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सूत्रकृतागसूत्र
पुनरप्याहमूलम् - पृषणं चेन सिलोयगामी,
पियमप्पियं कस्सइ णो करेज्जा । सच्चे अणटे परिवंज्जयंते,
अगाउले य अकलाइ भिक्खू ॥२२॥ छाया-न पूरन चैत्र श्लोककामी, वियमप्रियं कस्याऽपि न कुर्यात् ।
सर्वाननर्थान् परिवर्जयन् हि, अनाकुलश्वाकपायो भिक्षुः ॥२२॥ अन्वयार्थः- (अगाउले) अनाकुल:-सूत्रआर्थाद् विपरीतं न गच्छन् (य) च-पुनः (अकसाइ) अकषायी-क्रोधादिकषायवर्जितः (भिक्खू) भिक्षुः-साधुः
और भी कहते हैं-'न पूयणं चेव सिलोयगामी' इत्यादि।
शब्दार्थ-'अणा उले-अनाकुल.' आकुल न होनेवाला 'य-च' और 'अकसारी-अकषायी' क्रोधादि कषायों को छोडने वाला 'भिक्खूभिक्षुः' साधु 'न पूयणं चेव-न पूजनं चैव' वस्त्र, पात्र आदि का लाभरूप पूजनकी इच्छा न करे तथा 'सिलोयगामी-श्लोककामी' आत्म श्लाघी न घने एवं 'सव्वे अणटे-सर्वान् अनर्थान्' सब अनर्थों को 'परिधज्जयंते-परिवर्जयन्' वर्जित करता हुआ 'कस्सइ-कस्यापि किसी का भी-किसी जीवका 'पियमप्पियं-प्रियमप्रियम्' पिय अथवा अप्रिय णो करेजा-न कुर्यात्' न करें ॥२२॥
अन्धयार्थ-सूत्रार्थ से विपरीत मार्ग की ओर नहीं जाता हुआ अनाकुल और क्रोधादि कषायों से वर्जित होकर साधु वस्त्र पानादि
4जी 4 3 छ. 'न पूयणं चेत्र सिलोयगामी' त्याहि.
शहाथ--'अणाउले-अनाकुलः' मा नावाणा 'य-च' म 'अकसायी-अकषायी' ओघ विगेरे ४ाया है। भिक खू-भिक्षुः साधु 'न पृयणं चेव-न पूजनं चैव' पख, पात्र विजेरेना साल३५ पूराननी २०ीन रे. तथा 'सिलोयगामी--प्रलोककामी' समसाबावाणा न मने तथा 'सले अणट्रे -सर्वान् अनर्थान्' मा भनीने 'परिवजयते-परिवर्जयन्' १त शन 'कस्सइ-कस्यापि' धनु ५५ अर्थात् ५९] ७१नु 'पियमप्पिय-प्रियमप्रियम्' प्रिय मधवा मप्रिय ‘णो करेज्जा-न कुर्यात्' न ॥२२॥
અન્વયાર્થ—- સૂત્રાર્થથી વિપરીત માર્ગ તરફ ગયા શિવાય અનાકુલ તથા ક્રોધ વિગેરે કષાયથી મુક્ત થઈને સાધુ વય પાત્રાદિ રૂપ પૂજાની ઈચ્છા ન
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