Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan

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Page 850
________________ ८०६ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार । समाधान-समुद्र व प्रदीप निस्तरंग व निष्कम्प हैं, किन्तु वायु ( पवन ) का निमित्त मिलने पर समुद्र सरंग सहित व प्रदीप सकम्प हो जाता है और निमित्त दूर हो जाने पर उपरि (बाह्य में ) निस्तरंग व निष्कम्प हो जाते हैं। किन्तु नीचे ( अन्तरंग में ) सतरंग, सकम्प रहते हैं इसी प्रकार धर्मरुचि मुनिराज ने द्रव्य प्रत्याख्यान के द्वारा निमित्तों को दूर कर दिया था इसलिये मुनिराज बाह्य में निस्तरंग व निष्कम्प थे, किन्तु अंतरंग में कषायोदय के कारण नानाप्रकार के विकल्पों से सतरंग व सकम्प थे। इसप्रकार उक्त उदाहरण ठीक हैं। --जं. सं. 6-3-58/VI/र.ला. कटारिया, केकड़ी तीनों योगों को शुद्धि का उपाय शंका-त्रियोग की शुद्धि किस प्रकार हो सकती है ? समाधान-कपट अर्थात् मायाचारी के त्याग से और आर्जव धर्मपालन से मन, वचन, काय इन तीनों योगों की शद्धि हो सकती है। जो मन में हो वही वचन से कहना चाहिये और वही काय से करना चाहिये । पांचों पापों का त्यागकर मुनिव्रत धारण करने से अथवा विषय और कषाय का त्याग करने से मन, वचन, कायरूप योगों की शुद्धि होती है। धर्मध्यान व शुक्लध्यान के द्वारा ये तीनों योग शुद्ध होते हैं। -जै. ग. 12-8-71/VII/ रो. ला. मित्तल प्रतिक्रमण का स्वरूप शंका-प्रतिक्रमण का क्या स्वरूप है ? समाधान-गुरुओं के सामने पालोचना किये बिना संवेग और निर्वेद युक्त 'फिर से कभी ऐसा न करूंगा' यह कहकर अपराध से निवृत्त होना प्रतिक्रमणनाम का प्रायश्चित्त है । षट्खंडागम पु० १३, पृ०६०। -जं. सं. 27-3-58/VI/ कपूरीदेवी नग्नत्व : मूलगुण शंका-मुनि के २८ मूलगुणों में-जब पंच महाव्रतों में परिग्रह परित्याग महाव्रत है तो फिर-नग्नत्व नाम का पृथक् मूलगुण क्यों माना जाता है ? नग्नत्व का ग्रहण परिग्रहत्याग महाव्रत में क्यों नहीं होता? अट्ठाईस मूलगुणों पर ऐतिहासिक क्रम से प्रकाश डालिए और साथ में यह भी बताइए कि सम्यक्त्व को इनमें क्यों ग्रहण नहीं किया? समाधान-'परिग्रहत्याग महावत' के अन्दर नग्नत्व गभित है, किन्तु नग्नत्व को पृथक मूलगुण कहने का अभिप्राय लज्जा को जीतने का है। परिग्रह का सर्वथा त्याग करने पर भी यदि कोई मुनि खड़े होते समय या चलते समय अपने अंग को छिपाने के लिए पिच्छी को आगे कर लेता है तो उसके नग्नत्व मूलगुण में दूषण आ जाता है । २८ मूलगुरण प्रवाहरूप से अनादि से हैं और अनन्त काल तक रहेंगे क्योंकि जब से मोक्षमार्ग है तभी से २८ मलगण हैं और जब तक मोक्षमार्ग रहेगा उस समय तक २८ मूलगुण रहेंगे। २८ मूलगुण का पालन करना चारित्र है और चारित्र सम्यग्दर्शनपूर्वक होता है अतः २८ मूलगुणों में सम्यग्दर्शन ग्रहण नहीं किया है। -. सं. 28-6-56/VI/ र. ला. कटारिया केकड़ी मुनि एवं प्रोषधप्रतिमा शंका-गृहस्थावस्था में ग्रहण की हुई प्रोषधप्रतिमा का पालन मुनि के लिए आवश्यक है या नहीं ? अगर नहीं तो क्यों? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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