Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ८३१
चतुर्थगुणस्थान में चारित्र की अपेक्षा क्षायोपशमिक भाव नहीं समाधान-(ख) अब प्रश्न यह है कि क्या चतुर्थगुणस्थानवर्ती असंयतसम्यग्दृष्टि के चारित्र होता है ? यह प्रश्न ऐसा है जैसे कोई यह प्रश्न करे कि 'क्या मेरी माँ बंध्या है ?' एक ओर तो 'मेरी मां' ऐसा कहा जा र
री ओर बंध्या का प्रश्न किया जारहा है। जो मां है वह बंध्या कैसे हो सकती है? अर्थात नहीं हो सकती। जो बंध्या है वह 'मा' नहीं हो सकती। इसी प्रकार जो असंयतसम्यग्दृष्टि है उसके संयम कैसे हो सकता है ? अर्थात नहीं हो सकता। जिसके संयम है वह प्रसंयतसम्यग्दृष्टि नहीं हो सकता है।
यदि यह कहा जाय कि चारित्र को घात करनेवाली अनन्तानुबन्धीकषायरूप चारित्रमोहनीयकर्मप्रकृति के उदय का अभाव होने के कारण असंयतसम्यग्दृष्टि के चारित्र का अंश अवश्य प्रगट हो जाता है, सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि चारित्र को घात करने की अपेक्षा से अनन्तानुबन्धी को चारित्र मोहनीयप्रकृति नहीं की गई है, किन्तु चारित्र की विघातक अप्रत्याख्यानावरणादि चारित्रमोहनीयकर्मोदय के प्रवाह को अनन्तरूप कर देता है इसलिये अनन्तानबन्धीकषाय को चारित्रमोहनीयकर्मप्रकृति कहा गया है
"ण चाणताणुबंधि-चउक्कवावारो चारित्रे णि फलो अपच्चक्खाणादिअणंतोदयपवाहकारणस्स णिप्फलत्तविरोहा ।" ( धवल पु० ६ पृ० ४३ )
अतः अनन्तानुबन्धी के उदय के अभाव में अप्रत्याख्यानावरणादि कर्मोदय का अनन्तप्रवाह नहीं रहता है।
यदि अनन्तानुबन्धीकर्मोदय के अभाव में चारित्र की उत्पत्ति मानी जायगी तो तीसरे गुणस्थान में भी अनन्तानुबन्धीकर्मोदय के अभाव में चारित्र को उत्पत्ति माननी पड़ेगी जो कि किसी को भी इष्ट नहीं है । असंयम का कारण अप्रत्याख्यानावरणकर्मोदय है। अप्रत्याख्यानावरणकर्म का उदय प्रथम-मिथ्या दृष्टि गुणस्थान से असंयतसम्यग्दृष्टि नामक गुणस्थान तक पाया जाता है। अतः प्रथम चार गुणस्थानों को असंयत कहा गया है।
"समीचीना दृष्टिः भवा यस्यासौ सम्यग्दृष्टिः, असंयतश्चासौ सम्यग्दृष्टिश्च, असंयतसम्यग्दृष्टिः । असंजय इदि जं सम्माविट्रिस्स विसेसण-बयणं तमंतदीवयत्तावो हेदिल्लाणं सयल-गुणदाणाणमसंजदत्तं परवेदि।"
_जिसकी दृष्टि अर्थात् श्रद्धा समीचीन होती है उसे सम्यग्दृष्टि कहते हैं और संयमरहित सम्यग्दृष्टि को असंयतसम्यग्दष्टि कहते हैं। सम्यग्दृष्टि के लिये जो असंयत विशेषण दिया गया है, वह अंतदीपक है, इसलिये वह अपने से नीचे के समस्त गुणस्थानों के अर्थात् पहिले, दूसरे, तीसरे गुणस्थानों के भी असंयतपने का निरूपण करता है । ( धवल पु०१)
'कथमेवं मिथ्यात्वादित्रयं संसारकारणं साध्यतः सिद्धान्तविरोधो न भवेदिति चेन्न चारित्रमोहोदयंऽन्तरंगहेतौ सत्युत्पद्यमानयोरसंयममिथ्यासंयमयोरेकत्वेन विवक्षितत्वाच्चतुष्टयकारणत्वासिद्ध संसारणस्य तत एवाविरतिशम्देनासंयमसामान्यवाचिना बंधहेतोरसंयमस्थोपदेशघटनात।' श्लोकवातिक
अर्थ-यहां किसी का तर्क है कि मिथ्याचारित्र और असंयतसम्यग्दृष्टि का असंयम जब भिन्न भिन्न है तो संसार के कारण चार हुए। 'मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान मिथ्याचारित्र ये तीन ही संसार के कारण हैं, इस सिद्धान्त के साथ क्यों विरोध नहीं होगा? प्राचार्य उत्तर देते हैं कि ऐसी शंका ठीक नहीं है, क्योंकि मिथ्याचारित्र और चतुर्यगुणस्थान के असंयम इन दोनों का कारण चारित्रमोहनीयकर्म है। चारित्रमोहनीयकर्म के उदय होने पर प्रचारित्र ( असंयम ) व मिथ्याचारित्र उत्पन्न होने से इन दोनों की एकरूप से विवक्षा की गई है। अतः संसार
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