणा न हंतव्याः, ब्राह्मणघातकस हि न संति लोकाः, शूद्रो हन्तव्यः, शूद्रं मारयित्वा प्राणायाम जपेत् विहमि(नी)तिकां वा कुर्यात् किंचिद्वा दद्यात् , अनस्थिकानां सच्चानां शकटभरं मारयित्वा ब्राह्मणं भोजयेत् , हणणं-पिणं, आज्ञापन अमुगं कुरु अमुगं देहि चेत्येवमादि, परितावणं-दुक्खावणं, परिघेत्तव्यंसि दासमादि परिंगेहति, उद्दवणं मारणं, जहाऽतिवातातो अणियत्ता तधा मुसावादादि ३ जहा एतेसु आसवदारेसु अणियत्ता एमेव इत्थिकामा भारिया, उक्तं च-"मूलमेयमहम्मस्स." आह च-"शिश्नोदरकृते पार्थ", अथवा इत्थियासु सद्दादयो पंचवि कामा विद्यते इति, उक्तं च--"पुफफलाणं च रसो०" मुच्छिता गिद्धा जाव अज्झोपवण्णा जाव वासाई चतुःपंच, पंचग्रहणं छसच जाव छद्दममाई, मज्झिमो कालो गहितो, परेण कम्हा ण गहितो जाव वीस । तीस सयंति वर?, उच्यते, एते प्रायेण अण्णउत्थिया भुक्तभोगा अवचोपादानाई काऊणं पव्ययंति, भोगपिवासाए वा भोगे केवि हरंति, जीवंतित्ति गतवया जाव अवच्चाई उपादेति, थोवंतियं तात्र चेव से वयो भवति, आह हि-"या गतिः क्लेशदग्धानां" तेन चतु:पंचग्रहण, उक्तं च-"सोयसु न घरेण मुहे." एवं ताव तेर्सि थेरपब्बइताणं एस कालो उस्सग्गेण भणितो, पच्छा सुत्तेण चेवऽवदिसति, एतस्मात् यथोद्दिष्टात् अप्पतरो वा भुजतरो वा, एक दो वा तिणि वा वासाई गहिताई, भुञ्जतरो भवति, दसण्हं परेण जाव सतं वालपव्वइताणं, जहा सुगल(सु)तस्स, जणे णासित्ति जणो न जातो, एवं ताव ते पच्चइता अणियत्तभोगा, यथा | शासोक्ता, आधाकर्म आहारो आवसहसयणोवादाणस्नानगन्धमाल्यादिमोगा भुंजंति, त एवं अणियत्तकामा कालमासे कालं किच्चा ॥३५॥ [354] Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१७-४३] दीप अनुक्रम [६४८६७४] श्रीसूत्रक- अण्णतरेसु आसुरिएसु किब्धिसिएसु जेसु सूरो णस्थि वाणेसु, ताणि पुण अधे लोए सूरो णत्थि, तत्थ भवणवइवाणमंतरा देवा ईर्यापथतानचूर्णिः सूतवर्जति, किविसं कलुसं कलापं पापमित्यनर्थान्तरं, किब्धिसत्रहला किनिसिया, ततोवि किब्धिसियातो विप्पमुचमाणा जह|| AL क्रिया | ||३५१|| IV किहवि अर्णतरं परंपर चा माणुस्सं लभंति तहावि एलमुयत्ताए, एलओ जहा बुब्बुएति एवंविधा तस्स भासा भवति, तमोका-IN | इयत्ताएत्ति जात्यन्धो भवति वालंधो चा, एवं खलु तस्स दुवालसमो १२, इचेताणि दुवालसकिरिया० संसारियाणि प्रायेण | मिथ्यादर्शनमाश्रित्य, दविओ रागदोसविप्पमुको समणेत्ति या माहणेति वा एगढ, सम्म पडिलेहितब्वाणि भवंति, ज्ञात्वा न कर्त्त व्यानीत्यर्थः ।। अहावरे तेरसमे किरियहाणे ईरियावहिपत्ति आहिए (सूत्रं ३०), ईरण-इया ईर्यायाः पथश्च तत्र जात | ईर्यापथिक, ईरणं ईर्या, ईरणात् पथश्च जातं, तत् कुत्र भवति ?, उच्यते-इह खलु इह प्रबचने खलु विशेषणे, नान्यत्र भवति, | कस्य बध्यते ? आत्तत्ताए आत्मभावः आत्मत्वं, आह-सर्व एवायं लोकः आत्मार्थ प्रवर्तते ?, उच्यते, येनात्मानं निश्चयेन हितं, तर्धनात्मवतां कर्म ?, अशोभनवान्मा अनात्मैव, लोकेनापदिश्यते, यो हि दुर्विहितो भवति सः अनात्मैवापदिश्यते, आह हि| "अनात्मना चैप दुरात्मवृत्तिः" यस्य च नित्यो जीवस्तस्यात्मार्था प्रवृत्तिरयुक्ता, येषां चात्मा नित्यः, कर्मफल न च, तेपामन्यः । करोति अन्यः प्रतिसंवेदयते, इन्द्रियानिन्द्रियसंयुडे अणगारः, ईरियासमियस्म जान उच्चार० मणसमितस्स वइ० काय०, सम्यग्योDAगप्रवृत्तिः समितिरितिकृत्वा अट्ठ समिइओ गहियातो, मणोगुत्तस्स वइकायगुत्तस्सत्ति तिणि गुत्तीओ गहिताओ, एते पुण तिण्णिवि कायवायमणा य सम्यक् प्रवर्चमानस्य समितीओ भवंति, एतदेव अयोऽपि योगाः 'सम्यग्योगनिग्रहो गुप्ति'रितिकृत्वा गुप्तयो भवंति, पुनः गुप्तिग्रहणं एतायान् गुप्तिगोचरः, नातः परं गुप्तिरन्याऽपि दृश्यते, 'गुत्तबंभचारिस्सति जस्स पवहिं बंभचेरगुत्तीहिं [355] Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति : [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत ईर्यापथक्रिया सूत्रांक [१७-४३] दीप अनुक्रम श्रीस्त्रक गुत्तं भवेरं भवति सो गुत्तभचारी, 'आउत्तंति णियमेव संजमे उवजुत्तो, मा मे सुहमा विराहणा होअति अप्रमश इत्यर्थः, ताङ्गचूर्णिः बाहिरतो या तस्स आणणं करेति, माणस्य अवमाणस्य कोष्ठस्य प्राणनं कुर्वतः प्राणनमानस्य, चिट्ठमाणस्स णिसीयमाणस्स तु॥३५२॥ अदृमाणस्स वा आउत्तं वत्थं णिक्खिवमाणस्स वा पडिलेहि पमजितुमित्यर्थः, जाव चक्षुःपम्हं यावत्परिमाणावधारणयोः, पश्यतीति चक्षुः चक्षुपः पक्ष्माणि अक्षिरोमाणीत्यर्थः 'णिवायमवित्ति उम्मेसणिमेसं करेमाणो इत्युक्तं भवति, एवमादि अण्णोवि कोई सुहुमोवि गायसंचारो भवति, तंजहा-जाब जीवो सजोगी ताव णिचलो ण सकेइ होउं, उक्तं च--'केवली णं भंते ! अस्सि समयसि जेसु आगासपदेसेतु सब्बो आलावगो भाणितब्यो, एवं सजोगीकेवलीणो सुहुमा गत्तादिसंचारा भवंति, कम्मयसरीराणु गतो जीयो तचमिव च उखास्थमुदकं परियचति तेण केवलिणो अस्थि सुहुमो मात्रसंचारो, विपमा मात्रा माता कदाचिच्छरीPA रस्य महती क्रिया भवति स्थानगमनादि कदाचित् उस्सासमुहुमंगसंचालादि अप्पा भवति, स पुनर्महत्यामल्पायां वा चेष्टायां तुल्यों भवति, कालतो द्रव्योपचयतश्च, कालतस्तावत् सो पढमसमए वज्झमाणो चेव पुट्ठो भवति, न तु संपराईयस्सेव, जोगनिमित्तं गहणं जीवे, अज्झत्तं बज्झमाणं चेव परस्परतः पुष्टं भवति, संश्लिष्टमित्यर्थः, बज्झमार्ण चेव उदिअति, वितिए समए संवेदिजति, ततिए समए णिञ्जरिअइ, प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशकमश्च वक्तव्योऽत्र, तस्स पगडिबंधो वेदणिजं, ठितीए दुसमयठितिसमयियं, पदेसतो बादरं, थुल्ला पोग्गला, अणुभावतो सुभाणुभावं, परं सातं, अणुत्तरोववातिगसुहातो, प्रदेशओ बहुप्रेदशं, अथिरबंध, उक्तं च-"अप्पं बादरमउ०" अप्पं ठितीए, बादरं पदेसेहि, अणुभावतो सुभअणुभाई, बहु पदेसतो, सुकिल्लं वष्णतो, सुगंध गंधओ, फासतो मउअं, मंदलेवं भुल्लकुडुलेववत् , महव्ययं बहुअं एगसमएण अवेति, सातबहुलं अणुनराणवि तारिसं सात [६४८६७४] ॥३५२।। [356] Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति : [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः ||३५३|| सूत्रांक [१७-४३] दीप अनुक्रम [६४८६७४] णस्थि, बंधो फुसणा य अस्थि, संपराइयस्सेव बढ़पुटुणिध'तणिकायणा | गस्थि, रोयकाले अफम्मं वावि भवति 'सेय- क्रियास्थान | कालोति एस्सो कालो, सेत्ति णिदेसे, ईरियावहियाए कम्मे अकालो, तरस दोहं समयाणं परेणं अकम्मं वावि भवति, चशब्दो- प्रज्ञापना | अधिकवचनादिपु, तथा वेदनं पड़च्च अकर्म, तीतभावपण्णवणं पहुच कर्म गुडघटदृष्टान्तो, दुविधा कम्मशरीरा बद्धेल्ला य मुकेल्ला य, गुकिल्लए पडुच कम्मं, एवं चग्रहणेन संभवता चसदेण च लभति, एवं खलु लस्स सायजंति आहिजति एवं तात्र वीतरागस्स, जे पुण सरागसंजता तेसिं संपराइया, ते पुण जाई एताई ईरियावहियवआई वारस किरियट्ठाणाई तेसु वह तिलिकाउं | ते तत्थाणुब्धया, तेसिं प्रमादकपाययोगनिमित्तो संपराइयनंधो होइ, जत्थ प्रमादतः तत्थ कपाया य जोगाय णियमा, जोगे पुण। पुचिल्ला भजिता, पमादपञ्चइयो णातिदीहकालद्वितीओ होति, कपायपचइया या ऊणतरो अंतोगहुत्तिोचा अट्ठसंवच्छरिओ, जो पुण कसायविरहितेण जोगेण बज्झति सो य ईरियावहिओ, हेडिल्ला पुण सावञ्जा चेव घारस किरियाहाणाई भवंति, एवं पव्वइओ | वा उपपव्यइओ वा, एवं सरागसंयतस्स सावझो चेत्र, एताई पुण तेरस बदमाणसामिणा वुत्ताई तहा किमण्णेहिं बुत्ताई ? आगमेस्सी | वा भणितिहिति ?, उच्यते-से वेसि जे अतीता ३, एताई तेरस किरियट्ठाणाई पगासिंसु वा ३ जहा जंबुद्दीचे दुवे सूरिया तुल्लं उज्जोति, यथा वा तुल्यस्नेहोपादानात्प्रदीपास्तुल्यं प्रकाशयन्ति, वीतरागत्वात् सर्वज्ञत्वाच तुल्यमेवाईन्तो भगवन्तः तीतानागसंपत्ता भासिसु वा ३, अदुत्तरं च णं तेभ्यः क्रियास्थानेभ्यः अथ उत्तरं अदुत्तर, यथा वैद्यसंहितानां उत्तरं जं मूलसंहि| तासु श्लोकस्थाननिदानशारीरचिकित्साकल्पेषु च यत् यथोपदिष्टं च, यथोपदिष्टं सत्तरोऽभिधीयते, रामायणछन्दोपट्टिततमा| दीर्णपि उत्तरं अस्थि, एवमिहापि तेरससु किरियाहाणेसुजं वुत्तं अधम्मववास्स अणुवसमपुव्वकं उत्तरं उचेति, विजयो नाम मार्गणा, AN||३५३॥ [357] Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१७-४३] दीप अनुक्रम [६४८६७४] श्रीसूत्रक- विविधो विशिष्टो या विभागो विभङ्गा, तं पुरिसजातविभंग आइक्खिस्तामि, केसि सो विभंगो, उच्यते-गाणापण्णाणं, पागशुतानि वाङ्गपूर्णिः नानाऽर्थान्तरत्ने, प्रज्ञायते अनयेति प्रज्ञा, सा य उत्तमाधमा पण्णा, लोके दृष्टत्वात् , छट्ठाणपडिता वा पण्णा, छन्दोऽमिलाप ॥३५॥ इत्यनर्थान्तरं, कोइ उच्चच्छन्दो भवति कोइ णीअच्छंदो भवति, उत्तमाधमप्रकृतिरित्यर्थः, उचे णामेगे उच्चच्छन्दो उच्चेणामेगे० भंगा चत्वारि, 'णाणासीलाणं सुसीलो दुस्सीलो इति, सुखभावभद्रा सुशीला, णाणादिट्ठीणं तिगि तिसवाणि पावातियसयाणि दिट्ठीणं णाणारुयीणं आहारविहारसयणासनाच्छादनाभरणयानवाहणगीतवादित्रादिपु अण्णमण्यास रुचति, 'णाणारंभाणं' कृषिपाशु पाल्यपाणिकविपणिशिल्पकर्मसेवादिषु गाणारंभो जाय 'णाणाज्झवसाणसंजुत्ताओ' शुभाशुभाध्यवसानानि तीवमध्यमानि Nइहलोकपडियद्वाणं परलोगणिप्पिवासाणं विसयतिसियाणं इणं णाणाविधं पायसुचपसंग वण्णइस्सामि, तंजहा-भोम्म AY उप्पायं इथिलक्षणं जहा सति तणुईत्ति, तणुईति तन्वी, पुरिसलक्खणंति मानोन्मानप्रमाणानि यथा त्वचि भोगाः सुखं मांसे०% हिनोति हीयते हयः, स्वस्थ मानोन्मानप्रमाणवर्णजात्यादिलक्षणं गच्छतीति गजः तस्य लक्षण 'सत्तंगपतिहिते'तिवण्णओ, गोणो मानोन्मानप्रमाणवपुर्वर्णखरादिलक्षणं, एवं चेव जाव लोगोत्ति चकच्छत्तस्स चउदसह मणिकाकिणि चक्वडिस्स, तस्स लक्खणं सारप्रभादीणि लक्षणानि, एतानि स्वमूर्तिनिष्पन्नानि लक्षणानि, इदाणि विज्ञान तकम्मं बुच्चति, तंजहा-सुभगं दुभगं दुभगं सुभगं करेति विजआए, गब्भो जेण संभवति मोह मेहुणे वा, जीवकरणं, अथर्वणवेदमत्रादि, हिंदयउड्डियपक्खं सदोषैः, पाकान् शास्तीति पाकशासनः इन्द्रस्तस्येन्द्रजालं विद्या, दवाई घयमधुतंदुलादीनि दयाणि तेहिं होमं करेति दाहोम, एवं सब्यविजाकम्म, खत्तियाणं विजा खत्तियविज्जा इसत्थं धणुवेदादि, तत्थ विज्जाओ जहा असशस्त्राणि, इदाणि जोतिसं बुचति, तंजहा-चंदचरिया तं ॥३५४|| [358] Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-1, नियुक्ति: [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: पापथुतानि प्रत सूत्रांक [१७-४३] दीप अनुक्रम [६४८६७४] Dवर्णसंस्थानप्रमाणप्रभानक्षत्रयोगराइग्रहग्रहणादि चन्द्रचरितं, सूर्यस्य वर्णनभा० राहुग्रहनक्षत्रयोगादि, सुमचरितं सुकचारो 'पढमो श्रीसूत्रकृवाङ्गचूर्णिः होति सुभिक्खं वहसती संवत्सरहाई एकेकं रासि वरिस्सेण चरति, तत्थ केसुयि संवत्सरेसु सुभो केसुइ असुभो केसुइ मज्झिमो, ॥३५५॥ उक्कावाया दिसादाहा वा यथा-'अग्गेय वारुणा माहिन्दा तेजसा सत्थग्गिबुहा भावा दिवायवादीया, एवं वारुणमाहिंदावि भाणि तब्बा, मृगा हरिणा, शृगालादि आरण्या तेसिं रुतं, दरिसणं ग्रामनगरप्रवेशादि, जहा 'खेमा वामा धाति दाहिणा बापसाणं पची। सरुदाई परिमंडलचि काकाई उडका धड़ करेंति ॥१॥' पंसुवुट्टि जाव रहिरवुहित्ति, कंठ, पुणो विज्जाओ वेताली दंडो| उद्वेति दिमाकालादिसिट्ठो, अद्ववेताली य वेडतो जाति, पच्छा पुच्छिजति, सुभासुभं तोलति, कवाडं मंतेण विहाडेति जहा पभयो, मोवाई मायंगी विज्जा, सवेरिसवराणं सवरभासाए वा, दामिली दामिलभासाए, कालिंगी गौरी गंधारी कंठोक्ता, जाए उप्पतति सय अण्णं ना उप्पतावेति सा उप्पादणी, जाए अभिमंतितो णिवडति सयं अगणं चा णिवडावेति सा णिवडणी, जीते | कंपति जाए कंपावेति पासादं रुक्खं पुरिसं वा, मा जंभणी जाए जंमिज्जति, सा थंभणी जहा वइराडा अज्जुणेण कोरवा धभिता, जाए जंघाओ उरुगा य लेसिज्जति आसणे वा तत्थेव लाइज्जति सा लेसणी, आमया णाम वाधी, जरमादी ग्रहो वा लाएति आमयकरणी, सल्लं पचिट्ठ णीहरावेति सा पुण विज्जा ओसधी वा, जहा सो वाणरजहवती०, अदिस्सो जाए भवति | सा अंतद्धाणी अंजणं या एवमादि, आउविज्जा उम्मच जोगे य सावज्जया अण्वास्स हेतु, अण्योसि वा विविधाई विसिट्ठाई रुवाई से सिताई विरूवरूवाई मयणासणच्छादणवत्थालंकाराईणट्ठा, अथवा समासेण सद्दादीणं पंचहं विसयाणं पउंजंति, ते पुण पासंडत्था निहत्था बा, जे ताव पासंडत्था पउंजंति तिरिर्छते, तिरिच्छं नाम अननुलोममित्यर्थः, जहा गलए अडुगं अट्टि वा कटु वा लग्गं ||३५५॥ [359] Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक अनुचरस्वादि [१७-४३] दीप अनुक्रम [६४८६७४] रणजीणेति, एवं ते जइवि मोक्ख कंखिया तहाविण मोक्खं गच्छंति, ते अणारिया जइवि खेत्तारिया तहावि णाणदंसणचरित्ताई वाचूर्णिः पद्धच अणारिया, कालमासे कालं किया अण्णतरेसु वा जाब एलमूअत्ताए पञ्चायति, पासंडत्था, जे पुण गिहत्था एते लक्षण॥३५६|| विज्जामते पति तिरिच्छंते, तिरिच्छे नाम अननुकूलं, ते जहाकम्मा णिचिट्ठा उववत्तारोवि गच्छंति, एवं ताव अणुवसमयपुखोपाएसु पासंडत्थाणं अधम्मपक्खो भणितो, इदाणि चेव अधम्मपक्खे गृहस्थो पाएण चुचति, सो एगतिओत्ति कोइ णिसंसो आतहेतुं वा जाव परिवारहेउँ वा अण्णं चा किंचि णिएल्लगं णिमाएचि निन्निऊणं, सो य असमत्यो गिहित, आह हि-"विवादश्च विचाहन, तृतीयं गृहकर्म वान शक्यमसहावेन, निःसर्तुमधनेन वा ॥१॥" सहवासोत्ति सहवासो, सो पुण बासो एसो एकगो अमिल्लाओ वा किं करैति', अदुवा अणुगामिओ अदुवा उवचरए जाच सोवागणिएत्ति, सूचनात्सूत्रमितिकृत्वा एवं एताणि संखेवेण सुत्ताई युत्ताई, एतेसिं इदाणिं सुत्तेण चेव वित्ती भण्णति, जहा बेतालिए, चत्तारि विणयसमाधिडाणा उच्चारेतुं पच्छा एकेकस्स विभासा, जहा वा उक्खित्तणाए संघाडेत्ति उच्चारेऊण पदाणि एकेकस्स अज्झयणं बुधति, दिविचाते सुत्ताणि भाणिऊण पच्छा सब्बो चेव दिविवातो, तेर्सि सुत्तपदाणं एतेण चेव वृत्तिभवति, जहा एगइओ आणुगामियभावं पडिसंधाय-अनुगच्छतीत्यानुगामिकः सो पडिचरतु अस्थि एतस्स किंचि हत्थए, पच्छा सोद्धिलाए पत्थिओ अहमितिकाउं गलागतॊऽन्यो वा तं अणुआगच्छति मग्गेण, सोचि चिंतेति-एतेण अहं गच्छामि, पच्छा बलावलेहि विसंमेऊण गुविलए देसे गलगों करति वज्यिं खरगं, दोरं गले छोडं एगखेनेण चेव पाडेति, अणु सुत्तमत्तिओ पाहरे, सावेक्खं सलंगादिसु, णिरवेक्खं गीवाए अण्णस्थ वा देसे, से हता। पडिपहाय दुता वेषणगं, खलंगादिसु छिदित्ता भिदित्ता सीसं लउडपहारेण, पोट्टे वा भल्लएण, उद्दावेत्ता मारेत्तु 'लुट छेदने' ॥३५६॥ [360] Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति : [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत श्रीसूत्रक सूत्रांक तागचूणिः [१७-४३] दीप अनुक्रम [६४८६७४] अधर्मपक्षः लपति, जहा विविधा विलुत्ते सत्थे गामो य आहारैतित्ति, एवंप्रकारा नत्थ आहारवृत्तिः, द्रोहेणेत्यर्थः, णो वा सो अण्ण किंचि | करिसणं वा आहारणिमित्रं करेइ इति, सोथतीत्युपदर्शने, महद्भिर्महता बहुपदेसिएहि चिरकालद्वितीयहि य पावेहिं अट्टहिं कम्मेहिं ||३५७|| आत्मानं उब समीपे आङ् मर्यादामिविध्योः ख्या प्रकथने, आधावन्नपि स्वयमेव उपेत्य आख्यातीत्यर्थी, यथाऽहमेवाकर्मा, तेनैव महता द्रोहेण पापेन कर्मणेति वक्तव्ये एके अनेकादेशादुच्यते-पाचेदि कम्मेहिं अहिं बज्झति, अहवा एकस्मिन् प्राणवधे Kt कथमष्टविध कर्म वध्यत इति ?, उच्यते, यथा पद्य(पट्प)दाबिके, जाव अहहिचि, से एगतिको उपचरगभावं पडिसंधाय, उपेत्य | | चरतीत्युपचरका, भंडिओ भंडेतुं मुगावेचि जाव उपक्खाइत्ता भवति, पडिपंथिओ पडिपंथेग सोदिलाए एग हंता छेत्ता भेला जाब उपक्खाइत्ताणं, गंठिछेदओ लोहमएण समुग्गएणां रूवगाणं पोलियं करेति छिदितुं, उरम्भा णाम ऊरणओ, तं वुत्तमलो वा मारेति अण्णतरो व तसो पाणोत्ति, तस्साल, छगलादि वागुरिओचि, बहो व सुरं करेति, आहडेता पा रायादिणो मिए चराए बग्गुराएका | वेढेतु मारेति, अण्णतर तसंमि सूकररोज्झवग्यातिए तत्थ मारेति, सउणा मोरतिचिरादि अण्णतरो पाणो, तस्स बाहिचए अण्णं | किंचि मारेति, ग्राहस्य मारणं या सव्वं, जहा चकवाई मारिता, मच्छगं जालेण गलेण वा, अण्णतरं वा तहप्पगारादि एगतिओ AS गोधातगभावं पडिसंधाय गोणं मारेति तस्यालाभे महिपमेलगं वा, केई पुर्ण भणंति-सोआरियभानंति महिसं, अण्णतरो तब्ब | तिरित्तो गोणादि, सोणइओ आमारयाणं डुबो य, अण्णतरंति तदलाभे खाडइलाउ मारेंति, सावगणियन्ति सुणए पचंती, सोनागाणि| याधिक्ये, अंतेसु गामादीणि वसंतीति अंतिया जहा पचंतिया, एवं सोवाहिन्तोनि अंतियतरो भवति, रहित इत्यर्थः, जो पुण | पुरिसं मारेति गोल्लविसए ब्राह्मणघातक इन पुरिसघातओवि गरहिअति, परतो य णिगच्छति, उक्ता वृत्तिः । इदाणि से एग- ||३५७॥ [361] Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति : [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: श्रीसत्र अधर्मपक्षः प्रत सूत्रांक ताजचूर्णिः ॥३५८॥ [१७-४३] दीप अनुक्रम तिओ उवरिममझातो उद्वेत्ता अहमेतं हत्थामि, को विसेसो पुब्बतेहितो?, उच्यते, सो कोई पच्छष्ण करेति, इमो पुण अण्णामादीण कारो णिस्संको कडणिमित्तं वा मंसं वा खाइतुकामो, हत्थत्थो वा, अधमा पक्खेवा वणिजमाणे जावतिया द्रोहकारका ते केई समासेण उदिसंति, एते पुण सव्वे अवरद्धकुद्वा बुत्ता, इमे अण्णो विरोधिता बुञ्चति, से एगतिमो केइ आदाणेण आदीयत इत्यादानं ग्रहणमित्यर्थः, तत्कस्य केपां या आदानं ? शब्दादीनां विषयाणां, सद्दे तार आकुट्ठो निन्दितो केणइ पुट्ठो रुट्ठो भवति, स्वेसु य वसणा दिक्षु मिक्खुकादीवि रुस्संति, गंधरसे उदाहरणं सोत्रमेव, खलदाणेणं खलभिक्खं तदूर्ण दिणं ण दिण्णं वा तेण विरुद्धो, सुरथालगत्ति थालगेण सुरा पिजति, तत्थ पडिवाडीए आवेवस्स वारो ण दिण्णो उढवित्तो वा तेण विरुद्धो, जंते लोग भणति-वारविरुद्धो, गाहावतीण वा गाहावतिपुचाण बा, सयमेव विस्ससा एका आलूणालूगाणि पगरणस्थाणि, उम्मग्गेण झामति, अण्णण वा झामावेति, झामिताई अणुजाणति सुठु तुमे शामिताइंति, एवं फासेवि, आहतो भरितो वा केणइ असुअणा खेलेणं उविद्वेण वा, से एगताओ घूराओ कप्पेइ, सालातो डहति, किंचि कुंडलसुवण्योति, जाणाइ, ताणि मेहलादीणि ताणि गहिताणि, मोत्तिए हरादि, एवं तहेव गिहाण विट्ठो, इमो अण्णो पासंडत्थाण दिद्विरागेणं वादे वा पराइत्तो सयमेव तेसि अण्णं किंचि णत्थि जं अस्थि ते अवहरति, तंजहा-दंडगं वा भंडगं वा जाव परिच्छेदनगं वा, सयमेव अवहरति जाव सादिजति, एवं ताव विराघिया गता, इमे अण्णे अविराहिता वुचंति सो एगतिओ वितिगिच्छादि, नेति प्रतिषेधे, वितिगिच्छा णाम विमर्शो मीमंसा इत्यर्थः, न विमर्शति न मीमांसइत्ति, इह परलोके वा दोषोऽस्ति नास्तीति वा, गाहावईण वा सयमेव अगणिकाएक सस्साई झामेइ, अण्योण या जाव समणाण वा दंडं अवहरिचए, एते ताव असंवृत्ता उक्ताः। सग्गेसु णरगेसु वा गिहत्थपासंडत्थेसु य दहणछेयणा [६४८६७४] [362] Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत अधर्मपक्षः सूत्रांक [१७-४३] दीप अनुक्रम [६४८ श्रीक्षत्रक- पहारवृत्ति इति । इदाणि दृष्टिविरुद्धा आगाढमिच्छादिट्ठिका बुचंति, सो एगतिओ समणं वा माहणं वा गाम घरं वा अतितो वा ताङ्गचूर्णिः अण्णत्थ वा कत्थई दुल्लभं दसणं अवसउणंति मण्णमाणो आसुरुचे रुढे अदुवा णं अच्छराए मझियारे रोसेण वा जाव भण्णति, ॥३५९॥ अच्छरा णाम चप्पुटिका, किं ज्ञापकं ?, तीहिं अच्छराणिवातेहिं तिसत्तखुत्तो एगाए अच्छराए अप्फोडेतित्ति, भिगुडी कुंचितनि डाला फिटफिट भणंति, अदुवा णं फरुसं भणंति, कालेवि सेजाति, मिक्खाकाले णो दवावेज्जा, जोषि देत्ति तंपि वारेइ, एवं च |णं वदति-जे इमे धुवणमंतति-धूयतेऽनेनेति धुवणं-कम्म तणकट्ठहारगादि, कर्महता, अशुभैर्वा प्रागुपचितैः पापकर्मभिर्हता पव्वयति, भारकंतत्ति कुटुम्बभरेण अकंता, ण तरंति, त एवं दृष्टयः असद्धानाः सद्धर्मप्रत्यनीकाः इणमेव धिज्जीवितं धिक् कुत्सायां अशोभनं जीवितं धिजीवितं इहलौकिकं, वृह वृद्धौ, संपडिहयंति संपडिहति न परलौकिकं किंचियि अत्थं, शिलप आलिINङ्गने, न श्लिष्यन्ति न साधयंतीत्यर्थः, इहलोकपरो दुक्खंति, दुक्खेहिं संजोएंति दुक्खंति जाव परितप्पंति. ते एतेसिं साधणं || | दुक्खणाणानो सोअणाणाओ जाब परितावणातो अप्पडिविरता भवति, ते पुण केइ इडिमंतो भयंति रायादिणो केयि अणिडिमंते, III इडिमते ताव भणति-ते महया आरभेणं परणिमित्तं चेव ताव इष्टकापाकादिष्वारंभो भवति जाव तसकायो पघिजति आहारनिमि-1 || तत्ति, खडगच्छगलमहिसमगरादिषु, पुढविदगअगणिवणस्सइकाइया वधिअंति, उक्तं च-"तणकट्ठगोमयनिस्सिता" सम्मत्तं छण्डं | | कायाणं आरभसमारंभे विरूवरूवेहिं पावकिचेहिं अण्णं दंडंति अण्णं बंधंति अण्णं रुंधति कारणा वित्तिहरणं करेंति, एवमादीहिं पावकम्मेहि धणं उवञ्जिणित्ता, बंधणाणुलोमता विभत्तिपदाति, कातुं किं करेंति ?, विउला माणुसा जाब भत्तारो भुंजितारो, भवंति, किमिति ते मुंजते ?, मुच्यते, अण्णं अण्णाकाले, सायं पायं च, पाणं उदगंमजं च, हातसमालद्वाणं चउत्थकालेणं गम्भवराणि, ६७४] ॥३५१ [363] Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति : [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत श्रीमत्रक- अधर्मपक्षा सूत्रांक ॥३६०|| [१७-४३] दीप अनुक्रम [६४८ साहणकाले सयणामणाणिति, यो वा यस्याभीष्टः कालविभागः, क्रीडा वेनराणां, विद्यते सो पुब्यो पुचण्हे अवरण्हे हाते कय- बलिकम्मे-अगणियं करेंति कुलदेवतादी काउं, आसीन्भयजोहारो, लोणादीणि च डहंति, मंगलाणि सिद्धत्थयाहरयालियादीणि से करेंति, सुवणमादीणि च छिति, पायच्छित्तं दुस्सुविणगपडिपाणिमित्तं धीयाराणं देति, सिरसि बहाते सिरहाईणि, ससीसो हाति, अविद्धिमाणि चूडामणिः गोवि सुषण्णण हेट्ठा पडिबज्झति, सुवण्णाभरणेसु प्रायेण मणीगो विजंति, कपितं घडितं, माला नक्खचमालादि, मौली मउडो, सो पुण कमलगुकुलसंवुत्तो मउली बुचति, तिहिं सिहरएहिं मउडो बुधति, चतुरसीहिं तिरीड, बग्यारियं लंबितं, ज्ञापकं 'आसत्त्वग्धारिय०' सोणि कडी, सोणिसुत्तगं कडिसुत्तकं, मालिनति, मलं सिरदामगंडादि, कलाति कलाची, कडाई मलगादीणि, पमतकूडाणिमा पासादे सत्तले वा, महउ चेव महतो, अक्खाणबद्धं गिजति, जह आडगं पवंचो. वा, तलगं ताडा, घणं लचगादी, णिरेत्तं वा, घणा वा मेहा, मेहा वेत्यर्थः, उरालाई-उरालाई, आस्यते अनेनेति आस्यक-मुखं तमेव कीड़तं, 'अणारिय'ति अण्णाणि मिच्छादिट्टी अचरित्री देवोऽयं पुरिसो, ण मणुस्लो, णरलोके जातो वसतित्ति वा तेण , हरदेवो, देवसिणाएत्ति स्नातकः श्रेष्ठदेवत्वे वसति इन्द्रतुल्यः, जलजोवसोभित इव सरो, संपुप्फफलो वा वणसंडो तदर्थिभिः उपजीवणिजो, अण्णेवि णं बहनश्च ये ह्याश्रिता अपरिभूता भवंति, तदेवं णाणादीआयरिया, अभिमुखं क्रान्तं, कूरादीणि हिंसादीणि, अमिधूणे धूयतेऽनेन तासु तासु गतिषु वाताहिं इव रेणू, धुणे कम्मंतेत्ति, तेहिं हिंसादीहिं कम्मे हिं, अपं रक्खंतीति आयरक्खो, दाहिणगामिएचि जे अतिक्रूरकम्मा भवसिद्धियावि ते प्रायेण दक्खिल्लेसु णरएसुवा मणुस्सेसु देवेसु य उववजंति, जस्स भवसिद्धीयस्स अवट्टो पोग्गलपरियट्टो सेसो अच्छति संसारस्स सुकपक्खिओ, अधिए कहपक्खिए, अभवसिद्धिया सव्वे ६७४] 11३६ [364] Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [१७-४३] दीप अनुक्रम [६४८ ६७४] AWWA श्रीवत्रकताङ्गचूर्णिः ॥३६१ ॥ “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-], निर्युक्ति: [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२ ], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: कण्हपक्खिया, आग मिस्साणं, तित्थगराणं, तत्थ णरगतो उपयट्टे समाणो जड़ कंहा माणुस्सं लभति तत्थवि दुलहबोधिए यावि भवति, तस्म द्वाणस्स इस्सरियङ्काणस्स, उडिदा णाम पव्वज्जाममुडाणेण ममुडिया, परे पासंडिया, तम्हा अभिज्झा लोभो प्रार्थनेत्यनर्थान्तरं, अणुद्विता गिहि एव, असन्यदुक्खपहीणमग्गे एंगंतमिच्छेत्ति एगंतमिच्छादिडी परिग्गही असोभे णाम असाहू । पदमस्स अधम्मपक्म्बस्स विभंगे आहिते (सूत्रं ३३) अहावरे दोचस्स धम्मपक्खस्स एवमाहिति (सूत्रं ३४) एवं तावत् अधम्मपक्खो वृत्तो, छायातपवत् शीतोष्णवत् जीवितमरणवत् सुखदुःखवद्वा, तत्प्रसिद्धये इदमुच्यते-से बेमि पाइ या संतेगतिया मणुस्सा भवंति, तंजहा-आयरिया बेगे, तेसिं च णं खेत्तवत्थूणि सो चेत्र पोंडरीयगमओ जाव सब्वदुक्खाए परिनिन्युडेति वेमि, एस ठाणे आरिए केवले जाव साधू, दोचस्स ठाणस्स विभंग एवमाहिए || अहावरे तचस्स ठाणस्स मीसगस्स विभंगे एवमाहिज्जति (सूत्रं ३५), अधम्मपक्खेण धम्मपक्खे संजुत्तो मीसगपक्खो भवति, तत्रधर्मो भूयानितिकृत्वा अधर्मपक्ख एव भवति, रिणे देशे वर्षनिपातयत्, अभिनवे धा पित्तोदये शर्कराक्षीरपानवत् अमेज्झ (सुद्ध)रसभाविते वा द्रव्ये क्षीरप्रपातवत् एवं तावन्मिथ्यादर्शनोपहतान्तरात्मानः यद्यपि किंचिद्विरमन्ते तथापि | मिथ्यादर्शनभूयस्त्वात् अविरतिभूयस्लाच धर्माननुबन्धाच अधर्मपक्ष एव भवति, जाब एलमूलताए पञ्चायति, एस ठाणे अणारिएं जाव असाधू, एस खलु तचस्स मीसगस्स अधम्मपक्खस्स विभने आहिते || अहावरे पदमस्त अधम्मपक्वस्स विभंगे एवमाहिते (सूत्रं ३६), अथाह - दप्रयोजनानामप्रयोगः ?, उच्यते, सत्यं, किन्तु यदत्र नापदिष्टं तदिहोच्यते, अधम्मपक्खे मीसओ य, उक्तं हि - 'पुव्त्रभणितं तु' इह विशेषोपलम्भो द्रष्टव्यः कथं ?, [365] साध्व साधुपक्षौ ॥३६१।। Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत असाधुगृहिपक्षा सूत्रांक ॥३६२॥ [१७-४३] दीप अनुक्रम [६४८६७४] श्रीसूत्रक- स एवाधों बहुप्रकारः अपदिश्यते, तकारणं कार्यवा, अधर्मफलं नरको एसत्ति, तत्र च पाषंडमिश्रा अधार्मिका उक्ता इह गृहस्थायेव वाङ्गचूणिः प्रायेणोच्यन्ते, अधार्मिकाणि कर्माणि प्रलोकयन्तीत्यतः अधम्मपलोइणो, रलयोरैक्यमिति, तत्रैव चाम्मिकेषु कर्मसु रज्जंति इति अधर्मपलज्जना 'जे रत्तए से लत्तए' बापकत्वात् , अधर्मसमुदायाचारात् अधर्मवित्तित्तिकट्टु वृत्यर्थमेव, हण छिन्द, हणचि कसलतादीहि, छिन्दनि कण्णणासोटुसीसादीणि, सोमपोट्टाई किंतति, बज्झे, जम्हा रौद्रा, आसुरा रौद्राणि हिंसादीनि कर्माणि करेंति रौद्राः, क्षुद्रो णाम असज्जनमहायो सोऽगिण मुंचति, असमीक्षितकारी साहस्सिओ, ण च मारेमाणस्स विकतीयाणस्स, णीलीरागरसेव णीलीए, एवं तस्म महिसमादी मत्ताणि, लोहियलित्ता पाणिनि लोहितपाणी, उक्तं च 'कुच कुंच कौटिल्ये उद्भायोलभावेषु, ईपत् कुंचनं आकुंचनं, जहा कोइ किंचि मृलाई भज्जति, एत्थ कोइ मानोन्मानविचक्षणः तिष्ठति, सो जाणति KA मा मब्बं छिज्जतं इमं दटुं आइक्खिस्सति एतस्स, राउले या कहेहिति तो उत्कंचेऊण अच्छति नाव सो बोलेइ, वंचु प्रलम्भने, बंचनं जहा अभयो धम्मच्छलेण वंचितो पजोतस्स संतियाहिं गणिआहि, मृगोऽपि मीतेण बंचिनति, अधिका कृतिनिकृतिः अत्युपचार इत्यर्थः, यथाप्रवृत्तस्योपचारात् तस्य निवृत्तिः, तथा अत्युपचारोऽपि दुष्टलक्षणमेव, जहा कत्तिओ सेट्ठी रायाणपण अत्युपचारेण गहितो, जं अलियं अगल बंजुल धम्मज्झयसीले सद्धिलक्खेहिं वीसंभकरणमधिकच्छलेहिं तं बात णिगडिति, देमभाषादिविपर्ययकरणं कपट, जहा आसाढभूतिणां आयरियउवज्झायसंघाड इल्लगाण अप्पणो य चचारि मोदगाणि, कालित्ता कूडकबडमेवं लोकसिद्धत्वाञ्च यथा कूटकापिणं कटमाणमिति, सातिपयोगवहला शोभाविशेषः सातिशयः न्यूनगुणानुभावस्य द्रव्यस्य यः सातिशयेण द्रव्येण सह संयोगः क्रियते सो सातिसंपयोगो, अगुणवतश्च गुणानुशमनं अगुणानां च गुणव [366] Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति : [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत असाधुगृहिपक्ष: सूत्रांक जिचूर्णिः [१७-४३] दीप अनुक्रम श्रीसत्रक- तीति, आह च-'सो होति सातिजोगो दव्यं जं उयहितऽण्णदब्वेसु । दोसगुणा बयणेसु य अत्थविसंवादणं कृणइ ॥१॥ एते पुण उत्कं- चणादयः सच्चे मायायाः पर्यायशब्दा यथेन्द्रशब्दस्य, शक्रपुरन्दरबत् एते शब्दाः, यद्यपि क्रियानिमित्तोऽभिधानभेदः उत्कंचना३६३॥ दीनां तथापि न मायामतिरिच्यन्ते, एवं जीवानिसूर्यचन्द्रमसां अभिधानभेदेनार्थभेदः, दुस्सीला दुधता दुष्ट शीलं येषां ते भवंति WI दुष्टशीलाः, परिजितावि सिप्पं विसंवदन्ति, दुरणुणेया दारुणखभावा इत्यर्थः, दुधानि ब्रतानि येपा ते भवंति दुव्वा तात्मा यथा ॥ यज्ञदीक्षितानां शिरोमुण्डनं अपहाणयं दम्भमयणं च एवमादीनि व्रतानि तथापि च छगलादीनि सत्ताणि घातयन्ति, आह हि'पट् शतानि नियुज्यंते०' टुणदि समृद्धौ, तस्यानन्दो भवति कश्चिदन्येन, यस्तु प्रत्यानन्दं करोति प्रतिपूजामीत्यर्थः, स तु गर्वात | कृतमत्वाद्वा नेनं प्रत्यानन्दति दुप्पडियाणंदा भवति, आह हि-"उपकर्तुमशक्तिष्टा, नराः पूर्वोपकारिणम् । दोपमुन्पाय गच्छति, मद्गूनामिव वायसाः ॥१॥ सबाओ पाणाइवाजोति जाव रहिता बंभा य, परिसंबंधादिपाणाइपातातोवि अप्पडिविरता, एवं मुसाबाता कूडसक्खियादि, तेणमहवासतेणादीन्यासाबहारा इस्थिवालतेणादी वा, मेहुणे अगम्मगमणादि, परिग्गहे जोणिपोसगादि, सध्याओ कोहाओ जाब मिच्छादसणं, मन्याओ पहाणुम्मण. काम पुष्कभंगितो वा मदिज्जति पच्छा पहाति, तथावि सव्याओ ण्डाणुम्मदण० पणएण उम्मदिज्जति तेण, अभंगणगं गहितं, वगणओ कुंकुमादि कसाया य, विलेवर्ण चंदणादि, सद्दादी | पंच विसया, तेहिंतो अपडिविरता, मल्लगंधं वा, एम व अलंकारो, अपणोवि वत्थालंकारादि, सबाओ आरंभसमारंभाओत्ति विभासा, सब्बाओ करणकारण सयं एतेसिं चेव जहोदिहाणं पाणाइवायादीणं अयोसि च सावजाणं कारावणाणुमण्णेहिं इस्सरादीणं, पयपापायणंति मांसादी, ईसरा अण्णेहि पायेति, सबाओ कोहणं कोई धरणं अहिमरणं वा घेत्तु पलं २ कोहेति पिटेति य, [६४८६७४] ॥३६३॥ [367] Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति : [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक असाधुगृहिपक्षः श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः ॥३६॥ [१७-४३] दीप अनुक्रम चंपकलनाकमवेत्तलतालउडादीहि तजेद, पातादीहिं तालेति, नलपहारा खीलपण्हिमादीहिं एस बद्धो मारेति या बंधति व णंगलादीहिं, एतेहिं चेव परिकिलेसं करेंति, अण्णेहि अ करदंडादीहिं किलेसेहि किलेसेइ, परं जे आवडण्णे तहप्पगारा केत्तिया चुचंति ?, गोगहणवंदिगहणादओ, दोहणा गावधमामधातमहासमरसंगामादीहिं, सावजा अयोधिकरा कम्मजोगा कम्मंता इह परत्र वा परेपा प्राणा-आयुःप्राणादि परेपां प्राणा परिताति, दृष्टान्तः कियते निर्दयत्वे तेषां, से जहाणामए केयि पुरिसे कलम मसूर लूणतो वा मलेंतो वा मुसलेण वा उक्खले कोईतो रेनो वा ण तेसु दयं करेति, अजए अयते, कूरो निघृणः, मिच्छादंडेत्ति अण्णविरुद्धो कुरो, एवमेव तहापगारति तीसे दयासु णिरवेक्खो णियो, मिच्छादंडे पउंजंति जा व से तत्थ बाहिरिया परिसा भवति तंजहा-दासेत्ति वा अदासो दासवत् तेसु तेसु पेसणेसु णियुजंति परगाउलग्गादी, भत्तओघि वित्तीए घेप्पति भाइलो, कम्मकारका जे लोगं उबजीतित्ति घरकम्मपाणाइवहादीहिं, तेऽवि राउले विटिकारा विजंति, तेसिपि य णं अण्णातरंसि लहुए। लहुमओ काईआणित्तिया ण करेति(ना) तत्थ रुट्ठो गुरुं, मझवाझं इमं दमेह कंठं, प्रायेण णिगलबंधणो हडिबंधणादिणा विवरण करेति, जहा'मालवाण, पदोसा या २ पदाहित्ति, जामकुणपिसुादीहिं जत्थ बद्धो चारिजति सो चारओ, अण्णो पूण चारए छ णिगलेहिं दोहि तिहि वा सत्तहिं णिगलिजोएहि यज्झति, संकोडितमोडितो णाम जो हत्येसु अ पादेसु अ गलए बज्झति, चारए अण्णत्थ वा सो जमलणिगलसंकोडितमोडितो, इमं हत्थच्छिष्णं करेह, एको वा, हत्था छिअंति, एवं पादावि, घोरादीणं कण्णणकोडे, चारितदुताणं विरुद्धरजसंचारिणां च छिजंति, इत्थीणं वा सीसं, अहिमराचरियाणं मुखे मज्झे छिजति असिमादीहि, गच्छओ खंधे आहेतूण वभसुत्तएण छिजंति, जीवंतस्सेव हियए उप्पाडेति पुरोहितादि जाब जिन्भा, गोलंयि कूचे पच्च- ANSARITAINMSTONE पाया [६४८६७४] ॥३४॥ [368] Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक ॥३६५।। [१७-४३] दीप अनुक्रम [६४८ श्रीसूत्रक 10 तणदितडिमादिसु वा ओल्लंबिज्जति, रुक्खि जीवन्तो मारेतुं, मूलाइतओ मलाए पोइजति, अवाणे मूल छोरण मुहेण णिकालि-10 MO अति, मूलंभिष्णो मज्झे सलाए भिंजते, सत्येणं कप्पेतुं लोणखारादीहिं सिंचिजति, बद्धा अबकप्पिजंति, पारदारिया सीहपुच्छि जंति, सीहो सीहीए समं ताव लग्गओ अच्छति जाव स्थामिगाणं दोहवि कईताणं छिण्णणेता भवति, एवं कस्सइ पूत्तगा छेतुं अप्पणए मुहे छिज्जति, कडएण वेदितुं पलाविज्ञति कडग्गिडडओ, कागिणिमंसं कागणिमे ताई से साई मंसाई कप्पेतं खाविअंति.। अण्णतरेणंति जेण अण्णो ण भणिता सुमिगमिपागादि कुत्सितामाराः, एवं ताव बाहिरपुरिसागं दंडं करेइ, जाबि से अम्भितरपरिसा भवति, तंजहा-माताइ पा०, तेसिपि आहालहुएत्ति वयणं वा ण क उपक्खेयो, कोड णासिओ हारितो मिन्नो वा इमंसि उदएण सिंचह जहा मिचदोमयत्तिए जाय अहिने परलोयंसि, एवं ताव बाहिरपरिसाए या अब्भनरपरिमाए वा ते दुक्खेति जाव परितावेति, दुक्खाओ जाव अपडिविरता भवंति, ते पुण किं णु एवं करेंति ?, कामवनगा, ते य इमे छेदिणो, तेन उच्यते-एचामेव ते इत्थी कामभोगेसु मुन्छिता जावं यामाई भुंजितुं भोगा पसवितुं वेरायतणाई, कम्मं चेव, बहूणि अट्टकम्माणि सुबहुकालद्वितीयाई उस्सLA पर्णति अणेकसो एकेक पावायतणं जहादिढ हिसादि आयरति, संभारो णाम गुरुत्तर्ण, गर्हितो, से जहाणामए, अयं हि पात्रि-1 कृतं तरति, सिला वा विच्छिण्णत्तणेण चिरस्म णिच्छुत, गोलओ पुण खिप्पं णिबुड्डति, एवामेव तहप्पगारं वज्जबहुले, 'पावे | रज्जे वेरे०' गांधा, अयसोति एतेहि चेव जहुद्दिडेहि, उत्कंचर्णवेचणादीहि सहयासद्रोहादीहिं अगम्मगमणेहि य अयसो होति, M जेसि च नाई बचणहरणकण्णाछेदणमारणादिकरणादि तेसि अग्पिर्य होति, कालमासे 'णिचंधकार०' अगंधमप्यधीकुर्वन्तीति, | अण्णोविं णाम अंधकारी भवतीति, अपगासेसु गम्भबरोबरगादीसु, ते पुण जचंधमेव, मेहन्छण्णकालद्धरत्त इव तमसा उजोतकरा ६७४] ३६५।। [369] Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति : [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१७-४३] दीप अनुक्रम श्रीमत्र- भाषाच, तमसातो वा, जोतकरा ज्योतिष्का एवोच्यन्ते, ववगतगहचंद, रोप्पणं च छिन्दिचाणं सरीरावयवेहिं मेदवसा काओ, साधुम्माताङ्गन्चूर्णिः वको किण्हअगणि लोहे धम्ममाणे कालिया अग्गिजाला णिन्ति तारिसो तेहिं वणो, फासा य उसिणवेदणाणं कक्खडफासा, से जहाणामए केइ असिपत्तेति वा, दुक्ख अधियासिज्जति दुरधियासा, असुभा णरगा, असुभा दरिसोण सदगंधफरिसेण वा, वेदणाओवि असुभा, णो चेव णिदाति बा, गिद्दा पसुहितस्स होति, निद्रा च विस्सावणा इतिकृत्या, तेग णस्थि, तं उज्जलं जाव वेदंति, एस ताव अयगोलदिटुंतो, गुरुगं आगंतुणत्थाकारा, इमो अण्णो रुक्खदिट्ठतो सिग्धपडणत्थं कीरति-से जहाणामए केयि रुक्खे सिया पचयग्गे जाते (सूत्रं ३८), एवामेव कालसमए सिग्छ गरएसूबवज्जंति, ततो उन्धट्टे गम्भवतिएसु तिरियमणुएसु कम्मभूमगसंखेजवासाउएसु उववञ्जति, ततो भुजो गम्भाओ गभं जाव णरगाओ णरगंदाहिणगामिए जाव दुल्लभवोधिए एतस्स ठाणस्म, तस्स हाणे अणारिए, पढमस्स ह्याणस्स अधम्मपक्खस्स विभंगे आहिते ॥ 17 अहाबरे दोचस्स ढाणस्स धम्मपक्खस्स विभंगे आहिजति (सूत्रं ३९), इह खलु पाईणं वा ४ संतेगतिया मणुस्सा भवंति, अणारभा अपरिग्गहा धम्मिया धम्मिट्ठा जाब विहरति, सुसीला सुचया उचंचगपडिविरता जावजीवाए सवाओ पाणाइवायाओ पडिविरता जावजीवाए जे आवण्णे तहप्पगारा, उक्ता विरतिप्रकाराः, के च ते विरताः', उच्यते, से जहाणामए केडी V पुरिसे अणमारा ईरियासमिता जाव सुहुत०, नस्थि तेसिं जाब विप्पमुक्का, तेसि णं भगवंताणं एतेणं विहारेगं विहरतार्ण जातामाताविती होत्था, यात्रामात्रा यया साध्यते, अक्खोवंजणवणाणुलेवणभूता, अथवा अर्चयन्ति तामित्यर्चा-शरीरं, एको जेसिंग गम्भो शरीर वा, गतिकल्लाणा कल्लाणगती अणुत्तरोवयाइएसु वेमाणिएसुवा, इन्द्रसामानिकत्रायविंशलोकपालपरिषदात्मरक्षप्रकी [६४८६७४] [370] Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति : [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: साधुम्मा प्रत चको सूत्रांक [१७-४३] दीप अनुक्रम [६४८६७४] र्ण केषु न स्वाभियोग्यकिल्विपिककान्दर्षिकए, द्वितिकल्लाणेनि उकोसिया द्विती अजहण्णमणुकोसा वा, आगमेसिभदेति आगमेसे श्रीसूत्रकताङ्गचूणिः भवग्रहणे सिझति, एस द्वाणे आरिए, एस खलु दोचस्स ट्ठाणस्स धम्मपक्वस विभंगे आहिते ॥ अहावरे तबस्स धम्म॥३६७|| पक्खस्स मीसगस्स विभंगे (सूत्रं ४०), धम्मो बहुओ अधम्मो थोवतिकाउं, तेण अधम्ममीसओवि एस पक्खो अंततो धम्मपक्खे चेव णियडिति, को दिटुंतो?, जहा णदीए के पुरिसे हायति, केइ पुत्ताई सोयंति कड असुईणिवि मुहाई पक्खालेंति, KE गोमाहिसकं च छगणमुत्तुस्सगं करेंति, तहाचि तं उदगं बहुगत्तणेण ण विस्सीभवति, कलुमीतपि पसादति, जहा तु बहुगेण | सीतोदएण थोवं उसिणोदगं सीतीकजति, एवं साबगाणं बहुअसंजमेणं. थोवो असंजमो खबिजति, उक्तं च-'सम्मदिट्ठी जीवो.' जपि य तंपि य संपदी वक्ष्यमाणमपि च, ते बहु अबरा जीवा जेसु सावगस्स पच्चक्खायं भवति, ते य इमे, तंजहा-पाईणं वा ४ संतगतिया मणुस्मा अप्पिच्छा अप्पारभा अप्पपरिगहा घम्मिया जाब वित्ति कप्पेमाणा सुसीला एगातो पाणाइवायाओ पडिविरता जावजीवाए एगचातो अप्पडिविरता, एगिदिएसु अप्पडिविरया जावजयावण्यो तहप्पगारा, एगता. ततोविमे से जहाणामए ममणोवामगा भवंति, उपासंति तत्वज्ञानार्थमित्युपामकाः, अधिगतजीवाजीवाः अभिगमउपलभकुशलादयः शब्दाः ज्ञानार्थाः अन्यान्येन त्वमिधानेनाभिधीयमानः बोधं मानमप्रमादमुत्पादयति, किरियति वा एगहुँ, अधिक्रियत इति अधिकरणं जीवमजीवं च, क्रियाहिकरणेण य कम्मं बल्झतित्ति बुच्चइ, कुशला, जेण बंधो मोक्खिजति सो बन्धमोक्खो, असहेजा असंहरणिज्ञा, जहा नातेहि मेरु, न तु जहा बातप्पडागाणि सकांत विष्परिणावेत, देवेहिवि, किं पुण माणुसेहिं ?, अणतिकमणिजत्ति जहा कस्सह सुमीलस्स गुरू अणतिकमणिजे एवं सिं अरहंता साधुणो सीलाई वा अणतिकमणिजाई, णिस्संकिताई, ते पुण किह अतिकमि LanSMARATTIMITATEDERATIMIRE ।।३६७॥ [371] Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१७-४३] दीप अनुक्रम [६४८ श्रीसूत्रक- जति ?, संकादीहिं दोसेहिं अत एवोच्यते पिस्संकिता णिकंखियादि, लट्ठा, जहा कोइ अस्थत्थी तं जहा तहा पञ्जतं अस्थं साधुम्माताङ्गचूणि वको लधु तुट्ठो भवति एवं तेऽवि जिणवयणलबुट्ठा एव तुट्ठा, गृहीतप्रवचनार्थाः ये ते भवंति, पुटुं२ गहितो पुच्छितट्ठा, विनिश्चितो ॥३६८॥ निर्नीतः, अट्टर्मिज० अट्ठियाईपि भाषेत जाव मिजत्ति मजा वुचति, जस्स रोगेण तयं आदिकाउंजाब मज्जा भाविता सो IA दुधिकिच्छो भवति एवं ते, आमज्जाइ वा भाविता, यथा सो परिवायगो, गिहे मिक्खं हिंडतो जा से महिला रुचति तं त | विजाए अभिजोएतु एकाए गुहाए छोढुं, विज्जावातियो इरतित्तिकाउं पडियरावितो, पुरिमो य भत्तगंधादि परिगिणेन्तो पंथोलिआहितियाए पडियरितु तेहिं पविसितुं जुझंतो मारितो, ताओ अ महिलाओ जा जस्स सा तस्स दिना, सा य इका इन्भ महिला अमिजोइ निझाया पति णेच्छड, जाणगा पुच्छिता भणंति-जति से परिवायगअट्ठीणि घसितुं खीरेण दिजंति तीसे अपेमझतीए तो, नवि, वरतेहिं तस्स अपेक्खंतस्स घसितुं २ खीरेण सह काढेत्तुं पाइता, जहा २ पाइजति तहा २ तंमि पुरिसे पेम्म ||FA AW आरंभति, सम्बेसु घटेसु पीतेसु य जहा, परिवाए अणुरत्ता जहा मा तम्मि परित्याए अद्विसेसेवि ण विरजति एवं सावओऽवि || चेतिएसु साधूसु अ अणुरत्तो जइचि किंचि लिंगत्थं वा पासत्थं वा उडाहं करेंतो पासति तहावि पुरिसदोसोत्तिकाउंणवि पवIMA यणातो विरजति, उपमा, एकदेरोन दृष्टान्त इतिकृत्वा, जहा सा तंमि परिब्धायगे रत्ता एवं पवयणाणुरागो सो अट्टमिंजपेम्मा -णुरागरत्तो, जतिवि केण विप्परिणामेति जइणपवयणातो-किं तुझे एत्थ दिट्ठति ?, तहावि भणति भणतं-अयमाउसे! हे आयुप्मन् ! णिग्गंथे पावयणे अड्डे परसढे सेसे अणद्वेत्ति, तिष्णि तिसट्ठाई पावाइयमयाई अण्णो, जस्स बि कस्सवि धम्मं कहेति तंपि भणति-अयमाउसो! जाव अद्वे सेसेसु भणढे, तेण गेण्ड, ओसितफलह० अर्थगुनदु. किं कारणं पिहितुभिण्णे कवाडेत्ति ?, ॥३६॥ ६७४] [372] Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [१७-४३] दीप अनुक्रम [६४८ ६७४] श्रीसूत्रताङ्गचूर्णिः ॥ ३६९ ॥ “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-], निर्युक्ति: [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता... आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: ण वट्ट उग्वाडेतुं उघाडे कवाडे वा पेलेतुं उक्तं च- 'कवाडं णो पगोलेज' पचिसंतो नियंतो अ लोगो मा णिचं संवरादिणा थिरादि विराहेहित्ति ते णिचमेव फलिहं उस्साएतुं अग्गदार कोडुगपमुहे अ कवाडं विराहेतुं अभंगुयदारं अच्छंति, चियत्ततेडर० | अंतेउरं घरे अणिडिमंताणं जड़वि इत्थिआओ अच्छंति तत्थवि णं चरेति, जात्र एसो ठाति तत्थेसणं सोधेति, कस्सइ महिडियस्स अंतेपुरं भवति, तंपि तेण अणुण्णाता पविसितुं भावेंति, एप तावत् दर्शनसंपदुक्ता । इदाणिं सीलसंपत्प्रसिद्धये इदमपदिश्यतेचाउदसमुद्दिपुण्णमासिए पवं मासस्स अट्ठमि पक्खस्स उदिडा-अमावसा पुनि मा इति चन्द्रमाः पूर्णमासः स्यात् सेयं पूर्णिमा, पडिपुण्णं पोमहंति- आहारपोमहाहि ४ पोसहिओ पारणं अवस्सं साधूण निक्खं दाऊण पारेति तेनोच्यते समणे निग्गंथे फागुएसणिअं असणं वा ४ पंडि० बासारने पीढफलगे पडिला भेमाणा विहरंति । इदाणिं सच्चो सावगधम्मो समाणि| जति बहुसीलवान् सीलाई सत्त सिक्खाबदाई वयाई अणुच्चताई, विहर, वेरमणं सद्दादिविषयेषु जहासत्तीए वेरमण करेंति, अथवा वेति वा वांति वा वेरमणंति वा एगहूं, पच्चक्खाणं, उत्तरगुणे दिने २ पुत्रहेऽवरण्हे, पोमदं सरीरमकारवंभचेर, अथवा अवरो वा तिविहो आहारपरिचाओ उबवासो, अप्पाणं भावेमाणा अण्णसिं च साधुधम्मं च कहेमाणा एकारस उवासग पडिमाओ फासेमाणा विहरति । इदाणिं संणिकासो कीरति, जम्दा अभिगतजीवाजीवाः उबलद्वपुण्ण जाव मोक्खकुसला तम्हा असं० जम्हा | देवासुरादिसु अणतिकमिज्जा य पत्रयणातो जम्हा तम्हा णी संकिता दि जाव अभिगतड्डा, अथवा गतप्रत्यागतिलक्षणं क्रियते जम्हा पिस्सं० जहा (तम्हा असहेजा ) जम्हा असंजदा तम्हा णिस्संकितादि, एवं जम्हा णिस्संकितादि तम्हा णिकंखिता, एकेक पदं छड़तेहिं | एक्केवार भगतेहिं जाव जम्हा अभिगता तम्हा अभिजा जाय रचा तम्हा परेण पुड्डा व अपुट्ठा या वदंति -अयमाउसो ! णिग्गंथे [373] ॥२१८॥ अहिंसास्थापना ॥ ३६९।। Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [१७-४३] दीप अनुक्रम [६४८ ६७४] श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णि ॥ ३७० ॥ “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-], निर्युक्ति: [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: पावणे असे अणट्टे, जम्हा य एवं प्रतिपद्यन्ते तम्हा उसितफलिदा जाव पवेसा, जम्हा एवं तम्हा चाउदसमीसु, तम्हा पारण समणे णिग्गंधे, तेणं एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणा बहूणि चासाणि प्राप्नुवंति पाउणति, पाउणता प्राप्य, इदाणि अंतिमं संलेक्षणः वृच्चति-अबाहंसि अत्यर्थं बाधा आबाधा जरा रोगो वा, साधुसमीवे वा आलोइयपडिकंता साधुलिंगं घेतु संथारसमणा दब्भसंचारगता सव्वासंभविष्यमुक्का बहूणि भत्ताणि० कालमासे कालं किच्चा अण्णतरेसु देतेसु देवमहड्डिएस उबवत्तारो, ते णं तस्थ मडिया हारवि० गतिकल्लाणा जाव बावीसं सागरोचमाई, आगमेसिभद्दा एगगन्भवसचीया चरितं प्राप्य सिध्यन्ति, उकोसेण वा अभवग्गणाणि गतुं सिज्झति, एसड्डाणे कल्लाणे परपरएणं सुहृविवागोत्तिकाऊणं आयरिए केवले, तत्र तचस्म मीसगस्स धम्मपक्खस्स आहिते ।। एवं भणिता अधम्मपक्खा, तप्पडिपक्खा य धम्मपक्खा, उभयसंजोगेण य मीसपक्खा, तेसिं सव्वैसिं इदाणि संखेवेणं पडिममणेणं कीरति जे ते अधम्मपक्खस्मिता धम्मपक्खस्मिता मीसगक्खसिया य सव्वेऽवि वाला पंडिता बालपंडिताय भवंति के तेत्ति १, सुत्तेण चैव वक्खाणं, अविरतिं पच वाले विरतिं पहुच पंडिते थे, विरताविरति पहुच बालपंडितेय, तत्थ जा सा सन्तो अविरती एम द्वाणे आरंभट्टाणे, आरभो असंजमो अविरती वा एगड्डा, तत्थ जा सा विरती एम हाणे अणारभट्ठाणे संयमस्थानमित्यर्थः, तत्थ जा सा अविरतविरती एस द्वाणे आरमाणारंभडाणे, जेण परिमियं अवति तेण आरंभडाणे, णिच्छय सुतिकाउं तित्थगरोवदेमो य, तेणारिए केवले एवं ताव मो बहुविधो अधम्मक्खो यतिसु सु अविरतीए संखेवितुं समोआरितो यथा 'जीर्णेऽभोजनमात्रेयः' एवमेष संक्षेपः, पुनरपि संक्षिप्यमाणः दोसु द्वाणेसु समोतरंति यदपदिइयते एवं समणुगममाणा (सूत्रं ४१ ), सम्यग्गमना गत्यर्था धातवो ज्ञानार्था इतिकृत्वा सम्यगनुगम्यमानाः सम्यगनु [374] श्रमणोपासका ॥ ३७० ॥ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत श्रीसूत्र सूत्रांक वाङ्गचूर्णिः ॥३७१॥ [१७-४३] दीप अनुक्रम [६४८६७४] | चिन्त्यमानाः इत्यर्थः, 'समणुगाहमाण'नि अनु पश्चाद्रावे यदा ग्राहितः कश्चित् तानेवार्थानन्यान् ग्राहयति यदा तेऽर्थाः कर्म D. अहिंसासंपयते तदा उच्यते तेऽर्थाः समनुगम्यमाणाः, इमेहिं दोहिं ठाणेहिं पृथ्वुद्दिडेहिं समोतरंति, तंजहा-धम्मे य अधम्मे उवसंते ५ || स्थापना अणुवसते य, तत्थ णं जे से पढमस्स अधम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिते तस्य प्रादेशकानि कारणानि च इमाई तिणि तेवढाई आदौ ता बदनसीला पायाइया, शास्तार इत्यर्थः, तच्छिप्पास्तु भृशं वदंतीति प्रावादुकाः, तेण समासेण चउसु हाणेसु समो० किरियावादी अकिरियावादी वेणइयवादी अण्णाणियवादी, आह-किमर्थमेतानि तिपिण तिमहाणि प्रवृत्तानि ?, उच्यते-यथैव वयं । कर्मक्षपणार्थमुत्थिताः एवं सिद्धि प्रार्थयमानाः एवं तेऽवि स्वच्छन्द विकल्पैः संसाराभावं केशामा वेच्छन्त्यतोऽपदिश्यते-तेऽपि णियाणमाईस, तेऽवि पलिमोक्खमाहसु, तत्र येषां तावदात्मा नास्ति, केचिच सन्प्रकारेण कर्मसंतति नेच्छति, ते बंधामावा केवलमेव कर्मसंततेरुच्छेदात् न निर्वाणमिच्छति, आह हि-'कर्म चास्ति' कर्तुरमावे को बध्यते मुच्यते वा ?, केवलमुपादानक्षयात प्रदीपयत् ते लवन्त्युपादानक्षयानिर्वाणं, एवं कम्मोपादानक्षयादनागतानुपपत्तेष संततेरभावो भवति, सतत्यमाव एवं च मोक्षः, आह च-'अर्थोऽप्यनागतस्येव, थेपामात्मा न विद्यते' माख्यादीनां तेऽवि अपलिभोक्खं मन्यो मोक्खोपडिमोक्खो, आह हि-'प्रकृतिविकारविमोक्षो मोक्षः कस्य :-क्षेत्रज्ञस्य विद्यमानस्य, विद्यमानैव च प्रकृतिविकारानान्मोक्षो भवति, अपिच-'शाप्ता. | नामुपयोगः वैशेषिकानामपि विद्यमान एव पट्चक्रो मुच्यते, एवमन्येऽपि स्वच्छन्द विकल्पः संमागभावमिच्छंतोऽपि न मुच्यन्ते, आह-जइ संमाराओ न मुचंति ण वा मोएति किं खलु लोगो ते सरणं पञ्जयति ?, उच्यते, मिच्छनाणुभावत्ति, तेपि लवंति सावगा, कूटपण्यग्राहयत् तेऽवि मायइत्तारो, आश्रवत् आध्रुवोणमित्यर्थः यः शुश्रूपयन् श्रावयति समापइनारो भाति । एवं ताव आदि. ॥३७१श CE HE [375] Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [१७-४३] दीप अनुक्रम [६४८ ६७४] श्रीसूत्रताङ्गचूर्णि : ॥ ३७२ ॥ “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-], निर्युक्ति: [ १६६-१६८ ], मूलं [ १७-४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०२ ], अंग सूत्र- [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: तीर्थकराः कपिलादयः सावए लवंति, तच्छिष्याच पारम्पर्येण मिथ्यादर्शनानुभावादेव तेवि लवंति सायंति सावतारो यावदद्यापि विपयानुकूलं धम्मं देशमाणाः, उक्तं हि "भववीज०" जह 'गन्तुमशकुवन्नुवास' तथा 'निरवग्रहमुक्तः' तथा बहुएहिं अभिसेएणं, आह-कथं तानि तिष्ण सयाणि तिसङ्काणि मिच्छावादीणि १, उच्यते, ये हिंसागुपदिशंति, ण हु तेण मोक्खो भवति, ते तावत् अवत्थं चैव, जेवि मोक्खवादी अहम्मं पसंसंति मोक्खस्स पढमगंति, यथा सांख्यानां पञ्च यमाः शाक्यानामपि दश कुशलाः कर्मपथाः, तत्राहिंसा मान्या, न चाहिंसा तेषां गरियो धर्मसाधनं, कथं १, सांख्यानां तावज्ज्ञानादेव मोक्षः, आह हि - 'एवं तच्च भाषा' वैशेषिकानामपि 'अमिसेचनोपवासत्रह्मचर्य गुरुकुलवास प्रस्थादानयज्ञादिनक्षत्रमत्रकालनियमा दृष्टाः तत्र तत्र हिंसैब, वैदिकानां न गरीयसी यज्ञोपदेशात् उक्तं हि 'ध्रुवं प्राणिवधो यज्ञे० ' शाक्यानामपि सत्यं गरीयो धर्म्ममाधनं, कथं १, कोऽपि भिक्खुएहिं भणितो- सिक्खावतं गेण्ड, तेण मुसावादवआई गहिआइ, ते घेत्तुं च भंजति, भजतो बुत्तो कीस मंजसि १, सो भणति मुसावादवेरमणं मए ण गहितं, तरणं सब्बं अलिंयं चैव, एवं तेसिं अहिंसा सीलंगा, कथं कृत्वा ?, क्लसच्यादिति हेतुः ते चैव पावादिया अप्पामाणेण दिहंतो कीरति । ते सव्वे पावाउया० (सूत्रं ४२), प्रवदनशीलाः प्रा० आदिकरा धम्माणं, असम्भा चपडूषणाए एतेसिं तित्थगराणं तच्छासनप्रतिपन्ना वा णाणापण्णा जाव णाणारंभा, अधाभावेन केणइ कारणेण धम्मपरिक्खण दुवणावावारेण अण्णमण्णाई धम्मसाधनाई मणिलियाई, भगमाना अहिंसमत्रमण्णमाणा अणिजएण चैव करणएण अहेतुकामेण एगड्डा, मेलेतुं भणिता, मंडलिबंधं काउं चिड्डा, जहा दोणि बाहाओ आकुंचिताओ, अग्गहत्थेहिं मेल्लिताओं यथा भवंति, लोए अब मंडलंत बुचति, मंडलवाहाई मंडलवाहाए व तेसि मंडलिआए जहा परिएणाएते चैव णिवेसिता, एते विचिन्तेति कुरो [376] अहिंसा स्थापना ॥ ३७२ ॥ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति : [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१७-४३] दीप अनुक्रम [६४८६७४] श्रीसूत्रक- लब्भतित्ति उपविट्ठा जाब पुरिसो सागणियाणं इंगालाणं हिलिहिलेन्ताणं पाति, पतंति तस्यामिति पात्री-कुंमिया लोहमयी ताम्र- आहार निक्षेप: गिचूणिः । मयी वा, सा छुभंतेहिं चेव अंगारेहि तलिणतणेण अग्गितुल्लतला भाति, तं अयोमएण संडासएण गहाय जेणेच ते पावाइया ॥३७३|| तेणेव उवागच्छति, ते पावातिए एवं पदासी-हंभो पावाइया! आदिकरा धम्माण इमं सागणिं पातिं मुहुर्त २, यीप्सेणेके भणति, मुहुत्तमेतं धरेह, णो संडासरण घेत्तुं अण्णस्स हत्थे दातव्या, पविहिता णो अग्गिभग विजाए आदिचमतेहिं अग्गी थंमिजइ, | मावम्मियवेयावडिएण पासंडियस्म थमेति, परपासंडितस्सवि परिचएण थंभेइ, उज्जुकडा दन्बुजुगा उज्जुगा, पडिवाडिए ठिता। भवेजहत्ति, णियगं २ धन्म पडिवण्णा सत्यलोपनेत्यर्थः, अमायं कुव्यमाणा, वक्ष्यति माया अग्गिथंभणादि, णिकायणं पडिवण्णा | मणिकायपडिवण्णा सबहसाविता इत्यर्थः, सबहेहिं पंच महापातगा गोभणिरिसिभ्रूणगामादीहि, एवं ताव तित्थगरा तस्सीसा चेव महापातगाहि, सब्यधा खसमयसिद्ध्या च खतीर्थकराणा पाएसु इति बुच्चा-एवं णिकाएतुं तेसिं पावातियाणं तं पाति सइंगालं. संडासेण णिसरति, नागार्जुनीयास्तु 'अओमएण संडासरण गहाय इंगाले णिसरति,' तते णं ते पावातिया आदिकरा धम्माण | मा डज्झीहामोत्तिकाउं पाणि पडिसाहरति, ततेणं से पुरिसे ते पावातिए एवं वदासी-हंभो पावादिया! आदिकरा कम्हा पाणि णो | पसारेह ?, ते भणंति-पाणी डोज, सो भणति-जिणवयणाकोविदा! पाणिमि दड़े किं भवति, ते भीता भणति-दुक्खं भवति, | सो पडिभणइ-इमं दुक्खं भवति, जति अ दुक्खं मण्णमाणा पाणी ण पसारेह, णणु अत्ताणुमाणेण येव एस तुलत्ति, समभारा जहा एकतो २ णयति, एवं जहा तुझं दुक्खं ण पियं एवं सधजीवाणं दुक्खमणिटुं, पमाणमिति तुझेन पमाणं, साक्षिण इत्यर्थः, | जह कस्सइ सुहमणिई, दुक्खं वा पियं, उक्तं हि-'वस्त्रादिमिश्वेदिह नामावेष्यन् , प्रच्छादितः काममसौ भ्रमोऽयं । त्वमेव साक्षी | ॥३७३|| [377] Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-1, नियुक्ति: [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत आहार सूत्रांक श्रीसूत्रताङ्गचूर्णिः ॥३७४॥ निक्षेप [१७-४३] दीप अनुक्रम सहजातरूपे, यद्यत्र रागे प्रणयोऽभविष्यत् ॥१॥ सम्वेसि जीवाणं एत्थ सुहदुक्खे तुल्ले सम्यक् अवसरणमिति तुल्योऽर्थः, ण कत्थइ सुमई, पत्तेयं तुला, एकैकं प्रति प्रत्येकं, प्रत्येकमिति एकेकस्त जीवस्स तुला, सुहग्रियाणां दुःखोद्वेगिणां च, तहेव एक्केकपमाणं समोसरणं च कीरति, एष दृष्टान्तः अयमर्थोपनयः, तत्थ जे ते समणमाहणा एतं सुहृदुक्खं तुल्लं, अत्तपरगति तुल्लमजाणंता भणंति-सब्वे पाणा हंतव्वा० उद्दवेतन्या, कहं च णं भंते ! हंतव्या ?, उच्यते-उद्देसिकादि अनुजानते तेहिं सम्वेहि पाणा इंतवा उबद्दवेतब्वा हि अणुण्णाता भवंति, उक्तं हि-तमथावराण.' तम्हा उद्देसियाणं भुजो, अथैपामेवोदेशिकादि अनुमन्यमानानांच को दोपः ?, उच्यते, अनिर्मोक्षः, अमुच्यमानाश्च चातुरंते संसारकतारे आगच्छंति छेदाण, यथा ग्रामाय गच्छति, एवं आगंतारो, देसच्छेदो हत्यच्छेदादि, मब्बच्छेदो सीमादि, जाव कलंकलिभावभागिणो भविस्संति । किंचान्यत-चहणं नज्जणाणं जाव आभागीभविस्संति, अणादीयं च णं जाव अणुपरियट्टिस्संति, ते णो सिजिझस्संति, जेसिं तुल्ला जे पुण अत्तोवमेण सधजीवेहिं तुल्ला सुहदुस्खतुल्ला, णस्थि तहा माणं सरणं, पत्तेयं तुल्ला ३ एवं मण्णमाणातत्थ जे ते समणा मारणा एबमाइक्खंति सव्वे पाणान इतन्या तचाईता, एवं उद्देशिकादिविवक्षिणो ते णो आगंतुगा च्छेदाए, तं चेव पडिलोमं जाव सयदुक्खाण अंतं करेस्संति । भणियाणि किरियाहाणाणि, एत्थ पुण पडिसमणेणं कीरति-इरियावहियायचा वारस किरियाट्ठाणा अधम्मपक्खेऽणुवममे समोतारिजंति, तेण बुश्चति-इचेतेसु वारससु किरियाहाणेसु चट्टमाणा जीवा (सूत्रं ४३), अतीतकाले गोवि सिझसुत्ति, संपयं काले णोवि सिज्झति, एवं अणागते णोवि सिज्झिस्संति, तेरसमे किरियाहाणे यमाणा सिझंसु इचाइ, एवं सो भिक्खू जो पोंडरीए वृत्तो किरियाट्ठाणवज्ञभो अधम्मपक्खअणुवममत्राओ य किरियाट्ठाण सेवी धम्मपक्सट्ठितो उनसंनो आयट्ठी जो अप्पाणं रखति [६४८६७४] ॥३७॥ [378] Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति : [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१७-४३] दीप अनुक्रम [६४८६७४] आहारश्रीसूत्र- जतो आयरक्खिओ भवति आत्मवान् , लोकेऽपि वेद्यते, अरक्खंतो अनात्मवान् , अथवा अपएण से अट्ठो आयट्ठी, अप्पणो हितो निक्षेपः वाचूर्णिः | इह परत्थ य लोए, चोरादी दोसुवि लोपसु अप्पणो अहितो, अप्पगुत्ता ण परपचएण लोगपंचिणिमित्तं आत्मनैव संजमजोए ॥३७५॥ जुंजंति, ण परपञ्च य९, सयमेव परकर्मिति, केइ पुण भणंति-'ईश्चरात्संप्रवर्नत, निवत तथेश्वरात् । सर्वभावास्तथाभावाः, पुरुषः ३ अध्य स्थास्नुर्न विद्यते ॥१॥' 'सर्वे भावा तथाभावाः एतच्च आयपरकमगहणेण परिहतं भवति, एवं प्रकृतिकालस्वभावानामपि आत-12 परकमगहणेण पडिसेधो कतो भवति, अप्पाणं रक्खेतो आयरक्खतो भवति, आताणुरक्खितो वा अनु पश्चाद्रावे किरियाट्ठाणसेविणो, तेण अधम्मफलेण दुक्खेण संपयुत्ते कंपिजमाणे दटुं जस्से कंपो भवति से आताणुकंपए, परमात्मानं वाऽनुकम्पमानः, आत्मना ह्यात्मानमनुकम्पते, तदनुकम्पते तदनुग्रहात , आतणिप्फेडए अचाणं संसारचारमा णिप्फेडिति, अत्ताणं णाणादीहि गुणेहि णिप्फेडंति आतणिप्फेडए, अत्ताणमेव पडिसाहरेखासित्ति वेमि किरियाहाणेहिंतो पडिसाहरति २ चा अकिरियं ठावे ।। इति द्वितीयथुतस्कन्धे द्वितीयाध्ययनं क्रियास्थानाख्यं समाप्तम् ।। ____ अज्झयणामिसम्बन्धो-तेण मिक्खुणा कम्मक्खयसमुट्ठितेण किरियाट्ठाणविवञ्जएण तेरसमकिरियाट्ठाणासेविणा आहारगुत्तेण VA भवितव्यं, वक्ष्यति-'आहारगुत्ते समिते सहिए सदा जएजासित्तिवेमि,' जो फासुगाहारो सो आहारगुत्तो भवति, तत्र उच्यते-- | केयि जीवा सचिचाहारत्ति, को वा किमाहारेति ?, एतेणामिसंबन्धेन ततियमझयणमायातं आहारपरिणा, फासुगाहारो सो आहारगुत्तो भवति. चत्तारि अणुओगदारा, पुवाणुपुबीए ततियं पच्छाणुपुनीए पंचम अणाणुपुब्धीए एगादिमत्तगच्छगता जाप |३, पामणिप्फण्णे आहारपरिणा, आहारो णिक्खिवितब्बो परिणाए य, आहारणिक्खेवो पंचहा-णामं ठवणा ॥१६९।। गाहा, अथ द्वितिय-श्रुतस्कन्धस्य तृतियं अध्ययनं आरभ्यते [379] Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [३], उद्देशक [-], नियुक्ति : [१६९-१७८], मूलं [४४-६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: आहार प्रत सूत्रांक निक्षेपः [४४-६३] दीप अनुक्रम [६७५ श्रीसूत्रक- एसो खलु दव्ये सचित्त ॥१७०।। गाहा, दब्वाणि आहारेति दयाहारो, सो तिविहो-सचिचादि ३, सचित्तो छविधो-पुढताङ्गचूर्णिः विजो पुढचिकाईयादि, पुढवी लोणमादी अपि कर्दममपि कर्दमपिंडादानं च, आउक्काओ सचित्तो भोमतलागादि अंतरिक्खो य, ॥३७६|| तेउकाओ सचित्तो आहारो इदृगपागादिसु, महंतेसु अ अग्गिट्ठाणेसु अ अग्गिमूसगा संमुच्छंति, ते तं चेव सचितं अग्गिमाहारेंति, मसेसा मणूमादयो ण तरति जलगाणं सचितं अग्गिमाहारेतुं, उक्तं हि-'एको नास्ति अबक्तव्यस्खाग्नेरनास्थानमित्रवत्', लोमाहारो पुण तेसिं होति हेमंते सीतेवितायेंताणं, सो पुण जो अग्गीओ प्रकाशः प्रतापः सो सचित्तोत्ति या, सचित्तं ते पुण नियमा आवारेंति जीवा, जेण सीतेण खुणखुर्णतो अद्धमतोबि आसासति, जहा मुच्छितो पाणिएण, वाउकाओ लोमाहारो सीयलएण वातेण 4 अप्पाइजति, वणस्सती कन्दमूलादी, तसा अंडके जीवंते चेत्र सप्पा गस्संति, मणूमावि केइ छुहाईता जीवंतिया चेव मंदुकडिविया, एवं अचित्तो मीसओ अवि भासितव्यो, बरिणवर)अग्गी अचित्तो भणितव्यो, अथ 'भंते ! ओदणे ओदणकुम्मासे०' भणितो दब्वातारो, खेताहारो जो जस्स णगग्स्स आहारो, आहार्यत इत्याहारः विसओ आहागेचि बुचति, जहा मधुराहारोखेडाहारो यस्सट्ठो व स्नेहोदनादि, इदाणि भावाहारो, तेसिं चेव सचिचाचित्तमीसगाणं दवाणं जेवण्णाइगो ते बुद्दीए वीसुं२ काऊण आहारिजमाणो भावाहारो भवति, तत्थवि कडुकमायविलमधुररमादि जिभिदियविसयोचिकाऊण प्रायेण घेपति, उक्तं हि राइभनेभावतो तिचे वा जाव मधुरे वा, इतरेऽपि चानुपंगेण, उक्तं हि-'जडो जं वा तं' मृदुविशवाष्पाव्यश्रीदनः प्रशस्यते, शीतोदकेन प्रशस्यते, शीतोदकं तु प्रशस्यते, एवं तावद्भाचाहारो द्रव्याश्रय उक्तः, इदाणिं जो आहारेति आहारओ तमाश्रित्य भार उच्यतेसब्बो आहारेन्तो उदइयस्म भावस्स आहारेति, कयरस्स उदइयस्य', वेअणिजस कम्मस्स उदएणं, 'पंचेव आणुपुवीए' ६९९] ॥३७६॥ [380] Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [४४-६३] दीप अनुक्रम [६७५ ६९९] श्रीसूत्रताङ्गचूर्णि ॥ ३७७ ॥ “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [-], निर्युक्ति: [ १६९- १७८ ], मूलं [ ४४-६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता...... आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : जम्हा वृत्तं- 'चउहि ठाणेहिं आहारसण्णा समुप्पजति, तंजहा- ओमको ताए धावेदणिजस्म कम्मरस उदएणं मतीए वदोष| गेणं' जम्हा उदयिकस्स, कुट्टे उदयीयस्य कर्मणः उदद्यात् आहारेति, केनलीगवि औदयिकपारिणामिको भावी इति, तम्हा सिद्धो, भावाहारो तिविहो-ओए लोमो अ पक्खेवे, एएस तिव्हवि एकाए चैव गाथाए संखेववक्खाणं, तं० 'मरीरेणोयाहारो तपाइ फासेण लोमआहारो।' पक्खेवो जं मरीरस्म पञ्जत्तीए, पजत्नओ वा आहारेति, जो ओयाहारो एतस्म चक्खाणं गाथाए पुण्यद्वेष तं०-ओयाद्वारा जीया सव्वे ॥ १७२॥ गाहा, आहारगअप्पजत्तगा, ओजत्ति सरीरं ओजाहारा- सरीराहारा. कतरे ?, सच्चे आहारंगा, जे आहारंति, ते पुण तत्ततेलपाणपक्खेव०, इह सरीरखञ्जचीए पजचगा वा पञ्जप्पमाणा वा, सरीरपजती पुण आहारपजत्तीए | पजप्यमाणस्सेव, सव्वबंधे आढविय जाब मरीरपजत्तगस्स ओयाहारो होति, किं युच्चते ? - ओयाहारा जीवा सब्बै आहारगा अपअत्तगा उच्यन्ते, इंदियआणुपाणुभासमणोपजचीहिं अपजत्ता, वृत्तं ओयाहारवक्खाणं, इदाणिं लोमाहारस्स भवति, तयाइ फासेण य लोमाहारेचि, एतस्म गाहापादस्म पुरिल्लीए गाथाए पच्छिमद्वेण वक्खाणं- 'पजत्तगा तु लोमे पकखेवे होड़ भवितब्बा' कतरीए पत्तीए आढवेतुं ?, तत्थ नगा घे पति फासिदियमित्यर्थः, जं उण्हामितत्तो छायं गंतूण छायापोग्गलेहिं आसामति सव्वगात| लोमकुशणुपविद्वेहिं, आमामति शीतवातेण वागादीपकखेवणगादीवावेण वा आसमति व्हायंतो वा, एवमादि लोमाहारोति, गन्भेवि लोमाहागे चेव, जेण पक्खेवाहार इध आहारिअंतो आहारो, तेन चक्षुष्मता अम्बेन वाण दीसति लोमाहारः लोप इव, लोपः अदर्शनमित्यर्थः, जे अदीसंता चोरा हरति ते लोमाहारा बुचंति, एसो पुण लोमाहारो शिवमेव भवति अनाभोगणिवत्तितो आभोगणित| चितो वा, पक्खेवाहारी पुग भाइजति का भयणा ?, कदाइ आहारेड़ जहा उत्तरा कुरा अमेण भत्तकाले पक्खेवमाहारमाहारेति, [381] आहार भेदाः १३७७॥ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [४४-६३] दीप अनुक्रम [६७५ ६९९] श्रीसूत्रकवाङ्गचूर्णिः ॥ ३७८ ॥ “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [-], निर्युक्ति: [ १६९- १७८ ], मूलं [ ४४-६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: संखेजगवासानं अणियओ, तयाइ फासेणंति वृत्तं । इदाणिं पक्खेवगाहारस्स चक्खाणं, तेनोच्यते-एगिंदियणारगाणं देवाणं चेव णत्थि पक्खेवो । सेसाणं पक्खेवो संसारत्थाण जीवाणं ॥ १७३ ॥ सेसाणेगिंदियवजाणं ओरालि यसरीरीणं जेसिं जिम्मिदियमत्थिते पक्खेवाहारा, एके त्वाचार्या एतदेव त्रिविधं आहारं अन्यथा नुवते, तंजहा पक्खेवाहारः ओयाहारः लोमाहार इति त्रयः, जिह्वेन्द्रियेन लभ्यते स्थूलशरीरे प्रक्षिप्यते सो पक्खेवाहारो, यो घ्राणदर्शनश्रवणैरुपलभ्यते धातोः परिणाम्यते ओजाहारो, यः स्पर्शेनोपलभ्यते धातोः परिणाम्यते स लोमाहारः, वृत्तो आहारो, अप्पाहारगा बहुआहारगा य इदाणिं वतव्वया जे जत्तियं वा कालं आहारगा भवति, कालं ताव भगति एकं च दो व समए तिष्णि व समए मुहुत्तमद्धं वा । सादीमणादिमणिहणं वा कालमणाहारगा जीवा || १७४|| बुत्तो कालो गाथासिद्ध एव ॥ इदाणि अणाहारगा बुचेति ते दुविधा, छउमत्था केवली य, तत्थ छउमत्था अणाहारगा-एकं च दो व समए केवलिपरिवजिया अणाहारा। मंश्रमि दोष्णि लोगे य पूरिते तिन्नि समया तु 'एगं च दो व समए'त्ति विगहगतीए, केवली अणाहारा दुविधा--सिद्धकेवली अणाहारा भवत्थकेवलिअणाद्वारा, भवत्थवलिअणाहारा दुविधा, तंजहा सयोगि० अयोगी०, मयोगिभवत्थकेच लिअणाहारा समुग्धातगता, ते पुण मंशमि दोणि, मंथं पूरंतो लोए भवति दइए समए, णियतो पंचमसमए, लोगं पूरेति चउत्थसमएत्ति तिसुवि अणाहारो, इदाणिं अजोगिभवत्थकेवलिअणाहारओ गाथासिद्धो चेव अंतोमुत्तं सिद्ध केवलिअणाहारओवि गाथासिद्धो सादीयअणिघणो सिद्धअणाहारो, जोएण कम्मरणं आहारेती अनंतरं जीवो। तेण परं मीसेणं जाव सरीरस्स पजत्ती (निष्पत्ती) || १७७॥ उवबजमाणा चैत्र सव्वधे कम्मगजोगेणं आहारेति, तओ मीसेण जाव ओरालियसरीरपञ्जत्तीए पत्तो भवति, पच्छा ओरालि मिस्म सरीरेण चेच [382] आहार भेदाः ||३७८|| Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [३], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१६९-१७८], मूलं [४४-६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [४४-६३] दीप अनुक्रम [६७५६९९] आहारेति, एवं वेउब्वियं, आहारगसरीरेणं पुण णियमा आहारगोचेव, वुत्तो आहारो। इदाणि परिपणा जहा सत्थपरि- वनस्पतिः ताङ्गणि: 11Aणाए भणिता णिक्खेबे, सुत्ताणुगमे सुतं-सुझं मे आउसंतेणं० (सूत्रं ४४) इह खल आहारपरिष्णा तस्स णं अयमहोइह खलु IN पाईणं वा ४ पण्णवगदिसाओ पडुच्च, सब्बाओति सवाओवि दिमाओ उहुं अधो अगहिताओ, सब्यातित्ति सब्बसंखेवेण चत्तारि वीजकाया, बीजमेव कायो बीजं इत्यर्थः, तंजहा-अग्गं बीजाणि जेसिं तिलमादीणं सालिकलमअतसिमादीयावि, तणा, अग्गं बीजं | जेसिं वा अग्गलता सप्पंति पर होंति वा ते अग्गं वीजा, मूलबीजाचा अल्लगमादी, पोरु उन्छुगमादी, खंधवीजा सल्लइमादी, तदंत नागार्जुनीयास्तु 'वणस्सइकाइयाणं पंचविहा वीजवकंती एवमाहिजइ-तंजहा-अग्गमूलपोरुक्खंधीयरुहा छटावि एगेंदिया | समुच्छिमा बीया जायते' जहा उद्दावणे दड़े समाणे णाणाविधाणि हरिताणि संमुच्छंति, पउमीणीसो वा नबए तलाए संमुच्छंति, | पुराणेचि कथयि पुथ्वं ण होतुं पच्छा समुन्छति, उक्तं हि-'पभं च राजहंमाश्च' 'तेसिं च णं अहाबीजेणं'ति ययस्य वीज तत्र | तदेव प्रसूयते यथा शालिपीजे शाल्यडरो जायते, न कोद्रवादयः, अथवाऽवकागेन जं जत्थ खेते जायते, यथा सुमजितकेदारपल्लवे प्रावृट्काले शालिर्जायते यथा शालीवीजे शाल्यंकुरः, पापाणोपरि नोप्यते न वा उत्तोऽपि जायते, अथवा भूम्यम्बुकालाका| शवीजसंयोगो गृहाते, अथावकाशग्रहणण०, एगतिया एगे ण सव्वे, जेऽवि वणस्ततिकाये तेऽपि रुक्खा उम्मजणबद्भणा, सेसाओ अपुढविजोणिया, पृथग् वियोनिर्यपां, उत्पत्तिः आधारः प्रसूतियोंनिरित्यर्थः, यु मिश्रणे, यौतीति योनिः, मिश्रभावमापद्यन्त इत्यर्थः, कार्मणसरीर वा, जीवो वृक्षभावपुरस्कृतः, या च प्रसूतिः क्षमाभूमिमंतरेण न प्रसूयते सो पुढविजोणियो भवति, जहा जलं न जायते, जत्थ जस्स जोणी सो तत्थेव संभवति पंकजयत् बीजाकुरवद्वा, उक्तं च-"कुसुमपुरोले बीजे मथुरायां नाङ्कुरः समुद्भवति । ||३७९॥ [383] Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [३], उद्देशक [-1, नियुक्ति: [१६९-१७८], मूलं [४४-६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: भीमा वनस्पतिः नागपूर्णिः प्रत सूत्रांक 1३८० [४४-६३] दीप अनुक्रम यत्रय तस्य वीज, तमोत्पगते प्रमयः ।।१।।" तथा यथा प्रतिचन्द्रकस्य दिक्षु समुद्भवः स चैका दृश्यते, प्रतिमुखस्य वाऽऽदर्शके प्रतिभो दृश्यते, एत एव तदुक्तं भवति-या हि यत्र यस्य योनिः सा तत्रैव सम्भवति, पुढ विवकपत्ति, केसिंचि आलावगो व एलणत्थि, जेसिपि अस्थि तेसिपि उक्तार्थ एव तस्सग्रहणेन, तहावि विसेसो बुचति, जहा तंतुजोणिओ पडो तंतुमय इत्यर्थः, कारणान्तरितः क्रियमाणो तंतुष्येव भवति, न देशान्तराभ्यां, हियते वा, वृक्षस्त्वेवं, न चैवं कथमिति ?, उच्यतेलोई सामलपुढ विकाईए पुरेक्खडो पुढविकायसरीर विप्पजहाय तंमि चेव देशे सशरीरे अण्योसु वा तत्संनिकृष्टपुढविधायिएसु रुपवताए चिउट्टति, वत्थ कायांतरसंकमे क्रमो घेापति, अण्णो पुण देशांतरातो सफायातो वा परकायातो वा आगम्म रुक्खत्ताए वमति, तोणिया तस्लभाना, तम्बकमति तं चेव जोणियमिति, जहा जा जस्स जोणी सो तम्मि चेव संभनति, णण्णत्थ यथा पापाणात सुवर्ण जायते, न सर्वसात पापागात् जायत इति, एनं पुढविजोणिो पुढविसंभवो पुढविउवकामो य ण सयाओ पुढवीओ जायते, कशे पुग भूमीय उस्सरिल्ले पत्थरोवरि वाणो जायते ?, तजोणियगहोण तु सबमेतं परिहरितं गहियं च भवति, 1. कम्प्रोवगा कम्मजोगा भवति, जो जस्स जोगो भवति सो तस्स उमजोगी बुञ्चति, यथा रूपवानेप दार उसजीवनीयो, सो रूवेण कुलेण शीलेण य तीसे एवंगुणजातीयाए दारियाए, दारिकाए चेव दारको, सोऽपि एतस्स उपयोगो, एवं तेहिं तबिधाई कम्माई कताई रुक्खारोहअणिवत्तगाई जेसि रुक्खाण हउवइक भवति, तहा मंडगमध्ये किंचि जं णिजरइ तं उबइक, सिणेहस्स वा तेल्लस या घयस्स ना ३, मरमाणं अणोवइक, तहा आढगः प्रमाणो घटः, आढगप्रमाणस्यैव मेयस्य द्रव्यस्येतरस्प वा उपयोगो, पत्रपुष्फफलादिलक्षणव्यतिरिकानां ण तेसिं अण्णपुदविकाइयादिशरीरेणोपयोगो, कम्मणिदाणत्ति णियाणं हेतुः कारणमित्य [६७५ ६९९] ॥३८॥ [384] Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [३], उद्देशक [-, नियुक्ति: [१६९-१७८], मूलं [४४-६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: श्रीस्त्रक प्रत सूत्रांक [४४-६३] दीप अनुक्रम [६७५ नर्थान्तरं, यातिकस हि व्याधेः यातलद्रव्याहार एव णिदाणं, एवं पित्तियमिमियाणपि पत्तियसि माणिदाणं, यथा नानिदानोD वनस्पतिः ताइन्चूर्णिः17 | व्याधिः उत्पद्यते एवं कर्मनिदानमन्तरेण न शरीरोत्पत्तिः भवतीत्यन उच्यते-कम्मणिदानेन, तथा च कम्म०, कतरं कम्म ?, ॥३८१॥ AMI रुक्खणामागोतं तस्सोदएणं णाणाविहजोणियासु, पुढवीति नेमिपि जो पुढची 'गचित्तसंवृनमिश्रावैकश' तथाप्रकारा योनिः, णाणा |विधानां च अण्णेसिं पुढ विकाइयादीणं छपई कायाणं जोणी विउतित्ति, विवियोगे, विरोध्य पृथिवीकार्य वृक्षवममिसंप्राप्य | वर्तन्ते विउति । ते जीवा तेसिं सिणेहं ते जीवत्ति जे पुढविकाईएसु उववण्णा तासिंति जासु उपादागभूतासु उपवण्णा अविद्धत्थजोणियासु उवयण्णा, सिणेहो णाम सरीरमारो ने आपिवंति, ण य एगतेण चेव ने वन्धुं विद्धंसेंति, को दिलुतो, जहा" अंगत्थो जीयो मातुगातुम्हंपि आहारेति, ण य माऊए किंचिवि पीले जनयति, खीपुमो वा परम्परगात्रसंम्पर्शात् पुष्टिर्भवति, न च तयोः पीडा भवति, जहा अंबस्म य णियस्म य, णिवावयवा अंबमणुपविसित्ताण दूसेति, " य णिवस्स पीडा भवति, जेण | बर्द्धते णिवः, एसोऽवि वणस्सइकायिको सक्खो तासिं पुढवीण सिणेहमापिवेइ, ण य तेसि पीडं जणपति, कदायि पीडं जणयति | असमाणवण्णगंधरसस्पर्शात् , एवं उपवजमाणाण आहारो भवति ता, परिवड़माणा पुण परिवड्यंने जीना आहारेति पुढविशरीरं जाव शरीरसनिकृष्टं आउकार्यपि अवलिक्खं भोमं वा, भोमं भूमीतो उभिदिय जातो, पाणितं जं भुमं चेव भूमित्थं, वहतमत्रहंतगी वा, तेउच्छरादिवाओ भूमिखलणाओ वा आगामाओ वा, वणस्मई परोप्परं मूला संमत्ता, जहा अंवस्म, तह काउगोकरिममाणा | पुरिसादि, नागार्जुनीयास्तु अवरं च णं असंबढे पुढविसरीर जाब पाणाविधाणं तमथावगणं अचित्तं कुचंति जंतयो, पुन्यविउ चेव जीवेणं जीयमहगतं आहारत्ताए गेण्हंति, तपि जया सरीरत्ताए परिणामेति तदा अचेतनीकरोति, कथं चा अणोण जीवेण | |३८१॥ ६९९] [385] Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [३], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१६९-१७८], मूलं [४४-६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: वनस्पतिः प्रत सूत्रांक [४४-६३] दीप अनुक्रम [६७५ श्रीपत्रक- परिग्गहितं ताव अण्णमरीरत्ताए ण परिणमेति ?, जया पुण परिचत्तं भवति, जेणेव जीवेण सरीरगं णिव्वतितमासी तदा अण्णो ताङ्गाणि जीवो आहारेति, परिविद्धन्थंति प्राक्तनेन जीवेन मुक्त, पुन्याहारियति, तं सरीरगंजो वणस्सइकाइओ पुढविसरीरंग आहारेति तंपि ॥२८सा तेहिं जीवेहिं 'आहारगा य पाणा' इतिकाऊण चेव णिव्यतितं, अत एतदुक्तं भवति-पुब्बाहारितमेवान्यजीवराहार्यते, तयाऽऽहा रितित्ति जे एगिदिया एते तयाए चेव आहारति फासिदिएपणेत्यर्थः, जेसिपि जिभिदियमस्थि तेसिपि पुव्वं फासिदिएण स्पृशित्वा पथात् , जिहेन्द्रियमप्यस्ति ?, उच्यते, यस्मात् जिह्वा स्पर्श गृह्णाति, अग्निना अनास्वादनीयेन स्पृष्टा दाते, एवमन्यदपि दन्तौष्ठ ताल्यादि स्पर्श वेत्ति, न च तत्र किश्चिदन्यदास्वादयति, विपरिणतंति पुढविकाइयत्तणं मोत्तूणं विविधैः प्रकारैः तमेव वृक्षत्वं । परिणतं, सारूविकडंति ममानरूविकडं वृक्षत्वेन परिणामितमित्यर्थः, सबप्पणत्ताए आहारेति, नागार्जुनीयास्तु एवं सम्प्रति. पन्ना-अवरेणं णं, कतरं ?, संबंधमसंबंधं वा, जो पुढविकाइयमरीरेहिं तस्यापतितै गैः संश्लेप इत्यर्थः, तेसिं तं पुढवितप्पहमताए सिणेहमाहारयति, असंबई पुण जं पासत्तो पुढविसरीरं वा ते पुण पण्णत्तीआलावगावि भगति, तेमिं पुराणगुणे गंधरसे? अवरेणवि य णं, कतरे अबरे वा ?, णावरे, जं उवबजनेण गहितं अबशिष्टमूलादिभ्यः, जहा गभवतिरण जाव लभंति, तत्थवि दुल्लहबोधि, पंच पिलगाओ इंदियाणि वा णिवत्तेनि ताव, अवशिष्टा एवमेव निपेकादयः, एवं तेवि रुस्खजीवा जार मूला. दीणि णिवत्तेति ताव णो अवरं भवति, आदिशरीरमित्यर्थः, मुलकन्दादि जात्र वीजं ताव अबराई बुच्चंति, अन्यानीत्यर्थः, णाणा वण्णत्ति, नानार्थान्तरत्वेन यण्णत्ति पंचविधा, तंजहा-किण्हा नीला खदिरशिंशपादि, णाणाशरीरति णाणाविधेभ्यः पुदलाना। हारत्वेन गृहीत्वा आत्मशरीराणि विविधं कुर्वन्ति विकुर्वति, अथवा णाणाविधसरीरा णाणाविधपुद्गला विकुर्वन्तित्ति, अल्पशरीराश्च ६९९] ॥३८२॥ [386] Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [३], उद्देशक [-], नियुक्ति : [१६९-१७८], मूलं [४४-६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक श्रीसूत्रकनागपूर्णिः ॥३८३॥ DDC [४४-६३] दीप अनुक्रम [६७५६९९] तहा सुरूवा दुरूवा थिरसंघयणा दुबलसंघयणा इत्यर्थः, अप्रकाशवदप्रकाशत्वेन रसवीर्यविभागं ततध मेदाच बहवो विभावयि-D वनस्पतिः | तव्याः, विविधपुद्गलापि विकुर्विता ते जीवा इति, केपांचिद् न जीवाः वानस्पत्याः तत्प्रतिपेधार्थमुच्यते--ते जीवा कम्मा, कथं | जीवा ?, कुचनात्संरोहादकुरात् आपदाहारकाच, कम्मो वणस्सति बणस्मतिणामस्म कम्मस्सोदएण, नवीश्वरसृष्टाः अदृष्टेन वा द्रव्याणि वेत्यादि, एस ताव पुढविजोणिओ रुम्यो वुत्तो, इदाणि मि चेव पुढविजोगिए रुक्खे अण्णो रुक्खत्ताए बकमतिअथावरं पुरवायं (सूत्रं ४६), अत्यनन्तरे अथावर पूर्वमाख्यातं, गणधरी सीसाणं अक्खाति, तित्थगरेण अक्खातंति, अत्यनन्तर्ये पुनर्विशेपणे, आड्न मर्यादाभिविध्योः ख्या प्रकथने, पुनः आख्यायते, घोषवत्स्सम्परतः ख्यादेशे कृते पुनराख्यातं भवति, तस्सेव रुक्खस्म किंचिदन्यदाख्यातं, इहेगतिया सत्ता रुक्खजोणिया, कतरेति !, पुढविजोगिएसु रुक्खेसु जो एते आदिजीवा पुढविजोणिएसु रुक्खेसु रुक्खत्ताए वकता तेसु चेव अविभिन्नेसु मूलादिसहितत्वेन तमेव रुक्ख परिवहयमाणा रुक्खत्ताए विउति, सेसं तथैव जाच भवतित्ति मक्खातं, किं तं पुरा अक्खातं पुनर्वा आख्यातं १, एम ताव रुक्खो अविसिट्टो वुत्तो, पढमो। | पुढविजोणिओ रुक्खो, वितिओ पुढविजोणिओ रुक्खाओ तन्निश्रयोत्पद्यते, ततिओ रुक्ख जोणिो रुक्खो, यदुक्तं भवति| योऽसावायनिश्रयोत्पन्नः तस्यैव निश्रया जातः, अत्र च अनवस्था न नोदनीया, तृतीय एव वृक्षः प्रकारे, स चैपामेव भागत् , | एते तिनि सुत्तदंडगा, चतुर्थस्तु तृतीयवृक्षमूलादिनिवेशप्रतिपादकः, एवमव्याकुलेन चेतसा पर्यालोच्य सूत्रदण्डकाः अन्यत्रापि नेतव्याः, एवमनयैव भंग्या अज्झारुहेण चत्तारि दण्डकाः, साधारणानामेक एव दण्डकः, तेषु येऽन्ये उत्पधन्ते तेषां विभापाभावः, रुक्खेहिं रुक्खजोणिए, मलेहिं जाव हरितेहिं वि तिषिण, अत्र द्वितीयतृतीयावेकमेवेतिकृत्वा चतुर्थसूत्रदण्डकाभावः, अफायिकानां ॥३८३॥ [387] Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [३], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१६९-१७८], मूलं [४४-६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत श्रीमत्रक नागपूर्णि: ॥३८४॥ सूत्रांक [४४-६३] दीप अनुक्रम [६७५ चतुर्थोऽत्र शेपेषु दंडकः, अग्निकायिकानां चतुर्थो, आवाकादिषु भूपकाः, इदाणि सो चेव विसेसो मूलादिणा दसविधेण विसेसेण वनस्पतिः विसेसिजद, शरीरवत् , यथा शरीरमविशिष्टं तदेव पाण्यादिभिर्विशेपैर्विशिष्यते, वनवद्वा ग्रामगृहबदा विषयवद्वा, एवं रुक्खेत्ति अविशिष्टो उपकमो वुत्तो, सो पुण विसेसिञ्जड़ मूलत्ताए, मूल नाम मूलिया, जेहिं मूलिया पइडियाओ, भूम्यन्तर्गत एव स कन्दः खन्धस्योपरि खन्धो तया छल्ली सब्दरुक्खसरीराणि सालेसुवि होइ खंधाओ, सालो अहुरा इत्यर्थः, प्रबालेहिंतो पवाला पत्ता पत्तरेसु फलाणि कलेहितो बीजाणि ॥ अहावरं पुक्ग्यायं इहेगतिया० (सूत्रं ), रुक्खजोणिएसु रुक्खेसु अब्भारुहत्ताए, रुहं जन्मनि, अहियं आरुतिति अज्झायारुहा, रुक्खस्स उपरिं, अत्र रुस्खो पगतो, लतावल्लिरुक्खगति, सो पुण पिप्पलो वा अण्णो वा कोयि रुक्खो, अण्णस्म उवर जातो, एवं तणओमहिहरिएसु चत्वारि आलावगा माणितव्या, कुहणेसु इको चेब, सम्वेसिं कायाणं पुढविमलाहारोतिकाऊणं तेण पुचि पुढविसंभवा चंति, एवं ताव एते वणस्सइकाईया, लोगोपि संपडियअति जीति जेण सुहपण्ण- 1 वणिजत्तिकाऊण पढमं भणिता, सेमा एगिदिया पुढविकाईयादयो चत्तारि दुमद्दहणिजत्तिफाऊण पच्छा बुचंति, वणस्सइकाइयागंतर तु तसकाओ, सो पुण णेरईओ तिरिक्खजोणिओ मणुओ देवेत्ति, तत्थ नेरइया एगंतेण अप्पचक्खत्तिकाऊण ण भणंति, ते पुनरनुमानग्राह्या, तेण ण भण्णंति, तेसि आहारोवधिः आनुमानिक इतिकृत्वा नापदिश्यते, म तु एगंतासुभो ओजसा न प्रक्षेपाहारः, । देवा अपि साम्प्रतं प्रायेणानुमानिका एव, तेसुचि एगंततो आहारो ओजसा, मणभक्खणेण य, सो पुण आभोगणियत्तितो अणाभोगणिव्यत्तितो य, जहा पण्णत्तीए अणाभोगेण अणुसमतिगो, आभोगेणं जह० चउत्थं उकोस. तेत्तीसाए वाससहस्सेहिं अस्थतो चेव बुञ्चति, इह सुने वणमत्किाइयाणतरं मणुस्मा, सतिरिक्खजोणिएत्ति सचित्तरत्तिकाउं पढम वुधांत । अहावरं णाणा- ॥३८४॥ ६९९] [388] Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) मनुष्याः प्रत सूत्रांक [४४-६३] “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [३], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१६९-१७८], मूलं [४४-६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: श्रीयप्रक-IN| विधाणं मणुस्साणं (सूत्रं ५७) आरियाणं मिलक्षण तेमि अथ वीजं, मणुस्सगीजमेव हि मणुस्सस्स प्रादर्भविष्यतः बीजं भवति, ताङ्गचूर्णि: 11 तु शुक्र शोणितं च, ते पुण उभयमपि यदा अविद्वत्थं भवति, अथावकासेशि जोणि गहिता अविद्वत्था, एत्थ चउन्भंगो॥३८५॥ बीजं निरुवहतं जोणी णिरुवहता बीजं णिरुवहतं जोणी उपहता०, एवं सत्तकोट्टा इस्थित्तिकाऊणं अंतोदरस्स अथावकासो भवति, A. इत्थीए पुरिमस्स या स्त्रीपुरुषसंयोगः उत्तराधरारणिसंयोगवत् संस्पर्शकर्म, आह हि-चक्र चक्रेण संपीब्ध, मर्त्यजघनांतराणी' कर्म करोति इति कर्मकरा, कर्मममर्था वा कम्मकडा, अबिद्धत्था इत्यर्थः, विध्वंस्य ते तु-पंचपंचाशिका नारी, सप्तसप्ततिक: Joal पुमान् । एत्थ पुण मेहुणं मेहुणभावो मिथुनकर्म वा मैथुनं, मैथुनप्रत्ययिका मेहुणवत्तीओ, अण्णोवि आलिगणावतासणसंजोगो अणंगकीडा च अस्थि, नत्तमो गण्यते गर्भोत्पत्ती, ते दुहतोचि सिणेहं, सिणेहो नाम अन्योऽन्यगात्रसंस्पर्शः, तद्यथा आहारस्य आहारिनस्य, शोणितमासमेदोऽस्थिमज्जाशुक्रान्तो भाति पुरुपे नार्या उपजातः, स यदा पुरुषस्नेहः शुक्रान्तो नार्योदरमनुप्रविश्य नार्योजसा मह संयुज्यते तदा मो सिणेहो क्षीरोदकवत् अण्णमण संचिणति, गृहातीत्यर्थः, 'तत्य जीवेति तस्मिन् तत्थमणुप्पविढे सिणेहे म्वकर्मनिवर्तितखलिका इस्थिताए पुं० नपुं० विउति, माओऽयं सोणियं पितुः शुकं, ततो पच्छा जं से माताणाणाविधाओ रमविहीओ (विगइओ) धीरनीरादिआउ णव विगईओ, जोवि ओदणादि अविगतो आहारो भवति मोपि प्राक्तनात् भावाअदा विगतो भवति सरीरत्वेन परिणामितो भवति तदा आहार्यते, उक्तं हि-एगिदियशरीगणि लोममाहारेति, एगदेसोति तस्स फलटसरिसा रसहरणीए यथोत्पलनालेन आपिवत्यापः, ततो कायातो अमिणिवरमाणाई, ३ इस्थि चेव एगता जनयति आत्मा, | नपुंसको वेत्यर्थः, स्वकर्मविहितमेव तेपां जन्मनि मस्सस्स णामस्स कम्मस्स उदएणं, न खेत्तबले, तं तु दुगे मातापितरौ समनु दीप अनुक्रम [६७५ ६९९] ॥३८५॥ [389] Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [३], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१६९-१७८], मूलं [४४-६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: जलचराः प्रत सूत्रांक श्रीसूत्रकतामणि ॥३८६॥ [४४-६३] दीप अनुक्रम [६७५ गृहीतः, विशेषतस्तु माता, अत एतदुक्तं भवति, इथि घेगया जणयंति' एकदा नाम कदाचित् स्त्रियं कदाचित्पुरुपं कदाचिद् गर्भगत एव मरति, तेन न जनितो भवति, ते जीवा डहरा खीरं सप्पि, खीरं मातुःस्तन्यं, सपि घतं वा णवणीतं वा, सेसं कंठयं, एवं ताप गम्भवतियमणुस्सा भणिता जहा जायंति आहारयति । इदाणि समुच्छिममणुस्साणं अवसरो पत्तो, सो अ उवरिं दुरुतसंभवे बुचिस्सति, इदाणि पंचिंदियतिरिक्खजोणिया भण्णन्ति, तत्थवि पढमं जलयरा-अथावरं जाणाविधाणं जलयराणं (सूत्रं ५८), मच्छा मत्ता सीतेणं, अथवा जेण इत्थीए य पुरिसस्स य कम्मकडाए जोणीए एत्थ णं मेहुणं सिणेहं, ते जीवा डहरा समाणा | आउं सिणेहं होति, आउकाओ चेव, अथवा जे तत्थ मात्रा ओजसा चेत्र, आउकायमाहारैति, ण तु पक्खेवेणं, तेणेव ते पुस्संति | परिवईती य जहा खीराहाराणं खीरेणेव, चुड़ी णं अणुसमयिकी बुट्टी हुत्तया दिवसदेवसिया, वणस्सइकाइयाण सेवालहरियादि | तसथावरे जति तते मच्छे चेत्र खायंति, आहहे-अस्ति मत्स्यस्तिमिर्नाम, अस्ति मत्स्यस्तिमिगिलः। तिमितिमिगिलोऽप्यस्ति, तिमिगिलगिलो राघव! ।।१।। ते जीया पुढविकाईयं कद्दममट्टियं खायंति आउं निसिताय पिचंति, खुधिया मच्छं पाणि उल्लं गस्मति, अगी उदगादि वापि लिहंति, वणस्सई बुत्तो, तसकायो जलचरो चेन, मगरो य चउप्पदाणुस्सयं उगईति, णाणाविधतसपाण जाव पञ्चइया । अहावरे चउपपदाणं एगखुराणं एतेसिं अड, णवरि णस्थि आहारे णाण, जीवा डहराति, सा पक्विणी ताणि अंडगाणि सएण पेल्लिऊणऽच्छति, एवं गातुम्हाए फुसंति, सरीरं च णिव्यत्तेति, तं पुण अंडजंकणं चेव भवति पच्छा | सरीरं जायते विपुलमादी चम्मपक्खी पोतया, एतेसिं पुण मणुयाण पंचिंदियतिरिक्खजोणियाण य सव्येसिपि दुविधो आहारो | भाणितव्यो, तंजहा-आभोगणिन्यत्तितो य अणाभोगणिव्वत्तियो, वुत्तो पंचिंदियतिरिक्खजोणियाण य सम्बेसिं पुणाहारो ॥ इदार्णि ६९९] ॥३८६॥ [390] Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [३], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१६९-१७८], मूलं [४४-६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: विकले न्द्रिया: प्रत सूत्रांक [४४-६३] दीप अनुक्रम [६७५ श्रीसूत्रक- | विगलिंदिया जे तेनि तिरिक्खजोणियाहारो वुच्चति-अहावरं डहेगतिया(सूत्रं ५९)कम्मणियाणेण जत्थउवकम्मा णाणाविहाणं विगालादया जाता ताजचूर्णिः तसथावराणं, तसा तिरिक्खजोणियमणूमा ओरालियशरीरगता, तेऊ वाऊपि तमा चेब, थावरा पुढवि अणुसूयंता, अणुसूयंता णाम ।।३८७|| शरीरमनुसृत्य जायन्ते, तंजहा-सचिचेसु तहा जूपाओ लिक्खाओ सेयवतो छप्पदा य मंगुणा पुण माणुमसरीरोवजीविणो मानु पशरीराश्रयादेव जायन्ते, शरोरोपभुज्यमानेषु पर्थङ्कादिपु, न त्वन्यत्र, गोरूपानामपि शरीरेषु यूकादयो भवंति गोकीडा य, अचित्तेसुवि एतेसु अव्यावष्णेसु जुवादयो संभवंति, अचिचीभूतेसु तु कृमिकाः संभवंति, एवं चिंदिया ने इंदियाण चउरिंदियाणपि सरीरेण अणुसित्ता जायते जहा विच्छिगस्म उवरिं बहयो विच्छिमा संभवंति, अचित्तीभूतेसु य किमिकादयो जायंते, | उपाए सचित्ता मसगा संभवंति, जहिं अग्गिपाणादिवत्लाणि अग्गिसोज्झाण चेव कीरति, जत्थ अग्गी तस्थ बातोपि अस्थि, जेवि बाउकाए निस्माए आगासे संभवंति, वुचा तराथानरा। दाणिं तत्थ पुढविमनुसृत्य वेइंदिया कल्लुगादयो सम्भवन्ति तेइंदिया कुंथुपिप्पीलिकादयो चतुरिदिया पतंगा, वरिसारते भूमि पडिलेहंतो उडेति सलभादयः, आउक्काए पूतरगादयो वणस्सतिकाए पणगभमरादयो, अचित्तामुवि एतेसु जायंते, ते जीवा तेसिं णाणाविधाणं तसथावराणं पुराणाणाविधाणं तसथावराणं सरीरेसु सचित्तेसु अ अचित्ते अ वेदियसत्ता दुरूवत्चाए विउद्घति, दुरुवा णाम मुचपुरिसादी मरीरावयवा, तस्थ सचित्तेसु मणु स्साण ताव पोरेसु समिगा गंडोलगा कोट्टाओ अ संभवंति संजायन्ते, चाहिपि णिग्गतेसुवि उच्चारपासवणादिसु किम्मिया सम्मुHE छंति, अचित्तेसुवि गोरूवकडेवरेसु य, उदरान्तशः कम्यादयः संमुच्छंति, तिरिक्खजोणियाणपि सचित्ते उदरान्तरा० उज्झेसु किमिया संभवंति, उदरातो यिणिग्गनेसु उज्झेसु छगणेसु य किमिगा संमुच्छंति, भणिता दुरूवसंभवा । इदाणि खुरगा बुचंति ६९९] माय IITE ||३८७॥ [391] Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [३], उद्देशक [-1, नियुक्ति : [१६९-१७८], मूलं [४४-६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: अप्काया: प्रत सूत्रांक [४४-६३] दीप अनुक्रम [६७५ श्रीसूत्रक अथावरं इहेगतिया णाणाविधा जाच कम्मखुरुडगाए चकमंति, खुरुगा णाम जीवंताण चेव गोमहिसादीणं चम्मस्स अंतो ताङ्गपूर्णिः संमुच्छंति, पच्छा ते खायंतो २ चम्म भोत्तण उहृति, पच्छा ते तेणेव मुहेण लोहितं णीहरंति, अचिचेसुवि एते गवादिसरीरेसु ॥३८८|| संमुच्छंति, अगिनवमडेसु थावराणवि रुक्खाण संमुच्छंति, अचित्ताण विज्जुघणा ते जीवा, तेसिंणाणाविधाणं, इदाणि तिरिक्खजोणियाण अधिकारे चेव बरमाणा एगिदिया चेव बुचंति, तत्थवि पुव्वं आउकाईआ-अहावरं इहेगतिया सत्ता० सूत्रं ६०), जाब उबकमा, पाणाविधेसु तसथावरेसु एगडेमो कीरति तं सरीरगं जं तं आउकाईया, अहावरं डहेगतिया सरीरगं भविस्मति ताव संसिटुंति बाउजोणिओ आउकाईयो, उक्तं हि-'उम्मे वाते.' तमालस्स वातेण गम्भा संमुच्छंति, वातसंगहिता संचिन टुंति, समुच्छिमा पुण सत्ता आउकाइयत्ताए परिणमन्तीत्यर्थः, ऊर्श्वभागा ये हि भूम्यन्तरे आउकाओ समुच्छति, बायरहरितमणुगादी, से उडु च तेहिं पुढविहितो उविवित्तो जो आगासे संमुच्छितो, अधोभागेहिं पाडिजति, धाराहि करगताए वा पुणो परिणतो पाडिति, तिरियभागेत्ति जदा तिरियं भवं तिरिन्छ णेति यो पाडेति, स तु संमुग्छितो गुरुत्वाद्वातं पुण जनयति तद्विधानानि तु, तंजहा-ओसो हिमं जाव सुद्धोदए, सेसं तह चेव आलावगा। सव्येहिं काएहितो दुरधिगमा पुढवित्तिकाऊण तेण पच्छा बुचिस्मइ, अहावरं इहेगतिया अगणिजोणिया णाणाविहाणं तसथावराणं (सूत्रं ६१), सचित्तेसु अचित्तेसु आसन्नेसु ताव हत्थीणं जुज्झताणं दंतखडखडासु अगणी संमुच्छति, महिसाण य जुझताणं सिंगेसु अग्गी समुच्छति, अचेतणाणऽस्थि अडिगाणवि, एवं बेइंदियाणवि, तहा णं अट्ठिएसु जहा संभवति भाणितव्यं, थावराणं अचेतणाणं पत्थराणं आगासे, आगासे । आवडताणं अग्गी समुच्छति, अचेतणाणं उत्तराधरारणिजोएण अग्गी संगुच्छति, तहविधाणाणि तु इंगाले जाले चत्तारि आला ६९९] ॥३८८॥ [392] Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [३], उद्देशक [-1, नियुक्ति: [१६९-१७८], मूलं [४४-६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: ANI. . प्रत सूत्रांक [४४-६३] दीप अनुक्रम [६७५ श्रीसूत्रक वगा । अथावराणं णाणाविधा, तसथावराणं वाउजोगीणं, णाणाविधाणं तसथावराणं, ण विणा बाउकारण वाउ(अगणि)आए संमुच्छ- IDीमाय: ताङ्गचूर्णिः | तिचि काऊण जत्थ चेव सचिचे वा अगणिकाओ संमुच्छति, एवं चचारि भाणितव्या । इदाणि पुढवि-णाणाविधाणं तसथाव४ अप्रत्याराणं सचित्तेसु य राणं सचिनेसु य अचित्तेसु बा, सप्पाणं मत्थर मणी जायति, इत्थीणवि मुचिया, मत्थएसु सापाण य मन्छाण य उदरेसु, मणुस्सा।।३८९॥ पवि मुत्तसकराओ, अचिचाणं पुणरिणमो कलेवरे छगणमादीणि लोभत्ताए परिणमंति, थावराण सचिनेसु हंसपञ्चगेसु मोत्तियाओ जायंति, अचित्ताणवि लवणागरादिसु कटुमादि लोणचाए परिणमति, अगणी विद्वत्थानिगालादीणि लोणीहोंति, एवं चत्तारि आलावगा ।। इदाणिं सबसमासो-इहेगतिया सत्ता णाणाविधजोणिया णाणाविधा संभवा जे पुढ चिजोणिया जहा सण्हपुढवीए सकरे पत्थर। समुच्छति प्रवाल कायस्कान्तादयः, आउजोणिया सरीरमेघजोगि, पुढची पुढचीए, एवं सेमागवि, शरीराण्येवाहारयति, IA कम्मुणा गईओ गच्छंति, णिरयादी, कम्मुणा द्विती उकोममज्झिमजहणिया, कम्मुणाऽऽरियादिविपञ्जासो, जहा मणुस्सो मेरईओ होति, मणुस्सखेता पोरइयखेतं गच्छंति, काले-णेरइयकालं गच्छंति, मणुस्सगतिभावा देवगतिभावं गच्छति, आयाणह अगुत्तस्माहारे नरकादिः विपर्यासो, तस्मात् गुप्तः गवेसणा गहणे० घासेसणासमिते जाणादि ३, मदा नित्यकालं यावदायुः, शेष निर्वाणं वा गच्छति, गतो अणुगमो, इदाणि णया-जाणणा'णायमि गिण्हितब्वे 'सम्वेसिपि णया' इति आहारपरिण्णा सम्मत्ता ।। एवमाहारगुप्तस्य सतः पापं कर्म न बध्यते, नाप्रत्याख्यानस्य इत्यर्थः, तेनाध्ययनं अपञ्चक्खाणकिरिया गाम, अनुयोगO द्वारप्रक्रमः, णामणिप्फण्णे अपञ्चक्खाणकिरियापदट्ठाणं-णामं ठवणा गाथा॥१०९॥ दयपचक्खाणंति दम्वेणवि पचक्खाणं Oदनभूतो वा पञ्चक्खनि, तत्र द्रव्यस्स द्रव्ययोः द्रच्याणां वा पचक्खाणं जो जं सचित्तं अचित्तं वा दवं पञ्चक्खति तं दध्वं, तं ६९९] अथ द्वितिय-श्रुतस्कन्धस्य चतुर्थ अध्ययनं आरभ्यते [393] Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [४], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१७९-१८०], मूलं [६४-६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः प्रत्याख्याननिक्षेपः ॥३९०|| [६४-६८] दीप अनुक्रम [७०० साधू णवगेण य साधूण सचित्तादि सम्बदब्वाणि जावजीवाए पच्चक्खायाई, सावगोवि य कोई जावजीवाए आउफाय जं सव्वं सचि, कन्दमूलफलानि पञ्चक्खाति, कोड सचिनं आउकायं बजेइ, अचित्तं मञ्जमंसादि जावजीवाए पञ्चक्खाइ, कोई विगतीओवि मव्वातो जायजीवाए पच्चक्खाति, यदि हि ण वा कोइ सब्यातो पञ्चक्खति कोई महाविगतिबजाणं आगारं करेइ, साबगावि केवि जायजीवाए मझमंसादि वजंति, दवेण पञ्चक्खाणं जहा रजोहरणेण हत्थगतेण पचनाति, दव्वहेतुं वा पञ्चक्खाइ जहा धम्मिल्लम्स, दय्यभूतो वा जो अणुवयुत्तो, गतं दबपञ्चक्खाणं, अतित्थ समण! अतिस्थ भणत्ति पडिसेह एव, जहा कोह केणइ जाडतो कंचि भणति-ण देमित्ति, भावपचक्खाणं दुविध-मूलगुणउत्तरगुण ॥१८०।। गाहा, मृले सव्वं देसं च विभासा, गतं पञ्चक्खाणं, इदाणिं किरिया, सा जहा किरियावाणे, भावपच्चक्खाणेणाधिकारो, भावकिरियाए पयोगकिरियाए ममुदाणकिरियाए वा, तस्स रक्खणवा भावप्रत्याख्यान तदिह वर्ण्यते, कहं होई तप्पचइयं अप्रत्याख्यानित्वं ?, अप| चक्रवाणकिरियासु वहमाणस्स, अप्रत्याख्यानिनश्च किया कमत्यनान्तरमितिकृत्वा अवश्यमेव कर्मवन्धो भवति, ततः संसारो दुःखानि च इत्यर्थः, अप्रत्याख्यानं वर्जयित्वा प्रत्याख्यानं प्रति यतितव्यं, णामणिफण्णो गतो सुत्तालावे सुत्तं उच्चारेयव्यं-सुतं मे आउसंतेणं भगवता० (सूचं ६४), इह खलु एतस्याध्ययनस्यायमर्थः-नत्र प्रत्याख्यानिनः आत्मनः पञ्चक्खाणं भवति | तदधिकृत्योच्यते, आता पश्चक्रवाणी अपञ्चक्खाणी यावि, मवति आत्मग्रहणं आत्मन एवापत्याख्यानं भवति, न घटादीनां, कतरस्थात्मन:, यस्याप्रत्याग्न्यानक्रिया, क्रियत इति वाक्य होपः, जस्म ताव मब्वे मावजजोगा पचक्खाया तस्य सब्बसावजयोगप्रत्याख्यान क्रिया क्रियते, यस्यापि देशप्रत्याख्यानं तस्यापि येन प्रत्याख्यानं, तस्यापि ये न प्रत्याख्याताः सावजयोगा तत्प्रत्य ७०४] RAMRITS ॥३९॥ [394] Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [४], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१७९-१८०], मूलं [६४-६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: अप्रत्याख्यानपा ताङ्गणि प्रत सूत्रांक [६४-६८] दीप अनुक्रम श्रीसत्रक-1/यिकः कश्रियो भवति, प्रत्याख्यातेभ्यो न भवति, को पुण सो अपञ्चकखाणी ?, जो किरिया अकुशलो, धर्मार्थकामार्थमोक्षार्थ | वा क्रियमाणं कर्म क्रिया भवति, तद्विपरीता तु अशोभना क्रिया अक्रिया भवति, अक्रियासु कुशला अक्रियाकुशलाः, आह हि।।३९१।। 'अनर्थप च कौशल्य' अथवा न क्रियाकृशलः अक्रियाकुशलः, अजानक इत्यर्थः, घटात्मवाना, अकुशलशन्दस्य नान्यप्रति पेधः, आता मिन्छासंठिने यावि भवति मिथ्याप्रतिपत्ति:-मिथ्याध्यवसायः मिच्छासंस्थितिरित्यर्थः, तचो अतत्ताभिनिA वेशः, सो मिच्छासंद्विती एवं धर्मसाधुमत्यपानादिष्यपि योज्या, एवं तावदर्शनं प्रति मिथ्यासंस्थितिरुक्ता, आचार प्रति अनाचारो AD आचारत्ता भावेति, मायी उज्जुसणं भावेति, जहा उदायिमारओ, असिचमुढयो वा, एगंतदंडेत्ति न कस्यचिदपि दण्डं न FFAI पातयति, पितुरपि, कतो तस्य मरिसेति, पगंलबालोति णिश्चमेव इवेसु विसएसु अणिढेसु संपत्तेसु असंपकेसु दोहि चि आगलिञ्जड़ वालः, कार्याकार्यानभिज्ञात्वाहा मूढो बालः इत्यनान्तर, पगंतसुत्तेति यथाऽऽद्यखापसुप्तः शब्दादीनां विषयाणां सन्नि प्टानां मत्युपादो न भवति एवं सहिताहितकार्यानभिज्ञत्वात् हिंसादिसु कर्मसु प्रवर्तते, एकान्तग्रहणं न पण्डितबालपण्डितमित्यर्थः, आता सविचार: विचरति यस्य कायवाङ्मनांसि स भवति सविचारः, मणवयणाययफे, तत्र मनोविचारः इदं चित्यं इदं मनसा प्रकृत्य, वाविचारस्तु इदं वाच्यमिदं न वाच्यं, कायविचारोऽपि इत्यं मया न कर्त्तव्यं इत्थं च कर्त्तव्यमिति, विचारमणवयणकायवकोसि तुमं, न किंचि कुशलमकुशलं या मनसा चिन्तयति, वाचा न ब्रुवते, कायेन स्थाणुरिव न चेष्टस्तिष्ठति, तस्यापि तावत्कर्म बध्यते, किमंग पुण सविचारमणवयणकायवकस्स', आह-पुनक्यिग्रहणं पुनरुक्तं, उच्यते, एककालं कदा। चिढा युगपत् योगित्वात् एवं सूक्तं भवति, उक्तं च-'काए बहुअज्झप्पं सरीखाया', आता अपडिहतपञ्चक्खातपावकम्मे यावि [७०० ७०४] ॥३९ ॥ [395] Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [६४-६८] दीप अनुक्रम [ ७०० ७०४] श्रीसूत्रवाङ्गचूर्णिः ॥३९२॥ “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि :) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [ ४ ], उद्देशक [-], निर्युक्तिः [१७९-१८० ], मूलं [६४-६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता... आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: भवति, पडितं पञ्चकखातं पडिसेधितं निवारितमित्यर्थः, ण पडिहतपञ्चकखातपावकम्मो अपडिहतपचखातपावकम्मे य, आद पुनरुक्तं प्रागुक्तं, आता अपचक्खाणी यावि भवति, इदानीमवि अपचक्खाणगहणा पुनरुक्तं, उच्यते, तत्राप्रत्याख्यानी उक्तो, नतुकं किमस्याप्रत्याख्यानमिति १, इह तु अप्रत्याख्यातस्यैतत्कार्यानि चा पडिहतादि, यच्चाप्रत्याख्यानी न प्रत्याख्यानि तदुच्यते, किंचिद् हिंसादि पापकर्म्म तदस्याप्रत्याख्यानं अपडिहतपचक्खातं, इह खलु एप इति यः उक्तः अपचक्खाणी ण तु देसमचक्खाणी वा स एव च असंजतो अविरतो यको असंयतो अविरतो यत्तिकाउं असंजतो अविरतो या अप्पडितपञ्चकापाचकम्मे सकिरिए असंबुडे एकतदंडो एवं जाव एतदंडो सुत्तो एस वालेति वाले अवियारमणवयणकायवकेत्ति, अधिकरणेसु अपडितपञ्चकखातः सुविणमवि ण परमतित्ति केसि खमान्तिकं कर्म चयं न गच्छतीति, अस्माकं तु स्वमान्तिकं कर्म्म अविरतप्रत्ययाद्वध्यते, सो अ पुण असंजते अविरते जाव अविचारच के अध्येकं स्वममपि न पश्यति यत्र प्राणवधादिकर्म कुर्यात् तावि य से पावे कम्मे कञ्जति बध्यते इत्यर्थः स्थापनापक्षः तत्थ चोदए पण्णवर्ग एवं वदतं वयासी (सूनं ६५) कामं सद्भिः मनोवाक्काययोगैराश्रवहेतुभिः कर्म वध्यते इति युक्तमेतत् यत्पुनरुच्यते-असंतपणं मणेणं पावएणं असंत एणं, असंता विद्यमान अमनस्कत्वाद्विकलेन्द्रियाणां संज्ञिनां तु अप्रयुज्यमानेन मनसा एगिंदियाम वाया णत्थि जेसिपि अस्थि तेसिंपि अप्रयुज्यमानया वाचा कायः सर्वेषामप्यस्ति त्रिभिरपि योगैरविचार जाववकस्मत्ति, सुविणमधि अपस्ततो हिंसादि पावकम्मे णो कुञ्जति, दृष्टान्तः आकाश, यथाऽऽकाशममनस्कत्यान्निष्टत्वाच कर्मणा न वध्यते एवं तस्यापि बन्धो न युक्तः, कस्स णं तं हेतु ? कस्माद्धेतोरित्यर्थ अथ कसाद्वेतोः कर्म न वध्यते ?, उच्यते - अयोगित्वात् इह हि अष्णतरेणं अष्णतरमनस्कस्य [396] SSUES SE अप्रत्याख्यानपा ॥३९२॥ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) अविरतिबन्ध: प्रत सूत्रांक “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [४], उद्देशक [-1, नियुक्ति : [१७९-१८०], मूलं [६४-६८] श्रीसूत्रक निरुदविचारमनःप्रयुक्तमनोवाकायकर्मिण इत्यर्थः, अप्येक खमं पश्यतः एवंगुणजातीयरय गुमामिनिवेशः क्रियते, अथवा बंधं ताङ्गचूर्णिः प्रति गुण एवासौ भवति येन बाते कर्म, युक्तमेतत् , तस्य इच्चेवमासु एषमाख्यान्ति, असंतएणं एवं वईए कारणं तस्स अम॥३९३॥ वणवकस्स अविचारजाववकस्म सुविणमवि अ पाये कम्से काति, जे ते एवमासु मिच्छं एकमाईसुवा, चोदकः पक्षः, एवं वदंतं चोदगं पण्णवगे एवं वयासी-जं मया लचु नृत्तं स्यात् , किमुक्तं ?-असंतएण मणेण पावएणं जाव पावे कम्मे कजति तत्सम्यक न मिथ्येत्यर्थः, कस्स णं तं हेतुं कसावेतोरित्यर्थः, तत्थ छजीवनिकाया हेतु, न व्यापादयितव्याः, इतिहेतुरुपदेशाप्रमाणे, संजहा-पुढविकाइया जाय तसा, इचेहिं छहिं जीवनिकाएहिं कदाचिदपि न तस्य अवधकचित्त मुत्पद्यते, अनुत्पद्यमाने |च अवधकचित्ते तस्याप्रत्याख्यानिनः तेसु आता अपडिहतअपञ्चक्खानपारकम्मो, अपडिहतअपचक्खातपावकर्मत्वादेव चास्य णिचं पसढ जाव दंडे, णिचं सन्नकालं, भृशं शार्ट प्रशठ, मततं निरन्तरमित्यर्थः, विविधो अतिपातः, अतिपाते अतिशब्दस्य । लोपं कृत्वा वियोपाते इति भवति, तेन वियोपाते चिचदंडे, तंजहा-पाणातिवाते, वर्तमानस्येति वाक्यशेपः, तत्र प्राणा 'छकाया | पुढवादि' एवं मुसानादेऽवि, अपडिहत अपचक्खातपायकर्मत्वादेव णिचं पसहँ अलियभासणे चित्तदंडे, अदिणाहाणेवि णिचं पसदं परस्वहरणचित्तदंडे, मेथुणे णिचं देवादिमेथुणसेवणे पसदचित्तदण्डे न किंचि दिव्यादि मैथुन परिहरतीत्यर्थः, सर्वपरिग्रहगहणं |पमदचित्तदण्डे न किंचिन्न परिगृहातीत्यर्थः, कोहेण ण कस्स न रुस्सइ अप्येव मातापित्रोः पुत्रस्य वा, एवं सेसेसु विभासा, मिच्छाMC सणं प्रति, तम्हा ते चेव मिच्छत्ते पसहचित्तदंडे संसारमोचकवैदिकलोकायतिलोक० श्रुत्यादिभिःभावितान्तरात्मा, न शक्यते तस्मादसगृहान्मोचयितुं, स्थादेव बुद्धिः-अकुर्वतः प्राणातिपातं कथं तत्प्रत्ययिक कर्म वध्यत इति प्रतिज्ञा, स एव च [६४-६८] दीप अनुक्रम [७००७०४] ॥३९३॥ [397] Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [४], उद्देशक [-1, नियुक्ति : [१७९-१८०], मूलं [६४-६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत वधक दृष्टान्ता सूत्रांक [६४-६८] दीप अनुक्रम [७०० श्रीमत्रक / पूर्वोक्कापडिहतपचक्खातपापकर्मत्वादिभिहेतुमिनिदर्शनं, तत्थ खलु बधएहि दिढते, से जहाणामए वहए गाहावइस्स वा जाव तागचूर्णिः रायपुरिसस्म वा कोई ताव पिति अविरोधेवि पुत्तं वा मारेति, कोइ पुत्त अविरोधे पितरं मारेति, कोइ दोवि ते मारेइ, अण्णं किंचि ||३९४॥ अकोसवहदंडावणादि दुक्खं उप्पातयति, एवं राजा रायपुरिसाणवि विभासा, स तु अपकृते वा वधखणं णिदाएचि-अप्पणो खणं A/ मत्वा साम्प्रतमक्षणिकोऽहं कर्षणेन तावत्करोति पुत्रं विवाहं च रोगतिगिच्छं वेत्यादि पश्चातधयिष्यामि खणं लदधति यावत्तस्स छिद्रं लभे, तम्य खणो, एवं चत्तारि भंगा, नागार्जुनीया अप्पणो अक्खणत्ताए तस्स वा पुरिसस्स या छिद्रं अलब्भमाणे णो HEबति तं जदा मे खणो भविस्सति, तस्स वा पुरिसस्स छिद्रं लभिस्सामि तदा मे पुरिसे अवस्सं बधेतब्वे भविस्सति, एवं मणे । में पहारेमाणेत्ति एवं मनः प्रधारयन् सङ्कल्पयन्नित्यर्थः, सुत्ते वा जागरमाणे वा, सुत्ते कथं पठ्यत इति चेत् ननु सुप्तोऽपि स्वमं किल पश्यन् तमेवामित्रं धातयति, तद्भयाद्वा अति, तं वाऽमित्रं न पश्यन् तं भयादनुधावति, किंचान्यत्-प्रत्याख्याने च आचाराद् अनाचारतश्च प्रत्याख्याता, उक्तः संक्षेपः, चत्तारो वणिजः दृष्टान्तः, मित्र एवामित्रभृतः अमित्रीभवतीत्यर्थः, मित्रस्सं तिष्ठतस्स ठाणे यद्यपि किंचिदुत्थानासनप्रदानादिविनयं विधमहेतुं पूर्वोपचाराद्वा कस्यचित्प्रयुक्त तथापि दुष्टत्रण वान्तर्दुष्टत्वादसौ असद्भावोपचार इति, असद्भावोपचारात् इतिकृत्वा मिथ्यासंधितो चेव भवति, णिचं पसदं जहा वीरणस्तम्बस्य अण्णोऽणेण गतमूलो दुक्खं उब्वेढेतुं एवं तस्सवि सो वधपरिणामो वैरा दुमक्खं उव्वेढेतुं, मारेऊणविणा उबसमति, जहा रामो कत्तबीरियं पितिवधवेरियं मारेऊणवि अणुवसंतणेण सत्त वारा णिक्खत्तियं पुढविं कासी, आह हि-'अपफारसमेन कर्मणा, न नरस्तुष्टिमुपैति शक्तिमान् । अधिकां कुरुतेऽरियतनां, द्विपतां मूलमशेषमुद्धरेत् ॥ १॥' एप दृष्टान्तः, अथो एवमेव बालेवि सव्वेसिं पाणाण जाव ७०४] ॥३९॥ [398] Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [४], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१७९-१८०], मूलं [६४-६८] (०२) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: वधक-. दृष्टान्तः प्रत श्रीसूत्रकतानचूर्णिः ॥३९५॥ सूत्रांक [६४-६८] दीप अनुक्रम [७००७०४] | सत्ताणं अविरतत्वात् अमित्तभूते मिच्छासंठिते णिचं विउवाते अप्रत्याख्यानत्वात् प्राणातिपातस्य तत्ातिकेन कर्मणा जस्स दिया) वा रातो वा जाय जागरमाणो वा बध्यते. यथा तस्य राजादिधातकस्य अनुपशमिते वैरे घातकत्वं न निवते एवमस्यापि अप्र-14 त्याख्यानिनः सर्वप्राणिभ्यो बैरं न निवर्चते, अनिव्वते च बैरे प्राणवधप्रत्ययिकेन कर्मणा असौ बध्यत एवेति, उक्तः उपसंहारः, निगमनस्यावसरः, 'प्रतिज्ञाहेत्वोः पुनर्वचने निगमन मितिकृत्वोच्यते--तसादपडिहतपच्चक्खायपापकर्मत्वात् तस्य अकुर्वतोऽपि प्राणातिपातं तत्प्रत्ययिकं कर्म बध्यत इति, पंचावयवमुक्त, एवं मुसाबादादीसुवि योजयितव्यं जाव मिच्छादसणसल्ले, इकेके पंचावयचं, एस खलु भगवता अक्खाओ असंजते अविरतो अपडिहतजावपावकम्मे, एवं पणवतेण वहगदिटुंते उपसंहते चोदक || आह-जहा से वधके तस्स वा गाहावडस्स जाब पुरिसस्म पत्तेयं पत्तेयं वीप्सा, एककं प्रति प्रत्येकं, कोऽर्थश्च ?-यस्मिन् तस्या|| पतं तस्मिन्नेव तस्य वधकचित्तमुत्पद्यते नान्यत्र, अन्नं बसौ वधकः प्राप्तमपि तत्संबंधिनं पुत्रमपि न मारयति, तस्मिन्नेव कृता-1 | गसि चैरिणि तद्वधकचित्तं मनसा समादाय गृहीत्वा इत्यर्थः, अमुक्तवैरः दिया वा रातो वा जाव जागरमाणे अमित्त० जाव चित्तदंडे एवामेव वाले, एवमवधारणे, एवमसौ बाल: सम्बेसि पाणाणं, किमिति वाक्यशेषः, पत्तेयचित्तं समादाय, कतरं चित्तं | समादाय !, वधकचित्तमित्यर्थः, दिया था जागरमाणे वा राओ वा अमित्रभृते, मिच्छास० णिचं जाय दंडे भवति, सो चेत्र चोदओ एवं पच्छा भणति, णोत्ति, स्यादुद्धिः कथं न भवति, पच्छा सो चेव चोदओ भणति-इह खलु इमेण समुस्सएण शरीरं चक्षुरादीणां इन्द्रियाणां मनसश्चाधिष्ठानं इमेनेति मदीयेन, पण्णवर्ग वा भणति-त्वदीयेन चक्षुषा, तदीयेन चक्षुषा न दिट्ठा पुव्वा सूक्ष्मत्वात्सनिष्टा अपि, स्थूलमूर्चयस्तु विप्रकृष्टत्वान दृश्यंते, तस्मान्नो दृष्टा, श्रोत्रेण न श्रुता, मनसा न श्रुता, एमिरेव त्रिभिः ||३९५॥ [399] Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [४], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१७९-१८०], मूलं [६४-६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: FR प्रत सूत्रांक दृष्टान्तः [६४-६८] दीप अनुक्रम [७००७०४] श्रीसूत्रक चक्षुःश्रोत्रमनोमियथाविपर्य न श्रुतं, श्रुतैरपि विज्ञाना न भवन्ति, जम्हा य ते तेण ण दिट्ठा वा सुता या विष्णाया वा अणवतानचूर्णिः कारिणो अणुपयुज्यमानाथ इत्यतः तस्य तेसु णो पत्तेयं दिया था जाब जागरमाणे या अमित्त जाव दंडे, कथं भविष्यति इति FA पडिसेहो अणुबत्तइ चेव, एवं चोदएण वुत्ते पण्णवतो भात-जइपि तस्स अपञ्चक्खाणियस्स अणवकारेसु अणुवजुअमाणेसु यतः। मनिकऐशु विप्रष्टसु वधचित्तं ण उप्पञ्जति तहावि सो तेसु अविरतिप्रत्ययादमुक्तयैरो भवति ॥ तस्स भगवता दुविधा दिढता पण्णत्ता, तंजहा-संनिदिढते असंनिदिटुंते य (सूत्रं ६७), संज्ञा अस्यास्तीति संक्षिका, न संज्ञी असण्णी, असंज्ञी दृष्टान्तः क्रियते, संशिदिद्रुते २ इमे संणिपंचिंदिया पंचहिंवि पजनीहिं पजतगा एतेसिं छजीवनिकाए पहुच चुचति, कायग्गहणेहिं एते छञ्जीवनिकाए आरभ्यते, न या आरभ्यते, यां प्रतीत्यापि वैरिणो, वैरिणो वैरं च सूयते अविरतस्य, से एगओत्ति चोदओ बुचति, तुमं वा अण्णं वा कोई इह पुढविकाएण, पुढवित्ति सर्वा एव पृथिवी अविशिष्टा, तद्विशेषास्तु लेलुसिलोपललवणादयः कृत्यन्ते, तेन तेसिं तस्माद् तद्वेति, तेनेति सिल बा लेलं वा खिवइ, लवणेण बंजणं लवणयति, तस्मिन्निति चंक्रमणादि करोति, तस्मादिति मृपिण्डात् घटादि करोति, तदिति तदेव मृद्रव्यं भक्षयति, एवं तावत्स्वयं करोति, अण्णेण वा कारवेति, तेहिं चेव A. हेउहिं पमारिहि तेन तस्मिस्तस्माद्वेति, णो व णं तस्स एवं भवति-इमेण वनि, तंजहा-कण्हमट्टिाए वा ५ जाव से जा आव. डिति, आसण्णे वा दूरे चा, कण्हा वा जाब पणगमत्तियातो, एतया किंचि, लिंपणअन्भुखणणसोयादी करोति, अण्णेण वा, जति यऽविय से एगवाए कजं तहा तहा बिसेसपावण्णः वर्णत्वे सति अपमेण वा गुणान्तरे तुल्यगुणाए, णो एवं भवति अमुगाय है, चा २ स्थानादीनि करिष्यामि, जत्थ से समावडति, तद्यथा-चिट्ठवणं णिसीयणं वा उच्चारादिवोसिरणं या, स एवं तो पुढविका EERUTIOPATI P ATTISGHamPETISTIANE HIMIRENDIDASTINUTEAPITADISPLAINI यार ॥३९६॥ [400] Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [४], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१७९-१८०], मूलं [६४-६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [६४-६८] दीप अनुक्रम श्रीमत्र- D यातो मध्याओ चेव अपडिहतपञ्चकवानपावकम्मे यावि 'भवति, से एगे आउ० पहायपियणसेअगमंडोगग्गधुगणादी, जंड विसेमो असंनितागचूर्णिा भवति स्वादउदकादिपु तथापि समाम्बादाविशेपो, तेउकाएणवि पयणविपाचणप्रकाशादि, स्थात् धातुवादिको, महिपछगणादि-1171 दृष्टान्त: ||३९७॥ विशेषस्तथापि महिपीछगणेसु अविसेसो, एवं अग्गिम्मियादीणं खदिरांगोरादिषु विसेसेऽवि समाणासु खादिरंगालेसु अविसेसो, एवं बाउकाएणवि विधूवणवीयणादिस, धुवणनावागमणादिसु वणस्सतिकाएणं, कंदादिममाणे विभामा, तसकाएणं येइंदियादि समाणे विभासा, तदुपयोगस्तु पानबहनआज्ञापनमांसाधुपयोगादि, से एगदओ छहिं जीवनिकाएहिं किचं करेति कारवेहवा, छहिं जीवनिकाएहिति संयोगेण तिगचउप्पंचछसंयागा विभासितचा, तत्थ संयोगे दबग्गिणिद रिसणं, जहा कोइ वणदवं विझवेमाणो धूलि तत्थ छुभति पाणियपि अगणीवि पतिदवं देति वातपि बाहविक्षोभणादीहिं वणस्मई रुक्खमालिमादीहि, तमा च तेसु घेव काएस संसिता सुन्निगउवयोगादिणा गोधं वा पुच्छं घेत्तृण ताए ममेति, ण पुणाई से एवं भवति इमेणं या इमेण वत्ति.। दुगसंयोगेण वा जाव छकायसंयोगेण वा, णिचं करेंतिवि, ण कदाइ उवरमति, असंजते जाव कम्मे, नंजहा-पाणातिवाने, एवं|| मुसाबातेऽवि, ण तस्म एवं भवति-इदं मया वक्तव्यमनृतं इदं नो वत्तव्यमिति, से य ततो मुसाबाआतो तिविहेण असंजते, अदिण्णादणे इदं मया घेत्तवं अमुगस्म प, मेथुणं इमं सेवि इमं ण, परिग्गहे इमं घेतव्यं दमण, कोहे इमस्स रुसितव्वं इमस्स ण, एवं जाव | परपरिवाए इमं वा विभामा, मियादसणे इमं तश्चमिति शेपमतच्चमिति, स्याद्विचारणा ण भवति, अभिग्रहे तु मिच्छादंमणे यने नामिगृहीतं तत्तस्य तवं प्रतिभामते, सेसेसु अणमिग्गहिए ण तस्म एतं भवति इमं तच्चमिमं अतपचामिति, एम खलु अक्खाते || IN असंज तेतस्याकुर्वतोऽपि हिमादीणि पापानि अविरतत्वात्कर्माजस्रमाश्रवत्येवेति सिद्धान्ती, सेनं समिणदिलुतो ।। से कितं अस- ३९७॥ [७०० ७०४] [401] Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [४], उद्देशक [-1, नियुक्ति : [१७९-१८०], मूलं [६४-६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: me प्रत असंजि दृष्टान्त: सूत्रांक ताङ्गचूर्णिः ॥३९८॥ [६४-६८] ) दीप अनुक्रम निदिट्ठते ?, असण्णिदिद्रुते संज्ञीनामसंज्ञीनां मनःसद्रव्यतया तदभावाचावश्यं तीवतीव्राध्यवसायकृतो विशेषः प्रसुप्तमत्तमूञ्छितेतवदिति विज्ञेयः, जे इमे अमणिणो तंजहा-पुढविकाए या जहा छद्धा वेगतिया तसा पाणा, ते तु बेइंदिया जाव संमुच्छिमपंचिंदियतिरियक्खजोणिया, समुच्छिममणुस्सा य, जेसिं गस्थि तक्काइ वा जाव चईति वा तेषां हि मनःसद्रव्यनायाऽभावात् प्रसुसानामिव पटुविज्ञानं न भवति, तदभावे चैपो तर्कादीनि न संभवंति, तर्को मीमांसा विमर्श इत्यनान्तरं, यथा संजिनः स्थानुपुरुषविशेषाभिजा मन्दप्रकाशे स्थाणुपुरुषोचिते देशे तकर्यति किमयं स्थाणुः पुरुष? इति, एवमसंझिनां ऊर्ध्वमात्रालोचना तर्का न भवति स्थाणुः पुरुषो वेति, संज्ञानं संज्ञा पूर्व दृष्टेऽर्थे उत्तरकालमालोचना, स एवायमर्थ इति प्रत्यभिज्ञानं प्रज्ञा, भृशं ज्ञाप्रज्ञा, अव्यभिचारिणीत्यर्थः, मननं मनः मतिरित्यर्थः, सा चावग्रहादिः, वयतीति वाक् जिह्वेन्द्रियगलबिलास्तित्वाद्यपि, वाग् विद्यते। द्वीन्द्रियादीनां त्रसानां तथाप्येषां पापं हिंसादि करोमि कारयामि चेत्यध्यवसायपूर्विका न वाक् अवागेव मन्तव्या, सदसतोविशेपात , यहच्छोपलब्धेरुन्मत्तसुप्तमत्तप्रलापवत् घुणाक्षरवद्वा स्वयं पापकरणाय अण्णेहिं वा कारवेति य, यद्यपि न कास्यन्ति न कुर्वन्ति स्वयं तहवि णं बाला, सव्वेसिपि पाणाणं ४, अविरतत्वात् दिया चा रातो जाच अमित्तभूता मिच्छा णिचं पसद जाय दंडाति पाणाइवातं, ते जहा मुसावादेवि, जधाधूओ अभुवः विधुवत्वाच कम्मणो, ण मुमावाता चिरतो भवति, एतेऽवि अमामता अव्यक्ति चिकिचिकिशब्दं करेमाणा मुसाबातातो न विरता भवंति, अप्येवं संजीनां वाच्यावाच्यविशेषोऽस्ति, तेषां तु तदभारात् सर्वमेव मिच्छा भवति, अदत्तमपि तेपामिदमस्मदीयं परकियमिति विचारणाऽसम्भपात अदत्तादानं सर्व स्तेयं भवति, यद्यपि किंचि काष्ठाहारकादि ममीकुर्वन्ती तथापि तत्तेपां केन दत्तमित्यदत्तादानं भवति, मैथुनमपि मक्षिकादीनि नपुंसकं वेद वेदयंति, आहार्येषु PM [७०० ७०४] ॥३९८| [402] Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [४], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१७९-१८०], मूलं [६४-६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: असंनि प्रत दृष्टान्त: सूत्रांक [६४-६८] दीप अनुक्रम [७००७०४] भीत्रक-ID|च द्रव्येषु परिग्रहः, क्रोधोऽप्येपा, न तु तीवः, जाप मायामोमोचि विभासा, मिच्छत्तं अणमिगहितं, इथे जाण णो घेव मणो तान्चूर्णि: 17ीणो चेव चई पापं कर्तुं कारयितुं वा सम्वेसि पाणाणं ४, कतरेसिं सत्ताणं असण्णीणं दुक्खणत्ताएत्ति दृषखावणाए, परितारणं ॥३९९| AV माग्णं वा' दक्खवणं वा, खजनधनविप्रयोगो शोका, जीरणं जूरणं स्वजनविभवानामप्राप्तौ प्राप्तिविप्रयोगेन, त्रीण्यपि कायवाङ्म नोयोगान् तापयति तिप्पावणा सर्वतस्तापयति परितापयति, बहिरंतश्रेत्यर्थः, अमणी सण्णिमादि, मच्छो मच्छ, मणूसो वा, खजमाणस्स जं दुक्खं ततो सो दुक्खावणातो अपडिविरते, विभावैः दुक्खतोवि दुक्खावेति, तच्चाधनानां सधनानां च तस्मिन्नष्टे मृते वा शोको भवतीत्यतो शोचावनादविरता, झूरेति जेसि बंधुविप्रयोगं करोति जे वा तदक्षिते णो जीवंतिण मरेंति ते झूरति, त्रिमिस्तापयति तानेव भक्षमाणा परितापयति न, तद्वान्धवाश्च, असंणिणोषि ते संणिणो इव ते दुक्खाति, जेसि मणो नस्थि तेवि मणबजेहिं दोहिं, दोविति सोगेवि तेसि मुच्छितो भवति, इच्छेवं तस्स सण्णी असण्णी वा दुक्खावणा जाव परितावणातो अपडिविरता, पधस्तादणं मारणं वा सिंगखुरादीहिं विसंताण गवियाओ, एतेहिं चेव वहांधणादीहि परिकिलेसेन्ति केई, आख्यायन्ते चन्धमोक्षवितद्भि| स्तीर्थकरैः णिचं मुसाबादे उवजीवसि, देसणसण्णे उबउ, असण्णिदृष्टान्तद्वयं किमनेन साध्यते ?, सणिणो य अहर्णता अमर्णता | य अविरतत्वाद् बध्यते, तथा चावभाषितं च जे मणेण णिवत्त निक्षेपाधिकरणं णिक्खिविणो संजोयणि णिसरणंति अधिकरणं |णिव्वचितं अवसटुं च, स तेण परंपरभवगतोवि अणुवमति, तज्ज्ञापनार्थमिदं सूत्रं-'सबजोणियावि खलु सत्ता' कामं सर्वे योनिग्रहणादिदहणप्रयोगयोगा कायच्या, इह खलुशब्दो विशेषणे, ग्रहणात्कायग्रहणं मंतव्यं, कायाधिकारश्चानुवर्तत एवेति, तत्थ |पंच काया तसकायवक्षा, णियमा असणी, सावि वेईदिया तेइंदिया चउरिंदिया तिरियमणुस्सा य संमुच्छिमा असण्णी, जे संमु ||३९९॥ IAN [403] Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [४], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१७९-१८०], मूलं [६४-६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत असंजिदृष्टान्तः सूत्रांक [६४-६८] दीप अनुक्रम भीत्रक- छिमेहिंतो उववजंति णेरड्यदेवेसु तेऽपि जाच अपजत्तगा ताव असणी चेव, सणी होजा अमण्णी, सण्णी जहा ताङ्गचूर्णिः । भवति तो अभिविभागाय, निसर्गतः सिद्धाः, त एवं कश्चिन संज्ञी या जीयः निसर्गसिद्धा, तत्र भूयश्च ज्ञानावरणीयकर्मोदयादसंजीवं, ॥४०॥ तत्त्क्षयोपशमात्संजित्वं, 'पूर्व यच्चाचितं द्वयोरिति तेन संजिनः पूर्व, तत्प्रतिपक्षातु पुनः प्रतिषेधः क्रियते, न संजी, तत्र संज्ञिना व्याख्याने इतरेषु निवृत्ताः कथाः तेन संज्ञिनः आदावभिधीयते, यत्रापि त्रसथावरा तत्रापि सुरासुरवदयपदेशादेवं क्रमो भवति, जहा जागरमाणो पुरिमो स्वपिति निद्रोदयात् निद्राक्षयाच पुनः प्रतियुध्यते प्रतिबुद्धश्च पुनः स्वपिति, एवं संज्ञित्वं जीवानां नैमित्तिकं न निमगिफमिति बोदव्यं, यस्माक्षेपी कायानां न निमर्गो संजित्वमसंज्ञित्वं वा तस्मादन्योऽन्यसंक्रमत्वमविरुद्धं, अविरुद्धं च तस्मिन् गतिप्रत्यागतिलक्षणं युक्त, यतोऽपदिश्यत्ते होज सणि अवा अमणि, तत्थ से अबहिया 'विचिर पृथग्भावे' अविविन्य जानावरणीयादि कर्म प्रथकृत्वेत्यर्थः, विविऽपि अविशोधितं भवति, यदृच्छिष्ट ऊहनोखावत , जहा मेरइओ साबसेसेण चेच कम्मेण उच्चट्टिय पदणुवेदणेसु तिरिक्खजोणिएसु उववाति, देवाविप्रायेण सुहट्ठाणेसु चेयुववअंति, उक्तं हि-"कवित्वमारोग्यमतीव मेधा०' अबिधूणिय जहा धूणिय पोडलगं परिद्ववेऊण वत्थं पुणो धोवेति, कंबली वा पी , पूणो पुष्फो उज्झति, एवं सच्चे विधुत्ते पुणो तत्शेष विशोधयेत् , अममुच्छियंति 'छिदिर द्वैधीकरणे अममुच्छिन्नं रिणवत् , अहवा 'सृज विसर्गे अनुत्सृष्टं मित्रकलत्रवत् , अणणुतापी यो तेहिं हिंमादीहिं श्रामबदारहिं तं पावं उचितं ताई काऊण गाणुतप्पति, हा! ४ कयंति, अहया सन्याणि एगट्टियाणि, अक्खवेतुं पुढविकाइयाण चित्तगाणि कम्माणि जे य तमा असण्णी मण्णी वा तन्निर्वर्तकानि च नामादीनि कर्माणि ताईपि अविप्पजोग अणुताविविय तैः स्वकर्मकतैः कर्मभिः अनुविद्धाः सणिकायातो वा तन्नेरइयदेवगम्भवकंतियतिरियमणु [७०० ७०४] ॥४०॥ [404] Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [४], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१७९-१८०], मूलं [६४-६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: मिथ्या प्रत श्रीवत्रकताङ्गचूणिः १.४०१॥ सूत्रांक [६४-६८] दीप अनुक्रम [७००७०४] | सनविभत्तासु, सेसा असण्णी, तं सष्णिकार्य संकमंति, भंगा जे संगी वा असंणी चा जहा एगे गामनगराई वा अन्योऽन्यसंक्रान्त | गत्यागतप्रत्यागतलक्षणानुवर्तिनः असंशिनः संझिनो वा दृष्टान्तद्वयेनोपसंहृताः तेषां सर्वेषां मर्पणं, अधुना सर्वे ते मिच्छाचारा चारादि | अप्रत्याख्यानत्वात् , कथ?, सर्वकडकविपाकं सुचरितमपि पुद्गलस्य मिथ्यादृष्टेः, इदानि चरितार्थस्यापि सूत्रस्य निगमनाथं पुनरामत्रणं क्रियते, अपचक्खाणित्वात् सबजी येसु णिचं पसढदण्डे सर्वाश्रयद्वारेषु, तानि चैतानि तंजहा-पाणातिपाते जाव मिच्छादमणसल्ले, एवं खलु भगवता अक्खातो, चोदगं पण्णवगो एव भणति यदुक्तवानिति, आदौ अहणंतस्स अणक्खस्म | पायकम्मे णो कञ्जति तदेतत् एवं खलु एवमधारणे यथेतदाऽऽदायुक्तं वधकदृष्टान्तेन सणिअसणिदिटुंतेहिं एवमसावप्यप्रत्या| ख्यानी असंजते अविरते जाव सुविणमपि ण पासति पावे य से कम्मे काति, एवमुपपादिते अप्रत्याख्यानी अविरत इत्यर्थः, स चाविरती हिसाथैः, तेण पाणाइवातेणं, जाव परिम्गहे, क्रोधो जाव लोभेति कसाया गहिता, पेजा दोसेत्ति कपायापेक्षावेव | रागद्वेपौ गृहीती, कलह जाब अविगतित्ति गोकमाया गहिता, ते य रतेसु चेव दोसेसु पाणवधादिसु समोतारेयव्या, मिथ्यादरि| सणाविरतिप्रमादकपाययोगाः पंच बन्धहेतवो एतेसु पदेसु विभासितव्या, उक्तमप्रत्याख्यानेन अप्रत्याख्यानवतां क्रिया च भवति, | कर्मचन्ध इत्यर्थः, तद्विपाकस्तु शारीरमानसा उड़काओ वेदणाओ तंजहा-उजलतिउजला जाब दुरधियासे, जे पुण संजतविरत| पडिहतपञ्चकखातपायफम्मा भवति तस्स किरिया ण भवति, कर्मबन्ध इत्यर्थः, तद्भाबा नरकादिपु नोपपद्यते, एवं सो चोदओ। पचक्खाणकिरियाफलनिवागं सुणेत्ता भीतो तत्थ जाव संजते तओ पण्णवर्ग वंदित्ता एवं पुच्छति-से किं कुब्वं किं कारवं? संजतविरतजावकम्मे भवति (सूत्रं ६८), सेत्तं सोडे, किमिति परिप्रश्ने, किं कुवं, व्रतं तवो धर्म नियमं शीलं संयम 7॥४०१॥ [405] Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [४], उद्देशक [-1, नियुक्ति : [१७९-१८०], मूलं [६४-६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: NOUT प्रत सूत्रांक [६४-६८]| दीप अनुक्रम [७०० श्रीसत्रक- वा संयमविरयजावकम्मो भवति, जेण मुचेज सम्बदुक्खाणं, कि कारवति किमन्यं कारयन्ति, शिष्याचार्ययोः संबंधो दर्शितः, आचोरताङ्गचूणिः निक्षेपादि धर्मकथासम्बन्ध इत्यर्थः, आचायों ब्रवीति-तत्य खलु भगवया काया हेऊ पण्णत्ता, जहा च पचक्खाणिस्स संसारस्स ते हे ॥४०॥ छञ्जीवनिकाया ते चेय हेक मोक्खाय, तत्थ निवृत्तस्य पुनः आगंतुं सुहृदुक्खतुल्लणं णातुं भिक्खू विरतो पाणावातातो जाय । २ शु.५अ. सल्लातो, तहेव प्राणातिपाताया मिथ्यादर्शनावसानाः संसारहेतवो, विपरीता मोक्षहेतवो भवंति, उक्तं हि-'यथाप्रकारा यावन्तः तेनोच्यते-एवं से भिक्खू विरते पाणाइवाताओ जाव सल्लातो, से भिक्खुः अकिरियाए जाव संबुडे, जं पुच्छिते सुहम्मा कथं संजतो भवति ?, तदेवमाख्यातं-एवं खलु भगवता आख्यायते संजते जार संवुडे, एगंतपंडिते यावि भवतिति वेमि ॥ इति पञ्चकग्वाणकिरिया सम्मत्ता।। एवं पडिहयपश्चक्खायपावकम्मरस आयारो भवति, एतेन आयारसुत्तज्झयणं, पडिपक्षेणं अणायारसुत्तं, पदद्वयं, आचारो णिक्विवियव्यो, इकिके चउकणिक्खेबो-णामं ॥१८१।। गाथा, आयारे णिकलेवो चउकओ गाहा, आयाररस जहा खुडियाचारए, सुत्तस्स जहा विणयसुत्ते. आयारसुयं भणियं ॥ १८२ ।। गाहा, आयारो यत्र वयते श्रुते तदिदं आचारश्रुतं तस्य आचारश्रुतस्य, नकारणेन प्रतिपेयः क्रियते, न आचारश्रुतं अनाचारश्रुतं, अनाचार इह वर्ण्यते इत्यतो अनाचारश्रुतं, अनाचारॉश्च वर्जयतः आचार एव भवति, मार्गविपथिकपथिकदृष्टान्तमामात् , यथा मार्गविपथिकः उन्माग वर्जयेत् , नापथगामी भवति मन चोन्मार्गदोपैयुज्यते, एवमनाचारं वर्जयन् आचारवान् भवति, न चानाचारदोपैयुज्यते, ते तु अनाचारे अबहुस्सुतो ण जाणति तेण कारणेण आचारसुतं भणति, बजेयब्वा सदा अणायारा' 'अबहुस्सुत' गाथा एतस्स उ पडिसेहे ॥ ॥ कतरस्म ?, जो ॥४०२॥ ७०४] अथ द्वितिय-श्रुतस्कन्धस्य पंचमं अध्ययनं आरभ्यते [406] Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [9], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१८१-१८३], मूलं [गाथा ६३६-६६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक ॥४०३॥ ||६३६६६८|| दीप अनुक्रम श्रीसूत्रक- अज्झन्थचियस्सत्ति तेण अणायारसुतं णामेण होति अज्झयणं, सो पुण पाविओ इह अणा चारो वणिजति, गतो णामणि'फण्यो। अनाद्यादि ताङ्गणिः सूत्तालाबगणिफण्णे-बंभचेरं आदाय (सूत्रं ६३६),(वृत्ती शीलाङ्कीयायां आदाय बंभवेर) गृहीत्वा आचारोति वाऽऽचरणंति वा संवरोति वा संजमोत्ति वा भचेरंति वा एगहुँ, 'आसुपन्ने आसु प्रज्ञा यस्य भवति म आसुप्रज्ञो, केरली तीर्थकर एक तस्य Pा वक्तव्यन्यापारः 'तीर्थप्रवर्तनफलं यत्प्रोक्तं.' अन्ये तु केवलिनो धर्मोपदेशं प्रति भजनीयाः 'इमं वई' तं इमां वक्ष्यमाणां वाचं क H] उक्तयां कतरां वा ? यस्मिन् धर्मे 'अणाचारे' अणाचारेज, अस्सि ताबके धर्मेऽनाचारः अकर्तव्यमित्यर्थः, अनाचारवती च न | IN याद कदाचिदिति, अहनि रात्रौ च सर्वावस्थासु, ते तु यथा लौकिका 'न नर्मयुक्तं वचनं हिनन्ति' तन्न, सम्यग्दर्शनज्ञानचारिPaवाणि मोक्षमार्गः सम्यग्दर्शनाचार एवादावुच्यते अनादीयं परिन्नाय ।। ६३७ ।। नास्य आदिविद्यत इत्य नादि अनवदग्गमि त्यपर्यवसानं चास्ति, तदनित्यमिति परतंत्री बने, सदकारणवन्नित्यमिति, सांख्यानामप्यहेतु सनित्यं, तदेवमनाद्यविपर्यवसानं च शाश्वतं चैकेपां, शाक्याः पुनस्तद्विपरीतां ब्रूते -सर्वमदिमवदग्गं च घटबदशाश्वतमित्यर्थः, तदेवं परतत्रा के चित्शाश्वतबादिन । ME | इत्यर्थः, 'सासयमसासए वा इति दिहिं न धारए' इत्येवं दृष्टिं दर्शनं न धारयेत् हृदि मनसि, दोपः, कनालम्बेन चैतत् , एतेहिं दोहिं ठाणेहिं (सूत्रं ६३८), विविधो विशिष्टो वा अवहारो व्यवहारः अनुपदेशः अननुमागेः, अनित्यादिव्यवहार इत्यनर्थान्तर, कथं १, एकान्तेन च शाश्वतवादिनो न व्यवहारिणः, ते तु हि सर्वे सर्वत्र सर्वथा सर्वकालं च नित्यमित्येके अवते, तेषां संसाराभावात् तदभावे प्रागेव मोक्षाभावः, अशाश्वतवादिनामपि सर्वेषां सर्वत्र सर्वकालं चानित्यमिति ब्रुवतां क्षणभङ्गित्वात्संसाराभावस्तदभावे च प्रागेव मोक्षाभावः, वन्धमोक्षार्थश्चायं प्रयासः, किंचान्यत्-सुहृदुक्खसंपयोगो एगंतुच्छेतम्मि य, यस्य चैतौ Tre ||४०३॥ [७०५७३७] [407] Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||६३६ ६६८|| दीप अनुक्रम [ ७०५ ७३७] श्रीसूत्रताङ्गचूणिः ॥४०४ ॥ Vagric “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [ - ], निर्युक्ति: [१८१-१८३], मूलं [गाथा ६३६ - ६६८ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: शाश्वत शाश्वतग्राहावेकान्तेन न व्यवहारमवतरत इत्यतः 'एतेहिं दोहिं ठाणेहिं अणाचारं विजाणएहि सम्यग्दर्शन विराधनेत्यर्थः, तदभावे प्रागेव ज्ञानचारित्रयोरप्यभावः स्यात् कथं प्रतिपत्तव्यं कथं वा व्यवहारो भवति १, उच्यते - सदसत्कार्यत्वात् तत्प्रतिपेधः अंगुलीयकदृष्टान्तः, यथा सुवर्ण सुवर्णत्वेनावस्थितमेव कारणान्तरतः अंगुलीयकत्वेनोत्पद्यते, तद्विनाशे च सुवर्णस्यानिवृत्तिः, अस्त्वेवं जीवो जीवत्वेनावस्थित एवं नामकर्म्मप्रत्ययानरकादिभावेनोत्पद्यते नारकादिविगमाच्च मनुष्यत्वेनोत्पद्यते, जीवद्रव्यं तु नारककाले मनुष्य काले चावस्थितं, घटपटादिष्वप्यायोज्यं, स्याद् आकाशादिषूत्पादविगमौ न विद्येते, तत्राप्युत्तरं आकाशादी तिन्हं परपच्चयतो, अत्राह - ननु शाक्यदृष्टिरेव उच्यते, तेषां हि पुद्गलो नित्यानित्यत्वं प्रत्यवचनीयः अस्माकं तु नित्यानित्याः सर्वभावा इति वाच्यमेतत्-उत्पाद्य विगमधौव्यपर्यायन्त्रय संग्रहं कृत्स्न श्रीवर्द्धमानस्य शासनं (शासनं भुवि ) ॥ १ ॥ एवं सर्व भावानां मन्यमानाः उच्यमाना व्यवहारमवतरति, व्यवहारादपेतं च मन्यमानमुच्यमानं वा न आचारं विज्जा, अयमन्यो दर्शनाचारः, 'वोच्छिजिस्संति सत्थारो' यस्य किलापवर्गोऽस्ति न चास्ति नवमन्योत्पादः, तस्यानन्तत्वात्कालस्य सत्थारोवि ताव वोच्छि जिस्संति तीर्थकरा इत्यर्थः किमंग पुण जे अण्णस्म य परिवारो मोक्खं गच्छंति, आह हि " त्वद्देशानामतीतः कालः किमहं त्वनन्ततद्विगुणं" ननूक्तं 'देविंदचकवत्तिणाई' गाथा, असदृशा- अक्षीणक्केशपृथग्जनेन गठिया भविस्संति, ग्रंथिं न सक्ता भेतुं गठियसच्चा इति वाक्याव्यवहारः स्याद्ब्रवीति भव्येषु सिद्धेषु अभव्याः स्थास्यन्ति यतः संमार परिहास्यति तथापि न मोक्षाभाव इति न दोषः, अवश्यं च संसारमोक्षाविति द्वन्द्व सिद्ध्या भवितव्यं, सुखदुःखवत् सीतोष्णवदेत्यादि, अथ मा भूत्संसार इति तेन अपवर्ग एव नास्तीति मन्तव्यं वक्तव्यं वा तथाऽनादि सामयंति णो वदेजा, मा भूत्संसाराभाव इति दोषः, अथवा [408] स्याद्वादादि ॥४०४॥ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [9], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१८१-१८३], मूलं [गाथा ६३६-६६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चर्णि: सर्वभव्य| सियादि प्रत सूत्रांक ||६३६६६८|| दीप अनुक्रम श्रीसूत्रक मणति सपरखचोदओ सध्ये भवसिद्धि एवं सासतित्ति, जइवि जीया सिन्झिस्संति त मावि भवसिद्धियविरहिओ लोगो न भविताइचूर्णिः स्सति, ण णामऽभवसिद्धिः, एवं सासतिति वा असामतित्ति वा णो बदे। एतेहिं दाहिं ठाणेहिं चवहारो (सूत्रं ६४०), ॥४०५॥ इमाणि दोष्णि द्वाणाणि-वोच्छिनिस्संति भविया अथवा णो बोच्छिजिस्संति, णो णामऽमविया, अथवा सेसा सब्वे गंठिया भवि | संति, तहावि एतेहिं दोहि ठाणे िववहारादीत्यतथ दर्शन न भाति, एतेहिं दोहि ठाणेहि अणायारं विजागए, कतरं अनाचार ? दर्शनानाचारं, स्यात् कथं मन्तव्यं, वक्तव्यं वा ? "जयन्तीति ! से जहा णामए मधागाससेढी" एवं मन्तव्यं, परेण वा पुढेण YA वक्तव्यं, उक्को दर्शनाचारस्येति । इदानीं चारित्रं प्रति श्रद्धानमुच्यते-जे केइ खुड्या पाणा ॥६४१॥वृत्तं, इन्द्रियाणि प्रति खुटुगा सब्बे एगेंदिया वेइंदिया क्रमवृद्धि जाव पंचेन्द्रिया, अथ शरीरं प्रति कुंथुमादी खुड्डगा हस्थिमादी महालया, संति-विद्यन्ते सर्वे लोकप्रत्यक्षा, आलयः शरीर, महानालयो येषां ते महालयाः, ताँच जिघांसुर्यदि कश्चित्पृच्छेत् आर्जवा दुर्विदग्धो वा-सरिसं वेर कम्मं ते मारेमाणस्स, किं सरिसो कर्मबंधो भवतित्ति, तत्थ को ववहारो?, उच्यते-तेहिं दोहिं ठागेहिं ॥६४२॥ वृत्तं, कथं न विद्यते !, जइ भमति-सरिसो कम्मबंधो तो महालया परिचत्ता, इतस्था ते थूलचि कया, अथ न भीरू लोगरवभीरू य ते परिहरति खुइलए य कुंथुमादि एगिदिए वहतो, दोहि ठाणेहिं ववहारोन, समं त्रुवता महालया तथाऽनुज्ञा, विपमं त्रुवता खुदलाघातानुज्ञा भवति, तेन धर्मसंकटमेतत् , न कश्चिानानो धर्मसंकटमनुप्रविशेद , अत्र दूधगणिक्षमाश्रमणशिष्या भटियाचार्या वते-अत्र निस्तुपमेय वाक्यमतो अवचनीयवाद इति, स तु तेरेव पुनर्विशेपितः, यथा शाक्यानां नित्यानित्यावेयेत्यवचनीयः | पुद्गलः अस्माकं तु विशिष्टं अवक्तव्यं, कथं न बक्तव्यं ?, तुल्योऽतुल्यो वा घाते बन्ध इति तृतीयमवक्तव्यं, अन्यमत्या आचारं [७०५ ७३७]] ||४-५॥ [409] Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [9], उद्देशक , नियुक्ति: [१८१-१८३], मूलं [गाथा ६३६-६६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक ||६३६६६८|| दीप अनुक्रम श्रीसूत्रक- प्रति पृच्छा-आधाकम्म(म्माणि) च ॥६४३॥ वृत्तं, आधायिकर्म साधुं मनस्याधाय प्रकरणमित्यर्थः, 'अन्योऽन्य' इति वीप्सा, || आधाकर्मताङ्गचूर्णिः |अन्य इति असंयतः तणादन्यः संयतस्येत्यसंयतः तस्यान्यस्याधायकर्म कर्तुः कर्मलेपेन किं लिप्यते नोपलिप्यत इति प्रश्नः?, BY वन्धादि ॥४०६॥ उच्यते-एएहिं दोहिं ठाणेहिं ॥६४४॥ वृत्तं, कथं अबवहारोऽनाचारश्च ?, उच्यते, यदि ब्रवीति अस्थि कम्मोवलित्तोति एकान्तेन तेन द्रव्यक्षेत्रकालभाया व्यतिक्रान्ताः, साधवः परित्यक्ताः, स्यादत उबालतेत्ति, जइ देतोवि बन्झति ननूक्तं 'तिहिं ठाणेहि जीवा अप्पाउअत्ताए कम्मं बंधति' 'तेणं किं मम अप्पवधाए चेव आहाकम्मेण दिण्योग ? बेन दाना बध्यने, अल्पायुष्कं च कर्मोपचीयते, किंच-अकृताभ्यागतदोपं चैवं कश्चिदपि पश्येत् , नैवं मन्येत, तेन उबलि नेति न वक्तव्यं, अह भगति-वि अण्णो अंगारे कडति एवं नान्यस्य कर्मणा अन्यो युज्यते तेन मृगदृष्टान्तेन दातव्यमेव च इति अत्र दोपः, जो देति सो पावं कम्म NT काउं जीयोवघातं करेइ इति परिचत्तो, जेऽपि पाणे वधेति तेऽवि परिचत्ता, तदेव धर्मसंकडमिति कत्याऽन्योऽन्यस्य कर्मणा उबलित्तो अनुपलित्तो वेत्युच्यमान व्यवहारं नाचरति एगंतेणं, किंचान्यत्-ये यदान पर्ससंति तद्वतोविजे णिसे|ति, अपमन्यो दर्शनं प्रति बागाचारः, नद्यथा-जमिदं ओरलमिति ॥६४५।। वृत्तं, ये इति अनिर्दिष्टस्य निर्देशः, इदमिति सबलोके प्रत्यक्षं आहारकमपि कपांचित्प्रत्यक्षमेव, वैक्रियमपि प्रत्यक्षमेव, तैजमकार्मणे प्रत्यक्षज्ञानिनां प्रत्यक्षे, एफस्मिौदारिके साधिते शेषाण्यपि साधितानि भवंति, शिष्यः प्रच्छति एतदौदारिकं शरीरं कार्य कार्मकशरीरा निष्पनं तत्किमनयोरेकत्वमुनाहो अन्यत्वं, कुतः संशय इति चेत् उभयथा इष्टत्वात्कार्यकारणयोरिह तंतुपटयोरयुगपत्सिदिष्टा, तंतब एव कारणान्तरतः अभिनदेशं पर्ट निर्वतयति, आदर्श त्वादर्शदृश्यसंयोगा सदृशछाया उपलब्धे सति कार्यकारणयोः संबंधे मित्रदेशता दृष्टा इत्यतो नः संशयः, [७०५७३७] [410] Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [9], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१८१-१८३], मूलं [गाथा ६३६-६६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक ||६३६६६८|| दीप अनुक्रम श्रीयत्रक-10 किं कार्मणशरीरमौदारिफ भिन्न देशमारभते प्रतिबिंबवत् उताभित्रदेशं तंतुपटवदिति तत उच्यते, एकाश्रयत्वान्न प्रतिविम्बनि- कारणकाताङ्गचूर्णिःनदेशं, तंतुसमुहै। चा स्याद् , उक्तं हि-'जले तिष्ठति०' आहारात्तु तावतंतुपट पदन्भिनदेशः कार्यकारणसंबन्धः कार्मकऔदारि- योन्यत्वादि ॥४०७|| | ककायौ, तरिकमेकत्वमनयोरुतान्यत्वं इति, उच्यते, मदमत्कार्यत्वात् घटवदेनत्स्यात् , उक्तं च-"गरिय पुढी विमट्ठो घडो"त्ति | एवं न कार्मणशरीर प्रत्याख्यायौदारिकं भवतीति एकसं सिद्धमनयोः, सुक्ष्मस्थलमूर्तिमच्चादचाशुपत्वान्त्रिरुपभोगसोपभोगत्वाचा | स्पष्टं अन्यत्वमित्येवं सदसत्कार्मकौदारिकयोरेकत्वान्यत्वं प्रति भजनीयना, वैक्रियाहारकयोरपि, तैजयमपि कम्मकातो णिकअति, तत्थवि भजना, इचेवं एकान्तेन तु एकत्वमन्यलं वा अवतो वागनाचारो भाति, तेण एतेहिं ठाणेहिं ।। ६४६।। वृत्तं, IN पच्छिमद्धसिलोएण वितिजिया पुच्छा, सनस्थ वीरियं अत्थि यथा कार्यकारणयोर्वक्तव्यावक्तव्यतोक्ता एवं कर्तृकर्तव्ययोरपि, कितत् सर्व सर्वकार्ये किं कर्तुः मामर्थ्यमस्ति उत नास्तीति प्रच्छा, उच्यते, शिक्षार्थ पूर्वमशिक्षापूर्वकं च, केषु कर्तुः सामर्थ्यमस्ति केपु च नास्ति, तत्र शिक्षापूर्वकं घटादिष्वपि सामर्थ्य अशिक्षापूर्वकं गमनादानभोजनाद्यासु क्रियासु चैवं सामथ्यनास्ति, उक्त हि-"छहिं ठाणेहिं जीवस्स नत्थि उट्टाणेइ वा० लोगं च अलोगं च एवमवचनीयनादः प्रसक्त इतिक्रत्वा साम्प्रतमपवादः क्रियते, Halन सर्वत्रावचनीयवादो भवति, तंजहा-णत्थि लोए अलोए वा ॥६४७वृत्तं, प्रत्यक्ष एवं दृश्यते स कथं नास्तीति संज्ञा दिन निवेशः इति, व्यवहारो वक्तव्यो, यच्चास्ति लोक इति लोकविरुद्धं चैव, प्रतिषेधश्च कथं ?, प्रतिषेधकोऽस्ति ? अप्रतिषेधे लोको नास्ति ?, स हि लोकान्तर्गतो या न वा?, यदि लोकान्तर्गतो यथा भवानस्ति फिमेवं लोको न भविष्यति, उत लोकयहि तो वा ननु लोकस्यास्तित्वं सिद्धं यस्य भवान् बहिर्वर्तते, वक्तृवचनवाच्यविशेषा न च कश्चित् प्रतिपेधयति, लोकास्तित्वे अलोक-IN४०७|| [७०५७३७] [411] Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [9], उद्देशक , नियुक्ति: [१८१-१८३], मूलं [गाथा ६३६-६६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत श्रीसूत्रक सूत्रांक ताङ्गचूर्णिः ॥४०८॥ ||६३६६६८|| दीप अनुक्रम स्थापि, सुक्खदुक्खशीतोष्णजीवितमरणछायातपदिति द्वन्द्वसिद्वेस्त मात्र संज्ञा मनमि निवेशयेत । किन्तु 'अल्बि लोग अलोएलोकाशि वादि चा' अत्रापि भजनीय अस्ति सद्भावे, आदिडो लोकः अत्थिता असदापादिड्डोपास्थि तहावि लोकविरुद्वमितिकता भजनाबादो नोच्यते । अस्थि जीवो अजीवो वा ॥ ६४८ ।। वृत्त, जीवद्रव्यसिद्वौ तद्गुणावसरो यत उच्यते-गस्थि धम्मे ॥ ६४९॥ वृत्तं, तदेवं घृणानिस्त्रैण्ये, न वाभ्युपगमो भवति, धर्मतो हि अभ्युदयनिःश्रेयमयोः सिद्धिरिति, अन्यच्चाभ्युपगम्यते धार्मिकस्य, सN । चेन्नास्ति कस्ताननुमत ?, तेन तीर्थोछेदः, अधार्मिकेषु कर्मसु प्रवर्तते नास्त्यधर्म इति कृत्वाऽतो दोपसंकटं, न वक्तव्यं नास्ति धर्मः अधों वा, वक्तव्यं तु 'अस्थिधम्म अधम्मे वा। धर्माधर्मानन्तरं बन्धमोक्षौ भवतः अधर्मश्च कारण बन्नस्य, धर्मस्तु सरागधर्मों वीतरागधर्मश्च, तत्र सरागधर्मः स्वाराज्याय, धर्मः स्वर्गीय, वीतरागधर्मस्तु मोक्षाय, ते तु प्रायेण चित्रिनलोका लोकायताया धर्माधमों वन्धमोक्षौ नेच्छन्ति, एककतावासः (भावः) अधुपगमनिर्दयदोपाच वान्याः, धर्माधर्गवन्धमोक्षास्तित्ववादास्तु त एव विपरीताः सुगुणा भवंति, उक्तो बन्धस्तद्विकल्पास्तु पुण्यं पापंच, अतो बन्धमोक्षानन्तरं गत्यि पुषणे व पावे वा ।। ३५१ ।। वृत्तं, तत्थ पुण्यं णवविध, पुणं सुहादि, अथवा पोग्गलकांच सुभं गोत्रादि, अनं पापा णस्थि, पुष्णतिकाउं पुण्णायतणाई लोगो ण सेविस्सइ, तं पुण्णस्स तहा हेतुं, पुग्यपापयोरागमः हेतुः प्रभवः प्रमूतिराश्रवमित्यनान्तरमितिकृत्वा, ने पुण्यपापानन्तरं आसवो संवरक्रिया या, णस्थि फिरियत्ति अकिरियावादिणो भगंति, केचित्त बुबते-पर्वमुत्पाद्यते घटवत् , यच्चोत्पद्यते तत्सवं क्रियावद् घट्वदेचेत्यत: अकिरिया णस्थि, उत उभयमत एतदर्थ नस्थि किरिया अकिरिया बा, अस्थि किरिया अकिरिया वा, तब जीवपुद्गलाबवस्थितौ च क्रियावन्ती, धर्माधर्माकाशानि,निक्रियानि,प्रागभिहित आया,नझेदास्तु-णत्थि कोहे ॥४०८|| [७०५ ७३७] dire [412] Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [9], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१८१-१८३], मूलं [गाथा ६३६-६६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक श्रीस्त्रक- ताङ्गचूणिक ॥४०९|| ०९ ||६३६६६८|| दीप अनुक्रम माणे वा ॥६५६॥ वृत्तं, दृश्यन्ते हि यथास्वं क्रोधादिकपायाभिभूता वधवैरप्रवृत्ताः तत्कथं कपाया न भविष्यति, नस्थि संसारखपेजे ॥६५७॥ वृत्त, प्रीतिः पेम वा पेज बा, तद्विपरीतं दोपः, एतेहिं चेय-कमाएहिं पेव, कसाएहिं पेजदोसेहिं वा संसारो स्वादि वा चाउरंतो णिचनिञ्जति, तेण णस्थि चाउरतो संसारो ॥६५८॥ वृत्तं, चत्तारो अंता जस्स स भवति चाउरंतः, तत्थ तिरिक्खजोणियमणुस्सा पञ्चक्खचिकाउंण वति णस्थि य मणुयो, रइयजुवलयं जहा सेसागं, णेरड्यपजंता अणुमाणगिज्झा० वुचंते, ण वुचंति-पत्थि देवो व देवी वा ॥६५९।। अस्थि देवो व देवी वा। देवाणतरं णस्थि सिद्धि असिद्धि वा ।।६६०॥ केचिद् युवते मोक्षोपायो णस्थि, तेण चुचंति, 'णस्थि देवो व देवी था, णस्थि सिद्धि असिद्धि वा जइ कोइ भोजा सकपुब्यो उ, IA 'जले जीवा थले जीव'ति, कोइ जीवबहुत्ता अहिंसाभावा च णत्थि सिद्धी नियंठाणं ॥६६१।। तत्प्रतिपेधार्थमुच्यते-अस्थिV जीवबहुत्वेऽपि, कथमिति जीववत् , तदुच्यते 'जलमज्झि जहा णावा' णस्थि साधू असाधू वा, णिव्याणसाधगा अहिंसादि हेतू साधयंतीति साधू, तत्केचिद् ब्रुवते-विणावि जीवबहुत्वे नैव शक्यते मोक्षः साधयितुं कस्माद् ?, यतश्चलं मनः, अविनयति चलानि चेन्द्रियाणि, ताणि न सुखं निग्रहीतुं, अनिग्रहीतेपु च कथं मोक्षः स्यात् , उक्तं हि 'चंचलं हि मनः पार्थ.' यसादेयं तस्मानास्ति | साधुः, साध्वभावाच तत्प्रतिपक्षभूतस्य प्रागेवासाधोरभाव इति, तदुच्यते-अस्थि साधू असाधू, कथं साहू भवति ?, उच्यते, णाणी | कम्मसक्खो, विसयाण अणवत्तणं, अथवा साधुरेव साधुः संयत इत्यर्थः, विवरीतो असाधुः, णस्थि कल्लाणेति ॥६६३॥(सूत्री, | यथेष्टार्थफलसंप्राप्तिः कल्याणं, शाक्या ब्रुवते-सर्वमनिमित्तमात्मकवचनात् कल्याण मेव न विद्यते कचित्, पावं कथं णस्थि, | सर्वमीश्वरविकार इतिकृत्वा, कुतः पापं नेच्छंति परलोकिके-1, शाक्यास्तु कल्याणमेवैकं नेच्छंति, तेषां त एवानाश्वासादयो दोपा ALI४०९॥ [७०५ ७३७]] [413] Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [9], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१८१-१८३], मूलं [गाथा ६३६-६६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक ||६३६६६८|| दीप अनुक्रम श्रीसूत्रक- अभिधेयाः, वयं तु अस्थि कल्लाणे पावे वा कथं कल्लाणं ?, कल्लाणफलविवागदर्शनान् , प्रत्यक्षतो हि कल्याणपापफलविपाका दृश्यन्ते, एकान्त ताङ्गचूर्णिः कल्याणादि रोनितसुहितदुःखितादिषु सुइविवागदुहवियागाई एत्थ दरिसर्ण, उक्तो दृष्टिं प्रत्यानाचार आचारच, अयमन्यो दृष्टयामनाचारः, पाप॥४१०॥ । कानि कर्माणि करोति वेदयति बेति, अत्रैकतेन एस कल्लाणे पावउ(ए)॥६६४॥ (मूत्र), पुरिसे भामाणे ववहारोन विजति, तत्र वच क्षरणे, कथं कल्याणकारी ण भवत्येकान्तेन ?, उच्यते, सातं चेत्यादि कल्लाणं, एतेसि सेसाणि य एतेण कारणेण पावं, जाव सूहुमसपराईयबंधो सो आउमोहणिजबजाओ छ कम्मपयडीओ बंधमाणे णाणावरणिजअंतराईयाई बंधति, ताओ जाओ प्रायेण सुहं बंधति, तहाचि एकान्तेन कल्लाणकारी न भवति, अथ चेदन प्रति अणुत्तरोबवाइयावि किंचि अशुभं णाणावरणि F वेदेति, जेण तेसिंण सचं गाणाचरणीजं खीणं, एवं दरिसणावरणिअंपि अंतराईमंपि, मणुस्सेसुपि तित्थगरोवि सीउण्डादीणि अमा-BA 1 ताणि घेदेति, जेण जति सो खीणकसायो ग णाणा० पाचं बंधति, ताव वेदेति नामगोतं असातं च, तेण एर्गतकल्लाणे ण वत्तव्यो, एगंतपावो मिच्छादिट्ठी परमकण्हलेस्सो उफोसं संकिलिट्ठाणि परिणामोच्यते, जइवि सो बंधं प्रति एगंतपायो तहाचि कदाचित सातावेदओ हुआ, उच्चागोतो सुभणामोदयो बा, णियमा पंचिंदिओ उत्तमसंघयणो य, एवं एगंतपायोनि मो न व्यवहारमनतरति, यस्माञ्चैवं तमादेकान्ते निर्देशव्यवहारोण विक्षति, यवहारायेदं च मण्णमाणमुन्यमानं वा वैरं प्रसने, कर्मण एवं च बैगख्या, उक्तं हि-'पावे बजे वेरे०' दृष्ट हि लोकविरुद्धमुच्यमानं वैराय, उक्तं हि-जाता यथा, अतोऽन्यथाऽऽलापे च बरं, नया चोक्तं-जीहा जहा पमाणं जे में एवं तु सूक्ष्म ज्ञेयं, कुदृष्टयः श्रमणा अपि नावन्न जानन्ते शास्यादयः किमु गृहस्थाश्च बाला, मूला एव अजानका इत्यर्थः, यद्यपि ते म्वगास्त्रपरशास्त्रविशारदा: लोकेन पण्डिता इत्यपदिश्यते तथापि पण्डिता इति वाला एवं प्रत्यबसेयाः, ४१०॥ [७०५ ७३७] [414] Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [9], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१८१-१८३], मूलं [गाथा ६३६-६६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: अशेपात्वादि प्रत सूत्रांक ||६३६६६८|| दीप अनुक्रम श्रीसूत्रक- अयमन्यः अवाच्यसंग्रहः प्राक्तनेनैव श्लोकेनाभिधीयते असेसं अक्वयं वावि ॥६६५।। (पत्र), अशेपं कृत्स्नं सम्पूर्ण सर्वताङ्गचूर्णिः मित्यनर्थान्तरं, न सर्वमुक्तमेव भवति, सवों ग्रामो आयात इति अवाच्यमेतत् एकान्तेन, कथं ?, जीवाजीवसमुदायो हि ग्राम: ॥४११॥ स कथं सर्व आयास्यति, अशेपो वा ओदनो त्वया मया भुक्त इत्यव्यवहारः, तत्र हि शिक्थादयः, शिक्थै फदेशावयवा ओदना, DI| गन्धक्ष विद्यत एव, यद्यपि अशेपा मिथ्या वा भुत्ता अण्णस्थ वा पक्खिता तहाचि गंधोऽस्ति, न चापद्रव्यो गन्धो भाति, एवं चेय जइ भणति-देहि देहि मुंज झुंज वा अञ्जवि अक्खयो कूरो अच्छति, न हि कृतकानां द्रव्यानां अक्षतता विद्यते तेण ण सब्धमक्खयं वत्तव्यं, ननु संमारः कथं', उक्तो हि सो सम्बकालदुक्खो, उच्यते, पण्णवणामग्गोऽयं' जेण बुचति तो सबकालदुक्खो, इहरहा सुहपि अस्थि दुक्खंपि, ननूनं सादं च वेदणिजं, सातं च नवपदार्थः, तत्थ पण्यावणं पडुच तस्थिमो पदत्थो-सुहोदय, किं पुष्णं पुब्बम्मिति पावं पच्छा मिजति, एगमेगंतेणं सर्वदुःखमुच्यमानं चवहारं नावतरति, वज्झमाणाण वझंति सर्वलोके चिरु द्वमेतत् वज्झं पाणाति मणसावि ण सम्मतं किमुत वक्तुं ?, कम्मुणा चा कर्तु, अतोन वक्ति वध्याः प्राणिनः, अथ अवज्झा, कथं न FA वाच्यं ?, नन्वेतदपि लोकविरुद्धमेव, कथं ?, अहिंसकः स्वयं न च वक्ष्यति अवध्याः प्राणा इति, उच्यते, सत्यमेतद् स्वयं क्रियते तदन्यस्थाप्यपदिश्यते, किन्तु यदि कश्चित् सिंहमृगमार्जारादीक्षुद्रजन्तुजिघांसु बयात्-भो साधो ! किमेतान् क्षुद्रजंतून घातयामि DAI उन मुंचामीति, तत्र न वक्तव्यं मुंच मुंचेति, ते हि मुक्ता अनेकानां घाताय भविष्यन्ति, एवं चौरमच्छरद्धबंधादयो न वक्तव्या| GI Sच घातयेति बा, आह च-'ग्रसत्येको मु०' अव्यापार एप साधोः, तेन व्यवहारपक्षे नावतरति, यसाच व्यवहारपक्षातिक्रान्ता एवं प्रकारा चाक् तस्मादिति वाचं ण णिसरे, एवं ताव लोगो जं भणति 'असेसं अक्खयंति वा' तंतहा ण वत्तव्यं, उच्यते किंचि [७०५ ७३७]] ॥४११॥ [415] Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [9], उद्देशक , नियुक्ति: [१८१-१८३], मूलं [गाथा ६३६-६६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक श्रीयन्त्रक ||६३६६६८|| दीप अनुक्रम दन्यथा, जहा कि?, दीसंति० ॥६६६।। (सूत्र), णिहुअप्पणो स्वशास्त्रोक्न विधानेन निभृतः मात्मा येषां ते भवंति निभृता- एकान्त নাল্পখুলি: निरर्थकस्मानः युगतरपदिट्ठिणो परिपूतपाणियपायिणो मोइणो णगणिणो विवित्तिका, तेसिपि णो ध्यायिन इत्येवमादि न निभृतं, मिक्खा॥४१२॥ त्वादि मेचवित्तिणो साधुजीविणोति ण कस्सह उबग्गथेण जीवंति, के, ककहागकसयावञिणो, एवं वने ते मिच्छा पडिवअंतित्ति, एवं दिदि न धारेज, परेण पुढेण एवं भणेजा-एते वरागा वालतपस्सिणो सब मिच्छा करेंति, लोकविरुद्धं च, तं भणंतस्स ते लोए गाढरुट्ठीभूता पन्छा लोगो मा भणिहितित्ति एते मदीये सस्थिया गुणद्वेषिणः, अविदुः रुस्तंति ण य उवसमंति, तेऽपि य जाव गेवेजा ताव उबवअंति तो कहं एगतेणं एवं बुचति-सबमेतं णिरत्थगं फिलिस्संति, नो णिचपुट्ठो वा भणिति-अणामाढमिच्छा दिट्ठीस, एतेवि किंचिदधेलोगफलिगं णिवत्तेन्ति, अयमण्णो अन्नउत्थियगिहत्थाणं दाणं प्रत्यव्यवहारः-दक्खिणाए पडिलंभो (A5॥६६७।। (सत्र), दान देंति देयते वा दक्षिणां, दक्षिणां प्रति लंभो, दक्षिणायाः प्रतिभा, अथवा दक्षिणाया लेमे प्रति दक्षिणाल भस्तया वा लंभितः स प्रतिलम्भः प्रतिमानवत् सम्मानितो वा भवति, एवं प्रतिकारप्रत्यपकाराप्रतिपूजादिष्वायोज्यं, स किं पात्रे वाऽपाने वा प्रतिलाभिते ?. ततो पडिलाभो अस्थि णस्थि पछिजति भणति-एकान्ते नास्ति तत्थ दोसा, जारिसंवा विनीय व तारिसेणेव फलेण होतब्बं, तेण अधम्मियस्स कस्सइ इट्टदाणं दिण्णं तेणवि मा णाम हटेण फलेण होतव्यं, पावे या अंतं पंतं दिण्णं तेणावि णाम अंतफलेण होतव्वं, एवमनेकान्तः, पत्ते तु इट्टमणिटुं वा सड़ाए अणुपरोधी दिजमाणं महफलं भवति, अपचे तु इट्ठमणिटुं वा दत्तं वधाय, तहाचि ण वारिजति अंतराईयदोसोत्तिकाऊग, तथाऽणुज्ञायते न देहित्ति मजारपोसगादिट्टतेण मा। अधिगरणं भविस्सति, तेण असंजतगिहत्थाणं अगउत्थियाण देहित्ति, किंच-इत्थ पुण पाय पुष्ण ण वियागरेजा, मेधावी जइ ॥४१२॥ [७०५७३७] [416] Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [५], उद्देशक , नियुक्ति: [१८१-१८३], मूलं [गाथा ६३६-६६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: आईकवृत्तं सूत्रांक प्रत श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः ॥४१॥ ||६३६- | २ श्रु.६ अ. ६६८|| दीप अनुक्रम D. पुण भणति-किं पत्तं जस्स मए दातव्यं ?, कथं ? वा किंवाऽस्य फलमिति तदाऽस्य कथ्यते, यो दातव्यं देयं, एवमेतान्यव्याकृतवक्तृनि | यथा येषु स्थानेषु वक्तव्यानि तथोक्तानि अवक्तव्यान्यप्यन्येषु स्थानेषु यथा च वक्तव्यानि तथाप्युक्तं, एतेन लक्षणेनान्यान्यपि । तथाऽवक्तव्यानि वक्तव्यानि च विज्ञेयानि, अतोऽतिप्रसक्तं लक्षणमितिकृत्योच्यते,एवं सर्वत्रैव तद्विकल्पं करिष्यति तेनोद्वारः क्रियतेएकान्तेनैव 'सन्तिमग्गं च चूहए' शमनं-शान्तिः मग्गे-मार्गः जेण कथितेण उपमर्मति सताणि शासनवृद्धिश्च भवति तथा कथयति, सो पुण संतिमग्यो धर्म कहतेहिं पावाउतेहिं संगिण्हतेहिं उवगिण्इंतेहिं हितो भवति, उक्तं च-'प्रावचनी धर्मकथी' | एत्थ णस्थि भयणा, एगंतेन चै तथा तथा कहेतब्बं जहा जहा संतिमग्गों वृहिति इचेएहिं हाणेहि ॥६६८॥ (सूत्र), कतराई ठाणाई ?, जाणि अणादाय परिणादीयं परिणादीणि अपवहारं णावतरति, जो अस्थि लोए वा अलोए वा ववहारं अवतरति, तेसु सम्बेसु संजयति तिरियमाणेसु अप्पाणं, कथं अप्पाणं वारयति, अववायं भगंति, एवं धारितो अप्पा कियंत कालं?, आमोक्खाए जाव ण मुचइ सम्बदुक्खेसु असाद्वा, शरीरकत्वे, परि समंता वएजासि मोक्खाय परिव्यएआसित्ति बेमि ।। अनाचार| श्रुताख्यं पंचममध्ययनं समत्तं ॥ अनाचारश्रुतमुक्तं, यथा केन वर्जिवा अनाचाराः, अनाचारश्च सेवितो सो भावतो तावदुच्यते-जहा अद्दएण, एस अज्झ| यणसंबंधो, णामणिफण्ण अद्दइज, अई णिक्खितव्य-णामई ठवणई ॥१८४|| गाथा, आईकमिति नाम, वत्थाण खिचमद्देण, वष्णदं चिचकमादिसु आर्दकं लिसितं, आर्द्रानक्षत्रं लिखितं, उदगई सारई ।। १८५ ।। गाथा, उदकाई यथा उदका गात्रं, केवि हरितया सुकंतयाए य अब्भन्तरे जं पंडुरगं, संसारो पण्णाणे णियसे अजवि प्रीत्याः , एवं उल्लोल्लो अस्थिति विन्ति, तया [७०५७३७] ॥४१३॥ अथ द्वितिय-श्रुतस्कन्धस्य षष्ठं अध्ययनं आरभ्यते [417] Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत आद्रकवृत्तं सूत्रांक ||६६९७२३|| दीप अनुक्रम श्रीसूत्रक- यथाऽयं पुरुपोऽस्थिपु निदो गाइ, से मक्खिताई अंगाई, आह हि-"त्वचि भोगाः सुखं मांसे", सिलेसद्धं जहा कोइरवंसो विततो ताङ्गचूर्णिः समाणो पच्छा सिलेसेण मक्खिजति, पच्छा णिजति, गलितित्ति, एवमादि, द्रव्याट्टै द्रव्याः जहा उदगं सिलेसो य एते दोवि ॥४१४॥ सयं चिय अद्दा अण्णंपि आर्द्र कुर्वति, सारई, छवियद्दा पुण केवल सयमेवाऽऽर्द्रा, भावई रागई लोग भणति, आर्द्रसंतानो देवदत्तः स्नेहवानित्यर्थः, णेहतुप्तितगत्तस्स रेणु, उपरुचित्तं च तं कमई, इह तु आईकनाम्ना पुरुषेणाधिकारः, तत्राप्यर्थाश्रयणमेवेतिकृत्वा तत्प्रयोजनमुक्तमेव भवति, द्रव्यभावाकविशेपास्तु पुनरुच्यन्ते, तत्थद्दओ तिविधो-एगभवियबद्धाउय ॥१८६|| गाथा, अदाओ णामगोतं वेदेतो ततो समुट्ठिता गाथा, यद्यपि शृङ्गवेरादीनामाईकसंज्ञा तथापि तेभ्यो नाध्ययनमिदं समुत्पन्नं तसात्तैर्नाधिकारः, जो चेव सो अद्दाभिधाणो साधु तेणात्राधिकारः, तदेव अद्दकउप्पत्ती भणितव्या, तत्तो समुट्ठियमिणं' सा एया गाथा, जेण च तं, - पतिट्टिकं णाम गामो, तहिं सब्वे उ परिवसंति, संसारभयुधिग्गा, धम्मघोसाण अंतिए पन्धइतो सह भारियाए, सो विहरति साहिं सह, इतरावि अजियाहिं सह, ताई केताए नगरे समोसरिताई, तेण सा मिक्खं हिंडमाणा दिहा, सो तहिं अज्झोपवण्णो, AM तेण संघाडिगो वुचति-एसा मम घरणी, पडिभञ्जाविजउ, पण चिंतितं-अकजएण पा उवेक्खितव्यं, तेण भण्णति-अञ्जव कर्त चा मए, सो एवं भणिउं गतो पच्यइयापडिसयं, तेण महत्तरियाए सिट्ठोस उल्लाबो, पच्छा महतरिताए सा भणिया-अखे । अण्णविसयं वचाहि, ताए भण्णति-अहं ओलिया कहिामि, सो पुरिसो, सो उ दूर अण्णदेसंपि वजेजा, अहं भत्तं पञ्चक्खा मीति, एवंति भणति, इतरेण दित्तस्स आगंतूण कहिअति, जहा इमं समोसरणं टुकडं, तत्थ मिल्हिहामो, इतरधा ग सकति, सो इच्छंति, दिवस गणेतो, इतराएवि ते दिवसे आसण्णत्ति काऊणं वेहाणसं कतं, तेहिं आयरियाणं णिवेदितं, जहा पाइता कालगता, इतरस्म [७३८ ७९२]] ॥४१४॥ [418] Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत श्रीस्त्रकताजचूर्णि: ॥४१५|| सूत्रांक ||६६९७२३|| दीप अनुक्रम सोचूण अद्धिती जाता, अकजं, महचएणं तवस्सिणी कालगया, तेणवि भत्तं पञ्चक्खातं, तं सो कालं गयो, समणी देवलोएगुआद्रकवृत्तं उबवण्णा, ताओ देवलागाओ चुता संती मेच्छविसए अद्दगतसे अद्दगस्स रणो धारणीए देवीए कुञ्छिसि पुत्तत्ताए बर्कता, तीसे। णवण्हं मासाणं दारओ जातो, तस्स णामं कीरति अद्दओ, इतरोऽवि कालं काऊण देवलोएसु उबवण्यो, तओ चुओ बसंतपुरे णगरे | सिद्विकुले दारिया जाया, इतरोऽपि जुब्धणस्थो जाओ, अण्णादा कयाई सो अद्दओ राया सेणियस्स रण्णो दतं विसति, तेण कुमारेण पुच्छिाति कहिं बञ्चसि ?, तेण चुच्चति--आयरियविसयं सेणियस्स रण्यो सगासं, सो तुझंपि पितियवयंसओ होति, तेण बुचइ-- | तस्स अस्थि कोई पुत्तो णस्थि ?, तेणऽस्थिति वुत्ते अद्दकुमारो विचिंतेइ-तेण मित्तता होतु, सो तस्स पाहुडं विसजति, एयं अभयस्स उवणेतब्ब, सो दूतो तं गेण्हितुं रायगिढ़ नगर आगतो, सेणियस्स रपणो सब अप्पाहणियं अक्खातिय, इतरदिवसे अभयस्स दुको, अभयकुमारसत्तं पाहुडं उवणेति, भणिओ य-जहा अद्दकुमारो अंजलिं करेइ, तेण पाहुडं पडिच्छि, दतो य सकारिओ, अभओऽवि परिणामिताए बुद्धीप परिणामेऊण सो भवसिद्धीओ जो मए सद्धी पीति करेइ, एवं संकप्पेऊण पडिमा कारिजह, तं | मंजूसाए छोढुं अच्छति, सो दूतो अण्णतावि आपुच्छइ, तेण तस्स मंजूसाए अप्पिता, भणिओ य एसो-जहा कुमारो भण्णइ-एतं | मंजूस रहस्से उग्घाडेजासि, मा महायणमज्झे, जहा ण कोइ पेच्छेइ, बहुपाहुडं पेसति, सो दूओ परं णगरं पडिगओ, अदस्स रणो सेणियसितं पाहुडं उवणेति अद्दस्स, सकारेतूण पडिविसञ्जिओ, कुमारस्म मूलं गओ, अभयपेसवितं पाहुडं उवणेति अप्पा हणियं च अक्खाति, तेणवि सकारेऊण पडिविसञ्जितो, इतरोऽवि तयं गहेऊण उबरि भूमि दूरूहित्ता जणविरहियं करेत्ता मंजूसं| | उग्घाडेति, सो पेच्छेति उसमसामिस्स संमें पडिम, तस्स ईहापोहमग्गणगवेसणं करेंतस्स कहिं मए एयारिसं रूवं दिट्ठति ?, ॥४१५॥ [७३८७९२] [419] Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक -1, नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत श्रीसूत्रक आद्रेकवृत्त सूत्रांक ताङ्गचूर्णिः ||६६९७२३|| दीप अनुक्रम चिन्तेमाणस्स आइसरणं उप्पणं, अहो मम अभएण णाई किर्च कय, रहस्सिगं तं च काऊग परिभोग उचित ण परि जति, ताहे रष्णा कथितं-जहा कुमारस्स जप्पमिति आयरियविसयातो पाहुडं आणीतं तप्पमिई जहोचितं परिभोग न परि जति, रायाए चिंतित-गट्ठो कुमारो भवति, वच्चंतस्स अण्योहिं आइक्खिाति, तेण चिन्तितं-जइ किहइ नस्सामि तो नट्ठ कजं भवति, सबधाधि जहोचितं भोगं मुंजामि, रण्णा सुतं परि जति, तस्सगासे पंचण्हं कुमारामचसताणं पंच पुत्तसयाई आणविदिण्णाई, भणियाइओजइ कुमारो णस्सति तो सब्वे विणासेमि, ते तं कुमार आदरेणं रक्खंति, कुमारणोवायो चिंतितो, आमवाहणियाए जिग्गच्छामि, एवं विस्तासेण पलाओ आसं विसजेऊग, देवताए य भणियं-सउवमग्गं, इतरेऽवि पविसित्ता अडवीए चोरियं करिता अच्छिति, इतरोऽवि णाओ एकारसमं सावगपडिम पडिजित्ता आगतो वसंतपुरं णगरं, आया।तस्स पाडिहेर कतै देवताए, तत्थ आतवितो अच्छति, ताए दारियाए भण्णति-अहो मम पती आहेसि, ताहे अद्भतेरमहिरण कोडिओ पाडियाओ, राया ओडितो घेतुं, सप्पा उडेति, देवताए भणितं-एतं तीसे दारियाए, पितुणा संगोवितं, सोऽवि पगतो, सा सेट्ठिधूता अण्योहिं वरिजति, तीए मातापितुं भणइ-एकस्स दिष्णा, जस्सेतं धणं मुंज, तुम जाणसि कहिं सो ?, णत्थिं, णवरं पाए जाणामि, ताहे सा ताहि भिक्खा दवाविज्ञति, जति जाणसि तो गेण्हेजासि, इतरो बारसण्हं वरिसाणं आगतो, सो तीए पाएहिं गातो, तस्स पन्छातो विसजिता, तो चिंतियं-उडाहो, पडिभग्गो, तस्स तहि पुची जातो, बारमण्हं वरिमाणं तहिं आपुच्छति, सातहि परुनिया, सोदारो भगति-। किं कसि ?, पिता ते पाइउकामो तो सुहं जीविस्सानि, सोऊण पुत्रेण वेदितुमारद्धो, तेणवि चिंतित-जइएहि तंतूहि वेदिति तत्तिगाणि यरिसाणि अच्छामि, तेण बारसहिं रेढितो ताहे वारस बरिमाणि, पच्छतो पुणोहिं पचहतो, ताए अडवीए बोलेति जीए [७३८ ७९२]] ॥४१६॥ [420] Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक , नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक ||६६९७२३|| दीप अनुक्रम [७३८ श्रीसूत्रक- ताई पंचसताई, तेहितो पञ्चमिष्णाए य पंचवि सपाई पाइताई, सोजाति तित्थगरमूल, सोरायगिहं णगर पविसंतओ, गोसालेणधर्मकथाताङ्गचूर्णिमा समं वातो, बुद्धेन समं चादो, धिमातिएहि परिवाएहि ताबसेहि, सब्बे पडिहंतुं सामिपादमूलं जाति, तस्स पच्चंतस्स हस्थी वारि- निर्दोषता ॥४१७॥ छुढ़ओ, सो हत्थी अगं पेच्छिऊण एवं चिंतेति-अगस्स तेयपभाषेण मुंचामि, तस्स य तेयपभावेण बंधणाणि छिण्णाणि, हत्थी हो, अद्दओ भणति-ण दुकरं वारणपासमोयणं०, गतो णामणिफण्णो, सुत्तालावगणिफण्यो सुत्तमुचारेतब्ध-पुराकडं अद्द! इमं ॥६६९॥ वृत्तं, ततस्तमाकं राजपुत्रं प्रत्येकचुद्धं भगवत्पादमूलं गच्छमाणं गोसाल आह-'पुरेकडं अद! इमं सुणेहि' सर्वैरपि तीर्थकरैः कृतं पुरेकर्ड, आर्द्रक इति आर्द्रकस्सामन्त्रणं हे आर्द्रक राजपुत्र!, इमं यद्वक्ष्यामस्तच्छृणु 'एगंतयारी समणे पुरासी' सोऽयं बर्द्धमानः यत्सकाशं भवान् गच्छति पूर्वमेकान्त चारी आसीत् , तदेकान्तं द्रव्ये भावे च, द्रम्पैकान्तमारामोद्यानसुण्णघमरादीणि एतेसु एगंतेसु चरति एगंतचारी पुरा आसित्ति, एस मए सद्धि लाभालाभसुहृदुक्खाई अणुभवितयां, तत्थ भावणाठाण मोणासणादीहिं उग्गेहिं तवचरणेहि णिभत्थितो समाणो दुकर एरिसा चारि जावजीवाए धारेयवत्तिकाउं मामवहाय बह्यो | भिक्खुणो मद्विधा प्राणादमात्राहार्यां मुंडेति, पिंडिते य मुंडेता य २ तेहिं यहूहि परंसतेभ्यः इहि साम्प्रतं आइक्खइ पुव्यावरण्ई, अदो व णं भिक्खुचरियादिकायकिलेसे णियत्तचित्तो पृथक् पृथक् पौनःपुण्येन जो जहा उपवसति तस्स तहा परिकहेंतो अपरि ततो गामणगराई आहिंडति, वित्थरेणंति अनेकैः पर्यायैर्वसु किल एप, सर्व इति लोकोत्पत्तिः, यतो पत्तियंत पवत्तयंतो, एवं HOT पूआगारवपरियारहेडं कधेति हिंडति गामाणुमाम, इत्य साकारणात्-साजीविया पट्टविया ।। ६७० ॥ वृत्त, इथरथा हि एगाणियं विरंत ण कोइ पूएइ, ण वा अभिगच्छति, अथिरधम्मा अथिरो, कधमस्थिर इति चेत् यदा सो एगंतचारी भूत्वा स- ४१७॥ ७९२ [421] Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक ||६६९७२३|| दीप अनुक्रम यीस्त्रक धर्मकथाभातिगृहस्थानथारामगतो या वृक्षमलाश्रितो गृहं सरणमित्यर्थः, त्यक्त्या गृहं किं पुनः गृहप्रवेशनेन ?, गणः समूहः, गणमध्ये ताङ्गचूर्णिः निर्दोपता आख्याति, नककस्स, भिक्षुमध्ये सदेवमणुआसुराए परिसाए परिवुडो, जनाय हितं जन्य बहुजनाय बहुजन्य तं चार्थं कथयति, ॥४१८॥ RAन सूक्ष्म 'ण संधायति'ति न संघिति, अवरं णाम जेनिमं तं साम्प्रतीयं वृत्तं-रत्नशिलापटः सिंहासनं छबं चामर, अथवा अशोकपृक्षः सुरपुष्पवृष्टिदिव्यध्वनिश्चामरमासनं च भामण्डलं दुन्दुमिरातपत्रं, सत्यातिहार्याणि जिनेश्वराणाम् ॥१॥ अनेन देवेDन्द्रदुर्लभेनापि विभृतिवृत्तेन यत्पूर्वाहतं एगंतचारित्तं तदन्योऽन्यव्याघातान्न संति । किंच-एगंतमेवं अदुवावि इहि ॥६७१।। HE यदि एकान्तचारित्वं शोभनमेतदेवात्यन्तं कर्तव्यमभविष्यत् . उत मन्यसे इदं महापरिवारवृत्तं साधु तदिदमादावेवाचरणीयमासीत् , तो किं बारसमधियाई चरिसाई किलेसितो ? यद्यसादिदं साम्प्रतीयं वृत्तं पोराणं च दोऽवि अष्णोऽपण ण समेन्ति न तुल्ये भवत Pइत्यर्थः, तरसादतो पूर्वापरच्याहतवादी कारी च नाभिगमनीयोऽस्ति, एवं गोशालेनोक्ते भगवानार्द्रका प्रत्येकवुद्धः तद्वाक्यमव ज्ञयैव प्रहस्यैवं आह च-भो गोशाल! स हि भगवान् बर्द्धमानः 'पुन्धि वा पच्छा वा' पुब्धि छउमत्थकाले पच्छत्ति णाणे समुप्पन्ने अणागतं जावजीवाए तेसु तेसु तिकालेसु भगवान् ‘एगंतमेवं पडिसंदधातीति वक्तव्ये ग्रन्थार्लोम्यात्सुखमोक्खोचारणातबन्धानुवृत्तेश पसत्थं याति, स्यास्किमर्थ कथयति ?-'समिच लोग ॥६७२।। वृनं, सम्यक् ज्ञात्वेत्यर्थः, तसाणं थावराणं जीवाणं खेम सयं करेति, अवधमित्यर्थः, अण्णेवि जीये अण्णेसि च जीवाणं खेनं काउकामो कथेति, समयेति वा माहणेति वा एगहुँ, स एवं 'आइक्खमाणोऽपि' अपि पदार्थादिपु 'जनमहस्रयोः जनसहस्राणां वा मध्ये एकभावः एकत्वं, सीतोः सारि इत्येवं कृते । सृजति कश्चिदित्येवं विगृह्य मारयतीति भवति एकत्वं गमयति, कथं नाम भव्याः एकत्वं भजेयुः, प्रवज्यामित्यर्थः, रागद्वेप- ॥४१॥ [७३८७९२]] [422] Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक -1, नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक ||६६९७२३|| दीप अनुक्रम [७३८७९२] श्रीसूत्रक- विप्रमुक्तं हि एक तस्स वल्लुलो(त्युतो), आत्मानमपि च एगंतमेवं सारयतीति, रागद्वेपाहीणतं, जेण मज्झेवि वसंतो, तथा चोक्तं ) धर्मकथाताङ्गचूर्णिः 'कामक्रोधावनिर्जित्य', स्यात्-तदेतदेकत्वावस्थितस्य कृतार्थरय च किं परोपदेशेन , तदुच्यते कर्मक्षयाथै, आह हि 'यनैतच्छुभं || निर्दोषता ॥४१९॥ | तीर्थकरत्वनाम 'तीर्थकरस्वाभाव्यात् वेति, उक्त-तत्स्वाभाव्यादेव०' तं वदति, अर्चा नाम लेश्या, सा य शुकलेसो चेव, न राग-IN | दोसाभिभूत इव संकिलिट्ठलेसाओ परिणमति, अथवा अचंति मरीरं, सीहासणे आविट्ठोवि धम्म कहतो तेण पुष्फवत्थगंधादीहिं HOअलंकारहिं तहा अर्च एव निर्भूप इत्यर्थः, निर्दोपत्वाच, धम्मं कहेंतस्स उ णस्थि दोसो।।६७३।। वृत्त, क्षान्तिग्रहणं यतिवि | दुब्धियडबुद्धिं चोदेति न वा कथ्यमानं परियच्छति तत्थवि ण रुस्सति 'तो'ति कसायद तो 'जिइंदिओ'त्ति इंदियदंतो, पृथगुचारणा इंदियणोइंदियदंतविसेमो दरिसितो ककडुगणिठुर सावजा य भामादोसा, हितमितदेशकालादि भासागुणेहि, आहहि"दि8 मितं असंदि ०" स्वादसौ भाषादोपगुणज्ञो कि भगवान् समाख्याति ?, उच्यते-महबए पंच अणुपए य ।। ६७४ ।। | वृत्तं, साधूर्ण महब्बए सावगाणं अणुब्बए य, महबए तब्धिवरीता एवं प्राणवधादयः पंचाश्रया भवन्ति, 'संवर' इति इंदियाणं | "विरतिचि महाव्रतवत्ता, इंद्रियसंवृतस्य सतो विरतिर्भवति, अथवा असंजमाविरते 'इहे'ति इह प्रवचने लोके वा श्रमणभावं श्रामणीयं प्रज्ञानवान् प्रबो, ण आख्यानपि वाक्यशेष: 'लव' कर्म ततोऽवसकति लयावसी न, नो वाचिकेन कर्मणा मानसेण वा युज्यत इत्यर्थः, श्रमणो भगवानेव एवं ब्रवीमि स्वयमपि 'भगवं पंचमहव्ययगुत्तो इंदियसंवुडो य चिरतो य । अण्णेसिपि तमेव | य धर्म देसेति गाहेति ॥ १॥ यस्मात् प्रवीपि वयमपि व्रतमन्तः इन्द्रियसंवृत्ता विरताश्च, यदि च मन्यसे शीतोदकपायित्वाद् IN बीयादिकन्दभोजनात उद्दिवभोजनात स्त्रीविषयोपसेवनाच किममाकं ?, असाधुत्वं, तत्रेदं कारणं शृणु-अस्माकमाजीविकानामयं [423] Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक -1, नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत श्रीस्त्रकताजचूर्णिः सूत्रांक ॥४२०॥ ||६६९७२३|| दीप अनुक्रम [७३८७९२]] आजीविकृतान्तः, क इति चेद् उच्यते-सीओदगं सेवउ ॥६७५।। वृत्तं, सीतमसत्थोवहतं सीतमेव जलं, वीजं जस्स, को एस भवति ? कनिरास: सव्यो चेव वणस्सती गहितो, आत्मन्याधाय कृतं आधाकर्म, इत्थियाओ य, अम्हे एताई पडिसेवामोति तेण असंतेति सणु कारणंआतवयम्मपरिताविता सीतोदकेण अप्पाइजामो, कन्दमूलादीणि 'आधाकम्मं च शरीरसाधारणहमेव पडिसेवामो, न चान्यकृतेन कर्मणाऽन्यो बध्यते, प्राणानुग्रहाच आधाकानुज्ञा, एवं कृतादीन्यपि अस्मानाधाय कीतानि कल्पन्ते, इत्थियाओवि आसेविअंति मनसो येन समाधिमुत्पादयन्ति, सेव्यमानास्तु उचारप्रश्रवणनिसर्गदृष्टान्तसामर्थ्यात् मनःसमाधिमुत्पादयन्ति, ततो ध्यावाद्याः शेपाः क्रियाविशेपाः खस्थचिः सुखमासेव्यते, परानुग्रहाच सेव्याः, आह हि-"सुखानि दचा सुखानि" जंपि य एतेहिं सीतोदगादिएहि इत्थीपञ्जयसाणेहि कम्मं उपचिजतित्ति यदि मन्यसे, एगंतचारीसु एगते उजाणादिसु चरंति एगंतचारी इहई आजीबकम्मे जम्हाणं आतावणमोणत्याणासणअनमनास्नानकादीहिं घोराणि एतेहि चेव एगंतवचादीहिं गुणेहिं 'खविजंति, जतिय सीतोदगादिदोसोवचितं कम्म ण सक्कामो खवितुं ततो अणेगभवसहस्ससमजितं कम्मं कथं खविस्सामो?, तेण 'अप्पेण बहुमेसेज' सीतोदगादिसेवा अणुस्सिता तदेवमादिदोसेसु अदोपदर्शित्वादेहि आगच्छ, एवं गोसालेनोक्ते आह-सीतोदगंचा तह बीअ० ॥ ६७६ ।। वृचं, इह सीतोदगं वीजायं आधायकम्मं इस्थियाओ य सेवमाणावि वयं समणा होमो यदुक्तं त्वया तेन समानवृत्तत्वात् अगारिणो समणा भवंति त्वन्मतेन, तेवि हि सीतोदगादीणि सेवंति, तेन प्रकारेण तहा तेवि तहप्पगारं वृत्तं कुर्वन्तीत्यन्यथा वा का प्रत्यासा?, अथ मन्यसे समानवृत्ते वयमेव श्रमणान गृहस्थाः पंचिकात्र न भोजयितव्या जे यावि सीतोदग-101 मेव (वीओदगभोति) भिक्खू ॥६७८|| वृत्त, कोइ णम्मित्थीओ परिहरति लोकरवभीतो, बालो वृद्धो वा, न धर्मयोग्यो वा ॥४२०॥ RREID HER- - [424] Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक -1, नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक ||६६९७२३|| दीप अनुक्रम [७३८७९२]] श्रीसूत्रक सीवर्जमपि सीतोदगभोजी नामभिक्खू मिक्षां च इह तार के जीवतो ध्याननिमित्तं जीवितट्टता एवंप्रकारा, णातीण संजोगो णाति | Dआजीविवाचूर्णिःAN संजोगो पूर्वापरसंबंधादि, अपि पदार्थादिघु, णातिसंयोगमिति दुप्पाहणिजं, मुमुक्षयोऽपि संतः कायोपका एव भवति, अनंत कनिरामः ॥४२॥ कुर्वन्तीत्यनन्तकराः कर्मणां संसारस्य भवस्य दुःखानामेवेत्यर्थः, एवमुक्तो आर्द्रकेन गोशालो जाहे अण्णं उत्तरं न तरति ताहे अण्णउत्थिए वितिञ्जए गिण्हति, दुबलो वा कडुच्छडीए, एवं वाई तुमं (इमं वयं तु तुमं)॥६७९।। वृत्तं, एतां एतत्प्रकारां, प्रादुः प्रकाशने, प्रकाशं कुर्वन्तीत्यर्थः, कथं ?, भणति-सीतोदकाय आधाकम्माई इस्थिया जीवो आउ य सेवमाणा अममणा भवंति कायोवगा, कायोवगत्वाच नांतकरा भवंति, तेन शाक्याः सर्वे शीतोदगभोजका ये आधाकम्माई सेवंति अबंभमवि प्रेष्यगोपसुवर्गाणां, सांख्यास्तु 'प्राप्तानामुपभोग' इति वचनात् , एवं वाचः प्रादुः कुर्वन्ति, प्रवदनशीला प्राधादुकाः तान' गरहसि आत्मोत्सेकेन, न चोत्सेकः शिवाय, आर्द्रक आह-ननु पावादिनोऽपि पुढो, ते हि पावादिया पुढोत्ति आत्मीयं पक्षं कीर्तयन्तो| वर्णयन्तः स्वं स्वं दृष्टिं कुर्वति-करति प्रादुः, प्रकाशयन्तीति-अण्णमण्णस्स तु ते (ते अण्णमण्णस्स उ)॥६८०॥ इति ID प्रागुपदिष्टाः प्राचादुकाः अन्यश्चान्यच अण्णमण्णं अण्णमण्णस्स विविधं विशिष्ट वा गरहमाणा: कुदृधिमाचरति, वाक्याच्याहार: | आख्यान्ति परशास्त्रदोपांश्च आविः कुर्वते, श्रमणाश्च श्रामणाश्च, किमाख्यान्दि, 'सतो य अस्थि असतो य' स्वमात्मीयवचनमित्यर्थः, तस्मात् सुतं श्रेयोऽस्ति निर्वाणमित्यर्थः, परस्मात्परतः, अन्यस्मात्प्रवचनादित्यर्थः, नास्तीति नास्ति, निःश्रेयसं वा निर्वाणमित्यर्थः, एवं ते सर्वे अहमिति व्यवस्थिताः स्वपक्षसिद्धिमिच्छन्ति परपक्षस्य चासिद्धि, उक्तं च-"जहिं जस्म जं क्वसितं" वयमपि स्वपक्षमेवावलंब्यापरां शाक्यां दृष्टिं गरिहामः तान् , ननु किंच गरहामो, न यथा त्वं पापदृष्टिः मिथ्यादृष्टिः मूढो मूर्खः अजानको वेति, ४२१॥ [425] Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक , नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत आजीविकनिरासः सूत्रांक ||६६९७२३|| दीप अनुक्रम [७३८७९२]] श्रीसूत्रक-20 किंचिद्रूपेन रूवमिति यथा लोको लोक कस्मिंश्चिदपराधे आक्रोशति काणः कुब्जः कोढी वेति, जात्या वेति चण्डालकर्म करोति, तानचूर्णि: A नवं किंचिद्रूपेण त्रिदणिडक दुष्ट परिव्राजक दुष्ट ! इदं ते दुष्टं शासनं, तेन मूर्खकपिलेन किं दृष्टं येन कर्ता क्षेत्रज्ञः, घटं च करोमीत्य ॥४२२।। संधि करोति, कुम्भकारोऽकुर्वन् कथ कुम्भकारः, कुर्वन् कुम्भकरो भवति, एवं नमो, वीतरागोपदेशाद्यपामेपा दृष्टिरकर्त्तात्मा निर्लेपश्च तेषां घटं साधयामीति मृत्पिडदण्डाशुपादानक्रियैव न युज्यते, निर्लेपस्य च शौचक्रिया वा किं क्रियते ?, कथं चास्य केवलज्ञानं नोत्पद्यते शुद्धस्य, यतः शाक्या अपि नो रूपताः प्रत्यक्षमित्यर्थः, हे कपायकठ शाक्याक शाक्यपुत्र कथमिदं ते दृष्टं सुख| मस्ति चेन च सुखी तहा स्कन्धाः, न च किलिस्मतां, न किं चूस्यते, येषामेपा दृष्टिः सुखमस्ति चेन च सुखी, त एव दोपाः 4 अभिमुखं अमिधारयामः, चाचं बेमीत्यर्थः, किन्तु खं दृष्टिं संदि₹ करेमो कुर्मः प्रादुःप्रकाशमित्यर्थः, तद्यथा-जी प्रति सद्भू| तोऽन्यो मूर्तोऽम्त्यात्मेति, यस्य पुनर्वादिनः नास्त्यात्मा तस्य जातिस्सरणादीनि न वियन्ते, दानदमाध्ययनक्रियाच न युक्ताः न तु प्रमः शाक्या अन्ये वा नास्तिकवादिनः हे मुर्खा 1, यद्यात्मा नास्ति ततोऽसौ शुद्धोदनपुत्रो वृद्धो नास्ति, वक्तृवचनवाच्याविशेपा न कि केन कस्स चोपदिष्टमिति, ननु मनोन्मत्तालापः, एवमन्यत्रापि प्रवादिप्यायोज्यं, उत्येवं दृष्टिं गरहामो, नतु किंचि. द्वादिना संमुखे बमो घिकिमास्से, मुर्खदृष्टिमिथ्यादृष्टिाति एवं स्वदृष्टौ प्रादःक्रियमाणाया तिष्णि तिमट्ठाई दिहिमताई परूविजंति, मिच्चत्तंतिका तेसु दिट्ठी न कायव्या, स्यात् किं तत्प्रादुःक्रियते ?,'मग्गे इमे किट्टिए आरिपहि' सम्यग्दर्शनादिमार्गः कीर्तितः | आख्यातः पाणारियादीहि, नास्योत्तरोऽन्यो मार्गो विद्यते शोमनपुरुपसर्वज्ञत्यात्तथाकारित्वाच अजक दुजओ न पूर्वापरव्याहतः | शाक्यस्येव, यथा ज्ञानमुत्पन्नं, आद्रकं च राजपुत्रं मृतं न ज्ञातवान् , स्यादेकं किं निष्ठुरं स्पष्टं नाभिधीयते, त्वं मूों या कुदृष्टि ॥४२२॥ [426] Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||६६९ ७२३|| दीप अनुक्रम [७३८ ७९२] श्रीसूत्रक तावचूर्णिः ॥४२३॥ “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [ - ], निर्युक्ति: [१८४-२०० ], मूलं [गाथा ६६९-७२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: वेंति, तदुच्यते, मा भूत्तस्य दुःखं, स्यात्किं वा निष्ठुरमुच्यमानस्य मनो दुःखाच्छरीरमपि स्याद् हृदयरोगादि, तेण उ अहेयं ||६८२ ॥ पण्णवगदिसाओ गहिताओ ते थावरा तसा पाणा भूयामिसंकाए संकालये अण्णाणे च, इहं तु भवे वुसिय, खुसियं बुसिमं बुत्तो, ण किंचि गरहति विंदति वा सब्बलोए, सम्बलोएचि त्रैलोक्ये पासंडलोके वा, एवं निलोंठिते वादे आजीविकगुरुराह-यथसावेवं गुरुर्वीतरागोऽनुत्तरमार्गोपदेशकत्वात्सत्पुरुषः सर्वज्ञनाथ किं यथा वयं आगंतारादिसु ण वसति सत्तूजणे १, आगंतारे आरामगारे ||६८३|| वृत्तं, आगत्य २ यस्मिन्नरास्तिष्ठन्ति तदिदं सभा प्रपेत्यादि, आरामे आगारं २, ममणो सो चैव जो भंतित्ति तिरथगरो, भीतो ण अवेति वा स्यात् कस्य भीतः १, उच्यते-दक्खा, दक्खा नाम अनेकशास्त्रविशारदाः सांख्यादयः किंचिदूणेण केचिदतिरिक्ता जत्थ ऊणा अतिरिक्ता वा तत्थ समाधि अत्थि, जपलप व्यक्तायां वाचि लपालप इति बीमा भृशंलपा लपालपा वा, जहा दबदवादि, तुरितं वा गच्छ गच्छ वा उक्तं हि "देवदेवस्स", अथापियं एवं बडबडादि किमेवं लवलवेसि १ त एव दक्षाः १, पुनरुच्यन्ते मेधाविणो ||६८४॥ वृत्तं ग्रहणधारणासमर्थाः, शिक्षिता अणेगाणि व्याकरणसांख्य विशेषिकचौद्धाजीवकन्यायादीणि शास्त्राणि, बुद्धिरुत्पत्तिकाद्या तत्र विनिश्चयज्ञा इति, निपद्यानि सूत्राणि जानन्ते पठन्ति वा गद्यन्यूतकानि तानि च परोपपेतानि, | अर्थं चानेकप्रकारं जानते भाषन्ते च विशारदाः, जानका एवैते चैवं जानका बहुजनसन्निपातेषु वसंतं पुच्छिसु, मा णे अणगारा शाक्यदीव काद्याः पृष्टवन्तः पुच्छित्ति पूर्ण कत्थइ, सो बहुजणमगासे सभादिआवासे आवसितो संतो, तेहिं पुच्छितच्यो अन्नहन्तो तद्भयान्मा में पुच्छिस्संति, अनिवहंतो य महाजणमज्झे लजवितो होमु परिभूतो अ अजाणओति 'इति' एवं 'संकमाणे ' चीहमाणे इत्यर्थः, 'ण उवेति तत्थ' सुष्णघरजिष्णुआाणगिहेतु पंडितजणेग सुरभिगंधेसु आसेवति, आह च "पाएण खीणदव्वा" [427] AJA | आजीवि कनिरास: ॥४२३॥ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक , नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक आजीविकनिरास: श्रीपत्रक- सागणिक ॥४२४॥ ||६६९ ७२३|| दीप अनुक्रम [७३८७९२] इत्यादि, सभयत्वात् 'न' वीतरागोन च सर्वज्ञ इति, किंचान्यत्-कथति दुरपि गंतुं कथयति, काणि य गामणगराणि चेव गछति, काणि य वोलेउंपि कथेति, न च वीतरागस्य चैपम्यं युज्यते, स हि पर्जन्य इव सर्वत्र समकारी, आह च-"विद्याविनयसंपन्ने, ब्राह्मणे" उच्यते, णो कामकिचा ॥६८५।। वृत्तं,'कम् इच्छायां' करणीयं कृत्यं अकामं कृत्यं करोति अकामकिच्चं तन ताबदकामः कथयति बालवत् मन्यमानोऽपि परानुरोधात् न गौरवाद् वा, न बालकिति न बलातकाराद्, हवदीयते विरध्यानुलोम्यात् , बलकिच्चेति वक्तव्ये चकारस्य दीर्घत्वे कृते णाम बालकिच्चा भवति, जहा बलं, णाचादिमति यो येण, कुतस्तदिदं भयं जितभयस्य ?, स्यात्कथं व्याकरोति ?, तदुच्यते-एमिरकामकृत्यादिदोपैथित्रमुक्तः विविधं विशिष्टमन्येभ्यो बालादिभ्यो वा करेति विविध करति, पुच्छ नितमिति प्रश्नः पुट्ठो अपुट्ठोया, जेण अपुढे करुणाईपि अस्थि, जहा चिरसंगट्ठोऽमि मे गोतमा आयातिठाणाणि य, अथ विपि कि बीतरागस्स. धम्मदेसगाए ?, कथं वा गंतुं कथेति ?, तस्थवि अणियमो, कत्थयि गंतुं कथति, मजिनम गंतुं तप्पढमताए गणधरा संबोधिता, तत्थ गंतुं कथेति, तं बंदणवतीयादीहिं आगताणं देवाण पाएणति चेव, तेनोच्यते-गंता च तत्थ ।। ६८६ ।। वृत्त, पसिणं प्रश्नः प्रजावत् जत्थ जागति धुर्व पडिवजिस्संति तत्थ गंतु कथेति, जेवि सो एंति तेमिपि द्वाणद्वितो चेव कथयति, ण जाणति. जं जुत्तं जत्थ ण कोइ पडिबजति तत्थ 'ण वञ्चति, अमूहलक्षत्वाच ठाणत्थोवि ण कथेति जत्थ ण कोइ पडियजति, किं भणसि ?, जइ सो एवं 'वीतरागो सत्रण कथयतो कीस अणारिए देसे गंतु ण संवोधयति', तत उच्यते-अणारिया जे देसा सगजाणादी दृष्टिदर्शन परिचा इति परिनदर्शना दीघदर्शना नदीघसंसारदर्शिनस्तदपायदर्शिनो वा, इहलोकमेवैकं पश्यन्ति, को जागति परलोगो, शिश्नोदरपरायणाः, न एते धर्म प्रति पश्यन्त इति शङ्कमान ॥४२४॥ [428] Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक ||६६९ ७२३|| दीप अनुक्रम ... श्रीसूत्रक- इत्यर्थः, शंकाशब्दो ज्ञानार्थ एव तदुभये मन्तव्यः, आह हि-"शके प्रहर्षतुला०"जेविय आरियदेशेषु अणारिषदेसेण अपरिता गोशालकवाचूर्णिः गामा णगग य तत्थवि ण बच्चइ, ण वा तेसिं कथयति, तदेवं भगवंतो देसे तारिसएवि अगारियतुल्ले ण इत्थं धम्मं कोई पडि- AV निरासः 11४२५॥ वजइत्ति, नतु भयाद्भवता, सदेवासुगए परिमाए, देवा अच्छराइयाणं तिणि वा, तिदिसिं चेव तेमि चेक, भवद्विधाः परपासंड तिस्थगरापि न शक्रवन्त्युत्तरं दाउं, किं तर्हि तलिप्या आत्मवलियाः प्रमभमिदाः, तिष्ठन्नु नाव, एवमुक आर्द्रकेन गोशाल: पुनराह-अस्तु ताव जत्थ जत्थ पडिवजंति धम्म तत्व गमणं कथणं च-पन्नं जहा वणिए ।। ६८७॥ वृत्तं तुलो सो णासो, पण जहा, पणति तमिति पण्णागणिमधरीमादि, उदो लाभओ, उदयस्स अट्ठाए 'आयस्स हेतुं, एतीत्यायो लाभ इत्यर्थः, 'पंज संगे' पंजनं सक्तिर्वा संगः, जन्थ लाभगो तत्थ वणिया भंडे घेत्तण वचंति, एवं णाम तुज्झवि तित्थगरो जत्थ लाभो तत्थ वचति कथेति वा इत्युक्ती ब्रीमि 'ततोवमे', इति एवं इचे होति मम तका, नऊ मति मीमांसा या इत्युक्तो गोशालेन राजमू. नुराह-अस्तीयं एगदेसोपमा जहा लाभगट्ठी वणिओ ववहरति एवं भगवं लाभट्ठी तवं च संजमं च करेइ, तस्स के गुणा भवंति ? IAL तदुच्यते-णवं ण कुज्जा ॥६८८। वृत्त, जतो ताव कम्मखवणट्ठा उद्वितस्स ण बज्झति तेण संजम करेति, जेण विधुणिजह परा-11 Vणगं पावं तेण तवं करेइ, चिचा छडेतुं असोभणमति अमति, अण्णहेतुं वा पूजापरियारहेतुं नाण कथेति, तीर्णोवि परान् तारे तीति, स्याद् धर्मकथायां का प्रस्तावः संजमस्य तपसो वा यद् ब्रविपि 'णवण कुजा विहुणे पुराणं ?', तदुच्यते-णाणं सिक्खति Oणाणं गुणेति णाणेण कुणइ किचाई! णाणी ण ण बंधेति' किंच-सोय खलु णाणपरिणतो, तेण संवृतो, संबर एव संवरस्तDथावि अन्नतरो धम्मकथावसाणो पंचविधो सज्झाओ, इच्चे धम्मकथाए वि संवरहाणं उत्तरोऽस्ति तेनोच्यते-पात्र ण कुझा विहुए'm [७३८७९२] [429] Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक , नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: SHTRA प्रत सूत्रांक ॥६६९७२३|| दीप अनुक्रम [७३८ श्रीसत्रक- Pएतावतो बंभचेर, एतदेव तद् ब्रह्मणः पदं, नामपदं वा, ब्रह्मवतं वा, किमिति चेत् ब्रह्मेति चरितं दुविध तवचरणं संजमजोगो गोशालक निरास: ताणचूणि: उतः, उदडओ लामओ संजमस्स तबस्स बा, उक्तं हि-उदहग पक्खे' उदएण वा जस्स अट्ठो भवति, समणो भगवानेव, ॥४२॥ एवं ब्रवीमि, नत सर्वसाधयमस्ति भगवतो वणिजे हिं, कथं ?-समारभंते हि वणिया ॥६८९॥ वृत्तं, समारभंते क्रयविक्रय-2 भंडसगडवाहणपयणपयावणादीहिं आरंभंता समारभंति छकायभूतग्राम, परिग्रहो दुपदं चउप्पदं धणं धण्णहिरण्णसुवण्णादित एव ६७ ममायमाणा रक्खंता णट्ठविणटुं च सोअंता उवणिर्शता य सुबह पावकम्म कलिकलुसं तु एवं वृत्ता, स एवं कम्मसमाचारो य । णातिसंजोगो, तं अभिग्रहाय तेमि अप्पणो य अट्ठाए, आयहेतुति आयलाभओ लाभट्ठाए एए पाइसंजोगा तस्सट्टाएति वुत् होति, भृशं करेंति प्रकरेंति, सक्ति संयं। किंचान्यत्-ते हि वणिजा-वित्तेसिणो ।॥ ३९॥ वृत्तं, 'वित्त' हिरणसुबण्णवित्र तं AS एमति गणो, मिथुनभावो मैथुनं, सं प्रगाढा २ समस्त गाढाः, भुजत इति भोजनं अशनादि ब्रजति, भोजनं अशनादि, ब्रजन्ति दिशः संक्षेपार्थ ते पणिओ, वित्तं किमर्थमेपमाणा दिशो ब्रजन्ति ?, उच्यते, मैथुनार्थ भोजनार्थ वेति, आह हि-"शिश्नोदरकते पार्थ " विरक्ताः स्त्रीकामेभ्यो जितजिह्वेन्द्रियाच, वयं तु तुर्विशेपणे विरक्ताः अन्यतीर्थभ्यः, किं पुनहीभ्यः, त एवं इस्थिकामेसु वित्तादि भोयणे रसेसु अ अज्झोववण्या वणिया, जहा रसेसु तहा सेसेसुचि विमएसु सद्दातिसु, अथवा रस इति सुखस्य आख्या, आह हि-'आश्चादे शीघ्रभावे च' तथा चाह-'विषया विनिवर्तन्ते, निराहारस्य देहिनः। रसवजे, रसेसु गृद्धति सुखेसु गिद्धा इत्यर्थः, इतथ सामान्यवृत्तं भवतां वणिजा, कथम् ?-आरंभग चेव परि०॥६९१।। वृत्तं, आरम्भो, उक्षसकटभरादीणां पचनपाचनच्छेदनादीनां च हिंसाद्वाराणां, परिग्रहे ममीकारः धनधान्यादि, संरक्षणं च, परिग्रहार्थमेव चारंभः क्रियते तमारंभं च ॥४२६॥ ७९२]] [430] Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक ||६६९ ७२३|| दीप अनुक्रम श्रीसूत्रक- | परिग्रहं च अविउस्सिया णाम अयोसिरिउं, णिस्सिता तमिः आरंभे परिग्रहे चा, पुथ्यापरसंबंधे च णिस्सिता, आत्मन इति जीवान् गोशालकपारग्रहाचा निरास: तानचूर्णि: AAI दण्डयति वन्धवपरितावणोदवणादीहिं तदुखोत्पादनाद्वा आत्मानं दण्डयति संसारे। किंचान्यत् 'तेसिं च से उदए' तेसि वणि-IN ॥४२७॥ याणं 'सो उदए'त्ति सो लाभओ चाउरंतमणंतससाराय भवति, पण तु इह धम्मकथारजलाभो पुण चाउरंतसंसारविप्पमोक्खाय किंचान्यत् , णेगंत णचंतिय (ब) ॥६९२॥ वृत्तं, सव्वेसि वणियाण एगतिओ होइ किरियाइ छेदओ होति, कदाइ लाभओ, जइवि लाभओ तोवि अग्गिचोरादि सामण्णतणेण य जं खजइ दिजइ तेण आणचंतियं वदंतित्ति, जुञ्जद, एते दोऽवि पगारा | अणेगंतिए, अथवा विपद अवार्या, दोऽवि पगारा अणुदए चेव, न लाभ इत्यर्थः, तद्विपरीतस्तु णिजरा उदयो, यत उच्यते से। | उदए से णिञ्जरा लाभः, मोक्षगतस्य सादिअणंतत्वं अणंतप्राप्ते, अणंतपते तं उदय, लाभक इत्यर्थः, साहयति-आख्याति सिलाइति बा प्रसंसतीत्यर्थः, णातीति ज्ञातिः कुली, यात्रायतीति त्राती, स चैकः एकान्तिकत्वाच्च परमलाभक इति, तदेवं वणिग्भ्यः भगवंतं सुमहद्भिर्विशेषैविशिष्टं संतं यत्नैः समाणीकरोषि तं पुनरयुक्तं, कतरैविशेषयन्ति णणु जे समारंभादिभिः पंचभिर्विशेषैराख्याताः, इमे चान्ये विशेषाः, तद्यथा-अहिंसकं(य) ।। ६९३ ॥ वृत्तं, अहिंसको भगवान् , ते हिंसका, सब्वमत्ताणुकंपी च भगवं ते गिरणुकंपा, दसविधे धम्मे हितो भगवं, ते तु वणिजा, किमत्थं धम्मे स्थित इति चेत्, कम्मविमोक्खणट्ठाए, पुन: कर्मविमोक्षार्थ अभ्युत्थिता, धनार्थ तूस्थिताः, तदेवं अणेगगुणसहस्रोपेतं, 'आयदंडे'ति आत्मानं दण्डयंति जीवोवघातित्वात् , समाचरति इति सम आचरंता समाचरंता, तुल्यं कुर्वन्ता इत्यर्थः, समानयंतो वा समानं कुर्वन्त इत्यर्थः, एतद्धि तओअघोरमज्ञानं चेति, तमेयं प्रतिहत्य निर्वचनोऽयमितिकृत्वा चाजीवकपुरुपं गोशालं भगवंतमेव प्रति ययौ, तथाकेन गोशालमवधीरितं | ॥४२७ [७३८७९२] पा [431] Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: बौदनिगमः प्रत श्रीमत्रकवाचूणिः ॥४२८॥ सूत्रांक ||६६९७२३|| दीप अनुक्रम [७३८ मत्वा द्वाभ्यां कारणाभ्यां तुया: 'शाक्यपुत्रीया मिक्षवः, कथमिति चेत् यदेषो अपना प्रत्यक्षतोऽनेन निगृहीतः, यथासाकमिदानी श्लाघा बहुपरिवारो राजपुत्रोऽस्माकमायास्थतीति, अतः गुणशीलमुद्यानं भगवत्समीपं प्रत्यायातस्य संबहुला भूत्वा बुद्धसिद्वान्तं ग्राहयिष्यामेति पुरस्तास्थित्वा भो भो भव्य महाश्रव आर्द्रकराजपुत्र म्बागतं ते 'कुनः आगम्यते ?, क च यासीति' स भगव समीपं यामि, इत्युक्ते भिक्षुका इयमूचुः-इदमपि तावदस्म सिद्धान्तं शृणु, शुन्या च संप्रतिपद्यस्व, पण्डितवेदनीयो घरमसिद्धान्तः सूक्ष्मश्च चित्तमूलत्वाद्धर्मस, तदेव च नियंतव्यं, किं कायेन काठभूतेन वृथा तापितेन?, आह हि-'मनपुव्यंगमा' तथा चोक्तं-- 'चित्ते तायितव्ये' इत्येवं चित्तमूलो धर्मः, अधर्मोऽपि चित्तमूल एव स्यात् , कथं स धर्मश्चित्तमूलः ?, उच्यते, पिवणागपिंडी ६९४॥ वृत्तं, जइ कोइ आमन्नवेरो बेरिओ जो बालरूबाई सोयति सो तेवि मारिए(रेइ), मारेतुं चेडरूयाइपि मारेमित्ति ववसितो, सुब्बति य केइ वेरिया जे गम्भेवि विगितिति महिलाणं, मा एते बद्धमाणा सत्तुणो होहिंति, तत्थ समावत्तीए खलपिंडी पल्लंकर पोतेण ओहाडिता मन्दप्रकाशे गृहेकदेसे वा मो तेण तिब्बरामिभृतेण एम दारओचिकाऊगं सति कुंतो वा सत्ती वा तिमूल चा, एवं विधु चिंतेति-कदायि एस अमम्मविद्धो जीयो, ता तहेव मूलपोतं अग्गिम्मि पयति, एतमेव अलाउयं वावि कुमारओत्ति पयति सूले विधु अबेधुं वा, स प्रदृष्एचित्तत्वात् लिप्पति प्राणिवधेण अहणतोधिसतं 'अम्ई 'ति अम्ह सिद्धते, एवं तावदकुशलचित्तप्रामाण्यादिति, कुर्वन्नपि प्राणातिपातं प्राणघातफलेन न संयुज्यते अयमन्यः कुशलचितप्रामाण्यात, अकुर्वन्नपि प्राणातिपातं तत्फलेन संयुज्यते, यत्रायं पाठ:-अहवावि विधुण मिलक्खु सूले ।। ६९५ ।। वृन, वा विभाषादिपु, मूलक्खूत्ति अणारिया अथवा आरिएपि जे मिलक्खुकम्माणि करति, स एवं मे छोपि भूत्वा क्षुधातः पिनागपिंडीयमिति कृत्वा पुरुषमपि ७९२]] ति ॥४२८॥ [432] Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||६६९७२३|| “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक , नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: WPAL श्रीसूत्रक- | शूलेण वेधु अगणिकाए पएजा खाइतुकामो, कुमारगं वावि अलाउअवुद्धीए पउलेतुं खाइस्सामि तु पएजा, ण लिप्पति पाव- बौद्धनिरास: ताङ्गचूर्णिः बंधेण अम्हं, एवं तावदसाकं अपचेतनकृनप्राणातिपाते नानि, यद्यपि च भवानन्यो वा कश्चिन्मन्यते अनपाये अपायदेशी यथा ॥४२९॥ भवतो मांसासिन इति तत्रापि अनभिसंधित्वादेवास्माकं त्रिकरणशुद्धं मांस भक्षयतां नास्ति दोपः, कथं ?, इह हि-पुरिसं च | | विधुण ॥६९६।। वृत्तं, जह कोई अजाणतो पुरिसं वेधुं कुंनेण वा सूलेण वा अप्रकाशावखित कुमारकं वा बालमित्युक्तं, एतं | | गिलाणमिक्खुस्स छिन्नभत्तस्स दुभिक्खादिसु जायतेए पातु पिंडीयमिति पोलितं सुगंध सुहं खाइस्संति सती बुद्धिः तस्यां | कल्पति, 'बुद्धाण'ति नित्यमात्मनि गुरुपु च बहुवचनं, बुद्धस्मवि ताच कप्पति किमुत ये तच्छिप्या:?, अथ बुद्धिः पापापत्यानि बौद्धानि VIतेसिणं कप्पति पारणए भोजनायेत्युक्तं भवति, सर्वावस्थासु अचित कर्मयायं न गच्छति, अविज्ञातापचितं ईर्यापथिकं खमा-IHA रान्तिकं चेत्यस्माकं कर्मचर्य न गच्छति, एवं तावच्छीलमूलो धर्म उक्तः । अथेदानी दानमूल:-सिगायगाणं ॥६९७|| वृत्तं, चतस्रो वासु त द्वादशसु धृतगुणसु' युक्ता, एतेसिं एवंगुणजायियाण अभिगत यथा तस्यानन्दो दोणि सहस्से मिक्खुयाणं | भोजावेति समांसगुडदाडिमेनेटेन भत्चेन, तेण पुण्णखंध, संस्कारो नाम पंचधा, स त्रिविधः पुण्यः अपुण्यः सतिजा इति ते, तं आरोपं, ते हि प्रक्षीणकल्मपप्रायाः चतु:प्रकाराः आरोपा देवाः, ते भवन्त्याकाशोपकाः विज्ञानोपकाः अकिंचणीकाःणोसणिणो | दातारः, सर्वोत्तमा देवगति गच्छंतीत्यर्थः, महतां इति प्राधान्ये महाशब्दः, अथवाऽऽफस्साऽऽमत्रगं क्रियते हे महासघ ! इत्यर्थः । तदेवमिह स भगवता बुद्धेन दानमूलो शीलमूलश्च धर्मः प्रणीतः तदेहि समागच्छ बौद्धसिद्धान्तं प्रतिपद्यख, इत्येवं बौद्धभिक्षुकैरुक्त आर्द्रको आर्द्रकानादरयाऽव्याकुलया रष्ट्या तान् दृष्ट्वोक्तवान्-भो शाक्या यद्ब जो-पिष्णागं पुरिसबुद्धीए सूले विधति पचति. -1॥४२ दीप अनुक्रम [७३८ ७९२] [433] Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक -1, नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक ||६६९७२३|| दीप अनुक्रम [७३८७९२]] बौद्धनिराप्तः न थीमयक- वाजानते य अलाउ वा कुमारयुद्धीए किर लिप्पति पाणवधेण अकुशलचित्तो, अण्णो पुण पाणवधपि करतो पयंतो पाणे कुश लेन चित्तेन मुगति पाणातिपातातो, तत्र ब्रमः-अयोग्यरूपः॥ ६९८ ॥ वृत्तं, इह न योग्यमयोग्य, रूपमिति स्वभावत्युच्यते, ॥४३०॥ ITA यथा कधिन्केनचित गेपतः प्रत्यपकारचिकीपुरन्तर्गतं भावमाविः कुर्वन् भ्रूकटिं करोति रूक्षा खारा या दृष्टिं निपातयति, उक्तं । हि-'सहस्स खरा दिट्ठी' माथा, एवं स्वभावे रूपशब्दं निवेश्य उच्यते अयोग्यरूपं क्रूरस्वभावभित्यर्थः, शिरस्तुण्ड मुण्डनं कृत्वा प्रजितोऽहमिति लिङ्गानुरूपां चेष्टां युञ्जते, आह हि--"वयं मकर्मणोऽर्थस्य" तेनोच्यते-अयोग्यमेतत् प्रबजितरूपस्य अहिंसा मुत्थितस्येहेति इहास्माकं प्रवचने, अहिंसार्थक हस्तादिसंयता वा पार्य तु, तुर्विशेषणे हिंसैब सर्चपापेभ्यः पापीयसी, प्राणाः पृथिव्यादयः, प्रसहोति क्रौर्याद्वलादाक्रस, तुम्भेवि य प्रबजिताः शिरस्तुण्ड मुण्डनं कृत्वा कपायवाससः स्त्रीवेषधारिणः संयता वय| मिति सम्प्रतिपन्नाः, तेण तुम्भेवि अयोग्यरूपं हिंसादिवलाः जे तुम्भे संपडिवजह, मणुसादि प्रसह्य असमीक्ष्य कथं वयं प्राणिनो मास्यामः मारापयामो वा तदुच्यते-नो मंता व अकुशलेण चितेण पिण्णागपिंडी खोडी या पुरिसोत्तिकाउं अलाउयं अण्णं वा तओ सालिफलं कुमारकोऽयमिति प्राणातिपातेन, आज्ञादोषो न युज्यते इति ब्रूमः, यत्तु पिण्णागवुद्धीए पुरिसंपि विद्धमाणो मारेमाणो वा कुमारगं वा अलाउअबुद्धीए ण लिप्पति पाणवहेण अई सिद्धान्त इति वाक्यशेषः, 'अबोधिए दोण्हवि' अबोधिःअज्ञानं तेण यदि अज्ञानात् मुच्यते प्राणवधातेनाज्ञानं श्रेयमितिकुल्ला, किं पुनरुच्यते-अविधाप्रत्ययाः संस्काराः, सर्वसम्यग्दृष्टिप्रमश चैवं प्रसज्यते, विरताविरति विशेषणश्चैवं सति, अन्यथा वा का प्रत्याशा ?, निर्दयं ततो विकताः, कथं ?, इहरहावि ताय लोगो दुक्षेण अहिंसत्वं कार्यते, तुम्मे य भणह मारेन्तो कुशलचित्तेन अर्हिमओ भवति, तदेवं प्रकार यो वचः 'असाधु' अशोभनं, [434] Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक , नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: बौद्धनिरास: सूत्रांक प्रत श्रीसूत्रक-0'दोहवित्ति तुम्भे य जे य पडिसुणंति अज्झावयो, हंतुंपि अणुतप्पति, ते परिचत्ता, हतुं वीसत्था होहिंति, आह च--"केचित् नाचूर्णिःशुन्यं नष्टाः" यदि च अज्ञानमदोपाय तेन वैदिकानामपि परमात्मके श्रेयबुद्ध्या छक्काए घातयतां न दोपोऽस्ति, संमारमोचकानां च, घातयामिति किं भणह ?, तुम्भपि एवं रोचयति जहा असंचितेंतो कम्मबन्धी णस्थि ?, इत्यत्र बम:-उडमहेयं ।।६९९॥ ||६६९ वृत्तं, चत्तारिणि दिसाओ गहिताओ, पण्णवर्ग पथ, विविधं विशिष्टं ज्ञात्वा विज्ञात्वा विज्ञाय, लीनमर्थं गमयतीति लिङ्ग, वसंतीति ७२३|| त्रसा, तिष्ठन्तीति स्थावराः, तेसु तसथापरेसु, किंच लिंगमेपां? उच्यते-उपयोगी लिंग लक्षणमित्यर्थः, आह हि-निमिनं हेतुर पदेशः' यथा अनावौष्ण्यं सांसिद्धिकलिङ्गमेवमात्मनां त्रसानां स्थावराणां च सांसिद्धिकलिंग, येन ज्ञायते आत्मनाऽऽत्मेति, स चोपदीप योगः स्पर्शादिपिन्द्रियेषु सुखदुःग्वयोरुपलब्धिरित्यर्थः, तच्च सर्वप्राणभृतां समानं लिङ्ग, सुखं प्रियमप्रियं दुःखं, तदेवं अनुक्रम अत्ताणुमाणेणं 'भूतामिसंकाए(ड)दुगुंछ माणे' कता भूताई संकति तसथावराई दुक्खाओ,तं च दुक्खं त्रमा वा दुगुंछति, तस्मादुद्विजत इत्यर्थः, एवं जाणामि, णो बदेल मारतो मुञ्चति, दोसो पत्थि, करेज वाणिस्संको प्रमाद, अण्णाणेण दोमो स्थि, कृत एतद् [७३८ मो माया च कुचकुचा वा प्रवचनेऽस्ति ?, किंच-पुरिसेत्ति विन्नत्ति ||७००॥ वृत्तं, जंवा भणिसि पुरिसोऽयमितिकृत्वा पिण्णा७९२]] गपिंडी अलाउज वा कुमारगति अकुशलचित्तो विधमाणो अदोसोचि विद्वानो विष्णुत्ति, एतं जहां हिंसकत्वे चिन्तिक्षमाणं ण युजति, अणारिए वा से पुरिसो भणति, अलाउ वा कुमारवुद्धिए विभुतु, अज्ञानेन अस्य द्रोहः संपद्यते, एवमज्ञानेन चैयं पुरिसं | पिण्णागपिंडीवुद्धीए कुमारगं या अलाउयबुद्धीए विवाइन्तो किं च ण बझिस्सति, किंच-को संभवो? पिण्णागट्ठताए संभवणं, संभूतं वा संभवः, का पुरुपे सचेतने पिण्णागयुद्धिमुत्पादयिष्यति ?, निसृष्टसुप्तस्य च नोद्वर्तनपरिवर्तनाथाः क्रिया भवन्ति तेन | ॥४३१॥ [435] Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक -1, नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक ||६६९७२३|| दीप अनुक्रम [७३८७९२] बौद्धनिरासः श्रीमत्रक- संभवोऽस्ति पिण्णागपिंडपुरुषस्य, तंत उच्यते-नैतदेवं, यत एवं-पिण्णागपिण्डे पुरुषस्य काठे वा वस्त्राच्छादिते उपपत्तिरिति, अत। ताङ्गचूर्णिः । एव किमसावेवमेतदुभयं जानमानो निस्संक करेति, किमयं पुरुषः स्यात्पिण्डी काष्ठं वेति स्यादिति, अथ सम्भवे विद्यमाने निशः महारी पठ्यते निर्मीमांस इत्यर्थः, एवं 'मे वायाप्यसौ कुशलचित्तेन पुरुष पिण्णागपिंडीयुद्ध्या चातयति तस्याप्युभयं सम्भवत्वात् युक्तो विमर्श:-किमयं पुरुषः स्यात् उत पिण्णागपिंडी?; एवं कुमारेऽपि अलाउक स्यात्तुमारः स्यादिति, जम्हा-न एवं संभवो दिडो तम्हा य सहप्पगारा गस्थि, 'पाया युइति त्ति वुत्ता असत्या अशोभना, अथवा सत्य इति संयमः असत्य इति संयमवादीत्यर्थः, निश्चयस्य निरनुकम्पा सद्रोहेत्यादि, किमंग पुण कम्मुणा ?, किचान्यत्-यज्याभियोगेन ।। ७०१ ॥ उच्यते इति वाचा, चायाएवि अमियोगो अभिमुखो योगः अणियोगः अभिवाम्योगः, एवमुक्तं भवति-हवेजति हवति संयम ? इति वाक्य शेपः, का पिण्डार्थः संवर्णीयः वायाभियोगेण यदा हवति संयम, जहा भणह मारतो अदोसोचि 'ण तास्सिं वायमुदाहरेजा' सद्रोहमित्यर्थः, अडाणमेतं कुशला वदंति-यथा कण्टका स्थाल वा सलिलस्पास्थानं एवं तुन्भपि इमं वयणं, अज्ञानदोपोऽस्तीति, अहिंसकादीनां गुणानामस्थानं अनवभाजनमपि, निजे वित्थरेण दिखातो मोकावत्थं गृदि निसृत्य शिरस्तुण्डमुण्डनं कृत्वा यात 'सुराल'मिति, सूरालमेतत्स्थूल हिंसकत्वात् 'अदिक्वितस्मवि, किं पुण दिक्खितस्स ?, एवं असंचिन्तिते न कर्मवन्धो भवतीति अज्ञानश्रेयसं सर्वसम्यग्दृष्टिप्रसङ्गचेति, वैदिकाः संसारमोचकाच निर्दोपाः एव भवन्मतेन. शाक्यं हेडयित्वाऽऽर्द्रको मुखीभूत्वा प्रपंचमाह लद्धे अढे अहो एव तुमे ॥७०२।। वृत्तं, लब्धः प्राप्तो यदज्ञानं श्रेयस्ततः किं ज्ञानाधिगमः क्रियते ?, कुतो एस तुम्भेहिं अट्ठो लो जेण अजाणता सव्वतो मुचति !, बालमचोन्मत्तप्रमत्तादयः, अहो दैन्यविस्मयादिपु, दैन्यं तावत् जहा कोयि कंचि दिमूद [436] Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) सांख्यगैद्धनिरास: प्रत सूत्रांक ||६६९७२३|| “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: P .. धीक्षक-उपहेण अडतं दर्छ भणति-अहो अयमेवं बराओ किलिट्ठो किलिस्सति, एवं तुम्भे उम्मग्गपडिनन्ना मोहं किलिस्मह, सायेनि ताङ्गचूर्णिः विस्मये, अयं शोभनो अहो सिद्धान्तो यत्राचिंतितं कर्मचयं न गच्छति, कार्यकारीसमता एवं अयं जीवाणुभागे सुविचिंत-1 Wयंता ॥७०३।। वृत्तं, कश्चैषां अनुभागस्तनुसुखनियताः दुःखोद्विगिता, तत्किमुक्तं भवति ?, एवं जीवाणुभागो सुचिओ भवति, यदुत सर्वसचानामात्मोपमानेन न किंचि दुःखमुदपप्तदिति, अहोशब्दः सर्वत्रानुवर्तते अहो वचस्तेन गुरुगा करतल इयामलक सर्वलोकोऽवलोकितः, ज्ञात इत्यर्थः, किमुक्तमुच्यत इत्यर्थः, इति चेत् येनाज्ञानं श्रेय इति, स्यादेप भवतां किं चिन्तितः कर्मबन्धो । भवत्याहोखिदचिंतितो मोक्षो वेति, अत उच्यते-'धारीया अन्नविधीए सोहि' मोक्ष इत्यर्थः, स्यात्करोत्यन्यो विधिर्येनार्या शोधिमिच्छन्ति, तत उच्यते, जहा छणणं, नापि संचिंतितं कर्म बयत इति सिद्धान्तः, किंतहि ?, असा प्रमत्तस्य कर्म वध्यते, अप्रमत्तस्य मुच्यते, अप्रमत्तः शुयत इत्यर्थः, एवं शोधिराहुराचार्याः, ण वियागरे ण चाकरेंति, छद अपवारणे, छज्जते तस्स छन्नं छन्नमप्रकाशमदर्शनमनुपलब्धिरित्यनान्तरं, पदं चेष्टितं, छन्नपदेन उनजीग्नधर्मा छन्नपदोपजीवि, कथं ?, अजाणस्स बंधो Aपत्थि वहा ण विगारे, छण्णपदोपजीवि, पठ्यते गूढविजागरे छगणपदोपजीवि, छण हिंसायां छणणमेव पदं छणणपदं ततो वागरेजा, जहा अजाणंतस्स कम्मबंधो णस्थि, ते एवं श्रोतृणां निर्दयादयो दोषाः, स्यात्कि व्याकरितव्यं कथं न ?, उच्यते, जहा छणणं न होति जीवाणं, अज्ञानते तु बंधो पत्थि उच्यमानेन प्रमादं करिष्यति, तेण छणणं अनुज्ञातं भवति, तदेप पिण्डार्थःMOI जहा छणपदोपजीवि ण छणणपदोपजीविणो वाकरेंतीति वाक्यशेपः, तहा ण वियागरेअ, अयं इदानीं आपोऽर्थः, जीवाणुभाग अनुचिन्तयतो वियागरे अछणपदोपजीवि, एकारात्परस्य लोपे कृते छणपदोजीवि भवति, अचिंतिते कर्मवन्धो नास्ति ण च साधु दीप अनुक्रम [७३८ ७९२]] ४३३॥ [437] Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक -1, नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: A प्रत मांख्य.. बौद्धनिरासः सूत्रांक धीक- ताङ्गचूर्णिः ॥४३४॥ Aurat ||६६९७२३|| दीप अनुक्रम [७३८ वियागरे, अछणपदोपजीवि 'एसोऽणुधम्मो' अनु पश्चाद्भावेऽनुधर्मस्तीर्थकराचीर्णोऽयमुपचर्यते इति अनुधर्मस्तीर्थकरानुम्मिणः साधय इहेति, इह प्रवचने संजयाणं एवं सील, न घटते भवतां, जोऽवि अतुझं अशीलमंताणं देति सोऽवि अप्येवं वध्यते, ण मुच्यते, जं भणसि-सिणातगाणं तु दुवे सहस्से ॥ ७०४ ।। वृत्त, सिणातगा सुद्धा द्वादशधूनगुणचारिणो भिक्षवः, जेवि दोऽवि सहस्से मुंजावेति सोवि ताव मुचति, किं पुण जो एक वा दो वा तिण्णी वा, एते णिचं दिणे दिणे असंजता लोहितापाणि सधघातीत्युक्तं भवति, गर्हा-निन्दा इत्यर्थः, ज्ञानाचार्याणां धर्मः अजः, जइ लोके भिक्षुकाणां च गरहितो धर्मः अजाणमाणाणं, इह हिंसानुज्ञानात् अपात्रदायकत्तिकाउं गरहितो, सावधं छकायवघेण, अजयाण अपात्रेपु व दिञ्जमाणं, कर्मबन्धाय भवति, इतच तुम्भे य अपात्राणि दक्षिणाया इत्यर्थः, जेण मंसं खायह तह णस्थि एत्थ दोसो, अह्वा शीलं तुझं दुसितं दाणंपि ण जुजति, इतश्च शीलं नास्ति, ज भणह-थूल उरभं० ॥७०५।। वृत्त, "थूलो ति महाकायो उपचितमांसह लोके शाक्यधर्म एव मारेह, यथा शाक्या उद्दिसितुं भिक्षुसंघ प्रकल्पयंतः, केण साघेति ?, तं लोणतेलपिप्पल्यादीनि वेपणाणि गृहीतानि हिंगुकुच्छंभरादीनि वाऽन्यानि, तमेवमादीहिं वेसणेहि भिक्खुट्टाए पकरेंति । तं भुंजमाणा पिशितमिति ॥७०६ ॥ वृत्त, मांसं प्रभूतमाकण्ठाय बहुप्रकार वा, अप्येवं दिणे दिणे पोष लिप्पामो वयं, करसात् ?, त्रिकरणशु दुखात, इषमसाक, अहं खु बुद्धः । तेन प्रमाणमित्यतस्तत्प्रामाण्याद्भपामः, तदुच्यते-'इन्चेवमासु, अणजबु द्वो वा अण्णे वजे केइ एवमक्खातवन्तः साम्प्रतं आइक्खंति वा मांसदोपमिति, सर्वे ते अणारिया बाला मूढा रसेसु, रसशब्दो वा सुखे भवति, सुहेसु विसएसु, सुहे गिद्वा। जे यावि भुजति ।।७०७|| वृत्तं, जे य बुद्धा वा अबुद्रा वा पुत्रमासोपमं मांसं प्रदोपंतिकाउं भुंति, चशब्दादुपदिशन्ते मांसमदोपमिति, ७९२]] ।।४३४॥ [438] Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: सूत्रांक ||६६९७२३|| दीप अनुक्रम [७३८ श्रीयत्रक- सेति ते पावमजाणमाणा, हिंसादी उपार्जयन्तीत्यर्थः, अद्दया ते मांसासिणां हिरणुकं जीवेसु बुद्धसंज्ञिक पावं सेवंति, तदोपम-0 सांख्यताङ्गचूर्णिः जानमानाः, अथवा जाणं मंसखायणेण पावं वज्झति तं च तुम पावं अजाणमाणो, जहा एत्थ बधाणुमाणागतं घणं चिकणं पाव चौद्धनिरास: ।।४३५॥ AV बज्झति, तेण खणं ण, एवं कुशला रदंति तंमि मांसादे, सुद्धे, मांसभक्षणोपदेनएण एवं तच्छमाणे कुचंति भुक्तिमीत्यर्थः मंस-| भक्षणे, वा अथवा 'मणं ण एतं सुद्ध, कुशला जाणका मनवाना मणपि न कुवंति ज्ञातपुत्रीया, वतीति एसा मंसमदोसंति बुझ्या 2. असञ्चा, किल कम्मणो कर्तुः, स्वादुद्दिष्टं भक्त, उच्यते-सब्वेसि ॥७०८॥ वृत्तं, पाणा पृथिव्यादयः तेसिष्णिकार्य णिक्खिप्प, दंडो मारणं, सहावजेण सावज पचनपाचनानुमोदनानि, यो वाऽन्येन प्रकारेण दंभनवाहनमारणा, दण्डं सावजं दोसं परिवजयित्ता । 'तस्संकिणो' वा, शंक ज्ञाने अज्ञाने भये च, ज्ञाने तावत्कथं जानमानः उद्दिश्य कृतदोपे तं गृहीयात् , अज्ञाने संकितो कंखो | वितिगिच्छासमावष्णो संकमाणो, भए 'आहाफम्मणं भंते ! मुंजमाणे किं पगरेंति ?, उच्यते अट्ठकम्मपगडीओ सिढिलबंधण बद्धाओ धणित०' एवंविधा संका जेसिं ते भवंति तस्संकिणो इसिणो णातपुत्चा णातस्स पुत्ता ते भूनाभिसंकाए दुगुंछमाणा | ॥७०९॥ वृत्तं, जम्हा भूतो भवति भविस्सति तम्हा 'भृते'ति, संका भये ज्ञाने अज्ञाने च पूर्वोक्ता, इह तु भए द्रष्टव्या, तच मरणभयमेव, मारेमाणेहिं इह परत्र च संकते विभ्यत इत्यर्थः, इह तावत्प्रतिवरस्य संकते बंधषधरोहदंभणाणां च, परलोए णरगादिभयस्स, उक्तं च-"जो खलु जीवं उद्दवेति एस खलु परभवे तेहिं वा अण्णेहिं वा जीवेहिं उदविञ्जति" इह लोके तु भयेण 'सब्वेसु पाणेसु'ति पाणा एगिदियादिया आयुः प्राणादि, घाइणो घातयति निक्षिप्यते, एवं समणुण्णाते, 'तम्हा ण मुंजंति' तस्माद्वाऽनुमत्याः कारणात् इहपरलोकापायदर्शनाच न मुंजंति 'तहप्पगारं' अन्यदपि जं साधु उद्दिश्यतं कृतं 'एसोऽणुधम्मो, जहा लोए ॥४३५॥ ७९२]] [439] Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||६६९ ७२३|| दीप अनुक्रम [७३८ ७९२] २ श्रीसूत्रकनागपूर्णिः ||४३६|| “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [ - ], निर्युक्ति: [१८४-२०० ], मूलं [गाथा ६६९-७२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: अणुराणो धम्मो, उक्तं च-" यद्यदाचरते श्रेष्ठः " तथा "देशे २ दारुणो वा सिवो वा " एवमिहापि, अनु पथाद्भावेतिकृत्वा तीर्थंकरगणधरेहिं वर्जितमुद्देशितं, तदनु तच्छिष्याः अपि परिहरति, अथवा अणुः सूक्ष्म इत्यर्थः, सूक्ष्मो धर्मो भगवता प्रणीतः स्तोकेनाप्यतिचारेण बाध्यते शिरीषपुष्पमित्र तदनुतापेन, संयताः साधवो, णिग्गंथधम्माण ( धम्मंमि ) ॥ ७१० ॥ वृत्तं, णिग्गंथस्स धम्म एवं येषां धर्मः तेण भवंति णिग्गंधधम्मणो, अथवा णिग्गंथो भगवानेव, गंथा अतीता अता, चेअणभूतेण णिग्गंथेण तुल्लो जेसिं ते भवंति णिग्गंधधम्माणः, तत्सहधर्माणः इत्यर्थः इमो इति प्रत्यक्षीकारणे, समाअधिः समाधिः मनःसमाधानमित्यर्थः अथवा मणस्स हि इहेव समाधी भवति, द्वन्द्वाभावात् परमसमाधी य मोक्षो, ये पुनः पचनपाचनरता आरम्भप्रवृत्ता तेषामनेकाग्रीभावः कृतः समाधिः १, उक्तं हि - "स्नानाचा देहसंस्काराः” समणे भगवं महावीरे इति खलु से भगवं महावीरे समन्तात् ग्रामोति, मोक्षमित्यर्थः, इहार्चनं श्लोकं च प्राप्नोति, श्लाघा कथने, श्लोको नाम श्लाघा, कथं श्लाघ्यते १, इहैव तावत् उराला किचिवण्णसहसिलोगा परिवुअंति इति खलु समणे ३, परत्तंमि सिद्धे बुद्धे, तहा वा "गवि अत्थि माणुसार्ण" परत्र च श्लोकं प्राप्नोति, श्लाघामित्यर्थः, यस्तु अबुद्धोऽशीलगुणोपेतः पचनपाचनाद्यारम्भप्रवृत्तः साताबहुलस्नानादिशरीरसंस्कारग्रामादिपरिग्रहे व्याप्रियमाणोऽसमाधियुक्तः इहेति निन्यो भवति यथा "ग्रामक्षेत्र गृहादीनां " तथाऽऽहु:- "यथाऽपरे संकथिका " भावसुधास्तु तच्छिष्या श्लाघ्या भवन्ति "नैवास्ति राजराजस्य तत्सु०" स एवं तान् शाक्यान् सप्रपंचं निहत्य भगचतामेव प्रतिपत्तिमान् ऊर्द्धज्वलद्भिर्धिग्जातिभिः परिवार्यापदिश्यते भो आर्द्रक राजपुत्र ! मा तावद्गच्छ, तावदसाकं वेदसिद्धान्तं शृणु तथा आदिसर्गे किल विष्णोर्नाभ्यां समुत्पन्नं पद्मं नैककेसराकुलं, तस्मिन् ब्रह्मा समुत्पन्नस्तेन सृष्टमिदं जगत् स मुखतो [440] 20 सांख्यचौद्ध निरासः ॥४३६ ॥ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: जातिवादनिरास: प्रत सूत्रांक ||६६९७२३|| दीप अनुक्रम [७३८७९२] श्रीमत्र- ग्रह्मणोऽसृजत् , ततः शूद्रांस्त्रिवर्गपरिचारकान् , क्षत्रियान् सु०, एकमेव वर्ण परिचरन्ति, तत एव च श्रेयोऽवाप्नुवन्ति, यस्मा- तागचूर्णिः चैवं तस्माद् ब्रह्मोत्तरं जगद, तदेवं त्रयाणामपि वर्णानां ब्राह्मगा एप पूज्यतमाः, आह च-"ब्राह्मण एव जायते" ते च द्रव्य। ४३७॥ क्षेत्रकालभावोपधानशुद्रेन दानेन पूजनीयाः, ततेनोपधानशुढेन गोहिरण्यसुवर्णधणादीनि देयानि, क्षेत्रशुद्रुमपि खगृहेऽभ्यागत स्थानाविस्कृतक्रियस्य सुखासनासीनस्य, अथवा क्षेत्रशुद्ध पुष्करादिपु क्षेत्रेषु दीयते क्षेत्रमिदं विख्यातं, कालशुद्वमपि दर्शपूर्णिमाऽमावास्यासु, तथा अन्येषु च सर्वेषु पर्वखिति, तथा चाह-'अतुल्याण्यत्रिरावाणि, तीर्थाण्यनभिगम्य च । अदत्वा काश्चनं गाव, दरिद्रस्तेन जायते ॥ १॥ भावोपधानशुदमपि लोकप्रत्युपकारादित्यतः अदिन्नए यहीयते तद्भावोपधानशुद्धं, अभागो, भावस्तु पात्रमित्यर्थः, पात्रशुद्धमेव हि शुद्धिमुत्पादयति, अहन्यहनि दातव्यं, तत्र पात्रशुद्धिमधिकृत्योच्यते-सिणायगाणं तु दुवे सहस्से ॥७११।। वृत्तं, स्नातकाः शुद्वात्मानः, यज्ञादिपु षट्कर्माभिरताः, अथवा स्नातकादि इति वेदपारका प्रवक्तारः, आह च-"सम न ब्राह्मणे दानं" ते यदात्मानं पात्रीकृत्य केलं परानुग्रहार्थमेव परिगृहन्ति तदा दातारमात्मानं च तारयति, VA तत्परिमाणं दुवे सहस्से, तेसु च एगदिणेण बहुएहि वा दिणेहिं दोणि सहस्सेहिं पूरति जो भोजयतीति, बद्धानुलोम्या भोजये जेति, येत्ति दिणे दिणे, णेकतियं वा णितियं एगे अणेगे वा भोजावेति सदक्षिणे वा जपे य पौंडरीकादी वा यज्ञं यजते, तत्फलप्रसिद्धये वपदिश्यते, 'ते पुण्णखंधे सुमहजणित्ता'ते इति ते प्रागुपदिष्टाः द्रव्योषधानशुदैर्दानैः स्नातकबादागपूजयितारः, पुनातीति पुण्यं, स्कन्धग्रहणात् सुमहत्पुण्योपच्यं सम्यगुपार्जयित्वा, परत्र बनेंद्रग्रजापतिविष्णुलक्षादिषु देवा भवन्तीति प्रद| र्शनार्थः, यथा तावत्परसमये क्रियावद् गुणवद् समवायि कारणमिति द्रव्यलक्षणं, समयेऽपि इओएहि छहिं जीवनिकाएहि,वेदानां ।।४३७॥ [441] Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत जातिवादनिरास: सूत्रांक ||६६९७२३|| दीप अनुक्रम [७३८७९२]] 2. वादो वेदयादो, वेद एव हि परं प्रमाणं, आह हि-"वेदाः प्रमाणं" एवं त्रयी वर्तमानमाभृत्य, राज्यं गत्वा राज्याभिषेकं प्राप्य | इप्टेभ्य स्नातकेभ्यः बामणेभ्यः गोहिरण्यादीनि दानानि त्यजख प्रयच्छस्व, आह च-"यान यान् कामान् बाह्मणेभ्यो ददाति | तान् कामान् शजनोपभुक्ते" यज्ञांश्च भूहिरण्यदक्षिणां यजस्व, आह च-"जइत्ता विउले जण्णे" तदेवं श्रेयसीमवाप्स्यति,तत्कथं ?, | यदा घेतानि यथोदिष्टानि धर्मसाधनानि अभ्युदयिकं धर्ममुद्दिश्य करोति तदा नापवर्गमवामोति, यदा स्वपवर्गमुपदिश्य धर्मसाध नेषु वर्तते तदा अपवर्गमवामोति, तदेवं स्वर्गापवर्गफलं वेदानां धर्म प्रतिपद्यस्व, किं तैर्जिनैः संयमपुरस्सरैस्तपोभिः अपार्थकै| राचीण: १, ताने जात्यादिमदोद्धतां संमारमोचकतुल्लधर्मा भगवानार्द्र उवाच-यद् ब्रूत जातिशुद्धा पट्कर्मनिरताश्च शीलमन्त| रेणापि स्नातका बाह्मणा भवन्ति, कथं ?, व्याधकोपाख्यानात् , आह हि-"सप्त व्याधा दशाणेपु" तथा च "सद्यः पतति मांसेन' [किंचान्यत्-"वर्णप्रमाणके", अथवा पञ्चभिरिमैः कारणैः बाह्मणत्वं न घटते, तद्यथावत्-"जीयो जातिस्तथा देहः" एवं च श्लोकः, किंचान्यत् “विद्याचरणसंपन्ने" तथा चाहुः “न जातिर्दुध्यते राजन्" यचभिप्रेतं 'यजनादिप्रवृत्ता बाह्मणा भवन्ती'ति (तन्त्र) | कस्माद्धिसकत्वात् यज्ञस्य,आह हि-"पद् शतानि नियुज्यंते" न च हिंस्रान् भोजयमानस्य खगोऽपवर्गो वा भवति,तन्नोदाहरणं लोकमिव । सिणायगाणं तु दुवे सहस्से । ७१२।। वृत्तं, स्नातका ग्रामारण्या वा विडालमपकादिमांसाशिनः किलाहारकाः स्युः, ते स्नातकत्वे सति क्षदार्ताः परिमाणता च द्वे सहस्रे णितिए णिचे-दिणे दिणे वा दो सहस्साणि अधिगाणि चा कुत्सितं । रौतिीयते वा मारा 'से गच्छति लोलुवसंपगाढे' एवं हि सपापो लोलुपः स्वाभाविकैः शीतोष्णाभिः परस्परोदीरितैः संक्लिष्टासुरोदीरितैश्च दुःखैभूमिगता अमिगता लोलुप्यन्ते लोलविजंते वा भृशं गाई तीव्र, एवं शीतायाः स्वाभाविकाः परकृतावा तीवा ॥४३८॥ [442] Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक , नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक ||६६९७२३|| दीप अनुक्रम [७३८७९२] श्रीसूत्रक-10/नुभावा येषु अनु पश्चाद्भावे जेहि अण्णे सत्ता दुःखेहिं ताविता ते पच्छा दुःखमनुभवंतीत्यनुभावः णरकः उक्तः, पठ्यते च-तीत्रा- जातिवादताजचूणि मितावी, तिव्वं अमितावेति जे चिति ततोऽधीको अभितायो जेसु णरएसु ते तियामितावाणरका तीवमित्येकोऽर्थः, सेवितो, निरास:1.४३९॥ जहा सो कुललभोजी णरगं गच्छति जण्णिका ते वराते मारेमाणा, ये चान्ये पापके तणकाष्ठगोमयाश्रिता संस्वेदसिताः महीसिता चेव कृष्णादिपु च कर्मसु वर्तमाना बहून् जीवान घातयन्ति ते च विषयोपभोगदृष्टान्तसामाद्धिसामेव प्रज्ञापयंति ब्रुवन्ति च, II "आततायिनमायातं, अपि वेदान्तगं रणे । अहवा बह्महतो चा, हत्या पापात्प्रमुच्यते ।१।। तथा च शूद्रं हत्वा प्राणायाम जपेत , LL | चिहस्सतिकर्म या कुर्यात् , यत्किचिद्वा दद्यात् ,तथा 'अनस्थीकानां शकटभार मारयित्वा बाह्मण भोजयेत्',एवं ते हिंसकं धर्म देशंतो VA जहा कुलाला कुलपोसगा य णरए पचयंति एवं तेवि द्विजा हिंसकत्वात् कुलाला एव नरकं वचंति, जेवि तेसि देति तेचि कुलपोसगा, 40 इह सह तेहि गरगं वचंति । तएवं दयावरं धम्म ||७१३।। वृत्तं, दूसेमाणो दया परा जस्स दयागर, दमो वा दया या वरा || जस्स स भवति दयावरः, यः किल आततायिनमाया न घातयति सो गरगं गच्छति, वहावह धम्म बधा पराः वधादिति || | पंचमी, वधाद्धि परो धर्मः, कथं ?, आह हि-"हत्वा स्वर्गे महीयति" तथा चाह-"अपि तस्य कुले जायासदो" ण उ तमेवं वधावधं पसंसमाणा एगपि जे भोजयती कुशील, प्रगाहस्य ग्रहणं कृतं भवति, यत्रायं पाठ:-'दयावर धम्म दुगुंछमाणो' वधावधं पसंसमाणा एगंपि' अथवा दया परिगृह्यते, दयावरं धम्मं दुगुंछमाणा, वधावधं धर्म पसंसमाणा, एवं प्रकारा दया एगपि भोजयति कुसीले, किंबहुए , कुत्सितं शीलं कुशीलः हिंसाद्याश्रवद्वारप्रवृत्तको हिंसकधर्मोपदेशको, अणिधो णि णाम अधः उसितं अधिकार, दुरुत्तरं नरकमिति वाक्यशेपः, अन्तकाल इति मरणकालः। ताने बमवतिनः प्रतिहत्य भगवानाको भगवन्तमेव प्रति | ४३९॥ CATIANELORS [443] Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) (०२) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक -1, नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] सांख्य प्रत सूत्रांक ||६६९७२३|| दीप अनुक्रम [७३८ श्रीमत्रक- प्रातिष्ठत , अथैनं चिदं त्रिदण्डकुण्डीय जाच पवित्तनिहत्थगता परिवाजकाः परिवार्य उभयपक्षाविरुद्राभिराशीमिर्दण्डमाणा एवताङ्गचूणिः निरास: मृचू:-भो भो आर्द्रक राजपुत्र ! इदं तावदस्माकं सिद्वान्तं शृणु तयथा-'तमः खल्विदमग्गे आसीत् अव्यक्तमित्यर्थः, तस्मा॥४४० दव्यक्तत्वान्मात्रेन्द्रियभूतानां प्रादुर्भावः, आह हि-"प्रकृतेमहांस्ततोऽहकारम्तस्माद्गणश्च पोड शकः। तस्मादपि पोडशकारपंचभ्य: TA पंच भूतानि ॥१॥ इत्येतचतुर्विंशकं क्षेत्र,पञ्चविंशतितमः पुरुषः, तत्र न किश्चिदुत्पद्यते विनश्यति वा, किन्तु केवलममिव्यज्यते तमसि प्रदीपेन घटः यथा, भूमिदेशद्विगोदाद्वा मूलोदगादीन्यभिव्यज्यन्ते, एवं प्रभवः, संहारकाले च यद्यस्मादुत्पन्नं तत्तत्रैव लीयते इत्यतः सत्कार्य, भवतामपि च द्रध्यार्थतया नित्याः सर्वभावाः, इत्यतः सत्कार्यपरिग्रहः एव यथाऽस्माकं, खरूपं चैतन्य पुरुषस्य नैःश्रेयसिके मोक्षे इत्यर्थः, न त्वभ्युदयिके इष्टचिपयग्रीतिप्रादुर्भावात्मके, अनैकान्तिको वाऽसौ य नियमलक्षणो धर्मः, तत्र पञ्च यमाः अहिंसादयो भवतामपि पंच महाव्रतानि पञ्चयमो धर्मो, नियमोऽपि पश्चप्रकार एवेन्द्रियनियमः, अदिस सद्विचति, यथा भवंतोऽस्मिन् स्वधर्मे यमनियमलक्षणे एवं स्ववस्थिताः एवं वयमपि स्वे धर्मे यमनियमलक्षणे स्थिताः, न फल्गुकल्ककुहकाजीवनार्थ लोकप्रत्ययार्थ या 'एसकालं'ति यावजीवा, ण एवं तावदावयोरविशेषः, किंच-आचारशीलं २ तत्राचारः यथा भवतां युगमात्रान्तरदृष्टित्वं एवमस्माकमपि, यथा रजोहरणं प्रमाजनगर्थं एवमस्माकमपि केसरिका, यथा वचो वाक्यमिति एवमस्माकNमपि मौनाना नात्युचैपिणं वा, अथवा शील भद्र मृदुस्वभावता आक्रोशमत्सरो वा, इत्तं चुनं, शानमुपदेश भाचारः शीलं । यस ज्ञानस्य तदिदमाचारशील, अथवा ज्ञानमिति भवतामपि चैतन्यात अनन्य आत्मा, तदेवं सर्वमविशिष्टं 'ण संपराए विसेस मस्थि' चशब्दः समुच्चयार्थः, किं समुचिनोति ?, पूर्वोक्तकारणानि 'दुहृतोचि धम्ममि समुट्ठियामो' यथा एतेष्वपि अविशेषः एवं ||१४|| ७९२ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [444] Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत श्रीसूत्रकतागचूर्णिः ॥४४॥ सूत्रांक ||६६९ ७२३|| | संपराइतोवि, संपरीत्यस्मिन्निति सम्परायः स च संसारः भवतामपि संमरत्यात्मा अस्माकमपि कारणात्मा संसरति, आह हि- हस्तिताप| संसरति० वेदयन् मुश्चन् सर्वथैवाविशेषः,कसा ?,परमात्मनोः संमारित्वात् ,उक्तं हि-अवत्तरूवं पुरिसं महंतं ।।७१५।। वृत्त, IN| सनिरास: अव्यक्तं रूपं यस्य स भवत्यव्यक्तरूपः, पंच तन्मात्राणि बुद्धिर्मनोऽहवार इति पुरं, अथवा से शरीरं पुरं तस्मिन् पुरे शयत इति पुरुपः, 'महन्त' इति सर्वगतः, सर्वथा वा प्रकृत्या गतः,सनातनः पुरातन इत्यर्थः,आह हि-"अजो-नित्यः शाश्वतो योन क्षीयते घटवत्" इत्यतः कृतो-'नैनं छिंदन्ति शाखाणि' अव गतिप्रजनकान्त्यशनखादनेषु, अक्षयोऽपि कश्चिद्यायति परमाणुवत् , परमाणुळयति गच्छतीत्यर्थः, आह हि-'अच्छेद्योऽयमभेद्योऽयं' से सधपाणेसु स सव्वगतोऽसौ सर्वप्राणाः करणात्मानः, अथवा आयुरिन्द्रियशरीरबुद्धिपाणा, 'से' इति तस्यात्मनो निर्देशः, सर्वत इति सर्वासु दिक्षु, सर्वकालं च नित्यमित्यर्थः, आह हि-"सर्व सर्वत्र सर्वकालं च" नित्य इत्येको विशिष्यते, सर्वकारणात्मनामन्यः, यथा चन्द्रमाः सर्वग्रहनक्षत्रताराभ्यो वर्णप्रमाणसंस्थानलक्ष्मलक्ष्मीप्रमाकान्तिमौम्यतादिभिर्विशिष्यते एवमसावपि परमात्मा कारणात्मभ्यो विशिष्यते, सांख्यप्रक्रियाचारः,, अथवा चैदिका| नामयं सिद्धान्तः 'अच्चत्तरूवं पुरिसं महंत' तेपामेक एव परमात्मा, शेपास्तु तत्प्रभवाः, आह हि-“यस्मात्परं नापरमस्ति किंचित्" स एव च सनातनोऽक्षयो अव्ययक्ष पूर्ववत्, 'सच्चेसु पाणेसु' कथमिति ?, ते उच्यते-यथा हिमहम(पट)लविषमुक्तत्वात् भूरि| तेजसाऽऽदित्य विम्बाश्मयः सर्वतो निस्सरते, निःसृत्य च तमेव पुनः प्रविशन्ति,न च तस्यावाधां कुर्वन्ति,एवं सर्वात्मनस्त्रिकालावस्थिताः कूटस्थानिस्सरंति निसृत्य च तानि स्वकर्मविहितानि शरीरानि निवर्तयित्वा सुखदुःखादि चानुभूय पुनः पुनस्तमेव परमात्मानं प्रविशन्ति, एतच्च सूत्रं सायवैदिकयोस्तुल्यं व्याख्यायते, नैके परमात्मानो, वेदिकानां तु एकः, सांख्यवैदिकयोः प्रक्रि- ||४४१॥ दीप अनुक्रम [७३८७९२]] [445] Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक , नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: श्रीसूत्रक हस्तितापसनिरास: प्रत सूत्राक ||६६९७२३|| दीप अनुक्रम [७३८ PA यावादः, तदुत्तरं तु यदि सर्वगत आत्मा सांख्यानां एवं न म्रियन्ति न संसरंति ॥७१६॥ वृत्तं, 'मृङ् प्राणत्यागे' असर्व ताङ्गचूर्णिः गतस्य हि प्राणत्यागो युज्यते, यथा-देवदत्तः स्वगृहं त्यक्त्या अन्यत्र गन्छति, न चैत्र सर्वगतस्य शरीरादिप्राण त्यागो युज्यते, ॥४४२॥ " असर्वगतवैव संसारो घटते देवदत्तवदेव,न सर्वगतस्यैव,सर्वगतस्य न तु किश्चिदप्राप्तं यत्र गन्तीत्यतः संमारो न घटते,किंच'ण बंभणे खत्तिय वेम पेमा तत्र ब्रह्मणोऽपत्यानि वृहन्मनस्त्वाद्वा ब्राह्मणाः, क्षतामायन्तीति क्षत्रियाः, कलादिभिर्विशन्ति लोकमिति वैश्याः, प्रदेशास्पृष्टा श्रावन्तोऽन्येपात्मात्मनां प्रदेशास्पृष्टः, तत्र कथमवसीयते यथा तुल्ये चात्मानि शरीरं तनुः शेपाणामित्यपसिद्धान्तः मल्लदासीयत् , यथा मल्लदासी सर्वेषां मल्लानां सामान्या एवं बाह्मणशरीरमपि सर्वेषां क्षत्रियविदछद्राणां सामान्यमिति, यथा वामणं शरीर तथा क्षत्रियचिढूछद्रशरीराण्यपि सर्वात्मनां ममानीत्यतश्चातुर्वर्ण न घटते, किंच-'कीडा (य) पक्खी (य) सरीसिवा (य) सर्वगतत्वे सति अयं कीडोऽयं न कीड इति न घटते, तदेवं बाह्मणशरीवत्समानः सर्वः, एवं पक्खी वा, सर्पन्तीति सर्पः नरस, अथवा देवलोकेषु भवा देवलौकिका अमरा इत्यर्थः एतदेव चोत्तरं एकात्मकवादिवैदिकानां किंच-एकात्मकत्वे च सति पितृपुत्रादिरिति वार्ता न घटते, तत्सर्वज्ञप्रामाण्यात्मांख्यज्ञानप्रामाण्यात , बह्मापि च किल सर्वजः, तेन चोक्तं-"यस्मात्परं नापरमस्ति किंचित्" तत्कथं केवलज्ञानदृष्टमनृत भविष्यति इति ?, उच्यते-नैव ते केवलिनो भवन्ति, कथं, अनन्तत्वादर्शित्वात् , संत्रं त्वदृष्टमिति ?, उच्यते, ननूक्तमेवं 'न मिजति ण संमरति, वैदिकानामपि एकात्मकत्वे च ये केवलज्ञानेन लोकमज्ञात्वा जहा चूहादीभिस्तीर्थ प्रवर्तयन्ति तेषां कथं वाक्यं प्रमाणं स्यादिति, अथ सूत्रम्-लोयं अयाणित्तिह केवलेणं ॥७१७॥ वृत्तं, लोको नाम द्रव्यक्षेत्रकालभावानां यथास्थितिः तं लोकमज्ञात्वा तेन येन धर्म कथयन्ति अजाणमाणा णासंति ७९२]] ॥४४२॥ [446] Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत श्रीमत्रक- ताइचूर्णिः ।।४४३॥ सूत्रांक ||६६९ ७२३|| दीप अनुक्रम [७३८ अप्पाण परं च णट्ठा जहा अन्धो देशकोऽध्यान अप्पाणं परं च णासेति एवं तेवि, जे पुण लोकं विजाणाति च केवलेणं-केवल हस्तितापज्ञानेन 'पुण्ये ति पुण्णेण 'नाणेण' ज्ञानेन 'धम्म समनं च कहंति जे उ' समस्तो नाम सर्वचनीयदोपैविमुक्तः, जहा देसिओसनिरास: जाणओ अदिसामुढो जरो पेमें अकुडिमं मम्ग अवतारेऊण जहिच्छं देसं सम्म वा णयति, एवं तेवि केवलणाणेण भगवन्तो तित्थ-TH गरा अप्पाणं परं च संसारसमुद्दमहाकान्तारातो तारेति, सर्वगतत्वे सत्यात्मनि जे गरहियं ठाणमिहावसंति ॥७१९॥ वृत्तं, गरहित-निन्धं जातितः कुलतथ, तत्र जातितश्चाण्डालाः कर्मतचाण्डालत्वेऽपि सति ये सौकारिकाच, स्थानं वृत्तं कर्मत्यनर्थान्तरं आवसन्ति उबजीवन्ति, चरणं वृत्तं मर्यादेत्यनन्तरं, चरणेणं उबवेंनि, तदपि जो जातितो वृत्ततश्च, जातितो मिथ्याष्टिः लोकः, समता बामणः परिबाज ब्रजितः, एतदुभयमपि भवन्मते नैव, उदाहरति हि उदाहरणं भवति, अथार्थापत्तिः एतदापद्यते सर्वगतत्वे सति सर्वात्मनां समतेति, समता सम तुल्यमित्यर्थः तुल्याहुतद्रव्यवत् , सतिएत्ति बुद्धीए, एवंप्रकाराए सर्वगत आत्मेति, | सत्तीएति वा एगट्ट, 'अथाउसे विप्परियासमेव' अथ इत्यानन्तर्ये, सर्वगतत्वे सति सर्वात्मा निकृष्टोत्कृष्टयोः समता इत्यर्थः, 'आउसे ति हे आयुष्मन्तः! विद्धी योगो विपरीतो असौ विपर्यासः, विपरीत इत्यर्थः, कथं ?, सर्वगतत्वेन चेदानीं निकृष्टोस्कृष्टानां साम्यं भविष्यति, अथवा संचिदधिगमो ज्ञानं भाव इत्यनर्थान्तरमितिकृत्वा विपरीतभावमेव सर्वगतग्राह इत्यर्थः, अथवा विवञ्जास इति मनोन्मत्तालापवदित्युक्तं भवति, तावन्न चैतत्स्यात् सर्वगतत्वे सति सर्वात्मनां, निकृष्टोत्कृष्टानां तुल्यत्वे च सर्वगतमित्यन्यथा वा का प्रत्याशा ?, एतदेवोत्तरमेकात्मवादिनामिति, एवं सांख्यान्निोव्य भगवंतमेव प्रति तिष्ठतमाईक केचि| दतिदीर्घश्मश्रुनखरोमाणो जटामुकुटदीप्तशिरसो धनुष्पाणयो हस्तितापसाख्याः परिवाजोऽभ्येयुः, मो भो! क्षत्रियकुमारः आईक ! 1.४४३॥ ७९२]] [447] Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||६६९ ७२३|| दीप अनुक्रम [७३८ ७९२] श्रीमूत्रकवाङ्गचूर्णिः ४४४॥ “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [-], निर्युक्तिः [१८४-२०० ], मूलं [गाथा ६६९-७२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: तिष्ठ तावदीपतरं इमामस्माकं सिद्धान्तोदितां पुष्करचर्यां शृणु, श्रुत्वा रोचयिष्यसि यास्यसि वा तत ईपद् व्यवस्थिते राजपुत्रे पञ्चशत पुरुषपरिवारो हस्तितापमानां वृद्धतमस्तमुवाच वयं द्वादशाग्रात् अभ्युदयार्थिनः मुमुक्षवो हस्तितापसा वा इति वाच्या महाजनेन, ते च वयं परमकारुणिकाः सर्वेषु वने हि वमतां मूलस्कन्धोवघात आहारार्थः सुमहादोष इति मत्वा तेन संवच्छ रेणावि एगमेगं ॥७२० ॥ वृत्तं, संवसन्ति तस्मिन्निति संवत्सरः, एकैकमिति वीप्सा एकेके, मासे एकेके 'चाणेग' सरेण विसलित्तेण वा मंमं तुति मारे, महागर्जति गर्जति गर्जते वा गजः महाकाय महागजं मत्तं मजमाणं गंधा, सेमाणं जीवाणं सेयत्थि विज्जा, वणस्सतिकाइ मूलपत्र पुण्यफलप्रवालाङ्कुराया वानस्पत्या स्थावरा जङ्गमात्र मृगाया, दयानिमित्तं, मांसमास्वाद्य खां वृत्ति परिकल्पयामः । खंडोखंडि काउंसमे भागेतु कवल्लूरं पऊलेऊणं खायामो, एवमेगेण जीवघातेण सुबहु जीवे रक्खामो, जे पुण वणतावसा चणिकन्दफलाणिघाति ते दिषेण गामघातं करेंति, न चाशरीरो धम्र्मो भवतीत्यतः अल्पेन व्ययेन बहु रक्षामः वणिजवत्, जंपि तदर्थं किंचित्पापं भवति तदषि आतावणोववापजापत्रह्मचर्यैः क्षपयामः, विश्वामित्रेणाप्युक्तं "शक्यं कर्तुं जीवता कर्म पाप" णणु च तुम्हेवं पडिकमणादिकाउस्सग्गेण सोधवा, अयं चास्माकं स्मृतिविहित एवं हस्तितापसधर्मस्तमेनं प्रतिपद्यस्त्र आगच्छ, तानेवं वाणान् आर्द्रक आह-संबच्छरेणावि य ॥ ७२१ ॥ वृत्तं, एकतरं प्राणिनं हस्तिनं, सा हिंसा, ततो अणिपत्ता अणिपत्तिदोसा जिम्मिदियदो साओ य, किंचान्यत्-जा सा जिवांसा सा रौद्रता, कथं हस्तिनि परं मग्गमाणा मंसलोलुपा अत एव हेतु हिंसा एका चेव णरगपज्जन्ता, किया सेसाण जीवाणं १, जं च भणह-'सेसाथ जीवाण दयद्रुताए'ति तं ण भवति, सो हत्थी feat उफडितो वसतिकाए हस्ते गुच्छगुंमादीए पेले तणाति महंते व रुक्खे भंजति, कुंथुपिपीलिकादिए य जाब पंचिदिए [448] ASSIST हस्ति तापसनिरासः ॥ ४४४॥ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक , नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक ||६६९७२३|| दीप अनुक्रम श्रीश्यक- पेल्लेति, जे य मंसं पयंता सुंठीए चुल्लीसु वा अग्गिमथेण वधए, उक्तं च-"तणकट्ठगोमयमाहणस्मिया संसेदसिदा मट्टिस्सिता) हस्तिताङ्गचूर्णि:17 " एवं सेसाण जीवाण लग्गह पाणातिवाते, सिया यथैव, स्यादेतत् सर्वमपि तं सह हस्थिवधेण जे य अण्णे य पडतो मारेति मुक्त्यादि ॥४४५|| AV एगे य डझंति, सर्वमेतं थोवमुच्यते, गिहिणोवि ते य बहुजीवे जेण मारेति, कथं ?, तेलोगं सर्व जीवेहि ओतप्रोत, सोय गिही तिरियलरोए वसति, उडलोए अधोलोए य ण मारेंति, एवं जाव जंबुद्दीवे भरहे मगधाए सणगरे, ते छब्बिसे खेचे वा, एवं सोऽपि नाम धार्मिकः। किंच-संवत्सरे ७२२॥ वृत्तं, प्राणं हस्तिनं, श्रमणवतानि अहिंसादीनि तानि किलास्प हस्तितापसस्य श्रमण-10 व्रतानि सन्तीति श्रमणवती, तुर्विशेषणे, किंच मारयति च कस्येदं हास्यं न स्यात् ?,'आताहिते' आत्मनः अहितो य, एवं परूवंते आयरित्तं च, सो नट्ठो अण्णंपि णासेति, जहा सो दिसामूढो अण्णे य देसिए णासेति, अणारिओ दसणाओ चरित्ताओवि प्रागेव ज्ञानतः, ण तारिसं धम्मं हिंसक केवलिणो भणति करेंति वा, किं ब्रूते, बझा केवली, तेन तदुपदिष्टं हस्तितापसवतं, तदुच्यते-ण तारिसे केवलिणो भवंति करेंति बा, जे हिंसगं धम्मं पण्णवेति तिलोति, सा जेण णो तिष्णा अण्णतेसु च, सो नट्ठो | अणंपि णासेति जहा हाणिकताणि, एवं बह्मवद्भिः संसारमोचकवैदिकादीनां पक्षसिद्धिः प्रसाधिता भवतीत्यन्यथा वा का प्रत्याशा ?, इत्येवं तॉस्तापसान् प्रतिहत्य भगवत्समवसरणमेव प्रति प्रतिष्ठते, तत्थ य आरण्णो इस्ती गवग्रहो आलाणखंभे बद्धो सण्णी, तं 12 जणसदं सुणेति, जहा एसो अद्दओ रायरिसिपुत्तो णियालाणाणि भंजिऊण तित्थगरसमीवं पइट्ठो, परतित्थिए पडिहणिऊण, लोएण | PAI HAI अमिथुन्यमाणो पुष्पंजलिहत्थएण अचिजमाणो बंदिजमाणो णिरवेक्खो हतपचस्थिपक्खो वचति, अहो धण्णो य, तं जइ अहंपि। पतस्स पभावेणं इमाउ बंधणाओ मुन्चेज तो णं चंदिज, वंदित्ता णमंसित्ता णियगवणं पाविऊपा संजूहे णागस्स बहहिं लोट्टएहि य ४५॥ [७३८७९२]] [449] Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक -1, नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: हस्तिमुच्यादि प्रत सूत्रांक श्रीवत्रकताङ्गचूर्णिः ॥४४६॥ ||६६९७२३|| दीप अनुक्रम [७३८७९२]] वहिं कलभेहिं हत्थीहि य २ यहहिं उज्झारएहि जाब सच्छंदसुहं विहरेजा, एवं चिंतितमेच एव तडतडस्स बंधणाई छिण्णाई, छिपाधणो ऊसितहत्थो भगवंतमाकरिपितेण संपत्थितो, पच्छा लोएण भीतेण कलकलो कओ, हो हो अहो! आर्द्रकराजपुत्रो इमिणा दुट्ठहत्थिणा मारिजतित्तिकाऊण, इच्छेवं भाणिऊण भयसंभंतो सवओ समंता विष्पलाइतो, तते णं सो वणहत्थी भत्तिसंभमोणवग्गहस्थो णिञ्चलकण्णकओलो विषयणउत्तिमंगो धरणितलणिम्मितगजदंतो आईकराजपुत्रस्य पादेसु णिवडितो, मनसा चेव इणमववीत्-'भद्रं ते भो आईकरायरिसि यथाऽभिलपितान् मनोरथान प्राप्नुहि, बंधनाद्विप्रमुक्त' इत्येवं मनसा उक्त्वा यथेष्टं वनं प्राप्तवान् , तत्सुमहान्तं प्रभाव राष्ट्र लोकस्यातीव तपस्सु सविस्मया भक्तिभूव, एताए एव वेलाए सेणिओ राया भट्टारक| पादसमीयं बंदिउं पत्थितो किमेयंति पुच्छति, गहियत्थेहि य से महामतेहि य मिचेहि य पउरेहि य कथितं, जहा सो सब्बलक्खणसंपण्णो आरणो हत्थी चारिं पाणियं च अणमिलसमाणो आर्द्रकस्य रायरिसिस्स तवप्पभावेण बंधणाई छिदिऊण अद्दयं रायरिसिं चंदिऊण पलाओ, पच्छा सो सो णियराया तं सोऊण जणकलकलं अविम्हयं अदरायपुत्तं बंदिऊण णमंसित्ता एवं वदासीअहो भगवं दुफराणि तपांसि महानुभावानि च, कथं ?, तपसा तप्यते पापं, तप्तं च प्रविलीयते । देवलोकोपमानानि, भुजंत्यप्प्सरसः खियः॥१॥ विन्यस्तानि हि पुण्यानि, येषां तपः फलं ततः ॥'सेणिओ ब्रवीति, पणु भगवत एव दुष्कराणां तपमा प्रभावादसौ वनहस्ती आयसानि शृङ्गलबन्धनानि शस्त्रपि तीक्ष्णैर्दुच्छेद्यानि छिच्चा यथेष्टं वनं प्रयातः, इत्यहो दुकर, आर्द्रक उवाच-"ण दुकरं वा पारपासमोयणं, गयस्स मत्तस्स वणम्मि रायं । जहा उ चत्तायलिएण तंतुणा, सुदुकर मे पडिहाइ मोयणं ॥१॥" इत्येवमुक्त्वा भगवत्समीपं प्राप्याकः ताणि पंच सिस्ससताणि भगवतः शिष्यतया प्रददौ, भगवानपि च तान् प्रव्राज्य ॥४४६॥ [450] Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||६६९ ७२३|| दीप अनुक्रम [७३८७९२] श्रीसूत्रताङ्गचूर्णिः १.४४७॥ “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति: +चूर्णि :) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [-], निर्युक्ति: [ १८४-२०० ], मूलं [गाथा ६६९-७२३ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: तस्यैव तान् शिष्याननुज्ञातवान् । बुद्धस्स आणाऍ इमं समाधिं ॥ ७२३॥ वृत्तं, कतो स बुद्धो १, ननु भगवानेव वर्द्धमानः, आह-अजवि सो ताब भट्टारगंण पेच्छति तो कहं तस्स आणाए बुद्धो वट्टति १, उच्यते ननूपदिष्टानि महाध्ययनानि, अनागतं | चेव तेण भहारकेण णातं जहा आर्द्रको नाम तत्समीपं एंतो अण्णउत्थिए हंतुं विहरिस्सति, बुत्तो य समाणो एतानि परिसाणि | उत्तराणि दाहितिचि तेण भगवता भासितं, गणधरेहिं तु सुत्तीकतं, उक्तं च “अगागतो भासियाणि" कायेति अतिकंतं एवमिणं, अथवा प्रत्येकबुद्धो सो तेण पुच्वं एते अत्था आगमिता, तेण तेसिं अण्णउत्थियाणं तमुत्तरं देह, इच्चेवमेसा भगवतो पुव्यतित्थ| गराणं च समाधी बुतो, एत्तो तिविधो दंसगादि, तत्थ विसेसेण दंसणसमाघिणा अधिगारो बुचति, जेग मिच्छदिट्ठीसु पडिहतेसु | संमचं थिरीहोति, सति य संमचे णाणचरिताईपि होंति, अस्स समाधौ त्रिविधेऽपि सुदु स्थित्वा वा, तिविधेपि मणता वयसा कायसा, मणसा तावत् ण मिच्छदिट्ठीए समणुष्णाति तिष्णि तिसङ्काणि पात्रादियमताणि, जेसिं एतेसिं पंचण्डं गहणेण सव्वेसिंपि ग्रहणं कृतं भवति, ते सच्चे असम्भावत्थिते मण्णति, वायाएवि पडिइणति, कायेगवि तेसिं अम्मुट्टागाति वा अहो सन्मार्गाव | स्थिताः यूयमिति हस्तपरिवर्त्तनादिभिः क्षेपैस्ताभिरासत्करोति, एवं अण्णाईपि साङ्ख्यवैशेपिकवौद्धादीनि तिविषेण करणेण गच्छति गरहति, इच्चैतानि तिष्णि तिमद्वाणि कुप्पात्रयणाणि य सताणि मिच्छादंसणसमुदं तरित्ता, मिच्छादंसणस मुद्दओहमिति जलं, मिच्छादंसणे हि तस्मिन् मिथ्यादर्शनसमुद्भवो भवतीति कारणे कार्यवदुपचारो, महाभावो महावासौ भावो, यश्च महाभवौचः महंतो वा भवौधो यथा मिथ्यादर्शनोघन्तरित्ता संमत्ते द्वाति एवं अन्नाणौधं भवकारणंतिकाऊण तं तरति, अचरितोषं संवरणावारूढो तरिअ आदाणवति, आदीयत इत्यादानं एतान्येव ज्ञानदरिसणचारित्राणि आदानं, मुमुक्षोः कम्मं उदीरेजा कथयेत्यादि, उक्तं - "अट्ठिते [451] बुद्धाज्ञावत्ता 1188011 Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [७], उद्देशक [-], नियुक्ति : [२०१-२०५], मूलं [६९-८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत नालशब्दयोविचारः सूत्रांक २ श्रु० ||६९ ८२|| दीप अनुक्रम श्रीमत्रक- ण ठवेति परं" तथा चोक्तं-'गुणसुद्वितस्म वयणं.' इति ब्रवीमीति अजसुधम्मो जंबुसामी भणति, इति उदाहरेजासित्ति ताङ्गचूर्णिः D. सुधमों, परोपदेशाचैवं बचीमि ।। इति आर्द्रकीयाख्यं षष्ठमध्ययनं समाप्तम् ।। ॥४४८|| साम्प्रतं णालंदद्दलं, तस्म संबंधो, अहे आयारसुत्तं वुत्तं, इमं सावगमुचं, यत्राक्षेपपरिहारैः श्रावका वर्ण्यन्ते, अथवा प्रायेण ६ आद्र० आधारे सुयगडे य हेटा साधुसुत्ताई बुत्ताई, इह तु सावगधम्मअधिगारो, कथं ?, मावयस्म साधुमूले थूले पाणातियाते पञ्चक्खायंमि सुहुमा णाणुजाणति, अधवा छट्टे अण्णउत्थियएहिं सह वातो, इह तु सतिस्थिरहि, सूत्रस्थापि सूत्रेण 'आदाणवं धम्म उदा हरेजा', सो य धम्मो दविधो-साधुधम्मो अगिहीधम्मो अ, साधुधम्मो पंचमछडेसु बुत्तो, इह तु मावगधम्मो इस्युक्तः सम्बन्धः, Nणामणिफण्णे णालंदह, णालंदा, नगारश्चेति, आह च-"गतं न गम्यते किंचित् , अगतं नैव गम्यते । गतागतविनिर्मुक्तं, गम्यते" तमेवाय, अकारो वर्तमानमेवार्थ प्रतिषेधयति, यथाऽघटः, माकारः क्रियानिषेधकः यथा मा गच्छ, मा कुर्वीत, आह च-"मा कार्युः कम्माणुचिन्ने परो"मा गीत तिष्ठत,अन्योर्धजातिधर्मात् स्वात्मानं वधत, शान्तं वा,नोकारस्तु प्रदेश प्रतिषेधयति,म च त्रिध्धपि कालेषु, यथा नो अहमेवं कृतवान् नो करोमि नो करिष्यामि,तदुपयोगस्तु नो सदाऽऽसीत , इदानीं नकारखिकालविषयी, नाहमेवं कृतवान् न । करोमि न करिष्यामि, आह हि-"नाहिस्तष्यति काठानां." उक्तो नकारः, इदानी अलंशब्दख व्याख्या, अत्र गाथा-णामअलं ठवणअलं ॥२०१।। पर्याप्तिभूपणवारणेपु, अत्र गाथा-पजत्तीभावे खलु पढ़मो वीओ भवे अलंकारे।।२०२॥ पर्याप्ती ताय है। अलं देवदत्तो यज्ञदत्ताय, अलं केवलज्ञानं सर्वभावोपलब्धौ, अलं च श्रुतज्ञानं उपलब्धी, भावे त्येवं, उक्तं च-"द्रव्यास्तिकन(ह)या रूढः, पर्यायोयतकामुकः। युक्तिसन्नाहवान् वादी, अ(प्र)वादिभ्यो भवत्यलं ॥१॥ विभूषणेऽपि, अलंकारैः अलंकृता स्त्री, वर्तमानेन HALIFE THMITHAITARRASHIFICATIMATURPHATISMAMAP [७९३ ८०६] ॥४४८॥ अथ द्वितिय-श्रुतस्कन्धस्य सप्तमं अध्ययनं आरभ्यते [452] Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [७], उद्देशक [-], नियुक्ति: [२०१-२०५], मूलं [६९-८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक श्रीमत्रकताहचूर्णिः ॥४४९॥ ||६९ ८२|| दीप । अलंकृतं नभश्चन्द्रमसा, उक्तं च-'भवतस्त्वलमेव संस्तवेन', पारणेऽपि अलं, अलं ततेहि, अल प्राणातिपातेन यतः इहामुत्रा| पायाः,उक्तं च-"अलं कुतीरिह पर्युपासितैरल वितर्काकुलकाहलैमतैः। अलं च मे कामगुणैर्निपे वितैर्भयंकरा ये हि परब चेह च 11211अत्र प्रतिषेधेऽलंशब्देनाधिकारः, अत्र गाथा-पडिसेहणगारस्सा इत्थिसहेण चेव अलसद्दो० ॥२०३।। स्त्रीलिङ्गमेतत् , रायगिहे णगरंमि णालंदा णिवासिणां देति विभवं सुखाद्यश्च इत्यतो णालंदा, बहिनंगास्य बाहिरिका, जालंदायां भवंग गालंदइज, अत्र गाथा-णालंदाए समीवे ॥२०४।। 'पासावचिजे' पश्यतीति पार्चः तीर्थकरः पासस्म अवचं पासावर्ष, नासो पार्वखामिना प्रबाजितः, किन्तु पारम्पर्येण पाश्र्वापत्यस्थापत्यं पामावचिजं, स भगवं गौतम पासावचिजो पृच्छिताइओ अञ्जगौतम उदओ, जहा तुम्भं सावगाणं विरुद्धं पञ्चक्खाणं, पुच्छा गतो उत्तम, चोरग्गणविमोक्खणता, तथा च-इह खलु गाहावतिपुत्ता वा धम्मसवणयसियाए एज वा, से तो जान सञ्चेव से जीये जस्म पुगि दण्डे अणिक्खिते इंदाणिं णिक्विते, एवं परियागावि, तह दीहाउअ अप्पाउअ समाउअत्ति, एचमाइयाई, उबम्माई सोतुं उवसंतो। सुत्ताणुगमे सुत्तमुच्चारतवं-तेणं कालेणं तेणं समएणं (सूत्रं ६९) अतीतानागतवर्तमानस्विविधः कालः, तेनेति च तृतीया करणकारक,तेन यदतीतेन कालेण| राजगृहस्य सम्प्रयोगोऽभूत , समयग्रहणं तु कालैकदेशे, यस्मिन् समये गौतमो पुच्छितो स व्यावहारिका नैवयिकोऽपि तदन्तर्गत | एय, जहा कञ्जमाणो कडे, एवं पुच्छेजमाणे विबुद्धो, अब समयो गृहीतः, सेमा तु णो पुच्छासमया, एत्थ णयमग्गणा कायब्बा, राज्ञो गृहं राजगृह, पासादीयं०, तस्य राजगृहस्य बाहिरिया णालंदा अद्धतेरस कुलकोडीओ० । तत्थ लेवे नाम गाहावई (सून ७०) लेवे णाम संज्ञा,गृहस्य पति: गृहपतिः, होसु होत्था, आदिः आदित्यो वा आत्यः दीप्तचित्तो नाम तुष्टः, पर्याप्तधन- 11४४९॥ अनुक्रम [७९३ ८०६] [453] Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [७], उद्देशक [-], नियुक्ति : [२०१-२०५], मूलं [६९-८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्राक ||६९ ८२|| दीप श्रीयत्रक- वान् 'विच्छिण्णविपुलभवनसयणासण(जाण) वाहणाइयो' विस्तीर्णानि आयामतो विस्तरतश्च, कानि तानि ?, भवनशयनासनानि, ताङ्गचूर्णिः विउलानि बहूनि, 'पुल महत्वे' विशेपेण पुलानि विपुलानि,कानि तानि?, यानानि वाहनानि 'यथासंख्यमनुदेशः समाना मिति॥४५॥ कृत्वा तैविस्तीर्णैः भवनशयनासनैविपुलैश्च यानवाहनैराकीर्ण उपभोग्यतः संप्राप्ता इत्यर्थः,धनं कृतं, अथवा धनग्रहणेन वैडूर्यादीनि रत्नानि परिगृह्यन्ते, धनधान्य इति च कृता, शाल्यादीनि धान्यानि बहुजातरूपरयतं कंठ्यमेतद, आयप्पोत इति आयोगो वृद्धिकाप्रयोगः (व्यापारः) इत्यर्थः, अथवा आयोगस्यैव प्रयोगः, द्वन्द्वो वा समाससंज्ञा,ताभ्यां संयुक्तं, विविधं विशिष्टं वा छडितं विच्छडितं दीयमानं भुञ्जमानं वा भुक्तशेपं च, बहुदासीदासं कण्ठ्यमेतत् , 'बहुजन' इति उत्तमाधममध्यमो जनस्तस्य जातिकलैश्वर्यवृत्तैरपरिभूतो मान्यः पूज्य इत्यर्थः, से णं लेवे समणोवासए होत्था, जाव विहरति । तस्स णं लेवस्स गाहावईस्स णालंदाए बाहिरियाए बहिता उत्तरपुरच्छिमे दिसिभागे एस्थ णं (सूत्रं ७१) लेवस्स गाहावइस्स हस्थिजामे णाम वणसंडे होत्था, किण्हे किण्हछायो, प्रायेण हि वृक्षाणां मध्यमे वयसि पनाणि किण्हाणि भवन्ति, तेसिं किण्हाण छाया किण्हछाया, फलितत्तणेण आदित्यरसिधारणात् कृष्णो भवति, बाल्यावस्थानि क्रान्तानि पर्णानि शीतलानि भवन्ति, यौवने तान्येव किसलयमतिक्रान्तानि रक्तभावा ईपद्धरितालाभानि पाण्डूनि हरितानीत्यपदिश्यंते, हरितानां छाया हरितच्छाया, एत एवं कृष्णनीलहरिता वर्णा यथास्वं स्वे स्वे वर्णे अत्यर्थं युक्ततमा भवन्ति, स्निग्धाच तेण णिद्धो घणकडितडिच्छायचि अन्योऽन्यशाखाप्रशाखानुप्रवेशा घणकडितडिछाए, रम्मे महामेघ इति जलभारणामे प्राइमेघः, समूहः संघात इत्यनान्तरं, मूलान्येषां । बहूनि दूरावगाढानि च संतीति मूलवन्तः, एवं शेपाण्यपि, णिठ्ठरं यद्यपि पाण्डुरजीर्णत्वादवाङ् शुष्यंते तथाप्यच्छेद्यात् तन्निरुप अनुक्रम [७९३ ८०६] ॥४५॥ [454] Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥६९ ८२|| दीप अनुक्रम [७९३ ८०६] सूत्रक्र क्रचूर्णि : ४५१ ॥ “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि :) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [७], उद्देशक [-], निर्युक्तिः [ २०१-२०५ ], मूलं [६९-८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णिः भोगत्वाच वृक्षाणां कालेनैवापाण्डुरा भवन्तीति मूलवन्तः, एवं शेषाण्यपि, प्रसंसा एवं ताव पासादीया, तस्स णं बहुदेसमजनभाए लेवरस गाहावतीस्स सेसद्विया णाम तस्स णवगं घरं, तथा जं सेसं गृहोपयोज्यं काष्ठेष्टकालोहादि, तेण कृता, केचिद् ब्रुवते -गृहोपयोज्यात् द्रव्यात् यच्छेषं तेन कृता, उदयशाला उदकप्रवाहो सुहं होत्था । तस्सि च णं गिहपदेसम्मि (सूत्रं ७२), तत्थोवरगउवट्टाणियगपाणियघराणि पदेसा, तत्थण्णतरे पदेसे भगवं गोतमे विहरति, कथं द्वितो, कथं विहरति १, उच्यते, ण चंक्रमणादिलक्षणो विहारो गृहीतः, किन्तु उर्द्धजाणुअघोसिरज्ञाणकोट्ठोवगते, विसेसेण वा कर्म्मरजो हरतीति विहरति, कथं सावओ ? कथं प्रपा १, उच्यते, प्राग् श्रावकत्वात् प्राक्श्रावकता, साम्प्रतं निरुपभोगित्वादल्पसागारिका, अत एव भगवान् गौतमः अत्रावस्थितः, भगवं च णं आहे आरामंसि आगत्य रमंते यस्मिन् इत्यारामः, अहे वा आरामस्य, गृहं अधो अधः, तत्थ भगवान् वर्द्धमानसामी द्वितो सेसा य साधवो, तत्थ तत्थ देउलेसु मभासु द्वितो, अह उदए पेढालपुत्ते पासावचिले ॥ २०५ ॥ निग्गन्धे निर्गथो, किलायं भगवं वर्द्धमानखामी भवति न भवतीति १, दुक्खं हि भगवान् अयं ज्ञास्यत इति गौतमखामीं आगत्य भगवं गौतमं एवमाह-अस्थि खलु मे आउसे ! (सूत्रं ७३ ), प्रदिश्यते इति प्रदेशः, प्रवचनस्य प्रश्न इत्यर्थः, तथाऽहमपि, व्याकराहि, एवं पुट्ठे उदरणं पेढालपुत्त्रेणं सवायं शोभनवाक् सवायः, शोभना तु 'अलियमुवघातजणणं' इत्यादि, अथवा निर्व | हणसामर्थ्यात् शोभनवाक्, सोचा जाणिस्सति, किंचि सुचतेविण संमते, वितियचउत्था भंगा सुष्णा, तदेवं ब्रूहि यदि श्रुत्वा ज्ञास्यामः ततो वक्ष्यामः, न चेद् ज्ञास्यामो भगवंतं प्रक्ष्याम इत्यर्थः, भगवता गौतमेनोक्ते सवायं उदए पेढालपुत्ते य एवं | वयासी सवायंति न मिध्याहिमानात् पूयाविमत्या, केवलं तच्चोपलंभात्, अस्थि खलु गौतम ! कम्माउत्तिया णाम कर्म्म करो [455] गौतमोद कपेढालौ ॥४५१ ॥ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [७], उद्देशक [-], नियुक्ति : [२०१-२०५], मूलं [६९-८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्राक ||६९ ८२॥ दीप अनुक्रम श्रीमत्रक- तीति कर्मकारः सं पा शिल्पी वा कर्मकारस्य पुत्राः कर्मकारपुत्राः, कर्मकारपुत्राणामपत्यानि कर्मकारीयपुत्रा, समणे उवा गौतमोदताङ्गचूर्णिः कपेढालो सन्तीति समणोबासगा, तुभआगंति युष्माकं प्रवचनं, सच्चादितौ वा वचनं प्रवचनं, गाहावति समणोवासए 'एवं पञ्चक्खावेंति' ॥४५२॥ स्यात्कथं मया श्रुतं ताब, क ?, साधुममीपं गतेन वा, वसता तवाम समीपा गतागते तुस्सइत्ति, कथं ते प्रत्याख्यानमित्युक्तं एव माह-'णण्णस्थ अमिओएण' अन्योति परिवर्जनार्थः, अभियुज्यत इत्यभियोगः, तंजहा–रायामिओगेणं गणामि० बलामि. रायाभिः जहा वरुणो णागमच्चु(णत्तु)ओ रायाभियोगाद संग्रामं कृतवान् , अण्णो या कोथि रायवित्तो वा जीवो संग्रामे पराBI हन्यते, एवं गणाभियोगेवि, मल्लगणादी, जहा रायभियोगो तथा हिंस्रव्याघ्रमादिजीषितान्तकरानिवारयेत , नाशरीरस्य धर्मों भवतीत्यतःते, अत्रापि रायाभियोगबद्रष्टव्यं, आकार एव च एतावान् भवति, जे पञ्चक्खाओ चेव रायाभियोगादि आगारं करोति, जहा स हिमादिभिभूतो पलायतो तसे पेल्लेति, स्यात् , कथं तसपायोसु णिक्विवितस्स आयरियस एगिदियवधाणुगा PM भवति ?, उच्यते-'चोरग्गहण(वि)मोक्खणयाए'ति उदाहरणं-एगमिणगरे रण्णा तुडेण अंतेपुरस्स रति सच्छंदपयारो दिण्णो णागरेहिवि रायाणुवत्तीए, बरिसे वरिसे तद्दिवसं महिलाचारोऽणुण्णातो य, पत्ते च दियो रण्णा घोसावितं-जो पुरिसो अतीति तस्स दंडो सारीरो, ते च णिति, चिडेसु बारेसु ताओ रायाणिओ णगरमहिलाओ य सच्छंदं सुहं रति अभिरमंति, तत्थ कदायि एगस्स वाणियस्स पुत्ता मावणे ववहारमाणा अतीव कयविकये वढमाणा अत्थलोभी जहिच्छितं पणियं विकेमाणा ते बढिता जाव रो अर्थतो, महिलाओ य आहिंडिऊण पन्चत्ताओ, ते य भीता तंमि चेव सावणे णिलुका, वत्ते महिलाचारे सूचकेहिं रणो कहिता, बज्झा आणचा, पिता य तेसिं सव्यपगतीहि समं विष्णवेति, दण्डं देमि, अप्पथ मम पुत्ते, राया अतीव बडिजमाणो ॥४५२॥ [७९३ ८०६] [456] Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [७], उद्देशक [-, नियुक्ति: [२०१-२०५], मूलं [६९-८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत श्रीसमक- ताङ्गचूर्णिः ॥४५३| सूत्रांक ||६९ ८२ दीप अनुक्रम भणति-एक ते जेट्टपुत्तं मुशामि, सो भणति-सब्वे मुबह, इतरो भणति-जेहपुतं ते मुश्रामि, इतरे ण मुआमिचिकटूटु, तं मोतुं सभूतसेसा विरसमाणस घातेति, एवं साधूवि सावंग भणति-छम जीवणिकाएसु णिक्खिप्प दंडं, सोगेन्छति, इत्यतः चोरग्रहण-17 विचारः मोक्खणट्ठताए साधुणा सेमा काया अणुण्णाता ण भवंति, स्यात् कथं चोरास्ते स्वगृहे तिष्ठन्तः, उच्यते, राज्ञा न तेषां अनु- IN जातस्तस्यां रात्रौ नगरे वास इत्यतः, अथवा सेत्ति पुत्ता रण्णा कम्हि य आयोए णिउचा, तेहिं फिर किंचि तस्थ अविहतं, क्वापि तदेव जाइजमाणो राया चिराणुगतोचिकाऊण एकं विमति, उदए आह-तसेहिं येईदियादीहि गिधयति धकारस्य इखत्वे कृते निधय भवति, निक्षिप्येत्यर्थः, एवं तेसिं साधूर्ण पनवंताणं सबगतिग्राहित्यात सानां दुपगक्खातं भवति, तथा च-न जातित्रसः कश्चिजीवोऽस्ति, सानां सर्वकालत्वात् , तथा प्रत्याचक्षाणानां श्राराणामध्यसर्वकालत्वादेव प्रसाणां दुपच खातं भवति, एवं ते परमं पञ्चक्खावेति-माणंति, पर इति, साधूनां तावत्परः श्रावकः, अतिचरंति सयं पतिणं, अतीत्य चरंति अतीत्य वर्तन्त इत्यर्थः, कतर, पतिणं च यथा वयं तसेभ्यो विरता इत्यर्थः, यदि हि अत्यन्तत्रमाः स्युः सकाये मोत्तुं अण्णास्थ, अण्णत्थ ण उयवजेज इत्यर्थः, श्रावकानामतिचारेयुः खां प्रतिक्षा, जम्हा य ते साधुणो जाणंति णस्थि कोयि अचंततसाति, सो हि य पचक्खावेन्ता घिजादिता भवंति श्रावकाः, मृपावादवादित्वाचातिचरन्ति, खां मृपानादवेरमणप्रतिज्ञा, थावकस्यापि साधू पच्चक्खंतिओ परो तेण परेण अप्पणो पञ्चक्खावेमाणा असर्वकालत्वात् त्रसानां अतिचरंति स्वां प्रतिज्ञां, य था वयं सेभ्यो विरता इति, अप्पाणं साधुं च पञ्चक्वायतयं विसंवादयन्ति 'कस्स गं तं हेतुति कस्माद्धेतोरित्युक्तं भवति, संसारित्वात्सजीवानामिति हेतुः खल्विति विशेषणे, किं विशिनष्टि ?, न कश्चित्संसारी जीयोऽस्ति हि तासु तासु गतिसु न संसरति, थावरावि विप्र- 11४५३॥ [७९३ ८०६] NSURA [457] Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [७], उद्देशक [-], नियुक्ति: [२०१-२०५], मूलं [६९-८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत श्रीधातामणि ॥४५४॥ त्रसभूतविचार: सूत्राक ||६९ ८२|| दीप काराः त्रिप्रकारेवेच असेपूपपद्यन्ते, वसा अपि त्रिप्रकाराः त्रिप्रकारेवेव स्थावरेपूपपद्यन्ते, थावरा पाणा विष्पमुचमाणा केयि थावरा, थावरता य कालं किचा तसकायंसि उबवजंते ततो सावगस्स तसस्स हाणं पइणं भवति, जओ सावगेणं स्थावराणं ण पचक्खायति, तसावि केइ तसचाओ कालं किया थावरकायंसि उबवजेजा, ततो सावगस्स तं थावरद्वाणं अघत्तं भवति, जतो सावगेण तसाणं पञ्चक्खातंति, धातनीयं घात्यं वा घतं, दोभेव एताई संसारिजीवट्ठाणाई, तसट्ठाणं थावरहाणं च, तं च तसट्ठामं सावगस्स स्थूलत्वात् प्राणातिपातस्य तीवाध्यवसायोत्पादकत्वाल्लोकगरहितत्वाच अघतं, स्थावरट्टाणं पुनस्तैरेव कारणैः सह तेजोवायुभ्यां धनं, दृष्टान्तो नागरकवधनिवृत्तिवत् , यथा कश्चिद् ब्रूयात् मया नागरको न हन्तव्य इति, स च यदा तं नागरकं ग्रामगतं हन्यात तदा तत्कि प्रत्याख्यानं न भग्नं भवति ?, स्यात्कथं सुप्रत्याख्यापितं भवति साधोः कथं च सुप्रत्याख्यातं भवति श्रावकस्य ?, उदओ आह-तत उच्यते, तेसिं साधूर्ण पञ्चक्खायंताणं एवं पञ्चक्खायमाणाणं सुपचक्खातं होजा साागाण तेहिं साधूहि पच्चखाताणं एवं सोपथक्खात होजा, एवं ते परं पञ्चक्खावेमाणा, परशब्दो हि उभयग्राहि, पचाइखंतस्स हि पचक्खावेमाणे परो, पचक्खावेतस्सवि पच्चक्खाइओ परो, इत्युवाच, यथापि परशब्दः नातिचरन्ति स्वां स्वां प्रतिज्ञा, णण्णत्थ अभिजोएणंति, सो हि गाहावतित्ति यावन्न व्रतानि तावद् गृहपतीत्युच्यते गृहीतानुव्रतस्तु थावकः उपासको वा, तसभूतेहिं पाणेहि ति ऋजुमूत्रादारम्य सर्व एव उपरिमा णया नैयायिका ते तु वर्तमानमेवार्थ प्रतिपद्यन्ते न त्वतीतानागते इत्यतो नेवयिकनयमधिकृत्योच्यते असत्वं भूतं येषां तत्र भूता, वर्तमानमित्यर्थः, न स्वनागतं धृतघटदृष्टान्तसामर्थ्याच ते भवन्ति त्रसभूताः, ते हि त्रसभूतेहिं पच्चक्खंतस्स साधुस्स अलियवयणवेरमणं ण भग्गं भवति, पचक्खावेतस्स य सावगस्स स्थूलगषाणातिपातवेरमणं ण भग्नं भवति, अनुक्रम [७९३ ८०६] ॥४५॥ [458] Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [७], उद्देशक [-], नियुक्ति : [२०१-२०५], मूलं [६९-८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्राक ||६९ ८२|| दीप श्रीसूत्रक- IROI को दृष्टान्तः, क्षीरविगतिप्रत्याख्याने दधिपानवत् , यथा क्षीरविगतिप्रत्याख्यायिनः सस्वरमपि दघि पियतः प्रत्याख्यान न वसभूतताङचूर्णि: भजते एवं त्रसभूता मया सचान हन्तव्या इति स्थावरानपि हिंसतोऽपि न प्रत्याख्यानातिचारो भवति, एवं तसभूते पचक्खाउंविचारः ॥४५५|| सावगस्स, थावरेसु त्रसत्वं नास्तीतिकृत्वा स्थावरान हिंसतोऽपि न सप्राणातिपातातिचारो भवति, एवं सति भासापरकमे-IN विजमाणे भासापरिकम्मे णाम वाग्विपयविशेषः, स्यात् को विशेषः । ननु भासाभिधानभूतशब्देन सङ्गृहीतं नित्यं यो विशेपो विजमाणो, को हि णाम अविसेसीतं पचक्खाइ ?, कोघेण, माणोऽपि कोधाणुगतो चेव धूमानियन , लोभेण सावगा जाता संता MAI अम्हं असणादी दाहिन्ति, देशो नाम उपदेशः दृष्टिा उपदेशः, अपिः पदार्थादिपु, उम्मग्गदेसणा य भवति, यतु पचखाणं | | सुज्झति, मोक्खं णयणशीलो णेयाउओ, अपियाई जाव रोयह । गौतमो भगवानाह-णो ग्वलु आउसो! (सूर्व ७५), | पेढालस्य तत्कथं न रोचति ?, उन्मार्गवर्जनवत् , को णाम सचेतणो जाणमाणो उज्जुयं खेमं आसणगमणं च पंथं मोतूण तचि वरीतेण पंथेण बच्चेजा ?, को वा जाणतो णिविसं भोअणं मोचूण सविसं भुंजेजा ?, समणा चे गाहणा तत्पुरुषः समासः, AN अथवा माहणा श्रावकः, एवं आइक्खंति जाव पण्णवेंति-थो खलु समाणे समाणा समणेहिं तुल्या समाणा अमच्छूमणैस्तुल्या इत्येवमाख्यान्ति, अणुगामियं खलु जाए अणुगच्छन्ति संसारं सा अणुमामिया भवति, अभूतोभावनं अभ्याख्यानं भवति, नियो | वा, संयतयत् , सो असंयतं संयतं ब्रवीति सो अभ्याख्यातो भवति, संयतं वा असंजतं भणति सोवि अभिक्खातो भवति, उक्तं हि-"जे णं भंते ! परं असंतेणे. अप्पगंपि अब्भाइक्खा०"विधि अजाणंति अम्हे पचखाणविधिजाणगा, ते समणेचि ते आयHAरिया सिस्साणं समगाणं उनदिसंति जहा सावगाण एवं पञ्चवावेआह, जेहिवि अण्णेहिं पाणेहिं जाव सहि संजमंति तेवि ॥४५५॥ अनुक्रम HESTERNMENT [७९३ ८०६] [459] Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [७], उद्देशक [-], नियुक्ति : [२०१-२०५], मूलं [६९-८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सभूत विचारः सूत्रांक ॥६९ ८२|| दीप श्रीसूत्रक- स्यात्कयरे ,स्यादन्ये प्राणा एगिदिएकपंचिदिए, तत्थ वणस्सतिकाएण दरिसणेइ, वणस्सतिकायसमारंभस्म पनक्खाणं तं आईनागाणा छेदस्वेत्यर्थः, तत्थ णाम तेग वणस्मतिभूतस्स पञ्चकखातं, किं कारणं ?, सोचि संसारी कदायि पुढविकाएसु उववञ्जति तेण तं ॥४५६॥ | पुढविकाइयं वर्धतेण तुम्भंचएणं पञ्चक्खाणं भग्गं भवति, अथ भूतशब्दमंतरेणापि वणस्सइत्ति समारंभपचक्खाणं सुज्झति, कस्स त्रसेष्वपरितोषः, अथवा जेहिवि अण्णेहिवि पञ्चाइक्वंति तेवि ते अन्भाइक्रांति, कथं तर्हि ?, अत्र हि प्रत्याख्येया गृह्यन्ते, नतु सपथक्वंतओ पञ्चक्खावेतओ वा कथं अन्भाइक्खित्ता भवंति ?, जेण तेसु भूतशब्दः प्रयुज्यते, भूतशब्दो हि यातोऽगगतिं गत्वा औपम्ये वा तदर्थं वा, औपम्ये तारत् सो देवलोकभूतेऽन्तेपुरे गतो, तदर्थेन सीदीभूतो परिणिचुतो, औपम्ये तावन्न घटते, किं कारणं ?, णस्थि अण्णो कोयि तसकायो, जहा देवलोके देवडी, तत्र शब्दादिगुणोपेतत्वाद्देवलोकभूतं अंतेपुरं बरं, एवं ताव णस्थि कोइ अतसओ जेण तसा तसभूता बुधेञ्जा, तदर्थोऽपि न घटते, कथं ?, जात्यभेदात् यथा उदकं अभिन्नायामुदकजाती अशी सीतीभवति, शीतं वा अशीतीभवति, किमेवं त्रसस्त्रसत्वेनाविगत एवं सन् त्रसीभवति, वसीभूतश्च पुनखसीभवति? यसाचैवं तस्माद्भूतशब्दो होद एव, होढवाभ्याख्यानमित्यतो येऽपि प्रत्याख्येया तेऽपि अब्भाइक्संति, कथं ?, जो हि साधु साधुभूत भणेजा तेण सो अभक्खातो, कथं णाम सो साधु साधुभूतो पुण असाधु साधूभूतं भगतो तं साधुमभाइक्खंति, कस्सणं तं हेतु ?, कस्माद्धेतोः अभक्खा होति, जेण तसथावराणं पाणाणं अण्णोणं संक्रमणं अविरुद्धं, सत्यप्पविरोधे तसेसु उबवण्णा थावराणे तसट्ठाणं अघत्तं अघातनीयमित्यर्थः, अर्थतः प्राप्तं तसाणं थावरेसूबवण्णाणं ठाण मेतं घत्तं तदपि अणट्ठाए अधत्तं, अट्ठाए पत्तं, शेष कंठथं जागरओ मए ण घातेतियोचि तं गामंपि गतं यो घातेति तेण पञ्चक्खाणं भग्गं भवति, एवं तसा मए ण पातयि अनुक्रम [७९३ ८०६] [460] Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [७], उद्देशक [-], नियुक्ति : [२०१-२०५], मूलं [६९-८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चर्णि: त्रसभूतविचार: प्रत सुत्राक ||६९ ८२|| दीप श्रीयत्रक- तव्या, सो य थावरेपि तत्ताए गने घातेतो तमथावरेग पुट्ठो, जइ पुण तसभूतो भणेज तो मुंबेजा, तदयुक्त, कथं ?, णिच्छ यणप POLपडुच गगरद्वितो णागरओ तीर्थकामवत् , एवं सो मए तसो ण घायब्योति तस्यामेव जातौ वर्तमानोऽधात्य:, थावरगती पुण ANण चेव तसो भवतीत्यतो तसट्टाणं अघतं, उदओ सवायं उदए (सूत्रं ७६), ण रोसेण पडिणिवेसेण वा, ओभावणठ्ठता वा | न केवलं, किं तु कुसलं गवेपित्वा, कतरे तुम्भे बदह तमपाणा कंठो, सवायं भगवं गोयमे उदयं पेढालपुतं एवं वयाप्ती-जे तुम्भे वयह तसभूता पाणा ते वयं वदामो तसा पाणा भूता, एते तसा विअंति, तसा य तमभूता, यद्यप्येकः भूतशब्दोऽधिका, तस्याप्यर्थः भवतो न भवतीत्यतो तुल्या, एकाश्रयत्वात् एगट्ठा, सुखं सुखोचारणात् , सूपनीततराप्येवं उपनीयतरा, तसा पाणा, अर्थमुपनयतीत्युपनीतं भवति, किं सुखतरं तसभृतामिधाने अत्थो वणिअति?, मन्यत इत्यर्थः, तसामिधानेन सुखसरं उवणिअति, भूतसद्दो पुण औपम्ये तदर्थे च वर्चते, तदर्थे तावत् जम्हा भूतो भवति भविस्सति तम्हा भूते, अथया सीतीभूते परिणिबुढे य, तम्हा उसिणे उसिणभूते जाते आविहोत्था, औपम्येऽपि स देवलोकभूते, स एवं द्विधा भूतशब्दो वर्तते, अप्येयं संमोह जनयति नतु निष्णय, कथं ?, न हि कश्चित्रसतुल्योऽन्यः कायोऽस्ति जेण यच्चेज, परिशेगात् तदर्थ एव घटते, तदर्थोऽपि च भूत- | शब्दमन्तरेणापि स एवार्थः सेत्स्यति, परि समन्तात् कुश आक्रोश, नेनिंदध आक्रोशत इत्यर्थः, नयनशीलो नेयाइओ मोक्षं नय: तीत्यर्थः, अभिमुर्ख नंदध प्रशंसत इत्यर्थः, अयपि निदेशे, दर्शनं दृष्टिा देशः उपदेशो मार्गः, स्वसिद्धान्तख्यापनार्थमित्यर्थः, किंचान्यत्-जं तुम्भे भणह तसभूएहिं पाणेहिं णिक्खिप्प दंडंति तं समयविरुद्धं, कई ?, भगवं च उदाहु संतेगइया पुरिसा भवन्ति, गम्भवतिया संखेजवासाउया आयरिया चुत्तपुयचि अतीतकालो गहितो, एगम्गणेण बरमाणोवि गहितो अणागतोपि, अनुक्रम [७९३ ८०६] ४५७।। [461] Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [७], उद्देशक [-], नियुक्ति : [२०१-२०५], मूलं [६९-८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक ||६९ ८२|| दीप अनुक्रम [७९३ श्रीमत्रक- अतीतग्गहणं तु अनादिसिद्धमार्गस्थापनार्थं, 'गुपू रक्षणे' तस्या गोत्रं भवति, उक्तं हि-"ण णिव्यहे मन्तपदेण गोत" संयममित्यर्थः, त्रसभूतताङ्गचूर्णिः 'अणुपुब्वेणं ति अनुव्रतानुक्रमः, अथवा थोरथोत्रं संजममाणो जाब एगारस समणोबासगपडिमा, एवं अणुपुपीए 'माणुस्सखेत्त- विचार: ॥४५८ जाति०' अथवा 'अट्ठण्हं पगडीणं' अथवा 'सवणे गाणे य विष्णाणा' संखं ठावेंति, किं ?, कोयि एक अणुवतं कोयि दोणि जाव मपंच एवं उत्तरगुणेसु विभासा, नागार्जुनीयास्तु एवं अप्पाणं संकसावेंति, कप गतौ' तमिन्नेव गृहीधर्म सम्यक आत्मानं कसा चेति संकसावेंति, न प्रबजतीत्यर्थः, ताणि पुण यताधि एवं गेहंति णण्णत्थ अभिजोएणं जाव अहाकुसलमेव, जहा साधू सवतो विरतो एवं तेसिपि, जहा इत्युपमाने, थकारस्य व्यञ्जनलोपे कृते आकारे अवशिष्टे भवति, किं ज्ञापकं ?, ततो पच्छा तसा अधा लहूए स णाम पट्टवेतव्वे सिया, जेसु पुण सो पञ्चक्खाणं करेति तसथावरा वा स्यात् , कथं ?, तसो थावरो वा भवति ?, उच्यते-तसावि वुचंति (सूत्रं ७७), तहा लहए सणाम एस्सा तसत्ति संज्ञा सा दुविधा, गोणी पारिभापिकी च विभापितव्या, इयं तु न पारिभापिकी इन्द्रगोपकवत, गोणि भास्करवत , तत्कथं संभारकडेण तसा णाम, णामसमारंभो णाम, प्रसत्वात असेधूपपद्यते, किमुक्तं भवति ?, जइवि तेहि थावराणामकर्म बद्धं तं च लहुं थावरेवि, थावरेसु ण उवयजति, उक्तंहि-यद्गुरुसंपञ्चासन्न, वसंतीति वसा गोणीसंज्ञा, जति पुण तसा बचेञ्जा तेण तसभूतणाम णामकर्म वुचेज, तत्रोघतो तेण तसा चेव अब्भुवगतंति, लोगुत्तरे च तसा चेव अभ्युपगम्यन्ते, न तु तमभृता, उदग आह-केचिरं तसा बुचंति ?, जाव तसाऊ अपलिक्खीणं, उकोसेणं जाय तेत्तीसं सागरोवमाणि, नागार्जुनीयास्तु आउअं चणं पलिक्खीणं भवति तसकायद्वितीए या न ततो आउ विप्पजहिता तिण्डं थावराणं अण्णतरेसूववजंति, थावरावि वुचंति संभारकडेण, उदिजमाने उदीर्णे इत्यर्थः, णामं च णं तहेब ) ॥४५८॥ ८०६] THER [462] Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||६९ ८२|| दीप अनुक्रम [७९३ ८०६ ] श्रीसूत्रताङ्गन्चूर्णिः ॥ ४५९॥ “सूत्रकृत” अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति:+चूर्णिः) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [७], उद्देशक [-], निर्युक्तिः [ २०१-२०५ ], मूलं [६९-८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: - अपलिक्खीणे दो आदेसा, ते ततो आउयं विप्पजद्दित्ता, लोगोति, ते तसा ते पाणावि, अपि पदार्थादिषु, पाणावि भूता जाव सत्तावि, एवं ताणं चत्तारि णामाणि अविशिष्टानि तसेसु वदंति इदं तु विशिष्टं तसा बुचंति, महांकायिति, प्रधानेनाधिगतं तीर्थ| करवैक्रियाऽऽहारकशरीराणि प्रतीत्य बहुत्वं वैक्रियं प्रतीत्य, योजनशतसहस्रं, चिरद्वितीयं तेत्तीसं सागरोवमाई ॥ सवायं उद भगवं गोतमं (सूत्रं ७८), आउसंतो ! गोतमा ! छिण्णं सो कोयि जाव सव्यपाणेहिं स दंडो णिक्खित्तो स्थात्, को हेतुः ?, उच्यते- 'संसारिया खलु' खलु विशेषणे, संसारिया एव संसरति, ण तु सिद्धा इत्यर्थः, अविरुद्धः संक्रम इतिकृत्वा, सच्वेचि तसा थावरकाए उबवण्णा, तेसिं च सव्वेसिं पाणाणं स्थावरेश्ववण्णाणं ठाणमेयं घतं, जं तसपाणा एव सच्चे तसथावरा होजा, थावरा वा तसा होअधि, ततो सावओ कतरे ते तसा जेसु संजतो होला ?, सवायं भगवं गोतमे उदयं पेढालपुतं असा वक्तव्यं, किं | उत्तरमत्र : निमित्ताभावे नैमित्तिकाभाव इतिकृत्वा प्रदीपप्रकाशवत्, तावकं प्रवादं अनुसृत्य वादोऽनुप्रवादः, अनुसृत्य योऽन्यः प्रवादः, जहा 'पुढवी आउजलेण य अग्गिंधणेणं तणेण य भूइटुं । कजं जणो करेति अत्थत्थी धम्मकामे य || १ || एवं उबवतीए णज्जति, जइ सब्वे थावरा वसेसु उबवजेजा जेसु य सावरण णिक्खित्तो दंडो, पच्छा सावगस्स तेसु थावरेसु तसीभूते ठाणमेतं अधत्तं, कतरेसु थावरेसु १, जैसु सावओ दंडं णिक्खिवति, ज्ञापकं प्रियमाणावि हु उदयं रुचेति, उदगं अप्काएव पुण्णाए, अथवा अपगंतव्ययं संसारिणो पाणा तसा थावरेसु उववजंति, थावरावि तसेसु, एवं अम्हं यत्तव्वे तुम्हेवि अणुवदद्द, जइ एवं सम्मं मुह से एगतिया, ण सव्वेसिं, थावराणं तसेसूववण्णाणं ठाणमेयं अघतं, ते पाणावि दुर्धति ते अप्पतरा ते बहुतरा जाव णो आउए । इह खलु संतेगतिया मणुस्सा (सूत्रं ७९), संखेजवासाउया कम्मभूमगा आयरिया असावगा, दंसण [463] त्रसभूतविचार: ||४५९॥ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [७], उद्देशक [-], नियुक्ति: [२०१-२०५], मूलं [६९-८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत विचार: सुत्रांक ॥६९ ८२|| दीप श्रीया सागा चुना, पुवं तिविधो कालो गहितो, जे इमे मुंडा एतेसु इमो आदमदायां जापजीपाए उक्त भवति, तेसिं च अगारीणं सभूतनारणिः | केद गरबदता, पच्छा मो, ते जइचि पुचि अधकारिणो तथापि ण उद्दवेंति, कदाइ ते पवइमा पच्छा पचक्खाणी, जावि उद्दवेति ॥४६॥ रेण अण्णेण या केणइ कारणेण तहाचि तस्स तस्स तं पञ्चक्खाणं ण भजति, उक्तो दृष्टान्तः अयमोपनय:-एवमेव समणोवासगस्मवि थावरेसु पाणेसु दंडो णिक्खितो, ते य थायरा कालं काऊण तसेसु उवाअंति पच्छा सो तमेव ण मारेति जहा सो पचक्खाणी पवइत संत ण मारेति उप्पयइतं मारेति एवं सावओऽवि तसं तसीभूत न मारेइ, पुणरनि थापरीभृतं मारेमाणोवि ण अपञ्चक्खाणीति, से एवमाजाणहत्ति उपसंहारो गहितो, एवं च ज्ञायमाने वा सम्म गाणं पडिवण्णं भवति, एवं ताव नेसुन MA चखाणं करेति तेषु कर्मभूतेषु विधिरुक्तः, इदानीं प्रत्याख्यानिनो गृह्यन्ते, ते च पूर्वमप्रत्याख्यानीभूतं पश्चात्प्रत्याख्यान्ति, पच्छा पुणरवि अपचक्खाणं भवति, तंजहा-भगवं च णं उदाहु णियंठा खलु गाहावर्ति तहप्पगारेहि कुलेहि आरिएहि भोजि यट्ठियपव्यापणारिया, शेष कंठध, शुभोऽव्याधिः, कुष्ठादिस्तु विशेषतः, मनसा ज्ञायते मनोज्ञः मनसा नामः, दुक्खिणो सुहो 4. जवि अहं तेण रोगान्तकेण अभिभुतो बंधवे भणेज, हंत संप्रेपणे भयात्रायंतीति त्रातारो इमं दुक्खं परिएत ममं अर्जनरक्षणादिसमुत्थं भवति, निमित्तमेव दुक्समुत्थितं मा वधते, तद्भवं तदेणं प्रत्यापयन्तु, स्याद् अचेतनत्वात् , कामभोगानामामन्त्रणं, उक्तो आगारः, दृष्टान्त उच्यते, पृथक सत्रीकरणं ?, उच्यते, णिक्खेवो चुचो वितिए. दंडे, णिक्एिनेसु भुंजतिकामो दरिसितो, अथवा Pसमणोवासगा अधिकृता, तेसिं च णो कप्पति अण्णउत्थिया वा अन्नउस्थियदेवताणि चा, साधुणा ते दूरतो. बजेयवत्तिकाऊणं ते उद्वितेवि ण पचक्खावेस्सति इत्यतः पृथक सूत्रीकरणं, णियंठा पुच्छितव्यत्ति, ते चैव पासावञ्चिा णियंठा पुच्छिजंति तुम्भंति,D ॥४६०|| अनुक्रम [७९३ ८०६] [464] Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [७], उद्देशक [-], नियुक्ति : [२०१-२०५], मूलं [६९-८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: उदकबोधः प्रत सूत्रांक थीसूत्रक तानचूर्णिः ॥४६॥ ||६९ ८२|| दीप || किं पुरा संमतं उदाहु णापि, अथवा पुच्छिअंति तुम्भपि किं दार्शन्तिकोऽर्थों दष्टान्तेन साध्यते !, न तु प्रतिज्ञामात्रेण, देवसिद्धिः10 आशामात्रादिति चेत सर्वस्य सर्वसिद्धिरिति परिशेपात दृष्टान्तसिद्धिरिति, तत्र दृशान्तः, इह खलु परियागा.चरगादयः परिया| इयाओ तेमि चेव यथाखं प्रवजिताः स्त्रियः, यथा चरिका-भिक्षुणीत्यादि, अण्ण उत्यियाई तित्थायतणाई, ते चेव पासंडिया चरि-IN गादयः ते पुण केइ चरगेसु चेत्र वचंति, केड अणणे चरगतब्बणियादि वुत्ता जेसु पचक्खाति सापओ,जे य पचक्खायंता सावगा आगारिणो परियाइगा य, इदाणिज बुत्तं णस्थि ण से केई परियाए जेण समणोवामगरम.एगपाणाएवि 'दंडे णिक्खित्ते सब-10 | पाणे हिंसादंडे अणिक्खिने, तस्थ बुत्ते ते' दुविधा सावंगा सामिग्गहा य निरभिग्गहा य साभिग्गहे पहुच बुञ्चति भगवं च 'णं | (सूत्रं ८०), भगवं तित्थगरो चशब्देन शिष्या ये चान्ये तीर्थफराः, संतेगइया समणोबासगा जेसिं च णं.णो खलु वयं पब्यदत्तए, वय णं चाउद्दसट्टमुद्दिट्ट पडिपुण्णति चतुर्विधं धूलगं पाणाइपातं पचक्खाइस्सामो जाय थूलगं परिग्गह, सो चतुर्विधं पोसहितो, |णियमा सामाइयकड़ो चेव होति-सामाइयकड़ीय भणति-मा खलु ममट्ठाए किंचि रधणपयणण्हाणुम्मदगविलेवणादि करे । | महेलियं अण्णं भणति-कारवेद, होति इस्सरो महेलियं दोसीणमहाणसियाण वा संदेसं.देति, तत्थ विपस्सामोत्ति, एवं अगारिसं| देसए दायवे, अथवा यदन्यत् सामाइयकडेण कर्नव्यं तथापि पचक्खाणं करिस्सामो ते, अमोजत्ति अपेयत्ति आहारपोसहो गहितो, असिणाईतिचि सरीरसकारपोसहो, आसंदपलियं० दब्भसंथारगतो पोसहो चेव, सातासोक्वाणुबन्धो य सुसिरं च, जे पुण ते वहा पोसहिया चेव दंडणिक्खेवो, एवं सवपोसहेवि, जेण वातादिएण वग्वादीण वा कुड्डपडणेण वा ते केवि वत्तव्या संमं कालगता, न घालमरणेनेत्यर्थः, नागार्जुनीयास्तु सामाइयकडेऽहिकाउं सर्वपाणातिवातं पञ्चक्खाइक्खिस्सामो तदिवसं, उक्तं | -||४६१॥ अनुक्रम [७९३८०६] INSTAINABामाला [465] Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||६९ ८२|| दीप अनुक्रम [७९३ ८०६ ] श्रीसूत्रक्रताङ्गचूर्णिः ||४६२॥ “सूत्रकृत” अंगसूत्र-२ (निर्युक्ति:+चूर्णिः) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [७], उद्देशक [-], निर्युक्तिः [ २०१-२०५ ], मूलं [६९-८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: - हि-- “ सामाइयंमि तु कते० " यतथैवं तेण जं भणितं णत्थि णं से केवि परियाए जेण समणोवामगस्स एगपाणाएव दण्डे णिक्खिते, णणु पोसहकरणेण चैव दंडणिक्खेवो एवं सव्वपामहे देमपोसहेवि देसदंडणिक्खेवो, उक्तं च- 'जतो जत्तो णियत्ति०' एवं ताव साभिगा दुर्धति । भगवं च णं उदाहु संतेगइया समणोवासगा भवंति तेसिं च णं एवं खलु मुंडा भविता गो खलु वयं अणुबाई मूलगुणे अणुपालेत्तए, जो खलु उत्तरगुणे, चाउदसमीसु पोसहं, अणुव्ययं सम्मदंसणसारा, अपच्छिममारणंतिमणवखमाणोति, माय हु चितेज्जासि जीवामि वरं सव्वं पाणातिवायं पचक्खाइम्सामि, वृत्ता चउहिं आलावएहिं पञ्चकखाणो, इदाणि जेसु पचखाति ते पुणो बुचंति-भगवं च णं संतेगतिया मणुस्सा महारमा महापरिग्गहा अधम्मिया सव्वातो पाणाइवातातो अपडिविरता जाव परिग्गहातो, आदाणसोचि कम्माणामादाणं जाय कमदानानां प्रकारा हिंसाया तेसु 'सगमादाए'ति स्वकर्म्म आदाय दुर्गतिगामिणोति गिरयदुर्गतिं गच्छंति, ते पाणावि बुबंति तसावि बुचंति जाव पोयाउए। जइ सव्वे तसे मरिजं बायरे उववजेजा तोवि तुम्भचयं वयणं ण गेज्झं होजा, जेण केइ तमा तसेसु चेव उववजंति तेण अणेगंतिया वा प्रमाणं । भगवं चणं संगतिया मणुस्सा अपरिग्गहा अधम्मिया जाब सगमादाए सोग्गइमायाए सोग्गगामिणो देवेपूत्पद्यन्ते देवगतिं गच्छ तीत्यर्थः, ते पाणाइ०, भगवं च णं संतेगतिया मणुस्सा अप्पारंभा अप्यपरिग्गहा जाव एगच्चाओ पाणावायाओ पडि विरता एगचाओ अडिविरता चैव सावगा, जेहिं समणोवासगस्स आदाणसो दंडे णिक्खितो ततो आउस सगमादाए सोग्गइगामिणो देवेषूपपद्यन्ते, उकोसं जाव अच्चुओ कप्पे, ते पाणावि युधंति, भगवं च णं संतेगइआ पञ्चायान्ति ते पाणा यित्थ य परत्थ य संते ० गो विप्पजतीतिकड, तेसु सावगस्स सुपञ्चक्खातं भवति, जम्हा य ण सध्ये तसा थावरेसु उबवजंति, तम्हा अणेगतो, अगं [466] उदकबोधः ॥४६२॥ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [७], उद्देशक [-], नियुक्ति : [२०१-२०५], मूलं [६९-८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक NEPART ॥६९ ८२|| दीप श्रीसूत्र- | तिकश्च हेतुः ? भगवं च० संतेगतिया पाणा दीहाउया, कयरे पाणा ?, तसा, तत्थवि नारकदेवा अवज्झा तहवि सावओ तेसु पच्च- 1 |उदकयोधः I क्खइ, सेसतिरिक्खजोणिया बेईदिया जाव पंचिंदिपतिरिक्खा मणुस्सा, एतेसु दबपाणातिवादो भवति, भावपाणाइवादो तु ॥४६३॥ चउसुवि गतिपु, मणुस्सतिरिया पुण दीहाउया णिरुषकमाओ उत्तरकुरुगादीणं अवि दबपाणाइवातो गस्थि, धम्मचरणं पडुच IN दीहाउया वा अप्पाऊ वा, सेसेसुवि सुसमकालेसु उसण्णं णिरुवकम्माऊया, दोसु दुस्समकालेसु चउढाणपडिता, इह तु चरणकाले चेच सायगो भवति, तेहिं दीहाउएहिं सावओ पुब्बामेव कालं करेति, ते य दीहाऊया तसत्तर्ण विप्पजहति, तेसु सावगस्स सुपशक्खातं भवति. समओ विसए सुपचक्यातं भवति, कथं?, भो तेहिं समाउआ इथे कालं करेति, ते य तसेसु वा अण्णत्थ वा उववअंति जावजीवं पञ्चक्खाणंति तसेसु विरता चेव होति, तेण अप्पाउआ तसा ते पुव्यामेव समणोवासगाओ कालं करेंति, तत्थ | जइ तसेसु उववजंति तेसु पचक्खातं घेव, अथ स्थावरेसु आसी ततो सोऽविरतो चेव, दृष्टान्तः स एव क्षीरप्रत्याख्यायी, तदेव | क्षीरं दधिभूतंपि, सुप्रत्याख्यातं भवति, इदाणिं दिसिवतं देसावगासियं च पहुच चुचड़, भगवं च उदाहु एवं वुतं भवति-णो खलु वयं संचाएमो मुंडे भविचा० णो खलु चाउद्द० णो खलु अपच्छिम० वयं पब्यदिवसेसु वा दिया वा रातो वा अभयं तं | चंक्रमणादि कुर्वते न भवति, खेमं करोतीति खेमकरः, सामाइयदेसावगा० पुरओ काउं पुरस्कृता पाइणं खेम पयच्छामो अभयं, |तं चंक्रमादि कुर्वतो न भवति खेमं करोतीति खेमकरः॥ तत्थ आरेणं (सूत्रं ८१),परेणं जापतिए णिक्खित्ते दिसिवतं देसा| वगासियं वा कतं, णव भंगा नवसूत्रदण्डकाः, श्रावकेन पश्च योजनानि किल देसावगासिकं गृहीतं तत्र चेयं भावना-पंचभ्यो | योजनेभ्यो आरतो ये वसाः प्राणिनस्तेपा प्रत्याख्यानं करोति, तत्र ते पंचयोजनाभ्यंतरे केऽपि त्रसाः ते स्थानत्रये उत्पद्यते, ॥४६३॥ अनुक्रम [७९३ ८०६] [467] Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [७], उद्देशक [-], नियुक्ति : [२०१-२०५], मूलं [६९-८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत उदकयोध: mp4 सूत्राक ॥४६४|| ||६९ ८२|| दीप तत्र प्रथम तावत्पश्चयोजनीभ्यः अंतरवत्तिषु त्रसेप्वाश्रयः प्रथमसूत्रदण्डका, तथाऽमावेश त्रमः पंचयोजनीभ्य उत्तरवर्तिषु स्थाव- रेपृत्पद्यते द्वितीयः, तथाऽसावे पंचयोजनवर्ती स्थानरः पञ्चभ्यो ये परेण वर्तन्ते त्रसस्थावरास्तेपूत्पयो तृतीये, दानी ते पंचभ्यो योजनेभ्यः परेण वन्ते त्रयस्थावरास्ते पंचयोजनाभ्यन्दरवर्तिपु त्रसेपूत्पद्यन्ते ते प्रथमः तथा त एव पंचयोजनबहिर्वतिनो त्रसस्थावराः पंचयोजनाभ्यन्तरवर्तिपुत्पद्यन्ते द्वितीयस्तु, त एव पञ्चयोजनबहिर्वनिष्वेव उत्पद्यन्ते तृतीयः, एते च सर्वे मिलिता नव भवंति, अयं भावार्थ:-पञ्चायोजनीअभ्यन्तरवर्तिपु त्रसेषु सूत्रदण्डवयं एवं पंचयोजनाभ्यन्तरवर्तिपु स्थापरेषु सत्रदण्डकवयं, तथा च पंचयोजनबहिसिनो ये प्रसाः स्थावरास्तेषु सूत्रदण्डकाय, अत्र च ये ते पंचबहिर्बनिनों प्रमाः स्थावरास्ते परिहारमङ्गीकृत्यकाकारा एव, जपि दिसिवतं ण संखेवितं भवति तंपिदिणे दिणे देमावगासिएणं संखेवेति, जण दिवसं खित्तं तरति संखिवंति, अट्ठा णाम कृण्यादिकर्मसु जे तसे विराधेति, 'अथवा आयट्ठाए परवाए उभयट्ठाए वा, अणट्ठा पाम भमंतो खुइंतो वा विराधेति, जं च वुत्त' जहा सव्वे तमा थावरा होति तेज ते ठाणं घनतिकाउं' कथं सावओ विरतिं करिस्सति', णेतं भूतं वा भव्य वा जण सधथावग तसीहोहिन्ति, ये ते ण घाएत्ति सावओ तेणं अविरते भविष्यतीत्यत्र नमो-भगवं चणं ण एतं भूत। वा भव्वं वा, एवं सो उदओ अंणगारो जाहे भगवआ गोतमेण यहूहिं हेऊहिं णिरुचरो कतो ताहे अंतो हिलएणं एवमेतंति पडिबजमाणो बाहिरं चेहूँ ण पयुजति, 'जहा एवमेतं तुम्भे, वीरत्तेण दोण्ह वोच्छहनि, तते णं भगवं गोतमे णं उदगं एवं बदासीआउसो ! उदग जेणं समणं वा माहणं वा सम्म पण्णवेमाणं वा स परिभासेइमित्ति-परिभवति मन्नति एवं बुझा गृह्णाति मिथ्याध्यवसायेन, अथवा परि समन्ता मामेस परिभापते, कथं नाम एस एतं अटुं गेण्हेआ एवं मत्या, सेसं च तसी आयहिताय जाण अनुक्रम [७९३ ८०६] ॥४६४॥ [468] Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [७], उद्देशक [-], नियुक्ति : [२०१-२०५], मूलं [६९-८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: LIAN प्रत सुत्रांक ॥६९ ८२|| दीप श्रीसूत्रक- दसणचरितजुत्तं मग्गं परिभापते सेव. तं परिवञ्जा, भासिअमाणं आगमिना ज्ञात्वेत्यर्थः, णाणं सुतणाणं प्राप्य वा आगमित्ता, उदकयोधः MAIदेसणं सम्यग्दर्शन प्राप्य, आगमेणं चरितं लब्ध्वा प्राप्य इत्यर्थः, पावाणि हिंसादीनि, अथवा अट्ठ कम्मपगडी गहिताओ, खलु ॥४६५|| IN/ एवंकमा परलोअं दय्यभावे पलिपंथो, विग्घा वक्खोडा, मोक्खं ण गच्छति, नागार्जुनीयास्तु जो खलु समणं वा हीलमाणो परिपासति, ही-लआयां, हेब्यमाणः परिभामति मनसावि, तत्र वयमा तस्मि सवते, उट्टे भासिअमाणे यदि सत्यमेव तन्मनसा HO| गृहाति तथावि बाहिरकरणेणं वायाए ण पसंसति यथा साधु साविति, कायेन नांगुलिस्फोटनादिभिः प्रशंमति, मनसा नास्त नेत्रवासादो भवति, अथवा वायाए हेलयति छिन्धतीति तदा कारण विक्षिपति मनसा नेत्रवासादो न भवति आगमि-14 चाणं २ भावाणं जाणणत्ताए आगमित्ता दमणं भावाणं दसणचाए आगमेचा चरितं णायाणं पावाणं अफरणता, से खलु परलोहा अपडिमंथत्ताए चिट्ठति, प्रशस्तमिदानी सों खलु समणो वा माहणो वा परिभासति सचिमिति मणति त्रिभिरपि कायवाइम नोमिनिन्दति साधु सुष्ठु वा अगुलिस्फोटनादिमिः प्रशंमति मनसा नेत्रवकप्रसादेन परलोगविसुद्धित्ति मोक्खं आगमेसिभद्रो IA देवेसु उववञ्जति ?, एवं पृष्टो भगवता गोतमेणं, तते पां से उदए जमेवं स्यात् , किं कारणं अणादायमाणो प्रस्थितो, जतो ण जाणामि किं भगवं गोतमेणं भणिहिति ?, तते णं भगवं गोतमे उदगं एवं वयासी-आउसो उदगा जो खलु तहारूवस्स मच्चस्म समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि० सोचा अप्पणो चेव सुहुमा अप्पणो चेव आत्मनिगता सूक्ष्मः अन्तगता, नान्ये, | ज्ञायते अनन्यतुल्य अनुत्तरं, योगानां क्षेमं निरपाय लभित्ता प्रापिता अथवा सूक्ष्म पडिलेहति किं एसों जाणति छिण्णसंशयः | सोवि. ताव तं वंदति जाव पज्जुवासति अर्थतोऽपदिश्यते, इत्युक्तो भगवं उदगाह-बंदियब्वे जाच पज्जुवासियच्चे, गौतमाह-जह ||४६५|| अनुक्रम [७९३८०६] द्वितिय-श्रुतस्कन्ध: समाप्त: [469] Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [७], उद्देशक [-1, नियुक्ति : [२०१-२०५], मूलं [६९-८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत उदकवोधः सूत्रांक श्रीयत्रक-12 एवं आणसि किं ण चंदसि ?, इत्युक्तो गौतमेन ततः स उदगः पेढालपुचो भगवं गौतम एवं वदासी-एतेसिणं भंते ! पदाणं| ताजाणकतराई जाई पुच्छणाए चुत्ताणि मदीयपक्षस तानीत्यर्थः, अण्णाणता एवम णो सद्दहित, एतेसिणं झ्याणि जाणणताए एतमटुं ५ ॥४६६॥ सदहामि जद्द सूत्रेति यव्वं सब्यमिति ।। ||६९ ८२|| दीप अनुक्रम 4555555555555555555555555555555555555 नमः सर्वज्ञदेवाय विगतमोहाय, समाप्तं चेदं चूर्णितः सूत्रकृताभिधानं द्वितीयमङ्गामिति ।। 54:5555454545454545454555555555555555555555 % [७९३८०६] 11४६६॥ सूत्रकृताङ्गसूत्रस्य जिनदासगणि विहिता चूर्णि परिसमाप्ता: मूल संशोधकः सम्पादकश्च पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब किंचित् वैशिष्ट्य समर्पितेन सह पुन: संकलनकर्ता मुनि दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] [470] Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरूभ्यो नमः 02 पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च “सूत्रकृतांगसूत्र” [भद्रबाहस्वामी रचिता नियुक्ति: एवं जिनदासगणि विहिता चूर्णिः (किंचित वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: “सूत्रकृत” चूर्णिः” नामेण परिसमाप्त: Remembar it's a Net Publications of 'jain_e_library [471]