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व्याख्यान १:
: १५ : ये पांचो अतिशय जहां जहां जगद्गुरु विहार करते हैं वहां आकाश में चलते रहते हैं और जहां जहां पर भगवान विराजते हैं वहां वहां यथायोग्य उपयोग में आते हैं अर्थात् धर्मचक्र तथा धर्मध्वज आगे के भाग में रहता हैं, पादपीठ पैरों के नीचे रहता है, सिंहासन पर प्रभु बिराजते हैं, चामर दोनों तरफ ढुलते हैं और छत्र मस्तक पर रहते हैं।
(६) मक्खन सदृश कोमल स्वर्ण के नो कमल देवता गण बनाते हैं जिन में से दो कमलों पर तीर्थंकर भगवंत अपने दो पैरों को रख कर चलते हैं, शेष सात कमल भगवान के पीछे रहते हैं जिनमें से दो कमल क्रमशः भगवान के आगे आगे रहते हैं।
(७) तीर्थंकर के समवसरण में फरता मणि से, स्वर्ण और रूपासे इस प्रकार देवतागण तीन गढ़ निर्मित करते हैं। उनमें से पहला गढ (प्राकार ) विचित्र प्रकार के रत्नों से वैमानिक देवता बनाते हैं, दूसरा अर्थात् मध्यम प्राकार सुवर्ण से ज्योतिषी देव बनाते हैं, तथा तीसरा बहार का प्राकार रूपासे भुवनपति देवता बनाते हैं।
(८) तीर्थकर जिस समय समवसरण में सिंहासनपर विराजते हैं उस समय उनका मुँह चारों दिशाओं में दिखाई देता है। उसमें से पूर्व दिशा में मुख रखकर प्रभु स्वयं विराजते हैं, अन्य तीन दिशाओं में जिनेन्द्र के प्रभाव से