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सूत्रकृताङ्गसूत्रे मूकम्-नन्नत्थ अंतराएणं, परगेहे ण णिसीयए।
गामकुमारियं किड्, नातिवेलं हंसे मुणी ॥२९॥ छाया-नान्यत्रान्तरायण, परगेहे न निपी देत् ।
ग्रामकुमारिकां क्रीडा, नाविवेलं होन्मुनिः ॥२९॥ अन्वयार्थ:-(मुणी) मुनिः (मन्नत्य अंसा) नान्यत्रान्तरायेण अन्तरायाशक्तेरभावः स च जरमा रोगातकाभ्यां वा तथा व विनाऽन्तरायम् (परगेहे) परगृहे-गृहस्थगृहादौ (ण पीयर) न निधीदेव--नोपविशेत् तथा-(गामकुमारियं
गाथा का सार यह है-साधु न स्वयं कुशील घने और न कुशीलों के साथ संसर्ग करे। कुशीलों के संसर्ग से बहुत दोष उत्पन्न होते हैं, अतएव बुद्धिमान् पुरुष को उसका परित्याग स्वतः करना चाहिए।१।२८।
'ननस्थ अंतराएणं इत्यादि।
शब्दाथ-'मुणी-मुनिः' साधु 'नन्नस्थ अंतराएणं-नान्यत्रान्तरायेण' अन्तराय के (कारणके) बिना 'परगेहे-परगृहे' गृहस्थ के घर आदिमें 'ण जिसीयए-न निषीदेत्' न बैठे तथा 'गामकुमारियं किड्ड-ग्रामकुमारिकां नीडां' गांव के पालकों की क्रीडा-हास्य विनोदादिक को न करे तथा बातिवेलं हसे-नातिवेलं हसेत्' मर्यादा रहित हास्य साधु न करे ॥२९॥
अन्वयार्थ--साधु अन्तराय के बिना अर्थात् यदि वृद्धावस्था अथवा स्पांधि के कारण शक्ति का अभाव न हो गया तो गृहस्थ के घर में न
આ ગાથાને સારાંશ એ છે કે-સાધુએ સ્વયં કુશીલ બનવું નહીં તથા કુશીલ વાળાઓની સાથે તેને સંસર્ગ કરે નહીં કુશીલના સંસર્ગથી ઘણા દે ઉત્પન્ન થાય છે. તેથી જ બુદ્ધિમાન પુરૂષે સ્વતઃ તેને પરિત્યાગ કરવું જોઈએ. ૨૮ 'नन्नत्थ अतराएण' त्या
शहाथ'--'मुणी-मुनिः' साधुझे 'नन्नत्थ अंतराएणं-नान्यत्रान्तरायेण' म तय विन 'परगेहे-परगृहे' स्थना १२ विगारेमा ‘ण णिसीयए-न निषीदेत' मेसनही तथा गामकुमारिय किडु-ग्रामकुमारिकां क्रीडां' आमना मामनी, ४ी मेट २५ विगेरे । ४३ 'नातिवेलं हसे-मातिवेलं हसेतू' साधु भर्याह! विनानु सत्य ४२७ नही ॥२६॥ આ અન્વયાર્થ–-સાધુએ અંતરાય શિવાય અથજે વૃદ્ધાવસ્થા અથવા વ્યાધિના કારણે શક્તિને અભાવ ન થયે હેય તે ગૃહસ્થના ઘરમાં બેસવું
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