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समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १५ ग्रन्थस्वरूपनिरूपणम् मूकम्-वर्णसि मूढस्स जहा अमूहा,
मग्गाणुसासंति हियं पंयाणं । तेणा वि मंज्झं इणमेव सेयं,
"जं मे बँहा सेमणुसासयंति ॥१०॥ छाया-वने मूढस्य यथाऽमूढा, मार्गमनुशासति हितं प्रजानाम् ।
तेनापि मह्यमिदमेव श्रेयो, यन्मे बुधाः सम्यगनुशासति ॥१०॥ 'वर्णसि मूढस्स जहा' इत्यादि
शब्दार्थ-'जहा-यथा' जिस प्रकार से 'अमूहा-अमूढा' सद. सन्मार्ग को जानने वाले पुरुष 'वणे-वने' वनमें 'मूढस्स मूढस्य' भ्रमित दिशा होने से मार्ग से स्खलित पुरुषको 'पयाण-प्रजानाम्' प्रजा के 'हियं-हितम्' हितकरने वाला 'मग्ग-प्रार्गम्' मार्गको 'अणुसासंतिअनुशासति' कह देते हैं वैसे ही 'तेणावि-तेनाऽपि' साधु को भी यही विचारना योग्य है की 'मझ-मह्यम्' मुझको 'इणमेव सेयं-उदमेव श्रेयः' यही कल्याणकारी है 'जं-यत्' जो 'मे-मम' मुझको 'बुद्धावृद्धा' य थाल वृद्ध गृहस्थ विगैरह 'समणुसासयंति-सम्यक अनुशासति' शिक्षा देते हैं अर्थात् ये सब जो मुझे शिक्षा वचन कह रहे हैं मेरे लिए हितकर है ऐसा विचार करके किसीके उपर क्रोध न करे ॥१०॥
'वर्णसि मूढस्म जहा' या
शहा-'जहा-यथा' २ प्रमाणे 'अमूढा-अमूढाः' सभासन Mपापा ५३५ 'वणे-वने' वनमा ‘मूढरस- मूढस्य' हिशान। श्रम थवाथी भागथी भूता ५॥ ५३षने 'पयाण-प्रजानाम्' प्रना हियं-हितम्' हित ४२११७ 'मग्ग-मार्गम्' भागने 'अशुसासंति-अनुशासति' शिक्षा मा छे. से शत 'वेण वि-सेनापि' साधु 4 मे पिया योग्य छ ?-'मझमह्यम्' भने 'इणमेव सेयं -इदमेव श्रेयः' २५.०४ ४६या ४॥२४ छ. 'ज-यत्'२ 'मे-मम' भने वुड्ढा-वृद्धाः' 24 मास, ६, ७२५ विगेरे 'समोसासयतिसम्यक् अनुशासति' शिक्षा मा छे. अर्थात् ॥ मया भने २ शिक्षा क्यन કહી રહ્યા છે એ મારે માટે જ હિતકારક છે. એમ વિચાર કરીને કેાઇના ५२ ५। ३ ॥१०॥
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