Book Title: Sutrakritanga Sutram Part 03
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Jain Shastroddhar Samiti

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Page 510
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १५ आदानीयस्वरूपनिरूपणम् ४९९ जीवसत्त्वरूपेषु माणिवर्गेषु 'न विरुज्झेज्जा' न विरुध्येत भूतैः सह विरोध न कुर्यात् जीवान् न विराधयेदिति भावः, 'एस' एषः भूताविरोधरूपः 'धम्मे धर्मः 'वुसीमओ' वृषीमतः-वृषी-सत्संयमः तद्वतः सत्संयमवतः तीर्थकृत इत्यर्थः, यद्वा 'वुसीमओ' इत्यस्य वश्यवतः, इतिच्छाया, तत्र वश्यः आत्मा, वश्यानि इन्द्रियाणि वा यस्य स वश्यवान् , तस्य वश्यवतः आत्मेन्द्रियनिग्रहवतो वा वर्तते, तीर्थकरमणधरादि प्रोक्त एष धर्म इति भावः, अतः 'चुसीमं' दृषीमान्-वश्यवान् वा सत्संयमी, जितेन्द्रियो वा मुनिः 'जग' जगत् जगत्स्वरूपं स्वकर्मजनितमुखदुःखादिमोक्तारं माणिवर्ग वा 'परिनाय' परिज्ञाय-ज्ञपरिज्ञया यथार्थमवबुध्य'अस्सि' अस्मिन् पूर्वोक्ते धर्मे 'जीवियभावणा' जीवितभावनाः-संयमजीवनभावनाः जीवसमाधिकारकत्वेन जीवरक्षणभावनाः मोक्षकारिणीः कुर्यादिति ॥४॥ हैं। मुनि, प्राण, भूत, जीव और सत्र रूप प्राणियों के साथ विरोध न करे अर्थात् उनकी विराधना न करे। भूतों के साथ विरोध न करने रूप धर्म वृषीमान् अर्थात् संयमवान्-तीर्थ कर का है। अथवा 'धुसीमओं की छाया 'वश्यमान्' है जिसकी आत्मा या इन्द्रियां वश में हैं अर्थात् जो आत्मनिग्रह या इन्द्रियनिग्रह वाला है, उसका यह धर्म है। तात्पर्य यह है कि यह धर्म तीर्थंकर और गणधर का कहा हुआ है, अतएव सत्संयमी या जितेन्द्रिय मुनि जगत् के स्वरूप को अथवा अपने-अपने उपार्जित कर्मों के द्वारा होने वाले सुख-दुःख को भोगने पाले प्राणियों को ज्ञपरिज्ञा से यथावत् जान कर पूर्वोक्त कर्म में संयम. मय जीवन की भावना करे-जीवों को समाधिकारक होने से मोक्ष प्रदायिनी जीवरक्षा रूप भावना करे ॥४॥ કહેવામાં આવે છે. મુનિ પ્રાણ, ભૂત, જીવ અને સત્વ રૂપ પ્રાણિયેની સાથે વિરોધ ન કરે. અર્થાત્ તેમની વિરાધના ન કરે. ભૂતેની સાથે વિરોધ ન ४२१॥ ३५ धर्म कृषीमान्-अर्थात् सयभवान् ती ४२ना छ, मय। 'वसी. મો ની છાયા વશ્યમાન એ પ્રમાણે છે. જેઓને આત્મા અને ઈન્દ્રિ વશમાં છે, અર્થાત્ જે આત્મનિગ્રહ અથવા ઇન્દ્રિય નિગ્રહ વાળા છે. તેઓને આ ધર્મ છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે, આ ધર્મ તીર્થકર અને ગણુધરે કહ્યો છે. તેથી જ સત્સંયમી અથવા જીતેન્દ્રિય મુનિ જગના સ્વરૂપને અથવા પત પિતાના પ્રાપ્ત કરેલ કર્મો દ્વારા થવાવાળા સુખદુઃખને ભેગવવા વાળા પ્રાણિયોને જ્ઞ પરિણાથી જાણુને પૂર્વોક્ત ધર્મમાં સંયમમય જીવનની ભાવના કરે. જીવને સમાધિકારક હોવાથી મેક્ષ આપનારી જીવ રક્ષા ૨૫ भावना ४२ ॥४॥ For Private And Personal Use Only

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