Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ८७१
संस्कृत टीका-सम्यक्त्वचारित्रे ये सूरयः शुद्धाः सम्यक्त्वदोषरहिताः सम्यक्त्वगुणसहिताश्च भवन्ति ।
-जं. ग. 4-9-75/VIII/ सुलतानसिंह
(१) चतुर्ण गुणस्थान में "चारित्र स्पर्शन" या चारित्र की प्राथमिक
अवस्था नहीं है। (२) रुचि प्रतीति, श्रद्धा व स्पर्श शब्दों में अन्तर
शंका-१८ दिसम्बर १९६९ के 'जैन सन्देश' में लिखा है-"श्री वीरसेनस्वामी ने चारित्र के साथ 'स्पर्शन' शब्द का व्यवहार तो बहुत ही उचित किया है यह चारित्र की प्राथमिक अवस्था का द्योतक है।" क्या ज्ञान का फल चारित्र की प्राथमिक अवस्था हो है ? यदि ऐसा है तो वसवें गुणस्थान का व ग्यारहवें बारहवें गुणस्थान का चारित्र किसका फल है ? रुचि, प्रतीति, श्रद्धा, स्पर्श शब्दों में क्या अन्तर है।
समाधान-धवल पु. १ पृ० ३५३ पर ज्ञान के कार्य का कथन श्री वीरसेन आचार्य ने इस प्रकार किया है-"कि तदानकार्यमिति चेत्तत्त्वार्थे रुचिः प्रत्ययः श्रद्धा चारित्रस्पर्शनं च" यहाँ पर रुचि प्रतीति श्रद्धा और स्पर्श का प्रयोग हआ जिनका अर्थ इस प्रकार है
"श्रदधाति च तत्र विपरीताभिनिवेशरहितो भवति । प्रत्येति च मोक्षहेतुभूतत्वेन यथावत्तत्प्रतिपद्यते, रोचते च मोक्षकारणतया तवैव रुचि करोति । मोक्षयित्वात्तत्साधनतया स्पर्शति अवगाहयति ।"
भावपाहुड़ गा. ८२ टीका
विपरीताभिनिवेश से रहित होना 'श्रद्धा' है। 'प्रतीति' करता है अर्थात् प्रवेश करता है। रुचि का अर्थ इच्छा है। स्पर्शति का अर्थ अवगाहन करना, डुबकी लगाना है। 'चारित्रस्पर्शनं' का अर्थ 'चारित्र की प्राथमिक अवस्था' किसी भी प्राचार्य ने नहीं किया है। दि. जैन आचार्य महाराज ने तो 'स्पर्शन' शब्द का अर्थ अवगाहन किया है । कोष में अवगाहन का अर्थ डुबकी लगाना किया है । प्राथमिक अवस्था में डुबकी लगाना असंभव है।
सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय, यथाख्यात इन पांचोंरूप सकलचारित्र, संयमा. संयमरूप देशचारित्र और असंयमरूप अचारित्र. इस प्रकार चारित्र की तीन अवस्था है। इनमें से अच तो चारित्र की प्राथमिक अवस्था हो नहीं सकती, क्योंकि प्रचारित्र ( असंयम ) चारित्र के प्रभाव का द्योतक है। यदि अचारित्र का प्रथं चारित्र की प्राथमिक अवस्था किया जायगा तो मिथ्यात्वगणस्थान में भी चारित्र की प्राथमिक अवस्था का प्रसंग आजायगा, क्योंकि प्रथम चार गुणस्थानों में अचारित्र है अर्थात् चारित्र नहीं है। कहा भी है
"चारित्त गत्थि जदो अविरदअंतेसु ठाणेसु।" ( गो. जी. गा १२)
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