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समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १५ आदानीयस्वरूपनिरूपणम् ५१॥ अत्येति, अतिक्रामति-न तत्र प्रतिहतो भवतीत्यर्थः न तासां वशवती भवतीति यावत् । रागद्वेषादिविमूढो हि ज्यादावनुषज्जति, यस्य तु स्यादि स्वरूपज्ञानेन तत्मसंगजनितफलाऽफलविनिर्णयाऽभ्यासे वैराग्यं भवेत् तस्य ततोनिवृत्तिभवति आश्रवाऽभावात् ॥८॥ मूलम्-इथिओ जे णं सेवंति आइमोक्खा ई ते जणा।
ते जणा बंधणुम्मुक्का नावखंति जीवियं ॥९॥ . छाया-स्त्रियो ये न सेवन्ते आदिमोक्षा हि ते जनाः।
ते जना बन्धनोन्मुक्ता नाऽवकांक्षन्ति जीवितम् ॥९॥ को रोकने में समर्थ नहीं होते। वह स्त्रियों के वशीभूत नहीं होता। जो राग वेष से विमूढ बना रहता है वही स्त्री आदि में आसक्त होता है। जिसने उनके स्वरूप को समझ लिया है और उनके प्रसंग से होने वाले दुष्फल का निर्णय कर के वैराग्य प्राप्त कर लिया है, वह उनसे निवृत्त हो जाता है । वह आश्रव से रहित हो जाता है ॥८॥
'इथिओ जे ण सेवंति' इत्यादि । शब्दार्थ-'जे-य:' जो महापुरुष 'इथिओ-स्त्रियः स्त्रियों का 'ण सेवंति. न सेवन्ते' सेवन नहीं करता है. 'ते-ते' वे 'जणा-जनाः पुरुष 'बंधणुः ममुक्का-बन्धनोन्मुक्ताः' सकलबन्ध से रहित होकरके 'जीवियं-जीवितम्' असंयम' जीवन की 'णावखंति-नावकाङ्क्षन्ति' इच्छानहीं करते है कारणकि 'ते-ते' वे महापुरुष 'हु' निश्चय से 'आइमोक्खा -आदि. मोक्षा' सर्व प्रथम मोक्षगामी होते हैं ॥९॥ થઈ શકતા નથી. તે સ્ત્રિયોને વશ થતા નથી. જેઓ રાગદ્વેષથી વિમૂઢ બની રહે છે, એજ સ્ત્રી વિગેરેમાં આસક્ત થાય છે. જેણે તેના સ્વરૂપને સમજી લીધું છે, અને તેમના પ્રસંગથી થવાવાળા દુષ્ફળ-ખરાબ પરિણામને નિર્ણય કરીને વૈરાગ્ય પ્રાપ્ત કરી લીધું છે, તે તેનાથી નિવૃત્ત થઈ જાય છે. તે આસ્રવથી રહિત થઈ જાય છે. ૧૮
'इत्थिो जे ण सेवंति' त्यात
Avalथ-'जे-यः' २ भा५३५ ‘इथिओ-स्त्रियः' लियोनु ‘ण सेवंतिन सेवन्ते' सेवता नथी. 'ते-ते' से 'जणा-जना' ५३२॥ बंधणु-मुक्का-बन्धनो. म्मुक्ताः' समस्त धनाथी २डित ने 'जीवियं-जीवितम्' असयम पननी 'नावकखंति-नावकान्ति ' ४२७ ४२त नथी. ४।२५ ते-ते' में महापु३३॥ 'हु'निश्वयथी 'आइमोक्खा-आदिमोक्षाः' सर्व प्रथम मामाभी याय छे. ॥६॥
सु० ६५
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