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समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. १३ याथातथ्यस्वरूपनिरूपणम् मूलम्-जे यावि अप्पं वसुमंति सता,
___ संखाय वार्य अपरिख कुंज्जा। तवेण वाहं सहिउँत्ति मैत्ता,
अण्णं जणं पस्सइ विवभूयं ॥८॥ छाया-यश्वाऽऽत्मानं वसुमन्तं मत्वा, संख्यायन्तं वाइमपरीक्षा कुर्यात् ।
तपसा वाऽहं सहित इति मच्चा, ऽन्यं जनं पश्यति बिम्बभूकम् ॥८॥ संयम के मार्ग में विचरण करने वाले मुनि को प्राय: गर्व आजाता है, अतः कहते हैं-'जे यावि' इत्यादि ।
शब्दार्थ-'जे यावि-यश्चापि' जो कोई 'अप-आत्मानम्' अपने को 'वसुमंति-वसुमन्तम्' संयमरूपवसुयुक्त तथा 'संखोप-संख्याव. न्तम्' जीवादिपदार्थ विषयक ज्ञानरूप संख्यावाला 'मत्ता-मत्या' मानकर अर्थात् हम ही संयमी और ज्ञानी है ऐसा अभिमान युक्त होकर अप. रिक्ख-अपरीक्ष्य' विचार किये विनाही वायं-वादम्' अपनी बडाई 'कुज्जा-कुर्यात्' करता है तथा 'अहं-अहम्' हमही 'तवेण-तपसा' तपसे 'सहिउत्ति-सहितइति' युक्त है ऐसा 'मत्ता-मत्वा' मानकर 'अण्णं जण-अन्यं जनम्' अन्य जनको 'विंयभूयं-बिरभूतम्' जल में दृश्यमान चन्द्रकी छाया के अनुसार निरर्थक 'पस्ता-पश्यति' देखता है वह सर्वथा विवेक वर्जित है ।।८।
સંયમના માર્ગમાં વિચરણ કરવાવાળા મુનિને પ્રાયગર્વ આવી જાય છે, ते मताudi x30. 'जेयावि' त्यात
-जेथावि-यश्चापि' ने 'अप्पं-आत्मानम्' याताने 'वसुमति वसुमन्तम्' सय ३५ वसुयुत तथा 'संखाय-संख्यावन्तम्' पाह पहाय समाजान३५ सध्यावागा ‘मत्ता-मत्वा' मानीन अर्थात् १ सयभागे। भने ज्ञानी छु. मेवा निभान युद्धत ५४ने 'अपरिक्ख-अपरीक्ष्य' पियार या विनाश 'वाय-वादम्' पातानी भेट. 'जा-कुर्यात्' ४२ था - -अहम्' 'तवेण तपसा' तपथी समिति सहित इति' युक्त छु से प्रमाणे 'मत्ता-मत्वा' मानीने 'अग्णजर्ण-अम् जनम्' अन्य शनने विश्भय
बिम्बभूतम्' मा माती यन्द्रनी छाय। अनुसार निरर्थ 'परसइ-पश्यति' - જુએ છે. તે સર્વથા વિવેક વજીત છે. છેડા
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