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intestant टीका प्र.शु. अ. १२ समवसरणस्वरूपनिरूपणम्
छाया - नादित्य उदेति नास्तमेति न चन्द्रमा बर्द्धते हीयते वा ।
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सलिलानि न स्यन्दते न वान्ति वाताः, बन्ध्यो नियतः कृत्स्नो लोकः॥७॥ अन्वयार्थः - सर्वशून्यतावादिनः- एवं कथयन्ति (आइचो ) आदित्य:- सूर्य (ण उएइ) न उदेति (ण अत्थमेइ) नास्तमेति च आदित्यः सूर्यस्यापि मायामयत्वेन तदुदयास्तयोः कथं संभवः । (चंदिमा) चन्द्रमाः (ण बडूई) शुक्लपक्षे व बर्द्धते (वा) वा अथवा (न हायई) कृष्णपक्षे न हीयते पुनश्च ( सलिला) सकि लानि - जलानि ( न संति) न स्यन्दन्ते तथा (वाया) वाता:- वायवः (न वंति) नं बान्ति न चलन्ति अत एव (कसिणे लोए) कृत्स्नो लोकः कृत्स्नः संपूर्णो लोका
'णाइकचो' इत्यादि ।
शब्दार्थ - सर्वशून्य मनवादी कहते हैं 'ओइच्ची-आदित्य' सूर्य ज उप-न उदेति' उदित नहीं होता है 'ण अस्थमेह - नास्तमेति' और न अस्त होता है। इसी प्रकार 'चंदिमा - चन्द्रमा' चंद्रमा 'ण वडूह -न वर्द्धते' शुक्लपक्ष में बढतानहीं है 'वा अधवा' अथवा 'न हायइन हीयते' कृष्ण पक्ष में घटता नहीं है तथा 'सलिला - सलिलानि' जब 'न संदति - न स्यन्दते' बहता नहीं है तथा 'वाया - वाता:' वायु-पवन 'ण वंति न वांति' चलता नहीं है अतएव 'कसिणे लोए- कृत्स्नो लोक ' यह सम्पूर्ण लोक माने जगत् 'नियतो- नियतः सर्वदा अवस्थायी है 'वंशो बन्थ्यो' मिथ्याभूत वस्तुतः शून्यरूप है ॥७॥
अन्वयार्थ - सर्वशुन्यतावादियों का कथन है कि- सूर्य उदित नहीं होता, न अस्त होता है । न चन्द्रमा बढता है, न घटता है। न जल'नाइच्चो' इत्यादि
शब्दार्थ - सर्व शून्य मतने अनुसरनारा छेडे- 'आइकोआदित्यः' सूर्य' 'ण उपइन उदेति' उगता नथी. 'ण अत्थमेइ-नास्तमेति' भने तेन। व्यस्त पशु थतो नथी, न प्रमाणे 'च'दिमा- चन्द्रमा' चंद्र 'न बढइन वर्धते' शुम्स पक्षमां बघतो नही 'वावा' अथवा 'न हायइ- न हीयते' यु पक्षमां घटतेो नथी, तथा 'सलिला - सलिलानि' पाणी 'न सदति - न स्यन्दते ' वहेतु नथी. तथा 'बाया - वाता' पवन 'ण वंति न वान्ति' वातो नथी तेथील 'कसिणे लोए - कृत्स्नो लोकः' या समय सोड अर्थात् भगत् 'नियतो- नियतः ' सहा रडेवावा छे. 'वंझो - वन्ध्यो' मिथ्याभूत छे अर्थात् शून्य ३५ छे. ॥७ અન્નયાર્થી—સશૂય વાઢિયાનું કથન છે કે સૂર્યના ઉદય થતા નથી. તેમ અસ્તપણુ થતે નથી. ચંદ્રની વધ ઘટ પશુ થતી નથી. જલ વહેતુ
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