Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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६२४ ]
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
अर्थ - 'इस कर्म के क्षय से सिद्धों के यह गुण उत्पन्न होता है' इस बात का ज्ञान कराने के लिये ये गाथायें यहाँ प्ररूपित की जाती हैं
गाथार्थ - जिस मोहनीयकर्म के उदय से जीव मिध्यात्व, कषाय और असंयम रूप से परिणमन करता है, उस मोहनीयकर्म के क्षय से सिद्धों के मिथ्यात्व के विपरीत सम्यक्त्वगुण की, कषाय ( रागद्वेष ) के विपरीत कषाय ( वीतराग ) गुण की, असंयम के विपरीत संयम ( चारित्र ) गुणों की प्राप्ति होती है ।
धवल कर्ता श्री वीरसेनाचार्य ने इस उपर्युक्त गाथा में सिद्धों के अकषाय अर्थात् वीतराग गुण और संयम ( चारित्र ) गुण को स्वीकार किया है ।
उवसमभावो उवसमसम्मं चरणं च तारिसं खइओ । खाइय गाणं दंसण सम्म चरितं च दाणादी ||८१६ ॥
मिच्छतिये तिचउक्के दोसु वि सिद्ध ेवि मूलभावा हु ।
तिग पण पणगं चउरो तिय दोणि य संभवा होंति ॥ ८२१॥ गो० क०
इन दो गाथाओं में श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने क्षायिकभावों में क्षायिकज्ञान, क्षायिकदर्शन, क्षायिकसम्यक्त्व, क्षायिकचारित्र, क्षायिकदानादि बतलाये हैं और सिद्धों में क्षायिकभाव व पारिणामिकभाव ये दो भाव बतलाये हैं । इसप्रकार इन गाथाओं द्वारा सिद्धों में क्षायिकचारित्र का सद्भाव स्वीकार किया गया है। श्री विद्यानन्दस्वामी ने भी श्लोकवार्तिक में कहा है
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"सिद्धानामत एव प्रदेशस्पंदाभावस्तेषामयोगध्यपदेश: समुच्छिन्न क्रियाप्रतिपातिध्यानाश्रयत्वासिद्ध रव्यपदेश्यचारित्रमयत्वात् कायादि वर्गणाभावाच्च सिद्धानां न योगोः युज्यने ।" ६।१।२ टीका ।
यहाँ यह बतलाया गया है कि सिद्ध अव्यपदेशचारित्र से तन्मय हैं । अध्याय १० सूत्र ९ की टीका में भी कहा है
सति तीर्थंकरे सिद्धिरसत्यपि च कस्यचित् । भवेदव्यपदेशेन चारित्रेण विनिश्चयात् ॥ १० ॥
श्री अमृतचन्द्र आचार्य ने भी तत्त्वार्थसार का उपसंहार करते हुए कहा है
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दर्शनज्ञानचारित्र गुणानां य इहाश्रयः ।
दर्शनज्ञान चारित्रत्रयमात्मैव स स्मृतः ॥ १६ ॥
दर्शन, ज्ञान, चारित्र गुणों का आश्रयभूत आत्मा है अतः दर्शन, ज्ञान, चारित्र में तीनों श्रात्मस्वरूप ही हैं।
यहाँ चारित्र को आत्मा का गुण बतलाते हुए आत्मस्वरूप बतलाया है । गुणों का नाश नहीं होता है यदि गुणों का नाश होने लगे तो द्रव्य के प्रभाव का प्रसंग श्रा जायगा । अतः सिद्धों में चारित्रगुण है जो सामायिकादि साधनरूप नहीं है, किन्तु साध्यरूप है इसलिये वह सामायिकादि पांच नामों से व्यपदिष्ट नहीं किया जा सकता है ।
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पुनः यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि चारित्रमोह के क्षयसे जो क्षायिकचारित्र उत्पन्न हुआ था और जिसे क्षायिकभाव के नौ भेदों में गिनाया गया है, क्या सिद्ध अवस्था प्राप्त होने पर उस क्षायिकचारित्र का अभाव हो जाता है ? या क्षायिकभाव शाश्वत है ?
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