Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan

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Page 897
________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ८५३ त्रये तारतम्येन शुभोपयोगः, तदनन्तरमप्रमत्तादिक्षीणकषायान्तगुणस्थानषट्के तारतम्येन शुद्धोपयोगः । तदनन्तरं सयोग्ययोगिजिनगुणस्थानद्वये शुद्धोपयोगफलमिति भावार्थः।" प्राभृतशास्त्र में १४ गुणस्थानों की अपेक्षा उन्हीं शुभ-अशुभ और शुद्ध इन तीन उपयोगों का संक्षेप से कथन किया गया है। प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान, दूसरा सासादन गुणस्थान और तीसरा मिश्रगुणस्थान इन तीन गुणस्थानों में तारतम्य से कम-कम होता हुआ अशुभोपयोग है । इसके पश्चात् चौथा असंयतसम्यग्दृष्टि गुरणस्थान, पाँचवाँ देशविरत मुरणस्थान, छठा प्रमत्तसंयत गुरणस्थान इन तीन गुणस्थानों में तारतम्य से बढ़ता हुआ शुभोपयोग है। उसके पश्चात् सातवें अप्रमत्त गुणस्थान से लेकर बारहवें क्षीणकषाय गुगस्थान तक इन छह गुणस्थानों में तारतम्य से बढ़ता हुआ शुद्धोपयोग है । सयोगिजिन और अयोगिजिनरूप तेरहवें चौदहवें गुणस्थानों में शुद्धोपयोग का फल है। इस कथन से स्पष्ट हो जाता है कि शुद्धोपयोग की शुरुआत सातवेंगुणस्थान से होती है और आठवें आदि गुणस्थानों में वह वृद्धि को प्राप्त होता रहता है। शुद्धोपयोग के पर्यायवाची नामों से भी यही सिद्ध होता है कि चतुर्थगुणस्थान में शुद्धोपयोग की शुरुआत नहीं होती है। साम्यं स्वास्थ्यं समाधिश्च योगश्चिन्तानिरोधनम । शद्धोपयोग इत्येते भवन्त्येकार्थ वाचकाः ॥ षटप्राभूत संग्रह टीका साम्य, स्वास्थ्य, समाधि, योग, चिन्तानिरोध और शुद्धोपयोग ये सब एकार्थ के वाचक हैं । षट्प्राभृत-संग्रह टीका, पद्मनन्दि पंचविंशति ४१६४ "सर्वपरित्यागः परमोपेक्षासंयमोवीतरागचारित्रं शवोपयोग इति यावदेकार्थः।" प्रवचनसार गा० २३० टोका सर्वपरित्याग, परमोपेक्षा संयम, वीतरागचारित्र, शुद्धोपयोग ये सब एकार्थ के वाचक हैं । -ज.ग. 31-12-70/VII/ अमृतलाल शंका-चतुर्भगुणस्थानवी जीव के निर्विकल्प अनुभूति का काल कितना है ? समाधान-चतुर्थगुणस्थान में निर्विकल्प अनुभूति होना ही असम्भव है। किसी भी असंयतसम्यक्त्वी को निर्विकल्प अनुभूति नहीं हो सकती। -पलाधार 25-6-79/ ज. ला. जैन, भीण्डर चतुर्थ गुणस्थानवर्ती का सम्यक्त्वाचरण चारित्रगुण को पर्याय नहीं है शंका-क्या चतुर्थ गुणस्थान में सम्यक्त्वाचरण चारित्र नहीं होता है ? यदि होता है तो किसप्रकृति के अभाव में होता है ? समाधान-जो आचरण सम्यक्त्वगुण का बाधक है वह आचरण चतुर्थ गुणस्थान वर्ती प्रसंयतसम्यग्दृष्टि के नहीं होता है । जैसे कुदेव कुगुरु आदि की प्रशंसा, स्तवन प्रादि, देवमूढ़ता, गुरुमूढ़ता, लोकमूढ़ता आदि जिन-वचन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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