Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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इसलिये कार्य में कारण का उपचार करके यह कहने में विरोध नहीं आता कि ज्ञान पदार्थों में व्याप्त होकर वर्तता है।
"चेतयंते अनुभवन्ति उपलभंते विवंतीत्येकार्थः।" पंचास्तिकाय गा० ३८ टीका। अर्थ-चेतता है, अनुभव करता है, उपलब्ध करता है, वेदन करता है, ये एकाथं हैं ।
इसप्रकार प्रवचनसार और पंचास्तिकाय की टीका में श्री अमृतचन्द्र आचार्य ने संवेदन का अर्थ ज्ञान है। अतः स्वसंवेदन का अर्थ स्व का ज्ञान हो जाता है श्री नागसेन आचार्य ने तत्वानुशासन में कहा है
वेद्यत्वं वेदकत्वं च यत्स्वस्य स्वेन योगिनः।
तत्स्वसंवेदनं प्राहुरात्मनोऽनुभवं दृशम् ॥१६१॥ अर्थ-योगियों को जो स्वयं के द्वारा जो स्वयं का जयपना और ज्ञातापन है उसका नाम स्वसंवेदन है। उसी को आत्मा का अनुभव या दर्शन कहते हैं।
इससे इतना और स्पष्ट हो जाता है कि स्व का ज्ञान अर्थात् स्वसंवेदन यथार्थरूप से योगियों को होता है।
"ननु स्वसंवेदनभेक्ष्मन्यवपि प्रत्यक्षमस्ति तत्कथं नोकमिति न वाच्यम: तस्य सखाविज्ञानस्वरूपसंवेदनस्य मानसप्रत्यक्षत्वात्, इन्द्रिय ज्ञानस्वरूपसंवेदनस्य चेन्द्रिय समक्षत्वात् । अन्यथा तस्य स्वव्यवसायायोगात् । स्मृत्यादि स्वरूपसवेदनं मानसमेवेति नायरं स्वसंवेदनं नामाध्यक्षमस्ति ।"( प्रमेयरत्नमाला २१५ )
अर्थ-कोई शंका करता है एक अन्य भी स्वसंवेदनप्रत्यक्ष है उसे आपने क्यों नहीं कहा ? ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि सुख, दुःख श्रादि के ज्ञानस्वरूप जो स्वसंवेदन होता है, उसका मानस प्रत्यक्ष में अन्तर्भाव हो जाता है और जो इन्द्रियज्ञान स्वरूप संवेदन होता है, उसका इन्द्रिय प्रत्यक्ष में अन्तर्भाव हो जाता है। यदि ऐसा न मान जाय तो स्वसंवेदनरूप ज्ञान के स्वव्यवसायकता नहीं बन सकती है। तथा स्मृति आदि स्वरूप जो संवेदन होता है वह भी मामस प्रत्यक्ष ही है। इसलिये इससे भिन्न स्वसंवेदन नाम का कोई प्रत्यक्ष नहीं है।
इसप्रकार स्व के ज्ञान को स्वसंवेदन कहा गया है जिसका मानसप्रत्यक्ष व इन्द्रिय में अन्तर्भाव हो जाता है।
"स्वरूपेचरणं चारित्रमिति वीतरागं चारित्रं ।" परमात्म प्रकाश २।४० ।
अर्थ-स्वरूप में चरणरूप जो चारित्र, वह वीतरागचारित्र है। "रागद्वेषाभावलक्षणं परमं यथाख्यातरूपं स्वरूपे चरणं निश्चयचारित्रं मणन्ति ।" परमात्म प्रकाश २।३६ ।
अर्थ-रागद्वेष का अभाव है लक्षण जिसका ऐसे परम यथाख्यातरूप स्वरूपाचरण को चारित्र कहा है । "स्वरूपे चरणं चारित्रमिति" पंचास्तिकाय गा० १५४ की टीका, प्रवचनसार गाथा ९ की टीका। अर्थात स्वरूप में जो चर्या वह चारित्र है।
इन प्रार्ष प्रमाणों से स्पष्ट है कि स्वरूपाचरण चारित्रगुण की पर्याय है जो रागद्वेष का अभाव होने पर ग्यारहवें प्रादि गुणस्थानों में होता है। इसीलिये स्वरूपाचरण को वीतरागचारित्र कहा गया है। अतः स्वमवेदन ज्ञान है और स्वरूपाचरण चारित्र है दोनों भिन्न-भिन्न गुणों की पर्याय है।
-वं. ग. 19-2-70/VI/ कैलाशचन्द राजा टॉयज, दिल्ली
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