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समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १० समाधिस्वरूपनिरूपणम् आयं न कुजा इह जीवियट्ठी,
चयं न कुज्जा सुतवस्सि भिक्खू ॥३॥ छाया-स्वासपातधर्मा विचित्सा तीर्गः, लाहश्चरेदात्मतुल्यः प्रजासु ।
__ आयं न कुर्या दिह जीवितार्थी, चयं न कुर्यात् मुतपस्वी भिक्षुः॥३॥ अन्वयार्थ:-(सुयक्खायधम्मे) वाख्यातधर्मा-सु-सुष्ठु आख्यातः श्रुतचारित्ररूपो धर्मों येन तथाविधः (वितिगिच्छतिन्ने) विचिकित्सातीर्ण:-विचिकि
'सुयक्वायधम्म' इत्यादि - शब्दार्थ-'सुयक्खायधम्मे-स्वारूपातधर्मा' श्रुत और चारित्र धर्मको अच्छीतरह प्रतिपादन करने वाला 'वितिगिच्छति-ने-विचि, कित्सा तीर्णः' तथा तीर्थकर प्रतिपादित धर्म में शंका न करने वाला 'लाढे-लाढः' तथा प्रासुक आहार से अपना निर्वाह करनेवाला 'सुनवस्सि भिक्खू-सुनपस्विभिक्षुः' उत्तम तपस्वी साधु 'पपासु आयतुल्ले -प्रजासु आत्मतुल्यः पृथिवीकायिक आदि छकाय के जीवों को आत्मतुल्य समझता हुवा 'चरे-चरेत्' संयम का पालन करे 'इह जीवियट्ठीइह जीवितार्थी' तथा इसलोक में जीने की इच्छा से 'आयं न कुज्जा. आयम् न कुर्यात्' आश्रवों का सेवन न करे 'चयं न कुज्जा-चयम् न कुर्यात्' एवं भविष्य कालके लिये संचय न करे ॥३॥
अन्वयार्थ-श्रुत और चारित्र रूप धर्म का सुन्दर व्याख्यान करने वाला, विचिकित्सा अर्थात् चित्त की अस्थिरता या जुगुप्सा से अति.
'सुयक्खाय धम्मे' त्या
शहाथ----'सुयक्खायधम्मे-स्वाख्यातधर्मा' श्रुत भने यरित्र भने सारी से प्रतिपादन ४२वा 'वितिगिच्छतिन्ने-विचिकित्सातीर्णः' तथा तीर्थ ४२ प्रतिपाति धर्मभान ४२५॥३'लाढे-लाढः' प्रासु५ ५ सारथी घोताना निवाड ४२वा. 'सुतवस्सिभिक्खू-सुतपस्विभिक्षुः' उत्तर तपस्वी मेव साधु पयासु आयतुल्ले-प्रजासु आत्मतुल्यः' पृ३४४ वोने पताना समान सभने 'चरे-चरेत्' सयभनु पालन ४२ 'इह जीवियट्ठी-इह जीविताथीं' तथा आम पानी थी 'आयं न कुज्जा-आरम् न कुर्यात्' माश्रयेनु सेवन न रे 'चयं न कुज्जा-चयं न कुर्यात्' भविष्यने भारे धन ધાન્ય વિગેરેને સંગ્રહ ન કરે છે
અન્નયાર્થ–--શ્રુત અને ચારિત્ર રૂપ ધર્મનું સુંદર વ્યાખ્યાન કરવાવાળા વિચિકિત્સા અર્થાત ચિત્તની અસ્થિરતા અથવા જુગુપ્સ-નિદાથી રહિત,
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