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सूत्रकृताङ्गसूत्रे ... अन्वयार्थः- (एवं तु) एवमेव-पूर्वोक्तरीत्या कश्चिद् द्रष्टा यथाऽन्धकाराहवायां रात्रौ मार्ग न पश्यति किन्तु स एव सूर्योदयेन अन्धकारे नष्टे सति सर्वाबपि दिग्देशान् मागै च पश्यति तथैव (अपुढधम्मे) अपुष्टधर्मा-असम्यग्रज्ञातश्रुतचारित्रधर्मा (अबुज्झमाणे) अबुध्यमानः-सूत्रार्थमजानानः (से हे वि) शिष्योऽपि नवदीक्षितः साधुरपि (धम्म) धर्मम्-श्रुतचारित्ररूपम् (न जाणाइ) न जानाति होने पर सब पदार्थ एवं मार्गको देखता है उसी प्रकार 'अपुट्ठधम्मेअपुष्टमर्धा' धर्ममें अनिपुण और 'अबुज्झमाणे-अबुध्यामानः सूत्रार्थको नही जानने वाला 'सेहे वि-शिष्योऽप' नव दीक्षित साधु भी 'धम्मधर्मम्' श्रुतचारित्र रूप धर्मको 'न जाणा-न जानाति' नहीं जानता है परंतु 'से-सा वही शिष्य 'पश्चात्' गुरुकुल मे रहकर शिक्षा प्राप्त करने पर 'जिणवयणेण-जिनवचनेन' तीर्थकरके आगमके ज्ञानसे 'कोविए -कोविदः' विद्वान् होकर 'सूरोदये-सूर्योदये सूर्य का उदय से अन्ध कार नाश होनेसे 'चकवुणेव-चक्षुषेव' नेत्रके द्वारा देखने वालों के जैसा ही पासइ-पश्यति' जिनधर्मके तत्व को यथार्थ रूपसे देखता है ।१३॥
अन्वयार्थ एवं पूर्वोक्त रीति से जिस प्रकार कोई द्रष्टा (देखने वाला) पुरुष अन्धेरी रातमें मार्ग को नहीं देखता है किन्तु वही पुरुष सूर्योदय से अन्धकार के नष्ट हो जाने पर सभी दशदिशा एवं मार्ग को देखता है। इसी प्रकार अपरिपक्क श्रुतचारित्र धर्मवाला और सूत्रार्थ थपाथी मा पान तथ! म श छे. मे शत 'अपुढधम्मे -अपुष्टधर्मा' मा मनिपुण भने 'अबुझमाणे-अबुध्यमानः' सूत्राथन नही mp4 'सेहे वि-शिष्योपि' नवीन दीक्षा धारण ४२ख साधु ५५ 'धम्मधर्मम्' तयारित्र ३५ घमन 'न जाणइ-न जानाति' गते। नथी. परंतु 'से-सः' मे शिष्य पच्छा-पश्चात्' शु३७मा रही शिक्षा प्राप्त या पछी 'जिणवयणेण-जिनवघनेन' ती५४२ भज्ञानयी 'काविए-कोविदः' विद्वान् मनान 'सूरोदए-सूर्योदये' सूय य यतi मारने नाश पायी 'चक्खुणेव-चक्षुषेव' नेत्रवाणान्यानी मन 'पासइ पश्यति' नमन। तपने यथाशते वे छे. ॥१3:
અન્વયાર્થ-એજ પ્રમાણે પૂર્વોક્ત પ્રકારથી જેમ ઈ દ્રષ્ટા દેખવાવાળા) પુરૂષ અંધારી રાતે માર્ગને જોઈ શક નથી. પણ એજ પુરૂષ સૂર્યોદય થવાથી અંધકારને નાશ થતાં બધી જ દિશાઓને તે જ માર્ગને સારી રીતે દેખી શકે છે. એ જ પ્રમાણે અપરિપકવ શ્રુતચારિત્ર ધર્મવાળા
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