Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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यदि इनकी ओर से जरा सा भी संकेत होता तो वे अपने भक्तों से इनको मालामाल करा देते; पर ये चुपचाप अपने कर्मोदय को सहर्ष भोगने में ही निर्जरा के साथ अपना उज्ज्वल भविष्य देखते रहते थे ।
अपनी वृद्धावस्था में भी, शरीर के उत्तरोत्तर कृश होते रहने पर भी आप बड़ी मुस्तैदी के साथ सिद्धान्त के उच्चग्रन्थों के सम्पादन एवं अनुवाद में लगे रहते थे । इसका आभास उनके विगत काल में आये पत्रों से चलता है, जिनमें उन्होंने लिखा था - " वृद्धावस्था के कारण यद्यपि शरीर जर्जरित हो गया है, किन्तु स्मृति बनी हुई है, जिसके कारण जयधवल के क्षपणाधिकार के आधार पर क्षपणासार की नवीन टीका लिख रहा हूँ ।"
एक अन्य पत्र में आपने लिखा था - " जो अवस्था आपकी है, देन । श्री पं० भूधरदासजी ने कहा है- " बालों ने वर्ण फेरा, रोगों ने स्मृति बनी हुई है, " सो बैठे-बैठे कुछ न कुछ लिखता रहता हूँ ।" उपयोग को सिद्धान्त ग्रन्थों में लगाये रखता हूँ ।"
.......
सो ही मेरी भी । ये सब वृद्धावस्था की शरीर घेरा" किन्तु अभी तक ग्रन्थों की " आर्त- रौद्र परिणाम न हों इसलिए ही
" आपकी बहुत हिम्मत थी जो इस बीमारी की अवस्था में भी आप कार्य करते रहते थे ।"
जहाँ तक मैं जानता हूँ आपने अन्तिम ४० वर्षों में ब्रह्मचर्य पूर्वक श्रावक के १२ व्रतों का निर्दोष पालन करते हुए एक आदर्श श्रावक का जीवन व्यतीत किया था । ७६ वें वर्ष में आप यह नर देह छोड़कर चल बसे । श्रापका जीवन संसार के प्रत्येक गृहस्थ के लिये अनुकरणीय है । मैं आपकी आत्म शान्ति के लिये हृदय से मंगल कामना करता हूँ ।
श्रद्धाञ्जलि
* पण्डित शान्तिकुमार बड़जात्या साहित्यशास्त्री, केकड़ी
पूज्य विद्वद्वर्य स्वर्गीय श्री रतनचन्दजी मुख्तार सा० दिगम्बर जैन समाज के मान्य विद्वानों में से एक थे । प्रारम्भ में आपके द्वारा 'जैनसन्देश' में 'शङ्का समाधान' स्तम्भ के अन्तर्गत स्वाध्यायप्रेमी महानुभावों की शङ्कायों के निष्पक्ष रूप से जो समाधान प्रस्तुत किये गये, वे आज भी संग्रह एवं प्रकाशन योग्य हैं। उसके बाद आपने दिगम्बर जैन महा सभा के मुख पत्र 'जैन गजट' में 'शङ्का - समाधान' विभाग को वर्षों तक जिस उत्तमता एवं निष्पक्षता से संचालित किया, वह समाज के इतिहास में चिरस्मरणीय रहेगा। मुझे ग्रापसे व्यक्तिगत रूप से भी परिचय का सौभाग्य प्राप्त हुआ था ।
मैं जब परम पूज्य तपोनिधि १०८ श्री जयसागरजी एवं नेमिसागरजी मुनिवर के संघ में संस्कृत अध्यापन के लिए था, उस समय धवल, जयधवल, महाधवल, गोम्मटसार ( कर्मकाण्ड, जीवकाण्ड) आदि महान् सिद्धान्तग्रन्थों का अध्ययन परम पूज्य मुनिराज के चरणसान्निध्य में बैठकर मुझ अल्पज्ञ द्वारा हुआ था । उस समय स्वाध्याय में उपस्थित होने वाले श्रोताओं की शङ्काओं के समाधान के लिए समाज के मान्य विद्वानों से सम्पर्क स्थापित किया गया लेकिन सभी ने मेरे सिद्धान्तग्रन्थों के स्वाध्याय सम्बन्धी विषय को दबाने का ही प्रयास किया । ऐसे समय में मात्र आप द्वारा मुझे पूर्ण आश्वासन मिला एवं उपस्थित शङ्कायों का शास्त्रीय प्रमारणों के आधार पर समाधान भी प्राप्त हुआ ।
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