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સવ
सूत्रकृतानने
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मूलम् - से सुद्धसुते उवहाणवं च धम्मं चे जे विंदेइ तत्थ तैत्थ । आदेज्जवैक्के कुसले वियत्ते से अँरिहइ भौसिउं तं संमाहि|२७| छाया - स शुद्धसूत्र उपधानश्च धर्म च यो विन्दति तत्र तत्र । आदेयवाक्यः कुशलो व्यक्तः सोऽर्हति भाषितुं तं समाधिम् ||२७|| योग्य हो सो बोले । तथा गुरुमुख से जो सुना हो वही बोले, अन्यथा नहीं ||२६||
'से सुद्धसुते' इत्यादि ।
शब्दार्थ - 'से- स:' यथावस्थित आगम का कथन करने वाला 'सुद्धसुतो - शुद्धसूत्रः' शुद्ध सूत्र को कहने वाला तथा 'उवहाणवं चउपधानवान्' शास्त्रोक्त तपका आचरण करने वाला 'तस्थ तत्थ-तत्र तत्र' आज्ञा से ग्रहण करने योग्य स्थलमें आज्ञासे ग्रहण करे इस प्रकार 'जे-य:' जो साधु 'धम्मं धर्मम्' श्रुतचारित्र रूप धर्मको विंदतिविन्दति' प्राप्त करता है ऐसा पुरुष ' आदेज्जवक्के आदेयवाक्यः ' ग्रहण करने योग्य वाक्य वाला तथा 'कुसले - कुशलः' आगम के प्रतिपादन में निपुण 'वियते व्यक्तः' विचार पूर्वक कार्य करनेवाला 'से-स' 'ऐसा पुरुष 'तं समाहितं समाधिम्' सर्वज्ञोक्त भाग समाधि को भासि भाषितु" इसको कथन करने में 'अरिहह-अर्हति' योग्य होता है 'तिमि इति व्रत्रीमि' ऐसा मैं सुधर्मा स्वामी कहता हूं ॥ २७ ॥
કરીને જ જે ખેલવાને યોગ્ય હાય એજ ખેલે તથા શુરૂ મુખથી જે સાંભળેલ હાય એજ કહે. તેથી અન્ય પ્રકારનું કથન ન કરે. ધારદા
से सुद्धसुते' त्याहि
शब्दार्थ –'से-सः' यथावस्थित भागभनु उथन उरवावाणा 'सुद्धसुत्तो शुद्धसूत्र:' शुद्ध सूत्रनु अथन ४२वावाजा तथा 'उहाणवं उपधानवान्' शास्त्रोत तनुं माय २वावाजा 'तत्थ - तत्र' भाज्ञाथी हाथ मरवा योग्य स्थणमां याज्ञाथी न थडलु ४२ या रीते 'जे-य:' ? साधु 'धम्मं - धर्मम्' श्रुतयारित्र ३५ धर्म ने 'विदति - विन्दति प्राप्स रे सेवा पु३ष 'आदेज्जवक्के - आदेयवाक्यः' अडथ કરવા योग्य वादयवाणा तथा 'कुसले - कुशल : ' आगमना प्रतिपादन श्वामां निपुणु 'वियते - व्यक्तः ' विचार पूर्व अर्थ पुरवावाणी 'से -:' । ३ष 'तं समाहितं समाधिम्' सर्वज्ञो 'मासिउ - भाषितुम् ' जीलने उथन श्वासां 'अरिहइ - अर्हति' 'सि बेमि - इति ब्रवीमि ' थे रीते हु' सुधर्मा स्वाभी उहुँ छु ॥२७॥
भाव समाधिने
येग्य जने छे.
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